आरती श्रीवास्तव



लेखिका परिचय 

01):-नाम-आरती-श्रीवास्तव 02);-जन्मतिथि-9/1/1966 03);-जन्मस्थान;-छपरा(बिहार) 04);-शिक्षा;-B.A.Psychology Hons 05);-कविता, वर्ण-पिरामिड, तांका, हाइकु, लघुकथा, संस्मरण। 06);-वनिता मे लघुकथा, दैनिक जागरण मे स्तंभ, 07);-दैनिक जागरण से मर्दस डे पर माँ के लिए लिखे चिट्ठी पर सम्मान पत्र,भावों के भावों के मोती से अर्धवार्षिकि पर सृजन बिशेष सम्मान, गाँधी जंयती पर श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान, वर्ण पिरामिड दिव्तीय सम्मान, दीपावली बिशेष श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान, इत्यादि। 08);-गृहिणी
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दिनांक-२५/१२/२०१९
शीर्षक-तुलसी।

विधा-तांका
१)
तुलसी पौधा
है उपकारी सदा
दे सरंक्षण
महके घर बार
शुद्ध वातावरण।

२)
तुलसी पूजा
मन शांति जागाये
बढ़े समृद्धि
पूरी हो अभिलाषा
है सफल जीवन।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
25/12/2019
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दिनांक-२४/१२/२०१९
शीर्षक_प्रख/प्रंचड/तेज


प्रखर हो लेखनी मेरी।
करूँ प्रार्थना मैं रोज तेरी
प्रखर बुद्धि दो माँ भारती
नमन करूँ मैं माँ भारती।

कर्म पथ पर जब हम निकले
भर दो प्रचंड जोश अंदर
भागे भय अंतस की सदा
आत्मविश्वास भरा हो अंदर।

आराधना करूँ मैं तेरी
अंतस भर दो प्रचंड ज्योति
अज्ञान का तम हरो सदा
कर्मनिष्ट मैं बनकर रहूं।

प्रखर बुद्धि पाकर भी
बनी रहूं विनम्र सदा
करूँ समर्पण मैं सवर्स्व
उच्छुंखल न बनु कभी।

मैं तेरी संतान हूं
भुल न जाना तू कभी
प्रचंड जोश भर दो सदा
कर्त्तव्य पथ पर रहूं डटा।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव
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दिनांक २१/१२/२०१९
शीर्षक-निस्वार्थ सेवा।


निरुत्साह नही करे निस्वार्थ सेवा
निष्फल नही जाये निस्वार्थ सेवा
प्रकृति भी हमें यही सिखाती
करे सदा हम निस्वार्थ सेवा।

अकारण न जाये जीवन हमारा
करे प्रयास ,आये सदा दूसरों के काम
यथाशक्ति करें मदद दूसरों की
मनु धर्म भी कहता यही।

यश अपयश का न करे परवाह
तन मन धन से करे निस्वार्थ सेवा
करेंगे हम यदि निस्वार्थ सेवा
ईश करेंगे सदा भला।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

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दिनांक १९/१२/२०१९
शीर्षक_क्षमा/माफी।


करे मनमर्जी, माँगे माफी
ये कैसी मानसिकता इंसा की
रीति नीति से काम करे जो
फिर न माँगना पड़े माफी।

गर हो जाये गलती हमसे
जुबां नही दिल से माँगे माफी
सच्ची माफी वही माँगते
दोहराते नही जो वही गलती।

करे जो निरंतर गलती
वो नही माफी के काबिल
छोटो को सदा रहता
बड़ो के माफी पर अधिकार।

फितरत ऐसा रखना नही
माफी माँगते रहे सदा
जब तक न हो गलती
माफी न माँगे कदा।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव

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दिनांक २०/१२/२०१९
शीर्षक_जीवन शैली


बदल कर अपना जीवन शैली
बहुत पछताये आज।
सूर्योदय से पहले उठना
आये न अब रास।

जल्दी सोते गाँव के लोग
मैं शहरी बना हूं आज
देर रात तक चैटिंग करता
सुबह देर तक सोता।

दाल रोटी को त्याग कर
फास्ट फूड खाता आज
बदल कर अपना जीवन शैली
बहुत पछताया आज।

दूसरों की नकल कर
करे न जीवन शैली का चुनाव
उम्र,पद और स्थान के अनुसार
हो जीवन शैली में सुधार।

जीवन शैली हो ऐसा
जो स्वस्थ रखें हमेशा
यही सोचकर सुधार लिया
अपना जीवन शैली पहले जैसा।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
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दिनांक १७/१२/२०१९
शीर्षक"घटना"

संस्मरण

घटना शीर्षक से मुझे एक बहुत पुरानी घटना याद हो आई।बात बहुत पुरानी है तब मैं इंटर की छात्रा थी।हम सब सहेलियां बस की भीड़ से बचने के लिए कभी कभी घर से काँलेज पैदल ही चले जाते थे,उस समय बस और रिक्सा की मात्रा बहुत कम थी,दस पन्द्रह लड़कियों की झुंड के साथ पांच किलोमीटर पैदल चलना सहज बात थी।
एक दिन की वह घटना मुझे आज भी याद है,मई की वह चिलचिलाती धूप और दुपहर के एक बज रहे थे, मैं अपनी सहेलियों के साथ काँलेज से घर के लिए पैदल ही निकल पड़ी थी,रास्ते में मैंने देखा कि, एक रिक्साचालक जैसे ही अपनी रिक्सा लेकर बाहर रोजी रोटी के लिए निकलने को उद्धत हुआ (शायद दुपहर का खाना खाने घर आया था) , वैसे ही उसका दो बर्षिय बेटा बापू बापू कहकर चिल्ला उठा,वह अपनी माँ के गोद में झोपड़ी के अंदर था,तभी मैंने देखा कि वह रिक्साचालक अपनी रिक्सा को वही छोड़कर, अपने बेटा को पुचकारने चला गया,दो मिनट के बाद जैसे ही वह रिक्सा के पास वापस आता,वह बच्चा पुनः बापू बापू की रट लगाने लगता,इस तरह से हर बार वह रिक्साचालक अपनी रिक्सा जो झोपड़ी से थोड़ी दूर पर था, छोड़ कर वापस जाता,ये क्रम करीब आधा घंटा तक चला,गरज यह की वह रिक्साचालक करीब आधा घंटा तक चिलचिलाती धूप में वात्सल्य के कारण खड़ा रहा, क्यों कि वह नही चाहता था की उसका बेटा धूप में झोपड़ी से बाहर आये।

वैसे तो यह कोई खास घटना नहीं है,हर पिता अपनी संतान को बहुत प्यार करता है, परन्तु न जाने क्यों उस बाप बेटे का प्यार मुझे अपूर्व लगा,आज ३०साल बाद भी वह घटना मेरे मन मस्तिष्क में इस तरह से कैद है जैसे वह कल की ही घटना हो।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

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दिनांक १६/१२/२०१९
शीर्षक-छल-बल

छल बल से जीते नहीं
ये सुंदर जहान
स्वविवेक से काम ले
तो बने आप महान।

दुर्बल को न सताइए
बल से अपने,आप
छल से ना तोड़िए
सज्जन जन अभिमान।

छल बल से बड़ा है
बुद्धि व विवेक
इन दोनो का साथ मिले तो
मिटे सब क्लेश।

मानवमात्र को चाहिए
करें उत्तम व्यवहार
छल बल है तमोगुण
इससे न हो सरोकार।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।


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दिनांक १४/१२/२०१९
स्वतंत्र_लेखन


कुंडलियां_नारी

नारी जग की जान है,है वसुधा की शान
मूरत ममता की सदा,सीरत की ये खान
सीरत की ये खान,बने ये घर की रानी
निर्बल इसको मान,करता जग मनमानी
इज्जत इनकी करें,खुशी की चाहत भारी
सृष्टि की ये जननी, उपेक्षित रहे न नारी।

पानी

पानी बूँद अमोल है,समझो इसको मीत
इसके बिना जीवन नही,जानो जग की रीत
जाने जग की रीत,ये जो मिला उपहार
जायेगा ना ये व्यर्थ,जल ही जीवन आधार
जल बिना अन्न नही,सुनो मानव ज्ञानी
कहे कवि समुझाये,बेकाम न जाये पानी।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।


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दिनांक-१४/१२/२०१९
शीर्षक-"विरोध"

मन मसोस कर क्यों रहे?
करना सीखे विरोध,
हर काम की अति बुरी
विरोध करना भी जरूरी।

क्यों रहे इस आस में
होंगे मसला हल
कोई मसला सुलझे नही
टूटे मन की जोत।

हर एक का समर्थन
करे भला हम क्यों?
अपना भी जमीर है
इसे बचाये हम।

जन विरोधी का
करें ना कोई काम
जनहित में न हो जो
करें विरोध हम।

विरोध में न करे कोई तोड़ फोड़
मौन रह कर करें विरोध
इसका न कोई तोड़
गलत काम का करे विरोध रोज।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव

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दिनांक_१२/१२/२०१९
शीर्षक-कीमत


आकाश न करें अपनी प्रशंशा
देखो उसकी कीमत
हर मंहगी चीज की तुलना
उससे करें हम निरंतर।

जिस ऊँचाई को छुआ उसने
बिना किये अभिमान
थोड़ा पद पाकर हम
करें क्यों अभिमान?

अभिमानी का होता सिर नीचा
कीमत चुकाये भारी
रावण ने चुकाई कीमत
खोकर प्रतिष्ठा सारी।

हर एक को चुकाना पड़ता
अपने कर्मो का फल
इसे रखे याद सदा
तभी सफल हो जीवन।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

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 दिनांक-१०/१२/२०१९
शीर्षक-संतुलन

अपने वाणी में रखे संतुलन
संतुलन रखें अपने कर्मो का
इस धरा पर सभी रखें
अपने हिस्से का संतुलन।

हस्तक्षेप न करें प्रकृति में
संतुलन बनानें में दे साथ सदा
दूसरों का मान का हनन ना करें
सबको दे सम्मान सदा।

जब जब बढ़ा है धर्म में असंतुलन
होता है संग्राम बड़ा
कमलनयन लेते अवतार
संतुलित करने को धरा सदा।

अद्वितीय है धरा हमारी
इसे संतुलित रखना हमारी जिम्मेदारी
प्रकृति है संपदा हमारी
इसे संतुलित रखना जिम्मेदारी भारी।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
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दिनांक ९/१२/२०१९
शीर्षक_नियति


नियत में गर खोट हो तो
नियति करे चोट
नियति और कुछ नही
अपने कर्मो का फल।

नियति के भरोसे
करे ना समय बर्बाद
सब कुछ नियति ही करे
कुछ तो करिए आप।

हर क्षण हर पल
नियति को देते क्यों दोष?
मूढ़ भी ज्ञानी बन जाये
जब करे प्रयत्न।

दूसरों के उन्नति देख
रहे न मन मसोस
साथ रहे दुसरो के खुशी में
तो खुशियां बरसे द्वार।

नियत रखे सुंदर तो
उन्नति करे आपका इंतजार
हमारे कर्मों का लेखा जोखा ही
नियति बन, रहते हमारे साथ।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
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दिनांक_७/१२/२०१९
शीर्षक-"आसरा/सहारा


दुर्बल जन का बने सहारा
मन निर्मल से जो करें पुकार।
मनोबल न टूटे किसी का
मनोयोग से करें प्रयास।
कल किसने देखा जग में
बने सहारा एक दूजे के संग में।
अपेक्षा है गर किसी को आपसे
आस टूटे ना कभी किसी का।
हम किसी के सहारा बने तो
प्रभु से मिले हमें सहारा।
इस धरा पर सबको चाहिए
सदा एक दूजे का सहारा।


स्वरचित आरती श्रीवास्तव.
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"नमन-मंच"
"दिंनाक-१२/४/२०१९
"शीर्षक-सुख-दुख"
जैसे नभ मे चाँद सितारे
वैसे सुख दुःख साथ हमारे
दोनों आते बारी बारी
दोनों हमारे संगी साथी।

पूर्ण चाँद जब हमें लुभाते
अंधेरी रात से हम क्यों घबराते?
सुख दुःख तो जीवन के अंग
दोनों चलते जीवन भर संग।

दुख मे हम क्यों हो अधिर?
ईश है जब संग हमारे
सुख के दिन वे फिर लावेंगे
फिर जीवन मे खुशियाँ लावेगें।

प्रभु ने हमें यह बतलाया
दूसरों के सुख से न हो दुखी
दूसरों के दुःख मे तुम हो दुखी
तभी बनेगा जीवन सुखी।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

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"मृत्यु""
मृत्यु तो है शाश्वत सत्य
इसी से जीवन मरण का चक्र
इससे भला क्या घबराना 
इससे पड़ता सबको पाला।

धन दौलत, सब संगी साथी
साथ ना जाये कोई हमारे
कर ले कुछ ऐसा कर्म
भय न रहे मृत्यु का हमें।

,जब है यह निश्चित उपहार
मिले सबको कर्मानुसार
प्रभु ,तुम करना इतना उपकार
थाम लेना प्रभु हाथ तुम अंतिम बार,

भयभित न हो हम मृत्यु से
सुन्दर सलोने, श्याम मोरे
मुरली बजाना तुम फिर एकबार
अंत समय जब आये हमारे द्वार।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

"शीर्षक-मान/अपमान"
मान रखे अपने कुल का
कभी न होने दे अपमान
नारी का अपमान ना करना
सदा करना उनका सम्मान।

पति पत्नी है एक समान
कभी न करें एक दूजे का अपमान
मान रखे हम दूसरे का
तो हमें मिले स्वयं सम्मान।

अनुपम है यह जीवन हमारा
कभी न भूले हम सदाचार
स्पर्द्धा नही है जिंदगी हमारी
मान अपमान को करें किनारा।

सहज सरल हो जीवन हमारा
श्रेष्ठता, लघुता का न रखे ध्यान
मान अपमान तो आनी जानी है
इसका न हो जीवन पर प्रभाव।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

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माँ सरस्वती, हँसवाहिनि,बीणा वादिनी
सुन लो मेरी पुकार
मै अज्ञानी जान न पाऊँ
कैसे करूँ मनुहार

माँ सरस्वती वीणावादिनी, सुन लो मेरी पुकार

तू सर्वज्ञ मईया मेरी
सुन लो मेरी पुकार
श्वेताम्बर,श्वेत पुष्पों की माला
अबीर सोहे तुम्हरे भाल

माँ सरस्वती, हँसवाहिनि सुन लो मेरी पुकार

दिव्य रूप है मईया तेरी
दे दो,दर्शन करो निहाल
तू अलौकिक मईया मेरी
करो मेरा कल्याण

माँ सरस्वती, बीणावादिनी, सुन लो मेरी पुकार

नही चाहूँ मैं धन व दौलत
दे दो सद्बुद्धि, ज्ञान
क्षणिक सुख मे भूली मै मईया
परलोक दो सुधार।
माँ सरस्वती, हँसवाहिनि सुन लो मेरी पुकार।

स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

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मैं मुखर हूँ ,पर वाचाल नही
मैं कौन हूँ, कोई समझता नही,
मैं मौन हूँ, पर गूंगा नही,
मैं रक्षक हूँ, भक्षक नही।

मैं उद्यमी हूँ, आलसी नही
मैं खरा हूँ खोटा नही
मैं चेतन हूँ, जड़ नही
मैं बुद्धिमान हूँ, मुर्ख नही।

मैं उदार हूँ, रूढ़िवादी नही
"मैं" मै हूँ ,कोई और नही
मुझमें इतने सारे गुण है
कोई जानता नही
मैं"मैं"को समझता कोई और नही

अपने अंदर के"मैं"को निकाल दे
तो कुछ बचता नही
मैं कौन हूँ ,कोई समझता नही
मैं "मैं"को समझता कोई और नही।
स्वरचित -आरती-श्रीवास्तव।
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बचपन के है मासूम प्रश्न
जवानी के प्रश्न हजार
बुढा़पा है स्वयं एक प्रश्न
आखिर किया क्या गुनाह?

