Thursday, May 24

"रूप "-17 मई 2018



माथे पर सिंदूरी सूरज,
नैन कटीले कजरारे।
कमल पंखुड़ी होठ तुम्हारे,

उस पर तीखी सी मुस्कान।
सुर्ख लबों से स्नेहसुधा,
अमृत रस बरसाती हो।
सुराहीदार गर्दन पे,
श्वेत धवल मोती की माला।
घनघोर घटा से काले गेसू,
लहर लहर लहराए।
कानो मे वर्तुल झुमके,
हाथों में छमछम चूड़ी।
पाँव मे पैजनियां,
सुर्ख महावर क्यारी।
तारों से यूँ माँग सजा कर,
लाल चुनरिया अंग लगा कर।
तू आइने से क्या पूछे!
मेरी ओर तू देख जरा!
तेरे अप्रतिम रूप को,
एक टक मैं निहार रहा।
सुबह से कब शाम हुई,
ये भी मुझको ना ध्यान रहा।
©प्रीति



भा.1*17/5/2018गुरुवार शीर्षक ःरूप ः
रूप तुम्हारा बहुत सलोना
हे मनमोहन गिरधारी।

कौन नहीं जो मोहित होऐ
सबके सब बलिहारी।
तेरा रूप निहारने कान्हा
लगती तेरे दर पर भीड।
मानव मात्र की बात नहीं ये
पशुपक्षी छोडे नीड।
सुबह शाम दर्शन की चाहत में
सब दौडे दौडे आते ।
रूप निहारकर तेरा कान्हा,
हम सुधबुध खो जाते।
पता नहीं क्या जादू तेरे नैनों में,
हम पागल हो जाते।
तेरी अँखियों की चितवन से श्यामा,
हमसब घायल हो जाते।
मनमोही मनमोहक मनमोहन मेरे हमको दीदार कराजा।
सभी चाहते नित दर्शन हों तेरे,
हमें सुंन्दर रुप दिखा जा।
ये चारू चंन्द्र सा रूप कन्हाई,
सबको बहुत सुहाता।
निशदिन चाहें इसे निहारें
यह हमको बहुत लुभाता।
कौन छवि की बात करुँ जो मेरे
मंन्दिर में नहीं बसी हुई है।
बाँकेबिहारी तेरी श्यामल मूरत,
मेरे अंतरतम मे धंसी हुई है।
अब तो खुद आकर नंदलाला,
अपना रूप दिखा जा।
सभी भक्तजनों को हे नटनागर,
वो अद्भुत रूप दिखा जा।
स्वरचितः
इंजी.शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम जी।


 प्रस्तुति 03

17 मई 2018


" रूप "

आज पांच (05) हाइकु प्रस्तुत हैं

हाइकु -01
^^^
रूप रसीला
मस्त होते भवरें
झूमता पुष्प

हाइकु 02
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शर्माती कली
सलोना पाया रूप
उड़ा पतंगा

हाइकु 03
^^^

रूप गर्विता
झूमे हवा से कली
गाती तितली

हाइकु 04
^^^

तेरा दीवाना
आया भौंरा मस्ताना
खिल जा कली

हाइकु 05
^^^

मादक रूप 
खिली खिली सी काया
फूल मुस्काया

(स्वरचित)

अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव



रुप
🎈🎈
अच्छा लगता है सुन्दर रुप
सर्दी की जैसे सुनहरी धूप
और इसमें जब होती मुस्कान 
बढ़ जाती है और भी शान। 

संयम से हो मानों तराशा
मृदु बोल और अच्छी भाषा
चान्दनी सी उज्ज्वल अभिलाषा 
रुप की यही सच्ची परिभाषा। 

कविता देख धन्य हो जाये
एक एक शब्द उसमें खो जाये
सौन्दर्य लिए अलंकृत हो जाये
कवि सराहना से उपकृत हो जाये।


 शीर्षक: रूप

ओ मतवाली नखरे वाली

रूप तेरा अंगार रे
नैन कजरारे मृगनयनी से
दिल पर करे प्रहार रे

चेहरा जैसे चांद खिला है
फीका सब संसार रे
लब गुलाबी पंखुड़ी वाले
हंसी तेरी कमाल रे

स्याह गेसू घुंघरवाले
रेशम की तू डाल रे
माथे की बिन्दिया चमचम करती
रूप तेरा बेमिसाल रे

