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ब्लॉग संख्या :-284
लम्बा सफर तय किया है
घूंघट तूनेचेहरा न दिखे बस
सबब था तेरा
हर किसी ने बस
चेहरा ढका दिया तेरा
प्रश्न यह है
चेहरा क्यो ढका है
नारी तेरा
बदलाव की लहर
दौड़ रही है
नारी आसमान में
उड़ रही है
सीमा पर
लड़ रही है
पुरूषों के कंधे से कंधा
मिला कर
वह दौड़ रही है
तब भी क्या उम्मीद
करते हो
नारी घूंघट में
मुँह छिपाए
बैठी घर में रहे ?
नारी तुम स्वतंत्र हो
छूने के लिए
आसमां की ऊंचाईयों को
घूंघट तो गहना है
नारी की लज्जा का
नैनो को बनाओ
गहना अपना
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
श्वेता नित नित नव बिखरे
अज्ञान नित घूंघट खोलते
ज्ञान ज्यौति सदा माँ निरखे।
यवनिका जग मंच हटे तो
साक्षात्कार जगत का होता
भावों की गङ्गा में हम सब
खाते हम सब पावन गोता
घृणा द्वेष घूंघट पट खोलो
तिमिर घूंघट मात हटाओ
भोले भाले सीधे साधे हम
माँ प्रिय अपने गले लगाओ
घूंघट तो बंधन जीवन का
स्वतंत्रता है जग बाधक
मिथ्या असत्य दूर रहें नित
कविकुल हम तेरे साधक
मायावी घूंघट जग फैला
सत्य सनातन मार्ग चंले
तिमिर हटा दो मात शारदे
झिलमिल ज्ञान जोत जले।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
अज्ञान नित घूंघट खोलते
ज्ञान ज्यौति सदा माँ निरखे।
यवनिका जग मंच हटे तो
साक्षात्कार जगत का होता
भावों की गङ्गा में हम सब
खाते हम सब पावन गोता
घृणा द्वेष घूंघट पट खोलो
तिमिर घूंघट मात हटाओ
भोले भाले सीधे साधे हम
माँ प्रिय अपने गले लगाओ
घूंघट तो बंधन जीवन का
स्वतंत्रता है जग बाधक
मिथ्या असत्य दूर रहें नित
कविकुल हम तेरे साधक
मायावी घूंघट जग फैला
सत्य सनातन मार्ग चंले
तिमिर हटा दो मात शारदे
झिलमिल ज्ञान जोत जले।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
घूँघट पट
कटार सी अंखियाँ
हृदय बींधें
घूँघट पीछे
छलकता सौदर्य
तृषित मन
शरम हया
पलकों का घूँघट
नत नयन
सरिता गर्ग
स्व रचित
सुन्दर सी इक नार नवेली,
जब ससूराल पधारे।लम्बी सी घुघँट वो डार के,
हौले पाँव वो डोले।
🍁
लाल चुनर धानी से घाघरो,
लजवती सी लागे।
पग पैजनीया रूनूर-झुनूर से,
मनभावन सी लागे।
🍁
पीहर को जब छोड के गोरी,
पिय संग हुई विदाई ।
लाज का घुघँट ओढे बहुरी,
सुख सौभाग्य ले आई।
🍁
सुन्दर से मुखडे को देख कर,
आँखे ही भर आई।
मात-पिता ने करी विदाई ,
शेर हृदय भर आई।
🍁
दो कुल को जोडे है बेटी,
कहना नही पराई।
बेटी जब घुघँट को ओढे,
दूजा कुल है बसाई।
🍁
जा पुत्री सौभाग्यवती भवः,
आँखे ही भर आई।
दो कुल की मर्यादा रखना,
शेर हृदय तर जाई।
🍁
स्वरचित ... Sher Singh Sarraf
हार रहा था मैं....
कोई मुझे नहीं हरा रहा था...
अपने आप से ही हार रहा था....
अजगर की भाँती हार मुंह खोले खड़ी थी...
हर सांस के साथ जैसे अपनी तरफ खींच रही...
सांस लेनी दुश्वार थी...हांफ रहा था मैं....
जैसे मीलों भागा हूँ...
बिना किसी आशा के...परिणाम के.....
निर्जीव...निष्प्राण...निढाल सा हो...
मैं सामने पड़ी कुर्सी पे धम सा गिर पड़ता हूँ....
आँखें बंद...सर धंसा हुआ सा घुटनों में....
