पथिक रचना



"लेखक परिचय" नाम :-'पथिक रचना' पिता का नाम:-'शिवदेव शर्मा पथिक'(साहित्यकार) माता का नाम:-प्रमिला शर्मा जन्मतिथि:-19 मई जन्मस्थान:-मुज्जफरपुर(बिहार) शिक्षा:-बी.एससीऑनर्स(वनस्पति विज्ञान), कम्प्यूटर टीचर ट्रेंनिंग कोर्स सृजन की विधाएँ:-कविताएं, आलेख,संस्मरण, दोहा, हाइकु, वर्ण पिरामिड,ताँका,सायली छंद मुक्तक,चित्रलेखन, तथा अन्य सीखने में प्रयासरत प्रकाशित कृतियाँ:-चित्रगुप्त प्रकाशन, पत्रिका काव्य स्पंदन(नई दिल्ली),वर्तमानअंकुर साहित्य (नॉएडा दिल्ली),अनुनाद (राँची, झारखंड) तथा अन्य से क्रमशः अनेक रचनाएँ प्रकाशित सम्मान:-आप सभी के बीच उपस्थित हूँ,यही मेरा सम्मान और सौभाग्य है।इस क्रम में विभिन्न साहित्यिक समूहों ने अक्सर सर्वश्रेठ रचनाकार कह कर मुझे अपना स्नेह और आशीर्वाद दिया है।मार्गदर्शन एवं उत्साहवर्धन के लिए उन्हें नमन करती हूँ। संप्रति:-गृहणी वर्तमान पता:- हल्द्वानी, नैनीताल, उत्तराखंड, भारत ईमेलआईडी:-pathikrachna1@gmail.com
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*** परिवर्तन ***
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है परिवर्तनशील जगत
यह दुनिया चलनेवाली है
इस धरती की परिक्रमा अरे!
मॉनसून बदलनेवाली है

पूरबवाला सूरज भी तब
पश्चिम जाकर इठलाता है
ढ़ल जाता है इस ओर और
उस ओर ज्योत फैलाता है

यह परिवर्तन जीवन की
हर दिशा बदलनेवाला है
कहीं बरसती है दौलत
और कहीं हुआ दीवाला है

परिवर्तन हीं तो जीवन है
फिर इससे भय खाना कैसा
कल मरना है सब मरते है
फिर इससे घबराना कैसा

कुछ नन्हीं कलियों को देखो
कल कुसुमित हो जाना है
खिले हुए जो पुष्प आज
कल उनको मुरझा जाना है

संघर्षों में चलनेवाला हीं 
अपनी मंजिल को पाता है
दृढ़ निश्चय करनेवाला हीं
काँटों में राह बनाता है

साँस-साँस में होता अंतर
पात-पात में है परिवर्तन
आज दुखों से है मन बोझल
होगा कल सुख काआवर्तन...
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स्वरचित 'पथिक रचना'
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30/06/2019
शीर्षक:-"क्या बला है जिंदगी"

कामना के जाल में, जंजाल सी यह जिंदगी...
आंँख में सागर छुपाए, मुस्कुराती जिंदगी... 
फैलता जब मन! समेटे, बन्दिनी सी जिंदगी... हर घड़ी लेती परीक्षा, प्रश्न है यह जिंदगी... 
घाव गहरे हैं मिले, तलवार सी यह ज़िंदगी... तैरने आता नहीं, मझधार सी यह जिंदगी...
फूल पाने की फिकर में, शूल सी यह जिंदगी...
स्वप्न होंगे सच सभी, इस झूठ में यह जिंदगी... 
अतृप्त हीं प्यासी, फिसलती रेत सी यह जिंदगी... 
जी सकूँ!यह जंग जारी, हार जाती जिंदगी... 
ढ़ो रही है लाश अपनी, क्या बला है जिंदगी...

स्वरचित 'पथिक रचना'
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विषय :-वजह

कितने हीं घर उजड़ने की वजह है शराब...

आज मेरी कलम, शराब और सिसकियों के बीच हीं उलझी है। आज दिन-भर के इंतजार के बाद शाम में,मेरी गृह-कार्य सहायिका की दो पुत्रियाँ उम्र क्रमश: 10/12 मेरे घर आईं। उन्होंने बताया कि मांँ को पापा ने मारा है। हाथ में चोट लगी है। यह उसके लिए कोई नई बात नहीं थी, न हीं मेरे लिए यह सुनना।

विगत 10 वर्षों से मेरे गृह-कार्य में वह मुझे अपना सहयोग देती रही है और इस बीच न जाने कितनी बार मैं उसे ऐसी चोटें खाते हुए देखती आई हूंँ। 
घर में अन्न हो न हो पर शराबियों के पेट में दारु तो जानी ही चाहिए।

तो मेरी सहायिका के पति महोदय उन्हीं में से एक हैं जो पत्नी और बच्चे के कमाए हुए पैसे माँग या छीन लेते हैं या न मिलने की स्थिति में घर का सामान बेचकर पी जाते हैं। 

जब भी सुबह अखबार हाथ में लेती हूंँ, शराब की वजह से होने वाली बर्बादियों की कई खबरें होती हैं। कितनी हीं मौतों की वजह होती है शराब। शराब का लती सस्ती और जहरीली शराब से भी परहेज नहीं करता और कई प्रकार के अपराध भी कर गुजरता है।

कभी-कभी तो एक ही परिवार के एक के बाद एक सभी पुरुष इस आदत के शिकार होते हैं।बेचारी औरत घर में बेटियों के पैदा होने पर खुश होती है कि कम से कम वह शराब तो नहीं पिएगी... 

किंतु दुर्भाग्य... कि वहीं बेटी,कम उम्र में ही अपने शराबी बाप के द्वारा, शराबी पति के घर ब्याह दी जाती है और फिर यही दुस्सह जिंदगी यहाँ भी उसका अभिनंदनकरती है। सुखी हैं वो सुरा रसपान से मदमस्त लोग... जो खुद को ब्रह्मा से ज्यादा समझते हैं, सड़क किनारे या किसी गंदे नाले या कूड़े के ढेर में पड़े हुए होते हैं।
दुखी औरतें अपना परिवार खत्म होते हुए देखने को विवश होती हैं।

जिस भी राज्य में शराब बंदी लागू हुई वहाँ तस्करी बढ़ गई,उपलब्धता बरकरार...
आखिर सरकार की नीतियांँ प्रतिबंध के बजाय उपलब्धता पर नियंत्रण क्यों नहीं करती हैं।
मेरा और मेरी सहायिका जैसे दुख के मारे परिवारों का वश चले तो हम
शराब की दुकान व कारखानों को हीं बंद करा दें... 
पर जब शराब से सरकारें मालामाल है तो उन्हें घर -परिवार का बेहाल होना क्यों कर दिखे !!!

स्वरचित 'पथिक रचना'
नमन भावों के मोती
23 /02/2019
नीर/अश्रु
अश्रु का करके वरण 
तुम पा नहीं सकते चमन
मुखरित हो मन का मौन तेरा
मत कर इसे दिल में दफन ।।


अनुभूतियों का कर मनन
हो सत्य का, शिव का चिंतन
कर! वेदना को त्यागकर
कोई नया सुंदर सृजन ।।

स्वरचित "पथिक रचना"

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08/01/2019
नमन भावों के मोती
"आहट"

इस निस्सीम प्रीत के दर की
हर आहट ने तुम्हें उचारा...
सच कहती हूँ मेरे दिल की
हर धड़कन ने तुम्हें पुकारा...


धरती की छाती पर उन्मत्त
घिर आये बादल हो जैसे...
तुम मेरी झुलसी धरती पर
वर्षा के अमृत कण जैसे...
भींग तुम्हारे स्नेह-धार में
इस जीवन को सदा सराहा...
सच कहती हूँ मैंने तुमको
हर पल अम्बर जितना चाहा...
स्वरचित 'पथिक रचना'
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नमन भावों के मोती मंच
31/12/2018
"' इस नववर्ष पर बचाये रखना""
बचाए रखना, सुंदर धरती के लिए अनन्त आभार...
आसमान के लिए एक गहरा सम्मोहन...
बचाए रखना,सूरज को स्वार्थ की धुंध से...
शीतल चाँदनी को अँधेरों से...
बचाए रखना, मधुर कलरव के लिए अपनी चकित दृष्टियाँ...
सुंदर फूलों के लिए रंगीन तितलियों का सा स्नेह...
बचाए रखना, घर के आँगन में विश्वास की हरियाली की छाँव...
रिश्तों की टहनी पर स्नेह के फूल...
बचाए रखना, भीड़ भरी दुनिया में एक सच्चा अपना...
उम्र के कटघरे में खड़ी साँसो के लिए थोड़ा बचपना...
सुख की नींद के लिए एक मीठा सपना...
मंजिल की ऊँचाइयों के लिए साहस-विश्वास बचाए रखना...
बचाए रखना, दीन-दुखियों के लिए थोड़े आँसू ...
थके बटोही के लिए विनम्र भाव...
पशुओं के प्रति भी थोड़ा लगाव...
बचाए रखना, कवि हृदय में सुंदर कल्पनाएं...
अर्थपूर्ण भावनाएं...
और नव वर्ष की ढ़ेर सारी शुभकामनाओं सहित अंत में यही कि...
बचाए रखना, सबसे कमजोर वक्त के लिए अपना सबसे मजबूत धैर्य...
स्वरचित "पथिक रचना"
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नमन भावों के मोती
17/12/2018
क्षणिका "'पुकार"'
प्रिये नाम तुम्हारा, सूनेपन में!
कितनी बार पुकार गया...
आवाज न तुम तक पहुँच सकी
सौ बार तुम्हारे द्वार गया...(1)
सूर्यदेव आयेंगे नभ में...
सूर्यमुखी कर रही पुकार!
साध यही पल-पल पलती है...
रजनी जब-जब ले विस्तार! (2)
(अतिरिक्त)
कविता...
कवि की पुकार
कभी युग-हुंकार
कभी प्रेम श्रृंगार
भावनाओं की बहती
अमिय-धार ...(3)
पुकार अनवरत...
व्याकुल प्रतीक्षारत...
टूटती सांसों से,
रुकने का अनुनय करती
वह बूढ़ी माँ...(4)
न पुकारो मुझे तुम!
मेरा नाम लेकर
कहीं याद मुझको
मेरी आ न जाये(5)
स्वरचित"'पथिक रचना"'
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भावों के मोती🙏
06/12/2018
तांका "भोर"
भोर की बेला
सिंदूरी भू अम्बर
गूंजता स्वर
भक्ति पूर्ण संगीत
प्रकृति गाती गीत
ऊर्जा-पूर्णित
उतरी नंगे पाँव
भोर की रश्मि
हर शहर-गाँव
प्रेरणादायी उर्मि
(अतिरिक्त)
हे दिनकर
दे सर्वोदय वर
प्रभात भर
जनमानस पर
हो प्रकाश प्रखर
स्वरचित "पथिक रचना"
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भावों के मोती
08/12/2018
""चंचल"'
आँगन में थी भीड़,
पुत्री की आज विदाई...
मैया रोये हाए!
बिटिया हुई पराई...
पिता रुग्ण से पड़े,
अश्रु वह पोछ रहे थे...
कैसे सहें जुदाई,
मन में सोच रहे थे...
चला पालकी ओर,
बहन को लेकर भाई...
कैसी है यह रीत,
घड़ी यह कैसी आई...
आँचल में बाँधे ,
गठरी अरमानों वाली...
चल दी कन्या दुल्हन बन कर,
दूजी डाली...
आँखों में उसके ,
थोड़ा आँसू ठहरा था...
सब कुछ पीछे छोड़आने का,
दुख गहरा था ...
चंचल मन था किंतु,
आज वह शांत बड़ा था...
जीवनसाथी हाथों में ले ,
हाथ खड़ा था...
स्वरचित "पथिक रचना"
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भावो के मोती🙏
07/12/2018
सीमा (पिरामिड लेखन)
है 
सीमा
भारत
सुरक्षित
वीर जवान
प्रहरी महान
हँसकर दे जान
है
आभा
प्रकृति
सीमाहीन
करें विचार
उचित आचार
अमूल्य उपहार
(अतिरिक्त)
है
नारी
साहस
सीमाहीन
तपस्या लीन
कुशल प्रवीण
समझना न दीन
है
मन
निस्सीम
मोह-जाल
लोभ का व्याल
कामना उछाल
हो मर्यादा बन्धन
स्वरचित "पथिक रचना"
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भावों के मोती🙏
04/12/2018
मोहभंग(छंदमुक्त)
मोह के हजारों रूप...
बदलता हर रोज स्वरूप...
मन पर मोहमय एक उन्माद की छाया...
वशीभूत होती मानव-काया...
मोह की माया से कोई बच न पाया।
मोह का होना है जरूरी...
अनुचित मोहभंग भी जरूरी...
परन्तु यूँ हीं नहीं होता मोहभंग!
नहीं! यूँ हीं नहीं होता कोई गौतम-बुद्ध...
यूँ हीं नहीं होती किसी की आत्मा-शुद्ध...
यूँ हीं नहीं होता प्राप्त ज्ञान...
सहज नहीं! यधोधरा के दर्द का भान...
निर्मोही वो!जिसका हो जाता है मोहभंग...
फिर कहाँ छू पाता है उसे कोई भी रंग...
जीने की इच्छा हीं तो होती है मोह!
इच्छाशक्ति की अभिव्यक्ति है मोह!
आकांक्षा पूर्ण करने की युक्ति है मोह!
लाख कह लो चाहे मोह को मिथ्या...
पर मोहभंग हीं कराता आत्महत्या ।
जब तक जिस्म में है जान,
इंसान है सिर्फ इंसान...
नहीं वह भगवान!
फिर कैसे हो आत्मा महान...?
कैसे मोहभंग इच्छाओं से...?
मोहभंग आकांक्षाओं से...?
क्या मोह को समझना खुद को मिटाना नहीं...?
क्या नहीं यह उदासीकरण...?
युवा पीढ़ी अपने लिए सुख सुविधा जुटाती...
आज बच्चों की जिम्मेदारी से कतराती...
ऐसा मोहभंग व्यर्थ...
जो न माँ-बाप बनना चाहे,
न माता-पिता की सेवा को हो समर्थ...
स्वरचित "पथिक रचना"

