Vipin GoelVipin and 85 others joined "भावों के मोती" within the last two weeks. Give them a warm welcome to your community! Vipin and 85 others joined "भावों के मोती" within the last two weeks. Give them a warm welcome to your community!
बचपन से पचपन तक का सफर था बड़ा न्यारा
जवानी की अमीरी से गरीब बचपन था बड़ा प्यार।।
ना ईर्ष्या थी ना चिंता थी न जिम्मेदारी का साया था
खाली जेब टूटे बटन गंदे कपड़ो में सब कुछ पाया था
ना जाति पाति का बंधन था ना ही धर्मो की बेड़ी थी।
ना फरारी थी ना सफारी थी बस एक लकड़ी की रेहड़ी थी।
ना पसंद दिल्ली है ना बम्बई और सूरत है।।
बस एक बार फिर उस गरीब बचपन की जरूरत है।।
"""""स्वरचित- विपिन प्रधान"""""
खुदघिर गया है
ना जाने अपनी चाहतों
में कहाॅ खो गया
अपने ही बिछाये जाल में
कैद हो गया है इन्सान
पाप बोझ की गठरी से
लद गया है इन्सान
बचपन से पचपन का
हो गया है बुरा इन्सान
स्वरचित एस डी शर्मा
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यह सरिता से सागर जैसी यात्रा थी
आरम्भ में अध्यात्म की एक कुशल पात्रा थी
उम्र के बहाव चढ़ते रहे
इसमें रिसाव बढ़ते रहे।
यह भी गंगा की तरह गंदी होती रही
ईश्वर की ओर इसकी गति मंदी होती रही
बचपन की वह निश्छल मुस्कान
कुटिलता की ही बन्दी होती रही।
बचपन की निर्मलता को छद्म लूट गया
भोलेपन से तारतम्य सारा छूट गया
जीवन के इस विचित्र प्रवाह में
मन का आनन्द रुठ गया।
इधर उधर के विचार नृत्य करते थे
अपने स्वार्थ साधने के कृत्य करते थे
भोले भाव मिले रघुराई भूल गये
हालाकि यह रोज़ पढ़ा करते थे।
सरिता तो पा लेती सागर
किन्तु मेरे पास रही गन्दी गागर
अब किस मुंह से कहूॅ दे दो दर्शन
ओ नियति के सुन्दर नट नागर।
बचपन कोमल निर्मल निश्छल मन,
समता से भरा प्रेम सागर।
बाल्यावस्था शैशवावस्था पारकर
किशोरावस्था का अनूठा सागर।
समझदार लगने लगा जब सिर पै धरी यौवनावस्था की गागर।
जिम्मेदारियां बढने लगी धीरे धीरे,
शादीशुदा हुऐ जब सभी हम।
बच्चे हुए फिर इनका लालन पालन
दबने लगे बोझ तले सभी हम।
बढने लगी बच्चों की पढाई लिखाई,
भूल गए सब मस्ती और बचपन।
जिंन्दगी के मायाजाल में फंसकर,
पहुंचे अभी हम उम्र पारकर पचपन।
अब शरीर में वो शक्ति रही न
नहीं रहा वो प्यारा सा बचपन।
याद आता है हमेशा याद आता रहेगा
हमको सदा ही सुहाना बचपन।
ता उम्र नहीं भूल सकते हम शायद ,
कभी खेले कूदे वो दिन लडकपन।
देह शिथिल पड गई हमारी।
आफत बनी कुछ नई बीमारी।
वैसै भी चंद दिनों के मेहमान हम,
जिंन्दगी जीना बन गई लाचारी।
फिर से हमारा जीवन बचपन बन गया है।
रूठना मनाना हमारा शगल बन गया है।
बच्चों बहुओं की शायद मुशीबत बने हम,
ये पचपन का जीवन बचपन बन गया है।
स्वरचितः
इंजी शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म .प्र.
