लेखिका परिचय
01-नाम - डॉ. उषा किरण 02-जन्म तिथि - 14 अगस्त 03-जन्म स्थान - परसौनी नाथ, मुजफ्फरपुर (बिहार) 04-शिक्षा - बी.एड, पीएच. डी. (समाजशास्त्र) 05- सृजन की विधाएँ - कविता, कहानी, हास्य - व्यंग्य, दोहे,कुंडलियां , गजल 06-प्रकाशित कृतियाँ - उम्मीद की किरण, तू अपराजिता (एकल काव्य संग्रह) (तेरे मेरे गीत, स्वर निनाद, सुहानी भोर (प्रकाशन प्रक्रिया में एकल संग्रह) तेरे मेरे शब्द, शब्द कलश, स्त्री एक आवाज, शब्द - शब्द कस्तूरी , शब्दों का कारवाँ, मुक्त तरंगिनी (साझा संग्रह) 07- प्राप्त सम्मान - काव्य संपर्क सम्मान - 2018, शब्द कुंज सम्मान 2018, काव्य सागर सम्मान 2018, माँ शारदे सम्मान - 2018, नारी शक्ति सागर सम्मान - 2019 08- संप्रति - शिक्षण और लेखन 09- सम्पर्क सूत्र - ग्राम +पोस्ट -
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
अपने मन का मैं सिकंदर
सुनता जा तू ओ! समंदर !
है मन मेरा कुछ हुआ विकल
बैठा फिर भी मैं अविचल
है संकल्प मन का बहुत बड़ा
उस पार बुलाता मेरा कल !
है एक समन्दर मेरे अंदर!
सुनता जा तू ओ! समंदर !!
बुला रहा मुझे नील गगन
मैं अपनी धुन में हूँ मगन
मैं चीर दूँ लहरों की छाती
जल रहा अन्तर ऐसी अगन !
आज हरा दूँ मैं बवंडर !
सुनता जा तू ओ! समंदर!!
मुझे वक्त ने कैसा छला है
पर नहीं मुझको गिला है
हैं हौसले भी बुलंद मेरे
मेरा 'मैं 'मुझसे मिला है!
मैं अपने मन का हूँ सिकंदर!
सुनता जा तू ओ! समंदर!!
डॉ उषा किरण
क्या यही प्यार है
झरता नभ से निरभ्र स्नेह,
चाँदनी इतनी शीतल कब थी?
पूरी सृष्टि कण - कण में,
चिर, नवीन व नूतन कब थी?
लुभाती लगती साँझ सिंदूरी,
गगन में मुस्काता कौन ?
मन में झरता हरशृंगार,
देह अनल दहकाता कौन?
मौन मुखर हो उठते हैं,
शब्दों के प्रस्फुटन में!
हो जाते हैं स्मित अधर,
भावों के अवगुंठन में !
अन्तर खिल-खिल पड़ता है,
हर आहट चौंकाती है।
हर शय अजब लगती है,
बहुधा सृष्टि भरमाती है।
पुरवाई घोलती रस कानों में,
बरखा मन को हर्षाती है।
चिहुक उठे तब मन पपीहरा,
काली घटा लगे तड़पाती है।
सुहानी यादें बन स्मित,
रहती अधरों पर डेरा डाले।
धरती-अंबर, रात, चाँदनी,
अजब से लगते मतवाले।
तन से लिपटी सी रहती है,
हर पल एक मृदुल ब्यार है।
मन चंचल समझ न पाता,
बतला दो क्या यही प्यार है?
डॉ उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
मैं हूँ
मैं हूँ ताल अंबर में,
नाविक हूँ और नाव भी।
मैं हूँ बादल की परछाई,
हूँ मैं गमों की छाँव भी।
है मन में विराग अति,
आती साँझ अकेली है।
छायी मन पर है बदली,
लगती झील पहेली है।
मनोभाव उकेरता मेघ,
ताल स्थिर नियति जैसा।
हो रहा बोझिल सफर,
विचलन आज यह कैसा !
