मुकेश राठौड़(मॉडरेटर)


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"लेखक परिचय"

01)नाम:- मुकेश गोकुल राठौड़ 02)जन्मतिथि:- 07/03/1985 03)जन्म स्थान:- डोंगरगाँव जिला खरगोन म.प्र. 04)शिक्षा:- आइटीआई ड्राफ्ट्समैन सिविल,12वीं कृषि संकाय 05)सृजन की विधाएँ:- कविता 06)प्रकाशित कृतियाँ:- 07)कोई भी सम्मान:- 08)संप्रति(पेशा/व्यवसाय):- प्राइवेट कंपनी.. सिविल इंजीनियर.. 09)संपर्क सूत्र(पूर्ण पता):- 42 ब्रज विहार कॉलोनी (वैशाली नगर) इंदौर म.प्र. 10)मोबाइल नंबर:- 7354592825,797647936, 11)ईमेल आईडी:- rathodmukesh445@gmail.com
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पल-पल कचोटता,
या सिहरा जाता।
यादों से पर्दे सारे,
फिर उठा जाता।
उठती कसक हृदय में,
भर जाता वेदना बंध।
सजल होते नयन,
तोड़ सारे तटबंध।
जैसे पतझड़,
लूट जाता चमन।
वैसे ही टीस भरता,
पल-पल ये सूनापन।

राठौड़ मुकेश

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दिन :- मंगलवार
दिनांक :- 10/12/2019
शीर्षक :- संतुलन

संदेह पला,घर परिवार में।
रिश्ते बंटे,माटी की दीवार में।

जागा है अहं,थोड़ी तकरार में।
घुला जहर,मधुरम प्यार में।

भूले संस्कार,स्वार्थ की बयार में।
भीगे नयना,बसंत बहार में।

खींचें औजार,क्षणिक आवेश में।
लहू पसरा,गृह परिवेश में।

मौन है द्वार,रोती रही देहरी।
समेटे गम,मौन हुआ प्रहरी।

मुरझा गया,रिश्तों का उपवन।
ढहा महल,बिगड़ा संतुलन।

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश
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नमन मंच को
दिन :- गुरुवार
दिनांक :- 05/12/2019
शीर्षक :- विवाह/परिणय

शाश्वत प्रेम का ये बंधन..
है दिलों का ये गठबंधन..
प्रणय प्रीति विश्वास सँग..
महकाता यह नेह उपवन..
अजब अलौकिक मेल है..
रिश्तों की है अमरबेल ये..
समर्पण सँँग समर्थन का..
है अद्भुत,अनूठा ये संगम..
सींचती धार एहसास की..
शाश्वत प्रेम का ये बंधन..
है परिणय ये वादों का..
है सफर मीठी यादों का..
जैसे बसंत की हो बहार..
हर तरफ हो बस प्यार..

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश

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दिन :- मंगलवार
दिनांक :- 26/11/2019
शीर्षक :- कुर्सी

मौन पड़ी सिसक रही..
आहाते की वो कुर्सी..
देखती रही सब...
झेलती रही..
दंश घर के बंटवारे का..
असहाय खड़ी वृद्धा सी..
तकती रही एक-एक छण वो..
लगाकर एक आस..
कब कोई बोल पड़े..
और रूक जाए बंटवारा वो..
सबकुछ बंट गया...
घर सामान..
व अन्य संपत्ति तक..
खुद सोच रही..
मैं किसकी संपत्ति रही..
जिसे मैने अपनी संपत्ति माना..
वही अब भूल गए बंटवारे में..
कोई कहता मैं नहीं रखूँगा..
तो कोई कहता कबाड़ में बेच दो..
काश!थोड़ा तो एहसास किया होता..
उस शख्सियत का..
जिसने इस कुर्सी पर बैठकर..
घर के सभी अच्छे बुरे निर्णय लिए..
खून पसीना एक किया कभी..
इस घर को मंदिर बनाने में...
दे रहे आज बलि उन सिद्धांतों की..
जो अब तक बांधे रखे एक बंधन में..
खैर जिनसे इनका रक्त बंधन था..
जब वही अपने नहीं लगते..
तो मैं!तो काठ की कुर्सी हूँ..
मेरा क्या जाएगा..
बिक जाऊँगी कहीं..
जल जाऊँगी किसी चूल्हे में..
बस यही नियति है मेरी..
मैं कौन होती हूँ..
कहीं कुछ हस्तक्षेप करूँ..
खैर!जैसा ये लोग उचित समझे..

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश

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दिन :- बुधवार
दिनांक :- 13/11/2019
शीर्षक :- हसीन/खूबसूरत

******1******
कली से भी कमसीन है,जो मेरी जिंदगी है,
थोड़ी सी गमगीन है पर, वो मेरी जिंदगी है।
हँसाती भी है कभी, कभी रुला भी देती है,
पर चाँद से भी हसीन है,वो मेरी जिंदगी है।

*******2******
चलते-चलते किसी राह पर मुलाकात हो जाए,
खुदा की रहमतों की कभी यूँ बरसात हो जाए।
हसीन जिस ख्वाब को अब तक संजोए रक्खा,
मुद्दतों बाद वह भी कहीं अब साकार हो जाए।