सारे प्रश्नों का बस एक जवाब
हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा
हो जाय सभी समस्याओं का निदान
प्रश्न है तो उत्तर भी है।

दूसरो से प्रश्न करने से पहले
प्रश्न करें हम अपने आप
आखिर ये प्रश्न क्यों, कब और
कैसे उठ खड़ा हुआ आज

इन प्रश्नों को सुलझाने में
किसका कितना है योगदान
और मैंने किये है कितने प्रयास
उत्तर ढूंढे पहले आप।

एक प्रश्न पूछने से पहले
हजारों उत्तर है बाहानोबाजो के पास
प्रश्न आखिर है ये ,क्यों करें ऐसा काम
जिससे दुनिया करें सवाल

प्रश्नों की हैं दुनिया निराली
सबसे है इसकी रिश्तेदारी
रिश्तेदारी ये खूब निभाती
आपको छोड़कर ये कही नही जाती।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

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"शीर्षक-डोर/पंतग
आसमान छूनो को व्याकुल है पंतग

बोले अपनी डोर से कुछ ऐसी वह व्यंग्य
क्यों उलझ गये हो तुम?
क्या मुझसे डर गये हो तुम

जल्दी अपनी उलझन सुलझाओ
मुझे अपनी मंजिल पहूचाँओ
सुन पंतग की ऐसी बात
डोर ने बोली सिर्फ एक ही बात

धर्य रखो और रखो अपनो पर विश्वास
तभी तुम छू सकोगे आसामान
सुन डोर की सुंदर बाते
पंतग ने समझी सारगर्भित बाते।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
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"नमन-मंच"

"स्वतंत्र-लेखन"

नफरतें नही हम प्यार करते है

सबकी सलामती का दुआ करते है

उपवन मे है फूल हजारों

उनकी सलामती का हम दुआ करते है



नफरतें नही हम प्यार करते है

बदला नही हम  माफ करते है

जिगर में अपनो के हम रहते है

अपने जिगर मे हम अपनों को रखते है



नफरतें नही हम प्यार करते है

तेरी आस पर हम बिश्वास रखते है
मुहब्बत करना आसान नही
फरियाद तो हम सभी करते है

नफरतें नही हम प्यार करते है
चमन मे फूलों से नही
हम दुआ के हजारों रंग से प्यार करते है।
नफरतें नही हम प्यार करते है।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
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"शीर्षक-मान/अपमान"
मान रखे अपने कुल का
कभी न होने दे अपमान
नारी का अपमान ना करना
सदा करना उनका सम्मान।

पति पत्नी है एक समान
कभी न करें एक दूजे का अपमान
मान रखे हम दूसरे का
तो हमें मिले स्वयं सम्मान।

अनुपम है यह जीवन हमारा
कभी न भूले हम सदाचार
स्पर्द्धा नही है जिंदगी हमारी
मान अपमान को करें किनारा।

सहज सरल हो जीवन हमारा
श्रेष्ठता, लघुता का न रखे ध्यान
मान अपमान तो आनी जानी है
इसका न हो जीवन पर प्रभाव।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

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नमन मंच
दिनांक /७/४/२०१९
"स्वतंत्र-लेखन
"संस्मरण"विडंबना"
कुछ दिन पहले मैं अपनी सहेली से मिलने उसके घर गई,वह बहुत दुःखी और परेशान लग रही थी, जब मैंने उससे कारण जानना चाहा तो वह बहुत ही मायूसी से बोली"मैं १५दिन के लिए अपने मायके गई थी,जहाँ मुझे अपनी भाभी की कमी बहुत ही खल गई"
  परन्तु मैंने उसे टोकते हुये कहा"लेकिन जहाँ तक मुझे याद है ,तुम्हारा कोई भाई है ही नही, सिर्फ तीन बहने है,फिर भाभी की कमी?मुझे कुछ समझ नही आया"तभी वह रोनी सूरत बनाते हुये बोली"बचपन से लेकर आज तक हम तीनो बहनों को मम्मी पापा ने इतना प्यार दिया कि भाई की कमी कभी महसुस ही नही हुई,परन्तु आज मेरी शादी के तीस साल बाद,भाभी की कमी हमें बहुत खल गई।"
    जब मैंने पूरी बात जाननी चाही तो उसने बताया कि"जबतक मम्मी पापा स्वस्थ थे:हर छुट्टियों में हम बहनें अपने पूरे कुनबे के साथ छुट्टियाँ मनाने मैके जाते रहे,और हम सब बहुत मस्ती करते, परन्तु अब मम्मी का उम्र हो चला है और वे हमें रसोई में बिल्कुल सहयोग नही करती;वैसे मे हम सभी बहनों को ही पूरे परिवार के लिए दिनभर खाना बनाना पड़ता है, यहां तक की सभी दामाद और बच्चों की फरमाइश हमें ही पूरी करनी पड़ती है, रात होते होते हम सभी बहने इतने थक जाते थे कि मैके जाने का सारा मजा ही किरकिरा हो जाता,आखिर मैके जाकर भी हमी रसोई संभाले,वैसे मे मैके जाने का आखिर फायदा ही क्या है?अब तुम्हीं बताओ भाभी की कमी हमें क्यों नही खलेगी?हमारी एक भी भाभी रहती तो हम सब बहनें वहां जाकर खूब मस्ती करते और धमाल मचाते, और भाभी अपनी गृहस्थी मे खटती रहती।"
   मैं अपनी सहेली की मुख से ऐसी बाते सुनकर यह सोचने पर मजबूर हो गई"वाह रे राम जी, तुम्हारी दुनिया अद्भुत है जिन बेटियों को उनकी मम्मी पापा ने कभी भाई की कमी नही महसुस होने दी,आज वही बेटियों अपनी मम्मी पापा के वृद्धावस्था में उनका सही मायने में सहारा न बनकर एक भाभी ना होने का रोना रो रही है।क्या शादी के बाद मैका सिर्फ आरामगाह ही बनकर रहना चाहिए, क्या हमें मैके मे अपनी भाभी या माँ की मदद नही करनी चाहिए, मैं अपनी सहेली को उसकी छोटी सोच के साथ छोड़ कर तुंरत अपने घर आ गई क्योंकि हमारे संस्कार तो मैके क्या, किसी भी रिश्तेदार के घर जाकर मदद करने की है।
   स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
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"शीर्षक-वोट/मत
वोट आपका है दूसरों का नही
किसी से डरने की जरूरत नही
यह आपका अधिकार है
कर्तव्य भी है यही।

अपना कीमती वोट
सही प्रत्याशी पर डाले जरूर
एक एक वोट की कीमत ज्यादा
यह बदल सकता है देश का भविष्य हमारा

सोचें, समझे करें वोट
यही है आपका असली हथियार
एक एक वोट का मोल अमोल
जाने, समझे तब करें वोट।

जिसको न हो कनक का मोह
जो स्वयं हो कनक समान
ऐसे प्रत्याशी चुनें आप
यही है मेरी अरज श्री मान।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
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शीर्षक-साथ/साथी
जब कोई ना दे साथ मेरा
तब तुम देना साथ प्रभु
जब विचलित हो मन मेरा
तब देना जरा ध्यान प्रभु।

जब कभी मैं भूल भी जाऊँ,
तुम रखना याद प्रभु,
जब तक रहूँ मैं अचला पर
खंडित न हो विश्वास प्रभु।

कलि काल मे तुमसा प्रभु
ना संगी ना साथी प्रभु
अंतर बाह्म मैं एक सा रहूँ
करना ऐसा उपकार प्रभु।

मैं भोगी,तुम योगी प्रभु
फिर भी देना साथ प्रभु
मै लौकिक, तू अलौकिक प्रभु
फिर भी देना साथ प्रभु

सत्कर्म मैं हमेशा करूँ
ताकि तुम दो मेरा साथ प्रभु
सच्चा साथी तुम ही हो
समझ गई मैं बात प्रभु।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

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"शीर्षक-बुद्धि/दिमाग/मति
जब दिमाग में हो उथल पुथल
तब बुद्धि करें सजग हमें
जैसे अर्जुन को दिये गीता का ज्ञान
वैसी बुद्धि दो भगवान।

उचित अनुचित का करें विचार
बुद्धि विवेक जागे हर बार
धर्म कार्य से हो न हम दूर
स्वविवेक जागे जरूर।

नियति करें जब हमें परेशान
मन न विचलित हो भगवान
ध्यान रहे बस तेरे चरणों पे
ऐसी बुद्धि दो भगवान।

परिहार न करना कभी तुम हमारा
चारो पहर हम जपे नाम तुम्हारा
हरो तम, दो बुद्धि ज्ञान
कृपा करो हे कृपानिधान।।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

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शीर्षक-फुरसत"
आरामकुर्सी लुभा रही मुझे
रह रह कर बुला रही,
आओ देखो,एक बार मुझे
फुरसत के पल बितायो साथ मेरे ।

कैसे समझाऊँ?आज तुम्हें
अधिर न हो तुम आज ऐसे
जब सब होगें मेरे साथ
साथ बितायेंगे फुरसत के पल ।

बीते दिन हम याद करेंगें
जी,भर कर हम साथ जियेंगे
कर लेने दो इंतजार मुझे
फुरसत के पल फिर आवेगे।

सुनकर मेरी ऐसी बात
कुर्सी ने बोली, सिर्फ एक ही बात
सभी करते है मुझसे प्यार
पर मुझको है सिर्फ आपका इंतजार।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
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"शीषर्क-पराग/मकरंद"
उड़ चले तितलियों के झुंड
लेने अपने हिस्से का मकरंद
दूर दूर से वे उड़ के आये
पुष्प देख उन्हें, मन मुस्काये।

लाल ,पीली, नीले पुष्प
बिखेर रहे पराग कण
फूलों के बाग सुहाने
तितलियों के संग छटा निराले।

प्रकृति बस खिल उठी
अपनी छटा पर मुग्ध हूई
मधुमक्खी ले फूलों की पराग
मधु बनावे वे सुन्दर लाजवाब।

मधु लाभदायक हमारे लिए
इनके सेवन से भागे रोग
गुलकंद भी है स्वास्थ्यवर्धक
है इसमें गुलाब के मकरंद।

स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
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"शीर्षक-उसूल/सिद्धांत"
सिद्धांत के बात मत पूछो
सिद्धांतवादी तो होते हम
शत्रु लाख बुरा चाहे
सदा भलाई करते हम।

बुद्ध के सिद्धांत के हम पूजारी
अंहिसा को अपनाये हम
अनिष्ट ना चाहे हम किसी का
शांति के पूजारी हम।

अधर्मी हम नही
पर अन्याय के विरुद्ध लड़ते हम
इतने भी हम अज्ञ नही
आगामी पल पहचानते हम।

अंहकारी हम नही
पर स्वाभिमान मे जीते हम
सिद्धांत का बात मत पूछो
सिद्धांतवादी तो होते हम।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव
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उपकार हम दूसरो पर करें
यह मानव धर्म सीखलाता है
प्रकृति भी ,पल पल करती
हम मानव पर उपकार,

दधीचि ने प्राण त्यागे
किये देवों पर उपकार
उपकार करें सदा दूसरों पर
यही है मानव जीवन का सार,

खंडित है जिनकी मानसिकता
वे नही करते उपकार
उपकार करनेवाले को
स्वयं होता सुखद एहसास,

उपकार किया है प्रभु ने हम पर
दिया हमें श्रेष्ठ जीवन का उपहार
माँ-बाप है प्रभु का श्रेष्ठतम उपहार
इन्हें न दे कभी जीवन में डार
इनकी सेवा करने से मिल जाये हमे परमधाम।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
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अवसर मिले तो चूको मत यारो
अहं को त्याग दो आज तो
एक एक लम्हा जो बीत जायेंगे
वे न लौटेंगे पास मे

कुछ अपनी कहो ,कुछ उनकी सुनो
मत रूठो बेकार मे
जिंदगी कितनी दूर ले जायेगी
बिन अपनो के साथ में

ऐसा मौका फिर न आयेगा
जिंदगी के बाजार में
मिल बैठ साथ बुन लो
सपनों के संसार को

है ये सुनहरा मौका
दो कदम तुम बढ़ो
दो कदम वे बढ़ेंगे
एक एक मौका सब देगें

एक दूसरे को साथ मे
हे भगवान दो उन्हें एक मौका
सब बिछुड़े मिले साथ मे
सब बैठे हैं इस एक मौके की आस मे।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
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शीर्षक-खबर/समाचार
मर गई है संवेदनाएँ हमारी
भावनाएँ हो गई है सुषुप्त
कोई खबर हमें झकझोर नही पाती
रह गई है बस खबर मात्र

"पाँच मरे और सात घायल"
सुनकर भी नही रोते हम
क्यों होती है ये दुर्घटना
क्या कभी सोचते हम?