है शुष्क हृदय धरा,
कितने सावन अब हैं बीते।
हिम हुआ है अन्तर पीर,
पर नैना बिल्कुल हैं रीते।
चित्र - विचित्र जीवन के,
बिम्ब जो देखूँ मैं अपना।
मैं साधे मौन बैठा हूँ,
खोया सब मौन में सपना।
डॉ उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
संग तेरा
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
संग तेरा प्रिय नित नई बात है,
हर अमावस लगे चाँदनी रात है।
प्यार तेरा समंदर से कम है कहाँ !
सीप के पहलू में बैठा है मोती जहाँ।
ख्वाहिशें सतरंगे नैनों में भरते हुए,
ख्वाब में संग तेरे विचरते हुए,
चाहतें हैं जो लहरों से कम तो नहीं!
मेरे पहलू में तू मोती से कम तो नहीं!
ज्यूं कलियों की बहारों से मुलाकात है...
संग तेरा प्रिय नित नई बात है,
हर अमावस लगे चाँदनी रात है।
घटा घिर के आती है सावन की जब,
सहज झूम जाता है मन मोर तब।
खुशबू बेला की अब तक जो केशों में है,
कुछ सिमटी हुई सी यादें सेजों में है।
हैं वे यादें लहकती चाँदनी रात में,
जो कट जाती थी बात ही बात में।
उन यादों की रिमझिम सी बरसात है...
संग तेरा प्रिये नित नई बात है,
हर अमावस लगे चाँदनी रात है।
डॉ उषा किरण
पूर्वी चंपारण, बिहार
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
गूँजता क्रंदन यहाँ,
सुन लो पुकार भी।
आस लगाए बैठे हैं,
करो तुम उद्धार भी।
धर वेश चंडी का,
दुष्टों को संहार दे।
रूप ले ममता का,
भक्तों को दुलार दे।
घूमते कितने चंड-मुंड,
करते उत्पात रात-दिन।
वसुधा भी बेचैन है,
गए सारे चैन छीन।
माँ, अपनी संतानों में,
सिंह का दहाड़ भर।
करो शत्रु का दलन,
दे वर न देर कर।
प्रकाशित हो हर उर,
निर्मल ज्ञान पुंज से।
दिग-दिगंतर गूँजित हो
शंख नाद की गूँज से।
सुन लो पुकार भी।
आस लगाए बैठे हैं,
करो तुम उद्धार भी।
धर वेश चंडी का,
दुष्टों को संहार दे।
रूप ले ममता का,
भक्तों को दुलार दे।
घूमते कितने चंड-मुंड,
करते उत्पात रात-दिन।
वसुधा भी बेचैन है,
गए सारे चैन छीन।
माँ, अपनी संतानों में,
सिंह का दहाड़ भर।
करो शत्रु का दलन,
दे वर न देर कर।
प्रकाशित हो हर उर,
निर्मल ज्ञान पुंज से।
दिग-दिगंतर गूँजित हो
शंख नाद की गूँज से।
डॉ उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
प्यास मिलन की जगी है।
क्यूँ कशमकश सी लगी है।।
कल-कल नदिया मै बन जाती,
और सागर बन जाते तुम।
मै तेरी लहरें बन जाती,
पूनम का चाँद बन आते तुम।
जबसे मन में प्रीत ये जगी है।
क्यूँ कशमकश सी लगी है।
तुम अगर बन आते अंबर,
और अवनि बन जाती मै।
तेरा नेह बन जाती शबनम,
तन मन सरस भिगोती मैं।
ये रात भी प्रेम में पगी है।
क्यूँ कशमकश सी लगी है।
राहों में दीपक बनकर,
तम को सहज भगाते तुम।
आँखों में तुम्हें बसा लेती,
ख्वाब अगर बन जाते तुम।
आँखें भी कब से जगी हैं।
क्यूँ कशमकश सी लगी है।
स्वरचित
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
आओ मुन्नी संग हमारे,
सुन्दर सा एक चित्र बनाएँ।
वृक्ष बनाएँ धरती पर,
और वृक्ष पर फूल खिलाएँ।
फूल पर बैठी सुन्दर तितली,
रंग -विरंगे पंखों वाली।
डोलती चंचल सी ईत -ऊत,
इन्द्रधनुष सी रंगों वाली।
आओ मुन्नी आकाश बनाएँ,
उसमें काले-काले बादल।
उड़ते-फिरते काले - काले,
झमझम पानी बरसाते बादल।