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश
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""परिवेश""
बदला आँगन व बदला परिवेश है...
नववधू का यह प्रथम गृहप्रवेश है...
लाज बैठी घूँघट घेरे...
लेके नयन स्वप्न घनेरे...
स्नेहसीक्त आँचल सुर्ख...
श्यामल घटा से केश है...
नववधू का यह प्रथम गृहप्रवेश है..
उमंगें हो रही उल्लासित...
कर रही मन अह्लादित..
पल्लू गंठे संस्कार मातृ के...
पितृ के सजे संदेश है..
नववधू का यह प्रथम गृहप्रवेश है..
उन्मुक्तता को त्यागकर...
नवबन्धन को बांधकर...
सप्त शपथ परिणय की ले...
बदलना अपना अब भेष है...
नववधू का यह प्रथम गृहप्रवेश है...
सजी है हाथों मेहंदी...
चूनर है धानी सुगंधि...
सात जनम का वचन दिया...
अब यही उसका देश है...
नववधू का यह प्रथम गृहप्रवेश है...

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश
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दिनांक :- 01/10/2019
विषय :- प्रतिभा

दम तोड़ती है प्रतिभाएं,आरक्षण के देश में...
चूमती फंदे फाँसी के,विवशता के आवेश में...
लाचारी व बेरोजगारी,छीन रही है सांसों को..
फैल रही ये महामारी,बेरोजगारी के परिवेश में...

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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दिनांक :- 25/09/2019
शीर्षक :- कलाकार

आस्था और साधना का समागम है कलाकार,
सशक्त अभिव्यक्ति का हस्ताक्षर है कलाकार।
भावनाओं और कल्पनाओं को अंगिकार कर,
संस्कृति व सभ्यता का कैनवास है कलाकार।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

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""यात्रा""
ललचाती,
सकुचाती,सीखाती,
भरमाती,इठलाती,
अंततः,
सुस्ताती चीर निंद्रा!!
जीवन यात्रा।

अंदाज अलग,
भागमभाग,
चैन औ सुकूं की,
अंततः,
नींद उड़ाती!!
जीवन यात्रा।

अनुभव बांटे,
भविष्य को बांचती,
वर्तमान भुलाती,
अंततः,
मन भटकाती!!
जीवन यात्रा।

कहकहे लगाती कभी,
मन कचोटती कभी,
हंसाती कभी, रुलाती,
अंततः,
मिट्टी मिश्रित होती!!
जीवन यात्रा।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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💐""शून्य""💐
शून्य में रमा,
सुकून ढूँढता हूँ।
हर स्याह रात में,
जुगनू ढूँढता हूँ।
ढूँढता हूँ आशातित रश्मि,
ढंक अपने नयन पलक।
खोया रहता हूँ जिसके,
इंतजार में मैं अपलक।
स्वार्थी इस जहां में,
इंसां में इंसान ढूँढता हूँ।
निरिह पाषाण खंडों में रंजित,
कण-कण भगवान ढूँढता हूँ।
खोकर खुद को शून्य में,
अपना ही आधार ढूँढता हूँ।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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दिन :- रविवार
दिनांक :- 05/01/2020
विषय :- स्वतंत्र लेखन

स्वप्न सहेली,
ये रात अलबेली।
सँग तारों के,
करती अठखेली।
शबनम जैसे,
मोती बरसाती।
भोर होते जो,
लगते पहेली।
स्याह कभी,
कभी चाँदनी।
खिले गगन ताल,
बनकर कुमुदिनी।
नवयौवना सी,
नटखट चंचल।
मृगनयनी सी,
सहज सुंदर।
हरती क्लांत हर तन के,
करती शांत ज्वार मन के।
ये रात अलबेली,
स्वप्न सहेली।

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश
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शब्दों की भी एक अनोखी तासीर है...
कहीं हरते पीर तो कहीं लगते तीर है...
सलते बहुत हैं लगते जब ये दिल पर...
छोड़ते नीशां ये गहरे नादान दिल पर..
तोल मोल के बोल बना देते अहमियत...
शब्द-शब्द आपके बतलाते असलियत..
जिह्वा कमान संयमित रहे गर आपकी...
बनाकर रखे ये जग में ईज्जत आपकी...

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

मुलाकात शीर्षक पर द्वितीय प्रस्तुति...
खुद से खुद ही एक मुलाकात कर लो....
जिंदगी से अपनी चंद सवालात कर लो...
छू लो आसमान अपने अडिग हौसलों से...
सफर की बाधाओं से दो-दो हाथ कर लो...

स्वरचित :- मुकेश राठौड़..
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दिन :- शनिवार
दिनांक :- 03/08/2019
शीर्षक :- नींव/आधार

एकांत में दुबकी रहती....
भार अथाह वह सहती...
खामोश रहती वह सदा...
कभी कुछ भी न कहती...
सहती मार तुफानों की...
बनती आधार सपनों की...
रहती सदा अनजानी सी...
देती उड़ान आसमानों की...
दबी सहमी सी रहती वह...
अनमनी अनजानी सी...
रह जाती बनकर वह...
अनसुनी कहानी सी...
मिट्टी में पलती है...
मिट्टी में ही मिटती है...
सारी जिंदगी वह...
गुमनामी में जीती है...
नींव है वह अभागी सी...
सपनों को वह बुनती है..
मौन सिसकियाँ उसकी...
स्वार्थी दुनिया कब सुनती है...