सड़क सुरक्षा न अपना कर
खाई अपनी हम खोदे हम
कभी कभी दूसरों की गलती की
सजा भी हम भुगते हम

रोज आती है ऐसी खबरे
मन मलिन हो जाता है
आओ सब मिलकर करें विचार
ऐसी खबर न छपे बार बार।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव

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"शीर्षक-फैसला"
दोराहे पर खड़ा है वह
कर रहा विचार
ले फैसला आगे बढ़े
या मैदान छोड़ जाय भाग

संकल्प ले वह आगे बढ़ा
छोड़ निराशा का गहन साथ
जड़ नही ,चेतन है वह
उसे रखना होगा याद

नायक है वह समाज का
बिटिया उसे बताती है
लिया फैसला, कर हिम्मत आज
कर दिया वह एलान

नही करनी बिटिया की अभी सगाई
करनी है उसे बाकी की पढ़ाई
जब होगी वह पैर पर खड़ी
तभी होगी सगाई

सुन पिता की अद्भुत फैसला
बिटिया हुई निहाल
सही मायने में नायक है पिता 
अब होगा समाज में सुधार।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

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चयनित करने निकले जब हम
देख कर रह गया मैं दंग
कौन अपना कौन पराया
ये जग ने मुझे खूब भरमाया

तुम करो प्रभु मदद हमारी
मैं अज्ञ,अबोध अनाड़ी
चुन चुन कर भरो झोड़ी मेरी
सब हो निर्मल प्रभु तेरे जैसी

प्रभु ने सुनी मेरी गुहार
भर दी मेरी खुशियों का संसार
एक एक मोती है मेरे पास
सगे संबंधी मित्र घनेरे

सबने दी मुझे सुखद एहसास
नमन करूँ मैं प्रभु बारम्बार
मैंने सौंपी अपनी जिम्मेदारी
चयनकर्ता सिर्फ आप हमारी

समझा मैने यह सार भारी
जीवन है सिर्फ दिन चार
क्यों करें मगजमारी
चयन करो सिर्फ ईश को
जिसने बनाई ये सृष्टि सारी।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
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थक हार कर लौट रहा वह
मन मे उठे विचार अनेक
खड़ी धूप मे खड़ा रहा वह
मिला बस सवार एक

रिक्शाचालक भले है वह
है वह एक बिटिया का बाप
माथे पर आये पसीना
दे रहा अलग एहसास

घर पर बिटिया करती होगी इंतजार
सोच सोच मंद मुस्काये
घर पहुंच जब बिटिया को
गोद मे उठाये वह आज

बिटिया का रूप सलोना
भर देगा जादूई एहसास
नन्हीं बिटिया है जादूगरनी
हर लेगी तुंरत थकान।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव
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जल जीवन आधार है
जाने सकल जहान
जल से न मनमानी करे
कहे चतुर सुजान

पानी रखे आँखों मे
वही है मान सम्मान
घर आये मेहमान जो
गुड़ जल दे उन्हें
करे उनका सम्मान

जल रहे गात मे
सहज सरल संसार
जल कम हो जो गात मे
सहज पड़े बिमार

जल के बिना अन्न का
नही कोई उपयोग
जैसे जीव बिन देह का
नही है कोई मोल

जल,वायु मिल बने
जलवायु हो नाम
पूरा व्यक्तित्व प्रभावित करे
जाने सकल जहां

जल है तो कल है
सभी जाने है आज
संचित करें हम स्वयं
पीछे सकल जहां
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पीठ पीछे वार करनेवाले
कभी सामने आओ तुम
है जिगर तो अपना मुँह खोलो
पीठ पीछे न कटु शब्द बोलो

मनुज नही दनुज हो तुम
भीरू,बुजदिल संभलो तुम
हो तुम जड़ मूढ़ अज्ञानी
हम है सनातन धर्म धारी

विभाजित नही पूरा संसार हमारा
सभी से है संबंध न्यारा 
ध्वज सदा ऊँचा रहे हमारा
धन ओ जन न्योछावर हर पल

ब्याल ,फन स्वयं हम कुचलेंगे
हम है केशरी, जीत के रहेंगे
अन्याय नही अब हम सहेंगे
ऋषि मुनियों का देश हमारा

अधर्म हम नही करेंगे
पर स्वाभिमान है सबसे आगे
तुरुप चाल हम नही सहेंगे
अब शांत न हम बैठेंगे।
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।



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बुरे काम का बुरा नतीजा
होता रहा है सदा
और होकर रहेगा आज
आंतकवाद का अंत होगा
आंतकियों के साथ

सद्गुणो का अंत नही होता
सदा फैलाता सुविचार
अच्छे कर्मों का अंत नही होता
रह जाता नाम के साथ

पाप पुण्य का लेखा जोखा
रहे हमेशा साथ
अंत करें अपने बुरे कर्मो का
सत्कर्म ले अपनाये

"अंत भला तो सब भला"
यही है जग का सार
अंतहीन यह जीवन चक्र है
सब जाने है आज।

स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।
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मानवता के दुश्मन हो तुम
मानव नही दानव हो तुम
ईमान को बेचने वाले
तुम देश के दुश्मन हो

दया, धर्म को न मानने वाले
रुग्ण है तुम्हारी मानसिकता
ओ दनुज तुम सुधर जाओ
बस मानवता को अपनाओ

अधर्मी, अन्यायी नही
तुम सरस्वती के पुत्र बनो
दुराचार को छोड़कर
मानवता अपनाओ तुम

ओ मानवता के दुश्मन
मत भूलो हो तुम मानव
भूल बस अपनी सुधार लो
मानव हो,मानवता को अपना लो।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
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उसके चेहरे का दाग
खोलते है कई राज
कभी रहा होगा ये नूर
किसी की आँखों का

आज बेनूर है उसकी जिंदगी
लोग करे जब उपहास
समझनी होगी एक ही बात
चेहरे के दाग नही रखते मतलब खास

दिल बस होनी चाहिए बेदाग
देखकर उसके चेहरे का दाग
मानवता बस होती शर्मसार
जिसने दिया है दाग वह आज

देखकर अपने कुकृत्य को
कर लो अपनी बस भूल सुधार
एक भूल सुधारने को
दुनिया दे रही है अवसर बस आज

करके अपनी भूल सुधार
अवसाद से बच सकते हो आज
और आत्मा पर लगे दाग को 
तुम बस लो सुधार।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
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बीते पल न रीते गये
दे गये वे सुखद एहसास
कल जो पहली बार मिले
आज हो गये वो अपने खास

कल के नींव पर जो कल होगा
होगा सुन्दर भविष्य हमारा
अतीत जो गया बीत
दे गया हमें वो सीख

आज जो है वह कल बनेगा
जी भर कर जी ले आज
अनमोल है ये आज का पल
बना ले इसे हम यादगार

अलविदा कहने से पहले
बीत न जाये आज का पल
गीले शिकवे भूल कर हम
क्यों न गले मिल जाये हम।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।


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कलेंडर सटा दीवार से
पूछे मुझसे बात।
मैं तो बदल जाऊँगा कल
कब बदलोगे आप?

जब तक मैं लोगों के काम आया
सबने मुझे रखा सभाँल
नये कलेंडर के आते ही
लोगों ने दिया मुझे डार

जब तक काम आवे हम 
दुनिया करें सलाम
मैं तो हारा नियति के आगे
तुम लो अपना भविष्य सवाँर

माया जाल है दुनिया सारी
मान लो मेरी बात
कर लो श्री राम से प्रीति
हो जाओगे पार

धोखा, झूठ फरेब से,कर लो तुम तोबा
प्रीत कर लो राम से ,कभी न होगी धोखा
सुन कलेंडर की ऐसी बात,मैंने जोर से बोला,जय श्री राम।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव। 


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आना है तो आओ प्रिये
नही चलेगी सौदेबाजी
सौदेबाजी गर रिश्ते में आये
टूट जाती है रिश्तेदारी

होगा क्या अंतर प्रिये
मेरे और तुम्हारे मे
सौदेबाज़ी तो गैरों से होती
अपनो से नही होती सौदेबाजी

एक सौदा मैंने अब ईश से की है
लेकर मेरा हर अवगुण
दे दिये मुझे दिल का सुकून
माँ -बाप की सेवा कर के
जीत ले हम दुनिया की बाजी

यह अच्छी है सौदेबाजी
स्नेह के बदले स्नेह लुटाना
यह अच्छी है सौदेबाजी
यही है उचित सौदेबाज़ी।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

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दिल को कोई पागल कहे
कोई कहे मरीज
दिल की बाते ,दिल ही जाने
और जाने न कोई।

बाणी ऐसे न बोलिए
दिल पर करे प्रहार
पत्थर दिल न बनिए
बस लुटाईये प्यार

दोस्ती करें दिल से
रखे इसका ध्यान
क्षमा, दया, प्यार, दुआ
सब है इसके पास।

इन सबको अपनाकर
बस बन जाये धनवान
दिल को बच्चा मानिए
पर दिल तो है समझदार

दिल से दुआ कीजिए
दिल पर करें न चोट
टूटे दिल के साथ जीना
होता है स्टंट

दिल से पुकारे प्रभु को
दौड़े आयेंगे पास
प्रभु को कुछ न चाहिए
बस चाहिए दिल के भाव





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धैर्य भरा हो जिसके अंदर
वह है मेरी धरती मईया
पाप पुण्य का बोझ जो ढ़ोती
वह होती है धरती मईया

हरी भरी वृक्षों से जो सजती
वह होती है धरती मईया
सुन्दर नदियाँ जहाँ कल कल
बहती, वह होती है धरती मईया

छोटे बड़े है गिरी जहाँ पर
वह होती है धरती मईया
मुक्त हस्त जो प्यार लुटाये
वह है मेरी धरती मईया

एक से बढ़कर एक वीर पुत्रों को
जन्म देती है मेरी धरती मईया
दिन रात धुरी पर घुमती
समय बदलती धरती मईया

अनमोल हो तुम हमारी मईया
संकल्प लेते हैं हम धरती मईया
रक्षा करेंगे हम तुम्हारी मईया
तुम हो हमारी धरती मईया।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।


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घर के बाहर का किवाड़
घर के भीतर का किवाड़
बातें करें वो बार बार

हम दोनों जो भी जाने
बाहर न जाये घर की बातें
घर की इज्ज़त, घर की सुरक्षा
यह सब है हमारी जिम्मेदारी

जब हो जरूरत, तभी हम खुले
बिन जरूरत हम मुँह न खोले
आवरण है हम इस घर के
मूल्य बनाये हमें है रखना

प्रतियोगी नही, सहयोगी है हम
बच्चे बूढ़े सभी हैं अंदर
कुमकुम लगा ले हम माथे पर
आधि व्याधि न आये अंदर

है हमारा एक ही लक्ष्य
सुरक्षित रहे सब अंदर
घर सुरक्षित तो हम सुरक्षित
सुन किवाड़ की ऐसी बात
मैंने ली चैन की साँस।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।





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जो रहते परिवार से दूर
वही समझते इसका मूल्य
हर पल सताये परिवार की बातें
खुशी हो या गम की राते

परिवार है जीवन आधार
इसके बिना जीना बेकार
है सोने की सेज अगर
चैन न आये परिवार वगैर

परिवार देते हमें संस्कार
वही आते जीवन में काम
बच्चे तो होते कच्ची मीट्टी
परिवार दे उन्हें सुंदर आकृति

परिवार मे रखे सदा यह ध्यान
हो सबका समान अधिकार
परिवार जो हमारी प्रथम पाठशाला
इसको बनाये रखें हम संस्कारशाला

बुजुर्ग है शिक्षक हमारे
बच्चे है शिष्य हमारे
इसमें न होते कोई इम्तहान
पर इसमे सीखे पाठ आते है
जीवन मे काम

परिवार मे रहे सौहार्द हमेशा
खुशियाँ बरसे तब दिन रात
करें हम हमेशा ऐसा काम
परिवार की कीर्ति बढ़े दिन रात




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एक अंकुर प्रस्फुटित हुआ
बना वह कोमल नन्हा पौधा
पानी खाद व धूप से सींच
अंकुर बना एक विशाल पौधा

जो था कल तक सबसे छोटा
आज बन बैठा वह विशाल पेड़
सैकड़ों खग का आश्रय बना वह
वह जो था कल नन्हा पौधा

जो आज छोटा हैं,
उसे कम नही समझे हम
कल को वह बन सकता 
है हमारा आका।
कल क्या हो किसने देखा?
कब बदल जाये किसकी रेखा
अपने कर्मों का लेखा जोखा
हमें स्वयं ही रखना होगा

हमारा एक छोटा सा प्रयास
बदल सकता है किसी का जीवन रेखा
करें हम कुछ ऐसा काम
दूसरों के साथ बदल जाये
अपनी भी जीवन रेखा।
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।




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जब हो घनघोर अधेंरा
बस हम एक दीपक जलाये
तीमिर हट जाये तुरंत
राह हमें तुरंत सूझ जाये

हटे तम अज्ञान का
जब एक दीप हम ज्ञान का जलाये
जैसे नभ का चाँद अम्बर मे 
उजाला फैलाये
भटके पथिक को अपना राह मिल जाये

ईश के सामने दीप जलाकर 
गान करें हम भक्ति का
फैले उजियारा भक्ति का
वातावरण शुद्ध हो जाये

कुलदीपक जब अपने सत्कर्म से
कुल का नाम रौशन कर जाये
उन्नति पथ पर अग्रसर हो जाये
पूरा खानदान सत्कर्म मे लग जाये

कलश के ऊपर दीपक रख कर
करे जब हम मंगल कार्य
शुभ मंगल हो हमारा
जीवन सुखमय हो जाये

वाल्मीकि के अंदर जब ज्ञान का
दीपक जल जाये, डाकू से परम भक्त
बन राम के,वाल्मीकि रामायण रच जाये

आँखे है हमारे दीपक समान
जो जग का हमें दर्शन कराये
यही है एक आस अःतकरण मे
ज्ञान का ऐसा दीप जल जाये
और प्रभु का हम दर्शन कर पाये।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।




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ओठ अगर खामोश रहे तो
मन ही मन चलता वार्तालाप
चिल्ला चिल्ला कर थक जाये तो
खामोशी छा जाती अपने आप

भार्या गर खामोश रहे तो 
गृह कलह भले टल जाये
पर जब चहकती है नारी
तभी खिलती है घर की फुलवारी

अनल धधक रहे जब सीने में
खामोशी क्यों बरतें हम
दनुज जब अस्मिता पर चोट करें
भला क्यों खामोश रहे हम

इल्जाम गलत लगे किसी पर
खामोश रहना है गुनाह
अत्याचार न सहे स्वयं
और न सहने दे किसी को

खामोशी हरदम काम न आवे
शोर मचाना भी जरूरी है
पर अधीर न होये हम
असत्य बोलने से तो आच्छा है

खामोशी ही बरतें हम ।
अनभिज्ञ है यदि कोई बातों से
बेवजह न बोले हम
तब खामोश ही रह जाये हम

परन्तु रिश्तो के मामले में
खामोशियाँ ही बेहतर है
नजरअंदाज कर दे हम क ई बातो को
और रिश्तो को बचाने के लिए खामोश ही रह जाये हम,तब सहज सरल

हो जाये जीवन अपना
जब रिश्तो मे अटूट स्नेह बंधन हो
खामोश गर रह जाये हम तो
रिश्ते टूटने से बचा ले हम
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।


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"लघुकथा"बदलते-रिश्ते"

""भाभी जी आपके छज्जे पर तो एक बहुत बड़ा पीपल का पेड़ निकल आया है, आपने कभी ध्यान क्यों नही दिया"।जब से पड़ोस में रहने वाली नेहा ने पूनम को बार बार टोकना शुरू किया, तो पूनम ने सोचा कितनी अचछी है नेहा, कितना ख्याल रखती है, कही पीपल का पेड़ बड़ा होने पर छत न टपकने लगे,सबसे ऊपरी तल्ला पर ही तो घर है उसका, यही सोचते हुए वह अपने घर की छत पर चढ़ी,देखी वाकई पेड़ बहुत बड़ा निकल आया था, उसे तुरंत ही कटवाना पड़ेगा, वरना छत टपकते देरी नही लगेगी, फिर न जाने क्या सोचते हुए उसने अपनी पड़ोसिन की छत की ओर देखा और यह देख कर आश्चर्य चकित रह गई कि उसके छज्जे पर उसके छज्जे से भी बड़ा पीपल का पेड़ निकला था,और उसका छत भी जल्दी ही टपकने वाला था।
अःत,उसने नेहा को बताने के लिए जल्दी जल्दी सीढियां उतरने लगी,वह पड़ोसी की घंटी बजाने ही वाली थी कि अंदर से आती आवाज सुन कर उसके हाथ वही रूक गये।नेहा अपने पति को बड़े गर्व से बता रही थी ।"मैं ने पूनम भाभी को उनके छज्जे के पेड़ के विषय में बता दिया है।अब अवश्य ही भाभी भैया को बोलकर पेड़ कटवाने के लिए किसी मिस्त्री को बुलाये गी।तभी हम अपना पेड़ भी कटवा लेगें।"
अब पूनम समझ चुकी थी कि उसकी पड़ोसन को उसके प्रति चिंता व्यक्त करना उसका अपना स्वार्थ था।और उसने दोस्ती के रिश्ते को स्वार्थ के रिश्ते में बदलते पहली बार देखा था।
स्वरचित व अप्रकाशित आरती श्रीवास्तव।


