नवल किशोर सिंह



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"लेखक परिचय"
01)नाम:-नवल किशोर सिंह 02)जन्मतिथि:- 29/11/1971 सहित):- 03)जन्म स्थान:-हाजीपुर (बिहार) 04)शिक्षा:-एम ए,एम बी ए 05)सृजन की विधाएँ:- कविता,हाइकु,तांका,चोका 06)प्रकाशित कृतियाँ:- पुस्तक कोई नहीं, विभागीय पत्रिकाओं तथा आह्लाद ई पत्रिका में कविताएं प्रकाशित ऑनलाइन मंच-पर:- कविताएं सहित्यपेडिया,प्रतिलिपि तथा मिराकी पर भी ऑनलाइन प्रकाशित 07)कोई भी सम्मान:- भावों के मोती और साहित्य संगम संस्थान द्वारा विभिन्न सम्मान 08)संप्रति(पेशा/व्यवसाय):-पूर्व वायुसैनिक सम्प्रति-सहायक अभियंता भेल तिरुचि 09)संपर्क सूत्र(पूर्ण पता):- H.No-R3-552 BHEL TOWNSHIP KAILASAPURAM TRICHY-620014,TN 10)मोबाइल नंबर:-9092967725 11)ईमेल आईडी:-yenksingh@gmail.com


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युद्ध बना अंग जीवन का
मन में निरंतर चलता है
वैचारिक उहापोह में मन
निज आदर्शों को छलता है
हे कृष्ण कठिन क्यूँ सत्य-डगर
क्या यह विधि की विफलता है?
क्रूर कंस के अट्टहास से 
जन-गण-मन दहलता है
विध्वंसक विस्फोटों में ही क्यों
सत्ता का सुख पलता है
है अनगिन धृतराष्ट्र भरे भुवन में
अभी मरी कहाँ है गांधारी 
खुली आँखों से देख न पाते
चहुँ मोह विकट है महामारी 
पार्थ यथार्थ को देख न पाता
कबतक सुनोगे गीता सार
युग,बरस कितने बीत गए
समझे न दुर्योधन का व्यापार
पग-पग पर शकुनि बैठा है
चतुर चौपड़ का जाल बिछाये
फँसे जो पाँसे के झाँसे में
वो अपना सर्वस्व लूटा आये
ऊहापोह से निकल पथिक
सन्मार्ग वरण करना होगा
कबतक छलोगे आंखें मींचे
कभी तो उन्नयन करना होगा
पन्नों में भड़े पड़े राज का
अब अध्ययन करना होगा
किसके माथा सजे मुकुट
विवेकपूर्ण चयन करना होगा
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

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अशांति
हे कृष्ण
तब भी क्या परोक्ष रूप से
अशांति तुमने ही फैलायी थी
और स्वयं बैठ महल में
परिणामभिज्ञ, बाँसुरी बजायी थी
आज फिर वही कालचक्र बहुर
अशांति का व्योपार खिल रहा
और प्रमुख ,प्रणेता ,सूत्रधार को
शान्ति का नोबल पुरस्कार मिल रहा
नीति की गति यही,फिर विस्मय क्यों?
सच,सच बतलाना
इस कोलाहल से तुम्हें भय क्योँ?
संघर्ष से ही सत्ता का उद्भव
फिर कैसे हो प्रिय शांति का रव
हे सर्वज्ञानी,तटस्थ
तेरे हृदय में,ये कैसी पीड़ा है
क्लेश,कलह तो सत्ता की क्रीड़ा है
दंश,डंक,विध्वंस भी है वरदान
खिलते खल अधरों पर कुटिल मुस्कान
असमर्थ तुम,होगा न तुमसे 
अब कोई जन कल्याण
छोड़ो,चलो,बिखेरते रहो तुम 
अपनी वंशी की मृदुतान
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