रह रह के सर के बालों को यूं खींचता हूँ...
जैसे सब कुछ बाहर फैंक देना चाहता हूँ...
जो मन में चल रहा है....
बवंडर सा विचारों का...
चक्रवात सा जैसे गहरे खींच रहा है....
नीचे को....
हार गया मैं....
अनायास मुंह से निकलता है...
आँखें बंद किये बैठा रहता हूँ...
कुछ देर में आँखें खोलता हूँ...
सामने दीवार पे एक पोस्टर लटका है....
उसपे लिखा है...
"क्या ले कर आये थे जो तुम हार जाओगे...
क्या ले कर यहाँ से जाओगे जो तुम्हारा अपना है"....
मेरी आँखें जैसे उस पे गढ़ सी गयीं...
बार बार आँखों से पढता हूँ....
फिर बुदबुदाने लगता हूँ...
तेजी से...
फिर जैसे जैसे पढता जाता हूँ....
भाव शब्दों के मन में उतरने लगते हैं....
संजीवनी बन प्राणों में संचार करने लगते हैं....
स्वाति बूँद का सागर प्यासे को मिल गया जैसे...
और रोम रोम से भाव स्फुटित होने लगे...खिलने लगे..
यस....
मैं चिल्ला उठता हूँ.....
सूर्यमुखी के फूल जैसे उसको देखे ही जा रहा हूँ....
धरा जैसे बेवक़्त घूम गयी हो...
सूर्य की रौशनी निकलती नज़र आने लगती है....
प्रकाश की किरणे घने बादलों को चीर रही हैं...
आँखों पे...मन पे...पड़ी परतें...
उधड़ने लगती हैं....
घूंघट के पट धीरे धीरे खुलने लगते हैं...
परत-दर-परत बिखरा था जो...
पल में जैसे अपने से जुड़ गया...
बहुत ही हल्का सा लग रहा सब...
ऐसे जैसे कुछ हुआ ही नहीं...
जो पहले सपने जैसा था...
वो वास्तविकता में मेरे सामने था...
"सच में वो दयालु है जिसकी किरपा से धरती थमी है"
कितना पागल हूँ मैं.....
सामने मेरे समाधान था और मैं....
अपने आप से शिकायत कर रहा था....
मैंने बोला था ना "फिर मिलेंगे"....
वही इंसान जिस से हारा था ....
मुस्कुराता सा मेरे सामने आ जाता है....
लगा जैसे....वो कोई और नहीं...
मैं ही हूँ...
सिर्फ मैं....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
३०.०१.२०१९
कोई मुझे नहीं हरा रहा था...
अपने आप से ही हार रहा था....
अजगर की भाँती हार मुंह खोले खड़ी थी...
हर सांस के साथ जैसे अपनी तरफ खींच रही...
सांस लेनी दुश्वार थी...हांफ रहा था मैं....
जैसे मीलों भागा हूँ...
बिना किसी आशा के...परिणाम के.....
निर्जीव...निष्प्राण...निढाल सा हो...
मैं सामने पड़ी कुर्सी पे धम सा गिर पड़ता हूँ....
आँखें बंद...सर धंसा हुआ सा घुटनों में....
रह रह के सर के बालों को यूं खींचता हूँ...
जैसे सब कुछ बाहर फैंक देना चाहता हूँ...
जो मन में चल रहा है....
बवंडर सा विचारों का...
चक्रवात सा जैसे गहरे खींच रहा है....
नीचे को....
हार गया मैं....
अनायास मुंह से निकलता है...
आँखें बंद किये बैठा रहता हूँ...
कुछ देर में आँखें खोलता हूँ...
सामने दीवार पे एक पोस्टर लटका है....
उसपे लिखा है...
"क्या ले कर आये थे जो तुम हार जाओगे...
क्या ले कर यहाँ से जाओगे जो तुम्हारा अपना है"....
मेरी आँखें जैसे उस पे गढ़ सी गयीं...
बार बार आँखों से पढता हूँ....
फिर बुदबुदाने लगता हूँ...
तेजी से...
फिर जैसे जैसे पढता जाता हूँ....
भाव शब्दों के मन में उतरने लगते हैं....
संजीवनी बन प्राणों में संचार करने लगते हैं....
स्वाति बूँद का सागर प्यासे को मिल गया जैसे...
और रोम रोम से भाव स्फुटित होने लगे...खिलने लगे..
यस....
मैं चिल्ला उठता हूँ.....
