संतोष कुमारी


दिनांक-14/12/2019
विषय-विरोध
विधा-छंदमुक्त

जिन मूल्यों से यह जीवन चलता
उनको समर्थन मिलना चाहिए
विकास पथ में जो रोड़ा अटकाए
उसका विरोध पुरज़ोर होना चाहिए

शाश्वत मूल्यों बिन जीवन ना चलता
मूल्यहीनता का विरोध होना चाहिए
स्वयं के लाभ का नज़रिया तजकर
व्यवहार में आदर्शवाद गढ़ना चाहिए।

धर्म पर जब अधर्म हो भारी
डटकर विरोध करना चाहिए
शुद्ध आचरण और आदर्शवाद से
धर्म विजय की ही करनी चाहिए ।

हिंसा कभी भी ना अच्छी होती
उसका सर्वत्र विरोध करना चाहिए
अहिंसा के मार्ग पर चलकर हमें
सभी जीवों पर दया करनी चाहिए ।

जाति, भाषा धर्म मे भिन्नता निहित
भेदभाव का विरोध करना चाहिए
मनुष्यता की राह अपनाकर हमें
एक प्रतिमान नया गढ़ना चाहिए ।

तेरे मेरे संग सब का साथ मिले
सोच सर्वदा ऐसी रखनी चाहिए
अनमोल जीवन पाया है हम ने
अविवेक का विरोध तो होना चाहिए ।

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
स्वरचित
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कुछ नियमों का केवल कोरा निर्धारण
उसूल कदापि कहा जा सकता नही
यह शब्द बड़ा सामान्य भले ही लगता
प्रतिपादन इसका जटिल बन जाता
यह महज़ एक शब्द भर भी नही 
नियमों को नियमित बनाना पड़ता
स्थिति चाहे कैसी भी हो
उसूलों पर अटल रहना ही पड़ता
ये क्षणिक नही हुआ करते है
निरंतरता के बोधक मापांक होते हैं
व्यावहारिक रूप उसूल का होता
सजगता से व्यवहार में अपनाना पड़ता
इच्छाशक्ति की परीक्षा लेते है उसूल
अपने पराये का भेद मिटाकर
समरूपी सदा रहना हितकारी होता
विवेकी होने का दे देते प्रमाण
सकारात्मकता का पर्याय बनते उसूल
उसूल व्यक्तिवादी नही समाजवादी होते
उद्देश्य इनका समाजोन्मुखी हुआ करता
उसूलों से होती इंसान की पहचान
पूर्ति उसूलों की बना देती महान
नैतिकता का प्रत्यक्ष दृष्टांत बनते
कालजयी आदर्श उसूल तब बनते ।

संतोष कुमारी ‘संप्रीति ‘
स्वरचित
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परीक्षा समकक्ष ही तो है जीवन
चुनौतियों से नित होता साक्षात्कार
किंकर्तव्यविमूढ जब हो जाते
फ़ैसलों संग बात आगे बढ़ाते
पर फ़ैसला कोई लेना भी
कितना अजीब होता है
कभी बनता दिमाग़ का नज़ीर
कभी हृदय की पीर होता है
कभी तनाव की मुक्ति कहलाता
कभी अपेक्षाओं की युक्ति 
कोई टूटकर बिखर जाता
कोई बिखराव से सिमट जाता
कोई हार जीत बन ज़ाती
कोई जीत हार में बदल जाती
फ़ैसले की प्रक्रिया बड़ी जटिल
कितने भाव विचार आंदोलित होते
साक्ष्य कितने जुटाने पड़ते
अंगारों पर चलना सा होता
करना होगा दूध का दूध पानी का पानी
ऐसे फ़ैसलों का नही होता कोई सानी

संतोष कुमारी ‘संप्रीति ‘
स्वरचित

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होली : एक पर्व
उल्लास से मनाते
होली : एक गर्व
शान से जताते
होली : एक रीत
निष्ठा से निभाते
होली : एक रंगोली
रंगों से सजाते
होली : एक मीत
प्रेम सुधा पिलाते
होली: एक प्रीत
राधा श्याम बन जाते
होली : एक विश्वास
शाश्वत मूल्य कहते
होली: एक लोकगीत
विविध भाषाओं में गाते
होली : एक संस्कृति
एकता सीख देती
होली : एक भक्ति
प्रह्लाद बन जाते
होली : एक शक्ति
जिससे होलिका जलती
होली को मेरा नमन
बुराइयों का होवे दमन