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मैं इधर जाऊँ
मैं उधर जाऊँ
सबकी नजरें मुझपर
मैं किधर जाऊँ
मुझे मनाने को अड़े
प्रलोभन लिए खड़े
अपने किस्मत पर क्या ऐंठू
मैं ऊँट हूँ साहब
जाने,किस करवट बैठूँ 
मेरी करवट की आड़ में
बंजर-खेत रेत सुखाड़ में
बड़े ववंडर टल जाते हैं
आश्रय लेकर पराश्रयी
ऐसे ही,आगे निकल जाते है 
मैं ऊँट हूँ साहब
मरु ही सर्वस्व धन है
मरुस्थल ही मेरा जीवन है
जीते हैं मरीचिका में
जल-स्रोत की आस में
अगले ववंडर में आएंगे
वो फिर करवट की तलाश में
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

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सबसे बड़ा है रोग
जाने,क्या कहेंगे लोग ?
चहक रही थी एक किशोरी
किसी सगे ने की बलजोरी
अल्हड़,अबूझ,निपट अंजान
कुकृत कुचली कली नादान
रो अम्मा को कथा सुनाई
माता ने कुछ व्यथा बताई
बाला को चुप कुछ यूँ कराई
नित समाज की देकर दुहाई 
कुत्सा पर कहाँ लगी रोक ?
जाने,क्या कहेंगे लोग ?
ऐसी ही जाने कितनी बाते
दुनिया से हम रहे छुपाते
दंभ,दिखावा मिथ्या अहंकार
दर्श दर्प-सर्प व्यर्थ फुफकार
रे जागो,अपनी पहचान करो
दुर्बलता का अवसान करो
विद्रुप-रीति-नीति तिरस्कृत हो
अब तो समाज परिष्कृत हो
भीत भाव से भरे खल कामी
कुकृत्य कलंक न रहे बेनामी
संबल-संचित ललकार भरो
रोग पलट-पूर्व उपचार करो
जग में स्वस्थ सुखद संयोग
जाने,क्या कहेंगे लोग ?
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

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हे नारी तुझे नत नमन

हे नारी तुझे नत नमन
तुमसे ही अर्जित है यह जीवन
किलक पुलक भरे मंगल मोद में
बचपन के पल बीते तेरी गोद में
जननि-आँचल की सुखद छाया
सुरक्षित शैशव है खूब लहराया
उँगलियों को तेरी जो लिए थाम
डगमग-पग संबल बने निष्काम
जनकजननि जयति जय जगदीश
अगणित अतिवृष्टि नित आशीष
भगिनी भाव भरी बहुल बलिहारी
रक्षा-सूत-अद्भुत एकल अधिकारी
लेप ललाट ललित अक्षत चंदन
विघ्न-हरण हेतु नित प्रभु-वंदन
पौरुष-प्रखर की प्रवर अभिव्यक्ति
हे संगिनी तू संबल औ’ शक्ति
गृहस्थी अंग अभिन्न अनिवार्य
धुरी अचल सबल केंद्रविंदु धार्य
है ऋद्धि-सिद्धि सकल समृद्धि
सृजन सारांश औ’ वंशवेल-वृद्धि
तनया तव तुनक-तरंग अनुतान
जीवन-बोध भरे विभव मुस्कान
फुदक फुदक गौरैया सम चहके
सुता सुरभि-सी आँगन में महके
साधित संधित नवल कुल-गोत
अनुगुंजित सकल धवल स्त्रोत
सृष्टि-चक्र का अनवरत घूर्णन
हे नारी तुझे नत नमन
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
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वसंत
आवरित चहुँ हरित वितान
पहने धरा वासंती परिधान
फूली सरसों का खिला रंग
मादकता लेकर आया अनंग
कूकती कोयल काली काली
पुलक फिरती है डाली डाली
मदिर मस्त है भ्रमर मतवाले
पीकर जीभर छके प्रेम प्याले
सुरभित पुष्प लिए प्रेम-पराग
पंखुड़ियों में भरे अति अनुराग
बौराया आज रसराज रसाल
लहराये डाल मधु मंजरीजाल
आया ऋतुराज, मारक वसंत
पुलकित अंग,परदेश में कंत
विरह विदग्ध बेबस-सी बाला
अंतस में धधक एक ज्वाला
करे बादलों से करबद्ध गुहार
आ बरस बन सरस रसधार
हर ले ताप-तरस, नैनों में बस
भर रात गात रही बड़ी बेकस
ये सेज सुहानी भी पानी पानी
लव मुस्काये, बड़ी अभिमानी
बिछुड़न का क्यों गीत मिले
जो मीत मिले तो प्रीत खिले
स्पर्श लालायित मैं,एक अछूत
वो छुपे कहाँ बनकर अवधूत
विरह विषपान है तपन अनंत
कैसा शिशिर और कैसा वसंत
हूकी पिकी भी विरह वबाली
पपीहे-सा पी की बनी सवाली
चल जा कहीं दूर मुझसे वसंत
क्या विरह व्यथा का होगा अंत
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

