Wednesday, January 16

"तलाश "16जनवरी2019

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(1)

कस्तूरी मृग 
खुशबू की तलाश 
नाभि में सुख

(2)
महल सुख
त्याग दे महावीर
शांति तलाश

(3)
भटके मन
मंजिल की तलाश 
दुर्लभ पथ

(4)
सच्ची लगन
हो तलाश साकार
आत्मविश्वास 

(5)
स्व की तलाश 
अंतर्मन में झाँक 
न हो निराश

स्वरचित *संगीता कुकरेती*





हाइकु 
1
शांति तलाश 
ढूंढे मनु तू कहाँ 
मन में झांक 
2
मृग तलाशे 
भागता चहुँ ओर 
नाभि बसता 
3
ज्ञान तलाश 
ह्रदय होता गुरु 
क्यों भटकता 
4
पथ तलाश 
निर्धारित गंतव्य 
न हो उदास 
कुसुम पंत उत्साही 
स्वरचित 
देहरादून

जुस्तुजू जिसकी रही उसको न पता 

ये कैसा खेल रचा तूने ओ मेरे खुदा ।।
कभी लफ़्ज़ की दगा कभी वक्त बेवफा
नही कुछ मिला तो कलम दी थमा ।।

क्या कहें तुझको काबिल उस्ताद
या परम हितेषी या दग़ाबाज़ ।।
पत्ता भी न हिले तेरे बिन ''शिवम"
अजब फलसफे यहाँ जाना आज ।।

कारवां जिन्दगी मुसलसल चलते रहो
पढा़ये जिन्दगी फलसफे पढ़ते रहो ।।
जुस्तुजू क्या किसे और क्या मिले 
ईमान रखो सदा और संभलते रहो ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 16/01/2018


क्यो तलाश जिन्दगी की खत्म होती ही नही है।
क्यो प्यास मेरे मन की कभी बुझती ही नही है।
🍁

क्यो यादों की कुछ बातें मुझे भूलती नही है।
क्यो मन तडप रहा है यादें सम्हलती ही नही है।
🍁

क्या यादों के भँवर मे कोई बिछडा कही है।
क्यो आँखो मे नमी सी रहता हर सुबह है।
🍁

क्यो नींद नही आती मुझे इन सर्द रातों में।
क्या कहना मुझसे चाहें मन भटका के यादों में।
🍁

भावों मे बह ना जाए कही शेर सम्हालो।
बैरागी बन ना जाए मुझे यादों से निकालो।
🍁

कविता मे क्या लिखूँ मन मेरा कितना अधीर है।
बेचैन सी ये साँसे मेरी रूकती भी नही है।
🍁

है इन्तजार तेरा दिल को तेरी तलाश है।
मेरे भाव बह रहे है जो तू ना पास है।
🍁


स्वरचित ... Sher Singh Sarraf

है यकी..हम मिलेंगे कभी ,
दुनिया की भीड़ में!
चलते चलते यूं ही कभी।।
नीले गगन तले ,
आरजू के गांव में,
या फिर....
शायद रिमझिम फुहारों में,
कहीं किसी छतरी तले ।
तलाश लूंगा तुम्हें....
कहीं चाट वालों के 
खोमचों पर ...
गोलगप्पे खाते हुए ,
है यकीन, हम मिलेंगे कहीं...
ढलती शामों में ,
रवि की सुनहरी रश्मियों में, 
क्षितिज को निहारते ..
यूं ही बैठ मंदिर की सीढ़ियों पर,
घंटियों की मधुर ध्वनि सुनते...
चुन्नी को उंगलियों में लपेटे खोलते।
ढूंढ लूंगा तुम्हें कभी ना कभी।।

नीलम तोलानी
स्वरचित व मौलिक

तलाश रही मरहम की...
पर दर्द ही मिलता रहा..
ये जिंदगी का फलसफा है
जख्म सदा फलता रहा...