संतोष कुमारी ‘संप्रीति ‘
स्वरचित

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तन में रोग 
मन में रोग
जहाँ देखो
वहाँ रोग ही रोग
त्रस्त है मानवता
त्रस्त हैं लोग
फिर क्यों लगाते
कुत्सित आदतों
विचारों का भोग ?
उपचारित हो सकता है
तन का रोग
खा लो दवा
अपना लो योग
किस चिकित्सक को दिखाओगे
मन का रोग
सदविचारों का अकाल
कुसंस्कारों का भोग
तुमने अमोल जीवन पाया
चरित्र तेरा बनता हमसाया
सादा जीवन:उच्च विचार
हो संतुलित इनका योग
अपनाओ इनको
और रहो नीरोग ।

संतोष कुमारी। ‘ संप्रीति ‘
स्वरचित
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दिनांक-10/3/2019
विधा-ताँक़ा

विषय-स्वतंत्र

(१)
मनु नाविक
अरमानों सी नाव
तृष्णा है बाढ़
आशा निराशा ऊर्मि
जीवन महानद

(२)
धैर्य सहारा
निराशा तम घेरा
आशा सवेरा
ईश्वर ने उबारा
नवजीवन मेरा

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति’
स्वरचित

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विषय-नारी/वीरांगना
ईश्वर ने जब ब्रह्मांड रचाया
नारी की अनुपम छवि को बनाया
सृष्टि की आदिशक्ति कहलाई
नर की वह नारायणी बन पाई
दुर्गा , काली शक्तिरूपा नारी
विविधा रूपा कहलाई नारी
जग जननी का ताज है नारी
मानव पोषिता कहलाई नारी
इसके अस्तित्व का विषय
आज के संदर्भ में नही नया
नारी अस्मिता और शक्ति को
इतिहास ख़ुद करता आया बयाँ
नारी सम्मान पूजा जाता जहाँ
निवास देवताओं का होता वहाँ
वेद . शास्त्र और पौराणिक काल की आयी जब बारी
देवी अनुसूया के रूप में साकार हुई है नारी
कान्हा की मुरली की तान बनी हाई नारी
शुचिता की अग्नि परीक्षा ,राम की सीता है नारी
मृत्युदेवता से प्राण हरकर लानेवाली
सत्यवान की पतिव्रता सावित्री यह नारी
प्रभु चरणों में ध्यान लगा दासी कहलाई
विष प्याला पी गई एक मीराबाई नारी
आज़ादी की जंग जब शुरू हुई
नारी भी नर के संग में खड़ी हुई
मर्दों के सम्मुख जो बन गई मर्दानी
वीरांगना कहलाई झाँसी की रानी
आज़ादी का इतिहास जब पढा जाएगा
रमाबाई,बेसेंट,नायडू का नाम याद आएगा
सल्तनत की बागडोर थामने वाली
रज़िया सुल्ताना नाम की नारी
मन में त्याग-सेवा का भाव जगाकर
दीन-हीन का ख़ूब किया सत्कार
मदर टेरेसा को नोबेल पुरस्कार मिला
नारी गरिमा का जग मे सम्मान हुआ
देश की पहली प्रधानमंत्री बनने वाली
सशक्त नारी इंदिरा गांधी कहलाई
लेखन प्रतिभा से निज संसार बसाया
साहित्य साधिका महादेवी वर्मा नारी
अपनी गायिकी और कंठ माधुर्य से
जिसने स्वर कोकिला की उपाधि पाई
विश्व विख्यात लता मंगेशकर नारी
बनकर धाविका राष्ट्र मान बढ़ाने वाली
पी०टी० उषा नारी उड़न परी कहलाई
मुक्केबाज़ी का जटिल पंच लगाया
मैरी कोम ने तिरंगे का मान बढ़ाया
अंतरिक्ष में उड़ान भरक शोध का इतिहास रचा
कल्पना चावला,सुनीता विलियम्स नाम अग्रणी रहा
नारी रूप चंद शब्दों में ना आएगा
स्वर्णिम अतुलनीय इसकी गौरव गाथा
जीवन के विविध रूपों रिश्तों में
जीवन का शृंगार है नारी
अब तो तुम कैसे कह पाओगे
हाय !अबला बेचारी यह नारी
माँ की ममता,पिता का अभिमान
जीता जागता एक प्रमाण है नारी
भाई की कलाई पर बँधी राखी
बहन भाई का पवित्र पर्व है नारी
जीवन साथी की संगिनी बनकर
अटूट रिश्ते का विश्वास है नारी
हर पड़ाव पर खड़ी मुस्कुराने वाली
कर्तव्य और त्याग का पर्याय है नारी
जीवन के हर दुख को सह लेती
सहनशीलता की मूर्त है नारी
नारी तुम केवल शब्द नही हो
मानवता का करती हो जयगान
कर लो ख़ुद पर ख़ूब अभिमान
ख़ुद से बनाती आयी पहचान
आज इस महिला दिवस पर
उसके शक्ति रूपों का बोध कराएँ
पग पग पर इसका सम्मान क़ायम रहें
इसको आज हम निज ध्येय बनाएँ
आज मैं उस दंभी पुरुष को कहना चाहती
जगा लो तुम भी अब स्वाभिमान
उन्मुक्त उर से करो गुणगान
दिव्या रूपा का करो सम्मान ।