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बाबुल की दहलीज पर चहकती बुलबुल
गिलहरी सी कातर,फुदक जैसे खगकुल
नन्ही गुड़िया,फुदक फुदक अब बड़ी हुई
सौंदर्य-सुधा से सराबोर वो एक परी हुई
पेशानी पे परेशानी कोलाहल भरे हृदय में
निरत अहर्निश तात,सुता-सगाई के लय में
अथक उपक्रम पश्चात साधित मनोकामना
निरख परख फिर एक वर का हाथ थामना 
लाल जोड़े, डोली में ओढ़े लाल ओहार चली
उड़ी बुलबुल,बाबुल की दहलीज के पार चली
संजीदा है,बचपना अल्हड़पन सब कहीं गुल
ससुराल की दहलीज में जैसे कैद में बुलबुल
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

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अदृश्य धागे का एक डोर
बंध संबंध अंबर का छोर
इतराती पल-पल पवन संग
बड़ी निर्भीक निच्छल पतंग
माँझे में कोई कटु अपमिश्रण
हुआ क्षीण डोर,अस्तित्व क्षरण
इस डोर से फिर ऐसे टूटे पतंग
अरे अब अधर में कैसे लूटे पतंग
अवलंब कहीं जो किसी डाल पर
कुछ पल मचलकर निज हाल पर
दिभ्रमित करते पवन के झोंके
कौन सी पात यहाँ जो इसे रोके
बंधा नेह डोर जबतक अचल 
परिमल पवन ही सुखद संबल 
संबल सारे संग छोड़ चले
धागे को जो ये तोड़ चले
कितना निरुपाय,है निराश्रय
कुछ पल में ही बस जीवन क्षय
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

