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आजकल मोहब्बत शब्द बदनाम हो चला है
बाह्य आकर्षण का आडंबर ओढ़ चला है।
दिल की सुंदरता किसी को दिखती नही
बाह्य सुंदरता पर ही मर मिटने चला है।
लोग मोहब्बत का भी ढोंग करने लगे हैं
निज स्वार्थ में मोहब्बत ही साधने चला है।
फैल रहा है समाज में आदिम युग-सा हाल
सभ्य लोगों का भी हाल पशुता का हो चला है।
भावनाएं ही तो है जो शब्दों में उतर जाती
कुछ ऐसा जो सबकी नजरों से बच चला है।
सच कहने की जुर्रत हिम्मती ही करते हैं
झूठ भले ही आज सच को दबाता चला है।
बुजुर्ग जन पुस्तकों में अपना सुकून ढूंढ रहे
जीवन संध्या आ गयी आराम खोजने चला है।
बेगैरत जमाने में नयी पीढ़ी कुछ खोने लगी
अपने ही पालनहार को वो भुलाने चला है।
आधुनिकता के दौर में लोग शहर बसने लगे
गांव में जन्मदाता को ही तन्हा छोड़ चला है।
सबको जीवन में हर खुशियां नसीब तो नही
पर शुष्क खुशियाँ ही दामन में भरने चला है।
क्षितिज पर धरती आकाश का मिलन
मिलन लगता है दिल के करीब हो चला है।
---रेणु रंजन
(स्वरचित )
नारी
स्वतंत्र लेखन
नारी तुम अभ्युदय आधार हो
जीवन का अदभुत चमत्कार हो
राग ,अनुराग का कोष बनी
निर्विवाद करुणामय सार हो।।
घर-आँगन गठबंधन मंजरी हो
संस्कारों से भरी लाजवंती हो
कठिन राहों को पार करती सदा
दुर्गा,अहिल्या,कल्पना,रानी हो।।
तुम ही तीज ,त्योहार हो
सशक्तिकरण भरा हार हो
नारी बिना तुम मानों न मानों
धरती बनती जैसे श्मशान हो।।
तुम स्वाभिमान हो,अभिमान हो
नेह,गगरी से भरा महायान हो
बंदिशें,नकाबों को हटाती हुई
धरा की महामाया अवतार हो।।
पुरातन काल से आदिशक्ति हो
भविष्य संवारती मातृत्व भक्ति हो
निःस्वार्थ भाव से कार्यरत रहती
भावों,विचारों की अभिव्यक्ति हो।।
नारी को कम क्यों आंकते हो
स्वयं अंतर्मन में नही झांकते हो
नारी भी बनी आधारशिला है
क्यों नही रक्षार्थ खड़े हो जाते हो।।
तुम जल,थल,नभ की शक्ति हो
अस्त्र-शस्त्र में भी रखती भक्ति हो
नर सँग कदम मिलाती नारी तुम
समस्त धरा की अनुपम कृति हो।।
वीणा शर्मा
स्वरचित
सभी लोग रहने लगे हैं किनारे।
डूबती कश्तियां किसे है पुकारे।
तरक्की पसन्द घर गये छोडकर।
बुढापे मे मां अब किसके है सहारे।
मेहरबानी जब से हुई है आपकी।
किस्मत के चमकने लगे हैं सितारे।
आपने नजर भर जो देखा इधर।
सोये थे अरमां अब जगे है हमारे।
हम से क्या शिकवा हम तो गैर थे ।
हुए जिनके तुम क्या सगे हैं तुम्हारे।
साफगोई से बडा जुर्म कोई नहीं।
लफ्ज क्यूं तीर लगने लगे हैं हमारे।
स्वरचित विपिन सोहल
मत समझो
हमको कि
हम बेचारी हैं
हां हम नारी हैं
तूफानों के आगे
कभी न रुकना
फितरत हमारी है
करते हैं गर्व
कि हम नारी हैं
हम पर आश्रित
यह दुनिया सारी है
हां हम नारी हैं
माँ बहन
बेटी और पत्नी
न जाने कितने
रुपों को हम जीती
संकट जो परिवार
पर आ जाए
तो बन जाती
काली कल्याणी हैं
हां हम नारी हैं
एक दिन भी
हम हड़ताल
कर जाएं घर में
उथल-पुथल मच जाए
एक साथ कई
काम हम करती
मुख पर ओढ़े
हम मुस्कान
हम क्यों किसी से
खुद को कम समझे
हां हम नारी हैं
मत समझो
हमको कोई बेचारी
हम हिम्मती नारी है
हर क्षेत्र में
आगे रहना
फितरत हमारी है
मुश्किलों में अटल
खड़े रहना यह
खूबी हमारी है
हां हम नारी हैं
कभी न रुकना
फितरत हमारी है
***अनुराधा चौहान***स्वरचित
कितनी खूबसूरत थी ये धरा
कितना स्वच्छ था आसमाँ,
कामना तो करता है हर कोई
बनी रहे इनकी यह पहचान,
अपने स्वार्थ में ही लिप्त हैं
पर आज हर-एक इन्सान,
बनावटी सुख के फेर में पड़
कर रहा खिलवाड़ सब जान,
पेड़-पौधे,जल-थल सबकी
जरूरत का आज नहीं भान,
अब भी नहीं बिगड़ा है कुछ
अपने हौंसले को तो पहचान,
कोशिश कर कुछ बदलने की
घड़ी है अब संभल जाने की,
निर्मल कर ये धरा-आसमान
खुली हवा में भर ले तू उड़ान,
हृदय को कुंज,
हे मोहन तुम आओ न,
अधरों का है बांसुरी,
को निमन्त्रण,
प्रेम गीत दोहराओ न,
जब मलय पवन के,
झोकों से तुम,
तन मेरा सहलाते हो,
तब सच कहती हूँ,
मोहन मेरे,
मन को घायल कर जाते हो,
जब कोयल,
कू-कू करके,
कोई गीत उठाती है,
तब सच कहती हूँ,
हूक से उसके,
बिरह बेग बढ़ जाती है...