सूर्यमुखी के फूल जैसे उसको देखे ही जा रहा हूँ....
धरा जैसे बेवक़्त घूम गयी हो...
सूर्य की रौशनी निकलती नज़र आने लगती है....
प्रकाश की किरणे घने बादलों को चीर रही हैं...
आँखों पे...मन पे...पड़ी परतें...
उधड़ने लगती हैं....
घूंघट के पट धीरे धीरे खुलने लगते हैं...
परत-दर-परत बिखरा था जो...
पल में जैसे अपने से जुड़ गया...
बहुत ही हल्का सा लग रहा सब...
ऐसे जैसे कुछ हुआ ही नहीं...
जो पहले सपने जैसा था...
वो वास्तविकता में मेरे सामने था...
"सच में वो दयालु है जिसकी किरपा से धरती थमी है"
कितना पागल हूँ मैं.....
सामने मेरे समाधान था और मैं....
अपने आप से शिकायत कर रहा था....
मैंने बोला था ना "फिर मिलेंगे"....
वही इंसान जिस से हारा था ....
मुस्कुराता सा मेरे सामने आ जाता है....
लगा जैसे....वो कोई और नहीं...
मैं ही हूँ...
सिर्फ मैं....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
३०.०१.२०१९
घूंघट पट
संस्कृति पुरातन भारत देश |
मनमोहिनी
घूंघट छवि न्यारी
मोहित प्रिय |
लम्बा घूंघट
अनादर मन में
कटुता वाणी |
मन मंदिर
अंकित प्रियतम
नहीं घूंघट |
निर्मल मन
चाहत ईश्वर की
घूंघट राग |
बनें पुजारी
तजकर घूंघट
जीवन राग |
आदर मन
निश्छलता पावन
घूंघट दाग |
स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश ,
प्यारा घूँघट
सबका मन मोहे मन विचले
नैन तरसे
चंदासा ये मुखड़ा
कब निहारू
सूरत भोली
ओढ़ लाल चूंनरी
भोली मुस्कान
प्रिय तरसे
रजनी इंतजार
कठीन लागे
मुँह दिखाई
सगे संबंधी सारे
इंतजार घड़ियां
सारे ही प्यारे
ससुराल के रिश्ते
दुल्हन खुश
घूँघट खोले
शेरनी जब बोले
शत्रुता डोले
हो आगमन
पिया की दहलीज
दहेज भूले
प्यार ही प्यार
मिले सारा जीवन
कष्ट न आए
स्वरचित कुसुम त्रिवेदी
गगन में आया देख अरुण को,
उषा ने अपना घूँघट खोला, मुस्कान फूट पड़ा रमणी का,
लाज कपोल पर प्राची में खेला।
रुनझुन ध्वनि पग नूपुर की,
जड़ चेतन में अमृत घोला,
मंगल गाता समूह मधुकर का
स्वागत करती चम्पा बेला ।
पहने पीला लहंगा हरा दुपट्टा,
नर्म सुबह की मधुरिम वेला,
कोयल की मीठी तान सुरीली,
तितलियों का लगा है मेला।
सवर्ण किरणों का पहने गहना,
बांकी चितवन मुखरा है भोला,
कुछ भरमाती कुछ सकुचाती,
आती लिए खुशियों का झोला।
डॉ उषा किरण
बिछुड़ गये तुम बिलखाकर
पापी मन न रो पायाबहते आँसू को देख रहा
कैसी चिरमय वेला थी।
चंचल चंचल बूंदों जैसी
कभी आंगन में बरसा करतीं
चंचल चंदा की किरणों जैसी
तुम आंगन में चमका करतीं।
अब अंधेरा कैसा छाया
सावन के आने में देरी है
तुम जाने कब लौटोगी
जग जोगी वाला फेरा है।
कभी झरोखे से झांका करतीं
या वातायन से हंस देतीं
घूंघट से वह प्रथम मिलन था
विरह वियोग का कैसा क्षण था।
घूंघट से जब देखा तुमने
सुखद स्वप्न क्यों भंग हुआ
चंद्रमुखी वह चंचल मुखड़ा
बस दो आँखों में बसा रहा।
मन आज अकेला हुआ सर्वथा
बीती बातें भी बिसर रहीं
तुम्हे विदा करके यूं लगता
प्राण तन से निकल रहा।
तुम रहना खुशहाल सदा
डरना विश्वासघातों से
हम तो चलते पथिक मात्र हैं
बस,पथ प्रदर्शित करते हैं ।
स्वरचित: डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी, गुना(म.प्र.)
नयन पलक को ढकता घूँघट
चंद्रमुखी की अद्भुत शौभाडोली बैठी घूँघट काढ़े वह्
जन निरखे फिर करते तौबा
शर्माती घबराती दुल्हन
घूँघट में लरजाये सुंदरी
साजन घूँघट पट खोले
वह् लज्जित ज्यौ छुईमुई
माया मोह के घूँघट में
सच्चाई से दूर ही रहते
परमपिता की भक्ति से
जैसी करते वैसा भरते
असत्य स्वार्थ घूँघट में
योगी भी भोगी बनते हैं
मर्यादा नैतिकता ओढ़कर
नित मिल वे जग ठगते हैं
दया धर्म मुखौटा पहने
स्वादु साधु घूम रहे हैं
मुँह में राम बगल में छुरी
वे माला को चूम रहे हैं
नायक खलनायक बनते
भोले बन वे क्या न करते
दुष्कर पाप करें वे नित ही
मानव दानव बन न डरते।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
/सेदोकाघूंघठ,
घूंघट डाले,
पहली मुलाक़ात,
समर्पण की रात,
नई नवेली,
मधु कलश लिये
मेरे पास ही खड़ी।।५।।
६/नवउल्लास,
मन में चाह लिए,
रुप सुन्दरी, खड़ी,
घूंघट डाले,
वर माला खुशी की
अपने साथ लिए।।६।।
७/उमर खड़ी,
यौवन के दो राहे,
सपनों का संसार,
पिया को देख,
मन ही मन कहै
मुख पर घूंघट।।७।।
देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग,।
घूंघट डाले,
पहली मुलाक़ात,
समर्पण की रात,
नई नवेली,
मधु कलश लिये
मेरे पास ही खड़ी।।५।।
६/नवउल्लास,
मन में चाह लिए,
रुप सुन्दरी, खड़ी,
घूंघट डाले,
वर माला खुशी की
अपने साथ लिए।।६।।
७/उमर खड़ी,
यौवन के दो राहे,
सपनों का संसार,
पिया को देख,
मन ही मन कहै
मुख पर घूंघट।।७।।
देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग,।
मन से ज़िंदा बनी रहे
घूँघट की मर्यादा तब तकजब तक जिंदा नारी
का आत्मसम्मान है
चोट पँहुचाकर उसको
नहीं मिलता कोई मान है
घूंँघट की आड़ में
ना करो निरादर स्त्री का
उड़ने दो पँख लगाकर
छूने दो ऊंचाईयों को
घूंँघट को बंधन का नहीं
सभ्यता का प्रतीक रहने दो
घूंघट की मर्यादा रखते हुए
नारियों ने महान कार्य किए
सम्मान को आंँच न आने दी
इतिहास में ऊंचे नाम किए
घूंँघट लाज का पहरा है
मर्यादा की शान है
घूंँघट में शरमाती गोरी
अपने साजन का मान है
घूंँघट नहीं कोई बंधन है
यह तो नारी सम्मान है
ना समझो इसे गलत कोई
यह हमारे संस्कार हैं
घूंँघट कोई जेल नहीं
घूंँघट बड़ों का आदर है
अगर सही मायने में
घूंँघट का होता पालन है
जरूरी नहीं पूरा मुख ढंंका रहे
पर माथे तक ही बना रहे
यह प्यारी संस्कृति हमारी
मन से ज़िंदा बनी रहे
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना
विधा= हाइकु
==========
(1)हटा ही देती
अज्ञान का घूँघट
विद्या की देवी
🌷🌷🌷
(2)निशा ने डाला
अमावस घूँघट
चाँद के मुख
🌷🌷🌷