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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दिनांक :- 26/12/2019
शीर्षक :- हसीं मौसम

जिनके बलिदानों से..
भारत आजाद दिखाई देता है..
खून से सींचा है जो..
चमन आबाद दिखाई देता है..
उधमसिंह के उमध से..
लड़खड़ा गया था तब लंदन..
जनरल डायर के घर में..
पसरा दिया था जिसनें क्रंदन..
देशभक्त दीवाना था वो...
माँ भारती की आजादी का...
पहन लिया था जामा..
जिसने स्वंतत्रता की क्रांति का..
सर पर बांध कफन जो...
शेर जैसा तनकर चलता था..
मातृभूमि के लिए जो...
हरपल जीता हरपल मरता था..
नमन करें उस वीर को..
जिनकी आज जन्म जयंती है..
धन्य धरा माँ भारती की..
जहाँ माएँ ऐसे ही वीर जनती है..
ऐसे बलिदानों से ही..
भारत आबाद दिखाई देता है..
गुलामी के मौसमों से..
"हसीं मौसम"आज दिखाई देता है..

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश

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दिन :- बुधवार
दिनांक :- 25/12/2019

शीर्षक :- तुलसी

सजती हर आँगन हर देहरी,
बन संस्कृतियों की वह प्रहरी।
तुलसी स्वरूप है लक्ष्मी का,
करती सदा ही हर आस पूरी।

पूजी जाती हर साँझ सवेरे,
लगावे सुहागनें इसके फेरे।
सुख,समृद्धि सँग घर में लाए,
करे घर खुशियों से उजियारे।

सुगंधित करे ये वातावरण,
घर को दे स्वच्छ आवरण।
वैदिक,वैद्यक,व गुणवान ये,
सब संताप का करे ये हरण।

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश

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दिन :- रविवार
दिनांक :- 22/12/2019

विषय :- स्वत्रंत लेखन
विधा :- मुक्तक

(1)
जमाने धाक अपनी कुछ अंधेरे आ गए हैं,
नेताओं की शक्ल में कुछ भेड़िये आ गए हैं।
निगाहों को अपनी चोक्कस ही रखना मित्रों,
कि चमन में अमन के कुछ लूटेरे आ गए हैं।

(2)
दर्द ए इश्क पहले कभी इतना,हमने सहा ही नहीं,
सिवा तेरे किसी और को अपना, हमने कहा ही नहीं।
थे बेताब सुनने को इजहार ए इश्क तेरे ही लब से,
पर मौन ही अड़े रहे तुम तुमने कुछ कहा ही नहीं।

(3)
किसी मयकदे की छलकती जाम है,
सिगरेट के धूएँ में झूमती शरेआम है।
कहीं रगड़ी जाती चूने सँग खैनी बन,
यूँ जिंदगी बन रही नशे की गुलाम है।

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश


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दिनांक :- 13/04/2019
शीर्षक :- मर्यादा/राम नवमी

खिल उठा है आँगन देखो...
पूरा अवध है हरषाया..
कौशल उपवन खिला पुष्प..
पूरा अवध है महकाया...
सुंदर सौम्य छवि अतिसुंदर..
बाललीला अति मनभावन..
शुभ आगमन से जिनके..
हुआ पूरा अवध है पावन..
रघुकुल नंदन राज दुलारे..
माँ कौशल्या के आँख के तारे..
गुणागार करुणासागर..
चरण स्पर्श में अहिल्या तारे..
भक्तवत्सल प्रभु श्रीराम...
भक्त केवट आतिथ्य स्वीकारे..
भावविहल हो उठी सबरी...
देख प्रभु बेर खाए चटखारे..
महाबली बालि को संहारे..
सुग्रीव से मित्रता निभाए..
पितृ वचन ले शिरोधार्य..
मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए..


स्वरचित :- मुकेश राठौड़    

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शीर्षक :- जेब
वो जेब सदा ही मुस्कुराती रही ,
हर गम अपना मुझसे छुपाती रही ।
ख्वाहिशों को देती रही सदा मंजिले ,
हौसलों के सिक्के खनकाती रही ।
मेरी हर सफलता का आधार रही ,
परिश्रम का सदा साक्षात्कार रही ।
तपती धूप से चुनकर के कुछ मोती,
परिवार की खुशियों का आधार रही ।
खुशियों से थी आबाद जेब पिता की ,
रहती न थी कोई जगह तब चिंता की ।
सांस लेने तक की न थी फुरसत उन्हें,
जिम्मेदारियां ही इतनी होती पिता की।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

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मैं और मेरा ने,
हम सबको घेरा है।
पर मत भूल मनु तू,
तेरे कर्मों पर उसका पहरा है।
कर्म ही तेरे पतवार बनेंगे,
पार करने को वैतरणी।
गर कर ली वश में तूने,
अंतर्मन की चंचल हिरणी।
पा जाएगा सम्मान जग में,
होगी जय जयकार तेरी।
छोड़ दामन मै और मेरा का
व्यवहार संवारे किस्मत तेरी
"मैं"और"मेरा" है,
अहंकार की निशानी।
लिखती सदा ये,
डुबती नैया की कहानी।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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विषय :- मान/अपमान

बहुत हुआ अपमान सेना का,
बहिष्कार करो ऐसे नेता का।
जिसने दिया बयान अनर्गल,
मुकदमा उस पर देशद्रोह का।
कोई भी आए मुंह उठाकर,
कर जाए अपमान सेना का।
ऐसा संविधान किस काम का,
ना बचा पाए सम्मान सेना का।