हर ख्वाब रहा अधूरा...
फिर भी ख्वाब देखता रहा....
नयन रूपी साहिल से..
लवण नीर छलकाता रहा..

जिंदगी की मौजों पर...
टूटी पतवार चलाता रहा...
जख्म से नासूर हुए...
खुद ही अकेला सीता रहा...

ना मिला कोई हमसफर...
जिंदगी अकेले जीता रहा..
तलाश रही मरहम की...
पर दर्द ही मिलता रहा...

स्वरचित :- मुकेश राठौड़


तलाशता हूँ सद गुणी को
ज्ञान का आलोक भर दे
तिमिर हिय ज्यौति पुंज से
मन मानस जगमग कर दे
श्री कृष्ण कौन्तेय सुत सी
नर श्रेष्ठ सुदामा वरदे
तलाशता सावित्री पत्नी वह्
यमराज हताश कर दे
तलाशता हूँ उस श्रवण को
कावड को कंधे पर डाले
तलाशता उस चंद्रगुप्त को
पुत्रवत बन जन को पाले
तलाशता हूँ वह् जननायक
विश्वकुटुम्बकम जगत बनादे
भारत की स्वर्णिम चिड़िया को
दिकदिगन्त जग उसे उड़ा दे
तलाशता हूँ स्नेह समर्पण
तलाशता सुख भावी जीवन
जन जन को सुख सुविधा हो
जीवन सबका बने नंदन वन
तलाशता हूँ उस नर को मैं
अमर शहीद बन सजदा करदे
वसन राष्ट्र भक्ति धारित वह्
तन मन धन अर्पण निज करदे
जीवन के इस भवसागर में
सब तलाशते हीरे और मोती
कर्मठ सजग कर्म वीर होता
उनको मिंले झिलमिल ज्यौति।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

बहुत काटा-पीटी सी ज़िन्दगी है मेरी...

रोज़ ही नए सवाल देती है....
कुछ के तो खुद ही जवाब देती है...
पर वो भी समझ कहाँ पाता हूँ......
उलझ सा जाता हूँ...जाने क्या चाहता हूँ...
बहुत काटा पीटी है ज़िन्दगी मेरी....

पड़ोस में जवां मौत हो गयी है...
घर उनका उजड़ सा गया है...
पर...बच्चे मेरे की शादी है...
ढोल बज रहा है...मैं नाच गा रहा हूँ....
अपने को बना रहा हूँ... यां शायद
दर्द भरी चीखों से डर रहा हूँ...
कुछ समझ नहीं पाता हूँ…

ताज़ा सुन्दर से फूल लिए..मंदिर जा रहा हूँ…
सामने एक मासूम..फूल सा कोमल बच्चा…
चुप्पचाप सा...आँखों में अनगिनत सवाल लिए...
पर मैं बिना कुछ बोले....निकल जाता हूँ...
भगवान् को "दे" कर भी मैं खुश नहीं रह पाता हूँ...
कुछ समझ नहीं पाता हूँ…

अभी अभी सब्जी मंडी में....
एक "बूढी औरत" से..प्याज का भाव पूछता हूँ...
शायद कहीं कम भाव में मिलें..आगे बढ़ जाता हूँ...
वापिस आ के पाता हूँ वो "बूढी औरत"...
अपनी ज़िन्दगी का हिसाब कर निकल चुकी है...
और मैं अपना हिसाब करने बैठ जाता हूँ...
कुछ समझ नहीं पाता हूँ….