कागज का फिर नाव बनाएँ,
बहते पानी में उसे चलाएँ।
तेरी - मेरी नाव चले जब,
मीठे सुर में गाना गाएँ।
स्व रचित
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
स्वतन्त्र लेखन
29जुलाई2018
दिल है तो अहसास भी होंगे।
इंसान हीं हूँ मैं, कोई खुदा तो नहीं।
माना कि हो गई कोई गलती।
हम सबसे जुदा तो नहीं।
मन में कुछ हुआ,तो लड़ते झगड़ते हैं।
ये कोई गुनाह तो नहीं।
अपने को कभी मना भी लिया करो।
इंसान हीं हूँ मैं, कोई खुदा तो नहीं।।
सारे शिकवे,शिकायतें मिट जायेंगे।
मुस्कुराना कोई गुनाह तो नहीं।
एक बार मुस्कुरा लो तो,
पत्थर भी पिघल जाते हैं।
इन्सां हीं हूँ मैं, कोई खुदा तो नहीं।।
*******************
बिन राधा वह भी आधा है
*******************
सूनी सी गलियाँ मधुबन की,
सूना - सूना उपवन है।
जड़ चेतन भी सूना सा,
सूना राधा का मन है।
पंथ निहारत गुजरे निशदिन,
सदियाँ जैसे बीत गई।
अंखियाँ हो गई सावन भादो,
बदली बिन बरसे रीत गई।
वादा करके जो न आया,
ऐसा वो हरजाई है।
ठहरे यमुना जल में दिखे,
उसकी ही परछाई है।
गुमसुम बैठी यमुना तीर,
विकल हो रही राधा है।
कण-कण में छवि समाई जिसकी,
बिन राधा वह भी आधा है ।
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
दायित्व
**********
निभाते - निभाते
अपना दायित्व
बहुत दूर चली आई मैं
पर स्वयं छूट गई
कहीं पीछे ही
शायद स्वयं ही
छोड़ दिया खुद को
खो सी गई....
कतरा - कतरा रोशनी
बंद मुट्ठी से
फिसलती रही...
संग - संग ख्वाहिशें भी
दम तोड़ती रही...
दायित्वों के साँचे में
वजूद मेरा ढलता रहा....
कतरा-कतरा वक्त
वर्फ सा पिघलता रहा.... ।
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
रंग
***********
आँखें होती सपने बिन जब,
होता जीवन बेरंग।
आँखो में सपने जब सजते,
जीवन में भरते रंग।
मिट्टी के रंग एक है,
एक ही लहू के रंग।
अक्ल पर पट्टी बंधी,
मानसिकता हो गई तंग।
यह रंग बदलती दुनिया है,
यहाँ लोग बदलते रंग।
उन्हे देख गिरगिट भी,
रह जाता है दंग।
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
साँझ
**************
देखो ये सिंदूरी साँझ प्रिये,
मेरे मन को है अति भया।
लेकर छटा सलोना चंदा,
श्यामल गगन में आया।
देखो धरा नवेली भी,
कैसे सिमट रही है।
चाँदनी की चूनर,
गगन से लिपट रही है।
प्रीत की उष्णता में,
अंबर रहा पिघल है।
शबनम की झरती बूँदें,
होती धरा विकल है।
जाने हो कब से बैठी,
मुखड़ा सुजाय सजनी।
देखो मिलन को आतुर,
चली शृंगार करने रजनी।
विकल हो रहा मन,
मान भी तू जाओ।
जिया में लगी अगन है,
अब और न तड़पाओ।
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
सावन
*************
मन मयूर है नाच रहा,
देख घटा घनघोर।
पूर्वा करती मनमानी,
मन खींचे तेरी ओर।
बरखा रानी पहन के पायल,
छम-छम करती आती है।
मनभावन है सावन मास ये,
याद तेरी तड़पाती है।
सावन की ये रात चाँदनी,
तेरा नेह लुटाती है।
रिमझिम पड़ती फुहारें,
तन-मन मेरा भीगाती है।
बरखा,पवन ये नटखट बदली,
हाल तेरा बताते हैं।
सावन के झूले बागों में,
जिया में आग लगाते हैं।
निगहबानी सीमा पर करते,
बन के देश के प्रहरी तुम !
तेरे मन की दशा मैं सहज समझती,
सुन लेना मेरी भी स्वर लहरी तुम !
