कुसुम कोठारी।


भावों के मोती
31/1/20
विधु का रूप मनोहर
ये रजत बूटों से सुसज्जित नीलम सा आकाश,
ज्यों निलांचल पर हिरकणिका जडी चांदी तारों में,

फूलों ने भी पहन लिये हैं वस्त्र किरण जाली के,
आई चंद्रिका इठलाती पसरी लतिका के बिस्तर में।

विधु का कैसा रुप मनोहर तारों जडी पालकी है,
भिगोता सरसी हरित धरा को निज चपल चाँदनी में ।

स्नान करने उतरा हो ज्यों निर्मल शांत झील में
जाते-जाते छोड़ गया कुछ अंश अपना पानी में ।

ये रात है या सौगात है अनुपम कोई कुदरत की,
जादू जैसा तिलिस्म फैला सारे विश्व आंगन में।।
स्वरचित

कुसुम कोठारी ।

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भावों के मोती
30/1/2020

मधुबन में बसंत
आज न कोई आना मधुबन में
आज लग्यो मधुमास सखी ,
आज नव मधुमास की
है सुरभित मधु वात सखी,
किसलय डोले कमल दल खिले
भ्रमर करे गूँजार सखी,
कच्ची कली कचनार की
झूमे मलय संग आज सखी ,
स्वर्ग से देव -देवी आये
ऐसी शोभा मन भाये सखी,
सुरपति आज बरसावे
सुरभित पारिजात सखी,
तारक दल शोभित अंबर
चंद्र अनुराग गुलाल सखी,
कृष्ण नही पाहन
वो राधा की श्वास सखी,
चिनमय चिदानँद माधव
बृषभानु सुता श्रृंगार सखी,
आज न कोई आना मधुबन में
आज राधा संग कृष्ण रचाये रास सखी ।।

स्वरचित
कुसुम कोठारी।
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भावों के मोती
29/1/20
विषय-बसंत

स्वागत करो नव बसंत को
गावो मंगल गान सखी री।

आवो सखी आई बहार बसंत
चहूं और नव पल्लव फूले
कलियां चटकी
मौसम में मधुमास सखी री ,

तन बसंती मन बसंती
और बसंती बयार
पादप अंग फूले मकरंद
मुकुंद भरमाऐ सखी री ।

धानी चुनर ओढ के
धरा का पुलकित गात
नई दुल्हन को जैसे
पिया मिलन की आस सखी री,

स्वागत करो नव बसंत को
गावो मंगल गान सखी री ।।

आवो सखी आई बहार बसंत ।
स्वरचित
कुसुम कोठारी ।

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भावों के मोती
29/1/2020

बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं ।
वागीश्वरी स्तुति
वंदन करूँ तुझ पाद कमल मैं
माँ मेधा से भर दे झोली ,
अगनित शीश झुके तेरे आगे
मेरा नमन भी स्वीकृत करले ,
धवल वसन मनोहर झांकी
तक-तक आँख निहाल ,
हाथ में वीणा वरद-हस्त
कुमुद पुष्प आसन विराज,
भजन न जानु दीप न चासूँ
फिर भी माँगू विद्या दान ,
तुझ चरण पखारूं वागीश्वरी
दे-दे विनय का वरदान ,
जासे मैं मूरखा भी तोरे नाम
लिख डारूँ भजन सुजान
माँ मेधा ......।।

स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
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भावों के मोती
26/1/20

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
गणतंत्र दिवस और उदास तिरंगा
तीन रंग का पहने बाना
फहरा रहा जो शान से !
आज क्यों कुछ ग़मगीन !
जिस गर्व से था फ़हरा ,
जो थे उद्देश्य ,
सभी अधूरे , ढ़ह रहे मंसूबे ,
लाखों की बलिवेदी पर
लहराया था तिरंगा !
क्या उन शहीदों का कर्ज चुका पाये?
सोचो हम जो श्वास ले रहे
स्वतंत्रता की वो हवा कहाँ से आई ,
कितनी माँओं ने सपूत खोये ,
कितनी बहनों ने भाई ।
आज स्वार्थ का बेपर्दा होता खेल,
भ्रष्टाचार,आंतक,दुराचार का दुष्कर मेल,
आज चूड़ियाँ छोड़ हाथ में
लेनी है तलवार,
कोई मर्म तक छेद न जाये,
पहले करने होंगें वार,
आजादी का मूल्य पहचान लें
तो ही खुलेंगे मन के तार ,
हर तरह के दुश्मनों का
जीना करदो दुश्वार,
आओ तिरंगे के नीचे हम
आज करें यह प्रण प्राण,
देश धर्म रक्षा हित
सब कुछ हो निस्त्राण ।
स्वरचित

कुसुम कोठारी ।
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भावों के मोती
25/1/2020

गणतंत्र दिवस से पहले
गणतंत्र दिवस पर एक बार
फिर तिरंगा फहरायेगा ,
कुछ कश्में वादे होगें
कुछ आश्वासनों का परचम लहरायेगा ।
हम फिर भ्रमित हो भुलेंगे,
प्रजातंत्र बन गया लाठी वालों की भैंस ,
और देश बन गया मूक बधिरों का आवास ,
लाठी वाले खूब अपनी भैंस चरा रहे
हम पंगू बन बैठे गणतंत्र दिवस मना रहे ,
ना जाने देश कहां जायेगा
हम जा रहे रसातल को ,
यद्यपि दीन-दुखी ग़ारत है
विश्व में फिर भी सर्वोच्च भारत है,
गाना नही, अब जगना और जगाना है,
ठंडे हुवे लहू को फिर लावा बनाना है ,
मां भारती को सच में शिखर पर पहुंचाना है ,
मज़बूत इरादों वाला गणतंत्र दिवस मनाना है ।
स्वरचित

कुसुम कोठारी ।
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भावों के मोती
24/1/2020
नवगीत
१६ १०मात्रा।

सर के ऊपर टूटी टपरी
नही और दावा
उर की पीड़ा बाहर फूटे
बहती बन लावा ।।

सारा दिन हाड़ों को तोड़ा
जो भी काम मिला,
कभी कीच या रहे धूल में
मिलता रहा सिला ,
अवसादो के घन गहराते
साथ नही मितवा ।
उर की पीड़ा बाहर फूटे
बहती बन लावा ।।

नियती कैसा खेल खेलती
कैसी ये माया
कहीं बहारों के हैं मेले
कहीं दुःख छाया
दुनिया ये आनी जानी है
झूठा दिखलावा।
उर की पीड़ा बाहर फूटे
बहती बन लावा ।।

आग सुलगी हृदय में ऐसी
दहके ज्यों ज्वाला
बन बैठी है लाचारी अब
चुभती बन भाला
निर्धन कितना बेबस होता
सत्य यही कड़वा ।
उर की पीड़ा बाहर फूटे
बहती बन लावा।।
स्वरचित

कुसुम कोठारी।

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भावों के मोती
23/1/2020

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के जन्मदिवस पर देशवासियों को आह्वान ।
विजय शंख का नाद था गूंजा
वीरों की हुंकार भी गरजी,
देश भक्ति का भाव जगाया
मिटा के सब की ख़ुदगर्ज़ी ।

आह्वान है आज सभी को
उठो चलो प्रमाद को त्यागो,
मां जननी अब बुला रही
वीर सपूतों अब तो जागो ।

आंचल मां का तार हुवा
बाजुु है अब लहुलुहान,
क्या मां की आहुती होगी?
या फिर देना है निज प्राण ।

घात लगाये जो बैठे थे
खसोट रहे वो खुल्ले आम
धर्म युद्ध तो लड़ना होगा
पीड़ा भोग रही आवाम ।

पाप धरा का हरना होगा ,
आज करो ये दृढ़ उदघोष
जागो तुम और जगा दो
जन-जन के मानस में जोश ।

स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
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भावों के मोती
21/1/2020

"चाँद बादल की लुका छिपी"
आज चाँद के नूर पर देखो
फिर बदरी सी छाई है ,
मौसम है कुछ महका-बहका
चंद्रिका घूंघट ओट कर आई है ,
क्या पीया मिलन को जाना है
जो यूं सिमटी सकुचाई है ,
अँखियां ऐसे झुकी कि
जैसे पहली मिलन रुत आई है ,
कभी छुपाये खुद को
बादल के मृगछौनो में ,
कभी झांकती हटा-घटा
घूंघट के कोनो से ,
निशा , चूनर तारों वाली
झिलमिल-झलकाती है ,
और कभी नीला-नीला
अपना आंचल लहराती है ,
आज बादलों ने देखो
चाँद से खेली छुपम छुपाई है ।
स्वरचित

कुसुम कोठारी 
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भावों के मोती
१९-१-२०२०

कुसुम की कुण्डलियाँ-७
२५विषय :- कोयल
छाया अब मधुमास है , गाये कोयल गीत ,
कितनी मीठी रागिनी , घर आए मनमीत ,
घर आए मनमीत , मधुमास मधु भर लाता ,
पुष्पित है हर डाल , भ्रमित भौंरा भरमाता ,
कहे कुसुम ये बात , आज बसंत मुस्काया ,
तरुण हुवा हर पात , बाग पर यौवन छाया।।

२६विषय :- अम्बर
बरसे है शशि से विभा , वल्लरियों के पात ,
अम्बर निर्मल कौमुदी , सजा हुआ है गात ,
सजा हुआ है गात , विटप मुख चूम रही है ,
सरित सलिल रस घोल ,मधुर स्वर झूम रही है,
विधु का वैभव दूर , निरख के चातक तरसे ,
जलते तारक दीप , धरा पे ज्योत्स्ना बरसे ।।

२७विषय-अविरल
अविरल घन काले घिरे , छाये छोर दिगंत ,
भ्रम है या जंजाल है , दिखे न कोई अंत ,
दिखे न कोई अंत , गूढ़ गहराती मिहिका ,
बची न कोई आस , त्रास में घिरी सारिका ,
कहे कुसुम ये बात , राह कब होगी अविचल ,
सुनें आम की कौन , हुआ जग जीवन अविरल ।

२८ विषय- सागर
सागर में उद्वेग है , सूर्य मिलन की चाह ,
उड़ता बन कर वाष्प वो , चले धूप की राह ,
चले धूप की राह , उड़े जब मारा मारा ,
मृदु होता है फिर , झेल प्रहार बेचारा ,
कहे कसुम ये बात ,सिंधु है जल का आगर ,
कुछ पल गर्वित मेघ , फिर जा मिलता सागर ।।