कभी लगता है दो कदम पे मंज़िल मिल ही जाएगी...
मीलों भागता हूँ फिर नाउम्मीद वापिस लौट आता हूँ...
छाँव में भी तपती रेत का अहसास होता है...
मन में अजीब सी प्यास का ऊफान उठता है...
शायद स्वाति बूँद की तलाश है मुझको..
पर....कुछ समझ नहीं पाता हूँ....
बहुत ही काटा पीटी सी ज़िन्दगी है मेरी...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
१६.०१.२०१९
यहाँ तलाश हर किसी को है, बडे ही हसीन और सुनहरे से भविष्य की |

यही तो बस चाहत यहाँ हर किसी को है , सुन्दर से और सुहाने आशियाने की |

मुठ्ठी में हर कोई करना चाहता खुशी को है,चाहत यही है बस झूमती बहार की |

बस यही इंतजार यहाँ सब आँखों को है,हो अपनी दुनियाँ सपनों के तासीर की |

इल्म कहाँ पर होता अजनबी जहान को है, आपके ख्वावों की आपके सरूर की |

यहाँ पर अधिकार मिला तो बस वक्त को है, जरूरत हमें हैं बस वक्त से प्यार की |

वक्त का इशारा हर समझदार को है, जागते रहो दुनियाँ नहीं नींद के खुमार की |

यहाँ पर प्यार की जरूरत तो सभी को है, प्यार ही में छुपी है दुनियाँ बहार की |

तलाश मेहनत की सफलता को है, चरितार्थ कर पुरुषार्थ को होगी तेरी गली बहार की |

यहाँ तलाश तुष्टि की हर एक भूख को है, जरूरत है यहाँ बड़े ही संयत व्यवहार की |

सत्य की तलाश यहाँ जीवात्म को है, होती है जरूरत यहाँ सदा भक्ति सदाचार की |

अनवरत तलाश यहाँ हर आदमी को है, हमें चाहिए क्या जरूरत सोच और विचार की |

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,

दैनिक कार्य स्वरचित लघु कविता
दिनांक 16.1.2019
दिन बुधवार
विषय तलाश
रचयिता पूनम गोयल

आज लगभग
है हर किसी को ,
किसी -न-किसी 
की तलाश ।
जिसे लेकर
घूम रहा ,
हर कोई बदहवास ।।
होगी पूरी ,
कभी तो यह तलाश ।
भटक रहा व्यक्ति हरदम ,
लिए हृदय में आस ।।
इसी आस पे ,
टिकी है दुनिया ,
और टिकी ,
सबकी तलाश ।
मिलेंगी ढेरों ख़ुशियाँ ,
जब हो जाए 
पूरी तलाश ।।


तलाश है मुझे,
जो शांत करे मेरे मन को,

उस ख्याल की तलाश है ।

दूर जा बैठा जो मुझसे,
उस सच की तलाश है ।।
नही जीना इस रंग-बिरंगी तह में,
लिपटे झूठ के साथ,

तलाश है, हां मुझे तलाश है,
उस नङ्गे सच की,
जो मुझे मेरा अक्स दिखा दे,
जो मुझे मेरे कल से मिला दे ।।

चमकते रेत सा झूठ नही चाहिए,
वो नीरस सी रंगहीन बालू(मिट्टी),
सा सच चाहिए ।
जिस पर कमसेकम पकड़ तो हो मेरी,
जिसमे बना सकूँ तेरा वही पुराना अक्स।।

नही चाहिये चमकता रेत,
जो कण कण, क्षण क्षण रिसता रहता है
बन्द मुट्ठी से भी,
चिढ़ाता सा हरपल ,

तलाश है मुझे उसी रंग रूप उसी अक्स की,
लौटा दो कान्हा मेरे उससे पहले की मै टुटके बिखरुं,
लोटा दो मेरे बीते दिन।।

तलाश है फिर मुझे ,उसी श्वेत रंग की,
जो पहले की तरह मुझको खुद में समाहित कर ले ।।
इन्दु विश्वजीत राठी