आस में तेरे,
सूख रही है,
कुंज की बगिया आओ न,
सूख रही है,
आस की बगिया,
फिर से तुम आ जाओ न,
अधरों का है बांसुरी,
को निमन्त्रण,
प्रेम गीत दोहराओ न,
विरह की मारी,
राधा रानी,
राढ़ स्वं से ठानी है,
निर्झर आँखे ,
बरस रही जैसे,
जमुना जी का पानी है,
कभी नाथ स्मृति में,
जो राधा के सन्मुख,
आते हो,
तुम क्या जानो,
उनकी फिर,
क्या दुर्गति कर जाते हो,
ललिता से पूछी,
अलि-दल से पूछी,
लता से कहे बतलाओ न,
हे नटवर क्यों,
छलते हो,
सन्मुख मेरे आओ न,
अधरों का है बांसुरी,
को निमन्त्रण,
प्रेम गीत दोहराओ न,
स्वरचित...राकेश पाण्डेय,
कैसे करूं नमस्ते बताईये पिटने से बचाईये
जनता का प्रतीक हूं मैं बड़ा भोला नादान।
करूँ नमस्ते किस तरह, हूँ बहुत परेशान।।
पिटते पिटते थक गया बताओ कोई उपाय।
करने पर नमस्ते जो पिटने से मुझे बचाय।।
जा रहा मार्ग पर, कष्ट कोई था मुझे नाय।
एक सज्जन सामने से, आ रहे मूछ पैनाय।।
गलती भयी मोय से राम राम ठोक दी जाय।
तुरन्त ही तड़ाक से झांपड़ दिया हमें लगाय।।
फरमाये आगे से प्रभु का नाम ऐसे न लेना।
नमन करो तो केवल जय श्रीराम ही कहना।।
बात सही है आपकी, दिया उचित मुझे ज्ञान।
राय प्रभु आपकी मैने तुरन्त ही ली है मान।।
दूजे श्रीमान मिले मुझे था नहीं जिनसे काम।
ठोक दिया तुरन्त, दन्न से मैने जय श्रीराम।।
तत्काल दी दूसरे गाल बिजली गिरी हो आय।
पीड़ा हुई भयंकर मुझे, निकली मुख से हाय ।।
सीता जी को कभी, प्रभु से अलग नहीं करते ।
अकेला नाम नहीं लेते जय सियाराम हैं कहते।।
एक सज्जन मिले पहन के सूट बूट का खोल ।
जय सियाराम नहीं ,गुड मारनिंग ही तू बोल।।
हुया भ्रमित मैं, करूं किस प्रकार अब नमस्ते ।
जोड़ हाथ सोचा मैने करूंगा नहीं अब नमस्ते ।।
कुछ चला था सामने से थानेदार जी रहे पधार ।
इनसे करनी ही पड़ेगी, कैसे कोई बताओ यार।।
क्रोध में अकल सुधारक पीठ पर मेरी जमाया ।
सहन हुआ नहीं दर्द, दर्द के मारे मैं चिल्लाया।।
विनती है आपसे, कृपा करके इतना बतला दो।
नमस्ते करने से मार न पड़ें, कोई समझा दो।।
डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
“व्यथित हृदय मुरादाबादी”
स्वरचित
अब मानुष काट रहा फ्लैटो में जीवन ,
फ्लेट मिलते रेडी टू शिफ्ट है
इनमे बसते ही उम्र की कटती रिशिप्ट है ,
न ऑगन,न चबूतरा, न दिखे कोई व्रक्ष
न व्योम ,न दिवाकर दिखे तो बस कक्ष ,
न आमोद न प्रमोद होता इनमे
हर कोई ईद का चाँद नजर आता
शर्मा जी ,वर्मा जी या हो कोई भी अल्बतता
कोई न किसी की खबर रखता
डिब्बे की भांति पैक हो गया जीवन
अब नहीं दिखते ग्रह ....
