मीना तिवारी



14/12/19

सैकड़ो प्रदर्शन
विरोध अवरोध
धरने घेराव
पुतलों का जलाव
जुड़ रही रैलियां
चौराहों पर सभा
चर्चाय बाजार
गर्म समाचार
मीडिया प्रवाह
हंगामे में हंगामा
घर हो या बाहर
संसद हो या न्यायालय
मसला कोई भी
मंदिर हो या मस्जिद
बलात्कार हो या दुराचार
या राजनीति समाचार
वेतन भत्तों का राज
जनहित के लिए
या जनमत हेतु
होता धन अपब्य्य
नही होते असहायों
के सहाय
बस करते है कैंडल मार्च
नारे बाजी
काली पट्टी
विरोध की घुट्टी
विरोध था उपवासों का
कुछ गिरती उठती साँसों का
डरता था शासन काल
अब पहन मुखौटा
करते विरोध
आनन फानन का
फिजूल सा जोश

स्वरचित
मीना तिवारी

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12/12/19

जब खुद करने लगा मैं कमाई।
माँ बाप की कीमत समझ आई।

घिसे जूतों की जबदेखी सिलाई।
ब्रांडेड जूतों की कीमत समझ आई।

फटे कपडो की पुनः देखी तुरपाई।
अपनी कमीज की कीमत समझ आई।

टूटी साइकिल ही जीवन भर भाई।
अपनी बाइक की कीमत समझ आई।

खुद चले बसों में धक्के खाकर।
हवाई जहाज की कीमत समझ आई।

सादा भोजन ही मुझको भाएभाई।
हमे हमेशा जवानी की कीमत याद दिलाई।

आज जब बच्चों की देखी पढ़ाई।
सच पापा की असली कीमत याद आई।

स्वरचित
मीना तिवारी

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0/12/19
विषय संतुलन


न होती कभी ब्यथित
न ही कभी आहत
न करती कभी विलाप
न ही कोई आलाप
न दिखाती है उन्माद
न रोना न ही मुस्कराना
सङ्ग परिस्थितियों के
करना समझौता
चलती ही रहती अपने सफर में
निरंतर सन्तुलित प्रभाव में
शामिल होती हर किसी के
सुख दुख में
देती साथ सभी को
समान रूप से
वर्षो से एक ही एहसास के सङ्ग
दौड़ रही है एक ही रास्ते पर
जन्मों जन्मों से
हादसों पर हादसे होते है
कुछ लोग दोषी उसे कहते है
न कोई दर्द न लगाव
जीती है लेकर सन्तुलित जीवन
ओ सड़क तुझे देख
याद आ गया
एक श्लोक
महान पुरुषो पर सुख दुख लाभ हानि पर कोई प्रभाव नही पड़ता
तू भी उनमे से है.......

स्वरचित
मीना तिवारी


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9/12/19
विषय नियति

देखो वो सामने
विशाल बरगद का पेड़
जिसकी टहनियों
को लताये छूती थी
सैकड़ो पंछी
चहचहाते थे उसपर
गीत गाते थे
घोसले थे उनके
राही आंनद
लेते थे छ।व का
पत्ते सङ्गीत के
साथ हवा देते थे
जानते हो
अब वो बूढा हो गया
उसकी टहनियां
कमजोर हो गई
जटा ये सूख गई
पंछी भी नही आते
वक्त की बात
अब कोई नही जाता
उसके पास
वो अब बूढा
औऱ लाचार जो है
कभी जो था
सबका प्यारा
अब ठूठ बन गया
सच मे वक्त एक सा नही
रहता
जीवन काल
की तरह परिवर्तित
होता रहता है
चक्र की तरह

स्वरचित मीना तिवारी

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8/12/19
विषय स्वतंत्र


अलसाई सी सुबह
छाई उदासी
किरणे है रूठी
मुट्ठी में रेत
फिसलते समय
की तरह
शायद है कुछ भूली
या दिल मे कुछ दर्द
सहमी हुई सी
या रोका है किसी ने
टोका किसी ने
रोज आ जाया करती थी
अपने समय से
वक्त की पाबंद
स्वर्ण आभा युक्त
है इंतजार सभी को
या नीद नही खुली
धुन्ध की एक परत
छाई है चारो तरफ
किसी ने फैलाई
प्रदूषण की चादर
डरने लगी वो भी
बेटियों की तरह
मानव के करतूतों से
अपने स्वार्थ के लिए
कुछ भी कर सकता
आज का स्वार्थी नर
फिर बेटी हो या प्रकृति.....

स्वरचित
मीना तिवारी

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