स्वरचित
कुसुम कोठारी

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भावों के मोती
17/1/20

नवगीत १६/१४
पिपासा

कैसा तृष्णा घट भरा-भरा
बूंद - बूंद छलकाता है ,
तृषा, प्यास बस जीवन छल है
क्षण -क्षण छलता जाता है ।

अदम्य पिपासा अँतर तक जो
गहरे उतरी जाती है,
दिखलाती कैसे ये सपने
पूर्ण हुवे भरमाती है,
जीवन मूल्यों से भी गिराता
अकृत्य भी करवाता है,
कैसा तृष्णा घट भरा-भरा
बूंद - बूंद छलकाता है ।।

द्वेष, ईर्ष्या की सहोदर है
उच्च भाव भुलवाती है,
तृष्णा मोह राग की जाई
बंधन जकड़े जाती है ,
निज स्वरूप को जिसने समझा
सत-पथ राह लुभाता है,
कैसा तृष्णा घट भरा-भरा
बूंद - बूंद छलकाता है ।।

स्वरचित
कुसुम कोठारी
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भावों के मोती
१६/१/२०

परिवर्तित जलवायु और पर्यावरण।
परिवर्तित जलवायु देखकर,
आज निहत्थे खड़े सभी ।

जो मेघों का सँतुलन बिगड़ा
नदियां हो गई कृष काय
सूरज तपता ब्रह्म तेज सा
धरती पुरी जलती जाय ।

धधक-धधक कर जलते उपवन
कंक्रीटों का जाल अभी
परिवर्तित जलवायु देखकर
आज निहत्थे खड़े सभी।

हिमनद सारे पिघल रहे हैं
दरक रहे हैं धरणीधर
सागर बंधन तोड़ रहे हैं
नीर स्तर भी हुआ अधर ।

क्या होगा जाने जग जीवन
संकट में है जान सभी
परिवर्तित जलवायु देखकर
आज निहत्थे खड़े सभी।

बेमौसम बरसातें ओले
प्रलयंकारी बाढ़ बढ़ी
खेती बंजर सूखी धरती
असंतुलन की धार चढ़ी।

पर्यावरण की हानि होती
सुधरे ना हालात कभी
परिवर्तित जलवायु देखकर
आज निहत्थे खड़े सभी ।।
स्वरचित

कुसुम कोठारी।

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भावों के मोती
15/1/20

कुसुम की कुण्डलियाँ -६
२१
विषय-कुनबा
छोटा कुनबा हो चले , रहे प्रेम संचार ,
एक दूसरे के लिए , हो मन में बस प्यार ,
हो मन में बस प्यार , करें बातें हितकारी ,
सजता इससे धाम , सदा हो मंगलकारी ,
सुनो कुसुम की बात ,भाव न हो कभी खोटा ,
अन्तर तक हो प्रेम , सदन हो चाहे छोटा ।।

२२
विषय-पीहर
पारस पीपल पुष्प से , पंथ के हैं प्रमाण ,
पिता पितामह पूज्य है , पीहर प्रेम प्रणाम ,
पीहर प्रेम प्रणाम , पालते पालक पीड़ा ,
पलक पसारे प्राण ,प्रथम प्रधान का बीड़ा ,
पले कुसुम परिवार , प्रीत प्रबंध हो पावस ,
परस प्रेम परिणाम ,प्रथम प्रतिपादित पारस।।

२३
विषय- पनघट
पनघट आई गूजरी , चंदन महका आज ,
बहकी बहकी चाल है , आँखों में है लाज ,
आंँखों में है लाज , झूम मन नाचे गाए ,
द्रुम छेड़े नव राग , श्याम ज्यों बँसी बजाए ,
कहे कुसुम ये राज , पवन सँवारे केश लट ,
निज उलझा है जाल,देख ललिता को पनघट।

२४
विषय-सैनिक
सैनिक मेरे देश का , सदा हमारी आन ,
देश सुरक्षा वारता , अपना तन मन प्राण ,
अपना तन मन प्राण , पहनकर रखता वर्दी ,
करता है कर्तव्य , कड़क हो चाहे सर्दी ,
कहे कुसुम हो धन्य , कार्य उनका ये दैनिक ,
बनता पहरेदार , देश का रक्षक सैनिक ।।
स्वरचित
कुसुम कोठारी।

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भावों के मोती
14/1/20

नई दुलहन और उषा सौन्दर्य
दुल्हन ने अपनी तारों जड़ी चुनरी समेटी,
नींद से उठ कर
चाँद जैसे आभूषण
सहेज रख दिये संदूक में,
बादलों से निकलता भास्कर
ज्यों उषा सी नवेली
दुल्हन का चमकता चेहरा ,
फैलती लालीमा
जैसे मांग का दमकता सिंदूर,
धीरे-धीरे धूप धरा पर यों बिखरती
ज्यों कोई नवेली लाज भरे नयन लिए ,
मन्द कदम उठाती
अधर-अधर आगे बढती ,
पंक्षियों की मनभावन चिरिप-चिरिप
यूं लगे मानो धीर-धीरे बजती
पायल के रुनझुन की स्वर लहरी,
ओस से भीगे फूल
जैसे अपनो का साथ छुटने की
नमी आंखों में,
खिलती कलियाँ
ज्यों मंद हास
नव जीवन की शुरुआत का उल्लास।

स्वरचित।
कुसुम कोठारी ।
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भावों के मोती
13/1/20

तिमिर के पार जिजीविषा
दूर तिमिर के पार
एक आलौकिक
ज्योति-पुंज है,
एक ऐसा उजाला,
जो हर तमस पर भारी है
अनंत सागर में फसी
नैया हिचकोले खाती है,
दूर-दूर तक कहीं
प्रतीर नजर नही आते हैं,
प्यासा नाविक
नीर कीबूंद को तरसता है,
घटाऐं घनघोर,
पानी अब बरसने को
विकल है ,
अभी सैकत से अधिक
अम्बू की चाहत है,
पानी न मिला तो प्राणों का
अविकल गमन है,
प्राण रहे तो किनारे
जाने का युद्ध अनवरत है,
लो बरस गई बदरी
सुधा बूंद सी शरीर में दौड़ी है ,
प्रकाश की और जाने की
अदम्य प्यास जगी है ,
हाथों की स्थिलता में
अब ऊर्जा का संचार है,
समझ नही आता
प्यास बड़ी थी या
जीवन बड़ा है,
तृषा बुझते ही
फिर जीवन के लिये
संग्राम शुरू है,
आखिर वो तमिस्त्रा के
उस पार कौन सी प्रभा है ,
ये कैसी जिजीविषा है।

स्वरचित
कुसुम कोठारी।

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भावों के मोती
10/1/20

विश्व हिन्दी दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं।
हिन्दी और भारत
मेरे भारत देश का , हिन्दी है श्रृंगार ,
भाषा शीश की बिंदी , देवनागरी सार ,
देवनागरी सार , बनी है मोहक भाषा ,
बढ़े सदा यश कीर्ति , यही मन की अभिलाषा
अंलकार का वास, शब्द के अभिनव डेरे ,
हिन्दी को दो मान , ह्रदय में रहती मेरे ।।

स्वरचित
कुसुम कोठारी।
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भावों के मोती
10/1/20

कुसुम की कुण्डलियाँ ५
१७ -विषय- बाबुल
बाबुल तेरा अंगना ,छोड़ चली हूं आज ,
हाथ में मेंहदी रची , आंखों में है लाज
आंखों में है लाज , सजा सपने मतवाली ,
आज चली परदेश ,लाड़ से पलने वाली
कहे कुसुम ये बात , ब्याह कर भेजा काबुल ,
पूछे बेटी आज ,दूर क्यों भेजा बाबुल।

१८-विषय- भैया
राखी भेजी प्रेम से ,प्रेम भरा उपहार।
भैया यादों में रखो ,गूंथ पुष्प ज्यों हार।
गूंथ पुष्प ज्यों हार , सहेजे बहना तेरी
रखना मन में प्यार , यही विनती है मेरी,
कहे कुसुम ये बात , एक उपवन के पाखी
बहता है अनुराग ,भाव है सुंदर राखी।

१९ -विषय-बहना
बहना कहे उदास हो , छूटा अब परिवार ,
मां बाबा की लाडली , चली दूसरे द्वार ,
चली दूसरे द्वार , भरा नयनों में पानी ,
भ्राता कहे भर अंक , रहे तू बनके रानी ,
मैं तो तेरे साथ , मान तू मेरा कहना ,
यही जगत की रीत , खुशी से रह तू बहना ।

२० -विषय-सखियाँ
सखियाँ सुख की खान है , मीठा मधु रस पान ,
हिलमिल हँसती खेलती , एक एक की प्राण ,
एक एक की प्राण , खुशी में झूमे नाचे
करे कुंज में केलि , हाथ सुरंग रँग राचे ,
कहे कुसुम ये बात ,रखो पुतली भर अखियाँ,
ये जीवन का सार , जगत में प्यारी सखियाँ। ।।

स्वरचित
कुसुम कोठारी।

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भावों के मोती
9/120

खाके चोट पत्थरों की
गिरे हैं पहाड़ों से संभल जायेंगे तो क़रार आयेगा।
खाके चोट पत्थरों की संवर जायेंगे तो क़रार आयेगा।

नीले पहाडों से उतर ये जल धारे गिरते हैं चट्टानों पर
झरने बन बह निकले कल-कल तो क़रार आयेगा।

कहीं घोर शोर ऊंचे नीचे, फूहार मोती सी नशीली ,
विकल बेचैन ,मिलेगें सागर से तो क़रार आयेगा।

जिससे मिलने की लिये गुज़ारिश चले अलबेले
पास मीत के पहुंच दामन में समा जायेंगे तो क़रार आयेगा।

सफ़र पर निकले दीवानें मस्ताने गुज़र ही जायेंगे ,
लगाया जो दाव वो जीत जायेंगे तो क़रार आयेगा।

इठलाके चले बन नदी फिर बने आब ए- दरिया
जा मिलेगें ये जल धारे समन्दर से तो क़रार आयेगा ।

स्वरचित
कुसुम कोठरी।

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भावों के मोती
7/1/20

जली बाती खिले सपने
लहरा साँझ का आँचल श्याम
जली बाती ,खिले सपने।।

भाल निशा के चाँद चमकता
उपवन का कोना महका
खिली-खिली थी रजत चाँदनी
तारों का सुंदर डेरा
आशा पास सभी हो अपने
जली बाती खिले सपने।।

जीवन हो मधुबन सा सुंदर
भ्रमर गूँजाते चहुँ दिशा
गूँजे कोकिल कूक मनोहर
कमल खिले ताल-तलैया
मधुरिमा सौरभ लगी बहने
जली बाती खिले सपने।।

आँचल में तारे अब भरके
चारों औ उजियारे थे
क्षितिज कोर सिंदूर भरे से
मन मयूर भी नाचे थे
सतरंगी फाग लगा रचने
जली बाती खिले सपने ।।

लहरा साँझ का आँचल श्याम
जली बाती ,खिले सपने।।

स्वरचित
कुसुम कोठारी।
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भावों के मोती
1/1/20

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं
नवल ज्योति की धवल ज्योत्सना
स्वर्णिम रश्मियों से सज आई ,
विगत वर्ष को जाते जाते दे दें
देखो आज भाव भरी विदाई,
भूलें वो सब जो था दुखदायी ,
नव प्रभात का स्वागत करलें ,
अंजुली भर लें स्नेह धूप से ,
बांटे प्रेम भरी सौगातें , पीड़ा ले लें
कुछ फूल खिलादें, पेड़ लगादे ,
निर्बल निर्धन को सहारा दे दें ,
ऐसा मंजुल नव वर्ष मनालें ।।
स्वरचित

कुसुम कोठारी।
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भावों के मोती
30/12/19
नव वर्ष का नव विहान!