(3)घूँघट प्रथा
करे नहीं पसंद
शिक्षित बहू
🌷🌷🌷
(4)ईश्वर गिफ्ट
पलकों का घूँघट
आंखों की रक्षा
🌷🌷🌷
(5)हटा के झांकें
भोर वक्त घूँघट
बालक सूर्य
🌷🌷🌷
स्वरचित
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
==========
(1)हटा ही देती
अज्ञान का घूँघट
विद्या की देवी
🌷🌷🌷
(2)निशा ने डाला
अमावस घूँघट
चाँद के मुख
🌷🌷🌷
(3)घूँघट प्रथा
करे नहीं पसंद
शिक्षित बहू
🌷🌷🌷
(4)ईश्वर गिफ्ट
पलकों का घूँघट
आंखों की रक्षा
🌷🌷🌷
(5)हटा के झांकें
भोर वक्त घूँघट
बालक सूर्य
🌷🌷🌷
स्वरचित
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
घूंघट में छुपा, चंदा जैसा। मुखड़ा है तेरा सोने जैसा।
एक बार तेरा दर्शन हो तो। उड जाए है , नीदं मेरी।
चाल चले घुंघरू छनके। मोती बाटे उन्मुक्त हसीं तेरी।
एक बार तेरा दर्शन हो तो। उड जाए है नीदं मेरी।
गालों का रंग गुलाबी है। बालों की घटा शराबी है।
उफन रही नदिया में जैसे। यौवन ने आग लगा दी है।
मेरी रातो का सपना सच। हो कर हो जाओ मेरी ।
एक बार तेरा दर्शन हो तो। उड जाए है नीदं मेरी।
विपिन सोहल
एक बार तेरा दर्शन हो तो। उड जाए है , नीदं मेरी।
चाल चले घुंघरू छनके। मोती बाटे उन्मुक्त हसीं तेरी।
एक बार तेरा दर्शन हो तो। उड जाए है नीदं मेरी।
गालों का रंग गुलाबी है। बालों की घटा शराबी है।
उफन रही नदिया में जैसे। यौवन ने आग लगा दी है।
मेरी रातो का सपना सच। हो कर हो जाओ मेरी ।
एक बार तेरा दर्शन हो तो। उड जाए है नीदं मेरी।
विपिन सोहल
लघु कविता
"घूँघट"
हवा की सनसनाहट
ये कह रही,रात है गहरी
गोरी के मुखड़े पे
है घूँघट का पहरा
छुईमुई,है अकुलाहट
सुनने को बेताब
पिया के कदमों की आहट
दीपक की मद्धिम लौ
मंद-मंद मुस्कुरा रही
घूँघट के पीछे से
गोरी शर्मा रही
आचानक हुई दस्तक
झनकी पायलिया..
दौड़कर खोली किवड़िया
देखकर नजारा
सरका घूँघट
सामने खून से रंगे
थे पिया जी का देह
हादसे का शिकार!
लूट गया संसार!!
###############
"क्षणिका"
तिरंगे का घूँघट काढ़े,
देखो शहीद आया द्वारे।
सरहद की सीमा पर,
कर आया जान न्योछावर।
कह रहा,माँ की लाज है
अब तेरे हवाले।।
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
"घूँघट"
हवा की सनसनाहट
ये कह रही,रात है गहरी
गोरी के मुखड़े पे
है घूँघट का पहरा
छुईमुई,है अकुलाहट
सुनने को बेताब
पिया के कदमों की आहट
दीपक की मद्धिम लौ
मंद-मंद मुस्कुरा रही
घूँघट के पीछे से
गोरी शर्मा रही
आचानक हुई दस्तक
झनकी पायलिया..
दौड़कर खोली किवड़िया
देखकर नजारा
सरका घूँघट
सामने खून से रंगे
थे पिया जी का देह
हादसे का शिकार!
लूट गया संसार!!
###############
"क्षणिका"
तिरंगे का घूँघट काढ़े,
देखो शहीद आया द्वारे।
सरहद की सीमा पर,
कर आया जान न्योछावर।
कह रहा,माँ की लाज है
अब तेरे हवाले।।
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
अज्ञान का घूंघट हटा,
देख तो उसकी छटा।
तू जिसे है ढूंढ़ता,
बंदे तेरे ही पास है।
माया का घूंघट पहन,
मोह का तू करे जतन।
माया का घूंघट हटा,
अंतर्मन की ज्योति जला।
आत्मा है अपने पिय की,
प्यारी सी दुल्हनिया।
भटकती रहती सदा,
पिय मिलन को बावरी।
कितने घूंघट पहने हैं तू,
संसार के भ्रमजाल में।
एक बार हटा दे इनको,
सत्य होगा फिर सामने।
क्यों छिपाता है इसे,
जो कभी छिपता नहीं।
प्रिय मिलन को रोकना,
है तेरे बस में नहीं।
कह गए हैं संत सारे,
अज्ञान का घूंघट हटा।
निखरने दे संवरने दे,
आत्मा की सुंदरता।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
देख तो उसकी छटा।
तू जिसे है ढूंढ़ता,
बंदे तेरे ही पास है।
माया का घूंघट पहन,
मोह का तू करे जतन।
माया का घूंघट हटा,
अंतर्मन की ज्योति जला।
आत्मा है अपने पिय की,
प्यारी सी दुल्हनिया।
भटकती रहती सदा,
पिय मिलन को बावरी।
कितने घूंघट पहने हैं तू,
संसार के भ्रमजाल में।
एक बार हटा दे इनको,
सत्य होगा फिर सामने।
क्यों छिपाता है इसे,
जो कभी छिपता नहीं।
प्रिय मिलन को रोकना,
है तेरे बस में नहीं।
कह गए हैं संत सारे,
अज्ञान का घूंघट हटा।
निखरने दे संवरने दे,
आत्मा की सुंदरता।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
घूँघट मन मंदिर का दरवाजा
नेत्रों पर पहरा
भावों का छिपा रहस्य
मन का मोद
मन के सपने
दिल का चेन
घर की आबरू
देहली का मान
निज संस्कृति का गौरव
बडो़ का आदर
कुल की मर्यादा
अपना सौन्दर्य
जिम्मेदारियों से मुक्ति
आत्म भक्ति
दुष्प्रभावों से मुक्ति तथा
घूँघट होता आत्मा का
कटु वाक्य पर
शील और सत्यव्रत का
अपने सद कर्मो का
सदाचरण -सदभाव
आत्म भाव - प्रभाव
घूँघट हो भवों का
अपने सच्चे अनुभवों का
नेत्रों की पलको का
सच्चा घूँघट परिवर्तन का
आवर्तन और परावर्तन का ।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 'निश्छल',
नेत्रों पर पहरा
भावों का छिपा रहस्य
मन का मोद
मन के सपने
दिल का चेन
घर की आबरू
देहली का मान
निज संस्कृति का गौरव
बडो़ का आदर
कुल की मर्यादा
अपना सौन्दर्य
जिम्मेदारियों से मुक्ति
आत्म भक्ति
दुष्प्रभावों से मुक्ति तथा
घूँघट होता आत्मा का
कटु वाक्य पर
शील और सत्यव्रत का
अपने सद कर्मो का
सदाचरण -सदभाव
आत्म भाव - प्रभाव
घूँघट हो भवों का
अपने सच्चे अनुभवों का
नेत्रों की पलको का
सच्चा घूँघट परिवर्तन का
आवर्तन और परावर्तन का ।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 'निश्छल',
विधाःःःछंन्दमुक्त
चेहरे का आवरण
क्या सचमुच अपना
संरक्षक पर्यावरण
कुछ तो समझें महत्व
क्यों घूंघट को संरक्षण।
हमारी सूझबूझ या कोई,
कुत्सित व्यवहार बिचार
अथवा वेशर्म कदाचरण
षोडशी बालाऐं करें नृत्य
आखिर क्यों नहीं जानते
होता ऐसा वेगैरत कुकृत्य
धृष्टता शायद हो मजबूरी
महामारी जैसे ये लाचारी
प्रभु रखें लाज अवला की
घूंघट मर्यादाऐं रखीं जिसने
तुम रक्षक सबके गिरधारी।