नाक में नथनी आभा बिखेरे
दिल तो ज़रा संभाल रे
हाथ में चूडी खनखन करती
गले बासंती हार रे

कमर कटीली बलखाए ऐसे
हिरणी सी तेरी चाल रे
पायल तेरी छन छन करती
चूनर गोटेदार रे

रुप लावण्य तो ऐसे निखरे
जब करे श्रृंगार रे
नारी रूप स्वरूप अनुपम
भूलूं सब संसारे रे

भोग ही समझे भोग ही जाने
मानस पटल महान रे
भीतरी रूप को क्यूं नहीं निरखे
अन्तर्मन तो संभाल रे

मातृ रुप की आभा मुझमें
ममत्व मेरी पहचान रे
भार्या रुप में साथ निभाऊं
कर मेरा सम्मान रे

संकट से मैं ना घबराऊँ
शक्ति रूप महान रे
दैव्य रूप में पूजी जाऊँ
मेरा अस्तित्व तो पहचान रे

आत्म रुप की करे जो व्याख्या
हो मानव कल्याण रे
रूप की महिमा बड़ी ही अद्भूत 
मैं अदना इंसान रे

स्वरचित मिलन जैन


किस काम में रूप निखरता और आता सुख भरपूर
ऐसे काम को पहचानो नही रहो उससे तुम दूर
।।

रूप न देखा पैसा देखा पैसे से हो गये मगरूर
हर इंसान यहाँ अधूरा लाना होता है खुद ही नूर ।।

पोत रहे हैं क्रीमें कितनी कर रहे खुद को बेनूर 
बाह रूप की प्रतिस्पर्धा आन्तरिक रूप चकनाचूर 

मेरे भाई मेरी बहना समझो बात करो सहूर
सुकरात को सबने सुना दुनिया में है मशहूर ।।

बाह रूप न सुन्दर था पर मरतीं थीं उस पर हूर
दुनिया की न दौड़ में जाओ दुनिया में अलग सुरूर ।।

श्रंगार करो सदा ऐसा जिसमें नाचे मन मयूर
यही ''शिवम" सच्चाई करना होती है मन्जूर ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"


रूप देखकर उसका मेरा दिल लिखने का करता
पर लिख पाऊंगा क्या मैं उसकी अद्वितीय सुंदरता 

एक चांद है दिखे गगन में, एक चांद है नीचे
मैं उसको देखूं चाहे जब चाहे हूं मैं आंखें मींचे

उसकी आंखें दिखें कमल की पंखुड़ियों सी प्यारी
चेहरे का भी नूर है ऐसा जैसे छाई हो उजियारी

नरम मुलायम हैं लब उसके खिले हुए इक गुल से
वो जब बोले तो यूं लगता बात हो रही हो बुलबुल से

हैं काली जुल्फें उसकी हो रात अमावस काली जैसे
उनमें से उसका चेहरा चमके पूनम के चंदा जैसे

जो उसके तीखे नयनों पर भँवें धनुष के जैसी दिखती
उसके ही वो तीक्ष्ण बाण से सबको घायल करती फिरती

चेहरे की मुस्कान मुझे पागल है यूं करके कर देती
देख उसे दिल में चाहत पाने की है अंगड़ाई लेती

देख गले का हार करें ईर्ष्या उससे हैं मेरी बाहें
वो करके आलिंगन हैं गलहार उन्हीं का बनना चाहें

उसके गालों से रह रह करके हैं जब वो कुंडल टकराते
बहुत रश्क खाते हैं मेरे लब जो उनको छू ना पाते

समीर "अनिल"
(स्वरचित)