स्वरचित
शिल्पी पचौरी
ढूंढती है यादें
समय के दरवाजों के पार
कुछ भूले चेहरे
कुछ खोए चेहरे,
सिमटती है जिन्दगी
कितना तो है संसार
कहीं अपनों के पहरे
कहीं लोगों के पहरे l
भुला देगा वक्त
दो पीढी की तस्वीर की तरह
सूनी हवेली के कमरों में
उठती हुई गंध के मानिद
चुभेंगे जमानें को
कोई तीर की तरह ,
भर लेंगे जाते- जाते
कुछ घाव गहरे
कर लेंगे खुद से बात
हम जहां भी ठहरें l
श्रीलाल जोशी "श्री"
आक्रन्ति
*अजन्मी बेटी*
मैं कोई अपराधी हूँ क्या माँ?
ज़रा मुझे एक बात समझा।
सज़ा ए मौत की हकदार..
मैं कैसे हुई भला? ये तो बता।।
*मां*
ना बेटी, ना ही अपराधी है तुं
और ना ही सजा की हकदार
तेरे दादा जी ही का हुक्म है..
बेटी नहीं बेटा हो अबकी बार।।
*अजन्मी बेटी*
गलती क्या है..?फिर मेरी
क्यूँ कोख में रही है मार..?
क्यों तेरे लिए हुक्मदार बना
ये नीच सोच का सरदार*
*=दादा जी
*मां*
चुप रह कैसे जुबान चलाती है
ये नीच सोच के नहीं ये बड़े है।
जो बड़े कहेंगे वो ही हम करेंगे
खानदान के कायदे थोड़े कड़े है।।
*अजन्मी बेटी*
कायदे के पीछे क़ातिल बनेगी?
क्यों तुम पे नीच सोच भारी है..
किस काम के वो तुगलकी कायदे
जिनसे पैदा हुई **ये बीमारी है ।।
** भ्रूण हत्या।
*मां*
बस कर बेटी अब मत रूला
मैं जीवनदाती, नहीं जीवनन्ति
मैं भूल गयी थी कर्तव्य मेरा..
रखूंगी मैं तेरा नाम आक्रन्ति
*अजन्मी बेटी*
मां समझ गयी तुं मेरी बात
शुक्र गुजार तेरी रहूंगी...।
दुनियां देखती रह जायेगी
इक ऐसी उड़ान भरूंगी।।
*मां*
बेटा सोच बदल दी तूने मेरी..
मैं जन-जन को जा बताउंगी।
मां जीवनदाती है जीवनन्ति नहिं
मैं सब जन को समझाऊंगी।।
स्वरचित
सुखचैन मेहरा
चित अतृप्त व्यथित, व्याकुल चंचल,
कुछ पाने को, नित रहे आकुल।
सुप्त ज्ञान बुद्धि, विवेक निश्चल,
इक पल को भी, न पड़ता कल।
भावों की गगरी, भरी छल छल,
हृदय मची, हलचल हलचल।
मैं विवश व्यथित, प्यासी हरपल,
नहीं स्वार्थ रहित, न हूं निश्छल।
पीती रहती, चुपचाप गरल,
हर ओर मचा, है कोलाहल ।
कुछ पाने को, अंतर आकुल,
ये छलना छलती, पल पल पल।
इन सबसे दूर, मैं जाऊं निकल,
उर रस की धार, बहे अविरल ।
अभिलाषा चौहान
(स्वरचित)
अब हम , हम न रहे
यह आँसू इतने बहे ।।
कि यह बोलने लगे
गहरे राज खोलने लगे ।।
क्या जरूरी था इतना रोना
क्या कोई पाप था धोना ।।
जो भी हो शुद्ध हुआ मन
जाग उठा यह अन्तर्मन ।।
क्यों रोयें अब पूर्वाग्रह पर
होता सब उसके आग्रह पर ।।
दोष किसी को नही देते
चलो यह पूँजी बना लेते ।।
सबकी अपनी अलग मंजिल
ईश्वर नही ''शिवम" संग दिल ।।
आँसू जब सैलाब बन उमड़ता है
निश्चित कोई बुनियाद नई रखता है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 30/09/2018
है जीवन की आस तुमसे
महकाओ मेरा उपवन,
खिल जाये हर कलि कलि
बन जाऊं मैं जोगन,
ऐसी है प्रीत तुमसे, मेरे कन्हैया
मुरली वाले ओ सांवरे कन्हैया
दर्शन तो दिखला दो ओ बंशी बजैया
घूमू मैं तो गली गली
जाऊं मैं तुझ पर वारी
मन में मेरे तु ही समाया
समझ ना पाई तेरी माया
बना ले अपनी जोगन मुझको
भव सागर से तार दे मुझको
ऐसा दे वरदान मुझको ,मेरे कन्हैया,
मुरली वाले ओ सांवरे कन्हैया
दर्शन तो दिखला दो ओ बंशी बजैया
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
सुधियों की कंदील,
जलती रही,
सांवरिया तुम न आए।
कल्पनाओं की,
मृदु कलियाँ खिलती रही,
सांवरिया तुम न आए।
मन की नदी में,
लहरों का नर्तन,
सागर के भुज बंधों को,
ढूंढ ती रही,
सांवरिया तुम न आए।
तुम्हारी प्यारी बातें,
याद आतीरही,
सताती रही, तडपाती रही,
जलाती रही,रुलाती रही,
सांवरिया तुम न आए।
यामिनी दुल्हन बनकर,
माथे पर,
चाँद की बिदिंया,