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जिन्दगी एक खुली किताब है
कागज का पुलिन्दा
अनगिन पन्नों को
ऐसा लगता है जैसे
गूँथ दिया गया हो एक साथ
कुछ कोरे पृष्ठ, कुछ रंगीन भी
खुशियों से भरी कहानी, कुछ गमगीन भी
लिखे पन्ने,अधपन्ने
पूरे और अधूरे
एक पूरा हाशिया छोड़कर
कहीं कहीं हाशिये पर भी
कुछ लिखा हुआ सा
फक रोशनी में एक धुँआ सा
गौर पृष्ठपर एकाध काली जगह
हाशिये पर,अब भी खाली जगह
उन खाली जगहों पर 
कुछ लिखने की कोशिश
अर्थ का अभाव,बहु बंदिश
कुछ शब्द जुट गए
कुछ अक्षर ही टूट गए
उभरे कुछ भाव जो
मन में ही घुट गए
उन हाशिये पर ही
लिखने की कोशिश
कहीं पूरे पन्ने की सुंदरता
को तो नहीं लील गया?
कैसे कहूँ?
अब तो वे पन्ने भी न बचे
हवा का एक तेज झोंका आया
एक दिन
और पीपल के पुराने पत्तों की तरह
यह किताब भी उड़ने लगा
फरफराकर
पिंजरे में बंद परिंदे की तरह
या कत्ल के करीब पहुँचे
उस बेबस मुरगे की तरह
रेलमपेल करती हवा
आई और गई
मैंने देखा था उस दिन
सबसे पहले
जिन्दगी की किताब को
साबूत पड़े थे
कुछ पन्नों को छोड़कर
ये वही पन्ने थे
जिनमें मोती पिरोये गए थे
ये मोती शब्दों के थे
एक मोती और भी पिरोये गये
ये अश्कों के थे
विछोह में निकल पड़े अनजान
सामने पड़ा किताब,साबूत
या,जिन्दगी को ढोती ताबूत
मैंने सच कहा है
मेरी जिंदगी एक खुली किताब है
कोरे कागज है सिर्फ
नया लिख पाने के काबिल?
उन पृष्ठों की जिक्र न करो
उनमें क्या था?
मुझे भी नहीं पता
वो तो हवा के साथ उड़ गए
मगर जायेंगे कहाँ?
कहीं तो विरमे होंगे
सच कहते हो
मैंने भी देखा
एक डाली से अटॅककर वे पन्ने
मेरे लिखे पृष्ठ,रुक गए
टूटे पतंग को लूटने सी लालसा लिये
मैं दौड़ा था
मुझसे पहले ही मगर
वे पन्ने चुन लिए गए
देखा,एक जिल्दसाज था
उसने कहा,ये मेरे है
सचमुच खूब फब रहे थे
वे मेरे,माफ करना
उस जिल्दसाज के पन्ने
अपने कसीदा कढ़े
जगमगाते नए आवरण में
तसल्ली देता हूँ खुद को आज
नाम तो लिखा है जिल्दसाज
पर लिखे तो पृष्ठ मैने ही है
अक्षर अक्षर,शब्द शब्द-सब मेरे है
कॉमा और पूर्णविराम भी
भूल बस इतनी कि
कहीं किसी पृष्ठ पर 
लिखा अपना नाम नहीं 
न कोई चिन्ह,न हस्ताक्षर
साक्ष्यहीन स्वामित्व फिर क्यूँकर?

-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
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मेरे सामने खड़े इंसा तू ही बोल। 
तुझे इंसा कहूँ या नकाबपोश।
जिसे देखता हूँ वो तू नही 
मानवपन की केवल कलई है। 
मानवता उसमें कहीं नहीं,
अंदर तो तेरे पशुता है 
पशुता की ही तेरी परिधि,
और पैशाचिक प्रवृत्ति,
पर पशु नहीं तू ,
पशु तो तुमसे बेहतर होते,
प्रकृति संगत गुण-धर्म कभी न खोते,
घातक तेरी प्रवृत्ति,ओढ़े पशुता की खोल। 
मेरे सामने खड़े इंसा तू ही बोल। 
क्यूँ इस कदर अवमर्दित हुआ तू ? 
क्यूँ हैवान बन गर्वित हुआ तू ?
इंसानियत पर क्या तरस न आती?
तेरी आँखें क्यूँ बरस न पाती ?
अंतर्तम को साक्ष्य रख ,चित्त शांत कर। 
पलभर को हो, पैशाचिक प्रवृत्ति से बाहर। 
तू अपने हाथो इंसानियत को तोल । 
मेरे सामने खड़े इंसा तू ही बोल । 
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
अमरशहीदों को शत शत नमन
😭😭🙏🙏🇮🇳🇮🇳💪💪