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भावों के मोती 🙏
29/11/2018
🌷तांका 🌷शांति🌷
शांति का मार्ग
सर्वदा आवश्यक
करें संकल्प
नहीं अन्य विकल्प
इतिहास गवाह
गाँव की नदी
मनोरम है कांति
अद्भुत शांति
कविता पनपती
होती गीतों की खेती
इतर
क्रोधित मति
अपरिमित क्षति
होती दुर्गति
बिखड़ते सम्बन्ध
हो शांति अनुबन्ध
कौरव-सभा
श्री कृष्ण शांति दूत
सन्धि-विमर्श
नहीं फलदायक
महाभारत-युद्ध
स्वरचित "पथिक रचना"
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भावों के मोती
22/11/2018
💐तांका 💐शब्द💐
शब्द-सामर्थ्य
भावना बिन व्यर्थ
गहरा अर्थ
उत्तम-अभिव्यक्ति
साधक है समर्थ
शब्द-बन्धन
रचना रामायण
ज्ञान-चिंतन
वेदों का संकलन
अज्ञानता-दलन
विचार-मूल
शाब्दिक-अभिव्यक्ति
चुभे न शूल
अन्तर्मन की शक्ति
लेखन अनुरक्ति
"पथिक रचना"स्वरचित
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23/11/2018
भावों के मोती 🙏
पिरामिड लेखन
""चाँद""
है
रात
पूनम
आभायुक्त
शोभायमान
इकलौता चाँद
लुभाता बहुत है

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भावों के मोती🙏
24/11/2018
💢पनघट💢
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सायली छंद(प्रथम प्रयास)
पनघट
राधा मोहन
भींगे प्रेम रंग
बाँसुरी संग
बेसुध
पनघट
कदम्ब छाँव
गोपियाँ पड़े पाँव
वस्त्र दो
मोहन!
पनघट
कालिंदी तट
बजी बाँसुरी अक्षयवट
खोलती पट
रश्मियाँ
पनघट
बना मरघट
बढ़ रहा प्रदूषण
फैलता जहर
कहर
स्वरचित "पथिक रचना"
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भावों के मोती 🙏
24/11/2018
🍂हाइकु🍂पर्व🍂
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राष्ट्रीय-पर्व
श्रेष्ठतम त्योहार
भारत गर्व (1)
पर्व-त्योहार
परम्परा आधार
स्नेह की धार (2)
पर्व है फीका
नागफनी सरीखा
साजन बिन (3)
पर्व-पावन
दिनकर वंदन
छठ महान (4)
पर्वों का देश
भारत कई वेश
प्रीति-अशेष (5)
स्वरचित "पथिक रचना"
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भावों के मोती🙏
25/11/2018
दोहा लेखन
**सागर**
गागर में सागर भरे,
दोहा सन्त कबीर ।
शब्द सरलतम रूप में,
भाव अधिक गम्भीर।।(1)
भव सागर में डूब कर,
पाते ज्ञान सुजान।
मद-माया से दूर जो,
वो जन हुए महान।।(2)
मइया तेरा क्रोध है,
जैसे सागर-ज्वार ।
ममता झाँके नैन से,
हृदय बरसता प्यार।।(3)
स्वरचित "पथिक रचना"

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नमन भावों के मोती
दोहा लेखन "जीवन"
18/11/2018
जीवन ज्योति जली रहे,
सुता जन्म सौभाग्य।
भर दे सुख आँगन सदा,
हरती दुख-दुर्भाग्य।।
पुण्यभाग जीवन मिला,
उत्तम बुद्धि - विचार।
मानव करना कर्म सदा,
बनो नहीं लाचार।।
जीवन चेतन जीव का,
नश्वर धरे शरीर।
गतिमय इस संसार में,
क्यों मन दुखी-अधीर।।
स्वरचित "पथिक रचना"
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नमन भावों के मोती
17/11/2018
💢दोहे 💢दान 💢
दान हमेशा दीजिये,
दीन-दुखी को पार्थ।
पुण्यभाग होता सदा,
नित करना परमार्थ।। (१)
ईश ज्ञान का दो हमें,
तुम ऐसा वरदान।
दुखियों की सेवा करे
मन देना धनवान।। (2)
स्वरचित "पथिक रचना" नैनीताल


भावों के मोती
17/11/2018
हाइकु"झील"
झील वलय
मदमाता मलय
शांत किनारा
उतरा रंग
इंद्रधनुषी झील
आकाश संग
अद्भुत-क्षण
नैनी झील दर्शन
हर्षित मन
झील भोपाल
होते नैना निहाल
रखो सम्भाल
तारों की थाल
झिलमिलाता-झील
मलयानिल
स्वरचित "पथिक रचना"
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नमन भावों के मोती
16/11/2018
पिरामिड लेखन
💢स्वप्न💢
हो
स्वप्न
साकार
सूत्रधार
भारत-जन
प्रगति-विस्तार
गरीबी का निस्तार (१)
है
बड़ी
चुनौती
दिवास्वप्न
सर्व-शिक्षण
ये मिथ्या-आलाप
अशिक्षा-अभिशाप (२)
स्वरचित "पथिक रचना"
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भावों के मोती
16/11/2018
हाइकु "तपन"
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भूख-अगन
पीड़ाएँ निर्वसन
आत्म-तपन
धरा-तपती
आसमान-सुराख
प्रकृति-राख
नारी-शोषण
दावानल-तपन
घोर-घुटन
माँ की तपन
वृद्धाश्रम-गमन
क्षुब्ध-आँचल
बरसे-घन
आये नहीं साजन
तपता-मन
स्वरचित"पथिक रचना" नैनीताल
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नमन भावों के मोती मंच
14/11/2018
"'बचपन"'
खुली यादों की पोटलियाँ,
गुदगुदाती नटखट गलतियाँ...
बीते हुए प्यारे पल-क्षिण,
बचपन के वो दिन...
सुख सागर में लेता गोता,
मन स्मृति का मीठा सोता...
बदमाशी में प्राप्त महारत,
तरह-तरह की करे शरारत...
मिलकर साथी उधम मचाते,
खूब चुराकर अमरूद खाते...
पत्थर मार तोड़ते आम,
बाधाएं सब दूर तमाम...
निश्छलता और मस्ती के दिन,
रहे न इक पल मित्रों के बिन...
मन में होता जब अवसाद,
आती मित्र मंडली याद...
बूढ़े हम चाहे हो जायें,
चाहे कितने व्यस्त...
उन लम्हों को फिर से जी के,
हो जाते हैं मस्त...
कभी कहीं गर दोस्त मिल जाए,
फिर से मन बच्चा हो जाए...
हँसता हुआ वो पल मिल जाए,
हर मुश्किल का हल मिल जाए...
स्वरचित"पथिक रचना"
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नमन भावों के मोती
शीर्षक:-कारखाना
विधा:- छंद मुक्त
14/11/2018
औद्योगिक क्रांति का युग,
आधुनिक विकासशील जगत और इस पर महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है "कारखाना"
सरल,सुविधा सम्पन्न जीवन किन्तु मुश्किल चुनौती भरे दिन.
हाँ! विकास तो बहुत हुआ, लेकिन यह कठोर यथार्थ भी...
परिवर्तन के स्वर्णिम काल को भेद रहा प्रदूषण का भाल,
खत्म होता खेती योग्य भूमि,
नहीं बचा मृदा का उपजाऊपन,
स्वच्छ-हवा जल और जीवन...
कल का लकड़हारा-मानव कुल्हाड़ी लिए वन-वन घूमता...
पेड़ से सूखी लकड़ियाँ इकट्ठा कर करता जीवन-यापन...
आज का बेसब्र मानव (भूचर)
आकाश में उड़ना चाहता है।
तेज हो गई कुल्हाड़ी की धार...
जिंदा पेड़ों को काटता, सुख की खोज में सृष्टि को ललकारता है।
सात सितारा होटल और गगन चुम्बी अट्टालिकाएं...
देखती है गौरेया भी अब घोंसला कहाँ बनाये।
सुनो!लपटों की अनुगूंज कारखानों से...
चिमनी से धधकती ज्वाला के ऊपर स्याह धुएँ से आज दिनकर का मुँह भी काला है...
अंधा नहीं है युग!मतवाला है..
आँखों पर बँधी है सुनहरी पट्टी..
जगत को बना दिया कारखानों की जलती भट्ठी...
उत्पन्न प्रदूषण,डगमगाती पृथ्वी,
काँपता आकाश...
जाने कब हो जाये उलट-पलट!
कारखानों में होती दुर्घटनाएँ...
कभी दबे, कभी जले, कभी कटे, कभी मरे गरीब मजदूर...
चित्कार,चीख- पुकार...
इस्पात ढ़ालते हाथों की मरोड़, थकन, दर्द-तमाम...
कारखाना मालिक के हाथों में सजता रहा जाम
प्रकृति की रगों से बहती खून की धार
और फिर भी आधी आबादी भूख से बेज़ार!?
(निम्नलिखित पंक्तियाँ प्रतियोगिता से अतिरिक्त)
विकासअविराम!
फिर धरा से नभ तक यह कैसा कोहराम!
सृष्टि की मर्म-पीड़ा से बेखबर
मानव-हृदय चट्टान सा कठोर
जहाँ संवेदना की धार सिर पटकती
मानव को अन्न चाहिए था,
वस्त्र चाहिए था, छत और छाया चाहिए थी...
फिर यह कैसी मारामारी!
क्या अब विकास के नाम पर सूर्योदय की दिशा निर्दिष्ट करने की तैयारी...!?
स्वरचित "पथिक रचना"
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नमन भावों के मोती मंच
12/11/2018
💢जुगनू💢
देखना!एक दिन मैं तुमसे दूर चली जाऊँगी,
हाँ मगर हद से जियादा फिर मैं याद आऊँगी ।
न तेरे साथ जीने का कोई वादा था किया,
न तेरे संग चलने का कोई भी इरादा था किया।
झील थी तैरते बतख थे गवाह
जब हमने बाँधी थी डोर,
देखना याद में मेरी चुपके से भींग जाऐंगे तेरे नैनों के कोर।
एक सुबह ने इक शाम का आलिंगन था किया,
शाम ने सुबह के माथे पर तब चुम्बन था लिया।
सर्द गालों पर मेरी छुअन को महसूसना,
नेह में डूबी सी प्यारी सी वो संवेदना ।
बिन मेरे भोर तो होगी कि न जिसमें लाली,
बिन मेरे शाम भी आएगी उदासी वाली।
किसी झड़ने से झड़ेंगी स्मृतियाँ मेरी,
कि पतझड़ भी मेरी यादें बिखेड़ जाएगा।
किसी बादल से कहोगे कि वो दिखलाए तुम्हें मेरी छवि,
वो तेरी पलकों पे बूंद बनके ठहर जाएगा।
मोड़ पर पेड़ भी होगा वही जुगनू वाला,
मुँह चिढ़ाएगा तुम्हें छत वो चाँद सितारों वाला।
पहाड़ियों की हवाओं में तुम्हें आएगी मेरी हीं महक,
मेरा अहसास बढ़ा देगा दिल में और कसक।
जब पुकारोगे मेरा नाम तुम घाटी में कहीं,
तब मचलती सी लौट आएगी अनुगूंज वहीं।
जो किसी झील के किनारे पर होगी तुम्हारी सुबहो-शाम,
दूर मंदिर की घण्टियाँ तब उचारेंगी मेरा हीं नाम।
कि किताब जब भी पलट लोगे तुम मेरे गीतों वाली,
आँखे रह जाऐंगी फिर नींद से खाली-खाली ।
तेरी आवाज सुने बिन मैं भी कैसे रह पाऊँगी,
हूक मन हीं में छुपा के मैं सब के बीच मुस्कुराऊँगी।
तुम महक किसी लोबान की तुम पीर की आराधना,
जीना तो होगा तेरे बिन चाहे लाख हो मन अनमना।
स्वरचित"पथिक रचना"
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भावों के मोती मंच को नमन
10/11/2018
हाइकु"क्रोध"
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मानव-क्रोध
यमराज का रूप
सहज बोध (१)
दुश्मन क्रोध
टकराव स्वयं से
उचित-शोध (२)
मनोविकार
अमर्ष की भावना
क्षुब्ध-कामना (३)
क्रोधित-जन
सदैव नुकसान
धन व मान (४)
क्रोध का वेग
प्रलयकारी संत्रास
सर्व-विनाश (५)
स्वरचित "पथिक रचना"
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नमन भावों के मोती मंच
10/11/2018
🌷आवाज🌷
जब भी तुम आवाज देते हो,
कोई जादू सा छा जाता है...
चाहे कोई भी मौसम हो,
पास ऋतुराज मुस्कुराता है...
कि सर्द धूप में आ जाती है थोड़ी सी तपिश,
ठूंठ में पल्लव सा
पनप जाता है...
हवाओं में घुली जाती है
फिर से खुशबू,
मन का अनुराग
छलक जाता है...
लौट आते है वो दिन
रंग के श्रृंगार के फिर,
मान-मनुहार के दिन
फिर से लौट आते है...
था प्रतीक्षित कभी जो
दिन तेरे अभिसार का,
लौट आता है वो दिन
फिर खिले बहार का...
स्वरचित"पथिक रचना"
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नमन भावों के मोती
27/09/2018
🌿विजय🌿
बात तब की जब मैं बच्ची थी।माँ के आँचल से बंधी...
अव्वल दर्जे की डरपोक....
यूँ तो होशियार थी। संस्कृत के सारे शब्द रूप मजे में याद हुए, किन्तु पहाड़ा याद करना मेरे लिए पहाड़ तोड़ने जैसा हीं था।आंगन में कोयले के चूल्हे पर रोटी बनाती माँ चाहती कि हम बच्चे पहाड़ा याद कर लें।जब माँ पढ़ाती...मेरे लब ऐसे चिपक जाते जैसे फिक्सो से चिपका दिया हो।आँगन वाला घर था और पिछवाड़े में एक बड़ा सा अमरूद का पेड़...
दिन-भर उसी पेड़ पर कूद-फांद करती पर रात को वह बड़ा डरावना लगता।अब पहाड़ा नहीं पढ़ो तो माँ कहती... पिछवाड़े में निकाल के दरवाजा बंद कर लूंगी।😢
खैर......!
पिछवाड़े वाला भूत बड़ा था, सो पहाड़ा याद हो गया....
(पहली विजय)...👍
अब आई मेंढ़क से डरने की बारी। मैं हमेशा फूल-पौधे लगाती रहती और क्यारी साफ करती रहती।अब बारिश के दिनों में फूलों के पौधे से चिपके घोंघे🐚 तो मैं हटा कर फेंक आती पर मेंढक देख सब छोड़ छाड़ कर रफूचक्कर हो जाती 😊
खैर.......!
आगे चलकर बायोलॉजी के प्रैक्टिकल में उन्हीं मेढ़कों को चीर-फाड़ कर उस डर से भी मिली मुक्ति
(दूसरी विजय...)👍
आगे की दास्तां....
मेरी बहन जो मुझसे चार साल बड़ी है, उसे किस्से कहानियाँ सुनाने का बड़ा शौक था।तो वह खूब मन लगाकर कहानियाँ गढ़ती और हम भाई बहनों और दोस्तों को सुनाती। जिसमें भूतों की प्रधानता होती।इस डर के बारे में मैं क्या बताऊँ😪
पूरा ग्रंथ लिखना पड़ेगा।
खैर.....
21 साल की थी, जब मेरी शादी हुई।फिर बेटी...अब बेटी को लेकर मैं अपनी कर्मभूमि ससुराल पहुँच गई...एक नन्हीं सी बेटी, पिताजी और घुम्मकड़ पति के साथ चार लोगों का हमारा परिवार था।मेरा मकान अंग्रेजों के जमाने का बनाया सरकारी आवास था।जिसमें आगे से पीछे तक पापा ने पूरा बागान बना रखा था।
बिल्कुल पेड़ों से घिरा बड़ा सा आँगन....
अक्सर शाम में पापा भी कहीं निकल हीं जाते थे। फिर तो मत पूछिए आलम कि तनहा कैसे गुजरती थी वह शाम.... एक पत्ते के खड़कने से मेरी जान निकल जाती थी😭
सभी खिड़की दरवाज़े बन्द करके बेटी को सीने से चिपका के मैं मुख्य दरवाजे से चिपक जाती।कान आहट पर,आँखें दरवाजे पर, और प्राण गले में अटका रहता।उस वक्त मोबाइल फोन भी नहीं था।
खैर......!
एक दिन रात में बेटी की तबियत बिगड़ी।वह उल्टियाँ करने लगी।इतनी सुस्त पड़ गई कि मैं बहुत डर गई।हालत बहुत बिगड़ रही थी...रात के 2 बजे थे।मैंने दरवाजा खोला और बेटी को लेकर पैदल हीं चल पड़ी।खूब कुत्ते भौंके।सड़क पर आकर एक चौकीदार मिला।उसे साथ लिया।फिर डॉक्टर से इंजेक्शन लगवाकर घर आई....
(तीसरी विजय)...👍
अब मैं माँ थी न!भूतों से भी लड़ गई....
आगे कब-कब,कहाँ- कहाँ, किस-किस डर से विजय मिली! फेहरिस्त लम्बी है और जारी भी....
स्वरचित 'पथिक रचना'
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भावों के मोती
06/11/2018
🌹रूप🌹
साँझ सलोनी मधु गागर ले,
थिरक रही है यमुना तट पर...
चुनती है चाँदनी, रूपसी राधा
लहरों की करवट पर...
लाज भरी राधा के मन का प्रणय-प्रदीप,प्रतीक्षाकुल है...
साँझ हुई अब आजा मोहन,
गागरवाली विरहाकुल है...
स्वरचित "पथिक रचना"