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति’
स्वरचित
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नीर की अपनी जागीर
नीर की अपनी तासीर
माना नीर बेरंग कहलाता
पर जीवन में रंग भर देता
नदी, नाले , झरने, तालाब
समुद्र में अथाह जल सैलाब
नीर के हैं ये वंशज अनेक
जग में करते हैं काम नेक
बादलों में जो नीर समाता
बारिश बन धरती पर गिरता
तपन धरती की शांत करता
खेत खलिहानों को भर देता
अन्नपूर्णा धरा साबित करता
वन्य जीवों की प्यास बुझाता
मानव जीवन की बुनियाद कहलाता
समुद्रीय तट लहरों से सजाता
सैलानियों को बड़ा रिझाता
झरना बन ऊँचाई से गिरता
मोती की लड़ियों-सा दिखता
प्राकृतिक सौंदर्य नाद सुनाता
पवित्र नदियों में लोग स्नान करते
पुण्य कर्म से वे अति हर्षित होते
नीर प्रकृति का उपयोगी उपहार
उपादेयता का यह अमोल भंडार
सीमित साधन आओ करें विचार
इसकी बूँद बूँद से करना प्यार
सतही तौर पर हम बनते नज़ीर
वास्तव में कब जानी नीर की पीर

संतोष कुमारी’ संप्रीति’
स्वरचित


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आदि और अंत दोनों हमजोली
खेलें दोनों आँख मिचौली
एक आए दूजा छिप जाए
दूजा आए पहला छिप जाए
एक सिरा आदि कहलाता
दूजा सिरा अंत बन जाता
आदि भी सत्य अंत भी सत्य
प्रासंगिक दोनों आदि और अंत
आदि जिस का होगा
अंत उसका ही होगा
शब्द आदि अंत अर्थ
नश्वरता बनती समर्थ
काग़ज़ आदि अंत क़लम
लेखा जोखा बनता कर्म
जन्म आदि अंत मरण
जीवंतता में भ्रमण
आदि से अंत तक का सफ़र
चाहे तो गुमनाम बना लो
उसको निज पहचान बना लो
सुकर्मों से महान बना लो
अंत समय की शान बना लो
सत्कर्मों से सफल अंत बना लो
इतिहास के पन्ने रंग डालो
अमरत्व में निज अंत मिला लो