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
रात शमा सी जलती रही
***********************
तन्हाई के आलम में,
रात शमा सी जलती रही।
कसक थी जो आँखों से,
शबनम सी ढलती रही।
कुछ फासले थे दरमियाँ,
नासूर सा चुभता रहा।
वर्फ सी जमी रही,
काँच सा टूटता रहा।
क्या गिला करूँ कि वक्त,
परवाना सा हुआ।
खबर नहीं उन्हें मगर,
ये दिल दीवाना सा हुआ।
स्व रचित
उषा किरण
सावन
*************
मन मयूर है नाच रहा,
देख घटा घनघोर।
पूर्वा करती मनमानी,
मन खींचे तेरी ओर।
बरखा रानी पहन के पायल,
छम-छम करती आती है।
मनभावन है सावन मास ये,
याद तेरी तड़पाती है।
सावन की ये रात चाँदनी,
तेरा नेह लुटाती है।
रिमझिम पड़ती फुहारें,
तन-मन मेरा भीगाती है।
बरखा,पवन ये नटखट बदली,
हाल तेरा बताते हैं।
सावन के झूले बागों में,
जिया में आग लगाते हैं।
निगहबानी सीमा पर करते,
बन के देश के प्रहरी तुम !
तेरे मन की दशा मैं सहज समझती,
सुन लेना मेरी भी स्वर लहरी तुम !
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
रात शमा सी जलती रही
***********************
तन्हाई के आलम में,
रात शमा सी जलती रही।
कसक थी जो आँखों से,
शबनम सी ढलती रही।
कुछ फासले थे दरमियाँ,
नासूर सा चुभता रहा।
वर्फ सी जमी रही,
काँच सा टूटता रहा।
क्या गिला करूँ कि वक्त,
परवाना सा हुआ।
खबर नहीं उन्हें मगर,
ये दिल दीवाना सा हुआ।
स्व रचित
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
पलकें
************
मन भँवर में उलझ गया,
लब कह न पाती है।
नैनों से बयां न हो जाए,
ये पलकें भी झुक जाती है।
अपने मन के भावों को,
सहज कैसे तुम से कह दूँ।
पता मुझे हो तेरे मन की,
तो भाव पुष्प अर्पण कर दूँ।
अपने नैनों के दर्पण में,
तुझे रोज निहारा करती हूँ।
बिठा सहज हृदय कुंज में,
तुझको ही सँवारा करती हूँ।
भूले से कभी उतरा भी करो,
मेरे मन के गहरे समन्दर में।
तेरे रंग में रंगे सारे मोती,
मिल जायेंगे मेरे अन्तर में।
अब तेरे चंचल मन को मैं,
बाधूँगी अपनी अलकों से।
एक पल भी कहीं न जाओगे,
ऐसे छूपाऊँगी पलकों से।
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
***************
तार - तार मानवता
आज हुआ जाता है
ऎसी वेला में क्यों मौन!
तू बाँसुरी बजाता है ?
रक्त रंजित हो गई है
पन घट की डगर
सिसकियों से गूँज रहा
आज यह नगर।
कितने दुःशासन चारों ओर
चीर खींचता जाता है
ऎसी वेला में क्यों मौन!
तू बाँसुरी बजाता है?
सारथी विहीन पार्थ भी
बैठा है मन मार
याद करो अपने वचन,
लो घर - घर अवतार।
कितनी विनती कितने मनुहार!
अब धैर्य टूटा जाता है
ऎसी वेला में क्यों मौन!
तू बाँसुरी बजाता है ?