आओ सब मिल करें आचमन।
भोर की लाली लाई
आदित्य आगमन की बधाई ,
रवि लाया एक नई किरण
संजोये जो,सपने सब हो पूरण,
पा जायें सच में नवजीवन ,
उत्साह की सुनहरी धूप का उजास
भर दे सब के जीवन में उल्लास ।
आओ सब मिल करें आचमन।

साँझ ढले श्यामल चादर
जब लगे ओढ़ने विश्व!
नन्हें नन्हें दीप जला सब
प्रकाश बिखेरो चहुँ ओर ,
दे आलोक, हरें हर तिमिर,
त्याग अज्ञान मलीन आवरण
सब ओढ ज्ञान का परिधान पावन।
आओ सब मिल करें आचमन।

मानवता भाव रख अचल,
मन में रह सचेत प्रतिपल,
सह अस्तित्व ,समन्वय ,समता ,
क्षमा ,सजगता और परहितता
हो सब के रोम रोम में संचालन
सब प्राणी पाये सुख,आनंद
बोद्धित्व का हो घनानंद।
आओ सब मिल करें आचमन।

लोभ मोह जैसे अरि को हरा
दे ,जीवन को समतल धरा ,
बाह्य दीप मालाओं के संग
प्रदीप्त हो दीप मन अंतरंग
जीवन में जगमग ज्योत जले,
धर्म ध्वजा सुरभित अंतर मन
सब जीव दया का पहन के वसन ।
आओ सब मिल करें आचमन।।

स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
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भावों के मोती
29/12/19

एक ओस बूंद का आत्म बोध
निलंबन हुवा निलाम्बर से ,
भान हुवा अच्युतता का, कुछ क्षण
गिरी वृक्ष चोटी ,इतराई ,
फूलों पत्तों दूब पर देख ,
अपनी शोभा मुस्काई ।
गर्व से अपना रूप मनोहर
आत्म प्रशंसा भर लाया ,
सूर्य की किरण पडी सुनहरी
अहा शोभा द्विगुणीत हुई !
भाव अभिमान के थे अब उर्ध्वमुखी।
हा! भूल गई "मैं "अब निश्चय है अंत पास में ,
मैं तुषार बूंद नश्वर,भूली अपना रूप ,
कभी आलंबन अंबर का ,
कभी तृण सहारे सा अस्तित्व ,
पराश्रित ,नाशवान शरीर
या !"मैं "आत्मा अविनाशी
भूल गई क्यों शुद्ध स्वरूप अपना।

स्वरचित
कुसुम कोठारी।
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भावों के मोती
28/12/19

नव वर्ष एक सोच
जो एक पुरे साल नही बदलता
वो एक पल में नव होता
उस एक क्षण को
पार करने में साल गुजरता
सुख, दुख ,शोक ,चिंता अवसाद
सब अडिग से रहते
बस कैलेंडर बदलता
और सब नया हो जाता !!
अंक गणित का खेल सा लगता
नव शताब्दी क्या बदला ?
और बदला तो कितना अच्छा था ?
था कुछ खुशी मनाने लायक ?
या फिर एक ढर्रा था
हर वर्ष नव वर्ष आया फिर आयेगा
पता नही ये क्या गति जीवन की
कुछ हाथ ना पल्ले
वहीं खड़े जहां से थे चले।

जीर्ण शीर्ण हर सोच बदल दें
ये साल खुशियों से भर दें ।

स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
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भावों के मोती
27 /12/19
कुसुम की कुण्डलियाँ-२

५ पायल
पायल तो नीरव हुई , पाखी हुए उदास ,
कैसे में कविता लिखूं , शब्द नहीं है पास,
शब्द नही है पास ,हृदय कागज है कोरा ,
सूना अब आकाश , बुझा है मन का तारा ,
लेखन रस से हीन ,करे है मन को घायल
मुक्ता चाहे हार , घुंघरू चाहे पायल ।।

६ कंगन
कंगन खनका जोर से , गोरी नाचे आज ,
पायल औ बिछिया बजे , घर में मंगल काज
घर में मंगल काज ,क्षउठा ली जिम्मेदारी
चूनर सुंदर लाल , हरा लँहगा अति भारी
गले नौलखा हार , उसी से सजता आगँन
सारे घर की आन , लिए है दो दो कंगन ।।

७ बिंदी
मेरे भारत देश का , हिन्दी है श्रृंगार ,
भाषा के सर की बिँदी , देवनागरी सार ,
देवनागरी सार , बनी है मोहक भाषा ,
बढ़े सदा यश किर्ति , यही मन की अभिलाषा
अंलकार का वास, शब्द के अभिनव डेरे
गहना हिन्दी डाल, सजा तू भारत मेरे ।।

८ डोली
डोली चढ़ दुल्हन चली , आज छोड़ घर द्वार ,
धुनक रही है ढोलकें, साथ मंगलाचार ,
साथ मंगलाचार , सखी साथी सब छूटे ,
मुंह न निकले बोल , दृगों से मोती टूटे ,
सबका आशीर्वाद , रचे है कुमकुम रोली ,
धीरे धीरे साथ ,चले पिया संग ड़ोली।।

स्वरचित
कुसुम कोठारी।


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भावों के मोती
26/12/19
कुसुम की कुण्डलियाँ

१ वेणी
वेणी बांधे केश की , सिर पर चुनरी धार ,
गागर ले घर से चली , चपल चंचला नार ,
चपल चंचला नार , शीश पर गागर भारी ,
है हिरणी सी चाल , चाल है कितनी प्यारी ,
आंखों में है लाज, चली मंद गति वारुणी ,
देखे दर्पण साफ , फूल से रचती वेणी ।।

२ कुमकुम
चंदन कुमकुम थाल में , गणपति पूजूं आज ,
मंगल कर विपदा हरे, पूर्ण सकल ही काज ,
पूर्ण सकल ही काज , कि शुभ्र भाव हो दाता ,
रखें शीश पर हस्त , साथ हो लक्ष्मी माता ,
कहे कुसुम कर जोड़ , सदा मैं करती वंदन
तुझ को अर्पण नाथ ,खीर शहद और चंदन।

३ काजल
नयना काजल रेख है ,और बिॅ॑दी है भाल ,
बनठन के गोरी चली ,ओढ़ चुनरिया लाल ,
ओढ़ चुनरिया लाल , नाक में नथनी डोली ,
छनकी पायल आज , हिया की खिड़की खोली ,
कैसी सुंदर नार , आंख लज्जा का गहना ,
तिरछी चितवन डाल , बाण कंटीले नयना ।।

४ गजरा
सजधज नखराली चली , आज पिया के द्वार,
बालों में गजरा सजे , नख शिख है शृंगार,
नख शिख है शृंगार , आंख में अंजन ड़ाला ,
कान में झुमर सजे ,कंठ शोभित है माला ,
पिया मिलन की आस, झुके झुके नैत्र सलज
सुंदर मुख चितचोर , मृगनयनी चली सजधज।।

कुसुम कोठारी।।
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भावों के मोती।
23/12/19
विषय-जली बाती हरे सपने
विधा-गीत

लहरा साँझ का आँचल श्याम
जली बात्ती ,हरे सपने।।

भाल निशा के चाँद चमकता
उपवन का कोना महका
खिली खिली थी रजत चाँदनी
तारों का सुंदर डेरा
हसरत पास सभी हो अपने
जली बाती हरे सपने।।

जीवन हो मधुबन सा सुंदर
भ्रमर गूंजते चंहु दिशा
कोकिल कूके कूक मनोहर
कमल खिले ताल तलैया
सतरंग लगा मौसम सजने
जली बाती हरे सपने।।

लगे भरने दामन में तारे
चारों औ उजियारे थे
सिंदुर रचा क्षितिज का कोना
मन मयूर भी नाचे थे
सतरंगी फाग लगे रचने
जली बाती हरे सपने ।।

लहरा साँझ का आँचल श्याम
जली बात्ती ,हरे सपने।।

स्वरचित
कुसुम कोठारी।



भावों के मोती
22/12/19

क्या बिठायें पहरे,
अपने ही घात लगाये बैठे हैं
निगहबान खुद ही यहां
लिए हाथों में तीर बैठे हैं
हवाओं को तो इल्जाम
है फिजूल का देना
बागबां खुद ही खुद का
गुलजार लुटाये बैठे हैं।

स्वरचित
कुसुम कोठारी।
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भावों के मोती
21/12/19

न्याय अन्याय
न्याय और अन्याय का कैसा लगा है युद्ध
एक जिसको न्याय कहे दूसरा उस से क्रुद्ध।
बिन सोचे समझे ,विवेक शून्य हो ड़ोले
आंखों पट्टी बांध कर हिंसा की चाबी खोले
पाने को ना जाने क्या है,सब कुछ ना खो जाए
हाथ मलता रह जाएगा जो चुग पंछी उड़ जाए
कोई लगा कर आग दूर तमाशा देखे
अपना घर फूंक कर कौन रोटियां सेके
समय रहते संभल जाओ वर्ना होगा पछताना
स्वार्थ से ऊपर उठ देश हित का पहनो बाना।
स्वरचित

कुसुम कोठारी।

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सखी मन खनक-खनक जाए
सखी मन खनक-खनक जाए
दिशाएं भी गुनगुनाए ।