जय हिंद की सेना 🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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माँ शारदा स्तुति

हे माँ शारदे...
धवलवर्ण श्वेत पद्मासना..
या वीणावादिनि..
कर जोड़े करूं आराधना...
श्वेत हंसवाहिनी..हे माँ शारदे..
अज्ञान के अंधकार से तार दे...
वर दे..वर दे..वर दे..
शब्द सुर साधना..उर भर दे..
हे माँ शारदे..हे माँ शारदे..
वर दे..वर दे..वर दे..
लेखनी को मेरी वर दे..
भटके न सद्मार्ग से..
न भटकें कभी परमार्थ से..
हे माँ शारदे..हे माँ शारदे..
हे विद्यादायिनि..
अक्षर..अक्षर..तेरी वाणी है..
तू सकल वेद की निर्माणी है..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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शीर्षक :- उपकार

उपकार मानिए प्रकृति का...
है ये नवजीवन संस्कृति का..
ये प्राणवायु करे उत्सर्जित..
है ये आधार स्तंभ सृष्टि का...

उपकार मानिए प्रकृति का..
निस्वार्थ करे ये परोपकार..
अमृत है इसका कण-कण...
सहे सदैव मानवीय प्रतिकार..

उपकार मानिए प्रकृति का...
सरिता सी कलकल इसकी..
निर्झर निर्झरणी सी प्रवृत्ति..
पंछियों सी कलरव इसकी..

उपकार मानिए प्रकृति का...
है आयुर्वेद की ये जन्मदात्री...
पावन पुनिता आँचल इसका..
तपस्वियों की है सिद्धीदात्री..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

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कभी मिले फुरसत तो..
जाकर आना फिर उस दहलीज पर..
जहाँ सूखा कुछ आँखों का पानी..
तुम आओगे इस उम्मीद पर..
कितने स्वप्न संजोए थे उन आँखों ने..
कभी सहारा बनोगे इस उम्मीद पर..
अपनी भागदौड़ भरी जिंदगी से..
निकाले थे अनमोल पल फुरसत के..
लूटा दी हर खुशी तुम पर..
ख्वाब किए पूरे तेरी हर जरूरत के..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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हे युवाओं...
तुम हो भविष्य राष्ट्र का..
हो सुखद स्वप्न राष्ट्र का..
करो कुछ ऐसा जग मे..
हो अमर नाम राष्ट्र का...
वो भी युवा थे..
जिसने दर्शन कराए धर्म के...
विश्व पटल पर किए कर्म से..
वो भी युवा थे..
हंसते हंसते जिन्होंने मौत चुनी...
कर दी चूनर माँ भारती की धानी...
खिलौने खेलने की उमर में...
जिन्होंने बंदूकें तानी दुश्मन पर...
कमसीन उमर में कोढ़े सहे तन पर...
हम आप भी तो युवा है...
फिर क्यों दिग्भ्रमित है...
क्यों घिरे है अकर्मण्यता से..
क्यों नहीं संकल्पित है...
आओ राष्ट्र हित के काम करें..
जग में नाम सुनाम करें..
है युवा आज उलझा हुआ...
नशे और विलासिता में रमा हुआ...
उठो जागो संकल्प करो...
उड़ान उन्मुक्त गगन में भरो...
फैले संशय अकर्मण्यता के...
हौसलों से परास्त करो..
प्रगति के नव सोपान गढ़ो...
जग में नव किर्तिमान गढ़ो..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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कल तक जो अखबार बेचता था..
आज अखबार की सुर्खि हो गया..
फुटपाथ पर कंपकंपाता वो..
ठंड के आगोश में चिरनिद्रा में सो गया..
खबरें तो रोज छपती है..
नई योजनाओं की..
पर गरीब का कंबल भी अमीर औढ़ गया..
है ये भ्रष्टाचार इस भ्रष्टतंत्र का..
गरीब गरीब ही रहा..
अमीर और अमीर हो गया..
वो तपता रहा धूप में..
तुम ठंडी हवा के झोंकों में नींद उढ़ाते रहे..
तुमने अखबार का मुख्य पृष्ठ चुना..
और उस गरीब को मिला एक कोना..
जब-जब पड़ी जरूरत तुम्हें..
उसके ही तुम शरण गये..
एक एक वोट की खातिर..
दर पर उसके झोली फैलाए..
आज पड़ी लाश वो लावारिस सी..
मिला मौका फिर तुम्हें भुनाने को..
चले तुम एक दूजे पर आरोप लगाने को...
अपनी गंदी राजनीति का मत, 
बनाओ हथियार उसे..
दो जुन की रोटी पा जाए वो..
बस दे दो इतना अधिकार उसे..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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चयन आपके शब्दों का...
है परिचायक आपके संस्कारों का...
चयन आपकी राहों का...
है परिचायक आपके सिद्धांतों का...
चयन आपके कर्मों का...
है परिचायक आपके आदर्शों का..
चयन आपके विचारों का...
है परिचायक आपके संतोष का..
चयन आपके आचरण का...
है परिचायक आपके धैर्य का...
चयन आपके सपनों का...
है परिचायक आपकी प्रतिबद्धता का...
चयन आपके संकल्प का...
है परिचायक आपकी सफलता का...