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"भावना"
उमर घुमर उठे भाव मन मे

भावना जगाये मन मे अनेक चाँदनी रात मे चाँद को देख
मंद मंद मुस्काये हम

समुँद्र की लहरें उफान जब मारे
मन मे आये भावना एक
जीवन मे भी तो सुख दुःख की
लहरें आये और जाये

खग कुल जब कूजन करे
पंक्षी के प्रति प्यार उमर आये 
रंग बिरंगी पुष्पो को देख
मन पुलकित हो जाये

कुछ फूल तोड़ अर्पित करें हम ईश को
भक्ति भाव मन मे जग जाये
पाश हरे प्रभु हमारे
रखे हाथ सर पर हमारे

करो प्रभु ऐसी कृपा
भावनांए शुद्ध रहे हमारे
नही करे हम बुराई किसी की
भाव जागे बस शुद्ध अंर्तमन मे
विचार सुन्दर तो आचरण हो सुन्दर
निर्मल सुन्दर इंसान बन जाये हम।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

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यादें शीर्षक से एक बहुत ही पुरानी यादें ताजा हो गई।बात तीन दशक पुरानी है जब मैं इंटर की छात्रा थी।
दो दिन काँलेज न जाने के कारण मैं अपनी सहपाठिका पुष्पा के घर जा पहूचीँ।मुझे वह अपनी घर के छत पर ही खड़ी दिख गई, जो उसके रसोई घर से सटा हुआ था।उसनें मुझे वही से खड़े खड़े आवाज़ लगाई,"आरती ऊपर आ जाओ मै तुम्हें नोटस दे देती हूँ"।परन्तु मैं तो ठहरी बहुत ही स्वभिमानी।मै करीब दस मिनट खड़ी रही कि या तो वो नीचे आकर मुझे नोटस दे दे,या फिर नीचे आकर मुझे अपने घर चलने को कहे।दस मिनट बाद मैं बिना नोटस लिए ही वापस आ गई, और रास्ते भर यह सोचती रही, कैसी लड़की है जरा भी शिष्टाचार नही है कि नीचे आकर मुझे ऊपर चलने को कहे।
दूसरे दिन से काँलेज मे गर्मी की छूट्टिया शुरू हो गई।डेढ़ माह बाद जब काँलेज खुला मैं उससे मिल कर उसकी गलती का एहसास दिलाना चाहती थी परन्तु वह मुझे कही नजर नही आई और मेरी नजर उसकी पक्की सहेली पर पड़ी,और जब मैंने उसे पूरी बात बताई तो वह बोली"आरती,वह उस समय बहुत ही मजबूर थी,उस समय वह गैस पर दूध उबलने के लिए रखी थी,वह अपने भैया, भाभी के साथ रहती है उसके भैया बहुत बड़े सरकारी अफसर है और भाभी बहुत ही निर्मोही।उसनें उसे सख्त हिदायत दे रखी थी कि जब तक दूध उबल न जाये वह वहां से कही नही जा सकती,और उसे इस बात का बहुत ही पछतावा था कि तुमको नोटस देने वह नीचे नही आ सकी ,उसके भैया का इस बीच तबादला हो गया और वह जमशेदपुर छोड़कर कहीं और चली गई।"अब मेरा मन ग्लानि से भर चुका था।बिना उसके विषय में पूरी बात जाने मैं क्या क्या सोचती रही।
आज इतने साल बाद भी यह याद मेरे जेहन में इस तरह ताजा हैं जैसे यह कल की ही बात है, और ईश्वर से बस मेरी यही प्रार्थना है की जीवन मे कभी उसे मुलाकात हो जाये और मैं अपनी गलती के लिए क्षमा माँग सकूँ।
किसी ने बिल्कुल ठीक कहा है-
"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय
जो दिल ढ़ूंढ़ा आपना,मुझसे बुरा न कोय।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।


हम सब मिलकर करें एक सुन्दर कल्पना
तभी कर सकेंगे विकास हम अपना
जो भी हुए है नये अविष्कार
सभी पाते है कल्पनाओं मे विस्तार

पहले करे हम एक सुन्दर सी कल्पना
फिर करें उसे मूर्त रूप देने का प्रयास
हम करें एक सुंदर भारत की कल्पना
जिससे होगा एक सुखद एहसास

करें हम कल्पना ऐसा
साधु चरित्र होय सभी कोई
ओजस्वी हो पुत्र हमारे
कुत्सित बुद्धि न हो किसी का

मुक्त हस्त सब प्यार लुटाये
बिश्व बंधुत्व का भाव जगायें
अनिल बहे मंद मंद धरनी पर
वागीश्वरी निर्मल स्वच्छ हो जाये

सुन आली,मेरी सुन्दर कल्पना
जब पूरा होगा मेरा सपना
सब मिलकर हम उत्सव मनाये
कितना सुखद,सहज,सुन्दर
होगा जीवन अपना।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।


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हे मनुज जरा मुड़ कर देखो
खड़ा है किस धरा पर तू
इतनी सुंदर धरती को क्यों
नष्ट कर प्रदूषित कर रहे हो 
पर्यावरण तुम

आज सुधर जा मनु तु वरना
हो जायेगा सृष्टि का विनाश
वृक्ष जो काट रहे बेशुमार
नही चिंता आने वाली पीढ़ी
कैसे लेगी सुन्दर श्वास

कल-कारखाने घर के कुड़े
बेधड़क जो नदी मे रहे हो डाल
गर नही चेते तो अगली पीढ़ी
हो जायेगी तबाह

पेड़ की जगह मोबाइल टावर
खड़े क्यों कर रहो हो आज
बेघर हो रहे है खग हमारे
घट रहे है उनके वंशज आज

ओजोन परत मे छेद हो रही है
कर रही है तुम्हें बीमार

इस्तेमाल करो और फेको
सभ्यता ले जा रही
विनाश के कगार

रिसाइकिलिंग हो तो कुछ हो
समस्या का समाधान
बैठा लो हमारे साथ सामंजस्य
मैं प्रकृति तुम्हारी माँ समान

तभी खुश रह सकोगे तुम
खुश रहेगी अगली पीढ़ी तुम्हारी
विकास तो जरूरी है पर जरूरी है
तालमेल हमारे साथ

संतान का कर्तव्य निभा लो
और बचा लो प्रदूषण से पर्यावरण को आज

मैं प्रकृति, तुम्हारी माँ,
मानो बस मेरी एक सलाह
पर्यावरण को प्रदूषण से बचा लो
तुम मेरे संतान।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।

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सागर की लहरें देख
मन मोरा हरषे

एक एक लहर संघर्ष करते 
मचल मचल आगे बढ़ते

इन लहरों को एक दूसरे से
आगे निकल जाने की है चाह
छूकर वे अपनी मंजिल
लौट चले पयोधि की ओर

सागर की लहरें करें न प्रतीक्षा
ज्यों समय न करें हमारी प्रतीक्षा
समय पहचान हम बढ़े आगे
मंजिल हो जाये आसान

सागर में हैं रत्न भरा
जैसे हम मे हैं सदगुण भरा
सागर को स्वीकार नही जैसे
किसी और का सामान

हम मानव भी छोड़ दे
अपनी लालच पयोधि समान
और हम भी बन जाये 
विशाल हृदय पयोधि समान।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।

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मैं अज्ञ
तु सर्वज्ञ

हूँ आस्तिक
रहूँ कृतज्ञ
हे सूत्रधार
हैं जिज्ञासा
जीवन का
नही मुमूर्षा
जगा दो जिजीविषा
जीना दुष्कर
फिर भी जिजीविषा
चाहूँ लक्ष्य-भेद
मैं रागी
नही विरागी
तु ईश्वर
अनुनय तुमसे
जगा दो जिजीविषा
तु उदार
अनाथो के नाथ।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।


@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ त्योहार का है हमारे जीवन
मे खाश स्थान

यह भरता है हमारे जीवन 
मे उल्लास।

जीवन में नही है सिर्फ
काम का स्थान
क्लांत तन और मन को
चाहिए थोड़ा विश्राम।

सुख दुख के दो पाटो के बीच
पीस कर न रह जाये हम इंसान
आरोह अवरोह तो आये जीवन में
पर उल्लास कम न हो जीवन से

हर्ष भर दे ये जीवन में
हटा दे विषाद के द्वार
शत्रु को भी मित्र बना ले
सिखाते हैं ये त्योहार।

अमीर तो जब चाहे
खा सकते है पूरी पकवान
गरीब के जीवन में है
त्योहार का खाश स्थान।

त्योहार हम जरूर मनाये
पर रखें दूसरो का ध्यान
होली, दीवाली हो या तीज त्योहार
मिलजुलकर हम मनाये तभी
होगा असली त्योहार।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।

@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
"राह"
राहे है अलग अलग

मंजिल सबकी एक है

कर्म ऐसा करे सदा 
राह हमारा आसान हो

अंधकार को क्यों चुने
प्रकाशित हमारा राह हो

राह हो यदि कंटक भरा
बिश्वाश रखें पुरुषार्थ पर

चुने हम कुछ ऐसा कदम
राह बन जाये आसान अब।

राह बस भटके नही
मंजिल मिल ही जायेगी।

सत्कर्म और सुविचार कर
पग सदा आगे बढायें

राह के काँटे कभी शूल 
न बन जाये कही

राह बदल सकते नही
सुगम उनको बनाइए

स्वविवेक व स्वनिर्णय से
राहे सही चुने सदा

सहज,सरल होता नही
कभी किसी की राहे

महान हस्ती के पगचिह्न पर
कदम दर कदम बढ़ते जाईए।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।

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मम्मी मेरी प्यारी मम्मी
ब्यर्थ क्रोध करती हो

मैं ही क्यों पढ़ने जाँऊ
तुम क्यों नही चलती हो?

मम्मी मेरी प्यारी मम्मी
ब्यर्थ तुम डरती हो
हम दोनों ड्रेस पहन कर
चल चले हम स्कूल की ओर

टिफीन समय में हम खायेंगे
हम दोनों मिल बाँट कर
पूरी सब्जी तुम खा लेना
मैं खाऊँगा चाँऊमिंग जी भर कर

जब आये परीक्षा सिर पर
दोनों बैठ कर पढ़ेंगे जी भर
मैं प्रथम तुम होना दिव्तीय माँ
दोनो मिलकर जीतेगें प्राईज
स तरह से हम दोनों मिलकर
लायेंगे ढ़ेरो खुशियाँ घर पर
मम्मी मेरी प्यारी मम्मी
तुम क्यों नही बात सुनती हो?
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।

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हे ईश दो आशीर्वाद
नमन तुम्हें बारम्बार
राग द्वेष से भरा मेरा जीवन
निर्मल निश्चल हो जाये

करूँ आराधना मैं तेरी
अवरोध हट जाये जीवन की मेरी
मत उपेक्षा करो प्रभु मेरा
दो ऐसा आशीर्वाद

कुत्सित बुद्धि हट जाये सभी का
सदभावना बढ़ जाये
बुद्धि विकास हो चहूँ ओर
दो ऐसा आशीर्वाद

धन धान्य से भरा हो देश मेरा
ज्ञानाभाव न हो कभी किसी मे
सिन्दूरी सूर्य की लाली सी
फैले ज्ञान-प्रकाश चहूँ ओर

मक्खन मिठाई भले मिले न सभी को
बस मिले दो वक्त की रोटी रोज
उलझने न हो जीवन मे किसी का
ऊषा काल से निशा काल तक

बस सोचें उत्थान की ओर
हर एक का आलय हो अपना 
शांति शकुन भरा जीवन हो सबका
दो ऐसा आशीर्वाद भगवान
दो ऐसा आशीर्वाद।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।


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मुसाफिर होने का कुछ फर्ज अदा कीजिए
कुछ अपनी कुछ दूसरों का भला कीजिए

कौन अपना है कौन पराया
ये सोचने मे न वक्त जाया कीजिए

यहाँ हर शख्स हैं एक मुसाफिर
बस यही जान लीजिये
गर सफर लंबा लगे,बस मंजिल याद कीजिए
चल चला चल बस एक राह पकड़
बस हमसफर से दोस्ती कीजिए

सब जानते है यहाँ जीवन एक सराय
मुसाफिर हैं हम यहाँ, बस चलते जाइये
मनु तू तो है एक मुसाफिर
थक न तुम,हार न तुम

कर्म ऐसा कर सदा तु,पुलकित हो मन सदा।
हर्षित रहे तन सदा,दृढ़ निश्चय कर मुसाफिर
जिस राह पर तुम चले
पदचिह्न रहे सदा,सदा।
आर्दश राह बने सदा ।
मुसाफिर होने का फर्ज अदा कीजिए।
.स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।

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"व्यथा"
मेरे मन में है एक व्यथा
किसे सुनाऊँ मैं अपनी कथा
मैं सुनु दुसरो की व्यथा
हँसी मे उड़ा दे वे मेरी व्यथा।

पर व्यथा सुनाना भी तो जरूरी है
वरना बढ़ जायेगी कुंठा
पर यह तो है शान के खिलाफ
हर किसी को सुनाऊँ मैं अपनी व्यथा

कृतज्ञ हूँ मैं उस ईश्वर का
जिसनें यह श्रृष्टि रचाई
और सभी जीवों में सिर्फ
उसनें मानव को है बुद्धिजीवि बनाई।

मैं बुद्धिजीवि हूँ ,यह सोच कर मैं सकुचाई
कह न सकी मैं अपनी व्यथा
चाहे सगा हो या पराई
बुद्धिजीवि हूँ मैं बस इसी मे मैं इतराई।
     स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।
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"शिव'
मेरे भोले भंडारी
मैं आई शरण तुम्हारी
भवसागर पार लगाओ
सुन लो प्रभु अरज हमारी

दीन दुखियों के तुम रखवाले
मैं तो हूँ दुखिया भारी
ना माँगू मैं धन और दौलत
न माँगू भवन अटारी
मैं तो माँगू बस दर्शन आपका
सुन लो प्रभु अरज हमारी।

सिर पर है गंगा की धारा
बाए बिराजे मैया गौरी
कैलाश के है आप निवासी
अविनाशि ,हे भोले भंडारी

गणिका, गिद्ध, अजामिल तारे
अबकी हैं बारी हमारी
सुन लो प्रभु अरज हमारी
मैं आई शरण तुम्हारी

अब तक तो पार लगाओ प्रभु
आगे भी पार लगाना
बड़ी आस लेकर आई प्रभु
सुन लो प्रभु अरज हमारी।
   स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।
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"स्वतंत्र लेखन"
"एक अजन्मी बेटी की माँ की पुकार"