जिन्दगी गुजर जाती है
तलाश में 
कुछ तलाश होती है
जरूरी और 
कुछ माया मोह लिए 

पढाई के समय 
स्कूल कालेज की तलाश 
फिर रोजगार , नौकरी की तलाश

आगे शादी मे 
वर को वधू की
वधू को वर की तलाश
मकान कार की तलाश 
औलाद की तलाश 
अब
बुढापे में बच्चों के 
आसरे की तलाश
एक छोटे से ठोर की तलाश
मिल जाए तो ठीक
नहीं तो वॄध्दाश्रम की तलाश

तलाश में गुजरती जिन्दगी को
लग जाता है विराम तब
जब श्मशान घाट में विश्राम 

स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल

यह जगत,
दुख और सुख का,

भलाई बुराई का,
मिश्रण मात्र,
सुख की तलाश में,
तुम मत भटकों,
वेदान्त कहता,
तुम्हारे कर्मफल के लिए,
क्षुद्र देवताओं को,
उत्तर दायीनही बताता,
वेदान्त कहता,
तुम स्वंयही,
अपने भाग्य का निर्माता बनो,
तुम अपने ही,
कर्म के अच्छे बुरे,
दोनों प्रकार के फल का भोग करो,
कर रहे हो,
अपने हाथों से,
अपनी आंखों मूंद कर,
अंधेरा कह रहे हो,
हाथ हटा कर देखो,
प्रकाश दिखाई देगा,
चक्षु ग्राहृय,
बाहृयअपवित्र,वस्तु में लिप्त नहीं होना।
दुख का कारण बनेगा।।
देवेन्द्र नारायण दास बसना,छ,ग,।।


तलाश का आधार है 
कुछ पाने की चाहत 
चाहतें पनपती मन में
जीवन के हर मोड़ पर
शुरू होती तलाश
मुट्ठी में आस्मां भरने की
भटकता मन 
खोजता स्व को
करता खुद की तलाश
अपनी खुशियों की खोज
सुंदर घर,परिवार की चाहत
गगन छूने
चाँद तारे तोड़ने की ख्वाइश
सफलता हर क्षेत्र में
पाने की चाहत
कल्पना में डूबा मन
सुख के सागर में 
हिचकोले खाता
तलाशता है
ख्वाबों की ताबीर
कभी बावरा मन
भटकता सत्य की खोज में
पग के कण्टक 
अनदेखे कर
जंगलों, सहरा में भटकता
ईश्वर की खोज में
समाधि में लीन
वर्षों तप करता
और कभी तड़पता मन
ढूंढता सच्चा प्यार
इस संसार के महा सागर में
ढूंढता निष्पाप चेहरे
हृदय में बहती 
निर्मल धारा की 
करता खोज
पूरी न होती
फिर भी तलाश
चलती अनवरत

सरिता गर्ग
स्व रचित

तलाश मेरी
अब तक अधूरी
ढूढूं इंसान।।


तलाशूं इमां
थक हार के बैठा
नतीजा शून्य।।

खोजता शांति
हाट बाट भटका
कहीं न मिली।।

कैसी तलाश
एक अतृप्त प्यास
सत्ता की भूख।।

मोक्ष तलाशे
धर्म कर्म संयम
सन्यासी पस्त।।

भावुक

वार : बुधवार 
शब्द है : तलाश

ज़िन्हे खुदा की तलाश थी उन्हे खुदा मिला ! 
ज़िन्हे कारवां की तलाश थी उन्हे कारवां मिला !! 

मैं सब्र की भंवर में भटक गया इस तरह.., 
खुदा मिला न मुझे यारों कारवां मिला ! 

ज़िन्हे खुदा की तलाश .....!
ज़िन्हे कारवां की तलाश ...!!

वफा के नाम से शिकायत है मुझे यारों ,
बे -वफा ज़िन्दगी वो भी बे - वफा मिला !

ज़िन्हे खुदा की तलाश ......!
ज़िन्हे कारवां की तलाश ...!!

चन्द पक्तियां गजलों की थी उस महफिल मे, 
चन्द पक्तियों में अपनी ज़िन्दगी ऐ नगमा मिला !