कैसे भूलूँ इन वीरों की कुर्बानी को
नत नमन अमर शहीद सेनानी को
गिरवी जमीर रख मिले खरीदारों से
कोई अपना ही जा मिला गद्दारों से
शल्य ऐसा हो परिष्कृत विषाक्त अंग
समूल नाश कीटाणुओं का जीव-भंग
सिर उठा न पाए फिर कोई और छली
बुझे चिरागों की यही सच्ची श्रद्धांजलि
-©नवल किशोर सिंह

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मैं माँ हूँ, मैं धाय हूँ
मैं जीवन का पर्याय हूँ
मैं स्नेहसुता, मैं भगिनी हूँ
मैं सहचरी,मैं संगिनी हूँ
मैं शक्ति,संबल,संस्कृति हूँ
मैं अति विलक्षण प्रकृति हूँ
मुखपृष्ठ में मगर गौण हूँ
एक प्रश्न-सच बोलो,मैं कौन हूँ?
-©नवल किशोर सिंह
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सेना दिवस की शुभकामनाएं

सीमा पर खड़े अडिग सीना तान
मुस्कान मधु लिए सदा सावधान
निशिदिन करें अरिदल का संधान
किंचित विचलित न होते बलवान
उफनी नदी सी वेग अति बलवती
भावों से ओतप्रोत,करतीं भगवती
बस यही उपसंहार,यही प्रस्तावना
शहीद सेनानी,देशप्रेम की भावना
-©नवल किशोर सिंह



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06-01-2019
भावों के मोती-परिवार
भावों के मोती का अद्भुत परिवार
सर्जन व साहित्य साधनामय संसार
वयोवृद्ध पितामह लाम्बाजी,व्यासजी
दाहिमाजी संग सर्व बुजुर्ग अधिवासी
छेड़कर, नित प्रवीणा वीणा की तान
पुलकित पूर्णिमा लिए नवल विहान
सतत सज्जित सरगम पूरित संगीता
अग्रजा रागिनी,नीलिमा परम पुनीता
श्रेष्ठ भजन लिए ज्येष्ठ शम्भू परमेश
मुक्त प्रवाह दूनौरिया संग शेर मुकेश
पन्त अनंत लेखन बहु भावविभूषित
चन्दर-चरण,तम हरण,पद्य-परिष्कृत
वर्ण गणन,भाव मनन माहिर ऋतुराज
उत्प्रेरण,नवप्रवर्तन का करते आगाज़
काव्य-सरिता झर-झर,हृदय हरिशंकर
मन की अभिलाषा, रचना करे निरन्तर
भज गोविंद,करते आरती व आराधना
सकल गुणीजन करते निःस्वार्थ साधना
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

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उसूल
मजबूरियों की आँच पर
तिल तिल कर पिघलता
उसूलों का मोम।
तंग संसाधनों की धुँध से
आच्छादित होता
आदर्शों का व्योम।
चकनाचूर होते सपने
बिलग हुए अपने
आतुर क्षुधा पर सब होम।
-©नवल किशोर सिंह

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जीर्ण वर्ष के साथ मेरी उपस्थिति
1

बीता कल
चेहरे वही, कहाँ कोई चाल बदला है
बदलते कलेंडर कहते साल बदला है
दिसम्बर से जनवरी,पलभर की दूरी है
पुनर्मिलन,हा,कितनी लंबी मजबूरी है
ये तो बिछड़ेंगे पर फिर मिल जाएंगे
जीवन के बीते पल अब कहाँ आएंगे
कितने ही ऐसे आज बीतकर कल हुए
आनेवाले कल का फिर कहाँ संबल हुए
**************
2
यादगार
सीने में दफन
यादों की कब्र
साँसों में पलती
विस्मृतियों को
पुरजोर छलती
मृत अहसासों की
मधु-कटु स्मार्त
धड़कने रह गई
बनकर यादगार
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित





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मेरी जिन्दगी


भिखारी की फटी झोली

और मेरी जिंदगी

दोनों में बहुत तालमेल है।
उधर,उसके भाग्य की विडम्बना
इधर,मेरी नियति का खेल है।
उसकी फटी झोली
उसपर दर्जनों पैबन्द लगे है
रंग-बिरंगा, बदरंगा।
मेरी जिंदगी
कई मुखौटों से घिरी है
सभ्य,सलज, क्रूर,मोहक,बेढंगा।
उसकी तो झोली फ़टी है।
मेरी जिंदगी,घिसी-पिटी लुटी है।
विवशता के तले
हर किसी के आगे
वह अपनी झोली फैलाता है।
स्वार्थ के वशीभूत
सहजता के साथ मन
हर किसी को आजमाता है।
फिर भी अच्छी है उसकी झोली
गाहे-बगाहे, चन्द गिन्नियाँ तो आ गिरती है।
क्या मायने,मेरी जिंदगी का
तुष्टि-कभी पास न फिरती है।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित 

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सौदेबाज़ी
आया फिर देश में ये आम चुनाव
छुटभैये निकले लेकर पुरानी नाव
बरसों तक चखे बिरियानी पुलाव
मौका आया देख बदले अब भाव
झूठ-पुट सम्पुट,रूठ,गुटबाजी होगी
फिर से सत्ता की सौदेबाज़ी होगी

पादरी,पंडित संग में मुल्ला काजी
धर्म-मूल को भूल करते सौदेबाज़ी 
प्रेम-पतंग काट,उचाट विष-वमन
स्वार्थ-साधना में उजारेंगे चमन
खुदा से जुदा,मेहमाननवाजी होगी 
फिर से सत्ता की सौदेबाज़ी होगी

मधु ऋतु है, ये पराग चखते भौरें
होगी पतझड़,फूलेगी कहाँ फिर बौरें
खूब भ्रमण के,तो कहीं दिल के दौरे
रेत-ऊसर में भी सरपट पुष्पक दौड़े
बड़ी बातों की खूब लफ्फाजी होगी
फिर से सत्ता की सौदेबाज़ी होगी
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

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हल्के फुल्के
टुकड़ा टुकड़ा दिल


ओ मोहतरमा सुनो
दिल टूट चुका है
इसका कुछ गम नहीं
दिल टूटने के फायदे भी
तो कुछ कम नहीं
लेकर एक-एक
टुकड़ा दिल
घूमेंगे, हर गली,महफ़िल
हर एक टुकड़े से जुड़ा
फिर,
एक अदद दिल होगा
माना, वह कातिल होगा
पर,बेअसर
टुकड़ा,अब और कहाँ तब्दील होगा
ओ मनोरमा सुनो
वो चोट पुरजोर
चटका दिल बिन शोर
चोटिल होकर 
बना कठोर
कहना कुछ और फाजिल होगा
ठीक ही तो है
जहाँ अठन्नी चवन्नियों से
चाँदी की चंद गिन्नियों से
बिकता दिलदार है
साबुत दिल फिर
किसके काबिल होगा?
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

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हरे चुनर का अंधाधुंध चीरहरण
सिसक रहा धरती का कण कण
प्रकृति संग अन्याय,धरा विकल
प्रगति का पर्याय धुए का बादल
घुटे दम,साँसो को न मिले हवा
आहार की स्थानापन्न बनी दवा
युगों से धारित सृष्टि को संकट
आत्महंता बने,निज नाश निकट
कई जीव हुये अस्तित्व विहीन
कुछ संघर्षरत बनकर बल क्षीण
क्रोधित सूर्य,वर्धित है नित अंगार
दिन दूर नहीं सकल धरा हो क्षार
सब मिल फिर मोहन बन जाओ
बिलखती वसुधा का प्राण बचाओ
संकल्पित हो धरा का सर्व-सिंगार
शस्य-श्यामला का पुनः मंत्रोच्चार
पर्यावरण-संरक्षण सहर्ष,सदय हो
धारित्रि,धरती-माता की जय हो
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित


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बंद कमरे
सीलन भरे
गर्द गुबार
दीमक पनप रहा
रंग बदरंग दीवार
अब इस तिमिर को
धुलने दो
अक्ल का किवाड़
जरा खुलने दो
आएगी अंदर
अलौकिक रश्मियां
खोलेगी
मन की खिड़कियाँ
डरो मत
ज्ञान-संपदा अकूत
दस्यु-चोरों से अछूत
उन्मुक्त पवन संग
निज ज्ञान-गंध को
घुलने दो
अक्ल का किवाड़
जरा खुलने दो
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित


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परिवार
1
सम्बन्धों की ज्यामिति
परिवार-एक वृत्त
केंद्र में बुजुर्ग-एक धुरी
त्रिज्यायें संतति
चाप-से चुलबुले
खुशियों की परिधि
2
कौन अपना
कौन पराया
जुड़े जहाँ
नेह के तार
वही परिवार
3
छोटा परिवार
सुख का आधार
की अवधारणा-
मन को
कुछ यूँ भरमाया
बूढ़े माँ-बाप को
वृद्धाश्रम भिजवाया
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

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है आज मिले जो क्षण
ये मिलन है या विछोह के
आँखों में जो अश्रु-कण
ये भाव-करुण या मोह के
पनपे थे कुछ कोमल भाव
मदिर,मलय मन उपवन में
चिरसंचित साध,समभाव
आह्लाद मीत मिलन के
स्नेह सुधा रस बरसे
ज्यों बदली से छन के
मन मयूर मगन हो हरसे
मादक तेरी चितवन से
भरम है,मन किस उलझन में
पागल मन,पर रमता इसी पागलपन में
मिथ्या है, सत्य कहाँ सपन में
है छन से टूट ये जाता निःशब्द,एक क्षण में।

-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

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चुनाव
रीति-नीति सब कर निषिद्ध
मसतायेंगे चील,गिद्ध
कौओं के काँव काँव होंगे
जो माननीयों के चुनाव होंगे
एक बार फिर से देश में
घूमेंगे भेड़िये भी सफेद वेश में
उड़ेगी कड़क नोटों की गड्डियां
बंधेगी गांधारी-सी पट्टियाँ
आमजनों के सरल नेत्र में
कुछ गुमशुदा भी, दिखेंगे क्षेत्र में
वोट मांगेंगे हाथ जोड़कर
धरम,जाति का भाव मरोड़कर
चन्द दिन में वे चले जायेंगे
लोग तो वैसे ही,छले जायेंगे
फिर भी हमें इसपे गर्व है।
ये लोकतंत्र का पर्व है।

-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

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अतीत
बीते बसंत का 
भूला हुआ गीत हूँ
कैसे कहूँ, मैं 
तेरा मनमीत हूँ
प्राप्य पहर प्रणय के
पलभर में व्यतीत हुए
मृदुल भाव अनुनय के
साँसों में घुल संगीत हुए
तान वो अब एक विस्मृति
बन्धित हृदय के कोलाहल में
होगी धृष्टता वो स्मृति
संचित पुलक कौतूहल में
वर्तमान होता यथार्थ
लक्षित गति जीवन में
अनगढ़ भूत-विवेचन व्यर्थ
भरता विषाद तन मन में
लय छिन्न-भिन्न छितराई
अगेय संगीत हूँ
पिछले पहर की परछाई
मैं अतीत हूँ।
-©नवल किशोर सिंह
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प्रकट धन्वन्तरि,अमृत कलश छलके
मांगल्यपूरित पदरोपण श्री चंचल के
विपन्न-विनाश,अपार धन बरसे
अपरम्पार रिद्धि सिद्धि से भरके
साकार सकल स्वप्न हो
धनतेरस धन्य-धान्य सम्पन्न हो
प्रचुर सम्पदा, विपुल परितोष
समृद्धि सतत संवृद्धि, पूर्ण कोष
वैकुंठवासिनी सर्वभूतहितप्रदा
रहे नित्यपुष्ट अनुग्रह सर्वदा
चहुँ सर्वमंगल,हर्षोल्लास सदा हो
आरोग्य-आच्छादित वसुधा हो।