 मुझे मत मारो कोख में
गोद में आ जाने दो माँ
दादा,दादी बुआ ,चाचा
ये सब तो मेरे अपने है माँ।

फिर क्यों नही मुझे वे आने देते
इस सुनहरी दुनिया में माँ।
तुम समझाओ प्यार से उन्हें माँ
समझ जायेंगे बात वो माँ।

भैया को मैं तंग न करूंगी
मैं खेलूँगी अपने आप
थोड़ा प्यार बचा लो न माँ
डाल दो मेरी झोली में न माँ

मैं बनुँगी बहादुर बिटिया
खूब नाम कमाऊँगी मैं माँ
मैं भी करुँगी खूब सेवा
तुम्हारा बुढ़ापा मे माँ।

भैया को जब तुम लोरी सुनाओगी
चुपके से मैं सो जाउँगी मैं माँ
दुनिया से तो मैं लड़ भी लूँगी
अपनो से कैसे लड़ू मैं माँ।

मैं जिस शिद्दत से तुम्हें प्यार करती हूं
उसी शिद्दत से तुम भी करो न माँ।
दुनिया के थपेड़े से लड़ लूंगी मैं माँ
बस तुम रखना सर पर हाथ माँ।

मैंने तुम पर विश्वास किया है
धोखा तो तुम दो न माँ
मत मारो कोख में मुझे
गोद में आ जाने दो न माँ
  स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।
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"पत्थर"
कहाँ से कहाँ आ गये हम

चकमक पत्थर घिस कर 
आग जलाये भोजन खाये हम
आदिम युग से सभ्य युग मे
आ गये हैं हम।

युग बदला, जमाना बदला
बदल गया हमारा पैमाना
"स्व" तो जिन्दा रखे हैं
पर मर गई है संवेदनाएं
इंसान से पत्थर बन गये हैं हम

किसी के साथ गलत होते देख भी
रोकते नही है हम,आँख तो है
पर पत्थर के मान लिये है हम
इंसानियत को खोते जा रहे है हम

जंगल काट कर सुंदर महल बना लिए है हम
कंक्रीट पत्थर से बने घर में
पत्थर दिल होकर रह रहे है हम

ये कहाँ से कहाँ आ गये हैं हम
ईट का जवाब पत्थर से देने
लगे है हम
क्यों इतना पत्थर दिल हो गये है हम

पत्थर अगर खाने मे आ जाये तो
मूड खराब कर लेते है हम
पेट या किडनी का पत्थर
जीवन कर देते हैं दुःश्वार

पत्थर तो मंदिर के अच्छे होते है
जो होते है हमारे भगवान
शिल्पकार के पत्थर तो मन
मोह लेते है।

माना पत्थर का है हमारे जीवन में बड़ा महत्व
पर स्वयं पत्थर दिल न बन जाये हम।
स्वरचित ,अप्रकाशित -आरती-श्रीवास्तव।

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वचन है अनमोल
वचन के बिना हमारा
जग मे नही कोई मोल
राम गये वनवास

रखें पिता के वचन
सीता ने लिया था सात वचन
सुख चैन छोड़ चली
अपने पिया के संग

सत्य वचन बोले हम तो
रहे जग मे मान
असत्य वचन से घट
जाये जग मे सम्मान

सत्य वचन का करे हम
बचपन से अभ्यास
तो चरित्र बन उभरे
वो अपने आप

वचन का मान रखना है
हमारा कर्तव्य
वरना वचन के बिना
हम मनु पशु समान

वचन हमारा शुद्ध हो
रहे सतत प्रयास
सत्य वचन बोलने वाले पर
लोग करते एतबार

असत्य वचन वाले नही पाते
जग मे सम्मान
हमसब मिलकर वचन ले हम आज
समाज हित और जग हित मे करें
हम कुछ काम,जिससे हो जग मे
उँचा हमारा नाम।
स्वरचित अप्रकाशित-आरती श्रीवास्तव।
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मैं हिन्दी शान तुम्हारी
उठो जागो मेरे संतान
हिन्द तुम्हारा वतन
मैं तुम्हारी पहचान

सही उच्चारण से करो 
मेरा अभिषेक
जो अनभिज्ञ है मुझसे
उसे दिलायो नीज
भाषा का ज्ञान
उज्जवल भविष्य करो तुम
हो तुम मेरा संतान

हर भाषा का हो तुम्हें ज्ञान
पर मैं तो हुँ माँ समान

मौन क्रदंन कर रही हूँ मैं
सिसकियों को सुनो मेरी संतान
पत्र ब्यवहार मे रखो मेरा मान
बच्चों को दो ज्यादा से ज्यादा 

हिंदी का ज्ञान
वेद पुराण भी खिल उठेंगे
जब तुम करोगें मेरा सम्मान
उन्हें पढ़ने वाले भी बढ़ जायेंगे।
मेरे लाड़ले देश में आज

अपने देश में सौतेला व्यवहार
मुझे दुखित करता हैं मेरा संतान
तुम मेरे बच्चे मुझे मत भूलों
मैं हूँ तेरी पहचान

मैं तो हूँ समृद्ध भाषा
हमें और समृद्ध बनाओ आज
दिखावे के लिए नही
सच्चे दिल से अपनाओ आज

मैं तेरी मातृभाषा हूँ
फलक तक ले जाओ आज
यदि तुम साथ दो मेरा
बिश्व गुरू बन जाऊँ आज
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।
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यह दुनिया सांसो की मेला
प्रतिदिन यह चले अकेला
ये चले तो हम चले
ये रूठे तो जग छूटे

जब ये धीरे चले
फलक तक डर सताये
सांसो का आना जाना ही है
जीवन मेला का झमेला

चलते रहे हमारा सांस
हम रखें स्वास्थ्य का ध्यान
फास्ट फूड से करें परहेज
बस खाये घर की थाली

मिलते रहे हमें शुद्ध सांस
हम करें कुछ प्रयत्न
पेड़ के बदले पेड़ लगाये
तभी मिले हमें शुद्ध सांसे

काम कुछ ऐसा कर जाये
बच्चे बुढ़े रखे याद
सांस रहे या जाये हमारा
कभी ना करे हम प्रतिघात

सब कुछ मिले बाजार में
बस नही मिलते सांस उधार
जो मिले हैं चार दिन का मोहलत
क्यों उसे ब्यर्थ गँवाये हम।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।

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है नही मुझमें इतनी प्रतिभा
प्रतिभा को परिभाषित कर पाऊँ
हर एक मे होती अलग प्रतिभा
किसी में कम किसी में ज्यादा

होती है सबमें कोई न कोई प्रतिभा
जाति-धर्म से ऊपर हैं प्रतिभा
अवसर मिले हर एक प्रतिभा को
हर एक प्रतिभा फूले फले
न हो प्रतिभा किसी की कुंठित
न चढें कोई प्रतिभा राजनीति का भेंट

हर एक मे हो इतनी प्रतिभा
खोज निकाले राह वो अपना
ताकि हर प्रतिभा हो सके प्रस्फूटित
और छू सके आकाश की बुलंदिये को

बेटा बेटी हो या कोई भी जाति धर्म
मिले सबको समान अवसर
प्रतिभाओं की नही हैं कमी
बस देना है हमें एक अवसर।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।


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"विडंबना"
यह कैसी विडंबना राम जी

सीता को वनवास डे डाला
फिर धर मूर्ति सीता का यज्ञ
तुमने कर डाला

ऐसा तुमने क्यों कर डाला
क्या अपराध सीता मईया की
क्या यही की वह एक नारी थी
है नारी होना। अपराध अगर

तो नारी को क्यों भार्या बनाया
है नारी होना अपराध अगर तो
नारी को क्यों बहना पुकरा
नारी को क्यों बेटी पुकारा

नारी से ही तो सृष्टि हैं सारी
फिर ये क्यों तुमने माना
है कैसी यह विडंबना
नारी को ही क्यों दोषी ठहराया
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।

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"सुरक्षा"
सुरक्षित चले हम परिवार के संग
तिनका चुन चुन नीड़ बनायें
उसे हम बिखरने से बचाये
घर आँगना महकाये हरदम

पवन वेग से चले न हम
रहे सुरक्षित हमारा तन -मन
संयोग न जाने कोई आज
सुरक्षित चले वही सुखी होय

मूढ़ न समझे चतुर की भाषा
समझदारों को काफी ईशारा
बिना सुरक्षा के चले जो कोई
आज नही तो कल पछतावा होई

लेकर चले हम सुरक्षा कवच
विचलत न हो हमारा तन -मन
मिलकर ले हम एक प्रतिज्ञा
सुरक्षित रहे हम सदा

सुरक्षित हो हमारा समाज
फिर देश को हम करे सुरक्षित
इस तरह हम जागरूक तो
देश सुरक्षित तो हम सुरक्षित

स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।

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दायित्व का तो बोझ भारी
जाने है दुनिया सारी

यदि न हो हमें दायित्व का एहसास
तो हम सोये चादर तान

माँ बाप का रखे ध्यान
ये तो है दायित्व का सार
अपनी इच्छा हो अधुरा
दायित्व के आगे इन्सान भुला

वास्तविक यश दायित्व निभाने
मे हैं, इन्सान तु इसे जान
दायित्व के है रूप अनेक
सही समय पर हम टैक्स चुकाये
यह भी तो है दायित्व हमारा।

हम गर चाहे अपना अधिकार
तो पूरा करना हो कर्तव्य
कर्तव्य और अधिकार का तो है
चोलीदामन का संबंध
इसे नही भुल जाये हम।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।


@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ गुरु की महिमा है अपरम्पार
जो समझे उसका हो बेड़ा पार

हाथ पकड़ कर लिखना सिखाया
कठिन डगर पर चलना सिखाया

ऐसे होते है हमारे गुरु महान
गुरु की महिमा है अपरम्पार

जीवन में झंझावात से लड़ना सिखाये
जीवन पथ पर आगे बढ़ाना सिखाया
गुरु की महिमा से जो है अन्जान
उसका जीवन हैं अंधकार

जिस गुरु ने मेरा जीवन संवारा
उसको हैं मेरा बारम्बार नमस्कार
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव

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"पिता"
पापा मेरे प्यारे पापा

वे क्षण तो अनमोल थे पापा
जब आपका साथ था पापा
उत्साहित था मेरा जीवन
जब था आपके सुन्दर मार्गदर्शन

दुनिया के थपेड़ों से थे हम अन्जान
जब छूटा आपका साथ
बचपन हो गया हैरान
उनमुक्त हँसी था जीवन में
अब तो है बस फेक हँसी

मुक्त हस्त जो प्यार लुटाया
आपने जीवन शानदार बनाया
आपने दिये जो संस्कार, मै अपने
बच्चों में डाल सकूँ, यही है मेरा प्रयास

हर जन्म में आप ही मेरे पापा बनो
मैं मागूँ ईश्वर से सुबह और शाम
पापा मेरे प्यारे पापा
वो क्षण तो अनमोल थे पापा।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।

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खुश होने के लिए मुझे
नही चाहिए कोई बहाना

मैं खुश हूँ क्योंकि मुझे
नही चाहिए दूसरो का खजाना।

जो कुछ भी मिला है ईश्वर से
मैं खुश और संतुष्ट हूँ उससे
मैं ख्याल रखती हूं सदैव दूसरो 
की खुशियों का, तो आ जाती है
खुशियाँ अपने आप मेरी झोली में।

जब मैं करूँ गरीबो को मदद
उनके चेहरे का मुस्कान देख
छा जाती है मुस्कान मेरे चेहरे पर भी।

खुश होना तो हर एक का अधिकार है
किसी को खुशी देना तो सबसे बड़ा
अभिप्राय है
जब हम देते दूसरो को खुशी
तो खुशियाँ नही बना पाती हमसे दूरी।

यही तो है खुश होने का सबसे बड़ा फंडा
हम स्वयं खुश रहे ,और खुशियां बाटे हम सदा।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।

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रिमझिम रिमझिम बरसे पानी
पवन बहे चहूं ओर

हरी चुनरिया प्रकृति ने पहनी
झूम उठे मन मोर

आया प्रकृति का सौंदर्य निखर
खुशहालि छाई चारो ओर
साखा,लाता मिल एक भई
गलबहियाँ कर इतरायें।

घन नभ मे देख मोरवृन्द नाचे
दादुर खड़े टर्राये
ताल तलैया मिल एक भये
देख मन घबराये।

नारी वृन्द पहने हरी चुनरिया
हरी चुड़ी से भरी है कल ईया
रिमझिम रिमझिम बरसे बादल
कृषक मन हरषाये।

बच्चे चलाये कागज़ के नाव
मन मसोस बड़े खड़े
हम भी बच्चे बन जाये
रिमझिम रिमझिम बरसे बादल
सावन की आई बहार
प्रकृती ने पहनी हरी चुनड़िया
सौन्दर्य निखर निखर जाये।
. स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।

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"साँझ"
हो गई साँझ
ढ़ल गये दिन

सूर्य पथिक भी
थके थके से

चाँद चाँदनी फैलाने
को है आतुर
खग लौट चले
तरु की ओर

यामिनी आने को
है ब्याकुल
गाय रभाँती
लौट चली घर
साँझँ बाति
की हो गई
बेला
चौपाल भी 
बाट निहारे
राह निहारत हो गई शाम
कब आओगे मेरे श्याम।
स्वरचित आरती -श्रीवास्तव।

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हमारे देश के वीर सैनिक
खड़े हैं चौहद्दी पर

हर पल हर क्षण तैनात रहे वो
देश की रक्षा करने को।

आग उगल रहा हो नभ
फिर भी नहीं पीछे हटे वो
बारिश हो रहा हो घनघोर
डटे रहे वे सीमा पर

अपने देश की रक्षा करने को
तत्पर रहते है वे हरदम
नही उन्हें हैं अपनी चिंता
न वे करते परवाह परिवार की

परवाह करते तो वे अपने देश
की इज्ज़त और देश की शान की।
होली हो या दीवाली या फिर हो
ईद या फिर रामजान की बाते

बस वे करते अपनी देश की बाते
जल,थल हो या फिर वायु सेना
वे रहते है देश पर कुर्बान
उनकी कुर्बानी पर ही
हम बिताते हैं चैन की रात।

हमारे देश के वीर सैनिक है
हमारे देश के प्राण, देश के शान
उनकी इज्ज़त करें हम सदा
नमन करें हम उनकी जज्बा को

आज हम भारत देश के वासी
देश की रक्षा देश की शान में ले
एक प्रण,भले जाये प्राण हमारा
देश के साथ गद्दारी न कभी करे हम।

स्वरचित -आरती श्रीवास्तव

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जब मुड़ेर कौआ मडराये
काँव काँव का शोर मचाये

नानी बोली कोई संदेशा आये
तब डाकिये का हम करें इंतजार

बाहर भीतर करें हर बार
युग बदला बदल गया जमाना
टेलीफोन ने लिया डाकिये का स्थान
लैंडलाइन की जब बजे घंटी
दौड़ पड़े घर के सारे सदस्य

सब मिलकर शोर मचाये
पहले हम पहले हम का गुहार लगाये
फिर मिलजुल कर सब बैठ बतियाये
घंटों चर्चा चले जो संदेशा आये