ज़िन्हे खुदा की तलाश ......!
ज़िन्हे कारवां की तलाश ...!!

ज़िन्दगी की चाह नही मौत की परवाह नही ,
इश्कबाज़ में मुझे नुक्शा यही मशवरा मिला ! 

ज़िन्हे खुदा की तलाश थी उन्हे खुदा मिला ! 
ज़िन्हे कारवां की तलाश थी उन्हे कारवां मिला !!

स्वरचित एवं मौलिक 
मनोज शाह मानस 
सुदर्शन पार्क 
मोती नगर ,नई दिल्ली

प्रस्फुटित कभी चन्द्रकिरण
मन की कुलाँचे जैसे हिरन

शुष्क मन, पतझड़ उपवन
बिखरा-बिखरा सा आँगन
गुमशुम सी है राग-रागिनी
कुंद पड़ गयी जैसे चाँदनी
ये चाँद तो हरदम छलता है
मन आज फिर मचलता है
अरे चाँद होकर कैसे जिऊँ
निज सुधा सरस कैसे पियूँ
चाँद भी कहाँ स्वपोषित है
परवश,अशक्त,अघोषित है
तरु का कब पोषण करता
विरह वैरी,ये शोषण करता
तुम सूरज बनकर आ जाते
तन-मन-गगन पर छा जाते
रोमकण-पर्ण हरित तलाश
प्रकाश-संश्लेषण की आस
खिलते प्रसून मन उपवन में
हरीतिमा-सी होती जीवन में
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

अज्ञानी मन तलाश रहा उसको
मस्जिद और गुरुद्वारे मे,
चौखट चौखट वो भटक रहा,
गिरजाघर ,देवालय मे,
पर खोज न पाया वो, उसको
मन माहीं ढूंढ रहा था जिसको।
कर्तव्य निष्ठ हो,
सेवा का भाव लिए,
मन की आंखों से झाँका जब,
अपने अन्तरमन मे,
वहीँ विराजा था वो, 
जिसे तलाश रहा बरसों से।
तलाश जो हुई पूरी
तमस मन का मिटा लेंगे
मूरत उसकी दिल में बसा
कर्म पवित्र कर लेंगे ।

अनिता सुधीर 
लखनऊ

तलाश है मुझे, हर उस लम्हा का
जो दिलाये मुझे, मेरे खुशी का एहसास
कौन हूँ मै,क्यों आई इस धरा पर
समझ सकी न मैं इसे अब तक।

जैसे हुआ अर्जुन को गीता का ज्ञान
उसी तरह दो मुझे प्रभु आत्मज्ञान
उम्र निकल गई अब तो आधी
तलाश अस्तित्व का अभी भी है जारी

माँ हूँ मै,बहना हूँ मै
अर्धागिंनी हूँ मैं, अपने सजन की
समझ सकी न मैं एक सच को
वास्तविक उद्देश्य अभी भी जारी

जब हो साक्षात्कार प्रभु तुमसे
तभी होगा तलाश मेरा पूरा
जब तक है जीवन धरा पर
तब तक है तलाश अधूरा।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

मैं और मेरी तलाश 

हर पल मन के दर्पण में ख्वाब सजाती हूँ 

मन की आँखों से कुछ ख्वाब देखती हूँ 
कभी तन्हाई में हँसती हूँ कभी मुस्कराती हूँ 
ऐ जिंदगी हर लम्हा तेरी तलाश करती हूँ .

दिल में कुछ अनकहे से अहसास हैं 
कुछ अनदेखे से ख्वाब हैं 
जिंदगी की इस भागदौड़ में हर पल जीवन का एक नया रंग देखती हूँ 
फिर भी जिंदगी की एक नये ढंग से तलाश करती हूँ .