-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
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चन्द्रमुखी छवि अति ललित
भंगिम भाव,कपोल कलित
खंजन सा अंजन अनुरंजन
तिसपर चितवन तीखी चित्तभंजन
बिंदिया चंदन,विविध व्यंजन
अमिय अधर सरस रस रंजन
नासिका सुतवा मलयवासिनी
कोकिलकंठी, मृदु, सुभाषिनी
अलक घटा घनघोर घन सा
अलंकृत ग्रीवा पुष्पित उपवन सा
अपलक दरस,सम्पुष्ट कलश यौवन के
अभिरामी स्पंदन मादक उद्दीपन के
सुगठित अवयव लयमय, अल्हड़ अँगड़ाई
सुरम्य नाभ्या भंवरावृत,भव्य छटा छिटकाई
तन्य, सुनम्य,कृश कटिदेश
रम्य रुचिर अति मोहक परिवेश
प्रीत का गीत रुनझुन पायल की झंकार
रक्त-महावर,बिछुआ डंक अलंकार
लावण्य पूरित सौन्दर्य अनुपम अथोर
लक्षित कर हर्षित हृदय प्रिय मन अति विभोर

-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
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गोवर्धन
हे कृष्ण, अंतर्धान कहाँ, किन गलियों में
गोवर्धन पुनः धारण करो निज उंगलियों में
दम्भ इंद्र-सा, दरप रहा सत्ता के गलियारों में
करुण राग उत्पन्न मन में बेबस बनिहारों के
अंध्दृष्टि जग में,लोलुपबहुल वृष्टि अति गर्जन
दिव्य रुप दर्शन प्रभु,हो विविध विकार वर्जन
मान मर्दन,सर्व-सम्वर्द्धन, हे गिरिधर गोपाल
आओ दीनजनों की सुध लो,प्रभु दीनदयाल

-©नवल किशोर सिंह

स्वरचित
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मैं,आवारा बादल का टुकड़ा हूँ
भटका रहे हैं, मुझको
हवा के उच्छृंखल झोंके
यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ
पथभ्रमित कर,दे देकर धोखे।
क्या पता,कभी बरस भी पाउँगा
बनकर रस की धार,
जीवन संचार, अमिय फुहार,
सौभाग्यशालिनी वसुन्धरा के अंचल में,
सघन,चौरस,समतल में,
दप दप कर विहँसते खेत में।
या,यूँ ही बरस मिट जाऊँगा
किसी उर्वरहीन, ऊसर रेत में।
या बरस भी न पाऊँ
ये बेदर्दी हवा के झोंके
फिर से भटका न दे
जिन्दगी इसी के हाथ है
जब चाहे चलने दे
जब चाहे रोके।
ऊब गया इस भटकाव से
बेमुरौवत हवा के झोंके
तेरे फरेबी बर्ताव से।
एक आरज़ू है-मुझे एक मुकाम दे
कबतक तिरता रहूँ यूँ ही आकाश में
बेशरम कुछ तो अंजाम दे।
भले ही टकरा दे मुझको
ले जाकर किसी पर्वत,पठार से
अस्तित्व की कुछ फिकर नहीं
चूर चूर होकर भी,
बरस जाऊँगा जलधार से।
भले ही पर्वत की तलहटी
में पड़े पत्थरों पर,
या पथरीले भू में उगे झाड़-झंखाड़ में।
एक सुकून तो मिलेगा पागल।
हाय,ये विडंबना
यही नियति है तेरी-
आवारा बादल।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

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