लगाये बैठी,
सांवरिया तुम न आए।
मन की राधा,
विरह कब तक गाए,
प्रीत रंग काहे लगाई,
जग न सुहाये,
सांवरिया तुम न आए।।
देवेन्द्रनारायण दास बसना,
6266278791।।
"उनकी तारीफ़ में"
---------------
"नज़रों के सामने है इक चेहरा ग़ुलाब के जैसा,
तेरा मिलना लाज़मी था मेरे इक ख़्वाब के जैसा।
न हो सकूँ कामयाब तो गलती मेरी क्या है,
मुश्किल है कि पढ़ लूं तुझको इक क़िताब के जैसा।
जिसकी रौशनी से रौशन है मेरा सफ़र, ऐ हमसफ़र,
तू काबिज़ है यहां इस चाँद के आफ़ताब के जैसा।
मुकम्मल हों, न हों ख़्वाहिशें मग़र ये सच है मेरे साथी,
तेरा होना काफ़ी है ज़िन्दगी में इक रुबाब के जैसा।"
स्वरचित--"राकेश ललित"--
वाह जिंदगी
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पथरीली है राह जिंदगी।
कभी न भरना आह जिंदगी।
तूफानों से लड़ते लड़ते,
ढूंढ रही है थाह जिंदगी।
छोड़ न देना साथ अचानक।
एक यही है चाह जिंदगी।
सब कहते है मुश्किल है पर,
हम कहते है वाह जिंदगी।
बाधाओ से लड़ जाओ तुम,
करो न पल में दाह जिंदगी।
मोंत स्वयम्बर रचने को है,
देती मुझे पनाह जिंदगी।
"निगम" अहम आया यदि भीतर,
कर देगी सब स्वाह जिंदगी।
------
बलराम निगम।
कस्बा -बकानी,जिला-झालावाड़,राजस्थान
मोबाइल-9166898444
मेल-brnigam009@gmail. com
****
भूख एक होती है बस,
इतना ही मैं जान सका।
एक भूख मिटाने को ,
नित नई भूख ने जन्म लिया।।(1)
मन की एक भूख होती है,
मर कर ही मिटने बाली।
चाहे जितनी सीमित कर लो,
सुरसा-सी वो बढ़ने वाली।।(2)
भूख एक तन की होती है,
जो नहीं मिटाये मिटने बाली।
जितना चाहो खाते जाओ,
मन सरस प्राण को हरने बाली।।(3)
अंतिम भूख पेट की होती,
जो सिकुड़े पेटों में मिल जाती।
एक जून रोटी की खातिर ,
दिन-रात मेहनत से पिटने बाली।।(4)
भूख एक होती है बस ,
इतना ही मैं जान सका ।
(मेरे कविता संग्रह "अनुगूँज " से )
[ 1 ]
***************************
🍁
धीरे-धीरे खत्म हो रहा,
प्यार का मीठा झरना।
उष्ण हो रहा मरूभूमि सा,
दिल का मेरा कोना ॥
🍁
प्रीत के पतवारो ने छोडा,
प्रेम मिलन का रोना।
अब ना मुझमे हलचल करता,
मिलना और बिछडना॥
🍁
पत्थर सी आँखे बन बैठी,
प्रीत ने खाया धोखा।
याद तो आती है उसकी पर,
मीठा नही झँरोखा॥
🍁
अच्छे दिन पर हाबी हो गई,
बुरे दिनो की बातें ।
दोनो को जब तौला तो,
लिख दी मन की ये बाते॥
🍁
छोटे से इस जीवन में,
यादों के सहारे जी लेगे।
मान और सम्मान को तज कर,
पर कैसे हम जी लेगे ॥
🍁
कविता को मन भाव समझ कर,
इसमे ही सब लिख देगे।
शेर कह रहा प्रीत के आगे,
सम्मान नही हम त्यागेगे ॥
🍁
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf
आ गये हैं पितृपक्ष,
दिवंगत पूर्वजों को,
दे रहें हैं सब तर्पण,
जिन्दा लोगों के लिए,
क्यों खो गया समर्पण,
जब असहाय बूढे़ चाहे,
सहारा अपनों से पल-पल,
तब क्यों नही मिलता वो सब,
सांसे जब थम जायें उनकी,
तब देते हैं खूब समर्पण,
हे, मानव तू बडा स्वार्थी है,
जीवनभर दिया न दाना,
मरर्णोपरान्त पितृ-देव बना डाला,
व्यंजन बने हैं छत्तीस प्रकार,
जीवित रहते किया तिरस्कार,
मात-पिता की सेवा तब कर लो,
जब तक सांसे उनकी बरकरार,
आशीष खूब मिलेगा सबको,
जीवन हो जायेगा साकार,
जीते-जी जो देगा सेवा,
पितृछाया से न कभी वंचित होगा |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
कवि कभी मरते नहीं
वह तो जनमानस के
ह्रदय में युगों-युगों तक
जीवित रहतें हैं,
अपने शब्दों से
अपने विचारों से
हमारे बीच आकर
साक्षात खड़े हो जाते हैं।
कवि कभी मरते नहीं
वह तो कण-कण में व्याप्त रहते हैं.......॥
शरीर मरता है
जलकर भस्म बन जाता है
विलीन हो जाता है
इन फिजाओं में कहीं