सारी जिंदगी बीत गई हैं 
जिंदगी की तलाश करते करते 
जिंदगी की इस ताने बाने से भरी उलझन में 
इस जिंदगी की फिर भी तलाश करती हूँ .
स्वरचित:- रीता बिष्ट

कविता 
तलाश ही तलाश 
किसी को हमदम की, 
सरगम -संगम
धन-वैभव 
रूप-सौन्दर्य
जीवन संगिनी-साथी
जमीन जायदाद
जीवन की मयाद
ईश्वर से फरियाद 
कंकड़ मे़ं हीरा 
ऊँट के मुँह से जीरा ।
सुख- चेन, नैन, नेह, 
तो कोई निरोगी देह, 
माँ-बाप की तो कोई
कर रहा औलाद की तलाश, 
सातवें आसमान पर मंजील 
क्या मीला खाक?
ज़क मार रहा हैं अभीतक, 
ढाक के तीन पात! 
अच्छे जीवन की तलाश 
जिंदा लाश
क्या तलाश लेगा ईश्वर को ! 
उस जगत नियंता सर्वेश्वर को ? 
यह सब बैकार ही गया , 
इस खोज मेंं मर गया । 
सभी बैकार हैं यहाँ तलाश! 
साकार सपने हो सकते हैं , 
करें तो सही अपनी तलाश! 
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 'निश्छल'
,

कुछ तो है जिसकी 
तलाश है,
कुछ तो है जो नहीं
पास है।
कुछ तो है जो बैचेन
करता है,
कुछ तो है जो मन
भटकता है।
कुछ तो है जिसकी
जीवन में कमी है,
कुछ तो है जो आंखों
में नमी है।
कुछ तो है जो मैं पाना
चाहती हूं,
कुछ तो है जो मैं ढूंढती
रहती हूं।
कुछ तो है जिसके बिना
जीवन उदास है,
कुछ तो है जिसकी मुझे
तलाश है।
कुछ तो है जिसके बिना
सुख अधूरे लगते हैं,
कुछ तो है जो सूने सांझ-
सवेरे लगते हैं।
ये कुछ क्या है जिसकी
अंतहीन तलाश है,
ये कुछ पता नहीं किसके
पास है।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

विधा:हाइकु
1
'तलाश' जारी
आतंकवादियों की
कश्मीर वादी
2
आध्यात्मिक को
'तलाश'स्वयं की है
परम ज्ञान
3
विद्दार्थियों को
'तलाश' नौकरी की
जीवन लाभ
4
'तलाश'करे
पुलिस मुजरिम
दण्ड विधान
5
न्याय की आशा
'तलाश'व्यथित को
न्यायालय से
6
सभ्य मानव
'तलाश' समाज को
राष्ट्र निर्माण

मनीष श्रीवास्तव
स्वरचित
रायबरेली

"तलाश"
है अनंत तलाश
उम्र का हर पड़ाव
शिशु नजर की तलाश
माँ की झलक
नारी की तलाश
मातृत्व एहसास
माँ की तलाश
संतान की मुस्कान
पिता की तलाश
संतान की प्रतिष्ठा
बालमन की तलाश
आसमान की ऊँचाइयाँ
किशोर की तलाश
हासिल हो मुकाम
यौवन की तलाश
सुनहरा सा संसार
वृद्धावस्था की तलाश
संतान की सेवा भाव
मिल जाए काश!
हर कलि को है तलाश
भँवरे की गुँजन
धनाढ्य की तलाश
दौलत हो पास
भक्त की तलाश
हरि चरण 
नेक इंसान की तलाश
सम्मान हो साथ
देशभक्त की तलाश
शान से लहराता तिरंगा

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल

विधा=हाइकु 
==========
(1)भ्रूण में हत्या- 
और कर रहा है 
बहू तलाश 
🌹🌹🌹
(2)कुंभ का स्नान
रिश्वत की मुद्रा से-
शांति तलाश
🌹🌹🌹 
(3)दिल में झांक 
बाहर न तलाश 
ईश है पास 
🌹🌹🌹
(4)तलाश मंत्र-
मानव हर वक्त 
प्रगति पथ
🌹🌹🌹
(5)मिले ना मिले
होता नहीं अफ्शोश 
किया तलाश 
🌹🌹🌹
स्वरचित 
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश 
🌺क्षणिका🌺