फिर वक्त ने करवट बदली
मोबाइल ने लिया टेलीफोन का स्थान
हर हाथ में एक मोबाइल
कौन भेजा क्या संदेशा आया
जाने न दुसरा कोई।

पहले संदेशा हो सुख या दुख का
घर भर साथ खुशियां मनायें
या फिर साथ घबराये
अब सब हैं अपने मे मग्न।

आओ चले अब प्रकृति की ओर
जब हमें प्रकृति भेजे कोई संदेश
करें न हम उसे अनदेखा ।
समझ जाये हम उसका संदेश।

सुधर जाये और हम करे प्रकृति से प्यार
तभी रहेगा हमारा जीवन आबाद
और जब आये ईश्वर का संदेशा
तज चले हम घर बार अनोखा
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।

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सुबह सुहानी बड़ी मस्तानी
लगती है हम सबको प्यारी

हरी हरी घास पर नंगे पैर
हम जब दौड़ लगाये
सुधर जाये सेहत हमारी।

मुर्गे ने जब बागँ लगाई
चिडियों ने भी कूंज लगाई
आलस छोड़ फेंक उठे रजाई
सुबह की लालिमा उतर आईं।

जाग गये बच्चे सारे
सुबह की करने लगे तैयारी
पापा को भी है आफिस की तैयारी
मम्मी तो है किचेन मे बीजी।

दादी को है पूजा की तैयारी
सुबह की पूजा की बात निराली
रात बीती है तभी आई है सुबह
सब हो गये है कितने बीजी।

हर रात की सुबह होती है
जैसे होते है सुख दुख जीवन में।
दुख के बाद सुख आता है
यही है मानव का जीवन दर्शन।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।

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"महक"
मेरे देश के मिट्टी के कण कण मे महके
भारतवासी का प्यार दुलार।

यहाँ होती हैं नारी -शक्ति की पूजा
भक्ति-भाव से महके घर बार।

जब आये बसंत बगिया मे
महक उठे प्रकृति का प्यार
नित्य नये कोंपल खिले
खिल उठे भौंरौं का प्यार।

उमड़ घुमड़ कर बरसे जब बादल
सोंधी महक उठे धरती से
हरे भरे हो जाये बाग -बगीचा
निखर निखर जाये प्रकृति का यौवन

चकोर जब चाँद को देखे
मन हरषे, मन मन बहके
महक बहक जाये चकोर का चितवन
देख देख प्रकृति गुनगुनाये।

घर के आँगन मे तुलसी का पौधा 
सुवासित कर जाये चहुँ ओर वतावरण
धूप प्रज्वलित हो पूजा का जब
महक उठे सबका तन मन।

जब आये बिटिया जीवन में
महक जाये घर बार सबका
बहू जब बेटी बन जाये
सुवासित हो जीवन सबका

बच्चे जब रखें रिश्तों का मान
महक उठे जीवन का बाग।
खुशी के गीत हम मिलकर गाये
महक उठे रिश्ते हर बार।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।
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"अनुराग'
कैसे दिखाऊँ तुम्हे मनाऊँ
है दिल मे अनुराग भरा

कृतज्ञ रहूँगी जीवन भर
ठुकराओ न अनुराग मेरा।

मान अपमान को करो किनारा
मत बनो गंधारी आज ।
देख सको तो देख लो आज
मैं लाई हूँ अनुराग की थाल।

समझ सकी न दुनिया सारी
केकैयी को भी था राम से अनुराग
बस मंथरा ने किया मतिभ्रम
दे डाली राम को बनवास।

भरत को भी था राम से अनुराग
सब जाने है दुनिया आज।
गोपियों को था श्री कृष्ण से
अलौकिक अनुपम अनुराग

उतार चढाव तो आये जीवन में
पर कम न हो अनुराग हमारा
तुम आज इसे समझ जाओ
अनुराग तो है जीवन का सार।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव

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खूब सजी हैं धरती हमारी
हरी चुनरियाँ की घूंघट निराली।

पेड़ों पर पंछी चहचहाय
हरी भरी रहे धरती हमारी
सदा गुलजार रहे ये कोटर हमारी।

गंगा जमुना बहे रसधारा
कह रहे है हमें हरीतिमा लुभाती
हिमालय, बिन्ध दे रहे चेतावनी
संभल जाये धरती वासी

पेड़ न काटे न काटे जंगल
वरना विनाश हो जायेगी
हरीतिमा हमारी।
चारो ओर प्रकृति की हरीतिमा
देख मन म्यूर यो नाचे

कितना सुंदर, कितनी प्यारी
है धरती माँ हमारी।
हम सब तो है उनके बच्चे
कुछ तो फर्ज बनती हमारी।

धरती की रक्षा करे हम सदा
और सरक्षिंत करें हम जंगल को
पानी को बबार्द न करें हम
नये पौधे हम अवश्य लगाये

तभी बची रहेंगी हरीतिमा हमारी
जिससे जुड़ी है भविष्य हमारी।
हमसब मिलकर ले एक प्रण
सरक्षिंत करें हम पेड़ हरदम।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव

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हम तो है कलम के सिपाही
हमें रखना है इसका लाज।
नही करना है सिर्फ मनोरंजन के 
लिए इसका उपयोग।

कलम के तो है दायित्व भारी
इसे समझना होगा नर ओ नारी।
विसंगतियों से दूर रहकर
करना है इसका उपयोग।

जहाँ बड़े बड़े है दिग्गज हारे
वहा खड़े हैं कलम हमारे
डर कर नही डटकर चलेंगे
कलम हमारे।

भले ही रूठे दुनिया हमसे
रूठे ना कलम हमसे।
कलम के नाम है दुनिया में भारी
तभी तो डर जाये तलवार भी भारी।

रूके न कलम झूके न कलम
अनवरत चलते रहे सच्चाई का कलम
कलम तो है मात्र एक औजार
इसका सही उपयोग करना है हमारा काम।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।

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"उत्सव'
आओ,हम सब मिलकर मनायें एक उत्सव।

नही कोई खास कारण हैं इस उत्सव का।
यह तो बस एक बहाना हैं उत्सव मनाने का।
अपनो से मिलने मिलाने का।
इसे मनाने के लिए नहीं चाहिए कोई
तीथि या रीति।
हमें तो बस बहाना चाहिए खूश होने का
इस इलेक्ट्रॉनिक्स युग मे कही हम 
मशीन बनकर न रह जाये।
इसलिए यह उत्सव मनाना जरूरी है
ताकि जीवन में फ्यूल भर जाये।

क्यों करें हम इंतजार उत्सव मनाने
के लिये बड़ी खुशियों का।
छोटी छोटी खुशियां भी काफी है
उत्सव मनाने के लिए।

स्वयं खुश हो जाये, और खुश होने का
कारण बन जाये दूसरो का।
रिश्तों को जिंदा रखने के लिए
क्यों न मनाये एक उत्सव हम आज।

रिश्तों के इस फेहरिस्त में
गुम न जायें कोई अनमोल रिश्ते
गिला शिकवा को दूर रखकर
आओ मिलकर मनाये हमसब
एक अभूतपूर्व उत्सव।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।

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गुरूर है मुझे उस अपनेपन का
जो हैं मुझे अपनो से मिलता।
गुरूर है मुझे उस सम्मान का
जो मुझे दुसरो से मिलता।

ये सीख दे जाता है मुझे
मत अपमान करे हम दूसरो का।
गुरूर है मुझे उस अनुराग का
जो है मेरा जीवन संबल।
दिला रहा है एहसास मुझको
होने का कुछ खास आज।

गुरूर है मुझे उस आदर का
जो दिलाये यह एहसास
नही करना है मुझे किसी की उपेक्षा
बस करना है सबसे प्यार।

गुरूर है मुझे उस उपासना का
जो दिलाये मुझे भक्त होने का एहसास ।
धर्म की रक्षा करें हम सदा
बस करे हम भगवान से प्यार।

गुरूर है मुझे उस सम्मान का
जो हमेशा याद दिलाये
नही उड़ाना मखौल किसी का
यह संकल्प हमेशा याद दिलाये।

गुरूर है मुझे उस आचरण का
जो मुझे यह याद दिलाये
अकारण हम न सताये किसी को
करे हम सब जीवों से प्यार।

इतने सारे गुरूर तो मैने तो 
बस इसलिये है पाले
सतत प्रयास करते रहे हम
और न कभी चूक जाये हम।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।

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"आशा"
रोज सवेरे सूरज की किरण
मन मे जलाये आशा की दीपक।आशा ही तो दे जाती है
जीवन जीने की अभिलाषा।

घोर निराशा मे भी,आशा की
एक छोटी सी लौ दे जाती हैहमें जीवन जीने की अभिलाषा।हर रात की सुबह होती है
ये जगाती है हमारे मन मे आशा।

हर एक की परिस्थिति होती है अलग।
और होते है उनके अलग आशा।
एक की आशा पूरा हो तो
दुसरे की हो जाती त्तीव अभिलाषा।

आशा का दामन पकड़ कर
हम कर जाते नैया पार।
भक्त को हैं भगवान से
दर्शन मिलने की आशा।

बच्चों को है बड़ा होकर 
कुछ आच्छा कर गुजरने की आशा
माँ बाप को है अपने बच्चों से
बुढापा सवाँरने की आशा।
परिजन को है अपने मरीज को
ठीक होने की आशा

डाक्टर भी उन्हें यही बताते
जब तक साँस है तब तक आश।
आशाओ का दामन पकड़ चल चले हम
जीवन का हैं यही परिभाषा।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।
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सागर"
तु सागर मैं नदी हूँ तेरी

मिलन को मैं आतुर
मैं नही भुली तुम भुल गये मोहन
मेरे गोवर्धन गिरधारी

मैं त्याज्य नही ग्राह्य मुझे मोहन
मैं भोली नादान हूँ
सागर के जीवन सा मे रा
कभी शांत कभी उफान पे

ज्वार भाटा तो आये जीवन में
कभी तुम भी तो आओ मोहन
तुम गुणों का सागर मोहन
मैं अवगुण की खान हूँ

मैं डूबी हूँ भवसागर मे
पार लगाओं तारणहारे
मैं नीर हूँ नदियाँ की
सागर से तो मिलकर रहूँगी

उदार हो तुम प्रभु मेरे
करुणा सागर हैं नाम तुम्हारा
भवसागर तो पार लगायो मोहन
भवसागर पार लगायो
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।
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हाँ, मैं हूँ आईना
सब करते मेरा सामना।
अपनी काम मैंने है
सच्चाई से निभाई।
नही मुझे किसी का भय
नही कोई मुझे डिगा सकता
कोई लोभ।
हो जाये यदि मेरा टूकड़ा
तो भी मैं दिखाऊँ
असली चेहरा।
हर एक के हाथ मे हो
यदि एक आईना
बदल जाये समाज
का तस्वीर।
मेरे नजर मे है सब
एक समान।
न करूं मैं कोई
भेद भाव
सच्ची तस्वीर दिखाना
है मेरा काम।
मैं हूँ आईना।
समाज की आईना
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
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"बंधन"
जग के सारे बंधन अनमोल
नही इसका धन से कोई तोल

माँ से तो है जन्मो का बंधन
हर बंधन से अनमोल ये बंधन

सात जन्मों का विवाह का बंधन
मनमीत के संग बिताये हर पल
बच्चों का स्नेह बंधन पर
जग के सारे दौलत न्योछावर

दोस्तो के संग प्यार का बंधन
जीवन बगिया महकाये हर पल
देश प्रेम का बंधन से तो
सुधर जाये हमारा जीवन

सबसे ऊपर प्रभु का हमसे है बंधन
जिसनें यह सुन्दर संसार बसाया
चेतन अचेतन से भरी दुनिया में
हम मानव को श्रेष्ठ बनाया।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।

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देश भक्ति
जिस मिट्टी में मेरा जन्म हुआ।

वह मिट्टी नही सोना है।
वह मेरे देश की मिट्टी है।
इसने मुझे सिंचा हैं।

इस मिट्टी में बड़े होकर
देश भक्ति की जज्बा तो
हम हर एक मे समाई है।
ये तो हमारी मातृभूमि है

पितृ भूमि और कर्मभूमि भी।
रोम रोम कर्जदार है मेरा।
माँ भारती मैं हूँ लाल तेरा।
जब भी मौका मिले मैं
उतारना चाहूं ऋण तेरा।

भाल उचाँ है हिमालय से माँ।
तन स्वच्छ है गंगाजल से माँ।
सुन्दर लाल है हम माँ तेरा
तेरी रक्षा करे हम माँ तेरा।

दुश्मन यदि आँख भी उठा ले
कर दू उसका हाल ,बेहाल मैं माँ।

स्वर्ग से सुन्दर है मेरा देश
है सोने की चिडिय़ा मेरा देश।
फिर से मैं तुम्हे सोने की चिड़िया
बना दूँ।तेरे नौनिहालों को 
जगा दूँ।

देश है तो हम है।
देश ही हमारी शान है।
देश भक्ति ही हमारी
जीवन का अभिप्राय है।

स्वरचित -आरती -श्रीवास्तव

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"नमन मंच'
फरिश्ता
फरिश्ता कोई मजहब या कोई

भाषा का मोहताज नही होता।
वे तो भगवान के दूत होते है।
और हमारे समस्याओं के समाधान।

हर एक इंसान के अंदर।
होता है एक फरिश्ता
बस उसे देना है एक मौका।
अच्छे कर्म ही बनाते है फरिश्ता।

जब इंसान हो बिल्कुल
हैरान व परेशान
तो फरिश्ते ही लेते है
उसे संकट से निकाल।

जब चारो ओर घीरा हो अंधेरा
फरिश्ता देते है आशा का दीपक
का उजियारा।
हम। भी बन सकते है दूसरो 
के लिए फरिश्ता
गरीब के बच्चों को पढ़ा कर
या किसी गरीब की बेटी की
शादी करा कर क्योंकि सेवा का
ही तो दूसरा नाम है जिंदगी
और फरिश्ता हम ही है 
कोई और नही।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।


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"चंचल'

चंचल मन मेरा धीरज

काहे न धरे।
जैसे प्रभु शबरी बैर खाओ।
वैसे ही प्रभु हमारे कुटिया
मे पधारो।
चंचल मन म्हारो धीरज धरो।

जैसे प्रभु अहिल्या को तारो
वैसे ही प्रभू हमारे घर पधारो।
जैसे प्रभू अजामिल तारो।
वैसे ही प्रभू हमको उबारो।

मन चंचल तो सबका होये
पर धर्य का साथ हम कभी ना छोड़े
प्रभु आवेंगे पार लगाने।
डूबते को तिनका वही दिलावे।

मन तो हमारा वैसा चंचल
जैसे मृगछौना हो मन
चंचल मन को बस मे करके
हम प्रभु का बस ध्यान लगावें।

प्रभु आवेंगे दरश दिखाने 
हे मन चंचलता छोड़ ।
धीरज धरो।
अबकी बारी हमारी बारी।
प्रभू ने सुन ली अरज हमारी।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव

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कवि'
कवि तो है हमारे समाज के प्रहरी।
उनकी कविताएं हमारे समाज को