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नमन भावों के मोती मंच
05/11/2018
"तांका"धनवन्तरि/धन
क्षीर-मंथन
सम्मिलित प्रयास
देवता-दैत्य
अमृत का कलश
धनवंतरि वैद्य
धन-प्रभुत्व
पसरता साम्राज्य
लूट-खसोट
घटी ईमानदारी
लोभी सभी व्यापारी
स्वरचित "पथिक रचना"
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नमन भावों के मोती मंच
09/11/2018
"भाई दूज"
इस भैया दूज पर
सुनो भैया मेरे !
बहुत अजीब होता है...
लड़कियों का मायके से
ससुराल चले जाना ......
अपने हाथों में ...
धान, दूब, हल्दी वाले ....
सपनो की पोटली पकड़े
नैहर की ड्योढ़ी लाँघ जाना .....
पाँच बार अँजुरी में भरकर धान ...
लो भइया ! भर दिया तुम्हारा खलिहान
अजनबियों में बनाने चली हूँ पहचान
आसान नहीं है खुद को पराया कर जाना .....
ठीक ऐसे हीं चलकर आएगी एक दिन ...
किसी बाबुल के बगीचे की फूल...
महसूस करना तुम्हारे घर-आँगन का
खुशबू से महमहाना .....
जब आएगी भाभी ...
बाबुल से लेकर विदाई
तुम समझना मत उसको पराई
मेरे वीर ! आज तुम यह वचन दुहराना ...
तुम मत करना यह भूल...
स्त्री को न समझना पाँव की धूल
कि बहुत बुरा होता है.....
बाबुल के आँगन की पाजेब का
बेड़ियों में बदला जाना ....
स्वरचित "पथिक रचना"नैनीताल
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नमन भावों के मोती मंच
05/11/2018
हाइकु"आयुर्वेद/धन"
आयुर्वेदिक
नहीं है अतिश्योक्ति
रोग-विमुक्ति
प्राप्त आरोग्य
आयुर्वेदिक-दवा
सेवन योग्य
सच्चा है धन
परोपकारी-तन
विनम्र-मन
स्वरचित "पथिक रचना"

भावों के मोती मंच🙏
07/11/2018
दोहे,"दीपमाला/दीवाली/प्रेमदीप"
दीपमाल से सज रही,
आज अमावस रात।
देख!रौशनी दे रही,
अंधकार को मात।।(१)
प्रेमदीप है जल रहा,
डालो उसमें घृत।
मानव की संवेदना
नहीं कभी हो मृत।।(२)
बेचारे निर्धन सभी,
बहुत हुए लाचार।
दीवाली का पर्व यह,
व खर्चे कई हज़ार।।(३)
स्वरचित,"पथिक रचना"
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नमन भावों के मोती मंच
07/11/2018
💐दिवाली💐
दिवाली वह जो मानव मन में 
प्रेम-दिवा जला सकता हो...
फैले प्रेम-प्रकाश जन-जन में
राम-राज्य फिर ला सकता हो...
धनिक वही जो निर्धन के मुख
पर मुस्कान सजा सकता हो...
अपने संचित धन से थोड़ा
कर्म-पुण्य कमा सकता हो...
दीपक सा जो घोर-अमावस
जल कर ज्योति जगा सकता हो
अपने प्राणों की बाती से
जग अँधियार मिटा सकता हो...
योगी वह जो सुप्त धरा पर
आकर अलख जगा सकता हो...
जड़ता के इस बंजर वन में
ज्ञान पुष्प खिला सकता हो...
है कलम वही जो शब्दों के
स्वर का तूफान उठा सकता हो...
लेखन की सार्थकता वह
जो सच का मर्म बता सकता हो...
स्वरचित "पथिक रचना"
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भावों के मोती🙏
06/11/2018
हाइकु "रूप"
रूप-लगाव
अंतर्मन-जागृत
प्रेम का भाव
हाइकु-रूप
जापान की कविता
साहित्य-निधि
निखारे रूप
प्रभात की किरण
शरद-धूप
नारी-धारण
कनक-आभूषण
मोहिनी-रूप
रूप की माया
देव और मानव
बच न पाया
स्वरचित'पथिक रचना'
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नमन भावों के मोती मंच
08/11/2018
दोहे "गोवर्धन"
गोवर्धन का छत्र किया,
कृष्ण बड़े बलवान ।
क्रोधित राजा इंद्र का,
चूर किया अभिमान।।(१)
गोवर्धन त्योहार है,
आता कार्तिक मास।
पूजित गौ माता सदा,
ऐसा होता काश।।(२)
स्वरचित,"पथिक रचना"

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नमन भावों के मोती मंच
08/11/2018
पिरामिड "गोवर्धन"
हो
गऊ
सम्मान
गोवर्धन
उत्तम-धन
करते पूजन
भारतवासी-जन (१)
है
गाय
श्री-कृष्ण
गोवर्धन
पूजा-विधान
फल व मिष्ठान
यह पर्व महान(२)
की
रक्षा
धारण
गोवर्धन
मुरारी-कृष्ण
बलिहारी जन
इंद्र क्षमा याचन (३)
स्वरचित 'पथिक रचना'
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नमन भावों के मोती मंच
01/11/2018
हाइकु
🍄ममता🍄
कैसा समय?
हैं माता-पिता भारी
ममता हारी
पक्षी ममता
अद्भुत है क्षमता
नीड़-निर्माण
स्वार्थ-लीन
हुई ममताहीन
युवा-पीढ़ियाँ
नौ माह गर्भ
ममता की परीक्षा
करती रक्षा
ममतामयी
अनन्त उपकार
माँ का दुलार
स्वरचित'पथिक रचना'
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नमन भावों के मोती मंच
29/10/2018
🌹आध्यात्म🌹
हाइकु
कर्म-बंधन
आध्यात्मिक-चिंतन
आत्ममंथन
संचित-शक्ति
आध्यात्मिक व्यक्ति
मन-जागृति
गौतम बुद्ध
आध्यात्मिक-विचार
हो मन शुद्ध
नया-विहान
आध्यात्मिकता-ज्ञान
परमानंद
आध्यात्मवाद
दयालुता का भाव
मृदु-संवाद
स्वरचित 'पथिक रचना'
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भावों के मोती
16/10/2018
हमसफ़र
मेरे महबूब,मेरे हमसफ़र
कर रही देख! मैं तेरे बगैर बसर
ऐसा नहीं कि प्यार तुम नहीं करते
हाँ! मगर एतवार नहीं करते
मामूली सी बातों से यूँ बेतरहा...
अब तो हर रोज रुठ जाना तेरा
मुझसे दूर अब जाकर कहो!
तुम्हें सुकूंं तो मिला...?
हद से जियादा तेरे गिले हो गए
वक्त-बेवक्त के सिलसिले हो गए
मत कोसना मुझे इन हालात के लिए
मुलजिम बना के हम से
सवालात के लिए
अब पास न आना,तुम्हें मेरी है कसम!
हालत पे मेरी छोड़, मुझे मेरे सनम...
स्वरचित 'पथिक रचना'
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भावों के मोती
21/10/2018
रविवार स्वतन्त्र लेखन
"मैं कृष्णा तुम्हारा"
=============
न पुकारो तुम मुझको
करके मेरा पूजन -आराधन
पाना चाहो गर मेरी शरण
जो प्रेम को पहचान सको
तो मैं कृष्णा तुम्हारा।।
शुभ्र हो मन - दर्पण
राधा सा समर्पण
मीरा सा सर्वस्व-अर्पण
जो तुम कर सको
तो मैं कृष्णा तुम्हारा।।
चाहे हो घनघोर अँधियार
या हो पूनों की चाँद रात
मुरली की धुन जो सुन सको
तो मैं कृष्णा तुम्हारा।।
अहंकार को छोड़
सद्भावना की मटुकी फोड़
स्नेह का माखन
जो बाँट सको
तो मैं कृष्णा तुम्हारा।।
रिश्तों के बंधन
संतुलन का झूला
निश्छल विचारों की सरिता
जो बहा सको तो
तो मैं कृष्णा तुम्हारा।।
हटाकर घृणित - भावनाएँ
मिटाकर कुत्सित- कामनाएँ
किसी द्रौपदी का सम्मान
जो बचा सको
तो मैं कृष्णा तुम्हारा।।
हो अंतर्मन - चेतन
मर्यादित - आचरण
निर्मल पावन -ज्योत
जो जला सको
तो मैं कृष्णा तुम्हारा।।
स्वरचित'पथिक रचना'
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भावों के मोती
15/10/2018
लघु कविता
🍂वो दिन🍂
शरद ऋतु की गुनगुनी धूप...
आ बैठी हूँ अकेले हीं चुप...
याद करती हूँ...
एक गोल घेर बना कर
हम सबका बैठना...
माँ, दादी, बहनें और चाचियाँ...
हाथ में बुनता हुआ स्वेटर...
हंँसी-ठहाके,
सीखना -सिखाना...
वो दिन...सुकून से भरे...
जब चूल्हे जलते थे साथ...
सर पर था सभी बड़ों का हाथ...
आज की तरह सुविधा-भोगी
समाज न था...
साधन न हो फिर भी
किसी कमी का एहसास न था...
कोई भी तनहा- उदास न था...
दादी-नानी की कहानियों से
सपने रंगीन हुआ करते थे...
कोई भी बच्चा हताश न था...
सबको सबसे था
प्यार बेशुमार...
रिश्तेदार करते थे,
माँ-बाप से भी ज्यादा प्यार...
बड़े-बूढ़े सिखाते थे संस्कार...
सब उलझन मिल कर सुलझाया जाता था...
सबका था सभी पर पूर्ण अधिकार...
स्वरचित 'पथिक रचना'
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भावों के मोती
14/10/2018
"'चित्रलेखन"'
कोई बारूद का ढ़ेर...किसी जठराग्नि की धधकती ज्वाला का मुकाबला क्या करेगी?
अन्तरियों में लिपटे भूख-बम में जब आग लगती है... सबसे भयानक विस्फोट होता है।
पटाखे बनाना इस बच्ची की मजबूरी है, क्योंकि पेट भरने के लिए यह काम जरूरी है।बचपन उलझा यह लड़ियाँ गूँधने में,हाथ- पाँव सना बारूद में... उदास...पास में पड़े खाली बरतन को देखती भूखी-प्यासी आँखे यह सवाल करती हैं कि हम तो स्कूल जा हीं नहीं पाए।
पढ़े लिखे बच्चों की समझ में यह क्यों नहीं आता।दिवाली पर पैसे की इतनी बर्बादी क्यों...? प्रदूषण फैलाने की मानव को आज़ादी क्यों...!
काश इस दिवाली पर लोग हम बच्चों को मिठाई दिलाते,कपड़े दिलाते।हमें पेट-भर खाना खिलाते और हमारे साथ मुस्कुराते।काश इंसान स्वार्थ में इतना अंधा न होता,
तो प्रदूषण का जहरीला तीर , न भेदता आसमान की परत...
स्वरचित'पथिक रचना'