मन की झांझर झनक रही है
रुनझुन-रुनझुन बोल रही है
छेडी सरगम मधुर रागिनी
हिय के भेद भी खोल रही है
अव्यक्त हवाओं के सुर में
मन भी उड़ी-उड़ी जाए
सखी मन खनक खनक जाए।

प्रीत गगरिया छलक रही है
ज्यों अमृत उड़ेल रही है
मन को घट रीतो प्यासो है
बूंद - बूंद रस घोल रही है
ये कैसो है क्षीर सिन्धु सो
उलझ-उलझ मन जाए
सखी मन खनक-खनक जाए।

काली घटाएं घड़क रही है
चहुं दिशाएं बरस रही है,
वन कानन में द्रुम पत्रों पर
सुर ताल दे ठुमुक रही है
बासंती सी ऋतु मनभावन ,
मन भी देखो हर्षाए
सखी मन खनक खनक जाए

कुसुम कोठारी।

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भावों के मोती
16/12/19

संवरी हूं मैं
कतरा-कतरा पिघली हूं मैं
फिर सांचे-सांचे ढली हूं मैं,
हां जर्रा-जर्रा बिखरी हूं मैं
फिर बन तस्वीर संवरी हूं मैं ,
अपनो को देने खुशी
अपनो संग चली हूं मैं ,
अपना अस्तित्व भूल
सब का अस्तित्व बनी हूं मैं,
कुछ हाथ आंधी से बचा रहे थे
तभी रौशन हो शमा सी जली हूं मैंं,
छूने को उंचाईयां
रुख संग हवाओं के बही हूं मैं।
स्वरचित

कुसुम कोठारी।
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भावों के मोती
13/12/19

बेबस
सर्द हवा की थाप
बंद होते दरवाजे खिडकियां,
नर्म गद्दों में रजाई से लिपटा तन
और बार बार होठों से फिसलते शब्द
आज कितनी ठंड है!
कभी ख्याल आया उनका
जिन के पास रजाई तो दूर
हड्डियों पर मांस भी नही ,
सर पर छत नही ,
औऱ आशा कितनी बड़ी
कल धूप निकलेगी
ठंड कम हो जायेगी ,
अपनी भूख,बेबसी,
औऱ कल तक अस्तित्व
बचा लेने की लड़ाई ,
कुछ रद्दी चुन के अलाव बनायें
दो कार्य एक साथ ,
आज थोड़ा आटा हो तो
रोटी और ठंड दोनों सेक लें ।

स्वरचित
कुसुम कोठरी ।
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भावों के मोती
10/12/19

पथिक
रे मन तू पथिक
किस गांव का ।
भटकत सुबह शाम
ना ठौर ना ठांव का,
किस सुधा को ढ़ूंढ़ता
जुग कितने बीते,
डोलत इस उस पथ
रहे तृष्णा घट रीते।

रे मन तू पथिक
किस गांव का।

इस पिंजरे को
समझ के अपना,
देख रहा तू
भ्रम का सपना ,
लम्बी सफर का
तार जब जुड़ जायेगा,
देखते -देखते
पाखी तो उड़ जायेगा।

रे मन तू पथिक
किस गांव का।

होश नहीं तुझको
तू कौन दिशा से आया,
शीतल छांव में भूला
समय गमन का आया,
बांध गठरिया चल तू
ये देश वीराना जान ले,
आसक्ति को छोड़ कर
निज स्वरूप पहचान ले ।

रे मन तू पथिक
किस गांव का।

स्वरचित
कुसुम कोठारी।
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भावों के मोती
7/12/19
विषय-आसरा

अंधेरों से डर कैसा अब, मैने चाँद थामा दामन में
चांदनी बिखरी मेरे आंगन में मैने चाँद थामा दामन में ।

उजाले लेने बसेरा आये मेरे द्वारे, नयनों में डेरा डाला
पलकें मूंद रखा अंखियन में, मैने चाँद थामा दामन में ।

हर शाख पर डोलत डोलत थका हारा सा चन्द्रमा
आया मुझसे लेने"आसरा", मैने चाँद थामा दामन में ।

उर्मियां चंचल चपल सी डोलती पुर और उपवन में
घबराई ढूंढती शशि को आई, मैने चाँद थाम दामन में।

अमावस्या का ना रहा नामोनिशान अब जीवन में
किरणों का वास मुझ गृह में मैने चाँद थामा दामन में ।

स्वरचित
कुसुम कोठारी ।

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भावों के मोती
4/5दिसम्बर2019
विषय- हाइकु गतिविधि प्रतियोगिता
विधा -हाइकु

सेवा का धर्म
पूजा जैसा पावन
हो खुश मन।

दया का वस्त्र
जले मन का दीप
सच्ची हो पूजा।

धर्म की ध्वजा
मानवता का भाव
तर्पण पूजा ।

स्वरचित
कुसुम कोठारी।
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चारों तरफ कैसा तूफान है,
हर दीपक दम तोड रहा है ।

इंसानों की भीड़ जितनी बढ़ी है ,
आदमियत उतनी ही नदारद है ।

हाथों में तीर लिये हर शख्स है,
हर नजर नाखून लिये बैठी है ।

किनारों पर दम तोडती लहरें है,
समंदर से लगती खफा-खफा है।

स्वार्थ का खेल हर कोई खेल रहा है,
मासूमियत लाचार दम तोड रही है।

शांति के दूत कहीं दिखते नही है,
हर और शिकारी बाज उड़ रहे है।

कितने हिस्सों में बट गया मानव है,
अमन औ चैन मुह छुपा के रो रहा है।

कुसुम कोठारी।

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भावों के मोती
25/11/19
विधा (बाल कविता)
विषय-स्वेचछानुसार

आज हुवा फिर से बवाल
घर में मच गया घमासान
लगता आया है तूफान।

दादा जी का जन्मदिवस था आये सारे ही शैतान
रिकी,मिकी,नवल,चपल पिंकी ,गुडिया,पीहू रीधान
खाया छीना झपटा-पटका,इसकी चोटी उस का कान।

टीवी पर थी सब की नजरें कहां छुपाया रिमोट
रिकी-मिकी भीम दिवाने पोकेमोन देखूं कहे चपल
कोई कहे ये देखूं कोई वो झगडे में टूटा रिमोट ।

चाचा गुर्राये कर आंखें लाल ताऊ उठे छडी संभाल
मम्मियों ने भींचें दांत,कांप गये सब सोच के वो घड़ी
कान खिंचाई बिल्कुल पक्की या कमर पर बेंत पडी।

तभी दादाजी ने ऐनक चढ़ाई बोले बच्चों कैसी है ये लड़ाई,
हम तो भइया जोरो से लड़ते एक आध का दांत तोड़ते,
तुम सब तो हो बड़े ही भोले मिलेगें सब को पूरी छोले ।

शुरू हुआ फिर से धमाल दादाजी ने किया कमाल,
सबके मुंह पर खुशियां छाईं सबने खूब आशीषें पाईं ,
खाने को ढेरों थे पकवान आज तो भइया बच गये कान।

स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
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3/1/20
विषय- शीत,ठंड ,सर्द

बेबस

सर्द हवा की थाप
बंद होते दरवाजे खिडकियां,
नर्म गद्दों में रजाई से लिपटा तन
और बार बार होठों से फिसलते शब्द
आज कितनी ठंड है!
कभी ख्याल आया उनका
जिन के पास रजाई तो दूर
हड्डियों पर मांस भी नही ,
सर पर छत नही ,
औऱ आशा कितनी बड़ी
कल धूप निकलेगी
ठंड कम हो जायेगी ,
अपनी भूख,बेबसी,
औऱ कल तक अस्तित्व
बचा लेने की लड़ाई ,
कुछ रद्दी चुन के अलाव बनायें
दो कार्य एक साथ ,
आज थोड़ा आटा हो तो
रोटी और ठंड दोनों सेक लें ।

स्वरचित

कुसुम कोठरी ।
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28/12/19
विषय-नश्वर

विधा छंद-मुक्त

आत्म बोध

निलंबन हुवा निलाम्बर से
भान हुवा अच्युतता का
कुछ क्षण
गिरी वृक्ष चोटी ,इतराई
फूलों पत्तों दूब पर देख
अपनी शोभा मुस्काई ।

गर्व से अपना रूप मनोहर
आत्म प्रशंसा भर लाया
सूर्य की किरण पडी सुनहरी
अहा शोभा द्विगुणीत हुई !
भाव अभिमान के थे अब
उर्धवमुखी।

हा भूल गई " मैं "
अब निश्चय है अंत पास में
मैं तुषार बूंद नश्वर,भूली अपना रूप
कभी आलंबन अंबर का
कभी तृण सहारे सा अस्तित्व
पर आश्रित नाशवान शरीर
या
"मैं "आत्मा अविनाशी
भूल गई क्यों शुद्ध स्वरूप
अपना।
स्वरचित
कुसुम कोठारी।
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7/12/19
विषय-आसरा


दामन में चांद

अंधेरों से डर कैसा अब,
मैने चाँद थामा दामन में
चांदनी बिखरी मेरे आंगन में
मैने चाँद थामा दामन में ।

उजाले लेने बसेरा आये
मेरे द्वारे, नयनों में डेरा डाला
पलकें मूंद रखा अंखियन में,
मैने चाँद थामा दामन में ।

हर शाख पर डोलत-डोलत
थका हारा सा चन्द्रमा
आया मुझसे लेने"आसरा",
मैने चाँद थामा दामन में ।

उर्मियां चंचल चपल सी
डोलती पुर और उपवन में
घबराई ढूंढती शशि को आई,
मैने चाँद थामा दामन में।

अमावस्या का ना रहा
नामोनिशान अब जीवन में
किरणों का वास मुझ गृह में
मैने चाँद थामा दामन में ।

स्वरचित

कुसुम कोठारी

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3 07 19
विषय - सावन 

सावन की गठरी में 
कितने अनमोल रत्न भरे ।

भूले किस्से यादों के मेले 
इंद्रधनुषी आसमान 
बरसती बुंदों की 
गुनगुनाती बधाईयां 
थिरकता झुमता तन मन 
अपनों से चहकता आंगन 
सौरभ से महकती बगिया 
मिट्टी की सौंधी सुगंध ।

सावन की गठरी में 
कितने अनमोल रत्न भरे।

नव विवाहिताओं को
पिया के साथ पहली 
फुहार का आनंद 
मायके आने का चाव 
मन को रिझाती बुलाती 
झूले की कतारें 
चाहतों की बरसती रिमझिम ।

सावन की गठरी में 
कितने अनमोल रत्न भरे।

खेती को जीवन प्राण 
किसानो को अनुपम उपहार 
जीवन की आस 
झरनों को राग 
नदियों को कल-कल बहाव 
सकल संसार को सरस सुधा ।

सावन की गठरी में 
कितने अनमोल रत्न भरे।।

स्वरचित 
कुसुम कोठारी।
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शीर्षक - जेब 

खाली जेब, गुमगश्ता रुमानियत 

फूल दिया किये उनको खिजाओं में भी
पत्थर दिल निकले फूल ले कर भी ।

रुमानियत की बातें न कर ए जमाने
खाली जेबों की गिर्दाब में गुमगश्ता है जिंदगी भी। 

संगदिलों से कैसी परस्ती ए दिल
वफा न मिलेगी जख्म ए ज़बीं पा के भी। 

चाँद तारों की तमन्ना करने वाले सुन
जल्वा ए माहताब को चाहिये फलक भी। 

"शीशा हो या दिल आखिर टूटता" जरुर
क्यों लगाता है जमाना फिर फिर दिल भी ।

तूफानों में उतरने से डरता है दरिया में
डूबती है कई कश्तियां साहिल पर भी।

स्वरचित। 

कुसुम कोठारी।
(गिर्दाब =भंवर, ज़बीं =माथा, सर)

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विषय - अधिकार ( हक) 

जीना हो आसानी से तो 
जीवन मे सब सहना सीखो, 

जिसको अपना सको अपना लो 
कुछ को नजर अंदाज कर लो, 

खुद के मरने से ही मिलता है स्वर्ग 
यहाँ जो मिला उसे न बनाओ नर्क, 

छीनो न "हक" निर्बल जन का 
अपनी कोशिश से पावो जितना चाहो, 

जीना नही आसान अगर तो
कर प्रयत्न आसान बनाओ ।

स्वरचित 

कुसुम कोठारी ।

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शीर्षक मैं, स्वयं 
सफर और साधन

मैं निकली सफर पर अकेली 
मंजिल क्या होनी ये पता लेकर
पर चल पडी राह बदल
न जाने किधर
भूल गयी कहाँ से आई 
और कहाँ है जाना 
किस भूल भुलैया में भटकी 
कभी चली फिर अटकी 
साथ में थी फलों की गठरी 
कुछ मीठे कुछ खट्टे,
कुछ नमकीन कसैले 
खाना होगा एक एक फल 
मीठे खाये खुश हो हो कर
कुछ रोकर 
कुछ निगले दवा समान
कुछ बांटने चाहे 
पर किसी को ना दे पाये
अपने हिस्से के थे सब 
किसको हिस्से देते
सभी के पास थे साथ थे
स्वयं के प्रारब्ध। 
अब कुछ अच्छे मीठे
फलों के पेड लगा दूं
तो आगे झोली में 
मधुर मधुर ही ले के जाऊं
अनित्य में से शाश्वत समेटूं
फिर एक यात्रा पर चल दूं
पाना है परम गति 
तो निर्मल, निश्छल, 
विमल, वीतरागी बन
मोक्ष मार्ग की राह थाम लूं
मैं आत्मा हूं 
काम, क्रोध मोह-माया,
राग, द्वेष में लिपटी 
भव बंधन में जकडी
तोड के सब जंजीरे 
स्वयं स्वरूप पाना है
बार बार की संसार
परिक्रमा से
मुक्त हो जाना है।
स्वरचित। 

कुसुम कोठारी।

फल=पूर्व कृत कर्म।
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वजह क्या थी ?

मिसाल कोई मिलेगी
उजड़ी बहार में भी
उस पत्ते सी
जो पेड़ की शाख में
अपनी हरितिमा लिये डटा है
अब भी।
हवाओं की पुरजोर कोशिश
उसे उड़ा ले चले संग अपने
कहीं खाक में मिला दे
पर वो जुडा था पेड के स्नेह से
डटा रहता हर सितम सह कर
पर यकायक वो वहां से
टूट कर उड़ चला
हवाओं के संग
"वजह" क्या थी ?
क्योंकि पेड़ बोल पड़ा उस दिन
मैने तो प्यार से पाला तुम्हे
क्यों यहां शान से इतराते हो
मेरे उजड़े हालात का उपहास उड़ाते हो
पत्ता कुछ कह न पाया
शर्म से बस अपना बसेरा छोड़ चला
वो अब भी पेड़ के कदमो में लिपटा है
पर अब वो सूखा बेरौनक हो गया
साथ के सूखे पुराने पत्तों जैसा
उदास
पेड की शाख पर वह
कितना रूमानी था।

स्वरचित
कुसुम कोठारी।

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स्वतंत्र लेखन

. इंतजार की बेताबी 

अंधेरे से कर प्रीति
उजाले सब दे दिए
अब न ढूंढना
उजालों में हमें कभी।

हम मिलेंगे सुरमई
शाम के घेरों में 
विरह का आलाप ना छेड़ना
इंतजार की बेताबी में कभी।

नयन बदरी भरे
छलक न जाऐ मायूसी में 
राहों पर निशां ना होंगे
मुड के न देखना कभी।

आहट पर न चौंकना
ना मौजूद होंगे हवाओं में 
अलविदा भी न कहना
शायद लौट आयें कभी।

स्वरचित 

कुसुम कोठारी ।
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चार लघु विधा का सृजन

1हाइकु

दिल ना मिले
दुरी है दरमियाँ
बढे फासले।
~
2ताँका

फासले अब
दरमियाँ ना रहे
सिमटने दो
ख्वाबों की अंखियों में
सुहानी यादें जगी ।
~
3सेदोका

मौसम बैरी
बरसे झिरमिर
साजन दूर तेरे
आंखें द्वार पे
राह बिछे नयन
तड़पे विरहन।
~
4वर्ण पिरामिड

रे
मिटा
फासला
मन मिला
प्रेम से रह
जीवन सफल
हो न जाए निष्फल।

स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
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विषय - जनतंत्र 

हर विशेष दिवस पर
हर बार तिरंगा फहराते हैं
कुछ कसमे वादे होते
कुछ आश्वासनो के
परचम लहराते
हम फिर भ्रमित हो भुलते
"जनतंत्र" बन गया
लाठी वालों की भैंस 
और देश बन गया
मूक बधिरों का आवास 
लाठी वाले खूब
अपनी भैंस चरा रहे 
हम पंगू बन बैठे
विशेष दिवस मना रहे 
ना जाने देश कहां जायेगा 
हम जा रहे रसातल को 
यद्यपि दीन दुखी गारत है 
विश्व में फिर भी
सर्वोच्च भारत है 
गाना नही अब
जगना और जगाना है
ठंडे हुए लहू को
फिर लावा बनाना है 
मां भारती को
सच में शिखर पर लाना है 
मजबूत इरादों वाला
जनतंत्र बनाना है।

स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
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विषय - परिवर्तन
बाल-गीत

एक मासूम परिवर्तन... 

सपनो का एक गांव बसालें
झिल मिल तारों से सजालें 
टांगें सूरज ओंधा, टहनी पर
रखें चाँद सन्दुकची में बंद कर
रोटी के कुछ झाड़ लगा लें 
तोड़ रोटिया जब चाहे खा लें
सोना चांँदी बहता झर झर 
पानी तिजोरियों के अंदर 
टाट पर पैबंद मखमल का
उड़े तन उन्मुक्त पंछियों सा।

स्वरचित 

कुसुम कोठारी ।
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 भावों के मोती
26 06 19
विषय - इंद्रधनुष 


उत्तप्त धरा पर
रिमझिम बूंदों की फूहार 
ना होती किसी एक की,
सबकी सांझे होती इकसार।
इसलिए बरखा कहलाती
ऋतुओं की रानी
बंसत हो ऋतुराज चाहे,
उजड़ा सा होता बिन रानी ।
जीवन का अनुपम
श्रृंगार है बरखा
यादों की खुलती
संदूकची है बरखा 
भागती जिंदगी में
चैन के दो पल है बरखा 
जीवन का सतरंगी
"इंद्रधनुष" है बरखा ।
ले आती सुरम्य सौगातें
अम्बर का आह्लाद है बरखा
बंसत हो ऋतुराज चाहे,
ऋतुओं की रानी है बरखा।

स्वरचित 
कुसुम कोठारी
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द्वितीय- प्रस्तुति

इंद्र धनुषी बचपन

ख्वाबों के दयार पर एक झुरमुट है यादों का
एक मासूम परिंदा फुदकता यहाँ - वहाँ यादों का ।

सतरंगी धागों का रेशमी इंद्रधनुषी शामियाना
जिसके तले मस्ती में झुमता एक भोला बचपन ।

सपने थे सुहाने उस परी लोक की सैर के
वो जादुई रंगीन परियां जो डोलती इधर उधर।

मन उडता था आसमानों के पार कहीं दूर
एक झूठा सच, धरती आसमान है मिलते दूर ।

संसार छोटा सा लगता ख्याली घोडे का था सफर
एक रात के बादशाह बनते रहे संवर संवर ।

दादी की कहानियों मे नानी थी चांद के अंदर
सच की नानी का चरखा ढूढते नाना के घर ।

वो झूठ भी था सब तो कितना सच्चा था बचपन
ख्वाबों के दयार पर एक मासूम सा बचपन।

एक इंद्रधनुषी स्वप्निल रंगीला बचपन।

स्वरचित

कुसुम कोठारी।
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भावों के मोती
22 06 19
विषय - गवाह

विराने समेटे कितने पद चिन्ह
अपने हृदय पर अंकित घाव
जाता हर पथिक छोड छाप
अगनित कहानियां दामन में
जाने अन्जाने राही छोड जाते
एक अकथित सा एहसास
हर मौसम "गवाह" बनता जाता
बस कोई फरियादी ही नही आता
खुद भी साथ चलना चाहते हैं
पर बेबस वहीं पसरे रह जाते हैं
कितनो को मंजिल तक पहुंचाते
खुद कभी भी मंजिल नही पाते
कभी किनारों पर हरित लताऐं झूमती
कभी शाख से बिछडे पत्तों से भरती
कभी बहार , कभी बेरंग मौसम
फिर भी पथिक निरन्तर चलते
नजाने कब अंत होगा इस यात्रा का
यात्री बदलते  रहते निरन्तर
राह रहती चुप शांत बोझिल सी।

विराने समेटे..