पर, कवि का स्वर
गुँजता रहता है कानों में
चमकता है उनका विचार
कोरे कागज पर
ठीक उस सूर्य की तरह
जो अकेले इस जहाँ को
प्रकाशमय बनाता है।
कवि कभी मरते नहीं
वह छोड़ जाते हैं
अपने पिछे
अपनी कृति, अपनी पहचान
और एक अमिट चिन्ह।
स्वरचित :- मुन्नी कामत।
हम मातृभक्त रहे सदा से।।
जिंदा जीवन तक श्रृद्धा भाव।
नही तनिक भी दुराभाव।
आक्रन्ताओं के दुर्प्रचार से।
हम को कुशासित कर दिया।
पथ का भटकाव जैसा है।
जानकर भी अंजान है।
न स्वयं चलना
और दोष देखना।
ऐसा संस्कार कहे कुसंस्कार।
स्वरचित:-
राजेन्द्र कुमार#अमरा#
"लघुकथा"
"पर उपदेश कुशल बहुतेरे"
समीरा जोर जोर से पड़ोसिन के बहू पर चिल्ला रही थी,"कहाँ हो शुमि?तुम्हें सफाई का जरा भी ध्यान नही:हर वक्त तुम्हारे बच्चे सीढिय़ों पर जूठन बिखरते रहते है:पूरा रास्ता जूठन से भरा पड़ा है, मैं बाजार क्या गई , घर आने का रास्ता ही नही छोड़ा,अभी तुरंत झाड़ू लाकर रास्ता" साफ करना होगा, तभी मैं अंदर आ पाऊँगी"।
परन्तु नीता की बहू को बाहर क्या हो रहा है, इसका उसे थोड़ा भी भान नही था,क्योंकि उसके दोनों छोटे बच्चे (डेढ़ व ढाई साल के )सुबह से घर से बाहर निकले ही नही थे,साथ ही याद आया उसकी सास की बच्चों को पड़ोसी के घर नही भेजने की नसीहत, क्योंकि वे लोग बच्चों को बिल्कुल भी पसंद नही करते हैं।परन्तु वह अपनी सास को यह समझा चुकी थी कि कभी दरवाजा खुला पाकर ही बच्चे बाहर भाग पाते है वरना वे अपनी घर मे ही रहते है।
समीरा के तीन बच्चे थे जो सभी काँलेज के छात्र थे।माँ का चिल्लाना सुनकर उनका बेटा जो सत्तरह साल का था ,बाहर निकला और सारा माजरा जान अपनी माँ को बताया वह जूठन भाभी के बच्चों ने नही बल्कि वह स्वयं अपने दोस्तों के साथ खोमचे वाले से समान खरीद कर खाया और आलस्य बस जूठन वही फेंक दिया।
सच्चाई का सामना होते ही समीरा झाड़ू लाकर सफाई मे जूट गई।।
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।
"पर उपदेश कुशल बहुतेरे"
समीरा जोर जोर से पड़ोसिन के बहू पर चिल्ला रही थी,"कहाँ हो शुमि?तुम्हें सफाई का जरा भी ध्यान नही:हर वक्त तुम्हारे बच्चे सीढिय़ों पर जूठन बिखरते रहते है:पूरा रास्ता जूठन से भरा पड़ा है, मैं बाजार क्या गई , घर आने का रास्ता ही नही छोड़ा,अभी तुरंत झाड़ू लाकर रास्ता" साफ करना होगा, तभी मैं अंदर आ पाऊँगी"।
परन्तु नीता की बहू को बाहर क्या हो रहा है, इसका उसे थोड़ा भी भान नही था,क्योंकि उसके दोनों छोटे बच्चे (डेढ़ व ढाई साल के )सुबह से घर से बाहर निकले ही नही थे,साथ ही याद आया उसकी सास की बच्चों को पड़ोसी के घर नही भेजने की नसीहत, क्योंकि वे लोग बच्चों को बिल्कुल भी पसंद नही करते हैं।परन्तु वह अपनी सास को यह समझा चुकी थी कि कभी दरवाजा खुला पाकर ही बच्चे बाहर भाग पाते है वरना वे अपनी घर मे ही रहते है।
समीरा के तीन बच्चे थे जो सभी काँलेज के छात्र थे।माँ का चिल्लाना सुनकर उनका बेटा जो सत्तरह साल का था ,बाहर निकला और सारा माजरा जान अपनी माँ को बताया वह जूठन भाभी के बच्चों ने नही बल्कि वह स्वयं अपने दोस्तों के साथ खोमचे वाले से समान खरीद कर खाया और आलस्य बस जूठन वही फेंक दिया।
सच्चाई का सामना होते ही समीरा झाड़ू लाकर सफाई मे जूट गई।।
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।
🌺 "'पायल"'🌺
पायल सजे तुम्हारे चरण,
जब से पड़े मेरे घर-आंगन
मेरी सुबह की छम- छम तुम
तुम्हीं मेरी शाम का झनकार हुई।
दिन मेरे खुशियों का सौगात
रातें रहीं तुम्हारी कायल
साँसों में बस छम-छम , छम-छम
बजती रही तुम्हारी पायल ।।
ओ प्रिये ! मनवासिनी मेरी,
मुझे अकेला कर के जाना !