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भावों के मोती
14/10/2018
रविवार
स्वतंत्र लेखन
भाई बहनों का सम्बन्ध सदा अटूट और पूर्ण स्नेहमय बना रहे, और भाई बहन सदा ही एक दूसरे के पूरक बने रहें. इसी मनोकामना एवं शुभभावना के साथ -
मेरी एक रचना....🙏
"डोर"
एक धागा न समझना इसे, रेशम की डोर का,
यह जो है गाँठ, वह गिरह है-हृदय के कोर का...
भाई - बहन के प्यार का, अधिकार का सम्मान का,
एक उपक्रम है त्योहार, प्रेम सूत्र में बँधे विहान का...
अनमोल है!समझना न इसे चीज तुम बाजार का,
है इम्तहान-मर्यादा का, सहारे का, संस्कार का...
राखियों ने है रच दिया,पन्ना कई इतिहास का
सतरंगे डोर से रंगे- बँधे कई आश्वास का...
हुमायूँ पर कर्णावती की रक्षा के भार का
दो धर्म के दो छोर पर सुलह के आभार का...
साथ देने का वचन है , बहन के मान का,
कृष्णा ने बढ़ाया था हाथ, द्रौपदी सम्मान का...
रखना है लाज रक्षा - बंधन की रीत का,
कलाई राखी सजाये , बहन की प्रीत का...
कि डोर देख रही राह ! ऐसे क्रांति - वीर का,
जिन्हें हो आह! समाज की बहन की पीड़ का।
थाल दीपक जलाये किसी अभिलाष का,
भाल तिलक लगाये किसी विश्वास का...
स्वरचित 'पथिक रचना'
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भावों के मोती
13/10/2018
धुन🐥
जीवन संगीत है ये 
सुर तुम सजा लो
लिख डालो गीत कोई
आज गुनगुना लो
धुन कोई बना लो जी
आओ मुस्कुरा लो...
कल जाने क्या होगा
किसको खबर है ये
आज इन राहों में
मीत तुम बना लो
धुन कोई बना लो जी
आओ मुस्कुरा लो...
रूठा है तुमसे जो
साथी तुम्हारा तो
जाकर उसे तुम
गले से लगा लो
धुन कोई बना लो जी
आओ मुस्कुरा लो...
स्वरचित 'पथिक रचना'
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भावों के मोती
13/10/2018
हाइकु"'गति"'
लय में गति
महत्वपूर्ण यति
दोहा-विधान(१)
हुआ विहान
सूरज गतिमान
जगा जहान(२)
हैं गतिहीन
वनस्पति-जगत
सहते दीन(३)
पृथ्वी की गति
सूर्य की परिक्रमा
दिवस-रात्रि(४)
गति है प्राण
चलना हीं जीवन
रूकना मृत्यु(५)
स्वरचित 'पथिक रचना
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भावों के मोती
11/10/2018
वीरवार
"लघु कविता"
🌴वन-संपदा🌴
'हाइकु'
वन-संपदा
अमूल्य धरोहर
सुरक्षा सदा
वन-संपदा
शोषित वसुंधरा
दोहित-मृदा
वन-संपदा
रोग-मुक्त जीवन
पर्यावरण
वन-संपदा
धरोहर की रक्षा
करना सदा
शोषित हुई
आज वन-संपदा
वसुधा रोई
स्वरचित
'पथिक रचना'
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भावों के मोती
११/१०/२०१८
🌷कशिश🌷
तुम में आकर्षण बहुत है!
और विकर्षण भी कम नहीं...
हाँ!हृदय को झकझोरती हैं
अब भी तुम्हारी यादें...
मेरी इन धड़कनों में तुम्हारी स्मृतियों का संगीत बजता है...
ठहरी मीठी झील में
हमारे सानिध्य का अक्स उभरता है...
और अगले हीं पल
एक तीव्र भँवर में समाहित हो जाता है...
इंद्रधनुष के पुल से गुजरती हैं जब सतरंगी यादें...
एक बवंडर उन्हें रेगिस्तान की
प्यासी रेत में पटक आता है...
तुम्हारी यादों से महकती फूलों की घाटी से गुजरती हूँ...
और घाटी नागफनी के जंगल में तब्दील हो जाती है...
प्रीत बनकर बरसीं थीं कभी
जो अमृत की बूंदें...
वह आँखों का खारा समुंदर है अब...
तुम्हारी कशिश...!
मेरा खुद पर अनियंत्रण तो है...
पर नियंत्रण भी कम नहीं...
स्वरचित'पथिक रचना'
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भावों के मोती
10/10/2018
हाइकु ""माँ""
मेरे सदन
विराजो शैलपुत्री
करूँ वंदन
सजी रंगोली
आई तुम्हारी डोली
पधारो माता
माता की चौकी
सुमन समर्पण
भोग-अर्पण
"पथिक रचना"
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भावों के मोती
10/10/2018
❤️ माँ ❤️
अपने सपने तज कर सारे,
सुखी करे सन्तान को।
फिक्र सदा रहती है सबकी,
खुद से है अनजान वो।
बच्चों की गलती वो सारी,
पलभर में जाती है भूल।
हर लेती सब दुःख बीमारी,
राहों में बरसाए फूल।
'पथिक रचना'
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भावों के मोती
०८/१०/२०१८
"'घर"
"'घर"' यह शब्द सुनते हीं मेरे जेहन में मेरा घर सारे खिड़की-दरवाजे खोल...
अपनी दोनों बाँहें फैलाये...
हमारी प्रतीक्षा में खड़ा मिलता है...
हमेशा की तरह...
देहरी पार करने से लेकर वापस लौट कर आने तक...
हमारा रैन-बसेरा, बचपन का डेरा प्यारा घर...
यहीं अपनी माँ की मांग का सिंदूर धुलते देखा...
तब इसी घर की दीवारों ने हमें अपनी बाँहों में ले लिया था...
हरे रंग के दो पल्ले वाले दरवाजे के बीच चिटकनी चढ़ाकर हम खुद को घर के हवाले कर देते और महफूज हो जाते...
खिड़की से झाँक-झाँक कर माँ की प्रतीक्षा करते...
यहीं महकती थी जूही की कलियाँ...
गुलमोहर के पीछे से सूरज हमें बुलाता था...
यहीं बैठकर बाबूजी कवितायें लिखकर गाते थे...
इसी घर के आँगन में हमने सितारे गिनकर गिनती गिनना सीखा था...
यहीं चन्दा की छइयाँ में कुछ सपने बुनकर देखे थे...
इसी फर्श पर लिख-कर हमने पढ़ना- लिखना सीखा था...
यहीं पर रंग फैलाकर हम तस्वीर बनाया करते थे...
दोस्तों संग मिलकर खूब खेलते!नाचा-गाया करते थे...
वो घर हमेशा!बहुत-बहुत याद आता है...
स्वरचित 'पथिक रचना'
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/१०/२०१८
💐स्वतंत्र💐
❤️मेरे पिताजी से!❤️
पिता ! तुम्हीं हो रक्षक...
तुम हीँ मार्गप्रदर्शक
पिता ! तुम वट वृक्ष...
तुम्हीं ने दी मजबूती
पिता ! तुम हुए पीपल...
तुमसे छाँव तुम्हीं से जीवन
पिता ! हमारे नीम...
शुद्ध साँसों का सरगम
तुम हीं हो वह माली...
पल्लवित किया
सींचकर जिसने...
बगिया की हर डाली
हम मिट्टी के लोंदे...
तुम हो वह मेहनती कुम्हार
दिया हुआ तुमने हीं हमको...
सुगढ़ और मजबूत आकार
बचपन के अल्हड़ सपनों को भी...
दिया तुम्हीं ने ठोस आधार
शूलों पर खुद चले...
हमारे पथ पर पुष्प बिछाया
खुद लपटों में जलकर तुमने...
हमें दिया है शीतल छाया
तुम्हीं हो वह नाविक जिससे...
तरती है जीवन की नईया
हम सब के भगवान तुम्हीं हो...
तुम्हीं हमारे हो खेवईया...
स्वरचित 'पथिक रचना'