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति’
स्वरचित


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घाव अभी भी ताज़े हैं
रिस रहा है ख़ून
दर्द भरी छटपटाहट
इधर उधर बिखरे गात
केवल मात्र अवशेष
रक्त रंजित सड़क
कौन भूल सकता है!!!!
आतंकवाद का वह
घिनौना वीभत्स रूप
माँ भारती के लाल
शहादत पाकर शहीद
अमर ज्योति जला गये
अपने देशप्रेम का विशुद्ध
रूप हमें दिखा गए
मगर.....
अपने पीछे अपना शोक संतप्त
हँसता खेलता परिवार छोड़ गए
आज......
किसी की बूढ़ी माँ
कोई ग़मगीन पिता
किसी भाई का स्नेह
बहन का रक्षाकवच धागा
किसी का ताज शृंगार
कोई मासूम बचपन
खिलौनो को तरस रहा
बड़ा दारूण दुःख
अब वे ना आएँगे
परिजनों को सांत्वना ना दे पाएँगे !
क्या हम टी०वी० अख़बारों में
शोक संवेदना जताते रहेंगे ?????
क्या बेसहारा, शोक संतप्त परिवारों की सहायतार्थ आगे आएँगे?????
आज हमारा एक कर्तव्य होना चाहिए
उन परिवारों का संबल बनें
अपने अपने स्तर पर
तन , मन, धन से 
उनको सहारा बने
आसरा बनकर जवानों को
सच्ची श्र्द्धांजलि दें
यह आसरा यक़ीनन
देशप्रेम का ही एक 
मानित हिस्सा होगा
हमारे जीवन का
एक गरवीला क़िस्सा होगा ।

संतोष कुमारी’ संप्रीति’
स्वरचित
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दिनांक-23/2/2019
विधा- हाइकु

विषय- नीर

(१)
आँखों का नीर
परिभाषित पीर
मरा ज़मीर
(२)
जीवनाधार
प्रकृति का शृंगार
बनता नीर
(३)
सार्थक नीर
घृणास्पद कर्दम
खिला कमल
(४)
विरह पीर
नैनों में समाकर
बहाती नीर

सं
तोष कुमारी ‘संप्रीति’
(स्वरचित)
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आतंकियों को अपने घर में पालता
जेहाद के नाम पर मानवता बाँटता
उस ग़द्दार देश को बच्चा भी जानता
नीच पाकिस्तान को कौन नही पहचानता !!
विभाजन(१९४७) के बाद भी
उसकी भूख नही मिटी
कश्मीर को लेकर
अंधभक्ति में डूबा
कभी नारों में
कभी समाचारों में
झूठा हक़ जता रहा
नाकामी से जब हारता
उग्रवाद फैलाता
संग पाकर कुछ ग़द्दारों का
कायरता से हमला करवाता
पुलवामा की घटना
वैश्विक पटल पर अंकित
अनेक देश हुए हैं व्यथित
शकुनि चालों से नापाक
धोखे से पासा फ़ेक गया
पर सुन ए नापाक पाकिस्तान!
इतना भी ख़ुश मत हो
चालीस लाल शहीद हुए है
पर सवा करोड़ तैयार खड़े हैं
जा आज तुझे ललकारा
हिंद देश का हर वीर शिवाजी
हर नारी लक्ष्मीबाई है
कुत्ते की तुम्हें मौत मारेंगे
अपने शहीदों का
बदला लेंगे बदला लेंगे

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति’
स्वरचित

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देश के अमर शहीदों को समर्पित)

किस जयचंद ने फिर लिया जन्म
उसने कितना घटिया किया कर्म
ग़द्दारों को राज़ बताया
आत्मघाती हमला करवाया
वीरों के जिस्म का लहू बहाया
पुलवामा को लहूलुहान बनाया
सीमा के प्रहरी हो वीर जवान
धरती पुत्र हो तुम महान
जननी माँ के दूध का ध्यान
जन्मभूमि की रक्षा का भान
देश सेवा का सदा करते गुणगान
तेरी शहादत का करते सम्मान
तुमसे देश की आन बान और शान
तेरे लहू की बूँद बूँद पुकार रही
तेरी शहादत का बदला माँग रही
तूने तिरंगे का जो मान बढ़ाया
तेरे तन पर उसने ख़ुद को सजाया
ए शहीद! तेरी शहादत को नमन
इतिहास पन्ने करेंगे तेरा चयन
हृदय की वेदना को कैसे दे दूँ तिलांजलि
आँसू की स्याही से लेखनी दे रही श्रद्धांजलि ।