जाने तुम क्यों चली गई हो
मुझसे रिश्ता तोड़ गई हो ।
बैठा हूँ बस गुमसुम - गुपचुप
हुआ किया यादों से घायल
कानों में बस छम-छम, छम-छम
बजती रही तुम्हारी पायल ।।
एक आँख अब दिन ना भाता
मन मेरा बस बिरहा गाता
रातें भी है सहमी-सहमी
सन्नाटों की गहमा-गहमी।
लौट आओ ! तुम्हारी याद समुन्दर
जिसका कोई नहीं है साहल
कानों में बस छम-छम , छम-छम
बजती रही तुम्हारी पायल ।।
स्वरचित
"पथिक रचना"
पायल सजे तुम्हारे चरण,
जब से पड़े मेरे घर-आंगन
मेरी सुबह की छम- छम तुम
तुम्हीं मेरी शाम का झनकार हुई।
दिन मेरे खुशियों का सौगात
रातें रहीं तुम्हारी कायल
साँसों में बस छम-छम , छम-छम
बजती रही तुम्हारी पायल ।।
ओ प्रिये ! मनवासिनी मेरी,
मुझे अकेला कर के जाना !
जाने तुम क्यों चली गई हो
मुझसे रिश्ता तोड़ गई हो ।
बैठा हूँ बस गुमसुम - गुपचुप
हुआ किया यादों से घायल
कानों में बस छम-छम, छम-छम
बजती रही तुम्हारी पायल ।।
एक आँख अब दिन ना भाता
मन मेरा बस बिरहा गाता
रातें भी है सहमी-सहमी
सन्नाटों की गहमा-गहमी।
लौट आओ ! तुम्हारी याद समुन्दर
जिसका कोई नहीं है साहल
कानों में बस छम-छम , छम-छम
बजती रही तुम्हारी पायल ।।
स्वरचित
"पथिक रचना"
सुन बिटिया एक बात बताऊँ,
जीवन का तुझे सार समझाऊँ,
साजन तेरा सुई तो तू धागा बन जाना,
बन सूई-धागा तुम रिश्तों को पिरोना,
सुई सी बात कोई कर दे हृदय घाव,
सिल प्रेम के धागों से बनना तू छाँव,
बिन धागे हो जाती सुई बेकार,
मिल धागे से मिटाती है दरार,
दो टुकड़ों को कर देती है एक,
मिलकर सुई-धागा करते काम नेक,
काम हो जहाँ सुई का क्या करेगी तलवार,
सुई-धागा मिलकर पिरोते फूलों का हार।
स्वरचित-रेखा रविदत्त
जीवन का तुझे सार समझाऊँ,
साजन तेरा सुई तो तू धागा बन जाना,
बन सूई-धागा तुम रिश्तों को पिरोना,
सुई सी बात कोई कर दे हृदय घाव,
सिल प्रेम के धागों से बनना तू छाँव,
बिन धागे हो जाती सुई बेकार,
मिल धागे से मिटाती है दरार,
दो टुकड़ों को कर देती है एक,
मिलकर सुई-धागा करते काम नेक,
काम हो जहाँ सुई का क्या करेगी तलवार,
सुई-धागा मिलकर पिरोते फूलों का हार।
स्वरचित-रेखा रविदत्त
* - दोस्ती*
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दोस्ती : दो व्यक्तियों के मध्य अबंधित बंधन,
जिसकी संपूर्ण पृष्ठभूमि
आपसी सद्भाव और सहभागिता पर निर्भर होती है।
दोस्ती : आस्था और विश्वास का प्रतीक !