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भावों के मोती मंच को नमन
०६/१०/२०१८
शीर्षक :-🍁ऋतु🍁
एक ऋतु यादों की भी होती है,
जो सभी ऋतुओं के साथ-साथ चलती है।
उसके पास एक जादुई पोटली होती है।
धीमे कदमों से चल कर वह आती है,आपके मन का द्वार खटखटाती है और
आपको वह पोटली थमा जाती है।
उसे खोलते हीं आपके मन का मौसम बदल जाता है।
आज ऐसी हीं एक पोटली खोल दी है मैंने...
वही हवाऐं... वही धूप... वही ख़ुशबू... वही एहसास है।जागती यादें और मन का खुलता परत दर परत...
कुछ बचपन की अटखेलियाँ...
नदी में लगाई गई पहली डुबकी...
मछली का पकड़ना...
फूलों की क्यारी साफ करते हुए वहाँ साँप का निकल आना...
पहली बार चलाई गई साईकल...
स्कूटी सीखने में गिरना...
पहली रोटी गोल- गोल,बिना जली फूली हुई ...
पहली बार लगवाया गया इंजेक्शन...
गोदी में मिली पहली संतान...
भैया का मेरे सिक्के मिट्टी में गाड़ कर यह कहना कि पेड़ बनेगा खूब पैसे फलेंगे...
और चुपके से निकाल ले जाना...
मिट्टी से तो बहुत कुछ याद आया...
बैठी हूँ माँ दुर्गा की बनती प्रतिमा के पास...
दुर्गा पूजा की महकती यादों संग ...
झड़ते हरसिंगार के साथ...
गेंदा और गुलाब की माला लिए बैठी हूँ...
याद आती हैं उस ऋतु की हरएक बात...
और बचपन दे जाता है यादों की सौगात...
हमारा कुम्हार से मनुहार करना...
उससे काली मिट्टी मांग कर लाना...
दिए बनाना और स्थापित कलश के पास शाम में उन्हें जलाना ...
नवरात्रि में लाऊड स्पीकर पर क्लब में बजते भजन और
दुर्गा सप्तशती का पाठ...
आज भी कानों में वैसे हीं बजते है।
नवरात्रि आनेवाला है न!मन के यादों की ऋतु दुर्गा प्रतिमा की मिट्टी की उसी खुशबू से महक रही है।
स्वरचित'पथिक रचना'
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नमन भावों के मोती मंच
०६/१०/२०१८
शीर्षक :-ऋतु
देखो न!
सावन का ऋतु आ गया है...
तुम्हारे प्रेम से भींगा मन!
छंदानुवाद करने लगा है....
धूप से जले वन-उपवन मेंअब,
रंगबिरंगा रंग समा गया है...
तुम कब आओगे...!
बादलों से होड़
लगा बैठी हैं मेरी पलकें...
आँसुओं से धुलकर यादें
और भी ताज़ा हो गईं हैं
बाकी सब धुंधला गया है
बताओ न !
तुम कब आओगे...!
मेघ की गर्जनाओं का है शोर,
या कि मेरे धड़कनों का जोड़-तोड़...
है बन गई मेरे हृदय की पीड़,
हाए!तुम्हारी सुधियों की जंजीर...
मन बंधने लगा है
कहो न!
तुम कब आओगे...!
स्वरचित 'पथिक रचना'
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नमन भावों के मोती
03/10/2018
🐥माटी🐥
चार दिन की जिन्दगानी
है नहीं टिकती जवानी
खत्म हो जाती कहानी
अंत करती आग पानी!
काम न आता कोई धन
माटी का यह नश्वर तन...
चार दिनों का मान सम्मान
महल दुमहला आलीशान
झूठी है तेरी हर शान
जिस पर तुझको बड़ा गुमान!
कैसी यह तेरी भटकन
माटी का यह नश्वर तन...
जिस दिन निकले तेरी जान
और यह जिस्म हुआ बेजान
मिले राख में सब अरमान
इन बातों से तू अनजान !
प्रतिक्षण मेहमां है धड़कन
माटी का यह नश्वर तन...
यह तन मिट्टी हो जाएगा
कफ़न ओढ़कर सो जाएगा
भूल बैठा मौत को नादान
मोह माया में फंसी है जान!
कैसे प्रभु का हो दर्शन
माटी का यह नश्वर तन...
स्वरचित 'पथिक रचना'
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भावों के मोती
02/10/2018
प्रस्तुति(4)
❤️अहिंसा❤️
ऋषियों की यह तपोभूमि है
और अहिंसा इसका धर्म
लेकिन लहू बहाता मानव
करता रहता निर्मम कर्म
झूठ कपट की कुटिल बुद्धि से
भष्म हुआ मानवता का
कहता एक कसाई खुद को
आज पुजारी अहिंसा का
अब हिंसक की होती पूजा
हिंसा का सत्कार हुआ
खून के बदले खून बहा दे
निर्ममता से वार हुआ
स्वरचित 'पथिक रचना'
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नमन भावों के मोती
02/10/2018
🍂हाइकू🍂
सत्य, अहिंसा,जय जवान,जय किसान
🌼 🌼 🌼
प्रस्तुति( 3)
जीवन सत्य
बदले प्रतिक्षण
नश्वर तन
शाश्वत सत्य
जैविक विघटन
जीव मरण
उगाता धान
धरती वरदान
जय किसान
बना महान
अखिल श्रमदान
जय जवान
मानव कर्म
पावन सर्वोत्तम
अहिंसा धर्म
गौतम बुद्ध
अहिंसा उपदेश
प्रिय संदेश
गौतम बुद्ध
बदला इतिहास
अशोक युद्ध
बुद्ध शरण
अहिंसा का सिद्धान्त
अनुसरण
स्वरचित 'पथिक रचना'
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मन भावों के मोती मंच
02/10/2018
प्रस्तुति ( 2)
💐सत्य💐
असत्य पहन कर विजय हार
झूठी जयकार मनाता है...
सत्य खड़ा चौराहे पर
झूठों के जूते खाता है...
तालियाँ झूठ पर बजती हैं
लाचार सत्य झुक जाता है...
सीता की होती अग्नि परीक्षा
देश निकाला जाता है...
हर झूठा एक खिलाड़ी है
बेईमान वीर कहलाता है...
वह जीने का अधिकारी है
जो पाप छुपा ले जाता है...
इंसान न्याय की वेदी पर
ईसा का खून चढ़ाता है...
सच कहनेवाला दुनिया में
दुख चाहे बहुत उठाता है...
कोई बनकर के हरिश्चन्द्र
फिर राह दिखाने आता है...
नाथू की गोली खाकर भी
तब गांधी जीवित रहता है...
सच की होती है विजय सदा
असत्य पराजित होता है...
स्वरचित 'पथिक रचना'
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नमन भावों के मोती मंच
02/10/2018
प्रस्तुति (1)
🌱जय-जवान जय- किसान🌱
निकला है सूरज
कि आया है भोर...
होने लगी देखो
धरती इजोर...
चलो खेतों की ओर...
देश के किसानों
तू हिम्मत न छोड़...
लहराऐंगी फसलें
मन लगा हिलोर...
चलो खेतों की ओर...
चाहे मेहनत के
रस्ते में काँटें मिले...
तुम्हें चलना है
धरती की कलियाँ खिले...
उठा ले कुदाल
उठ लगा दे न जोर...
चलो खेतों की ओर...
बिजली गिरे चाहे
जलते हों पाँव...
चाहे न मिलता हो
एक पल भी ठाँव...
बादल मचाते रहें
चाहे शोर...
चलो खेतों की ओर...
करते नही दुख
कभी तुम बयान...
मिलती हो रोटी या
निकलें हों प्राण...
जय-जय जवान
जय-जय हो किसान
होता है मन मेरा
भाव से विभोर...
चलो खेतों की ओर...
☘️ ☘️ ☘️
स्वरचित 'पथिक रचना'
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नमन भावों के मोती
01/10/2018
☘️लघु कविता☘️
🌷गुलशन/प्रीत🌷
🥀🥀🥀🥀
गुलशन गुलशन प्रीत पले...
धरती पर ऐसी रीत चले...
दो हृदयों का अति मधुर मिलन...
अनुराग भरा हो आलिंगन...
जीवन सुख दुःख की विकट पहेली...
है कोई!जिसने व्यथा न झेली...?
दिवस गया रजनी आई...
चहुँ ओर हुआ है परिवर्तन...
विरह-मिलन की बहती धारा...
रह-रह करती आवर्तन...
यह प्रभापूर्ण विस्तृत अम्बर...
रश्मि बिखेर रहा दिनकर...
आकर्षक घन बरसाता जल...
हो सरिता का उद्गम अविरल...
सर्वत्र खिले कुसुमित बसंत...
सकल प्रबल हो स्नेह अनन्त...
***********************
स्वरचित 'पथिक रचना'
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नमन भावों के मोती मंच
01/10/2018
🌼हाइकु🌼
🌿"'रंग"'🌿
जीवन राग
अद्भुत अनुराग
रंगता मन
प्रकृति संग
आनन्दित जीवन
सुंदर रंग
रंग विलीन
प्रताड़ित धरती
मानव लीन
तिरंगा रंग
शहीद का कफ़न
करें नमन
सरिता संग
किरण थिरकती
हँसते रंग
स्वरचित 'पथिक रचना'

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नमन भावों के मोती मंच
30/09/2018
स्वतंत्र विषय लेखन
🌺 "'पायल"'🌺
पायल सजे तुम्हारे चरण,
जब से पड़े मेरे घर-आंगन
मेरी सुबह की छम- छम तुम
तुम्हीं मेरी शाम का झनकार हुई।
दिन मेरे खुशियों का सौगात
रातें रहीं तुम्हारी कायल
साँसों में बस छम-छम , छम-छम
बजती रही तुम्हारी पायल ।।
ओ प्रिये ! मनवासिनी मेरी,
मुझे अकेला कर के जाना !
जाने तुम क्यों चली गई हो
मुझसे रिश्ता तोड़ गई हो ।
बैठा हूँ बस गुमसुम - गुपचुप
हुआ किया यादों से घायल
कानों में बस छम-छम, छम-छम
बजती रही तुम्हारी पायल ।।
एक आँख अब दिन ना भाता
मन मेरा बस बिरहा गाता
रातें भी है सहमी-सहमी
सन्नाटों की गहमा-गहमी।
लौट आओ ! तुम्हारी याद समुन्दर
जिसका कोई नहीं है साहल
कानों में बस छम-छम , छम-छम
बजती रही तुम्हारी पायल ।।
स्वरचित
"पथिक रचना"
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नमन भावों के मोती मंच
30/09/2018
स्वतंत्र विषय लेखन
🌺 "'पायल"'🌺
पायल सजे तुम्हारे चरण,
जब से पड़े मेरे घर-आंगन
मेरी सुबह की छम- छम तुम
तुम्हीं मेरी शाम का झनकार हुई।
दिन मेरे खुशियों का सौगात
रातें रहीं तुम्हारी कायल
साँसों में बस छम-छम , छम-छम
बजती रही तुम्हारी पायल ।।
ओ प्रिये ! मनवासिनी मेरी,
मुझे अकेला कर के जाना !
जाने तुम क्यों चली गई हो
मुझसे रिश्ता तोड़ गई हो ।
बैठा हूँ बस गुमसुम - गुपचुप
हुआ किया यादों से घायल
कानों में बस छम-छम, छम-छम
बजती रही तुम्हारी पायल ।।
एक आँख अब दिन ना भाता
मन मेरा बस बिरहा गाता
रातें भी है सहमी-सहमी
सन्नाटों की गहमा-गहमी।
लौट आओ ! तुम्हारी याद समुन्दर
जिसका कोई नहीं है साहल
कानों में बस छम-छम , छम-छम
बजती रही तुम्हारी पायल ।।
स्वरचित
"पथिक रचना"
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हर लम्हा मैं कुदरत के
करीब हो जाऊँ...
मेरी रूह एक सुकून में खो जाए ...
न कोई कोलाहल हो...
न हो कोई व्यग्रता...
सब दुःख भूल कर...
ऐसी मदहोश हो जाऊं...
दूर किसी मंदिर से आती ...
घण्टियों की मधुर धुन...
और गूंजता मंत्रोच्चार
का पावन संगीत...
हर दिशा दिशा पुकारे
जैसे लेकर मेरा नाम...
प्रतिध्वनि कुछ ऐसी!
कि खुद से खुद की
पहचान करा जाऊं...
इस अनुगूंज में ऐसी खो जाऊँ ...
कि धन, पद, मान सब छोड़
कर बस प्रभु की हो जाऊँ....
स्वरचित 'पथिक रचना'
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"हाइकु"
2909/2018
💢विराम💢
सलोनी साँझ
दिनकर विराम
नैनाभिराम
पाण्डव जीत
अन्याय पराजित
युद्ध विराम
भाव अनंत
लेखनी अविराम
नहीं विराम
पथिक चला
कर अल्प विराम
ढ़लती शाम
सारथी कृष्ण
अर्जुन का विराम
गीता का ज्ञान
स्वरचित
पथिक रचना
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तुम्हें मैं याद हर पल,हर घड़ी ,हर बार करती हूँ....
बताऊँ मैं तुम्हें कैसे कि कितना प्यार करती हूँ...
सदा मैं मौन रहती हूँ कि चुपके आह भरती हूँ....
बताऊँ मैं तुम्हें कैसे कि कितना प्यार करती हूँ...
दबी है आग सीने में कहाँ इजहार करती हूँ...
बताऊँ मैं तुम्हें कैसे कि कितना प्यार करती हूँ...
प्रणय की आग में जलना सदा स्वीकार करती हूँ...
बताऊँ मैं तुम्हें कैसे कि कितना प्यार करती हूँ...
स्वरचित 'पथिक रचना'

दूर मुझसे! तुम बहुत दूर
यूँ जाया न करो...
दूर जाकर मेरी धड़कन को
बढ़ाया न करो...
कैसे कह दूँ कि तुम्हें 
प्यार नहीं करती हूँ...
आँखे कर देती है चुगली
छुपाया करती हूँ....
कभी समझो मुझे तुम और
कभी समझाया करो
कभी कुछ पल मेरी पहलू में
मुस्कुराया करो...
दूर मुझसे! तुम बहुत दूर
यूँ जाया न करो...
स्वरचित 'पथिक रचना'

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नमन भावों के मोती मंच
29/09/2018
🍂लम्हें🍂
वह लम्हें कितने अच्छे थे....
जब तुम मुस्काया करते थे
तेरी आँखों के सागर में
जब मेरे अक्स उभरते थे
जब थाम के यूँ तुम हाथ मेरा
आश्वास जताया करते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...
जब भी तुम हँसकर मुझको
इक चपत जमाया करते थे
और सोने जो लग जाऊँ मैं
गुदगुदी लगाया करते थे
मेरी इक आवाज जो सुन लो
तुम भागे आ जाते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे....
जब किसी खेल में हारूँ तो
तुम बहुत चिढ़ाया करते थे
और जब मैं रुठ जाती थी
तुम मुझे मनाया करते थे
यूँ हीं बेमतलब दूर कहीं
हम दूर कहीं हो आते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...
तुम मेरी सुबह के सूरज
जीवन में रंग यूँ भरते थे
जब भी होती थी धूप कभी
तुम छतरी बन कर तनते थे
मेरी खुशियों के लिए सभी
तकलीफ उठाया करते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...
तुम हीं मेरी अमावस में
दीपक प्रकाश बन जलते थे
तुमसे हीं थी चाँद रात
बन चादर लिपटे रहते थे
मुझपर कोई मुश्किल आये
"मैं हूँ न" ऐसा कहते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...
संग तेरे चाहे आँधी हो
मेरी हिम्मत बन जाते थे
चाहे टूटे बिजली कोई
तुम मेरा साथ निभाते थे
मुझको घमंड हो जाता था
जब हाथ पकड़ तुम लेते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...
फिर धीरे से सबकुछ बदला
था वक्त रेत जैसे फिसला
हम मिलने से मजबूर हुए
और दो दिल गम से चूर हुए
कुछ घाव दिलों में गहरे थे
वादों के धागे कच्चे थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...
स्वरचित 'पथिक रचना'
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नमन भावों के मोती
27/09/2018
🌱आनन्द🌱
प्रकृति के करीब होना 
मेरे मन को हर्षाता है
ईश्वर को पा लेने जैसा
अद्भुत सुख पाता है
ऐसे कर देती है मुझपर
जैसे कोई जादू टोना
हो जाता है आनन्द विभोर
मेरे मन का हर कोना कोना
जाड़ों की गुनगुनी धूप और
फूलों पर तितली मंडराना
ढूंढ बादलो में आकृतियाँ
खुश होकर मेरा मुस्काना
देख पंछियों को उड़ते
उन्मुक्त उड़े है मेरा मन
धरती पर नहीं रह पाता
होकर भी यह मेरा तन
दूर किसी मंदिर से आती
घण्टियों की मधुर आवाज
घाटियों में गूंज रही है
मोहिनी सी सुखमय साज
चंचल नदियों में पाँव डुबोकर
होता मेरा मन आश्वश्त
देख देख महिमा मैं प्रभु की
हो जाती हूँ पूरी भक्त
🙂🙂🙂🙂🙂🙂
स्वरचित 'पथिक रचना'
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नमन भावों के मोती मंच
15/09/18
"हाइकु"
आँख, दृष्टि, नयन
आतुर नैन
दर्शन अभिलाषा
आओ साजन
बंद नयन
उपासना के क्षण
प्रभु दर्शन
प्यासे नयन
मुसाफिर अकेला
दुनिया मेला
थकी सी आँख
शहीद की विधवा
कामना राख
सहमी दृष्टि
वासना की सर्पिनी
डसती नारी
स्वरचित
"पथिक रचना"
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26/09/2018
***आगमन***
प्यास मिलने की जगी
प्रिये!कर सके ना आगमन
आँसुओं से कर रही हूँ
प्रेम का मैं आचमन
जा चुकी है राह तकते
साँझ कितनी! तुम न आये...!
जोहने को बाट केवल
दीप कितने हीं जलाये
कर रही हूँ मैं प्रतीक्षा
याद लेकर!आह लेकर
प्यार के मधुमय डगर पर
हाय! प्रियतम तुम न आये...!
याद में तेरी युगों से हैं
दृगों में मेघ छाये
जिंदगी में भूल कर भी
प्रेम की संध्या न आये
आस जीवन भर बिलखते
रह गए पर! तुम न आये...!
एक निर्मम के लिए हैं
सेज पलकों के बिछाए
स्वर मिलाने को तुम्हीं से
गीत भी कितने न गाये
प्यार की पंकिल डगर पर
हाय!निष्ठुर तुम न आये...!
स्वरचित 'पथिक रचना'