देती है संदेश जागरूक रहे हम सदा।
कवि कभी होते नही तन्हा।

या फिर कवि भीड़ में भी होते है अकेले।
कवि तो इन दोनों गुणों से होते है लैस।
वे हर वक्त खोये रहते है,अपनी दुनिया में।घर में रहे या राशन के लाईन मे।
कविता तो बस उनके दिमाग मे चलती रहती हैं।

कवि तो होते है सच्चाई के दर्पण।
वे सिर्फ कवि कहलाने के लिए नही
रचते कविता।
वे समाज को एक अच्छी सोच व एक
अच्छी संदेश देने को रहते हैं प्रयासरत।

कवि की प्रतिष्ठा है दुनिया में भारी।
बिना अस्त्र शस्त्र के भी ये झूका दे
दुनिया सारी।
जहा बड़े बड़े दिग्गज है हारे।
वहा जीते है कलम के सिपाही।
कवि और रवि की तुलना है न्यारी
इनसे रौशन हैं दुनिया हमारी।


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"संतोष"
जो प्राप्त करे पुरुषार्थ से
वह है सुधा समान

उलझने बढ़ जाये
गर संतोष नही हो पास

रुखा सुखा खाकर 
सोये चैन की नींद
पास है संतोष-धन
नही सतावे पीड़

उत्थान पतन तो आये
जीवन में बार बार
पर धर्य का साथ न छोड़े
रहे ईश पर बिश्वास

दिन गुजारे मेहनत से
सोये टूटी खाट
रात गुजारे चैन से
नही अधिक की चाह

प्रकृति भी तो यही सिखावे
पतझड़ आवे तो मत हो उदास
पतझड़ के बाद ही तो बसंत 
आवे हर बार।

संतोष है दैवीय गुण
ले हम इसे अपनाये
चैन की नींद सोये हम
जीवन हो जाये आसान
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।

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माँ मुझे बदूंक दिला दो
मैं भी सरहद जाऊँगी

भारत के दुश्मनों को मैं
छक्के खूब छूडा़ऊँगी
मैं नही अब छोटी बच्ची
दुश्मनों के छक्के छूड़ाऊँगी

अपने देश की झंडा की मैं
हरदम शान बढ़ाऊँगी
नही रही अब छोटी बच्ची
मैं भी सरहद जाऊँगी।

केसर का तुम तीलक लगा दो
अस्त्र शस्त्र दो मुझे पकड़ा
एड़ी चोटी एक कर मैं 
दुश्मन को मार भगाऊँगी

आर्शीवाद दे विदा करो माँ
देश की अखंडता मैं बचाऊंगी
मैं लक्ष्मी तेरे घर की माँ
दुश्मनों के लिए काली बन जाऊँगी।

माँ,मुझे बदूंक दिला दो
मैं भी सरहद जाऊँगी
नही रही अब छोटी बच्ची
दुश्मनों के छक्के छूड़ाऊँगी।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।

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"भारत-देश"
यह देवों की जन्मभूमि हैं
तपोभूमि ऋषियों की

यह मेरा सौभाग्य है
ये जन्मभूमि है मेरी।

यहाँ होती है नारी की पूजा
यह धरती है वीर जवानों की
अतिथि को हम देव ही समझे
यह देश है भारत मेरा

रंग-बिरंगे लोग यहाँ के
रंग बिरंगे परिधान
खाना अलग पहनावा अलग
पर एक ही भाव है सबमें

देश प्रेम दौड़े रग रग मे यहां
देश भक्ति कण कण में
क्षमा, दया करूणा है यहाँ
पर दुश्मन को धूल चटा दे पल भर मे

अपने देश की आन,बान,शान की खातिर
हम शीश कटा दे पलभर में
यह वीरों की भूमि हैं, भारत भूमि हैं मेरी।
जय हिंद,जय भारत।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।


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आजाद भारत के निवासी हम
भूल नही सकते उन बलिदानों को

देश को आजादी दिलाने में
कितनों ने दी अपनी बलि

तिरंगे मे लिपटा कितनों की वीरता
का योगदान व उनका बलिदान
राष्ट्रगान दिलाते याद हमें उन
सेनानियों की बलिदान की कहानी

ऐश्वर्य, आकांक्षा जो भी है आज हमारे पास
स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान स्वरूप है हमारे पास।

आज हम भी हैं तैयार देश की शान
हर क्षण बलिदान देने को तैयार
कुत्सित विचार दुश्मनों का हो तो
हम तोड़ दे उनकी कुत्सित मंशा को

कृतघ्न नही है हम,भूल जायें उन बलिदानो को
नराधम नही हम,झुकने दे देश की शान को
भूल नही सकते हम उन बलिदानो को
जो हँसते हँसते चूम गये फांसी के फंदे को

वे हमारे देश की शान है
हम भी तैयार है बलिदान को
हमारे भी कुछ फर्ज है निभाने को
हम भी भारत माँ के पुत्र है
तैयार है माँ की रक्षा के लिए
शीश कटाने को।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।


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हम है आजाद देश के वासी
हमें हैं स्वतंत्रता अति प्यारी

आज स्वतंत्रता दिवस हमारी
इसे पाने के लिए अपनो ने
लगा दी थी जान की बाजी।

आर्शीवाद मिला है हमें ईश का
आयावर्त रहे सदा शक्तिशाली
शक्ति और युक्ति मे माहिर हम
पदचिन्हों पर चले सदा वीरों का

क्षमा, दया तो है मन मे हमारे
पर अनिष्ट न होने दे देश का
कश्मीर जब है हमारी
क्यों सुने हम बात तुम्हारी

झंडा सदैव उँचा हैं और रहेगा
हमें हैं आजादी प्यारी।
हम देश के नर ओ नारी
स्वतंत्रता दिवस मनाते रहे सदा।
.स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

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अटल है
अटल थे

अटल रहेगें सदा

सरल
सरस
मनमोहक वयक्तित्व
के धनी
कवि हृदय के धनी

अदभुत वयक्तित्व
सैकड़ों दिलो के राजा
राष्ट्रीय वयक्तित्व
विराट हृदय 
अजातशत्रु
सच्चे देश प्रेमी 
हुईअपूरणीय क्षति
अश्रूपूर्ण नेत्रों से
शत शत नमन
तुम्हे हे युग पुरुष
हे अटल पुरुष।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
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हे ईश, नमन तुम्हें
करो कृपा

करुणा भरो मुझमें
अहं हटाओ मेरी
उलझन में हूँ मैं
पाश काटोँ प्रभु मेरा

तुम हो नेति
उपकार करो मुझ पर
जरा,मरण गुण मेरा
हरो आधि,ब्याधि 

राग द्वेष से भरा मन 
स्तुति करूँ मैं तुम्हारी
नही मैं त्याज्य
अपनाओ मुझे
शरणागत वत्सला
हैं अपेक्षा तुमसे
हे प्रभु करो कृपा
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
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आओ मिलकर हँस ले हम
तनाव भरा है जीवन में

मिल बैठ कर कम कर ले हम
साथ बैठकर हँसगें ,तो धुल जायेगें गम

जब सताये दुखों की रेखा
हास्य के रबर से मिटते देखा
जब सताये अपनो का धोखा
किसी अजनबी को अपनाते देखा

जब आये दुखों का रेला
प्रभु पर बिश्वास करके देखा
हुआ जब पुरुषार्थ पर भरोसा
दुःख को स्वयं भागते देखा

हँसने से जब मन प्रसन्न हो
भूल जायें हम गमो का टीला
सुख दुःख तो आये जीवन में
पर भूल न जायें हम हँसना जीवन में।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
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बेईमानों का बोल बाला जग में
ईमानदार खड़े घबराये
पर जब बेईमानी की पोल खुल जाये
बेईमान सर छुपायें पर छूपा न पाये

बेईमान रसमलाई खाकर 
मनमन मुस्काये,पर चैन न आये
ईमानदार सुखी रोटी खाकर
चैन की नींद सो जाये

बेईमानी की चमक दमक
दूर से बहुत लुभाये
पर जब पोल खुले
पानी उतर जाये

दूर से लगे बेईमानों की दुनिया बहुत सुनहरी
पर हम मनुज तो जाने हैं, ईमानदारी है सोना खडी़
ईमानदारी से जीवन जीये
और चैन की नींद हम सोये
स्वरचित आरती श्रीवास्तव

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"हौसला"
हो गर हौसला
तो मंजिले आसान हो

कर न याचना
मन को एकाग्र कर
भरे उड़ान हम

राहे हो गर दुश्कर
पर कम न हो हौसला
इतिहास है गवाह सदा
उड़ान होती हौसला से
न कि सिर्फ पंखों से

चक्षु रखे चौक्कना
भ्रम न पाले मन मे हम
समझ जाये मर्म हम
धूमिल न हो हौसला
उड़ान जब भरे हम

हर्ष विषाद से न हो पस्त
राग द्वेष न अपनाये हम
हौसला अफजाई कर
दुर्भाग्य बदले
सौभाग्य मे हम

दीर्घसुत्री हट जाये तो
चक्षु खुल जाये स्वयं
हौसला गर बुलंद हो तो
मंजिल स्वयं चल कर आये
हम तक।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।


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"इंसानियत"
इंसानियत तो है इंसान की पहचान
क्यों इसे ताक पर रख दिये है हम आज

भूला नही सकते हम बुरी आदतों को
तो क्यों भुला दे हम अपनी इंसानियत को

है गर इंसान तो इंसानियत जिंदा रखिये
चाहते है भलाई अपने साथ तो
बुराई तो किसी का मत कीजिये
है गर इंसान तो इंसानियत जिंदा रखिये।

प्रेम नही कर सकते किसी से तो
घृणा तो मत कीजिए
निर्माण नही कर सकते गर
विध्वंस तो मत कीजिये

उतम इंसान नही बन सकते तो
अधम इंसान तो मत बनिये
सभी इंसान हैं एक समान
भेद-भाव तो मत कीजिये

इंसान गर है तो इंसानियत
का फर्ज तो अदा कीजिए
ईश ने बनाया हमें विवेकशील
विवेक तो मत खोइये
विवेक तो मत खोइये
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।

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संतुलन की चाह मे
निकल पड़ी मैं राह में

नजर मेरी अटक गई
एक बच्ची से टकरा गई

देख उसने मुस्कुरा दिया
हौले से समझा दिया
गर मुस्किलें हो राह मे
मुस्कुरा कर आगे बढ़े।

थोड़ी मैं आगे बढ़ी
शोर से घबरा गई
गाडिय़ों के शोर से
मन मेरा अकुला गया

घबरा कर मैं मुड़ गई
शांत गली को मुड़ चली
शांति एहसास दिला गई
अशांत हो जब दिमाग
मन को थोड़ा दे विश्राम 

थोड़ा मैं आगे बढ़ी
नदियों की शोर सुन
उस तरफ मैं मुड़ चली
नदियां थी उफान पर

वेग से मैं समझ गई
उसका गुस्सा जायज था
पेड़ काट कर हम स्वयं
आमंत्रित कर रहे विपदा हम

ज्यों ज्यों बढ़े मेरे कदम
समझ मे मेरी बात आई
प्रकृति ने तो दिये संतुलित जीवन
हमने अपनी नादानियों से

हम असंतुलित कर रहे हैं स्वयं
और परिवेश को
संतुलित जीवन जिये हम
और प्रेरित करें दूसरो को

अपनी नादानियां मै समझ गई
मुड़ चली मैं घर की ओर
रहस्य मैं समझ गई
संतुलन है हर जगह
बस उन्हें असंतुलित न करे हम।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।

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नारी"
नारी हैं जग की अधिष्ठात्री

नारी है सम्मान की अधीकारी
नारी है तो सृष्टि है
वरना यहाँ किसकी हस्ती हैं 

नारी मे है ममता
नारी करुणा की सागर हैं
नारी ही अन्नपूर्णा है
जिसनें दुनिया सारी संभाली है

नारी है मांँ, नारी है भार्या
नारी है बेटी, नारी हैं बहना
नारी तो है सृष्टि की गहना
नारी है तो नर है वरना कहाँ 
कल वह हैं?

शरीर मे जो है नाड़ी का स्थान
वही स्थान समाज में नारी का है
नाड़ी रूक जाये तो जिंदगी थम जाये
नारी रूठे तो जिंदगी रूठ जाये

नारी है दुर्गा, नारी है काली
नारी ही नारायणी है
इसमे पूरी दुनिया समाई है
इसमे पूरी दुनिया समाई है।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।

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"स्वतंत्र-लेखन'
"कितनी गलत थी मैं"

कुछ दिन पहले मैं अपने बेटा को बंगलोर के लिए स्टेशन छोडऩे गई।मैं और मेरे पति बेटा को ट्रेन में बैठाकर नीचे उतर गये,और थोड़ी देर मे ट्रेन चल पड़ी।:जैसा की अक्सर प्रिय जन को छोड़ते हुये होता है, मेरे आँखों से अश्रूधारा निकल पड़ी और मैं रोते हुए 
अपने पति के साथ घर के लिए प्रस्थान कर गई।तभी रास्ते में मेरे एक दूर के रिश्तेदार मिले और मुझे अभिवादन करके फोन मे बाते करते हुए आगे निकल गए।
मुझे उनका यह ब्यवहार अखर गया।और मैं अपना रोना भूल कर यह सोचने के लिए मजबूर हो गई कि कैसा जामाना आ गया है, आज कल लोग कितने ब्यस्त हो गये है कि मुझे रोता हुआ देखकर भी एक मिनट रूक कर मुझसे बात करने की जरूरत नही समझे कि आखिर मैं रो क्यों रही हूँ।वैसे तो बहुत अपनापन दिखाते हैं, परन्तु मुझे आज रोता हुआ देख कर भी तुरन्त आगे निकल गये।
तभी मैंने देखा कि वे जिस तेजी से आगे निकले थे, उसी तेजी से पीछे पलटे और मुझे वे अपनी फोन पकड़ाते हुये बोले"लिजिए मौसी आप मेरी वाईफ से बात कर लीजिए।उनकी पत्नी मेरी बचपन की सहेली हैं ।मै रोना भूलकर खुश होकर उससे बाते करने लगी।बात पूरी होने पर वे मेरे पास आकर बोले"मैंने आपको बेटा को ट्रेन में बैठाते हुए देख लिया था, अतः मुझे आपके रोने का कारण ज्ञात था ,यदि मैं पूछने जाता तो आप और रोती।अतः मुझे आपको चुप कराने का इससे अच्छा कोई उपाय नही soojha।"
अब मैं मन ही मन शर्मिंदा थी कि मैं उन्हें कितना गलत समझ रही थी।और मुझे एहसास हुआ कि बिना पूरी बाते जाने किसी के बारे में गलत धारणा नही बनानी चाहिए।


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सुरभि"
सार नही उस जीवन का

जिसमें रिश्ते का सुगंध न हो
मोल नही उस रिश्ते का
जिसमें सौहार्द का सुंगध ना हो

कलश भरा हो जल में जितना
गंगाजल ही करें सुवासित 
भक्ति का मशाल जलाये जब हम
सुंगधित हो जाये अपना जीवन

आरधना करें हम जीवन भर
कैसे प्रभु अरज सुने हमारी
जब प्रार्थना मे विश्वास का 
सुन्दर सुंगध ना हो

बेटी जब घर आँगना मे खेले
सुवासित हो अपना घर बार
बहु जब बेटी बन जाये
सुवासित हो हमारा संसार


इंसान इंसान से प्यार करें तो
सुवासित हो जाये हमारा संसार
सुरभित ह़ो जाये हमारा जीवन
सुरभि बस जाये जन मन।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

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"शिक्षक"
गूरू की महिमा है अपरम्पार

जो समझे उसका हो बेड़ा-पार
हाथ पकड़ कर लिखना सिखाया
कठिन डगर पर चलना सिखाया

गुरू के चरणों में जो शीश झुकाते
वे अति उत्तम कर्मफल पाते
पहली गुरू माँ को नमन
जो दुनिया की हर रीत सीखाई

जीवन के क्षेत्र में है गुरू अनेक
हर क्षेत्र की जानकारी दे
वे शिक्षक है विशेष
जीवन के झंझावात से जो लड़ना सीखाया

जीवन पथ पर आगे बढ़ना सिखाया
गुरू की महिमा से जो हैं अन्जान 
उनका जीवन है अंधकार
जिस गुरू ने हमारा जीवन सँवारा

उनको हैं मेरा बारम्बार नमस्कार
बच्चे भी तो है आखिर गुरू समान
डिजिटल दुनिया को हमें समझाया
मोबाइल पकड़ कर चलाना सिखाया

जो एक घड़ी भी हमारे जीवन को आसान बनायें
वो भी तो शिक्षक कहलाये
शिक्षक तो है सबसे सम्मानित जग मे
उनके ऋण से कौन उऋण हुआ है जग मे

शिक्षक है हमारे जीवन में खास
नमन करूँ मैं प्रत्येक शिक्षक को आज।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।


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हे गंगा मईया मैं बच्चा तेरी
दर्शन करने मैं आई हूँ
भगीरथ प्रयास से तु धरती पे आई
हम सबको तारने माई

पाप हर लो गंगा मईया
डूबकी लगाऊं ,मैं आरती ऊँतारू
आशिर्वाद जी भर कर दो मईया
अहं छोड़ मैं शरण में आई

पाप हरनी, जग तारनी
जय माँ गंगे मंदाकिनी
तुम्हारा निर्मल जल कल कल बहे
मैल करें नीर हम तेरा

धर्य ना खोना मईया मोरी
हम अवश्य सुधर जायेंगे
रहेगी तेरी निर्मल धारा
हम सब फिर स्वच्छ बनायेंगे।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।


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"बंधन"
जग के सारे बंधन अनमोल
नही इसका धन से कोई तोल

माँ से तो है जन्मो का बंधन
हर बंधन से अनमोल ये बंधन

सात जन्मों का विवाह का बंधन
मनमीत के संग बिताये हर पल
बच्चों का स्नेह बंधन पर
जग के सारे दौलत न्योछावर

दोस्तो के संग प्यार का बंधन
जीवन बगिया महकाये हर पल
देश प्रेम का बंधन से तो
सुधर जाये हमारा जीवन

सबसे ऊपर प्रभु का हमसे है बंधन
जिसनें यह सुन्दर संसार बसाया
चेतन अचेतन से भरी दुनिया में
हम मानव को श्रेष्ठ बनाया।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।

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सागर"
तु सागर मैं नदी हूँ तेरी

मिलन को मैं आतुर
मैं नही भुली तुम भुल गये मोहन
मेरे गोवर्धन गिरधारी

मैं त्याज्य नही ग्राह्य मुझे मोहन
मैं भोली नादान हूँ
सागर के जीवन सा मे रा
कभी शांत कभी उफान पे

ज्वार भाटा तो आये जीवन में
कभी तुम भी तो आओ मोहन
तुम गुणों का सागर मोहन
मैं अवगुण की खान हूँ

मैं डूबी हूँ भवसागर मे
पार लगाओं तारणहारे
मैं नीर हूँ नदियाँ की
सागर से तो मिलकर रहूँगी

उदार हो तुम प्रभु मेरे
करुणा सागर हैं नाम तुम्हारा
भवसागर तो पार लगायो मोहन
भवसागर पार लगायो
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।


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"सुरक्षा"
सुरक्षित चले हम परिवार के संग
तिनका चुन चुन नीड़ बनायें
उसे हम बिखरने से बचाये
घर आँगना महकाये हरदम

पवन वेग से चले न हम
रहे सुरक्षित हमारा तन -मन
संयोग न जाने कोई आज
सुरक्षित चले वही सुखी होय

मूढ़ न समझे चतुर की भाषा
समझदारों को काफी ईशारा
बिना सुरक्षा के चले जो कोई
आज नही तो कल पछतावा होई

लेकर चले हम सुरक्षा कवच
विचलत न हो हमारा तन -मन
मिलकर ले हम एक प्रतिज्ञा
सुरक्षित रहे हम सदा

सुरक्षित हो हमारा समाज
फिर देश को हम करे सुरक्षित
इस तरह हम जागरूक तो
देश सुरक्षित तो हम सुरक्षित

स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।
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है नही मुझमें इतनी प्रतिभा
प्रतिभा को परिभाषित कर पाऊँ
हर एक मे होती अलग प्रतिभा
किसी में कम किसी में ज्यादा

होती है सबमें कोई न कोई प्रतिभा
जाति-धर्म से ऊपर हैं प्रतिभा
अवसर मिले हर एक प्रतिभा को
हर एक प्रतिभा फूले फले
न हो प्रतिभा किसी की कुंठित
न चढें कोई प्रतिभा राजनीति का भेंट

हर एक मे हो इतनी प्रतिभा
खोज निकाले राह वो अपना
ताकि हर प्रतिभा हो सके प्रस्फूटित
और छू सके आकाश की बुलंदिये को

बेटा बेटी हो या कोई भी जाति धर्म
मिले सबको समान अवसर
प्रतिभाओं की नही हैं कमी
बस देना है हमें एक अवसर।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।




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यह दुनिया सांसो की मेला
प्रतिदिन यह चले अकेला
ये चले तो हम चले
ये रूठे तो जग छूटे

जब ये धीरे चले
फलक तक डर सताये
सांसो का आना जाना ही है
जीवन मेला का झमेला

चलते रहे हमारा सांस
हम रखें स्वास्थ्य का ध्यान
फास्ट फूड से करें परहेज
बस खाये घर की थाली

मिलते रहे हमें शुद्ध सांस
हम करें कुछ प्रयत्न
पेड़ के बदले पेड़ लगाये
तभी मिले हमें शुद्ध सांसे

काम कुछ ऐसा कर जाये
बच्चे बुढ़े रखे याद
सांस रहे या जाये हमारा
कभी ना करे हम प्रतिघात

सब कुछ मिले बाजार में
बस नही मिलते सांस उधार
जो मिले हैं चार दिन का मोहलत
क्यों उसे ब्यर्थ गँवाये हम।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।



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यदि हम भुला नही सकते
अपनी बुरी आदतों को
तो क्यों भुला दे अपनी परंपराओं को

बड़ो के चरण स्र्पश करें हम
न करे हम हाय बाय
बच्चों को गले लगाये हम
फिर पाये हम उनका प्यार दुलार

मैंने लगाई बस एक गुहार
बच्चों माँ फिर कहो एक बार
ये माँम माँम जो कहतो हो
समझ न पाये माँ तुम्हारा प्यार

परंपरा जो बनायें रखें ,हमारी पहचान

जिससे बढ़ाये हमारी संस्कृति का मान
उसे ही हम अपनाये आज
जिससे बढ़े समाज में अनिमियता
उसे तुरंत फेकें हम आज

जिससे सुन्दर उज्जवल हो
हमारी समाजिक ढांचा
बस वही रहे हमारी परंपरा।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।




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मैं हिन्दी शान तुम्हारी
उठो जागो मेरे संतान
हिन्द तुम्हारा वतन
मैं तुम्हारी पहचान

सही उच्चारण से करो 
मेरा अभिषेक
जो अनभिज्ञ है मुझसे
उसे दिलायो नीज
भाषा का ज्ञान
उज्जवल भविष्य करो तुम
हो तुम मेरा संतान

हर भाषा का हो तुम्हें ज्ञान
पर मैं तो हुँ माँ समान

मौन क्रदंन कर रही हूँ मैं
सिसकियों को सुनो मेरी संतान
पत्र ब्यवहार मे रखो मेरा मान
बच्चों को दो ज्यादा से ज्यादा 

हिंदी का ज्ञान
वेद पुराण भी खिल उठेंगे
जब तुम करोगें मेरा सम्मान
उन्हें पढ़ने वाले भी बढ़ जायेंगे।
मेरे लाड़ले देश में आज

अपने देश में सौतेला व्यवहार
मुझे दुखित करता हैं मेरा संतान
तुम मेरे बच्चे मुझे मत भूलों
मैं हूँ तेरी पहचान

मैं तो हूँ समृद्ध भाषा
हमें और समृद्ध बनाओ आज
दिखावे के लिए नही
सच्चे दिल से अपनाओ आज

मैं तेरी मातृभाषा हूँ
फलक तक ले जाओ आज
यदि तुम साथ दो मेरा
बिश्व गुरू बन जाऊँ आज
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।



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वचन है अनमोल
वचन के बिना हमारा
जग मे नही कोई मोल
राम गये वनवास

रखें पिता के वचन
सीता ने लिया था सात वचन
सुख चैन छोड़ चली
अपने पिया के संग

सत्य वचन बोले हम तो
रहे जग मे मान
असत्य वचन से घट
जाये जग मे सम्मान

सत्य वचन का करे हम
बचपन से अभ्यास
तो चरित्र बन उभरे
वो अपने आप

वचन का मान रखना है
हमारा कर्तव्य
वरना वचन के बिना
हम मनु पशु समान

वचन हमारा शुद्ध हो
रहे सतत प्रयास
सत्य वचन बोलने वाले पर
लोग करते एतबार

असत्य वचन वाले नही पाते
जग मे सम्मान
हमसब मिलकर वचन ले हम आज
समाज हित और जग हित मे करें
हम कुछ काम,जिससे हो जग मे
उँचा हमारा नाम।
स्वरचित अप्रकाशित-आरती श्रीवास्तव।



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"पत्थर"
कहाँ से कहाँ आ गये हम

चकमक पत्थर घिस कर 
आग जलाये भोजन खाये हम
आदिम युग से सभ्य युग मे
आ गये हैं हम।

युग बदला, जमाना बदला
बदल गया हमारा पैमाना
"स्व" तो जिन्दा रखे हैं
पर मर गई है संवेदनाएं
इंसान से पत्थर बन गये हैं हम

किसी के साथ गलत होते देख भी
रोकते नही है हम,आँख तो है
पर पत्थर के मान लिये है हम
इंसानियत को खोते जा रहे है हम

जंगल काट कर सुंदर महल बना लिए है हम
कंक्रीट पत्थर से बने घर में
पत्थर दिल होकर रह रहे है हम

ये कहाँ से कहाँ आ गये हैं हम
ईट का जवाब पत्थर से देने
लगे है हम
क्यों इतना पत्थर दिल हो गये है हम

पत्थर अगर खाने मे आ जाये तो
मूड खराब कर लेते है हम
पेट या किडनी का पत्थर
जीवन कर देते हैं दुःश्वार

पत्थर तो मंदिर के अच्छे होते है
जो होते है हमारे भगवान
शिल्पकार के पत्थर तो मन
मोह लेते है।

माना पत्थर का है हमारे जीवन में बड़ा महत्व
पर स्वयं पत्थर दिल न बन जाये हम।
स्वरचित ,अप्रकाशित -आरती-श्रीवास्तव।




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हे ईश दो आशीर्वाद
नमन तुम्हें बारम्बार
राग द्वेष से भरा मेरा जीवन
निर्मल निश्चल हो जाये

करूँ आराधना मैं तेरी
अवरोध हट जाये जीवन की मेरी
मत उपेक्षा करो प्रभु मेरा
दो ऐसा आशीर्वाद

कुत्सित बुद्धि हट जाये सभी का
सदभावना बढ़ जाये
बुद्धि विकास हो चहूँ ओर
दो ऐसा आशीर्वाद

धन धान्य से भरा हो देश मेरा
ज्ञानाभाव न हो कभी किसी मे
सिन्दूरी सूर्य की लाली सी
फैले ज्ञान-प्रकाश चहूँ ओर

मक्खन मिठाई भले मिले न सभी को
बस मिले दो वक्त की रोटी रोज
उलझने न हो जीवन मे किसी का
ऊषा काल से निशा काल तक

बस सोचें उत्थान की ओर
हर एक का आलय हो अपना 
शांति शकुन भरा जीवन हो सबका
दो ऐसा आशीर्वाद भगवान
दो ऐसा आशीर्वाद।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।



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हे मनुज जरा मुड़ कर देखो
खड़ा है किस धरा पर तू
इतनी सुंदर धरती को क्यों
नष्ट कर प्रदूषित कर रहे हो 
पर्यावरण तुम

आज सुधर जा मनु तु वरना
हो जायेगा सृष्टि का विनाश
वृक्ष जो काट रहे बेशुमार
नही चिंता आने वाली पीढ़ी
कैसे लेगी सुन्दर श्वास

कल-कारखाने घर के कुड़े
बेधड़क जो नदी मे रहे हो डाल
गर नही चेते तो अगली पीढ़ी
हो जायेगी तबाह

पेड़ की जगह मोबाइल टावर
खड़े क्यों कर रहो हो आज
बेघर हो रहे है खग हमारे
घट रहे है उनके वंशज आज

ओजोन परत मे छेद हो रही है
कर रही है तुम्हें बीमार

इस्तेमाल करो और फेको
सभ्यता ले जा रही
विनाश के कगार

रिसाइकिलिंग हो तो कुछ हो
समस्या का समाधान
बैठा लो हमारे साथ सामंजस्य
मैं प्रकृति तुम्हारी माँ समान

तभी खुश रह सकोगे तुम
खुश रहेगी अगली पीढ़ी तुम्हारी
विकास तो जरूरी है पर जरूरी है
तालमेल हमारे साथ

संतान का कर्तव्य निभा लो
और बचा लो प्रदूषण से पर्यावरण को आज

मैं प्रकृति, तुम्हारी माँ,
मानो बस मेरी एक सलाह
पर्यावरण को प्रदूषण से बचा लो
तुम मेरे संतान।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।.



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हम सब मिलकर करें एक सुन्दर कल्पना
तभी कर सकेंगे विकास हम अपना
जो भी हुए है नये अविष्कार
सभी पाते है कल्पनाओं मे विस्तार

पहले करे हम एक सुन्दर सी कल्पना
फिर करें उसे मूर्त रूप देने का प्रयास
हम करें एक सुंदर भारत की कल्पना
जिससे होगा एक सुखद एहसास

करें हम कल्पना ऐसा
साधु चरित्र होय सभी कोई
ओजस्वी हो पुत्र हमारे
कुत्सित बुद्धि न हो किसी का

मुक्त हस्त सब प्यार लुटाये
बिश्व बंधुत्व का भाव जगायें
अनिल बहे मंद मंद धरनी पर
वागीश्वरी निर्मल स्वच्छ हो जाये

सुन आली,मेरी सुन्दर कल्पना
जब पूरा होगा मेरा सपना
सब मिलकर हम उत्सव मनाये
कितना सुखद,सहज,सुन्दर
होगा जीवन अपना।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।



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