धैर्य-निष्ठा और गर्दिश के क्षणों में नेह और रिश्ते की मज़बूती को सायास परिभाषित करता हमसफर।
दोस्ती : अमीरी- ग़रीबी की दूरियाँ मिटाता मज़बूत पुल,
जहाँ एक कृष्ण और एक सुदामा सहज बँधे होते हैं निर्मल नेह की डोर से।
दोस्ती : वचननिष्ठ स्वंय को मिटा देने का जज़्बा
एक दूसरे के लिए त्याग और समर्पण का
जिसके आलोक से कर्ण-दुर्योधन आलोकित होते हैं।
दोस्ती : मार-पीट, कुट्टी मीठी, लुका-छिपी झगड़े और फिर त्वरित गलबँहियाँ डाले
सखा का सुखद साथ।
दोस्ती : जीवन समर में विश्वास का दीपक
अंधकार दूर कर, सही मार्ग प्रशस्त कर
अग्रणी होने का धर्म निभाता है
वही पार्थ कहलाता है !
दोस्ती : स्वाद नहीं देखता
ग़रीबी के सूखे चने भी
दोस्ती में पंचमेवा बन जाते हैं
उस कलेवे का स्वाद अवर्णणीय होता है !
दोस्ती : हर वक्त मस्तिष्क में छाया ऐसा जज़्बा
बचपन से जवानी, बुढ़ापे तक अविस्मरणीय क्षणों को नहीं भूलने वाला स्मृति पात्र !
जीवन का सर्वोत्तम मृदुल मनोहर रिश्ता !!
दोस्ती : मधुरिम नशा
जो कभी ना उतरे किसी के साथ का
हाथों में हाथ का, मचलते जज़्बात का दिन और रात का
संपूर्ण विश्वास का !!
हर उम्र का नायाब तोहफ़ा !!
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*सुधा शर्मा*
राजिम (छत्तीसगढ़)
30.09.2018
प्रिय चिंता नहीं चिंतन किया करो ,
अपने आगोश मे लेकर चिंता ,
तुम्हें चिता पर लिटा आएगी,
तुम्हारे अपनो की समस्याएँ और बढ़ा जाएगी ।
बस थोड़ी हिम्मत करो,
कुछ चिंतन मनन करो
अपने ही भीतर मंथन करो
यही अमृत कलश दिलाएगा
सही राह बताएगा ।
थोड़ी आस थोड़ा उल्लास जीवन मे भरो
सफलता बांहे फैलाए आएगी
हर मुसीबत से निकाल तुम्हे कामयाबी दिलाएगी ।
कभी यूँ ही मुस्कराओ, खिलखिलाने का अभ्यास करो,
बस थोड़ी हिम्मत ,थोड़ा प्रयास करो,
चिंता नही प्यारे, चिंतन किया करो
चिंता के स्याह गलियारे से बाहर निकलो,
सुनहरी भोर पुकार रही है ।
(स्वरचित ) सुलोचना सिंह
अपने आगोश मे लेकर चिंता ,
तुम्हें चिता पर लिटा आएगी,
तुम्हारे अपनो की समस्याएँ और बढ़ा जाएगी ।
बस थोड़ी हिम्मत करो,
कुछ चिंतन मनन करो
अपने ही भीतर मंथन करो
यही अमृत कलश दिलाएगा
सही राह बताएगा ।
थोड़ी आस थोड़ा उल्लास जीवन मे भरो
सफलता बांहे फैलाए आएगी
हर मुसीबत से निकाल तुम्हे कामयाबी दिलाएगी ।
कभी यूँ ही मुस्कराओ, खिलखिलाने का अभ्यास करो,
बस थोड़ी हिम्मत ,थोड़ा प्रयास करो,
चिंता नही प्यारे, चिंतन किया करो
चिंता के स्याह गलियारे से बाहर निकलो,
सुनहरी भोर पुकार रही है ।
(स्वरचित ) सुलोचना सिंह
करे जो हिन्दी भाषा से प्यार उसका हो जाता बेड़ा पार.....
हिन्दी तो करती सबका उद्धार झ्सी मे है सबका आधार ......
हिन्दी तो है हिन्दुस्तान की शान उसका करो ना यूँ अपमान .....
हे मेरे प्यारे हिन्दुस्तान
हिन्दी की अनेको बोली देखो कैसे मन को भाती
है......
हिन्दी मे कितनी बोली आती कितने वर्ण बताऊं मैं
स्वर व्यंजन अन्तस्थ ऊष्म झ्समे ही आते
चार संयुक्त व्यंजनो को अब इसमे जोड़ा जाता
वर्णी का क्रम सरल सुगम हम सबके मन को है भाता.....
सत्रह बोलियो से घनिष्ठ जुड़ा है हिन्दी का नाता
खड़ी बोली का रुप नेया अब हिन्दी है कहलाता
बावन वर्ण वर्णमाला के हिन्दी मे सिखलाये जाते
तत्सम तद्वव देशी विदेशी शब्द हिन्दी ने अपनाये
पर्यावाची मिल जाते तो वो सब हमको मन भाते
गद्य- पद्य दोनो मे मिलता साहित्यस्वाद संस्कृति
की भाषा, है नैतिकता सिखलाती
संस्कृति के वंशज है ये संस्कारों की भाषा है आती......