स्वरचित 
             कुसुम कोठारी ।
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21  06  19
विषय - योग स्वास्थ्य 

योग क्या है

योग यानी जोड़ना
शरीर,मन और आत्मा को एक साथ लाना
योग आध्यात्मिक ऊंचाई है,
जो दिखाता आलोकिक संसार है
योग के स्थूल अनुभव रोगों से छुटकारा
उर्जा वान भौतिक देह स्वास्थ्य लाभ 
योग का मानसिक अनुभव मस्तिष्क से तनाव,चिंता,अवसाद और
नकारात्मक भावों से छुटकारा। 
योग का उच्चतम अनुभव
मनुष्य का आध्यात्म की ओर प्रस्थान
सांसारिक बन्धनों और चिन्ताओं से मुक्ति
परमानंद प्राप्ति को अग्रसर  
जहाँ सिर्फ आनंद ही आनंद है |

स्वरचित
कुसुम कोठारी।
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भावों के मोती
20 06 19
विषय - आईना

अंधो के शहर आईना बेचने आया हूं 

फिर से आज एक कमाल करने आया हूं 
अंधो के शहर में आईना बेचने आया हूं।

संवर कर सुरत तो देखी कितनी मर्तबा शीशे में
आज बीमार सीरत का जलवा दिखाने आया हूं।

जिन्हें ख्याल तक नही आदमियत का
उनकी अकबरी का पर्दा उठाने आया हूं।

वो कलमा पढते रहे अत्फ़ ओ भल मानसी का
उन के दिल की कालिख का हिसाब लेने आया हूं।

करते रहे उपचार  किस्मत ए दयार का 
उन अलीमगरों का लिलार बांच ने आया हूं।

स्वरचित 

                        कुसुम कोठारी।

अकबरी=महानता  अत्फ़=दया
किस्मत ए दयार= लोगो का भाग्य
अलीमगरों = बुद्धिमान
लिलार =ललाट(भाग्य)
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भावों के मोती

19 06 19

विषय-किनारा/तट

तट के बंधनो को तोड़ने 
विकल सी बढ़ती है लहर मतवाली 
पर किनारों के कोलाहल को सुन 
फिर लौट जाती अपने सागर की बाहों में
फिर मुक्त होने छटपटाती 
सर किनारों पर पटकती 
और लौट जाती पता नहीं क्यों?
अनसुलझी सी पहेली अनुत्तरित प्रश्न 
या ऐसे लगता ज्यों
इठलाती लहर तट पर
शीश रख कुछ पल जो सोती है 
लहर अपना कुछ हिस्सा वंहा
रेत पर ही खोती है 
इसलिये लौट लौट फिर जा
सागर के सीने में रोती है
वो मतवाली लहर सूर्य का
हाथ थाम वाष्प बन उड़ जाती है।

स्वरचित 

                   कुसुम कोठारी।
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भावों के मोती
18 06 19
विषय - पदक
द्वितीय प्रस्तुति

पदक एक खास
जिंदगी के इम्तिहान में पास
जीवन आये रास
दुविधा का नाश
फिर बंधा मोहपास
स्वप्न सा उल्लास
घर में हो उजास
अपने हो आस-पास
प्रभु से अरदास
सुख का अहसास
मन में विश्वास
मंजिल हो पास
दुखों का ह्रास
जिंदगी सुखद सुवास।

स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
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.    भावों के मोती
17  06 19
विषय - नीयत

किस्मत क्या है!! 

कर्मो द्वारा अर्जित लब्ध और प्रारब्ध ही किस्मत है बस नीयत साफ रख। 

            पूर्व कृत कर्मो से
               जो संजोया है 
         वो ही विधना का खेल है 
           जो कर्म रूप संजो के
               आया है रे प्राणी 
                उस का फल तो
                 अवश्य पायेगा 
                हंस हंस बाधें कर्म 
                  अब रो रो उन्हें
                      छुडाये जा
                    भाग्य, नसीब,
                  किस्मत क्या है ? 
                 बस कर्मो से संचित
                      नीधी विपाक
                      बस सुकृति से
                  कुछ कर्म गति मोड़
                    और धैर्य संयम से
                            सब झेल
                          साथ ही कर
                           कृत्य अच्छे
                      "नीयत" रख साफ
                     और कर नव भाग्य
                         का निर्माण ।
स्वरचित 

                          कुसुम कोठारी।

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भावों के मोती
14/06/19
विषय - "शाख, डाली

ऋतु बसंत

देखो धरा पर कैसी
निर्मल चांदनी छाई है
निर्मेघ गगन से शशि
विभा उतर के आयी है ।

फूलों पर कैसी भीनी
गंध सौरभ लहराई  है
मलय मंद मधुर मधुर
मादकता ले आयी है ।

मंजु मुकुर मौन तोड़ने
मन वीणा झनकाई है
प्रकृति सज रूप सलज
सरस सुधा सरसाई है ।

हरित धरा मुखरित "शाखाएं" 
कोमल सुषमा बरसाई है
वन उपवन ताल तड़ाग
वल्लरियां मदमाई है। 

कुसुम कलिका कल्प की
उतर धरा पर आयी हैं
नंदन कानन उतरा है
लो, बसंत ऋतु आयी है।

स्वरचित 

       कुसुम कोठारी।

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भावों के मोती
12/06 /19
विषय - चक्रव्यूह

जोखिम की मानिंद हो रही बसर है ज़िंदगी
जद्दोजहद  का  एक चक्रव्यूह है ज़िदगी ।

खिल के मिलना ही है धूल में किस्म ए नक्बत
जी लो जी भर माना ख़तरे की डगर है ज़िंदगी।

बरसता रहा आब ए चश्म रात भर बेज़ार
भीगी हुई चांदनी का शजर है ज़िंदगी

मिलने को तो मिलती रहे दुआ ए हयात रौशन
उसका करम है उसको नज़र है ज़िंदगी।

माना डूबती है कश्तियां किनारों पर भी
डाल दो लहरों पर जोखिम का सफर है जिंदगी ।

स्वरचित 

                कुसुम कोठारी ।

नक्बत = दुर्भाग्य, विपदा
आब ए चश्म =आंसू
शजर =पेड़


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भावों के मोती
11 06 19
विषय - घर

शहीदों  की रोती आत्मा जब धोखे में मारे जाते हैं... 

सर पर कफन बांध  कर निकले घर से
मरने से डर कैसा मरने को निकले घर से
घरवालों को पत्थर कर दिल पर पत्थर रख निकले घर से
देश पर करने निज प्राण उत्सर्ग निकले घर से
एक-एक सौ को मार मरेंगे यही सोच निकले घर से
एक एक टुकड़ा वापस लेंगे धरा का यही ठान निकले घर से
क्या पता गीदड़ यूं सीना चीर देंगे घुस के घर मे
सोये शेरों का यूं कलेजा निकाल चल देंगे घर से
मरना तो था पर ना सोचा कभी यूं मरेंगे अपने घर में
नींद में ही भेट चढ़ जायेंगे धूर्त धोखे बाज गीदड़ो के वो भी घर में ।
स्वरचित 
              कुसुम कोठारी।

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इंद्र नगरी में हड़कम्प मचा है
चुनावी माहौल का रंगमंच सजा है
नये इन्द्र का चुनाव है
प्रत्याशियों की लम्बी कतार है
होड़ मची भारी है
काफी उठा पटक की तैयारी है
उर्वशी, रंभा, मेनका, की बीजी सेड्युल है
मोहरें भर भर थैलियां आ रही है
फलां फलां देवता को लांछित कर
स्टिंग ऑपरेशन करवाना है
अपना पलड़ा भारी हो तभी
जब दुसरों को ब्लैक लिस्ट करवाना हो
मतदान के समय तक आधो को
रन आउट करवा देना है
फिर मुकाबला कुछ आसान होगा
वोटरो के यहां जरूरत के
हिसाब से समान पहुंच रहे हैं
सभी को अपने वोट पक्के करने हैं
मतदाताओं की बनी चांदी है
बैठे-बैठे घर में दाना पानी है
कहीं ए-सी लग रहे हैं
कहीं नये वाहन दुपहिया तीन पहिया
अपनी अपनी हैसियत अनुसार आ रहे हैं
येन केन प्रकारेण अपने वोट बढ़ाने है
तीन चार महीना टटपुंछियों को
अगर बत्ती कर
पांच साल ऐश में
पुरे जीवन पुरे परिवार की वारी न्यारी
वाह री मुर्ख जनता बेचारी
फिर-फिर उल्लू बनने की तैयारी
इंद्र की सिगड़ी जब भी जले
जहाँ भी जले सुन ले
ओ मेरी मूरख प्रजा 
सेकी तूं ही जायेगी बारी बारी
स्वीट काॅर्न की तरह
नीबू नमक
(पहले के प्रलोभन)
बस तेरे भुनने की तैयारी।
वाह रे जनता बेचारी
अर्थ, मत के चक्कर में
क्यों मति गई मारी।

कुसुम कोठारी।
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भावों के मोती
10 06 19
विषय - कोयल(कोयलिया) 

मन अतिथि 

कुहूक गाये कोयलिया 
सुमन खिले चहुँ ओर 
पपीहा मीठी राग सुनाये 
नाच उठे मन मोर  ।

मन हुवा मकरंद आज
हवा सौरभ ले गई चोर
नव अंकुर लगे चटकने
धरा का खिला हर पोर। 

द्वारे आया कौन अतिथि
मन में हर्ष हिलोल
ऐसे बांध ले गया मन 
स्नेह बाटों में तोल। 

मन बावरा उड़ता
पहुंचा उसकी ठौर
अपने घर भई अतिथि
बैठ नयनन की कोर।

स्वरचित 

     कुसुम कोठारी ।
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भावों के मोती
10  06  19
विषय - कोयल

भुला बिसरा मधुर जमाना

जब पेड़ों पर कोयल काली 
कुहुक कुहुक  कर गाती थी
डाली डाली डोल पपीहा 
पी कहां  की राग सुनाता था
घनघोर  घटा घिर आती थी
और मोर नाचने आते थे 
जब गीता श्यामा की शादी में
पूरा गांव नाचता गाता था 
कहीं नन्हे के जन्म पर 
ढोल बधाई  बजती थी  
खुशियां  सांझे की होती थी
गम में हर आंख भी रोती थी
कहां गया वो सादा जीवन 
कहां गये वो सरल स्वभाव 
सब शहरों की और भागते 
 नीद  औ चैन गंवाते हैं 
या वापस आते वक्त साथ
थोडा शहर गांव ले आते हैं
सब भूली बिसरी बातें हैं 
और यादों के उलझे धागे हैं।

स्वरचित 

           कुसुम कोठारी ।

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भावों के मोती
स्वतंत्र लेखन
23  06  19

आज सखी.... (मेघ मल्हार) 

आज सखी मन खनक खनक जाए

मन की झांझर ऐसी झनकी 
रुनझुन रुनझुन बोल रही है
छेडी सरगम मधुर रागिनी
मन के भेद भी खोल रही है।