संतोष कुमारी’ संप्रीति’
स्वरचित

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काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह का बोलबाला
* इंसानियत संग हो रहा अजब घोटाला
* स्वार्थ भाव के बन रहे अनुरागी
* परोपकार की भावना ही त्यागी
* रिश्तों में चहुँ ओर दिखे छलावा
* विश्वसनीयता बस महज़ भुलावा
* धर्म आस्था का कैसे मान घटाया
* नक़ली बाबाओ ने जाल बिछाया
* पहन गांधी टोपी सफ़ेद खद्दरधारी
* दाँवपेचों में उलझी प्रजा बेचारी
* जाति संरक्षण मुद्दा संक्रमण झेल रहा
* आरक्षण के नाम पर जुआ खेल रहा
* छद्म वेश में खुले घूमते व्याभिचारी
* चरित्र कलंकित रोए अस्मत बेचारी
*ओछी मूल्यहीनता लाती विपत्ति
* अज्ञानता बन जाती है विकृति
* लेखनी तत्पर शब्द अव्यवस्थित
* कैसे करूँ ज़हर को परिभाषित
* समझ लो मानव हैं
* एक महा समुद्र
* अब करना होगा
* पुनः समुद्र मंथन
* जोराज़ोरी करते मानव अमानव
* ज़हर का प्याला पुकारता शिव
* चौदह रत्नों की हो फिर उत्पत्ति
* सफल जीवन मूल्यों की हो निष्पत्ति ।

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति’ 
स्वरचित
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सदियों पहले का वो विज्ञान
मेरे भारतवर्ष का वो अभिमान
इतिहास के पन्नो को उलटो
वैज्ञानिकता के प्रमाण समेटो
सभ्यता विश्व में जब थी सोई 
मेरे देश के मनीषियों ने तब
विज्ञान रश्मियाँ थी बिखराई
सुश्रुत, चरक, पतंजलि, आर्यभट
हरएक भारतवासी बख़ूबी जानता
शल्य चिकित्सा, योग , खगोल की
हर उपलब्धि को है पहचानता
होकर ज्ञान विषय विशेष
विज्ञान कहलाता है
हर विषय की अपनी छाप
भिन्न विज्ञान बन जाता है
सत्य का बोधक विज्ञान
प्रयोग का साधक विज्ञान
उपयोगिता की मुहर लगे तो
तकनीक रूप बनता विज्ञान
विज्ञान की निज पहचान
तरक़्क़ी का होता भान
विकास का है दूजा नाम
आधुनिकता लागे अभिराम
द्विपक्षीय आयामी विज्ञान
परार्थ रूप में वरदान
स्वार्थ रूप में अभिशाप
मनुज का विवेक कभी
ना मौन होना चाहिए
विज्ञान का केवल और केवल
सदा सदुपयोग होना चाहिए ।

संतोष कुमारी ‘संप्रीति’
स्वरचित

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आज हृदय के काग़ज़ पर
मनोभावों की लेखनी चलेगी
क्या लिखेगी , कैसे लिखेगी ?
आज ये मेरी ना सुनेगी !!
ज़िंदगी की किताब को 
ख़ूब पढा है इसने
रिश्ते नातों को परखा इसने
अपनों को पराए
परायों को अपने
होता देखा जिसने
ज़िंदगी की अजीबियत
क़रीब से देखी इसने
कभी रहनुमा कभी ख़ुशनुमा
पलो को संयम से 
बनते बिगड़ते देखा इसने
ए मेरी लेखनी आज मैं
तेरा आह्वान करती हूँ
काग़ज़ के कोरेपन को
तेरे सुपुर्द करती हूँ
ना घबराना
ना शर्माना
बस लेखनी और काग़ज़ की
मर्यादा को संतुलित रखना।

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति,
स्वरचित
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सात रंग जब मिल जाएँ
इंद्रधनुष बन जाता
अनंत उन्मुक्त गगन की

शोभा ख़ूब बढ़ाता ।

पतझड़ जब भी आता
पत्तों का जीवन मुरझा जाता
पर हरा रंग हरियाली का
वह वसंत में पा जाता ।

असंख्य हिम कण पर्वत प्रदेश की
शोभा को हमें बताता
श्वेत रंग की आभा से
प्रकृति का अंग अंग मुसकाता ।

केसरिया श्वेत हरा रंग मिलकर
मेरे देश का तिरंगा कहलाता
उसकी आन बान शान में 
मेरा मस्तक ऊँचा हो जाता।

ज़िंदगी भी एक रंगमंच कहलाती
विविध रंगों से सजी धज़ी
किसके हिस्से में कितने रंग
इस प्रश्न में आकुलता बड़ी ।

कर्म फल का रंग गहराता ??
विधि विधान का सख़्त पहरा ??