स्वरचितःःः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
चेहरे का आवरण
क्या सचमुच अपना
संरक्षक पर्यावरण
कुछ तो समझें महत्व
क्यों घूंघट को संरक्षण।
हमारी सूझबूझ या कोई,
कुत्सित व्यवहार बिचार
अथवा वेशर्म कदाचरण
षोडशी बालाऐं करें नृत्य
आखिर क्यों नहीं जानते
होता ऐसा वेगैरत कुकृत्य
धृष्टता शायद हो मजबूरी
महामारी जैसे ये लाचारी
प्रभु रखें लाज अवला की
घूंघट मर्यादाऐं रखीं जिसने
तुम रक्षक सबके गिरधारी।
स्वरचितःःः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
घूंघट हटा
पर्दा रहस्यमय
सब चकित।।
कढ़ा घूंघट
दूजा न देखपाये
दुल्हन झांके।।
लाज का पर्दा
दो बालिश्त से बड़ा
शहरी हसें।।
झीना घूंघट
साफ दिखे चेहरा
ये कैसा पर्दा।।
हटा घूंघट
लो दूल्हन शर्मायी
बनी गठरी।।
भावुक
पर्दा रहस्यमय
सब चकित।।
कढ़ा घूंघट
दूजा न देखपाये
दुल्हन झांके।।
लाज का पर्दा
दो बालिश्त से बड़ा
शहरी हसें।।
झीना घूंघट
साफ दिखे चेहरा
ये कैसा पर्दा।।
हटा घूंघट
लो दूल्हन शर्मायी
बनी गठरी।।
भावुक
घूँघट में खड़ी है गोरी
नेह की बाँधे ऐसी डोरी ।।
सइयाँ जाना जल्दी आना
बार बार करे करि जोरी ।।
सइयाँ गये खबर न लीन्ही
प्रीत की रीत विसरा दीन्ही ।।
घूँघट में नित राह निहारे
विरह की मारी खड़ी है रीनी ।।
आँखों से आँसू हैं टपके
मर्यादा औ लाज में सुबके ।।
कह न सके वो दर्द 'शिवम'
घूँघट में वो रह गई घुटके ।।
हरि शंकर चौरसिया ''शिवम
1
ढिबरी भर चाँद गगन में
बदली-सी छाई
स्याह चादर में लिपट
रजनी यूँ सकुचाई
जैसे बंद कमरे मे बैठी
वो सिकुड़ी शरमाई
खुला मन का झरोखा
आया एक हरजाई
चंचल पवन का झोंका
सरक गया घूँघट
बेदाग चंद्र निष्कपट
यूँ चाँदनी बिखर गई
भुवन में
उजास कर गई
जीवन में
2
बादलों का घूँघट ओढ़
चाँद खुद को छुपा रहा है
या
इन जुगनुओं की
किस्मत चमका रहा है
आओ,कुछ नया आजमाते हैं
चलो,आज घूँघट हटाते हैं
3
चाँद-दर्शन की
प्रबल कामना
फिर चाँद आज
घूँघट पहना
ठहरो,
मान लो कहना
यूँ घूँघट न सरकाओ
सुना है,
निगाहें बड़ी कातिल है
4
रुका कहार
कदमों की चोट से
पालकी में बैठी वो
झाँकती
घूँघट की ओट से
झलक आह्लादिनी
जैसे
बादलों के घूँघट से
छलकती चाँदनी
कजरारे नैनों में
जीवन की आशा
घूँघट में बंद
सहमी-सी जिज्ञासा
क्या ये घूँघट का बोझ है ?
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
ढिबरी भर चाँद गगन में
बदली-सी छाई
स्याह चादर में लिपट
रजनी यूँ सकुचाई
जैसे बंद कमरे मे बैठी
वो सिकुड़ी शरमाई
खुला मन का झरोखा
आया एक हरजाई
चंचल पवन का झोंका
सरक गया घूँघट
बेदाग चंद्र निष्कपट
यूँ चाँदनी बिखर गई
भुवन में
उजास कर गई
जीवन में
2
बादलों का घूँघट ओढ़
चाँद खुद को छुपा रहा है
या
इन जुगनुओं की
किस्मत चमका रहा है
आओ,कुछ नया आजमाते हैं
चलो,आज घूँघट हटाते हैं
3
चाँद-दर्शन की
प्रबल कामना
फिर चाँद आज
घूँघट पहना
ठहरो,
मान लो कहना
यूँ घूँघट न सरकाओ
सुना है,
निगाहें बड़ी कातिल है
4
रुका कहार
कदमों की चोट से
पालकी में बैठी वो
झाँकती
घूँघट की ओट से
झलक आह्लादिनी
जैसे
बादलों के घूँघट से
छलकती चाँदनी
कजरारे नैनों में
जीवन की आशा
घूँघट में बंद
सहमी-सी जिज्ञासा
क्या ये घूँघट का बोझ है ?