तू बहुरूपा हे रूपा ,
बहुरंग धरे तू रूपा l
कही मकड़ जाल बुने ,
कही चंचल चाल चुने l
कभी करे मन मतवाला ,
कभी बने जीवन हाला l
देवता दानव जो भी होये ,
समझे न सके तुझे कोये l
तूने राजा को दास बनाया ,
रंक को तूने खास बनाया l
अजर अमर सी तू लगती है ,
ठगनी बन कर तू ठगती है l
रूप तेरा भी उतरता है रूपा ,
वक्त जो तुझसे लिपटता है रूपा l
मस्त नयन साथ छोड़ जाती है ,
अलमस्त यौवन मुख मोड़ जाती है l
टूट जाता है दांतो का सब घेरा ,
रह जाता है कंकालों का बस डेरा l
फिर रूप तुझसे आँख चुराती है रूपा ,
नव यौवन से आँख मिलाती है रूपा l
उसको भी मिलते है मस्त नयन ,
उसको भी मिलते है अलमस्त यौवन l
उस पर भी चढ़ता रूप का सुरूर रूपा ,
उस पर भी छाता है रूप का गुरूर रूपा l
भूल जाती है वह तेरी ढलती जवानी को ,
सच मान लेती वह यौवन की कहानी को l
ऊपरवाला भी जोर देता है इस नादानी को ,
वह बढ़ाती जाती है अपनी मनमानी को l
फिर एक दिन जीवन में ऐसा आता है ,
उसका रूप यौवन भी ढल जाता है l
मै किसी की नहीं हूँ रूप कह जाता हैं रूपा ,
सबका स्वरूप यही रूप कह जाता है रूपा l


आज के शीर्षक रूप पर मेरी ये कविता आप सबकी नज़र...इसमे हर रंग का गुलाब एक नारी रूप मैं कैसे समाया हुआ है...देखिएगा..... 
हंसता हुआ गुलाब

हंसते हुये चेहरे की अदावरी, हंसते हुये गुलाब से यूं करी,
तुम्हारी मुस्कान ही है इतनी, मोहक गुलाबी सी मदभरी।
अधर है जैसे कोमल, मालकौस गाती सी वो दो पंखुङिया,
कितना समानीकरण है फिर, तेरे और गुलाबों के दरमयां।

झील सी नीली आंखों की शोखियो में, खिलता नीला गुलाब
ये कुछ पीले गुलाब बंया करते हैं, तेरी मधुरता और शबाब।
सादगी और मासूमियत तुझमें, फिर उस सफेद गुलाबों सी
तेरी घनेरी जुल्फें ओस भीगी, बिरहन है काले गुलाबों सी।

तुम्हैं रक्खूं सहेज कर किताब में, तुम प्रेम कहानी सी रूहानी,
मंत्रमुग्ध सी सुगन्ध को बिखेरती, भीनी भीनी गंध जिस्मानी।
इस प्यार के रंग मे रंग जाओ, मेरी शाम रूमानी सी गा जाओ
शूल में खिलती सी तुम, हंसता हुआ फूल गुलाबी बन जाओ।

-----डा. निशा माथुर/8952874359


 चंद हाइकु 
विषय -रुप 
(1)

स्वार्थ के संग 
समय ने बिगाड़ा 
धरा का रुप 
(2)
जीवन धूप 
माता पिता की दुआ 
छाते का रुप 
(3)
रुप हजार 
शक्ति, भक्ति या प्रेम 
नारी अपार 
(4)
रुप निखारे 
सूरज, चाँद, तारे 
धरा सँवारे 
(5)
मन ना पूछ 
दिखावे की दुनियाँ 
बिकता रुप


प्रथम गुरू माँ वैध है, माँ देवी का रूप। 
सारी दुनिया से लड़े, माँ शक्ति का स्वरूप।।१ 

जीवन पथ में जब कभी, हो कड़ी तेज धूप। 
ठंढ़ी शीतल छांव दे,माँ का सुन्दर रूप।।२ 

माँ जीवन का सार है, माँ ही पालनहार। 
माँ ममता का रूप है , माँ से प्यार दुलार ।। ३

पढ़ ली सारी पोथियाँ, मिला एक ही ज्ञान। 
इस पूरे संसार में, माँ का रूप महान।। ४

स्वर्ग रूप जिसके चरण, वो है माँ का नाम। 
माँ ही सारे तीर्थ हैं, माँ ही चारों धाम।।५

मंदिर-मंदिर ढूंढ़ते,हो कितने नादान। 
मात-पिता के रूप में, घर में ही भगवान।। ६
-लक्ष्मी सिंह


 नमन मंच।
रूप नही है जीवन का सार।
इसके पीछे मत भागो इसांन।

गुण है यदि अपार, तो पीछे भागे संसार।
रूप की चर्चा दो दिनों की
।गुणों की चर्चा युगों युगों की।
रूप को पाकर न भूलें कर्त्तव्य।
कर्तव्य ही है जीवन का सार।
कर्तव्य के है रूप अनेक।
जिसे पूरा करे हम दिन रात।

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