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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कागजी धरा पर...
कलम रूपी हल चलाकर
बोए कुछ शब्द बीज...
काव्य रूप में अंकुरित हुए..
भावों की मिट्टी में..
कल्पनाओं के सिंचन से..
मस्तिष्क तंतुओं से छनकर..
सृजन रूप अवतरित हुए..
नवांकुर लिया जब शब्दों ने..
झकझोर दिया हृदय पट..
बनकर दीप ज्ञान का..
शब्द स्वतः प्रकाशित हुए..
सहकर आलोचनाओं के तूफां..
काव्य तरु स्थापित हुए...

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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ऐ कलम दिखा कुछ जादू....
आया भावों का अभाव आज...
लिख कुछ जादुई सृजन...
पड़े छोड़े दिलों पर प्रभाव आज...
कर करिश्मा कोई...
दिखा जादुगरी तेरी....
तूने तो कई इतिहास लिखे है..
अमर हुए वो हर पृष्ठ है...
तूने जिसकी गाथाएं लिखी..
अमर हुए वो हर शख्स है...
फिर आज क्यों मौन है?
क्यों हर शब्द गौण है?
पार उतार दो भवसागर से...
बन जाओ पतवार मेरी...
हो जाए नाम मेरा भी...
कर दे हर आस पूरी मेरी..

स्वर
चित :- मुकेश राठौड़
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यादों में उनकी बदली है कितनी करवटें....
सब हाल बयां करती बिस्तर की सलवटें...

हसीं सपनों की ख्वाहिश में लेटे रहे बस...
नींद न आई आँखों में बदलते रहे करवटें...

साथ जीने मरने के सजाए थे अरमान...
हिस्से में आई मेरे सिर्फ़ ये तन्हा करवटें...

आकर थाम लो अब हाथ मेरा ए "गज़ल"...
आ बदल लें अब हम एक दूजे की करवटें..

यादों की तस्वीर से निकल कर सामने आ...
पा जाए अब सुकूं ए मोहब्बत मेरी करवटें..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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हे....कान्हा..
बना कोई वसन ऐसा...
जिससे अस्मिता बचे मेरी...
या रोक ले...
जन्म उन दुशासन का..
जिससे रहे सुरक्षित नारी...
हे...कान्हा...
कर कोई जतन ऐसा...
भोग विलासिता से हटकर...
बने कोई पहचान मेरी...
दे कोई 
गीता का ज्ञान फिर...
या कर अब महाभारत की तैयारी... 
लाज वसन अब छोड़ूगीं....
रण चंडी सा रूप अब धारूंगी...
करूंगी सर्वनाश उनका...
नजर जो डाले चीर पर...
वो हर आँख निकाल लूंगी...
आज की नारी हूँ....
न अबला न बेचारी हूँ....
बस हालात की मारी हूँ.....
नहीं तो में ही जगतारी हूँ....

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

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तरसती धरा को..
वर्षा की बूंद से राहत..
बेचैन किसान को...
उमड़ते मेघों से राहत...
बिलखते शिशु को...
मातृ आँचल मे राहत...
डगमगाती नौका को..
पतवार से राहत..
बेचैन भंवरों को..
खिलते पुष्पों से राहत..
बेचैन हृदय को..
प्रभु भक्ति से राहत...
स्याह अंधियारों को..
नन्हे दीपक से राहत..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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हे रणधीरों नमन है नमन है..
नमन है तुम्हारी वीरता को..
नमन है तुम्हारे समर्पण को..
नमन है तुम्हारी समरसता को..
हे रणधीरों नमन है नमन है..
नमन है हर उस क्षण को,
जो जिया तुमने सरहद पर..
नमन है हर उस फैसले को,
जो लिया तुमने सरहद पर..
हे रणधीरों नमन है नमन है...
नमन है तुम्हारे धैर्य को,
जब सहे तुमने आघात अपनों के..
नमन तुम्हारे बलिदानों को..
जो दिए तुमने अपने सपनों के..
हे रणधीरों नमन है नमन है...
सरहद की रखवाली में..
खेले अपनी जान पर..
परवाह न की कभी तुमने अपनी...
मिट गए मातृभूमि की आन पर..
हे रणधीरों नमन है नमन है...


स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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सरहदें बांधती 
राष्ट्रीयता..
सरहदें बदलती 
सभ्यता..
सरहदें होती है 
मान राष्ट्र का..
इस पर बलि देती वीरता..
शौर्य की गाथा गाती..
सरहदें सर्वदा..
निर्भीकता बसाती
सरहदें सर्वदा..
सरहदें होती
रक्षक राष्ट्र की...
सरहदों पर टूटती..
चूड़ियां नववधुओं की..
ये सरहदें लूटती
सहारे बूढ़ापे के...
सरहदें छीनती आसरे..
मासूमियत के..
जात,पात व धर्म की
तोड़ दो सरहदें..
वसुधैव कुटुंबकम के
खोल दो रास्ते..
जी लो एक दूजे के वास्ते..
स्वरचित :- मुकेश राठौड़


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संकल्प

संकल्प पथ है कर्म का..
संकल्प पथ है धैर्य का..
संकल्प पथ पर वही चला..
थामा दामन जिसने धर्म का..