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
घूंघट सम्मान नजर का है
इससे सबको मिलता आदर।
तहजीब सिखाता है हमको
इसमें सम्मान बड़ों का है।
घूंघट में सब राज छिपे होते
इससे व्याकुलता बढती है।
कभी सम्मान दिलाता है घूंघट
तो कभी गिराता मान हमारा।
गोरी के मनो भावों को छिपाता
कभी बढाता प्यार है।
जब भी दीदार हुआ गोरी का
मन मेरा हर्षित होता है।
उसके मुख मंडल की आभा को
यह हर पल और बढाता है।
मानो तो यह सम्मान दिलाए
ना मानो तो बस पर्दा है।
यह तुम पर निर्भर करता है,
कैसी अब सोच तुम्हारी है
यदि मानो तो यह इज्जत है
ना मानो तो आडम्बर है।
(अशोक राय वत्स)
स्वरचित। जयपुर
हाइकु विषय:-"घूँघट"
(1)
नारी सम्मान
मर्यादा का घूँघट
नैनों के द्वार
(2)
निशा की सखी
बादलों के घूँघट
चाँदनी हँसी
(3)
चेहरा चाँद
हया घूँघट ताके
हिरणी आँख
(4)
झुकते नैना
घूँघट पहनाये
शर्म गहना
(5)
भोर की रश्मि
रजनी का घूंघट
हटाये रवि
स्वरचित
ऋतुराज दवे
(1)
नारी सम्मान
मर्यादा का घूँघट
नैनों के द्वार
(2)
निशा की सखी
बादलों के घूँघट
चाँदनी हँसी
(3)
चेहरा चाँद
हया घूँघट ताके
हिरणी आँख
(4)
झुकते नैना
घूँघट पहनाये
शर्म गहना
(5)
भोर की रश्मि
रजनी का घूंघट
हटाये रवि
स्वरचित
ऋतुराज दवे
हाइकु घूंघट
1
चाँद है वधु
चांदनी का घूंघट
प्रसन्न तारे
2
आँखे घूंघट
शर्माती है दुल्हन
पिया आहट
3
मेघा घूंघट
प्रकृति है दुल्हन
नाचे हवाएँ
4
धरा दुल्हन
हरियाली चुनर
घटा घूंघट
5
सखी हवाएं
घूंघट में धरती
है विचरती
कुसुम पंत उत्साही
स्वरचित
देहरादून
1
चाँद है वधु
चांदनी का घूंघट
प्रसन्न तारे
2
आँखे घूंघट
शर्माती है दुल्हन
पिया आहट
3
मेघा घूंघट
प्रकृति है दुल्हन
नाचे हवाएँ
4
धरा दुल्हन
हरियाली चुनर
घटा घूंघट
5
सखी हवाएं
घूंघट में धरती
है विचरती
कुसुम पंत उत्साही
स्वरचित
देहरादून
घूँघट शब्द पर आधारित रचना (प्रकृति को बेटी मानकर )
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नीलवरण आँचल सर पर धारे
हरित परिधान से तन सँवारे
धवल चाँदनी सी मुसकान बिखेरती
बादल से काले केश सँवारती
चाँद की चमकती बिंदिया माथे पर साजे
हाथों में कंगन छन छन बाजे।
हिरणी सी कभी कुलाँचे मारती
नव वधू सी कभी लजाती
फूलों की ख़ुशबू सी महकाती घर आँगन
आँखों में संजोये नित नये नये स्वप्न।
वो मेरी बेटी ,मेरे आँगन की बहार
वो सावन की रिमझिम ,वो प्रथम फुहार।
वो अलसाई भोर की पहली रश्मि सी
अधखिले गुलाब पर ठहरी ओस की नमी सी ।
नया परिधान ,नया परिवेष
नई राहें,सपने अशेष
अंजुरी में स्नेह दीप धारे
चली बेटी प्रीतम के द्वारे
घूँघट ओढ़े ,स्नेह -प्यार का
सृजन करने नव संसार का !
स्वरचित(c) भार्गवी रविन्द्र ..३०/०१/२०१९
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नीलवरण आँचल सर पर धारे
हरित परिधान से तन सँवारे
धवल चाँदनी सी मुसकान बिखेरती
बादल से काले केश सँवारती
चाँद की चमकती बिंदिया माथे पर साजे
हाथों में कंगन छन छन बाजे।
हिरणी सी कभी कुलाँचे मारती
नव वधू सी कभी लजाती
फूलों की ख़ुशबू सी महकाती घर आँगन
आँखों में संजोये नित नये नये स्वप्न।
वो मेरी बेटी ,मेरे आँगन की बहार
वो सावन की रिमझिम ,वो प्रथम फुहार।
वो अलसाई भोर की पहली रश्मि सी
अधखिले गुलाब पर ठहरी ओस की नमी सी ।
नया परिधान ,नया परिवेष
नई राहें,सपने अशेष
अंजुरी में स्नेह दीप धारे
चली बेटी प्रीतम के द्वारे
घूँघट ओढ़े ,स्नेह -प्यार का
सृजन करने नव संसार का !
स्वरचित(c) भार्गवी रविन्द्र ..३०/०१/२०१९