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नमन भावों के मोती मंच
26/09/2018
🍃तृष्णा🍃
पल-पल फिसलती जिंदगी से
मोह क्यूँ बढ़ने लगा
लालसा जीवंत होती
साध कुछ पलने लगा
बढ़ रही इस उम्र में क्यूँ
कामना की तिश्नगी
हो रहा व्याकुल हृदय क्यूँ
भावना कैसी जगी
चाहतों की मस्तियों में
भांग सा चढ़ता नशा
हर घड़ी बढ़ती रही
कुछ प्राप्त करने की तृषा
आँख में भर कर उमंगे
ले रही तृष्णा हिलोर
कल्पना की क्यूँ तरंगे
कर रहीं मन को विभोर
मीठी-मीठी अभिलाषाएं
विहँस रही हैं चारों ओर
कितनी मधुर मंगल आशाएंं
चूम रहीं हैंं पथ चहुँ ओर
माना टूट जाना है इक दिन
जीवन का यह कोमल तंतु
हुई दग्ध इस पीड़ा से मैं
क्षीण हो गया देह परन्तु
जीवन की यह अगणित तृष्णा
प्रतिपल बढ़ती जाती है
जन्म मिला है मानव का
तब प्यास नहीं बुझ पाती है...
******************
स्वरचित 'पथिक रचना'
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५/०९/२०१८
*** परिवर्तन ***
**************
है परिवर्तनशील जगत
यह दुनिया चलनेवाली है
इस धरती की परिक्रमा अरे!
मॉनसून बदलनेवाली है
पूरबवाला सूरज भी तब
पश्चिम जाकर इठलाता है
ढ़ल जाता है इस ओर और
उस ओर ज्योत फैलाता है
यह परिवर्तन जीवन की
हर दिशा बदलनेवाला है
कहीं बरसती है दौलत
और कहीं हुआ दीवाला है
परिवर्तन हीं तो जीवन है
फिर इससे भय खाना कैसा
कल मरना है सब मरते है
फिर इससे घबराना कैसा
कुछ नन्हीं कलियों को देखो
कल कुसुमित हो जाना है
खिले हुए जो पुष्प आज
कल उनको मुरझा जाना है
संघर्षों में चलनेवाला हीं
अपनी मंजिल को पाता है
दृढ़ निश्चय करनेवाला हीं
काँटों में राह बनाता है
साँस-साँस में होता अंतर
पात-पात में है परिवर्तन
आज दुखों से है मन बोझल
होगा कल सुख काआवर्तन...
**********************
स्वरचित 'पथिक रचना'
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
नमन भावों के मोती मंच
२५/०९/२०१८
दीप /दीपक
*********
अगर मेरे कहने से 
किसी का भला हो
तो हर उस का भला हो...
दीप सा जो जला हो...
मोम सा जो ढ़ला हो...
अकेला जो चला हो...
ठोकरें लगती मगर
हँसता रहा हो...
लड़खड़ाते हों कदम
पर गा रहा हो...
गिर पड़े!गिरकर
संभलता जा रहा हो...
धैर्य रखकर उलझनें
सुलझा रहा हो...
अगर मेरे कहने से
किसी का भला हो
तो हर उसका भला हो...
स्वरचित 'पथिक रचना'
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
20/09/2018
"भावना"
भावना पर क्या कहूँ मैं बात मन की!
खत्म होती है सभी संभावना...
था लगा यह कोई रिश्ता है पुराना,
साथ चलना,मुस्कुराना
घूमना, हँसना-हँसाना...
तुमको सांसों में संजोना,
धड़कनों में थामना...
दूर मेरे साथ आना,
और फिर मुँह मोड़ना...!
दिल मेरा यह क्यों लगा
तुमको खिलौना ?
याद में तुमको बसाना,
था कोई वह वक्त सुहाना...
मर गई है आज हर संवेदना,
भूल जाना तुम न मुझको ढूंढ़ना...
स्वरचित 'पथिक रचना'

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नमन भावों के मोती
24/09/2018
'उधार' 'कर्ज'
मेरी विनती सुन लो प्रभु!
मेरे मरने की तारीख बढा दो
मुझे थोड़ी सी जिंदगी उधार दे दो
अगले जनम लौटा दूंगी यह कर्ज
अभी तो निभाना है मुझे कई फर्ज
अभी तो पिछले जन्माष्टमी मैंने
गुड्डो को राधा बनाया था
उसने स्कूल में प्रथम स्थान पाया था
अभी तो मेरा बिटटू छोटा है
उसे तो ठीक से माँ कहना भी नहीं आता
उन्हें थोड़ी मुस्कान उधार दे दो
उनपर अपनी जान वारना बाकी है
भगवान! कैसे हारूँ मैं अपनी जान
अभी तो गुड्डो माँ माँ कहते नहीं थकती
सिवा मेरे किसी के साथ नहीं रहती
बिटटू की रात भी मेरे बिन नहीं गुजरती है
अभी भी वह मेरी छाती से चिमटा है
कैसे जाऊँ उन्हें छोड़कर?
दर्द से कमरा भर गया है
और दवाओं से आलमारी
अभी थोड़ा रुको भगवान!
पहननी है मुझे वह गुलाबी साड़ी
जो पति नवरात्रि पर लाये थे
दर्द की पीड़ा से बच्चों को छोड़ने की पीड़ा ज्यादा है
मुझे तुम्हारी किसी और दुनिया में नहीं जाना
मुझे मेरी सांसों का वही लय उधार दे दो
प्रभु!मेरे बच्चों के लिए मुझे थोड़ी सी जिंदगी उधार दे दो...
स्वरचित 'पथिक रचना'
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नमन भावों के मोती मंच
२४/०९/२०१८
"खामोशी"
मैं और तुम चुपचाप रहे
और करती रही चाँदनी बात...
थे खामोश सितारे भी
और चलता रहा चाँद चुप साथ
बारिश की रिमझिम भी चुप थी
नदिया बहती थी चुपचाप...
लब तेरे खामोश रहे
और बोल पड़ीं आँखे सब बात
मैं और तुम चुपचाप रहे
और करती रही चाँदनी बात...
खामोशी है कोई साज
हम तुम कोई धुन बन जाऐं
खामोशी में है अल्फाज
आओ हमतुम मिल कर गाऐंं...
बेकरार है बात करने को
जुगनू की आ गई बरात
मैं और तुम चुपचाप रहे
और करती रही चाँदनी बात...
रजनी भी खामोश रही
और चुपके प्रात चली आई
सूरज की बाँहों से पिघली
किरण बहार चली आई...
शब्द रुके से है होठों पे
आँखों से होती बरसात
मैं और तुम चुपचाप रहे
और करती रही चाँदनी बात...
चुपके से दिल मिल जाते है
खामोशी से हो जाता प्रीत
मधु गागर ले खिल जाते हैं
भ्रमर सदा फूलों के मीत...
चुप चुप दीया बाती जलते
जलता रहा पतंगा साथ
मैं और तुम चुपचाप रहे
और करती रही चाँदनी बात...
स्वरचित 'पथिक रचना'
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मन भावों के मोती मंच
२४/०९/२०१८
"खामोश"
ख़ामोश रुत, करने लगी है बात अब...
चुप सी लगी है, जग रहे जज्बात सब...
हुआ एक दर्द का अहसास, सीने में मेरे...
हुई कुरबान फिर से जान! कदमों पे तेरे...
जरा सी बात का तुमने, बना डाला है अफसाना...
चटक कर टूटता है दिल, जरा आवाज सुन जाना...
सुलगती साँस है, कुछ अश्क फिर आँखों में ठहरे हैं...
तुम्हारी याद के, मेरे हृदय पर घाव गहरे हैं...
तुम्हीं से पूछती हूँ ,क्यूँ कभी अपना तुम्हें माना...!
कि मेरी हूँ कहीं पर मैं ! न मैंने आजतक जाना...
जमा था मोम सा एहसास, पिघलकर आज बहता है...
कहीं से लौटकर आओ, 'पथिक' का दिल मचलता है...
स्वरचित 'पथिक रचना'

नमन भावों के मोती
स्वतंत्र विषय लेखन
23/09/2018
मन मोहन !
तेरे मधुबन में बस
पतझड़ का हीं है संसार ।
इस मर्मर सी वीणा के
सब टूटे टूटे से हैं तार ।
प्यासी-प्यासी सारी धरती
दलदल में भी है अँगार ।
कहाँ गई मुरलीधर !
तेरी मुरली में सब सुख का सार ।
हे बनवारी ! स्वर साधो
स्वर साधो , जिसकी ताकत से
एक जादू की आवाज़ उठे ।
स्वर साधो जो इस सृष्टि की
वीणा पर मंगल साज उठे ।
हे वंशीधर ! वंशी तेरी
माँझी हर मँझधार का ।
धुन तू कोई जगा
जगत के सपनों के आधार का ।
ओ यदुनन्दन ! तान सुना
स्वर धार तनिक लहराने दे ।
इस महातिमिर की बेला में
प्रभात किरण मुस्काने दे ।
मानव मानव की आँखों में ,
काँटा बन बन कर नहीं खले ।
अन्याय मिटे , अज्ञान घटे
ममता समता का दीप जले ।
इस शूल बिंधे से मधुबन में
सुनसान खिले , विरान खिले ।
हे माधव ! ऐसी धुन हो
तप रहे रेत के सीने पर
शीतल नदिया का तीर बहे ।
जो बुझा सके अँगारों को
धरती पर कोमल प्रीत बहे।
स्वरचित
"पथिक रचना"
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नमन भावों के मोती
20/09/2018
"भावना"
********
मेरी चिठ्ठी, लेटर बॉक्स के नाम..
बहुत दिनों बाद दिखे तुम....
एक खुले फटे लिफ़ाफ़े की तरह लगे मुझे...
जिसपर लिखा पता भी तुम्हारा हीं था
पर ऐसे पते का क्या...?
जहां आज कोई पहुंचना हीं नहीं चाहता...
सबकी भावनाओं का कतरा-कतरा जमा कर
तुम एक दरिया की तरह बहते रहे...
और सबकी प्यास तक पहुंचते रहे...
एक छोटी सी खिड़की हमेशा खुली रखी तुमने,
जहां से तुमने सब कुछ किया स्वीकार...
आशा-निराशा, सुख-अवसाद, घृणा या प्यार
मान-तिरस्कार, अभिलाषा, मनुहार
इंतज़ार हो या आभार...
सबका स्वागत करने वाले
तुम्हारे विशाल हृदय का स्पंदन
आज थम गया है,
हम बुद्धिजीवियों को अब
दूसरा आयाम रम गया है।
अब कोई तुम्हारा सजदा नहीं करता,
नहीं बढ़ते अब हाथ
तुम्हारी खिड़कियों की ओर,
अब कोई तुम्हारी ओर नहीं झांकता।
समय की बांसुरी के पास
अब तुम्हारे लिए कोई राग नहीं बचा..
आज निश्‍चित हीं मेरा पत्र पाकर
तुम बहुत खुश होगे,
जैसे मैं हुआ करती थी पहले...
एक कबूतर को बुलाया है..
तुम तक चिठ्ठी जो पहुंचानी है ...
आशा करती हूं ,
यह पत्र एक सिलसिला बन जाए
और सबको तुम्हारे पते का पता चल जाए
फिर से तुम्हारी उदास अंधेरी खिड़की
रोशनी से जगमगाए...
और मेरा ये कबूतर
तुम्हारे लिए गज़ल गुनगुनाए....
स्वरचित
,पथिक रचना'
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@

नमन भावों के मोती
21/09/2018
***यादें***
याद में तेरी गीत लिखूँ ,
या आँसू हार बनाऊँ...
पास नहीं तुम वीराने में,
क्या त्योहार मनाऊँ...
गीत विरह के गाता है ,
दिल मेरा भर आता है...
सच कहती हूँ रोनेवाला,
बस पागल कहलाता है...
राह तेरी अब नैन बिछाऊँ,
या फूलों से द्वार सजाऊँ...
याद में तेरी गीत लिखूँ ,
या आँसू हार बनाऊँ...
देखा आम की टहनी पर,
चिड़ियाँ चहकी फिरती है...
भीग उठता है मन मेरा,
तेरी याद घटा तनती है...
है बरसात प्रतीक्षा की,
मैं कैसे रात बिताऊँ...
याद में तेरी गीत लिखूँ ,
या आँसू हार बनाऊँ ...
सुन लेना इन गीतों को तुम,
आकर रिमझिम बरसातों में...
कुछ भी नहीं गीतों के सिवा,
देने को अब तेरे हाथों में...
यूँ हीं तड़प कर मर जाऊँँ,
या जीकर प्राण जलाऊँ...
याद में तेरी गीत लिखूँ ,
या आँसू हार बनाऊँ...
स्वरचित "पथिक रचना"

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नमन भावों के मोती
20/09/2018
"कल्पना"
ईश्वर ने दुनिया रची,
और बनाया जीव...
मानव के मन में धर दी,
कल्पना की नींव...
कल्पना का वृहत-विस्तार,
यह बना रचना आधार...
किसी वस्तु का क्या नाम हो!
बिन कल्पना क्या काम हो?
कल्पना से होता सृजन भव्य,
कल्पना रचवाता महाकाव्य...
गुनगुनाता गीत यही ,
गज़ल यही संगीत यही...
धरती पर उपजी प्रीत यही,
आकाश भरे हर रंग यही...
जीने का देता ढंग यही,
कुछ करने की प्रेरणा यही...
कल्पना ने कवि को भाषा दी,
जग को नई परिभाषा दी...
कल्पना ढाले ताजमहल,
यह गढ़ देता है राजमहल...
कल्पनाओं की नींव तले,
मन्दिर के पत्थर देव बने...
बड़ी तेज कल्पना की धार,
पहुँचाया सात समुंदर पार...
कल्पना का लेकर आधार,
जा पहुँचा मानव चाँद के द्वार...
कल्पना न हो तो जग सोता,
खाली गागर सा मन रीता...
स्वरचित 'पथिक रचना'

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नमन भावों के मोती
19/09/2018
शीर्षक:- शहीद
सोने के पहिये पर , चल रहा काल का रथ 
किरणों के घोड़े , दौड़ रहे हैं तेजी से ।
यह पूर्व भूमिका है , युगान्त हो जाने की
भारत का अभिमान तिरंगे झंडे को लहराने की
गद्दी के दावेदारों युग की बात सुनो
धरती मइया की दर्द भरी आवाज सुनो ।
भारत की गंगा यमुना देखो प्यासी है
लहराते झंडे के अंतर में घोर उदासी है ।
यह अमर कहानी कहती है बलिदानों की
भारत के वीर शहीदों की कुर्बानी की ।
पथ के शूलों पर अलख जगा कर चले गए
चट्टानों पर आजादी की वह फसल उगा कर चले गए ।
जागो भारत के नौनिहल यह वक्त जगाता है तुमको
तम गहराता भरता है कुहास यह देश बुलाता है तुमको ।
जागो नव युग की नई प्रभाती गाने को
जागो जग में जगमग प्रकाश भर जाने को ।
स्वरचित "पथिक रचना"
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नमन भावों के मोती
18/09/2018
"पंछी"
पिंजरे में कैद एक पंछी,सुना रहा था अपनी व्यथा...
सहचर संग मुग्ध- मधुर, ऊँची उड़ान की कथा...
ताकता वह था आकाश के खुले, कपाट की ओर...
लौटती अंतिम किरण या ओज की वह भोर...
विह्वलता से सुनता था वह, चूँ चूँ चुनमुन शोर...
ललचाया सा देख रहा था बैठा चुप,क्षितिज की ओर...
देखता वह दीन होकर अपना
पंख- विन्यास...
ओह ! रुद्ध - कपाट और विश्राम का अचल-आवास...
हक है उसको पंख पसारे, उड़ने का सुख मिले निर्बाध...
पंछी को करना कैद ! हुआ यह तो अक्षम्य, अधम अपराध...
अस्त हुआ जीवन पंछी का , हुई विलीन उमंग...
प्रमुदित हुआ मनुज है, भर कर अपने जीवन में वह रंग...
आह अधम ! यह मुझसे है, मानव तेरा कैसा स्नेह...
कैसे पेट भरेगा मेरा, बंधे अन्न से तेरे गेह...
सिंधु की लहरों पर तिरकर आता , पंखों में उमंग...
सोचूं कि झरने पर चढ़कर मैं करता,नृत्य नव-छंद...
हूँ तुम्हारी कैद में मैं एक शिथिल,निरीह काया...
चाहता उस डाल बैठूँ, जहाँ वृक्ष की मधुरिम छाया...
झुरमुट में करता था मैं अपने सहचर संग मधुर-किलोल...
ढूंढ रही होगी मुझको वह,लिए
अश्रुपूर्णित लोचन लोल...
खोल कर पिंंजरा किया जब मैंने, उसको बंधन-मुक्त...
देखते तब नयन उसके, मुझको स्नेहिल आभार-युक्त...
स्वरचित
'पथिक रचना'
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नमन भावों के मोती मंच
15/09/18
"हाइकु"
आँख, दृष्टि, नयन
आतुर नयन
दर्शन अभिलाषा
आओ साजन
बंद नयन
उपासना के क्षण
प्रभु दर्शन
प्यासे नयन
मुसाफिर अकेला
दुनिया मेला
थकी सी आँख
शहीद की विधवा
कामना राख
सहमी दृष्टि
वासना की सर्पिनी
डसती नारी
स्वरचित
"पथिक रचना"
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नमन भावों के मोती मंच
15/09/2018
शीर्षक :- " वचन "
सुनो भैया मेरे !
बहुत अजीब होता है...
लड़कियों का मायके से
ससुराल चले जाना ......
अपने हाथों में ...
धान, दूब, हल्दी वाले ....
सपनो की पोटली पकड़े
नैहर की ड्योढ़ी लाँघ जाना .....
पाँच बार अँजुरी में भरकर धान ...
लो भइया ! भर दिया तुम्हारा खलिहान
अजनबियों में बनाने चली हूँ पहचान
आसान नहीं है खुद को पराया कर जाना .....
ठीक ऐसे हीँ चलकर आएगी एक दिन ...
किसी बाबुल के बगीचे की फूल
महसूस करना तुम्हारे घर-आँगन का
खुशबू से महमहाना .....
जब आएगी भाभी ...
बाबुल से लेकर विदाई
तुम समझना मत उसको पराई
मेरे वीर ! आज तुम यह वचन दुहराना ...
तुम मत करना यह भूल...
स्त्री को न समझना पाँव की धूल
कि बहुत बुरा होता है.....
बाबुल के आँगन की पाजेब का
बेड़ियों में बदला जाना ....
स्वरचित
"पथिक रचना "
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नमन भावों के मोती मंच
13/09/2018
"परम्परा"
परम्पराएं लिपटींं है,
कहीं सतरंगी परिधानों में...
मन को लुभाती है।
तो लिपट कर कहीं,
काले वसनों में ...
मन को डराती भी हैं।
परम्परा की पायल बाँध,
कभी गूंजती है मघुर झंकार...
तो कहीं पाँव की बेड़ियाँ बन,
करती वह जीना दुस्वार।
परम्परा है वह रंगीन पतंग,
जो जन-जीवन में भरती उमंग...
यदि कहीं यह कट जाती है,
चिथड़े इसके हो जाते है।
ऐसे ही गलत परम्परा के ,
वश में हो जाती मानवता छलनी...
परम्पराओं से जुड़ा है,
भारत का हर प्रांत...
कुछ सही कुछ गलत है,
भांति-भांति के भ्रांत
कितना महान है यह,
परम्पराओं का वरदान...
जो देता हमेशा से है
युगों को पहचान...
वजह बनता लोगों के
आपसी सद्भाव का,
तो कभी कहीं यह ले लेता है...
कितनों की जान।
परम्परा हीं बन जाती है,
रूढ़िवादी कोई प्रथा
यह न बन जाये,
देखिए कोई व्यथा।
परम्पराओं का नवीनीकरण,
बहुत जरूरी है...
बनता रहे नव समीकरण,
बहुत जरूरी है...
स्वरचित
"पथिक रचना"
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भावों के मोती
10/09/2018
"व्यथा"
..........
कैसे गाऊँ गीत विदा के
प्राणों में स्वर कैसे पाऊँ...
तार वीण के टूट रहे जब
मैं झंकार कहाँ से लाऊँ...
साँस-साँस पर याद लिए मैं
सुधि की व्यथा कहाँ बहलाऊँ...
प्रीत नगर की कैदी हूँ
जंजीर तोड़कर कैसे जाऊँ...
भर-भर जाते हैं नयन आह!
धुंधलापन छा छा जाता है...
अन्तर का नीरव स्नेह पिघल
खारा आँसू बन जाता है...
बस एक चाह है जाओ तो
आने की आस दिए जाना...
जब नीड़ पुराना याद आए
भूले-भटके भी आ जाना...
स्वरचित
"पथिक रचना"
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अभी कुछ दिन पहले वृद्धाश्रम
गई थी।वहाँ जा कर मन बहुत द्रवित हुआ।आज "साँसे" विषय पर लिखना था तो मेरी कलम कुछ यूँ कह गई...
नमन भावों के मोती मंच
"साँसे"
******
थकी सी जिंदगी, दम तोड़ती सी साँस...
वृद्धाश्रम में माता-पिता सँजोये बैठे हैं आस...
होठों के छोर पर समेटे हुए करुण मुस्कान...
हैं नयन के कोर भींगे बिल्कुल विरान...
हर घड़ी है स्वर बदलती जिंदगी...
हर डगर है अब हुई सुनसान ...
बहुत गुबार लिए है मन,दुखों का बबंडर है...
पूछती है निगाह, हर मिलनेवाले से
कहाँ ठहरें...?
कभी हम छाँव थे उनका...!
हमारी राह में क्यों धूप जलती है...?
बची है साँस जो अब,
आँसुओं में वह पिघलती है...
बनाया बीज से था वृक्ष,
माता -पिता वह माली है...
फले जब तुम...!
उन्हें क्यों छोड़ आये हो जले वन में...?
बहुत धीरज समेटे बैठे हैं,
वो लाचार निर्जन में...
क्या आता नहीं एक पल को भी, विचार तेरे मन में ...?
अभी तक बाँह फैली है,
हृदय में साध बाकी है...
न जाने क्यों और कैसे...!
इतना निठुर हो जाता है इंसान...
आखिर कहाँ खो जाता है उसका ईमान...?
न जाने क्यों युवा अपने बुढ़ापे से,
हुए अनजान बैठे है...
गलत है फिर तो...!
जो अपने बच्चों को अपना मान बैठे हैं...?
स्वरचित
"पथिक रचना"
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नमन भावों के मोती मंच
"प्रतिभा"
प्रिय पुत्री पीहू और जूही के नाम पत्र:-
मेरी प्रिय पीहू और जूही
तुम अपनी प्रतिभा को पहचानो,
करने आई क्या काम!
जगत में यह तुम जानो,
चंचलता और हठ के आगे,
करो न जीवन व्यर्थ।
जिंदगी में जलती बुझती,
दोपहरी की आँच होगी,
साहस-विश्वास बनाये रखना,
सुनना तुम अपनी अंतरात्मा की पुकार,
तुम्हीं तो हो माता-पिता के
सपनों का आधार,
रखना ममत्व तुम जन-जीवन पर,
श्रद्धा गुरुजनों पर,
हो सहानुभूति निर्बलों पर,
प्रकृति के लिए आस्था अपार।
है तुमको आशीर्वाद हमारा,
विकास की रवि-रश्मियों से,
हो भरा हर पथ तुम्हारा।
कोई भी झंझावात हो
या हो तिमिर की बेला
पाँव तुम आगे बढ़ाना
कामना की धूल उमड़े
समझना न खुद को अकेला
साधना की लहरियों पर
प्रेरणा जीवन्त हो
महत्वाकांक्षी मन तुम्हारा
सदा यह करे प्रयास
स्वच्छ हो वातावरण
सारे विचार स्वस्थ हों
बनो न्याय की प्रबल समर्थक
तुम नई प्रेरणा का स्रोत बनो।
"स्वरचित"
पथिक रचना
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नमन भावों के मोती मंच
10/09/2018
*** बिडम्बना***
..........................
कहलाता स्वतंत्र है भारत !
बिडम्बना एक नहीं अनेक हैं
किस-किस को गिनाया जाए...
जलती ज्वालामुखी के मुख
पर खड़ा हुआ है भारत
कैसे अब बचाया जाए...!
देश के तथाकथित नेताओं,
ठेकेदारों,भूपतियों, पूंजीपतियों,
अवसरवादी, अफसरशाहों
के लिए आई है आज़ादी...
भोली-भाली जनता पर तो
अब भी छाई है बर्बादी...
पराधीनता, भूख, गरीबी,
शोषण का है वही अलाप...
जिससे व्यथित हुई है जनता
हरदम करती है प्रलाप...
उनको रहनुमा समझ लेती
जब जनता नेता चुनती है...
जनता की आहें कितनी है
यह सत्ता कितना सुनती है...
देश की जनता को उकसाना
नेताओं का धर्म नहीं...
भ्रष्टाचार बढ़ाना
नेताओं का कर्म नहीं...
धरती पर फैला है विषाद
जातिवाद, धार्मिक-फसाद
प्रकृति-हनन और बृद्ध-लाचार
आतंकवाद, पशु-अत्याचार
हिंसा-प्रतिहिंसा ,बलात्कार...
घोर बिडम्बना की है मारी
यह सारी धरती बेचारी...
चेतो मानव! विश्व प्रलय की
आती है कलयुग की बारी....
"पथिक रचना"
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वह लम्हें कितने अच्छे थे....
जब तुम मुस्कुराया करते थे
तेरी आँखों के सागर में
जब मेरे अक्स उभरते थे
जब थाम के यूँ तुम हाथ मेरा 
विश्वास जताया करते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...