संकल्प हो अडिग ऐसा..
तोड़ न पाए विपदा कोई..
भिड़ जाए हर संकट से..
या हो भीषण आपदा कोई..

संकल्प आत्मविश्वास है..
संकल्प ही हर उजास है..
अडिग रहो सदा इसपर..
तो सफलता सदा पास है..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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निर्मल अविरल सी धारा है,
इसे सहेजना कर्तव्य हमारा है।

जल ही जीवन जल ही आधार,
जल ही अब संसार हमारा है।

बूंद बूंद अमृत सी प्राण सुधा,
संरक्षित करना ध्येय हमारा है।

उत्कल गंगा व पावन नर्मदा,
सकल जीवन का सहारा है।

न करो प्रदूषित इस जल को,
ये जल ही अस्तित्व हमारा है।

निर्मल निश्चल है स्वभाव इसका,
खुद बैरंग सही पर हर रंग प्यारा है।

स्व
रचित :- मुकेश राठौड़



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करते नहीं वार निहत्थों पर..
यही है हिंदुस्तान के संस्कार..
कितना रहम किया प्रताप ने..
पढ़ लो अकबर नामा एक बार...
इतिहास डूबो दिया चंद गद्दारों ने..
माँ भारती को लहू से भिगोया है सरदारों ने..
देखो गुरु गोविंद सिंह का बलिदान...
धर्म के नाम पर कर दिए बालक कुर्बान..
करते रहे वही अंग्रेजों की गुलामी..
जिनका मर चूका था जमीर..
सहे प्रहार भगत,बिस्मिल ने भी..
पर त्यागा नहीं कभी अपना जमीर...

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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कला है उपहार ईश का..
निज अंतस को निखारती..
कला कर्मण्यता का आधार..
कला समग्र प्रतिभा उभारती..

कला तव मस्तिष्क का..
निरंतर करती विकास..
कला आधार ज्ञान की..
नापती कल्पना आकाश..

कला प्रकृति की मनोहर..
खग विहग गाते अति सुंदर..
झरने की झरण कला..
कला है सरिता की सर सर..

कला साहित्य सृजन है..
कलम बनती आधार है..
कला है सुर,लय व ताल..
कला भावों का उद्गार है..

कला समंदर अथाह है..
बन जा हंस मोती चुनकर..
पारस तक मिल जाता..
चल परिश्रम के पथ पर..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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आसरा टूटा सहारा लूटा...
लूटा किसी का घर संसार..
चूड़ियाँ टूटी खुशियाँ लूटी..
मातम का किया विस्तार..

कायरता ने औकात दिखाई..
शौर्य देखेगा अब संसार..
लिखेंगे इबारत खून से..
भरेंगे रणभेरी अब हुंकार..

लहरायेंगे तिरंगा लाहौर में..
जय हिंद की होगी ललकार..
करेंगे शंखनाद अब युद्ध का..
होगी माँ भारती की जयकार..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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है विश्वास तुम पर..
सदा से है नाज तुम पर..
माँ भारती के दुश्मनों को 
धूल तुम चटाओगे..
उठेगी आँख जो फिर कोई..
वो आँख निकाल लाओगे..
एक सौ तीस करोड़ दुआ है संग तुम्हारे..
विजयी होकर आओगे..
कर दो हमला उसी की भाषा में..
जो भाषा समझता है दुश्मन..
हो घर के बाहर बैठा..
या हो घर के अंदर का दुश्मन..
आग लगा दो सभी को...
जो उठाए उंगली भी माँ भारती पर..
मिला दो खाक में सभी को..
जो रखे नापाक कदम माँ भारती पर..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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"विदाई वीरों की"

नम है आँखें...
हृदय सुलग रहे है..
भाव बदले के..
बस दिल में उठ रहे है...
जल रही चिताएं..
उन वीर जवानों की..
हो रही विदाई..
अलबेले मस्तानों की..
जल उठी चिताएं..
नववधूओं के सपनों की..
बूढ़े कंधे ढो रहे है..
देह अपने अरमानों की..
हो रही विदाई..
अलबेले मस्तानों की..
तिरंगा बन रहा छांव..
उन सरहद के दीवानों की..
कूक उठी कोयलिया भी..
वासंती आसमानों मे..
रजकण सी फैल गई...
चूनर भारती की फिजाओं मे..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

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पुलवामा में हुए भीषण आतंकी हमले में 
शहीद जवानों को 😢😢💐💐💐श्रद्धांजलि

कलम मेरी आज....
मुझसे रूठ सी गई..
कब तक लिखूँ शहादतें..
कहकर फिर ताना मार गई..
हर उस लफ्ज पर...
रोती रही... सिसकती रही...
जो कहता कहानी जवानों की...
जो इतिहास बनने जा रही...
शहादत वीर जवानों की...
आतंकी मंजर देखकर..
सिहर उठी कलम मेरी..
रक्तरंजित शव देखकर..
लफ्ज लफ्ज थे अश्रुपूरित..
स्याही के धब्बे से बनते गए..
कागज भी आज मेरे... 
जवानों के खून से सनते गए..
तिरंगा भी झुक सा गया..
शहादत में जवानों की..
कहता रहा..रोता रहा..
कब तक बनूं कफन मैं..
आतंक की आगोश में..
कब तक होता रहूँ दफन मैं..
होश में आओ सत्ताधीशों..
कर दो संहार दुश्मनों का..
ले लो बदला जवानों का...
ले लो बदला जवानों का..