1)
तलाश न कर
निर्मुल अपेक्षाएं ,
चक्षुओं को खोल
आकार लेती उम्मीद,
जो बढ गई दिन रात ।

2)
तलाश एक आकाश
उडजा वहाँ स्वछंद,
उनमुक्त हवाओं मे,
जो तेरा अपना हो
आकाश , उडाले
उम्मीद जो डूब
गई मन के 
रसातल में

स्वरचित

नीलम शर्मा#नीलू

--- --- --- --- ---
तलाश किसी की 
पूरी नहीं होती
कोई न कोई आस
अधूरी रहती
किसी को रहती 
प्यार की तलाश
कोई किसी से 
मिलने को बेकरार
पैसों पर बैठे हैं 
पर पैसों की तलाश है
गरीब घर में भूखे हैं
रोटी की तलाश है
बच्चे तलाशते रहते 
चारदीवारी में अपने
गुम होते बचपन 
की मस्ती को
माँ-बाप बुढ़ापे में 
ढूंढते बच्चों के साथ
कुछ सुकून के 
पलों की तलाश
तलाशते रहते हैं 
सभी सुकून पर किसी 
को मिलता नहीं कहीं
हरदम सभी को रहती
अपनेपन की तलाश
बचपन से जवानी तक सब
करते कुछ न कुछ तलाश
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना 


अपने आपको तलाश रहा हूँ मै।
लगता जैसेै कहीं खो रहा हूँ मैं।
मेरा अस्तित्व दिखाई नहीं देता,
क्यों बदहवास सा हो रहा हूँ मै।

अंतर्द्वंद्व मनमानस में चल रहा है।
कुछ अजीब मानस में पल रहा है।
तलाश अभी पूरी नहीं हो सकी मेरी,
अपना बजूद अंतस में खल रहा है।

चाहता हूँ तलाश करता रहूँ अपनी।
जीवनभर गति से चलता रहूँ अपनी।
ईशाशीष मिलता रहे सदैव मुझको,
सदकर्मों से झोली भरता रहूँ अपनी।

स्वरचितःःः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.

--तलाश है----

पता नहीं लग रहा 
क्या से क्या हो रहा
जिम्दारियों के दलदल में
और धंसा जा रहा
बचपन के उस सुकून की
मुझे तलाश है 

ना अपने लिए समय है
न अपनों के लिए
आँखें भी तरसती है
अब सपनों के लिए 
जवानी के उस जुनून की 
मुझे तलाश है 

शिष्टाचार परोपकार की भावना
बड़े-बुजुर्गों का सम्मान हो
भय मुक्त वातावरण मिले
नारी का न अपमान हो
रगो में ऐसे खून की
समाज को तलाश है

देश सेवा हो सर्वोपरि
देश के लिए कुर्बान हो
समृद्ध राष्ट्र बने मेरा भारत
और विश्व में पहचान हो
एक ऐसे अफलातून की
देश को तलाश है
तलाश है....

स्वरचित
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा सिरसा (हरियाणा)

ऐ वक्त ठहर ज़रा 

आ लिख दूँ 
सीने पर नाम तेरा 
बाँध लूँ तुझे मुठ्ठी में 
मोड़ दूं तेरा रुख 
नदी की धाराओं की तरह
सतत अविरल
प्रवाहित कर दूँ 
उस ओर 
जहाँ मुकम्मल आकाश हो
मन पंछी उन्मुक्त कलरव करता हो
मरोड़ दूँ अपने सख्त कदमों तले रौंद कर