जब भी तुम हँसकर मुझको 
इक चपत जमाया करते थे
और सोने जो लग जाऊँ मैं 
गुदगुदी लगाया करते थे
मेरी इक आवाज जो सुन लो
तुम भागे आ जाते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे....

जब किसी खेल में हारूँ तो
तुम बहुत चिढ़ाया करते थे
और जब मैं रुठ जाती थी
तुम मुझे मनाया करते थे
यूँ हीं बेमतलब दूर कहीं 
हम दूर कहीं हो आते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...

तुम मेरी सुबह के सूरज
जीवन में रंग यूँ भरते थे
जब भी होती थी धूप कभी
तुम छतरी बन कर तनते थे
मेरी खुशियों के लिए सभी
तकलीफ उठाया करते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...

तुम हीं मेरी अमावस में
दीपक प्रकाश बन जलते थे
तुमसे हीं थी चाँद रात
बन चादर लिपटे रहते थे
मुझपर कोई मुश्किल आये 
"मैं हूँ न" ऐसा कहते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...

संग तेरे चाहे आँधी हो
मेरी हिम्मत बन जाते थे
चाहे टूटे बिजली कोई
तुम मेरा साथ निभाते थे
मुझको घमंड हो जाता था
जब हाथ पकड़ तुम लेते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...

फिर धीरे से सबकुछ बदला
था वक्त रेत जैसे फिसला
हम मिलने से मजबूर हुए
और दो दिल गम से चूर हुए
कुछ घाव दिलों में गहरे थे
वादों के धागे कच्चे थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...

स्वरचित 'पथिक रचना'
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@

माँ -बाप के साथ बिताये वो हर पल
याद आते है बार बार
उन लम्हों को याद करते हुये मैं
आँसू पोछती हूँ हर बार

पर हर बार उठ जाती हूँ मैं
एक नये बिश्वास के साथ
'परिवर्तन ही जीवन है'
जान गई हूँ मैं आज

जो बित जाये वो कभी न आये
मान गई हूँ मैं आज
सुख दुःख है दोनों जीवन में
समझ गई हूँ मैं आज

लौट आये है मेरे जीवन मे भी
बच्चों के रूप में खुशियों के पल
पल मे तोला, पल मे माशा
मानव जीवन यूं ही बदलता
आने वाला पल,यूं ही न चला जाये

जाते जाते ये पल सबके जीवन मे
खुशियाँ भर जाये।
पल दो पल के जीवन को
हम सब मस्ती मे बिताये।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@


🌿"'रंग"'🌿
जीवन राग
अद्भुत अनुराग
रंगता मन

प्रकृति संग
आनन्दित जीवन
सुंदर रंग

रंग विलीन
प्रताड़ित धरती
मानव लीन

तिरंगा रंग
शहीद का कफ़न
करें नमन

सरिता संग
किरण थिरकती
स्वरचित 'पथिक रचना'

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निकला है सूरज
कि आया है भोर...
होने लगी देखो 
धरती इजोर...
चलो खेतों की ओर...

देश के किसानों
तू हिम्मत न छोड़...
लहराऐंगी फसलें 
मन लगा हिलोर...
चलो खेतों की ओर...

चाहे मेहनत के 
रस्ते में काँटें मिले...
तुम्हें चलना है 
धरती की कलियाँ खिले...
उठा ले कुदाल 
उठ लगा दे न जोर...
चलो खेतों की ओर...

बिजली गिरे चाहे 
जलते हों पाँव...
चाहे न मिलता हो 
एक पल भी ठाँव...
बादल मचाते रहें 
चाहे शोर...
चलो खेतों की ओर...

करते नही दुख
कभी तुम बयान...
मिलती हो रोटी या 
निकलें हों प्राण...
जय-जय जवान
जय-जय हो किसान
होता है मन मेरा 
भाव से विभोर...
चलो खेतों की ओर...
☘️ ☘️ ☘️
स्वरचित 'पथिक रचना

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💐सत्य💐

असत्य पहन कर विजय हार
झूठी जयकार मनाता है...

सत्य खड़ा चौराहे पर
झूठों के जूते खाता है...

तालियाँ झूठ पर बजती हैं
लाचार सत्य झुक जाता है...

सीता की होती अग्नि परीक्षा
देश निकाला जाता है...

हर झूठा एक खिलाड़ी है
बेईमान वीर कहलाता है...

इंसान न्याय की वेदी पर
ईसा का खून चढ़ाता है...

वह जीने का अधिकारी है 
जो पाप छुपा ले जाता है...

सच कहनेवाला दुनिया में 
दुख चाहे बहुत उठाता है...

कोई बनकर के हरिश्चन्द्र 
फिर राह दिखाने आता है...

नाथू की गोली खाकर भी
तब गांधी जीवित रहता है...

सच की होती है विजय सदा 
असत्य पराजित होता है...

स्वरचित 'पथिक रचना'
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@

चार दिन की जिन्दगानी
है नहीं टिकती जवानी
खत्म हो जाती कहानी
अंत करती आग पानी!

काम न आता कोई धन
माटी का यह नश्वर तन...

चार दिनों का मान सम्मान
महल दुमहला आलीशान
झूठी है तेरी हर शान
जिस पर तुझको बड़ा गुमान!

कैसी यह तेरी भटकन 
माटी का यह नश्वर तन...

जिस दिन निकले तेरी जान
और यह जिस्म हुआ बेजान
मिले राख में सब अरमान
इन बातों से तू अनजान !

प्रतिक्षण मेहमां है धड़कन
माटी का यह नश्वर तन...

यह तन मिट्टी हो जाएगा
कफ़न ओढ़कर सो जाएगा
भूल बैठा मौत को नादान
मोह माया में फंसी है जान!

कैसे प्रभु का हो दर्शन
माटी का यह नश्वर तन...

स्वरचित 'पथिक रचना'
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सफर "हाइकु"

हुआ विहान
सफर की उड़ान
मन है पंख

फैला प्रकाश
सूरज का सफ़र
धरा आकाश

भावों के मोती
साहित्य का सफर
अद्भुत ज्योति

बचा इंसान
दया धर्म ईमान
सफर शेष

पथ पत्थर
जीवन का सफर
नहीं आसान

एकाकीपन
नहीं हमसफ़र
दुखिया मन

उद्देश्यहीन
मानव का सफर
तम प्रखर

प्रकृति दीन
संरक्षण सफर
हुआ विलीन

वीर नमन
सरहद सफर
झंडा कफ़न

पूर्ण विराम
परलोक सफर
तन विश्राम

स्वरचित
'पथिक रचना'
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@


देखो न!
सावन का ऋतु आ गया है... 
तुम्हारे प्रेम से भींगा मन!
छंदानुवाद करने लगा है....
धूप से जले वन-उपवन में अब, रंगबिरंगा रंग समा गया है...
तुम कब आओगे...!

बादलों से होड़ 
लगा बैठी हैं मेरी पलकें...
आँसुओं से धुलकर यादें और भी ताज़ा हो गईं हैं
बाकी सब धुंधला गया है
बताओ न !
तुम कब आओगे...!

मेघ की गर्जनाओं का है शोर,
या कि मेरी धड़कनों का जोड़-तोड़...
है बन गई मेरे हृदय की पीड़,
हाए!तुम्हारी सुधियों की जंजीर...
मन बंधने लगा है
कहो न!
तुम कब आओगे...!

स्वरचित 'पथिक रचना'

@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
💐स्वतंत्र💐❤️मेरे पिताजी से!❤️ 

पिता ! तुम्हीं हो रक्षक...
तुम हीँ मार्गप्रदर्शक

पिता ! तुम वट वृक्ष...
तुम्हीं ने दी मजबूती 

पिता ! तुम हुए पीपल...
तुमसे छाँव तुम्हीं से जीवन

पिता ! हमारे नीम...
शुद्ध साँसों का सरगम

तुम हीं हो वह माली...
पल्लवित किया

सींचकर जिसने...
बगिया की हर डाली

हम मिट्टी के लोंदे...
तुम हो वह मेहनती कुम्हार

दिया हुआ तुमने हीं हमको...
सुगढ़ और मजबूत आकार

बचपन के अल्हड़ सपनों को भी...
दिया तुम्हीं ने ठोस आधार

शूलों पर खुद चले...
हमारे पथ पर पुष्प बिछाया

खुद लपटों में जलकर तुमने...
हमें दिया है शीतल छाया

तुम्हीं हो वह नाविक जिससे... 
तरती है जीवन की नईया

हम सब के भगवान तुम्हीं हो...
तुम्हीं हमारे हो खेवईया...

स्वरचित 'पथिक रचना'

@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@

हाइकु ""माँ""

मेरे सदन
विराजो शैलपुत्री
करूँ वंदन

सजी रंगोली
आई तुम्हारी डोली
पधारो माता

माता की चौकी
सुमन समर्पण
भोग-अर्पण

"पथिक रचना"

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तुम में आकर्षण बहुत है!
और विकर्षण भी कम नहीं...
हाँ!हृदय को झकझोरती हैं 
अब भी तुम्हारी यादें...
मेरी इन धड़कनों में तुम्हारी स्मृतियों का संगीत बजता है...
ठहरी मीठी झील में
हमारे सानिध्य का अक्स उभरता है...
और अगले हीं पल 
एक तीव्र भँवर में समाहित हो जाता है...
इंद्रधनुष के पुल से गुजरती हैं जब सतरंगी यादें...
एक बवंडर उन्हें रेगिस्तान की 
प्यासी रेत में पटक आता है...
तुम्हारी यादों से महकती फूलों की घाटी से गुजरती हूँ...
और घाटी नागफनी के जंगल में तब्दील हो जाती है...
प्रीत बनकर बरसीं थीं कभी 
जो अमृत की बूंदें...
वह आँखों का खारा समुंदर है अब...
तुम्हारी कशिश...!
मेरा खुद पर अनियंत्रण तो है...
पर नियंत्रण भी कम नहीं...

स्वरचित'पथिक रचना'
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जीवन संगीत है ये 
सुर तुम सजा लो
लिख डालो गीत कोई
आज गुनगुना लो
धुन कोई बना लो जी
आओ मुस्कुरा लो...

कल जाने क्या होगा
किसको खबर है ये
आज इन राहों में 
मीत तुम बना लो
धुन कोई बना लो जी
आओ मुस्कुरा लो...

रूठा है तुमसे जो 
साथी तुम्हारा तो
जाकर उसे तुम 
गले से लगा लो
धुन कोई बना लो जी
आओ मुस्कुरा लो...

स्वरचित 'पथिक रचना'

@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@

भाई बहनों का सम्बन्ध सदा अटूट और पूर्ण स्नेहमय बना रहे, और भाई बहन सदा ही एक दूसरे के पूरक बने रहें. इसी मनोकामना एवं शुभभावना के साथ -
मेरी एक रचना....🙏

"डोर"
एक धागा न समझना इसे, रेशम की डोर का,
यह जो है गाँठ, वह गिरह है-हृदय के कोर का...

भाई - बहन के प्यार का, अधिकार का सम्मान का,
एक उपक्रम है त्योहार, प्रेम सूत्र में बँधे विहान का...

अनमोल है!समझना न इसे चीज तुम बाजार का,
है इम्तहान-मर्यादा का, सहारे का, संस्कार का...

राखियों ने है रच दिया,पन्ना कई इतिहास का
सतरंगे डोर से रंगे- बँधे कई आश्वास का...

हुमायूँ पर कर्णावती की रक्षा के भार का
दो धर्म के दो छोर पर सुलह के आभार का...

साथ देने का वचन है , बहन के मान का,
कृष्णा ने बढ़ाया था हाथ, द्रौपदी सम्मान का...

रखना है लाज रक्षा - बंधन की रीत का,
कलाई राखी सजाये , बहन की प्रीत का...

कि डोर देख रही राह ! ऐसे क्रांति - वीर का,
जिन्हें हो आह! समाज की बहन की पीड़ का।

थाल दीपक जलाये किसी अभिलाष का,
भाल तिलक लगाये किसी 
विश्वास का...
स्वरचित 'पथिक रचना'
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❤️प्रीत❤️

बँधी श्याम की प्रीत में

वृंदावन की भोली राधा

मुरलीवाले मोहन तूने

मीरा को भी सुर में साधा

देखें राह कदम्ब के नीचे

नन्द गाँव की गोपी सारी

रास रचा लें कान्हा के संग

तकतीं अपनी अपनी बारी

स्वरचित 'पथिक रचना'
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