आज सखी मन खनक खनक जाए।

प्रीत गगरिया छलक रही है
ज्यो  अमृत  उड़ेल रही  है
मन को घट  रीतो प्यासो है 
बूंद - बूंद रस घोल  रही  है।

आज सखी मन खनक खनक जाए ।

काली घटा घन घड़क रही है
बृष्टि टापुर टुपुर टपक रही है
हवा सुर सम्राट तानसेन ज्यों
राग मल्हार  दे  ठुमक रही है।

आज सखी मन खनक खनक जाए ।
स्वरचित 

             कुसुम कोठारी।
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शीर्षक- अलीम =बुद्धि 

अंधो के शहर आईना बेचने आया हूं 

फिर से आज एक कमाल करने आया हूं 
अंधो के शहर में आईना बेचने आया हूं।

संवर कर सुरत तो देखी कितनी मर्तबा शीशे में
आज बीमार सीरत का जलवा दिखाने आया हूं।

जिन्हें ख्याल तक नही आदमियत का
उनकी अकबरी का पर्दा उठाने आया हूं।

वो कलमा पढते रहे अत्फ़ ओ भल मानसी का
उन के दिल की कालिख का हिसाब लेने आया हूं।

करते रहे उपचार किस्मत ए दयार का 
उन अलीमगरों का लिलार बांच ने आया हूं।

स्वरचित 

कुसुम कोठारी।

अकबरी=महानता अत्फ़=दया
किस्मत ए दयार= लोगो का भाग्य
अलीमगरों = बुद्धिमान
लिलार =ललाट(भाग्य)

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सुगंधित पराग

नंदन कानन महका आज मन में 
श्वेत पारिजात बिखरे तन मन में
फूल कुसमित, महकी चहुँ दिशाएँ 
द्रुम दल शोभित वन उर मन में
मलय सुगंधित, उड़ा पराग पवन संग 
देख घटा पादप विहंसे निज मन में
कमल कुमुदिनी हर्षित हो सरसे 
हरित धरा मुदित हो मन में
जल प्रागंण निज रूप संवारे लतिका
निरखी निरखी लजावे मन में।
कंचन जैसो नीर सर सरसत
आज सखी नव राग है मन में।

स्वरचित

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अप्रतिम सौन्दर्य 

हिम से आच्छादित 
अनुपम पर्वत श्रृंखलाएँ
मानो स्फटिक रेशम हो बिखर गया
उस पर ओझल होते 
भानु की श्वेत स्वर्णिम रश्मियाँ 
जैसे आई हो श्रृँगार करने उनका 
कुहासे से ढकी उतंग चोटियाँ 
मानो घूंघट में छुपाती निज को
धुएं सी उडती धुँध
ज्यों देव पाकशाला में
पकते पकवानों की वाष्प गंध
उजालों को आलिंगन में लेती
सुरमई सी तैरती मिहिकाएँ 
पेड़ों पर छिटके हिम-कण
मानो हीरण्य कणिकाएँ बिखरी पड़ी हों
मैदानों तक पसरी बर्फ़ जैसे
किसी धवल परी ने आंचल फैलया हो
पर्वत से निकली कृष जल धाराएँ
मानो अनुभवी वृद्ध के
बालों की विभाजन रेखा
चीङ,देवदार,अखरोट,सफेदा,चिनार 
चारों और बिखरे उतंग विशाल सुरम्य 
कुछ सर्द की पीड़ा से उजड़े 
कुछ आज भी तन के खड़े 
आसमां को चुनौती देते
कल कल के मद्धम स्वर में बहती नदियाँ 
उनसे झांकते छोटे बड़े शिला खंड 
उन पर बिछा कोमल हिम आसन
ज्यों ऋषियों को निमंत्रण देता साधना को
प्रकृति ने कितना रूप दिया कश्मीर को
हर ऋतु अपरिमित अभिराम अनुपम
शब्दों मे वर्णन असम्भव।

कुसुम कोठारी।

" गिरा अनयन नयन बिनु बानी "

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अपने वजूद के लिये
रावण लडता रहा
और स्वयं नारायण भी
अस्तित्व न मिटा पाये उसका 
बस काया गंवाई रावण ने
अपने "सिद्धांत "बो गया
फलीभूत होते होते
सदियों से गहराते गये
वजह क्या? न सोचा कभी
बस तन का रावण जलता रहा
मनोवृत्ति में पोषित
होते रहे दशानन
राम पुरुषोत्तम के सद्गुण 
स्थापित कर गये जग में
साथ ही रावण भी कहीं गहरे
अपने तमोगुण के बीज बो चला
और अब देखो जिधर
राम बस संस्कारों की
बातो, पुस्तकों और ग्रंथों में
या फिर बच्चों को
पुरुषोत्तम बनाने का
असफल प्रयास भर है, 
और रावणों की खेती
हर और लहरा रही है।

स्वरचित 
कुसुम कोठारी।

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नीलम शर्मा#नीलू


नदी के उपकार मानव पर

दुग्ध धार सी बहती विमल शुभ्र सरिते 
उज्ज्वल कोमल निर्मल क्षीर नीर सरिते 

कैसे तूं राह बनाती कंटक कंकर पाथर में 
चलती बढती निरबाध निरंतर मस्ती में 

कितने उपकार धरा पर, मानव पशु पाखी पर भी
उदगम कहां कहां अंत नही सोचती पल को भी 

बांध ते तुझ को फिर भी वरदान विद्युत का देती 
सदा प्यासो को नीर और खेतो को जीवन देती 

तूं कर्त्तव्य की परिभाषा तूं वरदायनी सरिते 
नमन तूझे है जगजननी निर्झरी सारंग सरिते ।

स्वरचित 
कुसुम कोठारी।



अवसर बस बीता जाता

पता है कुछ तेरा ना मेरा 
कैसी भी दुखद या सुहानी 
ये जगती सिर्फ़ रैन बसेरा 
फिर भी हर पल
एक शिकायत 
ये छूटा वो ना मिला
ऐसी आपा धापी लगी 
कि खुद से भी रहे अंजान
एक घङी भी नही जो 
स्वयं की करें पहचान 
अवसर बस बीता जाता 
मंजिल से अंजान 
टुकड़ों में बस जीवन बीते 
रहे हाथ बस रीते 
अंत तक ये जान न पाऐ 
क्या हारे क्या जीते ।

स्वरचित 

कुसुम कोठारी ।
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शीर्षक-युवा (नौजवान ) 

वीर देश के गौरव हो तुम
माटी की शान तुम
भूमि का अभिमान तुम
देश की आन तुम
राह के वितान तुम। 

ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम। 

राहें विकट,हौसले बुलंद रख
चीर दे सागर का सीना
पांव आसमां पे रख
आंधी तुम तूफान तुम
राष्ट्र की पतवार तुम। 

ओ नौजवान बढ़ो चलो 
धीर तुम गम्भीर तुम। 

भाल को उन्नत रख
हाथ में कमान रख
बन के आत्माभिमानी
शीश झुका के पर्वतों के
राह पर कदम रख। 

ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम। 

दुर्जनों को रौंद दे
निर्बलों की ढाल तुम
नेकियाँ हाथों में रख
मान तुम गुमान तुम
सागर के साहिल तुम। 

ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम। 

तूं महान कर्मकर
अर्जुन तुम कृष्ण तुम
राह दिखा दिग्भ्रमित को
गीता के संदेश तुम
अबलाओं के त्राण तुम। 

ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।

स्वरचित 

कुसुम कोठारी ।
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एक नादान फैसला 

कहीं एक तलैया के किनारे 
एक छोटा सा आशियाना 
फजाऐं महकी महकी 
हवायें बहकी बहकी 
समा था मदहोशी का 
हर आलम था खुशी का
न जगत की चिंता 
ना दुनियादारी का झमेला
बस दो जनों का जहान था 
वह जाता शहर लकड़ी बेचता
कुछ जरूरत का सामान खरीदता
लौट घर को आता 
वह जब भी जाता 
वह पीछे से कुछ बैचेन रहती 
जैसे ही आहट होती 
उस के पदचापों की
वह दौड द्वार खोल
मधुर मुस्कान लिये 
आ खडी होती 
लेकर हाथ से सब सामान
एक गिलास में पानी देती 
गर्मी होती तो पंखा झलती 
हुलस हुलस सब बातें पूछती 
सुन कर शहर की रंगीनी 
उड़ कर पहुंचती उसी दायरे में
जीवन बस सहज बढा जा रहा था
एक दिन जिद की उसने भी 
साथ चलने की 
उसने लाख रोका न मानी
दोनो चल पडे 
शहर में खूब मस्ती की 
चाट, झूले, चाय-पकौड़े 
स्वतंत्र सी औरतें 
उन्मुक्त इधर उधर उडती 
बस वही मन भा गया 
मन शहर पर आ गया
नही रहना उस विराने में
इसी नगर में रहना 
था प्रेम अति गहरा 
पति रोक न पाया 
उसे लेकर शहर आया 
किसी ठेकेदार को सस्ते में 
गांव का मकान बेचा
शहर में कुछ खरीद न पाया
किराये पर एक कोठरी भर आई 
हाथ में धेला न पाई 
काम के लिये भटकने लगा 
भार ठेला जो मिलता करता
पेट भरने जितना भर 
मुश्किल से होता
फिर कुछ संगत बिगडी 
दारू की लत लगी
अब करता ना कमाई 
भुखा पेट, पीने को चाहिऐ पैसा 
पहले तूं-तूं मैं-मैं फिर हाथा पाई
आखिर वो मांजने लगी बरतन 
घर घर में भरने लगी पानी
जो अपने घर की थी रानी 
अपनी नादानी से बनी नौकरानी
ना वो मस्ती के दिन रात 
और आँख में था पानी 
ये एक छोटी नादान कहानी।

स्वरचित 

कुसुम कोठारी ।

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भावी पीढ़ी को क्या देगें

आजकल डर के कारण
साँसे कुछ कम ले रही हूं 
अगली पीढ़ी के लिये
कुछ प्राण वायु छोड़ जाऊं, 
डरती हूं क्या रहेगा
उनके हिस्से
बिमार वातावरण
पानी की कमी
दूषित खाद्य पदार्थ
डरा भविष्य
चिंतित वर्तमान
जीने की जद्दोजहद
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रंग और खुशी जो ले के आई
सब कहते हैं होली
आ हमसफर तू राह बना दे
मै भी साथ हो ली
रुख पर तूने जो रंग डाला
उस दिन तेरी हो ली
आ सब गिले शिकवे भुला दें
खूब खेलें हम होली 
झनक झनक पैजनीया छनके
नाच नचाये होली
रंग गुलाल की इस महफिल में
फाग सुनाये होली 
तन सूखा मन रंग जाए
ऐसी स्नेह की होली 
चलो चलें हम आज सभी के
संग मनायें होली ।

स्वरचित
कुसुम कोठारी।
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धोखा, झूठ, फरेब
बेरौनक जिंदगी
स्वार्थ
अविश्वास
अनिश्चित जीवन
वैर वैमनस्य
फिर से दिखता
आदम युग
यह भयावह
चिंतन मुझे डराता है
सोचती हूं अभी से
पानी की
एक एक बूंद का
हिसाब रखूं
कुछ तो सहेजूं
उनके लिये
कुछ अच्छे संस्कार
दया कोमल भाव
सहिष्णुता
मजबूत नींव
धैर्य आदर्श 
कि वो अपने
पूर्वजों को कुछ
आदर से याद करें
चैन से जी सके
और अपनी अगली पीढ़ी को 
कुछ अच्छा देने की सोचें....

कुसुम कोठारी।
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विधा - अलंकारिक कविता

किरणों के वस्त्र।

ये रजत बूंटों से सुसज्जित नीलम सा आकाश
ज्यों निलांचल पर हिरकणिका जड़ी चांदी तारों में

फूलों ने भी पहन लिये हैं" वस्त्र" किरण जाली के
आई चंद्रिका इठलाती पसरी लतिका के बिस्तर पे

विधु का कैसा रुप मनोहर तारों जडी पालकी है
छूता निज चपल चांदनी से सरसी हरित धरा को

स्नान करने उतरा हो ज्यों निर्मल शांत झील में
जाते जाते छोड़ गया कुछ अंश अपना पानी में

ये रात है या सौगात है अनुपम कोई कुदरत की
जादू जैसा तिलिस्म फैला सारे विश्व आंगन में।
स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
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"चाँद बादल की लुक्का छिप्पी"

आज चाँद के नूर पे देखो
फिर बदरी सी छायी है ,
मौसम है कुछ महका बहका
चंद्रिका घूंघट ओट कर आयी है ,
क्या पीया मिलन को जाना है
जो यूं सिमटी सकुचायी है ,
अंखियां ऐसे झुकी कि जैसे
पहली मिलन रुत आयी है ,
कभी छुपाये खुद को
बादल के मृग छौनो में ,
कभी झांकती हटा घटा
घूंघट के कोनो से ,
निशा , चुनर तारों वाली
झिलमिल झलकाती है ,
और कभी नीला नीला
अपना आंचल लहराती है ,
आज बादलों ने देखो
चाँद से खेली छुप्पम छुपायी है ।
स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
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तिश्रंगी में जो डूबे रहे राहत को बेकरार है
उजड़े घरौदें जिनके वह ही परेशान है ।

रात के काफिले चले कौ़ल करके कल का 
आफताब छुपा बादलों में क्यों पशेमान है

बसा लेना एक संसार नया, परिंदों जैसे
थम गया बेमुरव्वत अब कब से तूफान है

आगोश में नीदं के भी जागते रहें कब तक
क्या सोच सोच के आखिर अदीब हैरान है

शजर पर चाँदनी पसरी थक हार कर 
आसमां पर माहताब क्यों गुमनाम है।

स्वरचित। 

कुसुम कोठारी।
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 किस्मत क्या है!! 

कर्मो द्वारा अर्जित लब्ध और प्रारब्ध ही किस्मत है... 

पूर्व कृत कर्मो से
जो संजोया है 
वो ही विधना का खेल है 
जो कर्म रूप संजो के
आया है रे प्राणी 
उस का फल तो
अवश्य पायेगा 
हंस हंस बाधें कर्म 
अब रो रो उन्हें
छुडाये जा
भाग्य, नसीब,
किस्मत क्या है ? 
बस कर्मो से संचित
नीधी विपाक
बस सुकृति से
कुछ कर्म गति मोड़
और धैर्य संयम से
सब झेल
साथ ही कर
कृत्य अच्छे
और कर नव भाग्य
का निर्माण ।

स्वरचित 
कुसुम कोठारी।
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शीर्षक "जीवन जल का बुदबुदा" 

किस का गुमान कौन सा अभिमान 
माटी में मिल जानी माटी की ये शान।

भूल भुलैया में भटका
खुद के गर्व में तूं अटका
कितने आये कितने चले गये मेहमान
माटी में मिल जानी माटी की ये शान। 

एक पल के किस्से में
तेरे मेरे के हिस्से में
जीवन के कोरे पल अनजान
माटी में मिल जानी माटी की ये शान।

ना फूल झुठी बड़ाई में
ना पड़ निरर्थक लडाई में
सब काल चक्र का फेरा है नादान
माटी में मिल जानी माटी की ये शान। 

तूं धरा का तुछ कण है
आया अकेला जाना क्षण में
समझ ले ये सार मन में कर सज्ञान 
माटी में मिल जानी माटी की ये शान। 

किसका गुमान...
स्वरचित 

कुसुम कोठारी ।

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1 झुलसी धरा
मुरझाई लताऐं
बिना जल के ।

2 प्यासी नदिया
कृषकाय झरने
पानी की आस ।

3 सूने चौबारे
पशु हैं कलपते
नीर की कमी।

4 पानी के बिन
गर्मी में झुलसता
कर्फ्यू सा गांव।

5 फटी है धरा
किसान लाचार से
जल ही नही।

6 क्षरित वृक्ष
रेत आंखो में झोंके
आजा रे पानी।

7 प्यासे हो कुवे
फ्रिज ए सी के ठाठ
बिकता पानी।

स्वरचित।
कुसुम कोठारी
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जीवन पल पल एक परीक्षा
महाविलय की अग्रिम प्रतिक्षा।

अतृप्त सा मन कस्तुरी मृग सा 
भटकता खोजता अलब्ध सा
तिमिराछन्न परिवेश में मूढ मना सा
स्वर्णिम विहान की किरण ढूंढता
छोड घटित अघटित खोजता ।
जीवन पल पल एक परीक्षा...

महासागर के महा द्वंद्व सा
जलता रहता बङवानल सा
महत्वाकांक्षा की धुंध मे घिरता
खुद से ही कभी न्याय न करता
सृजन में भी संहार ढूंढता ।
जीवन पल पल एक परीक्षा...

कभी होली भरोसे की जलाता
अगन अबूझ समझ नही पाता
अव्यक्त लौ सा जलता जाता 
कभी मन प्रस्फुटित दिवाली मनाता
खुश हो मलय पवन आस्वादन करता ।
जीवन पल पल एक परीक्षा....

भ्रमित मन की रातें गहरी जितनी 
"उजाला" दिन का उतना कमतर
खण्डित आशा अश्रु बन बहती
मानवता क्षत विक्षत चित्कार करती
मन आकांक्षा अपूर्ण अविचल रहती।
जीवन पल पल एक परीक्षा ....

कुसुम कोठारी।
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2 लघु कविता। 
1सिसकती मानवता 

सिसकती मानवता
कराह रही है
हर ओर फैली धुंध कैसी है
बैठे हैं एक ज्वालामुखी पर
सब सहमें से डरे डरे
बस फटने की राह देख रहे 
फिर सब समा जायेगा
एक धधकते लावे में ।

2 ममानवता का दिवाला

पद और कुर्सी का बोलबाला
मानवता का निकला दिवाला
अधोगमन की ना रही सीमा
नस्लीय असहिष्णुता में फेंक चिंगारी
सेकते स्वार्थ की रोटियाँ
देश की परवाह किसको
जैसे खुद रहेंगे अमर सदा
हे नराधमो मनुज हो या दनुज।
स्वरचित। 

कुसुम कोठारी


" शहीदों की रोती आत्मा" 

सर पर कफन बांध कर निकले घर से

मरने से डर कैसा मरने को निकले घर से
घरवालों को पत्थर कर दिल पर पत्थर रख निकले घर से
देश पर करने निज प्राण उत्सर्ग निकले घर से
एक एक सौ को मार मरेंगे यही सोच निकले घर से
एक एक टुकड़ा वापस लेंगे धरा का यही ठान निकले घर से
क्या पता गीदड़ यूं सीना चीर देंगे घुस के घर में
सोये शेरों का यूं कलेजा निकाल चल देंगे घर से
मरना तो था पर ना सोचा कभी यूं मरेंगे अपने घर में
बेखबरी में ही भेट चढ़ जायेंगे, धूर्त धोखे बाज गीदड़ो के, वो भी घर में।

कुसुम कोठारी।


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मन की अगणित परतों मे दबी ढकी आग 
कभी सुलगती कभी मद्धम कभी धीमी फाग।

यूं न जलने दो नाहक इस तेजस अनल को 
सेक लो हर लौ पर जीवन के पल-पल को।

यूं न बनाओ निज के अस्तित्व को नीरस
पकालो इस लौ पर आत्मीयता की मधुर पायस।

गहराई तक उतर के देखो सत्य का दर्पण
मन की कलुषिता कर दो इस लौ में तर्पण ।

अज्ञान का कोहरा ढकता मति लौ को कुछ काल
मन मंथन का गरल पी शिव बन, उठा निज भाल।
स्वरचित 
कुसुम कोठारी
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दस्तक दे रहा दहलीज पर कोई 
चलूं उठ के देखूं कौन है
कोई नही दरवाजे पर
फिर ये धीरे धीरे मधुर थाप कैसी
चहुँ और एक भीना सौरभ
दरख्त भी कुछ मदमाये से
पत्तों की सरसराहट
एक धीमा राग गुनगुना रही
कैसी स्वर लहरी फैली 
फूल कुछ और खिले खिले
कलियों की रंगत बदली सी
माटी महकने लगी है
घटाऐं काली घनघोर, 
मृग शावक सा कुचाले भरता मयंक
छुप जाता जा कर उन घटाओं के पीछे
फिर अपना कमनीय मुख दिखाता
फिर छुप जाता
कैसा मोहक खेल है
तारों ने अपना अस्तित्व
जाने कहां समेट रखा है
सारे मौसम पर मद होशी कैसी
हवाओं मे किसकी आहट
ये धरा का अनुराग है
आज उसका मनमीत
बादलों के अश्व पर सवार है
ये पहली बारिश की आहट है
जो दुआ बन दहलीज पर
बैठी दस्तक दे रही है
चलूं किवाडी खोल दूं
और बदलते मौसम के
अनुराग को समेट लूं
अपने अंतर स्थल तक।
कुसुम कोठारी।

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