मांसाहारी चीलों के आघाती डेने 
और 
एक सुखद माहौल का जन्मदिन मनाऊँ ।

तुझे भी एक चिर शान्ति की तलाश है 
और मुझे भी अटूट प्यास।
ओ समय !
ठहर जरा 
मुझे हस्ताक्षर करने दे 
तेरी छाती पर।

सुधा शर्मा 
राजिम छत्तीसगढ़ 16-1-2019

तलाश एक अनवरत सिलसिला

किसे क्या मिला क्या नही मिला ।।
यहाँ पर हर एक शै मायूस उदास
चमन का हर फूल है अधखिला ।।

चाँद को चकोर की
साँझ को भोर की ।।
तलाश सदियों से है
मोरनी को मोर की ।।

एक गरीब को धन की 
धनवान को शांत मन की ।
विचित्र प्रक्रिया ''शिवम"
अनूठी कहानी जीवन की ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"

स्वरचित 16/01/2018
"न जाने किसकी तलाश..."

मृग मरीचिका जग की 
स्वयं से हो के बेखबर
प्यासी ही रहती आस 
न जाने किसकी तलाश...

पा कर भी कुछ पा न पाए 
हाथ का सुख पहचान न पाए 
सफलता के शिखर पे बैठ 
मन क्यूँ दिखे उदास 
न जाने किसकी तलाश...

जीवन की रंगीन फिजायें 
रिक्त हृदय ये भर ना पाए 
प्रश्न अधूरे, सत्य अधूरा 
अधूरी ज्ञान की प्यास 
न जाने किसकी तलाश...

कगार पे आकर भी 
मोह छूटा न माया छूटी 
वक़्त बहा के ले गया 
जीवन को मौत के पास 
न जाने किसकी तलाश...

स्वरचित 
ऋतुराज दवे
परायों में अपनों की तलाश 
खोये हुए सपनों की तलाश 
एक सफर चलता निरंतर 
समाप्त होती नहीं तलाश। 

भूखा तलाशे रोटी को 
पेट की अगन मिटाने को 
निर्धन की तलाश है धन 
संम्पन ढूंढे संतोष मन 
एक सफर चलता निरंतर 
समाप्त होती नहीं तलाश। 

बचपन खोजे मैदान खाली 
खेलें और मारे किलकारी 
युवा तलाश रहा रोजगार 
ढूंढे सपनो का संसार 
एक सफर चलता निरंतर 
समाप्त होती नहीं तलाश। 

खाली मकान है चोर की तलाश 
और पुलिस बिछाये जाल 
प्यासा तरसे पानी को 
भुगते अपनी करनी को 
एक सफर चलता निरंतर 
समाप्त होती नहीं तलाश। 

तलाश की शृंखला लम्बी बहुत है 
सभी को तलाश की जरूरत बहुत है। 
बबिता "सहर "

पड़ा हुआ घट मन का ख़ाली , 
ढूँढ रही मैं कुछ बाहर उसके ।
रहती भरी है एक शून्यता ,
मन क्यों भटके बाहर उसके ।

जब से होश संभाला मैंने , 
भटक रही हूँ मैं तलाश में ।
नभ को बैठी रहूँ निहारती , 
नहीं जानती किसकी आश में । 

सो जाती हैं आँखें तन की , 
करे न मन की आँखें विश्राम ।
कहाँ सोचती कहीं ढूँढती , 
आठ पहर नहीं करें आराम ।

खुली आँखों से देखना चाहूँ ,
करती रहूँ व्यर्थ ही प्रयास ।
दिखे नहीं वह जगत नियन्ता ,
केवल होता जिसका अहसास ।

हो केवल अनुभव आनंद का ,
जड़ चेतन समरस हों सारे ।
कोटि भास्कर भासित हों जहाँ,
मिलन को आतुर हों नभ तारे ।

स्वरचित :-
ऊषा सेठी
सिरसा ( हरियाणा )

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