वर्तनी सरल सीखने पर कभी भुल ना पाती
वेदो का हिन्दी भाषा भरा सार है
दर्शन उपनिषद की व्याख्याये
ग्रंथ गीता से हमे तो प्यार है
ग्रंथ रामायण से हमे मिलते संस्कार
ये मेरा प्यारा हिन्दूस्तान ह्रै हिन्दु हम है
यह सबसे बड़ा वरदान है
जय हिन्द जय भारत
स्वरचित हेमा जोशी
हिन्दी तो करती सबका उद्धार झ्सी मे है सबका आधार ......
हिन्दी तो है हिन्दुस्तान की शान उसका करो ना यूँ अपमान .....
हे मेरे प्यारे हिन्दुस्तान
हिन्दी की अनेको बोली देखो कैसे मन को भाती
है......
हिन्दी मे कितनी बोली आती कितने वर्ण बताऊं मैं
स्वर व्यंजन अन्तस्थ ऊष्म झ्समे ही आते
चार संयुक्त व्यंजनो को अब इसमे जोड़ा जाता
वर्णी का क्रम सरल सुगम हम सबके मन को है भाता.....
सत्रह बोलियो से घनिष्ठ जुड़ा है हिन्दी का नाता
खड़ी बोली का रुप नेया अब हिन्दी है कहलाता
बावन वर्ण वर्णमाला के हिन्दी मे सिखलाये जाते
तत्सम तद्वव देशी विदेशी शब्द हिन्दी ने अपनाये
पर्यावाची मिल जाते तो वो सब हमको मन भाते
गद्य- पद्य दोनो मे मिलता साहित्यस्वाद संस्कृति
की भाषा, है नैतिकता सिखलाती
संस्कृति के वंशज है ये संस्कारों की भाषा है आती......
वर्तनी सरल सीखने पर कभी भुल ना पाती
वेदो का हिन्दी भाषा भरा सार है
दर्शन उपनिषद की व्याख्याये
ग्रंथ गीता से हमे तो प्यार है
ग्रंथ रामायण से हमे मिलते संस्कार
ये मेरा प्यारा हिन्दूस्तान ह्रै हिन्दु हम है
यह सबसे बड़ा वरदान है
जय हिन्द जय भारत
स्वरचित हेमा जोशी
ग़ज़ल - रहनुमा ग़ालिब नहीं तो, कौन है....
रूह में न है खुदा तो, कौन है…
तुम नहीं गर वो बताओ, कौन है….
लफ्ज़ से वाकिफ नहीं हूँ, उससे मैं…
लम्ज़ से मुझको दिखाओ, कौन है….
हार कर मुँह फेर के बैठे हो क्यूँ….
वक़्त से जीता बता, वो कौन है….
बिखरी ज़ुल्फ़ें चहरा भी है बदगुमां….
मौत सी खामोशियो, वो कौन है….
इश्क़ का ये ज़हर ऐसा है ‘चन्दर’….
जो न मर के जी उठे, वो कौन है…
‘चन्दर’ के सजदे ग़ज़ल में शेर के….
रहनुमा ग़ालिब नहीं तो, कौन है….
II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II
लम्ज़ – स्पर्श
रूह में न है खुदा तो, कौन है…
तुम नहीं गर वो बताओ, कौन है….
लफ्ज़ से वाकिफ नहीं हूँ, उससे मैं…
लम्ज़ से मुझको दिखाओ, कौन है….
हार कर मुँह फेर के बैठे हो क्यूँ….
वक़्त से जीता बता, वो कौन है….
बिखरी ज़ुल्फ़ें चहरा भी है बदगुमां….
मौत सी खामोशियो, वो कौन है….
इश्क़ का ये ज़हर ऐसा है ‘चन्दर’….
जो न मर के जी उठे, वो कौन है…
‘चन्दर’ के सजदे ग़ज़ल में शेर के….
रहनुमा ग़ालिब नहीं तो, कौन है….
II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II
लम्ज़ – स्पर्श
हिंदी पखवाड़े के अंतिम दिवस
1
भगिनी हिंदी
सिसकता भारत
सोते है हिन्दू
2
मात्र है भाषा
सिसकती बहना
क्षुब्द ये हिंदी
3
ये भारतीय
अपमानित हिंदी
लुप्त है बिंदी
4
माता संस्कृत
देवनागरी पुत्री
हिंद का दिल
5
है हिंदुस्तान
हिंदी जग महान
देश की जान
कुसुम पंत 'उत्साही '
1
भगिनी हिंदी
सिसकता भारत
सोते है हिन्दू
2
मात्र है भाषा
सिसकती बहना
क्षुब्द ये हिंदी
3
ये भारतीय
अपमानित हिंदी
लुप्त है बिंदी
4
माता संस्कृत
देवनागरी पुत्री
हिंद का दिल
5
है हिंदुस्तान
हिंदी जग महान
देश की जान
कुसुम पंत 'उत्साही '