व्यथित मन से...
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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मिट्टी से जुड़ा हूँ..
मिट्टी में ही पला हूँ..
मिट्टी की ही काया है..
मिट्टी का ही खाया है..
मिट्टी ही संसार है..
मिट्टी ही माया है..
मिट्टी से ही सपने है..
मिट्टी के ही घरौंदे है..
मिट्टी के ही हाथी घोड़े..
मिट्टी के ही परिंदे है..
मिट्टी मेरा कर्म है..
मिट्टी ही अब धर्म है..
मिट्टी ही मेरी माता है..
मिट्टी से ही नाता है..
सकल सृष्टि की पालक..
मिट्टी ही शाश्वत विधाता है...

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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घुलता जहर जब कानों में,
बढ़ती दरारें आशियानों में।
शब्द,शब्द बनते जहर तीर,
कराते बिखराव इंसानों में।

घुलता जहर जब कानों में,
खोता आपा इंसान अपना।
क्रोध के आवेश में जलता,
नहीं देखता पराया,अपना।

घुलता जहर जब कानों में,
नहीं इलाज है दवाखानों में।
भुलाकर रिश्तों को अपने,
फंस जाता झूठे अफसानों में।

दुश्मन होता भाई भाई का,
घुलता जहर जब कानों में।
खींच जाती है तब दीवारें,
खुशियों से भरे मकानों में।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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इस जाते हुए साल ने....
दिये कुछ तोहफे अनमोल..।
उन तोहफों में...
मेरे लिए हो आप अनमोल..
कुछ यादें समेटे....
जा रहा ये साल...
बना रहे रिश्ता हमारा..
साल दर साल..
हो आप दूर मुझसे..
पर रंज नहीं मुझको...
आंखे बंद करूं जब..
करीब पाऊं आपको..
है ये वादा मेरा आपसे...
साथ रहूंगा जनम जनम..
नहीं भूलूंगा कभी..
चाहे खुशियाँ हो या गम...

स्वरचित मुकेश राठौड़
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हाथ पकड़ कर
चलती थी जो
कब डोली
बैठ गई,
नन्ही चिरैया
कब अंगना से
उड़ गई ,
आँखें नम करके भी
मुस्कुरा के चल दी
अंगने महकती
खूश्बू छोड़ गई .।
नन्ही चिरैया..
का ठौर बदला....
अब अपने..
नियत ठौर चली...
संग सखियों के....
कलकल करती थी...
फूदक फूदक कर...
अंगने चहकती थी...
छोड़ आँचल ममता का....
खुद ममत्व की ओर चली..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़ 









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दिलों में बढ़ती कड़वाहट,
बयां करते नये किवाड़।
एकल परिवार की तर्ज पर,
बनते कई नए किवाड़।
छोड़ दिये बिलखते,
पुराने किवाड़।
राह तकते अब वही किवाड़।
जिन किवाड़ के पीछे,
छुपा छुप खेले होंगे,
भाई,बहनों के संग।
अब बुलाते है वो किवाड़।
जिन किवाड़ों के खटकाने से,
हो जाती थी हर जिद पूरी।
आज वही किवाड़ तरसते होंगे।
जिन किवाड़ो पर खड़े रहकर,
किसी माँ ने राह तकी होगी।
आज वही किवाड़ सिसकने लगे।
आज वही किवाड़ तड़फने लगे।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़




दस्तक मौत की आने लगी अब
उम्र भी लड़खड़ाने लगी अब
साथ तेरा खोकर सहारो की आस
इस दिल को तड़पाने लगी अब
दस्तक मौत की आने लगी अब....
जन्म से आज तक 
वो साथ मेरे चलती रही
मैं सोचता था जी रहा
पर वो मेरे लिए मरती रही
जी हाँ वो श्वांस मेरी
जो हरपल हरदम साथ मेरे चलती रही
मैं इतराता अपने स्वरूप पर
पर वो हरदम मेरे सीने में धड़कती रही
मेरे हर गम में
साथ मेरे रोती रही
मेरी हर खुशी में
साथ मेरे हंसती रही
बन खिलौना जीवन का
साथ मेरे रमती रही
जब आई तरूणाई 
वो और तेज गति से चलती रही
उम्र के इस ढलान पर भी
इस जड़ तन का बोझ ढोती रही
अब अंत समय आया
वो द्वार पर बैठ कर रोती रही
सज रही अर्थी जब
सबकी आंखों को डबडबाती रही
जी हां वो श्वांस ही थी
जो आज तक साथ मेरा निभाती रही
अब ये तन सिर्फ माटी है
मेरी जान मेरी श्वांस अब जाती रही
हर दम हर पल साथ मेरा निभाती रही

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

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विधा :- लघु कविता



क्षण बड़ा निर्दयी होता है
मौत की आगोश में सोता है
अपने ही दम पर जीता है
अपने ही दम पर मरता है


जो जी ले हर क्षण को
क्षण उसका ही होता है
हर क्षण जीने की हौसला
कहाँ हर जन में होता है

जी लो जी भर जिंदगी
क्यों क्षणिक गमों को रोता है
क्षण भंगुर है जीवन तेरा
क्यों इतने सपने संजोता है