अपनी अपनी ख़ुशियों के लेकर रंग
दुनिया रंगीन बनाते है हम
किसी बेरंग ज़िंदगी को रंगरेज़ बनाओ
तब तो तुमको जानेंगे हम ।

स्वरचित
संतोष कुमारी
दिनांक ०१-१०-२०१८

हँसते रंग


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मूल्यों -आदर्शों को अपनाए बिना
किसी की जयकार नहीं होती 
कथनी हो पर ना हो करनी

उस शख़्स की कोई पहचान नहीं होती।

ज्ञान ,विज्ञान ,धर्म ,न्याय, शिक्षा
विस्तृत आलोकित ज्ञान रश्मियाँ
आचरण कसौटी पर परखा आदर्श
प्रतिमान बन अमर कहलाता ।

स्वार्थ भाव से ऊपर उठकर
परमार्थ भाव स्वीकार करो
त्याग ,समर्पण स्वयं समर्पित
अमरता का रसपान करो ।

जिस जिस ने इतिहास रचा
ऐतिहासिक वह किरदार बना
पुण्य धरा पर किए सत्कर्म
स्वर्णाक्षरों में वह नाम जड़ा ।

असीम बल बुद्धि से सुसज्जित
विवेकी तुम कहलाओ
कर्म करो जग में ऐसे
तुम महान अमर कहलाओ ।

स्वरचित
संतोष कुमारी


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(हिंदी जयगान)

संस्कृत भाषा जननी मेरी
उसने मुझको जन्म दिया
देवनागरी बनी लिपि
मैंने ख़ुद को हिंदी नाम दिया ।

मेरे वर्णों की वैज्ञानिकता 
क्या ख़ूब सराही जाती
इतर भाषा का शब्द मेल
मेरी उदारता कहलाती।

महज़ इक भाषायी
मैं नाम नहीं हूँ हिंदी
हिंदुस्तान के जन जन की
ज़ुबान हूँ मैं हिंदी।

तुम मेरी सीमाओं का ना पूछो यूँ विस्तार
उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम 
चहुँ ओर मेरा धाम ।

अपने तीज त्योहारों का भाल बन गई हूँ
मीरा तुलसी कबीर वाला
फिर काल बन गई हूँ

मेरे साहित्य सरोकार ने मुझे ख़ूब निखार दिया
भूमंडलीकरण के दौर ने मेरा माँ बढा दिया ।

सात समंदर पार देश की शान बन गई हूँ
समाचार वाचन की अब नई रीत बन गई हूँ

देश के कोने कोने में इसकी बिंदी का सम्मान हो 
नित नयी पहचान मिले जग में ,मेरी हिंदी का जयगान हो ।
स्वरचित 
संतोष कुमारी

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मैं श्रमबदध
मैं कर्मबद्ध
मैं श्रम साधना करता।

ना सिर पर छत का हमसाया
ना तन वसन पूर्णता पाया
सड़क किनारे बिछा मेरा बिछौना
वाह! खुले आसमान के नीचे सोना!
तुम आलीशान बंगलें में सोते
स्वप्न नींद में क्या पाते ??

कंकरीट का जंगल सजाता
मैं एक मज़दूर कहलाता
फिर भी कोई क्षोभ नही
गिला शिकवा कोई शोर नहीं
अपनी ग़रीबी से मैं बेहाल नहीं 
उस रब की मर्ज़ी पर मलाल नहीं ।

ख़ुदगर्ज़ नही ख़ुद्दारी है यह
मेरे साहस के आगे 
तेरी अमीरी मुझ से हारी है !
मैं श्रमनिष्ठ
मैं कर्मनिष्ठ
मैं स्वपोषित स्वाभिमानी हूँ
मेरी ग़रीबी हाँ मेरी ग़रीबी
मेरा ख़ुद का कोई अभिशाप नहीं
यह परपोषिता की अजब निशानी
शोषण की बेज़ुबान कहानी है ।

स्वरचित
संतोष कुमारी
९-१०-२०१८


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आजकल
अपनेपन के दावों को
टटोलने लगी हूँ
खोकलेपन की परतों को
अब उधेड़ने लगी हूँ
अब मैं 
सचेत होने लगी हूँ
दाँवपेंच की पेचीदगी
अब परखने लगी हूँ।

जो दिखता है
वो बिकता है
जो बिकता है 
वो टिकता है
कलयुग की माया
दिखावा बस छलावा
कौन गिरा दे
कौन मिटा दे
हृदय को ना जाने
कौन ठेस पहुँचा दे !

किसको कहूँ ?
कैसे कहूँ ?
शब्दों का चयन
बड़ा भारी है ,
ऊहापोह की स्थिति
अभी जारी है
मेरी संज्ञा की व्यापकता
क्या तेरी विशेषता से हारी है ???
मैं हूँ उसकी 
वो मेरी कौन?
ख़ामोशी! निशब्द ! केवल मौन!!!
कचोटती आंतरिक पीड़ा
बरबस हो गई अधीरा
लेखनी की धार
अभिव्यक्ति पर वार
ये कैसी कशिश है !
कैसा मेरा रचना संसार ।

स्वरचित
संतोष कुमारी

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मन के छंदों को छूने की अमल अभिलाषाएँ
शब्द कहें ,अर्थ मुसकाएँ,मनोभावों का बोध कराएँ ।

किसी कन्या भूर्ण की हत्या ना गर्भ में होवे
बेटी पढ़े,आगे बढ़े,नाम उसका जग में होवे।
सड़कों पर बेटियों का मान- सम्मान ना खोवे
सारे आम उनकी अस्मत का तार तार ना होवे ।
संतुलित भोजन और उचित संरक्षण
सब पावे
कोई भी बालक कुपोषण का शिकार ना होवे ।

कोई मासूम बचपन ना बर्तन माँजे,मलबा ढ़ोवे
बाल मजदूरी प्रांगण नही विद्या का मंदिर पावे ।
रोटी कपड़ा मकान की आवश्यकता सबकी पूरी हो जावे
किसी ग़रीब भूखे की आँत सिकुड़ बल ना खावे ।
हर नेता सुनेता बने ना भ्रष्टाचार बढ़ावे

जनता को दिए वायदों की वो पूरा कर पावे ।
शिक्षा व्यवस्था में वस अब भारी परिवर्तन हो जावे
शिक्षा संग जीवन मूल्य शिक्षार्थी सीख पावे ।
ना कोई द्वेष-बैर ,ना जाति धर्म की झूठी शान
राम राज्य पुनः आ जावे ऐसा बने मेरा हिंदुस्तान ।

मेरी अभिलाषा का ऐसा हो वर्ण
संयोजन
सर्व मंगलम,सर्वहिताय हो ,सुखद प्रयोजन ।

स्वरचित
संतोष कुमारी


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किसी खेत में ना उपजती
ना ही बाज़ार में बिकती
तन -मन में जिसने धूनि रमाई
उसने प्रीत की राह अपनाई

परवश होकर कदापि ना होती
ख़ुद ही उपजे ख़ुद ही खोती
इसकी ना कोई जात -पात
धर्म -सम्प्रदाय से ना मेल -मिलाप

मुरली की तान और राधा की मुसकान
सुदामा का नाज़ कहो कान्हा परम धाम
त्याग -जप का ही प्रीत दूजा नाम
आत्मिक मिलन के स्पंदन का परिणाम

प्रीत पुनीता ,प्रीत शुचिता की भाषा
राधा मीरा की वो निष्काम अभिलाषा
इस प्रीत अनन्या का नही कोई नाम
केवल कोरी प्रीत दूज़ा नहीं कोई काम

प्रीत के रंग जब -जब खिलते
अन्य रंग बस बेरंग दिखते
हृदय में जब प्रीत समाए
मन झूमे ,गावे और मुसकाए
इस प्रीत का ना कोई मोल तोल
दिखावेपन का ना कहीं कोई झोल
मैं चाहूँ तुम चाह बन जाओ
मैं गाऊँ साज़ तुम बन जाओ

मैं तड़फूँ तुम आह बन जाओं
मैं सवरूँ तुम श्रृंगार बन जाओ
मैं दिल धड़कन तुम बन जाओ
शब्द मेरे तुम अर्थ बन जाओ ।
स्वरचित
संतोष कुमारी
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