स्वरचित उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
लहू बहा कर इस धरती पर,
जो गोद में मेरी सोया है।
मत पूछो ऐ दुनिया वालों,
मैंने कितने बेटों को खोया है।
हँसते-हँसते सर कटाया,
ताकि झुके न मेरा माथा।
मेरे अश्रु में डूबी हुई है,
मेरे उन वीरों की गाथा।
विपदा आई थी भारी,
हो रही नीलाम थी मेरी लाज।
शत्रु दल पर टूट पड़े थे,
बेटे मेरे बन कर बाज।
सहस्र माँओं की गोदी उजरी,
ललनाओं ने सिंदूर दिया।
बहनों की राखी रही धरी,
वंदेमातरम् का जय घोष किया।
बेटियों ने भी बाँध कफन जब,
कूद पड़ी क्रान्ति की आग।
शत्रु दल पर पड़ी भारी,
न लगने दी तीरंगे में दाग।
सम्मुख सिंहों के आगे जब,
शत्रु देते थे घुटने टेक।
याद करो तुम अमर कहानी,
ध्रुव तारा जो बने अनेक।
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
अब न छूटे रंग पिया का
********************
अब न पूछो हाल जिया का।
अब न छूटे रंग पिया का ।।
जब छूती है पूर्वा तन से,
सिहरन सी दौड़ जाती है।
जब छाती है बदली नभ में,
उनका नेह बरसाती है।
हुआ अजब सा हाल जिया का।
अब न छूटे रंग पिया का।।
बरसता है जब रिमझिम सावन,
घुँघरू यादों की बजती है।
मन चंचल हिरनी सा होता,
जब साँझ सुहानी ढलती है।
सुरभित उपवन लगे जिया का।
अब न छूटे रंग पिया का।।
मन रेतीला सागर तट सा,
लहरें जैसे अंक पिया का।
पल-पल होता आलिंगन पर,
बुझ न पाती प्यास मिलन की।
ऐसा हुआ कुछ हाल जिया का ।
अब न छूटे रंग पिया का ।।
उषा किरण
********************
अब न पूछो हाल जिया का।
अब न छूटे रंग पिया का ।।
जब छूती है पूर्वा तन से,
सिहरन सी दौड़ जाती है।
जब छाती है बदली नभ में,
उनका नेह बरसाती है।
हुआ अजब सा हाल जिया का।
अब न छूटे रंग पिया का।।
बरसता है जब रिमझिम सावन,
घुँघरू यादों की बजती है।
मन चंचल हिरनी सा होता,
जब साँझ सुहानी ढलती है।
सुरभित उपवन लगे जिया का।
अब न छूटे रंग पिया का।।
मन रेतीला सागर तट सा,
लहरें जैसे अंक पिया का।
पल-पल होता आलिंगन पर,
बुझ न पाती प्यास मिलन की।
ऐसा हुआ कुछ हाल जिया का ।
अब न छूटे रंग पिया का ।।
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
आँसू
******
सुख के आँसू,
दुख के आँसू,
और है कुछ जज्बात ये आँसू.........
होंठ सिले हों,
चुप हो आँखें,
कहते कुछ अल्फाज ये आँसू........
गम आए या,
खुशियाँ आए,
बिन मौसम बरसात ये आँसू.......
संगी छूटे या
जग रूठे,
रहते हरदम साथ ये आँसू....... ।
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
चरणों में रख भाव पुष्प
समर्थ लेखनी को करते जाएँगे....
हम सरस्वती पुत्र !
सृजन नित करते जाएँगे....
उर को करेंगे हम पुनीत,
सींच ऋचाओं के ज्ञान से।
सभ्यता को करें समृद्ध,
नित्य नव विज्ञान से ।
भारत माँ के भाल हम,
उन्नत नित करते जाएँगे..
हम सरस्वती पुत्र !
सृजन नित करते जाएँगे..
माँ भारती के आँचल पर,
लिखेंगे नव कीर्ति गान।
नत मस्तक होगी सारी दुनिया,
विश्व गुरु का बढ़ेगा मान।
बंजर हर उर को सींच,
स्वदेश का भाव भरते जाएँगे...
हम सरस्वती पुत्र !
सृजन नित करते जाएँगे...।
स्व रचित
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
देख अकेले चाँद गगन में,
मन मेरा कुछ खोया है।
जैसे यादों की बदली में,
मन तुझको ही पाया है।
सूनी यादों की गलियों में,
खुशियां दस्तक देती सी।
खिल उठा अंतर्मन,
अधरें जैसे स्मित सी।
आँचल में भर लूँ तारे,
तन-मन पर शबनम झरने दूँ।
तेरे नेह की शीतलता को,
अपने ऊर में भरने दूँ।
रात्री प्रहर की नीरवता में,
मैं बैठी ठगी अकेली सी।
कैसे बांधू मैं नैनों में,
तेरी छवि जैसे पहेली सी।
स्वरचित
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
नारी
********
नारी तुम युगो से पूजित
तुम्हे पूजे वेद पुराण
मानव स्वार्थ की बलिवेदी पर
हुई शोषित,
बना शोषण तेरा इतिहास
बस ,बहुत हो चूका
तुम पर पशुता का आत्याचार
अब मौन त्याग
खीच म्यान से तलवार
देख जागरण का विगुल बजा
तू महा समर का साज सजा
न कुरीतियो की बलि चढ़े
न दामन छूने गंदे हाथ बढे
देख अतित के पन्ने
चिन्हित तेरी गाथा का गान !
कमर कस
अब कम न हो तेरी आन !
प्रलयंकारिणी !
असुर संहारिणी !
रण चंडी का रूप तू धर
"अबला "नही
"सबला " हो तुम
आज यह सब जाने नर !
स्व रचित - उषा किरण
********
नारी तुम युगो से पूजित
तुम्हे पूजे वेद पुराण
मानव स्वार्थ की बलिवेदी पर
हुई शोषित,
बना शोषण तेरा इतिहास
बस ,बहुत हो चूका
तुम पर पशुता का आत्याचार
अब मौन त्याग
खीच म्यान से तलवार
देख जागरण का विगुल बजा
तू महा समर का साज सजा
न कुरीतियो की बलि चढ़े
न दामन छूने गंदे हाथ बढे
देख अतित के पन्ने
चिन्हित तेरी गाथा का गान !
कमर कस
अब कम न हो तेरी आन !
प्रलयंकारिणी !
असुर संहारिणी !
रण चंडी का रूप तू धर
"अबला "नही
"सबला " हो तुम
आज यह सब जाने नर !
स्व रचित - उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
** आरजू **
**********
कामना इतनी
बस इतनी सी आरजू....
हर सोंच में शामिल रखना मुझे
जैसे मै रखती हूँ......
आँखों में तेरा ही
रूप ले सोऊ
जागूँ जब
मेरे मन के अंबर में
तुम्हें ही मुस्कुराता पाऊं
होना तुम्हीं प्रतिबिंबित झिलमिल ओस की बूँदों में
सायं जब नभ में
सिंदूर सा बिखरा हो
गोधूलि में
तुम्ही नजर आना
चुहल करे जब पुरवाई
आँचल को
तुम्हीं छूकर जाना......
आँखों में भर
सुरमई ख्वाब
मेरा हाथ थामे तुम
नीले अंबर की
सैर कराना....
पूरी करना सदा
मेरी इतनी सी आरजू..... ।
स्व रचित
उषा किरण
**********
कामना इतनी
बस इतनी सी आरजू....
हर सोंच में शामिल रखना मुझे
जैसे मै रखती हूँ......
आँखों में तेरा ही
रूप ले सोऊ
जागूँ जब
मेरे मन के अंबर में
तुम्हें ही मुस्कुराता पाऊं
होना तुम्हीं प्रतिबिंबित झिलमिल ओस की बूँदों में
सायं जब नभ में
सिंदूर सा बिखरा हो
गोधूलि में
तुम्ही नजर आना
चुहल करे जब पुरवाई
आँचल को
तुम्हीं छूकर जाना......
आँखों में भर
सुरमई ख्वाब
मेरा हाथ थामे तुम
नीले अंबर की
सैर कराना....
पूरी करना सदा
मेरी इतनी सी आरजू..... ।
स्व रचित
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
हिन्दी संस्कृत की सहोदरी,
स्नेह अंचल में पली-बढ़ी।
पईयां-पईयां चलते - चलते,
नित्य नव सोपान चढ़ी।
स्वर्णिम उद्धृत छंद यह,
है काल दंड के भाल पर।
आओ हम समृद्ध करें,
हिन्दी को विश्व कपाल पर।
सरल सुबोध निर्झरिनी में,
बहती ऋचाएं अविरल होकर।
अग्रजा के भावों को लेकर,
बहती कल-कल स्वर देकर।
अब तक क्षेत्र जो वर्जित था,
तुमने प्रवेश वहाँ है पाया।
जैसे तरु तमाल भू पर,
मलयानिल लेकर के आया।
जिसकी तुम हो अधिकारी माँ !
हम वह सम्मान दिलाएंगे।
भ्रमित हैं जो सुत तेरे,
हठ से उनको भी जगाएंगे ।
भारत के उर की चीर प्यास,
जन-मन के कंठ की भाषा है।
नित्य नव लक्ष्य की ओर बढ़े,
यह चीर अभिलषित आशा है।
अप्रकाशित और स्व रचित
उषा किरण
स्नेह अंचल में पली-बढ़ी।
पईयां-पईयां चलते - चलते,
नित्य नव सोपान चढ़ी।
स्वर्णिम उद्धृत छंद यह,
है काल दंड के भाल पर।
आओ हम समृद्ध करें,
हिन्दी को विश्व कपाल पर।
सरल सुबोध निर्झरिनी में,
बहती ऋचाएं अविरल होकर।
अग्रजा के भावों को लेकर,
बहती कल-कल स्वर देकर।
अब तक क्षेत्र जो वर्जित था,
तुमने प्रवेश वहाँ है पाया।
जैसे तरु तमाल भू पर,
मलयानिल लेकर के आया।
जिसकी तुम हो अधिकारी माँ !
हम वह सम्मान दिलाएंगे।
भ्रमित हैं जो सुत तेरे,
हठ से उनको भी जगाएंगे ।
भारत के उर की चीर प्यास,
जन-मन के कंठ की भाषा है।
नित्य नव लक्ष्य की ओर बढ़े,
यह चीर अभिलषित आशा है।
अप्रकाशित और स्व रचित
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
माँ!
तेरे आशीष के बिना
आज तक शुष्क है
जीवन की धरा
आसपास नहीं है तू
कि उठते
मन के बवंडर को
अपने आँचल में
समेट लेती
तेरे स्नेह की फुहार से
तृप्त हो पाता अंतर. ...
आँखों में नमी है
पर मन प्यासा है
आज भी
मैं अक्सर खो जाती हूँ
धूल भरी आँधियों के बीच
कुछ सूझता नहीं जब
बेचैन सा मन
याद करता है
उन पलों को
जब तुम
हाथ रख सिर पर
अक्सर कहती थीं
सब ठीक हो जाएगा....
पर माँ
आज भी अवश्य ही
सब ठीक होता
जब तुम होती
मेरे माथे पर
तेरा हाथ होता
और तेरा आशीष होता..... ।
स्व रचित
उषा किरण
18/09/2018
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
रजनी पिघल रही है।
अंतर्मन की व्यथा,
शबनम में ढल रही है।
मन का अंबर सूना,
नैना हैं रीते - रीते।
बैठी अकेली कब से,
प्रहर ये कितने बीते।
रात की नीरवता,
तन - मन पर है छायी।
निष्ठुरता प्रिये ये तेरी,
मुझको तनिक न भायी।
मुग्ध होकर कैसे,
हरशृंगार झड़ रहा है।
महकी हुई फिजाएँ,
सौरभ बिखर रहा है।
करता पल को बोझिल,
ये इन्तजार तेरा।
देख टूटती आशाएँ,
आता हुआ सवेरा।
स्व रचित
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
रात शमा सी जलती रही
***********************
तन्हाई के आलम में,
रात शमा सी जलती रही।
कसक थी जो आँखों से,
शबनम सी ढलती रही।
कुछ फासले थे दरमियाँ,
नासूर सा चुभता रहा।
वर्फ सी जमी रही,
काँच सा टूटता रहा।
क्या गिला करूँ कि वक्त,
परवाना सा हुआ।
खबर नहीं उन्हें मगर,
ये दिल दीवाना सा हुआ।
स्व रचित
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
बँधा है मन
आज भी तेरे
मीठे बोल की कशिश में
कण-कण में फैले
मधुर सी
झनकार से गूँजित
रचती जैसे
रोम-रोम में
सुमधुर ध्वनि
मंदिर की घंटियों जैसी
चकित सी दिशाओं का
मंत्र मुग्ध होना
फिर कैसे कहूँ कि
मैं नहीं सुनती हूँ
उस अन्तर नाद को
कि जो उठता है
सागर के गहरे तल से
मैं तलाशती सी
उकेरती हूँ
कितने चित्र और
पाती हूँ तुम्हें
हर एक लकीर में
हँसती सी उन
लकीरों की कशिश से
बँधी हूँ मैं
आज तक..... ।
स्व रचित
उषा किरण
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
No comments:
Post a Comment