क्षणों में टूटा हर सपना
क्यों टूटे शीशे बटोरता है
जी ले संग अपनो के
क्यों बांह गैरों की टटोलता है

क्षण में उड़ते प्राण पखेरू
कर्म सफल कर लो अपने
कुछ ना जाएगा संग तेरे
यहीं रह जाएंगे सारे सपने
हर क्षण बड़ा अनमोल है
इसका ना कोई तौल है
बना ले सद्व्यवहार सबसे
यही "मुकेश" के अंतर बोल है
स्वरचित :- मुकेश राठौड़

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दस्तक त्योहारों की आ गई
सबके मन में खुशी छा गई
देखते देखते बीत गया साल
दस्तक करवा चौंथ की आ गई

सजी दुल्हन सी हर नारी
फिर से हाथ मेंहदी रचा रही
व्रत निर्जला रख कर दुआ
अमर सुहाग की मांग रही

किये सोलह श्रंगार फिर 
हर घर आँगन महक रहा
कुमकुम बिंदिया माथे पर
हाथ कंगना खनक रहा

रहे अमर चंद्रमा जैसा
मस्तक सिंदूर सुहाग का
देकर अर्ध्य चंद्र को
मांगे वर अमर सुहाग का

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

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ज्योति अमर जवानों
नित्य सदा जलती रहे
स्वतंत्रता की खूश्बू 
नित्य यहाँ फैलती रहे

ज्योति पावन गंगा की
नित्य यहाँ बहती रहे
बन ज्ञान की ज्योति
सदा अमृत्व छलकाती रहे

ज्योति पावन संस्कृतियों की
विश्व पटल पर बनी रहे
जात,धर्म के भेद ना हो
सभ्यता ऐसी घनी रहे

हो प्रकाशित हर मन
ऐसी तरलता बनी रहे
दूर हो हर अहंकार
ऐसी निरंतरता बनी रहे

हो कर्म हम सबके ऐसे
शान तिरंगे की बनी रहे
करते रहे सब सदाचार
आन देश की बनी रहे

कहता "मुकेश" बारंबार
ईमान सबका बना रहे
अमर सदा विश्व पटल पर
नाम हिन्दुस्तान बना रहे


स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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काश अहंकार का कोई पैमाना होता
हर कोई अपना अहंकार नाप लेता
टूटते रिश्तों को अपने बचा पाता 

काश अहंकार का कोई पैमाना होता
अपनी प्रतिभा का सदुपयोग कर पाता
छल कपट की भावना से उबर पाता

काश अहंकार का कोई पैमाना होता
जन मानस में अपना स्वाभिमान बनाता
उबर जाता अपने अंतर्भाव से
लड़ पाता हर दूर्भाव से

काश अहंकार का कोई पैमाना होता
"मैं" का मुझसे नाता समझ पाता
इस "मैं" ने कितने घर फूंके
कितने रिश्ते जलाए....बनके अंजान

काश अहंकार का कोई पैमाना होता
अनाचार कर ना पाता
अनाचार का उद्भाव अहंकार से
ये सब कोई समझ पाता

काश अहंकार का कोई पैमाना होता
जहाँ अहंकार भाव नहीं
जीवन में कोई अभाव नहीं
कहता "मुकेश" सबसे यही
अहंकार का त्याग करो आज अभी

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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धनतेरस धन्वंतरि दिवस
माँ लक्ष्मी का हो गृह प्रवेश
ऐसी शुभकामनाएं मेरी
मिले सबको मंगलमय यश

करें पूजन माँ लक्ष्मी का
धन धान्य भंडार भरे
मिले आशीष प्रभु धन्वंतरि का
रहे रोग दोष सबसे परे

खुशियों से भरे घर आँगन
दीपों से हो उजियार
भर लो जोश उमंग मन में
लेकर ज्ञान उजियार

माँ लक्ष्मी की कृपा से
अन्न धन धरा पर बरसे
ऐसी विनती "मुकेश" की
दीन कोई रोटी को ना तरसे

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

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विधा :- लघु कविता

रूप सौंदर्य प्रदायिनि
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी
पावन तिथि बरस की
निखारे रूप जैसे उर्वशी

दान निखारे सौंदर्य
करो दान दीनन को
पर्व है उल्लास का
खुशियां बांट निर्धन को

सौंदर्य मिले कल्पवृक्ष सम
ऐसा वरदान मिले सबको
पूजन करो रूप चतुर्दशी
उर आनंद मिले सबको

स्वरचित मुकेश राठौड़
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शीर्षक :- आवाज
विधा :- लघु कविता

तेरी पहली आवाज ने
कितना असीम सुख दिया होगा
उस माँ की आँचल में
स्वतः दुग्ध छलका दिया होगा

तेरी आवाज सुन सुनकर
कितने अरमान सजाए होंगे
कितने तेरे नाज नखरे
उस माँ ने उठाए होंगे

क्यूं भुला दी तुमने
वो मधुर लोरी की आवाज
किसकी खातिर तुमने
बुलंद की अपनी आवाज

क्यूं आज तेरी ऊंची आवाज
उस माँ का कलेजा फाड़ती है
क्यूं आज तेरे सक्षम होते हुए
वो माँ गैरों के जूठे बर्तन माँझती है

सुनो मुकेश हृदय की आवाज
भले मत करो कोई उपकार
जिसने तुम्हें जनम दिया
मत करो उस पर अत्याचार

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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