जय जय श्री राम राम जी।
एक अरसा बीत गया
बचपन से रुबरु हुए
दर्पण के समक्ष बैठी हूं
पचपन की दहलीज़ पे
जीवन के बहते सफर में
कब बचपन जिया था
श्वेत टेसू लगाए गेसू में
वो लम्हें खोज रही हूं
सुन्दर निश्चल निश्चिंत
बचपन कब जी पाई थी मैं
रिश्तों की कड़वाहट से
सहमती आई थी मैं
यौवन बेला में पिया संग
खिलखिलाइ थी मैं
मासूम बचपन जाने कहां
छोड़ आई थी मैं
आज खुश थी मैं
बचपन ठहर गया था
जब आंचल में मेरी
मेरा अक्स खिल गया था
जीवन के झंझावतों से
जिन्दगी आम हो गई थी
दायित्वों को पूरा करते करते
शाम हो गई थी
बीते लम्हों की उहापोह
कहां खींच लाई थी
दर्पण में दिखी आंगन
की किलकारी लौट आई थी
निःस्वार्थ निष्कलंक निश्चिंत
बचपन खेल रहा था
पोतों के खिलौनों को
मेरा बचपन जी रहा था
दिल बच्चा हो गया है
आज सन्तुष्ट हूं गुदगुदा रही हूं
पचपन में बचपन का
आनन्द उठा रही हूं
स्वरचित : मिलन जैन
दिनांक: ३१ मई २०१८
31-5-2018
बचपन से पचपन
पचपन में भी बचपन रखिये
जवां सदा मन खुद में रखिये।
माना तन है थका थका
मन से खुद को नौंजवां रखिये।
बचपन से पचपन है आया
हर दौरे लुत्फ उठाते रहिये।
खट्टी मीठी बातों की गठरी
अंत समय तक साथ है रखिये।
न देखें क्या छूट गया है
हाथ जो आया ,संभाले रखिये।
बचपन से पचपन कठिन चढ़ाई
हौसले बुलंद चढ़ने के रखिये।
वीणा शर्मा
मन के कोने में रहा बच्चा, तन ढलता गयाl
छोटी छोटी ख़ुशी को,वक्त सहेजता गया
यादें समेटे हर उम्र की , सफर चलता गयाl
वक्त की आँधी में बचपन, धूल बन उड़ता गया
जिम्मेदारी बोझ पचपन तक, कर्ज सा चढ़ता गयाl
बच्चों की आँखों में, अपना बचपन ढूँढता गया
कर्म की राह चलते हुए,उनके स्वप्नों को बुनता गयाl
ऋतुराज दवे
प्रस्तुति 02
31 मई 2018
"बचपन से पचपन "
बचपन बहुत नादान और भोला होता है
पर तीक्ष्ण बुद्धि और चुस्ती फुर्ती का स्वामी होता है
यदि पचपन रहेगा और खेलेगा
बचपन के सँग
हँसी खुशी के साथ उत्तम मनोरंजन होता है
सब पचपन वालों को चाहिये खेलें बचपन के सँग
और जीवन में पायें खुशियाँ और भरपूर उमँग
(स्वरचित)
भावों के मोती
कवि जसवंत लाल खटीक
( स्वरचित )
बचपन बड़े , नाज़ो से बीता ,
माँ-बापू के , लाड़-प्यार में ।
सबका , राजदुलारा था ,
मेरे प्यारे से , बचपन में ।।
पाँच बरस तक ,मौज मस्ती ,
बात- बात पर , सबसे झगड़ता ।
भाई- बहनों का , लाडला ,
मन ही मन , मै ,खूब अकड़ता ।।
दस बरस में , पढ़ाई करने ,
शहर मुझको ,भेज दिया ।
परिजनों , का साथ छुटा ,
तन्हा मै , अब रह गया ।।
बीस बरस में , आते-आते ,
नोकरी मुझको , मिल गयी ।
इक्कीस में , मेरी शादी हुयी ,
सपनो की रानी , मिल गयी ।।
पच्चीस बरस , में मुझको ,
बाप , बनने का , सौभाग्य मिला ।
बेटी और बेटे , को पाकर ,
जीवन का , आनन्द मिला ।।
तीस से पैंतीस , बरस में ,
जिम्मेदारी , का बोझ बढ़ा ।
बच्चों की शिक्षा , के साथ ,
जीवन में और , जोश बढ़ा ।।
चालीस बरस , में आते-आते ,
बालो में , सफेदी आयी ।
रिश्ते नाते , निभाते-निभाते ,
जिंदगी , थोड़ी सी मुस्करायी ।।
जिंदगी के , अर्धशतक में ,
बच्चों की शादी, की चिंता ।
शौक मौज से ,शादी करवाके ,
बहुत ही खुश , हुआ मै , पिता ।।
बचपन से पचपन , तक, "जसवंत ",
जिंदगी को , जी भरके जिया ।
मोह माया , सब कुछ त्याग कर ,
प्रभु ! की भक्ति , में तन-मन दिया ।
"बचपन से पचपन"
सपने सजोते नई उमंगे नई कहानी
अच्छी लगती चाँद तारों की कहानी
नानी और दादी की ही जुबानी
गुजरते पल चढ़ती जवानी
खाबों को सच करने की कहानी
कर्मों से जुड़ने मौज़ों की रवानी
सूरज चढ़ता रहा दिन ढलता रहा
साथ साथ सुख दुःख जीता रहा
रिश्ते नाते मिलते और बिछुड़ते रहे
गुजरते पल झलकते पलकों पर
बिखरते सपने अधूरी कहानी
ढलती जवानी धूमिल कहानी
है पचपन की बातें पूरानी
सुबह से शाम तक का पहर
है बचपन से पचपन का सफर
सबकी है यही राम कहानी
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल