सी एम् शर्मा (मॉडरेटर)





"लेखक परिचय"
01)नाम:- सी.एम्.शर्मा 02)जन्मतिथि:- सहित):- ०४.०२.१९६० 03)जन्म स्थान:- नंगल टाउनशिप, जिला रोपड़, पंजाब 04)शिक्षा:- स्नातक 05)सृजन की विधाएँ:- तुकांत, अतुकांत, छंद, ग़ज़ल/गीतिका, त्रिवेणी,हाइकु आदि आदि 06)प्रकाशित कृतियाँ:- १. "आपकी नज़र" काव्य संग्रह २. 'गुलिस्तां' सांझा काव्य संग्रह 07)कोई भी सम्मान:- --- 08)संप्रति(पेशा/व्यवसाय):- बैंकर 09)संपर्क सूत्र(पूर्ण पता):- #202B, AKS -2 , कॉलोनी, भभात, जीरकपुर, पंजाब 10)ईमेल आईडी:- cmsharma60@gmail.कॉम


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II सुख दुख II नमन भावों के मोती....

विधा: दोहे....

सुख दुख के इस खेल पर, कर्म करे अधिकार....
बीजा जो है कर्म ने, मिले वही आहार...

मात पिता बंधू सखा, रिश्तों का संसार.....
सींचों इन को प्यार से, तभी सुखी संसार...

पाप पुण्य सुख दुःख हैं, जीवन के ही अंग....
मन साधे ही आएंगे, जीने के सब ढंग....

पाप मूल है दुःख का, सब सुख पुण्य दिलाय....
मात पिता की वंदना, हर पीड़ा हर जाय...

मात पिता आशीष ले, रोज़ सुबह हर शाम....
हर बाधा मिट जाएगी, कभी न बिगड़े काम....

मात पिता के चरण हैं, मोक्ष द्वार सब धाम.... 
पाप पुण्य सुख दुःख से, मुक्त करें ये धाम....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
१२.०४.२०१९


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मैं ...
जीवन मृत्यु से परे हूँ...
निरंतर गतिमान....
अपने आप में समाया...
स्वयं स्थापित सत्य हूँ....

बाहय रूप बदल बदल कर आता हूँ....
भ्रूण से जीवन...जीवन से मृत्यु रूप....
सब में आ जा रहा हूँ...
निर्विघ्न....निर्लेप... 
किसी से न बंधा न कटा न जला...
दुःख और सुख भोगने में....
हर प्रकार के चरित्र को चरितार्थ करने में...
मैं समय के संग चल रहा हूँ...
पर समय...न मुझे रोक पाया...न बाँध पाया...
मनु..विशिष्ट..गौतम...वराहमिहिर ...विवेकानंद...
कबीर...नानक...बुद्ध...
न जाने कितने आवरण हैं मेरे....
मैं समय की परिधि से परे वो सत्य हूँ...
जिसे कोई झुठला नहीं सका है....
मुझे समझने की उत्कंठा में....
कोई कंदराओं में चला गया...
किसी ने अन्न त्यागा...किसी ने जल...
किसी ने देह को बंधन समझ...
कष्ट दिया...मृत्यु का आलिंगन किया...
पर मैं अविचल...सनातन...कालजयी हूँ...
पंचभूतों में रह कर भी मैं....
पंचभूत में नहीं....

मैं न कंदराओं में मिला...
न दरिया और समंदर...
जिसको भी मिला मैं...
भीतर ही मिला....
जब भीतर मिला तो बाहर भी दिखा...
फल...फूल...जीव...निर्जीव... 
सब में फिर मैं ही दिखा...
क्यूंकि मैं भीतर रह कर भी...
चहुँ और आलोकित हो रहा हूँ....
स्वयं ही प्रमाणित सत्य हूँ....शाश्वत...
मैं ‘स्वयं’ न हो कर भी...
स्वयं में स्वयं को स्थापित करता हूँ....
तुझमें...उसमें...सबमें...
मैं स्वयं स्थापित सत्य हूँ....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 

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II उपकार II नमन भावों के मोती....
किस किस उपकार को...
गिनूँ...या करून औरों पर...
या ..जताऊँ...
कितने उपकार मैंने किये हैं....


इंसान कर्मों से बंधा है....
कर्म है तो जीवन है....
सृष्टि अपने कर्म कर रही...
इंसान क्या हर कोई....
पेड़ पौधे हों...जीव जंतु हों....
सब सृष्टि में जी रहे हैं...
क्या सृष्टि ने उपकार जताया....
या इसके रचयिता ने....
कि तुम सिर्फ मेरी वजह से सांस ले रहे हो....
फिर भी....
हम अपने कर्मों को करते हुए...
भूल जाते हैं ये सब...
कि हम को उपकार...
जताने का हक़ नहीं हैं...
फिर भी जताते हैं...
क्योंकि साहस नहीं है हम में...
शुक्रिया अदा करने का....
माँ बाप का...गुरु का...
बंधू...सखा... कोई भी...
किसी का शुक्रिया नहीं करते....
जब उनका शुक्रिया नहीं करते तो...
भगवान् का सृष्टि का कैसे याद आये...

इसीलिए हम परेशान हैं...
सुकून खो रहे हैं....
इंसान को ही नहीं....
बल्कि भगवान् को धोका दे रहे हैं....
*देते हैं भगवान् को धोका इंसान को क्या छोड़ेंगे*
'मलंग बाबा' के मुख से जो गीतकार और गायक ने
"उपकार" में कटु सत्य कहा....
आज भी हमारी आत्मा को झिंझोड़ता है...
पर क्या हम जगे ?

नहीं जग सकते....
क्योंकि हम अपने ऊपर उपकार नहीं कर रहे...
औरों पर क्या उपकार किये...वो जता रहे हैं...
मैंने ये किया वो किया...सब कुछ दिया...
पर क्या सच में दिया कुछ ? क्या था अपना जो दिया ?
"श्री गीता" के वचनों को भी अनदेखा कर दिया?
इसी लिए हम शान्ति से सोये नहीं हैं...
और जब सोये नहीं शांति से तो जागेंगे कैसे?
अपने ऊपर उपकार किया ही नहीं....

अपने ऊपर उपकार कीजिये...
दूसरों को खोजना और पाना छोड़....
अपने को खोजिये....
सुकून का उपहार दीजिये...
अपने आप को पा कर...
और सच कहता हूँ....
फिर हर तरफ सृष्टि के उपकार नज़र आएंगे....
रिश्तों में मधुरता नज़र आएगी...
आप का सर...
सजदे में झुक जाएगा...
शुक्रिया करने को...
उपकारों का...
सोचिये...
फिर...
देखिये...

*पंक्ति उपकार फिल्म के लिए श्री इन्दीवरजी के लिखे गीत से है...संगीत श्री कल्याणजी आनंदजी... गायक श्री मन्नाडे जी... और मलंग बाबा - ग्रेट प्राण जी*

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II


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II होली / रंग/ फाग / अबीर /गुलाल II नमन भावों के मोती....
सभी को होली पर्व की ढेरों शुभकामनायें... प्यार भरे रंगों से जीवन सबका खिला...महका रहे... जय हो...
II सभी रंग फीके पड़ गए...II


सभी रंग फीके पड़ गए...
इक श्याम रंग के आगे....
सभी उड़ाएं अबीर गुलाल....
मोहे श्याम रंग ही भाये....
सभी रंग फीके पड़ गए...
इक श्याम रंग के आगे....

माथा कान्हां सुहाए ऐसा....
केसरिया गया मुरझाये...
देख तिरछी नजरिया कारी...
लाल रंग खड़ा शरमाये....

जब मैं देखूं रंग गुलाबी..
बदरंग नजर वो आये....
गाल लल्ला के चमकें ऐसे...
छटा गुलाबी बिखरी जाए....
रंग कनक को हाथ लगाऊं....
कुण्डल मोहे धमकाएं....
पीताम्बर धारी कृष्णा देख...
कनक रंग राख हो जाए....
रंग आसमानी रिक्त सा लागे..
जब कान्हां नयनों में झाँकूँ...
प्रेम भाव की गहराई ऐसी...
जिसे अम्बर देख ललचाये....
कैसे कहूँ मैं दुविधा अपनी....
हर रंग ही गया कुम्हलाये....
हर रंग रंगा मैं कृष्णा अपना...
पर कोई रंग वो रंग न पाय....
पीड़ा उमड़ी अश्रू बह आये...
व्यथा मेरी ने लल्ला हिलाये...
मधुर मधुर होंठों से कान्हा...
तब मुरली कर्ण में सुनाये....
प्रेम रंग रंगा जो मोहे कान्हा....
हर रंग में वो ही नज़र आये....
मन भीतर हर रंग में कान्हा....
हर रंग कान्हा में रहा समाये....
मुझे श्याम ही श्याम नज़र आये....
सखी श्याम ही श्याम नज़र आये...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२०.०३.२०१९


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II धारा II
सुख-दुःख....जीवन मरण चक्कर में...
पिस गयी दुनिया सारी....
दोनों 'कल' में फंस कर के....
पिट गयी 'अब' की बारी....



दो पाटों के बीच में....
बहती है जीवन धारा...
जो उतरा वो पार लगा...
जो उलझा वो हारा...
लोग कहें भवसागर है....
मैं कहूँ 'सुष्मना नाड़ी' है....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II



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II धारा-2 II
II धारा - ज़िन्दगी की....II
न जाने क्यूँ मुझे कॉमा...
या और कोई पंक्चुएशन चिन्ह...
रचना में लगाना पसंद नहीं आता...
भावों की नदिया में...
जो भी आता है जैसे आता है....
बस लिखता हूँ....



नदिया की धारा में कंकड़ पथ्थर हों....
आपस में कट कट करते चलते हों....
नदिया के सुर...ताल...लय में...
अवरोध पैदा करते हैं....
इस लिए मैं इन अवरोधों को...
हटाता चलता हूँ....
अपने प्रवाह में लिखता हूँ....

जिंदगी में कितने अवरोध हैं...
अपने ही पैदा किये हुए....
शक...अहम्....स्वार्थ...लालच...
न जाने कितने....
इन्हें हम हटाने की जगह....
बढ़ाते जाते हैं...
जीवन सरिता की मधुर तरंगित धारा में....
अवरोध पैदा करते जाते हैं...
और फिर...
ज़िन्दगी में अवरोधों के पहाड़ के नीचे...
दब जाते हैं...
धारा प्यार की अवरुद्ध हो जाती है...
और ज़िन्दगी घुट घुट के...
सिसकती चलती है....
बिना स्वर...लय...ताल के...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II



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II मिट्टी II
जिस्म मिट्टी ही तो है....
जिस्म मिट्टी है सुना बहुत मैंने...
पहले यकीं न था पर अब...
होने लगा है....
जिस्म मिट्टी है...



हर कोई आता है नश्तर ले के...
खोदता है अच्छी तरह से...
गढ्ढा बनाता है और...
अपने मतलब का पौधा लगा जाता है...
माली की तरह अनुशासित हो...
हवा...पानी भी ज़रुरत मुताबिक़...
समय समय पे आ देता है...

पौधे कुछ तो बहुत ही कंटीले हैं...
हलकी सी हवा चलने पे भी...
बहुत चुभते हैं...
कभी कभी खूँ निकाल देते हैं...
और ज़मीं लाल कर देते हैं....
और फिर उस लाली से...
मिट्टी उपजाऊ होती जाती है...
नए पौधे निकलते आते हैं...

जिस्म मिट्टी ही तो है....
नए पौधों की संभाल...देख रेख...
बहुत ही ज़रूरी है...
एक कुशल माली अपनी जरूरत मुताबिक़...
हवा पानी देता है....
आस पास सुरक्षा घेरा भी बना देता है....
कोई और पौधे को हवा...पानी...खाद न दे दे...
पौधे भी 'उस माली' की खुराक से लहलहाने लगते है....
जिस ज़मीं पे पैदा हुए...उसी को खाने लगते हैं...
लहूलुहान करने लगते हैं...अपने काँटों से....
जिस्म मिट्टी में मिलाने लगते हैं....
क्यूंकि...
जिस्म मिट्टी ही तो है....
क्या करून मैं इन मालियों का आकाओं का....
पडोसी दुश्मन है मेरा...
कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकता....
जब पौधे हमारे हैं तो हम माली क्यूँ नहीं उनके...
कांटे हम बो रहे हैं खुद....
तो पौधे कांटे वाले ही होंगे...
और हमारे बोये कांटे...हमें ही लहूलुहान करेंगे...
क्या हम तभी जागेंगे...
जब अपने आँगन के पौधे कटेंगे....
लहूलुहान होंगे....
मिट्टी में मिल जाएंगे...
क्या तब हम सच में माली बन रक्षा करेंगे....
याँ यूं ही देखते रहेंगे...
जिस्म मिट्टी में मिलते...
और कहेंगे मिट्टी था जिस्म...
मिट्टी में मिल गया...
कुदरत का नियम है ये...
कायर...डरपोक...स्वार्थवश....
हम कंधे बदल देते हैं....
जानते हुए की कुदरत...
किसी के साथ भेद भाव नहीं करती...
फिर हम क्यूँ ?
अपने मतलब के पौधे को पानी, खाद देते हैं...
और दूसरे को प्यासा मरने देते हैं...
और कड़कती धूप की मार भी देते हैं...
एक दिन यही पौधे अपनी धरती की नमी न मिलने से...
सूख जाते हैं...मर जाते हैं...
फिर कोई आता है...चिंगारी दिखाता है...
और आग बन भभकते हैं...यह सूखे पौधे...
और रह जाती है राख...
मिट्टी में मिलने को....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१४.०२.२०१९

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II लौ II सुप्रभात...नमन भावों के मोती....
लौ लगी कृष्णा तेरी मन में...
सृष्टि दैदीप्य लगे कण कण में...



मन पथिक हर राह निहारे...
कान्हा आएंगे कौन से द्वारे...
आँख न मीचे मन व्याकुल ये...
अब आएंगे प्राण प्यारे....
देखूं आतुर हर इक जन में....
देखूं आतुर हर इक जन में....
लौ लगी कृष्णा तेरी मन में

कारी बदरिया घिर है आयी...
उम्र गगरिया भी भर आयी...
नैनाँ पुकारें सांसें निहारें...
कब आओगे प्रीतम प्यारे...
डूबी जाऊं मैं हर क्षण में....
डूबी जाऊं मैं हर क्षण में....
लौ लगी कृष्णा तेरी मन में

'चन्दर' जग न भाये मन को....
न चाहे अब ये इस तन को....
चाह इसे रम जाऊं तुझ में...
तेरी लौ हूँ थम जाऊं तुझ में...
संग तेरे विचरूँ कण कण में...
संग तेरे विचरूँ कण कण में...
लौ लगी कृष्णा तेरी मन में....
सृष्टि दैदीप्य लगे कण कण में...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१२.०२.२०१९

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II ज़हर II सुप्रभात....नमन भावों के मोती....
ज़हर...
कहाँ नहीं है...
तुम में...मुझ में...
चारों और है...
ज़हर....



हमारे बुजुर्गों ने...
सृष्टि को सजाया...संवारा....
समभाव की सोच से...
मधुर वाणी...आचरण से...
आस पड़ोस से प्यार से...
घर को...समाज को....
यथायोग्य पवित्र बनाये रखा...
अपने लिए ही नहीं... हमारे लिए भी...
ताकि हम 'प्राण वायु' ले सकें...
ताकि...
हम सभ्य बन सकें....
समाज में....

पर हम आज कहाँ आ पहुंचे हैं....

माँ-बाप-बच्चे...
एक ही घर में रहते हुए...
अलग-थलग से पड़े हैं...
'बम' कि तरह …
किसी ने छेड़ दिया तो...
जैसे पिन निकल जाए...
फट पड़ते हैं....
घर के भीतर कर्कश स्वर....
बाहर पौं पौं गाड़ियों की...
ऊपर से संगीत ढम ढम...
इतना शोर...
भीतर जैसे हर किसी के…
लावा उबल रहा है....
हर कोई अपनी 'गर्मी'
दिखाना चाहता है....
और यह ज़हर....
जो उगल रहे हैं हम...आप...गाड़ियां...
सब सृष्टि सहन कर रही है....
यदा कदा चेतावनी में...
वापिस करती है हमें...
ताकि संभल जाएँ हम...
पर हम सोचते थोड़ी हैं...
कोसते हैं एक दूसरे को...
चूंकि हमें कुछ नहीं करना है...
कोई त्याग व्याग नहीं करना है...
सिर्फ अपेक्षा रखनी हैं दूसरों से कि वो...
हमारे लिए करे...
स्वार्थ... लालसा... की कंदराओं में....
हम अपने को छुपाये बैठें हैं....
किसी की भी सीख की धूप...
हम नहीं चाहते...
स्वमोहित हो स्वयं के ज्ञान के अन्धकार में...
हम डूबे हुए हैं...
हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं...
'नीलकंठ' की प्रतीक्षा में....
भूल कर...
कि आने वाली पीढ़ी को...
जवाब हमने देना है...
'नीलकंठ' ने नहीं....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
११.०२.२०१९

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II दहलीज़ II
दहलीज़.....
कितना मासूम...
प्यारा सा लफ्ज़ है....
दहलीज़...देहरी...
सभ्यता है...संस्कार हैं....
प्यार की नेह की सुगंध है....
पादुर्भाव है दिल से दिल में....
संवाद का...
वाणी से....आचरण से....



जिसने दहलीज़ को लांघा है...
वो रिश्ता...रिश्ता नहीं रहा...
बेटा हो...बेटी हो...बहु हो...
पति हो...पत्नी हो....

अक्सर कहते हैं हम कि पहले ज़माने में...
शिक्षा नहीं थी... अनपढ़ थे लोग....
'लिविंग स्टैण्डर्ड' नीचे दर्जे का था...
और आज....
शिक्षा ने....लिविंग स्टैण्डर्ड ने...
झंडे गाड़ रखे हैं...
प्रगति के नए आयाम...रोज़ बनते हैं...
हर क्षेत्र में...
'सोछल स्टैण्डर्ड' बहुत 'हाई फाई' है....
फिर भी....
झगडे...खून खराबा...रिश्तों में कड़वाहट...
घर टूटना....रोज़ की बातें हो गयीं...
बृद्धाश्रमों और उनमें रहने वालों की...
दिन-ब-दिन बढ़ती संख्या...
गवाह है कि हम कितने जागरूक...
कितने बेबाक...बेशर्म...निडर हो गए हैं...
कि अपने सिवा कोई दिखाई नहीं देता....

कहाँ धोखा खा गए हम....
कहाँ....
भूल गए हम अपनी दहलीज़...
जो पहले ज़माने में...
सब अपनी वाणी में आचरण में...
दिल में समाये रखते थे....
अपनी सभ्यता...संस्कार से जुड़े थे...
जो कोई लांघता था दहलीज़...
घृणित नज़रों से देखा जाता था...
आज लांघना दहलीज़...
'सोसाइटी' में...
स्वतंत्रता...निडरता...स्वाबलंबन...
प्रयाय बन गया है...
दहलीज़ के मायने बदल गए...
इंसानियत गर्त में चली गयी...
इंसान यंत्र हो गए...
दहलीज़ घर की...समाज की...
देश की ही नहीं....
भूमण्डल की भी 'क्रॉस' कर गए...
इतने शिक्षित हो गए हम...
कि सब कुछ पा कर भी...
सुखी नहीं हम...
शांत नहीं हम...
क्यूंकि दहलीज़ गुम हो गयी...
हमारी दहलीज़...
सच में... लुप्त हो गयी...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०८.०२.२०१९

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II सवाल II
II क्षणिका II
मौत और मैं रूबरू थे...
मौत बोली चलो...
मैंने सवाल किया...
किस लिए मैं तो अमर हूँ....
मौत... अमर तो मैं भी हूँ....
मैं बोला...
चलो, खेल फिर से शुरू करते हैं....



II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II


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II सवाल II
II अमावस का चाँद II
पूछा एक बच्चे ने मुझसे
ये अमावस का चाँद क्या होता है....
जैसे जीवन में सुख दुःख आता जाता है....
चाँद भी सुख में बढ़ता और दुःख में घटता जाता है...
एक दिन दुःख जब ज्यादा होता है और वो छुप्प सा जाता है...
तब अमावस का चाँद होता है...यूं उसको जवाब दिया.....



बच्चा तो चुप्प हो गया मुस्कुरा के चल दिया....
हलचल मेरे दिल में मचा गया.....
कि अमावस का चाँद क्या होता है.....

मन का पंछी उड़ने लगा...
ख्यालों के बादलों में यूं गुम होने लगा...
एक बादल मस्त मुझ से टकराया....
उससे पुछा मैंने अमावस का चाँद क्या होता है....
मस्ती अपनी में उसको अमावस तो सुना ही नहीं....
चाँद में अटक के रह गया...
महबूब का चेहरा कहके वो गया और वो गया....

फिर जब एक बुझते तारे से पूछा यही सवाल…
उसने मुश्किल से ही मुंह खोला...फिर दिया जवाब.....
महबूब के रूठ जाने से दिल जब बुझ जाता है...
वो चाँद अमावस का होता है.....
अपनी अपनी सोच है...अपना अपना नजरिया है....
किसी को चाँद महबूब दिखे है....किसी का बुझता दिल सा है...
ये तो निज स्वार्थ है जो चाँद अलग अलग सा दीखता है....
मन मेरा भी उद्वेलित था के आखिर चाँद अमावस का क्या होता है....
मैं यूं ही जवाब से नदारद अपने पे गुस्सा हो रहा था....
कानों में मेरे मद्धम सी एक आवाज़ टकरा गयी....
एक बच्चा माँ की गोद में लेटा हुआ था...
माँ उसको लोरी सुना रही थी...
सो जा लाल मेरे आज तू ऐसे ही....
कल चन्दा मामा आएंगे.... कचोरी पकोड़े लाएंगे....
साथ में ढेर से खिलोने होंगे....जो सब तेरे लिए होंगे....
हम सब मिल के खाएंगे....खूब धूम मचाएंगे...
अब तू सो जा लाल मेरे...कल चन्दा मामा आएंगे...
कचोरी पकोड़े लाएंगे....
साथ में झर् झर् आँखें उसकी बहे जा रही थी....
मुझको जवाब बता रही थी.....
जब माँ का बच्चा भूखा सोता है.....
माँ के दिल पे क्या होता है....
ये चाँद ही समझता है....
इसी लिए वह एक दिन...
जब छुप छुप के बहुत ही रोता है....
वो अमावस का चाँद होता है....
निवेदन: कृपया खाने को व्यर्थ में मत फेंके... ज़रूरतमंदों में वितरण कर दें या ऐसी संस्थाएं जो ज़रूरतमंदों को खाना खिलाती हैं उनको दे दें...
II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II

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II पतंग II सुप्रभात....नमन भावों के मोती....
पतंग...एक लफ्ज़...
या ज़िन्दगी का गूढ़ रहस्य...
हमेशा मेरे विचारों में....
उथल पुथल मचाता रहा...
खंगालता रहा मुझे...
और मैं...
उड़ता रहा....
भावों के पंखों पे सवार...
जानने के लिए...
पतंग उड़ती कैसे है... स्वछन्द...
कैसा लगता होगा...इसे...
अबोधपन कहो या जिज्ञासा...
कुछ भी कहो आप...
पर मैं पतंग को जानना चाहता था...



बचपन में पतंग बनाना....
फिर उड़ाना...
एक दूसरे की काटना...
कटी पतंग को लूटना...
मजा आता था....
अबोधपन था शायद....

जवानी में जोश संग...
बहुत ज़ियादा समझ आ गयी...
अपने मन को...
पतंग की मानिंद उड़ाने लगा...
देह को संवारने लगा...
रंग बिरंगे वस्त्रों से...
कभी वस्त्र कम कर दिए...
कभी शरीर पे रंग बिरंगे चित्र बना...
'पतंग' सजा 'मैं' खूब इतराया....
अब 'पतंग' पतंगा बन गयी...
बहुत उड़ी यहां वहां...
सब ने अपनी मर्ज़ी से तुनके मारे...उड़ाया...
बहुत मजा आया....
फिर... जब कटी... होश आया...
याद आया दूसरों की पतंग...
काट कर मजा लेने का हश्र....

संभाला... खुद को...
फिर... घर गृहस्थी में....
अपने को भगाता रहा...
उड़ कर कटूंगा एक दिन...
जानता था... फिर भी उड़ा...
मजबूरी थी... कर्तव्य था...
या कहीं विश्वास कि शायद...
मेरे साथ मेरा परिवार...'पतंगें'...
मुझे थाम लेंगी....पर...
फिर कटा...धड़ाम से...
होश आया तो पाया...
मेरी डोर तो मेरे हाथ नहीं थी...
रे मना...फिर क्यूँ उड़ा...
डोर...
मैं पकड़ रखने के काबिल नहीं था...
मन रुपी पतंग टूट चुकी थी...
डंडी कहीं तो डोर कहीं...
फिर एक दिन....
सधी आत्मा के सधे हाथ मिल गए...
मेरी 'पतंग' को 'डंडी' मिल गयी....
'साधक' ने डोर रुपी सांसों को...
मांजना सिखाया....
भावों की 'तनियों' का सामंजस्य बिठा...
आत्मा के संग जो गाँठ बाँधी....
'पतंग' को उड़ने का 'आनंद' आया...
समझ आया...
सधी पतंग के उड़ने का...
'उस आसमाँ' में विचरण करने का...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०६.०२.२०१९

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I कागज़ 1 II
बरसों से बंद पड़ी...
किताब की धूल को झाड़ा ही था.....
बहुत से पन्ने बिखर गए...
कुछ कटे फटे से पन्ने.....
लहरा गए......
यूं ही.....



कुछ तो आपस में चिपके हुए हैं...
शायद अलग नहीं होना चाहते थे…
सीलन सी है...
अंदर ही अंदर हर्फ़ सिसके हों जैसे...
घूप नहीं लगी कभी शायद...
या...
बिछड़ने का डर.....

कुछ ऐसे झर गए...
पपड़ी हाथ लगते झरे जैसे...
कुछ ऐसे भी कागज़ के पन्ने...
पीले से...जंग से लगे...
सोचा कुछ तो संभाल लूँ...
शायद...
हल्का सा कुरेदा ही था...कि...
आर-पार छेद बन गए...
कितना असंभव है वक़्त को...
वापिस लाना...

फिर एक तेज़ हवा का झोंका....
आता है गुज़र जाता है....
ले उड़ता है सब...
झरे हुए टुकड़े भी....
और....
सब कुछ.....
रह जाती है तो सिर्फ....
जिल्द हाथ में....
खाली जिल्द...
ज़िद्दी है...
वक़्त लगेगा इसे...
झरने में.....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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II कागज़ II
रात अंधियारी में...
दिल दरीचों से ये...
झांकते ताकते...
रोज़ दीखते मुझे...
छूना चाहा इन्हें...
हाथ फैला के जो...
एक झोँका आया...
पन्ने पलट गए...



कभी गुलाल उड़ा...
कभी ढोल धमका...
कभी कागज़ के पन्ने...
रुनझुन पायल से ठुमके...
कभी छम छम चूड़ियों से...
खनके...

फिर खामोश हो गए...
कहीं कोई शोर नहीं...
न धमक....न थाप...
न ठुम्मक...न चाप...
'अबोधपन' के कागजी पन्ने...
ख़ामोशी के तूफ़ां में...
शांत हो गए...
कागज की रौशनाई...
दलदल बन गयी...
हवा ज़हर हो गयी...
पन्ने ज़र्द हो गए...
हर्फ़ दफन हो गए...
ज़िल्द के घुन हो गए....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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मोत्ती - हाइकू
1.
मोती मन के
शब्द व्यंजन माला
ईश अर्पण



2.
भावों के मोती
साहित्यिक सागर
शब्द हैं सीप

3.
शिव के अश्रू
हर जन सुखाय
रुद्राक्ष मोती

4.
सीप में मोती
निरंकुश अधर्मी
भ्रूण की हत्या
5.
मोती दर्शन
आत्मा का साक्षात्कार
ध्यान समाधि
स्वरचित - सी.एम.शर्मा
03.02.2019
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II इंसान - भरोसा II
मेरे घर के पिछवाड़े में आयी एक प्यारी सी माणों बिल्ली...
सुन्दर प्यारे बच्चे ३ वो साथ थी लाई...
म्याऊं म्याऊं जब किया बच्चों ने...दूध कटोरी मैंने रख दी..
अब तो रोज़ सुबह और शाम...दूध पीते...मस्ती करते..इधर उधर थे घूमते...
कुछ दिन में ही दोस्त बन गए...
पर माँ उनकी थी चौकन्नी...गुर्राती...जब किसी को था मैं पकड़ता...
धीरे धीरे गुर्राना कुछ कम हुआ पर कभी भी वो मेरे पास ना आई....
एक शाम जब घर आया तो उसकी रोती सी आवाज़ आयी......
बाहर निकला देखा बच्चे उसके २ थे साथ...शायद एक था गायब.....
मैंने इशारों में पुछा...और लगा बच्चे को ढूंढने...
वो भी जैसे समझ गयी...जहाँ जहाँ मैं जाता वह भी साथ ही जाती...
फिर एक जगह जा कर बार बार वो रोने लगी......
देखा जा कर उस साइड पे बच्चा उसका था मरा पड़ा....
गर्दन उसकी कटी हुई थी...शायद कोई बिल्ला उसको था खा गया...
उसको उठाया...कपडे में लपेट दफनाने बाहर ले गया...
इस अंतिम यात्रा में उसकी माँ भी मेरे साथ ही थी...
फिर घर आ कर मैंने दूसरे बच्चों को कटोरी में दूध डाला ही था...
उनकी माँ भी आ गयी...
पहली बार वो मेरे पास आ कर बैठी...
मैंने धीरे से उसकी पीठ पे हाथ फेरा...वह कुछ नहीं बोली...
हाँ पूँछ हिलाती रही...
पता नहीं कौन किस को दिलासा दे रहा था...



फिर एक दिन महीनों बाद आयी एक माणों बिल्ली...
साथ में उसके २ बच्चे...म्याऊँ म्याऊं करते...
मेरे कमरे के बाहर प्यारी सी आवाज़ लगाई...
मैं बाहर निकला दूध की कटोरी में दूध डाला...
बच्चों की पीठ पे प्यार से हाथ फेरने लगा...
माँ उनकी ना गुर्राई...मैं सोच में पड गया...
यह वो वाली तो बिल्ली नहीं है...वह भूरी थी यह सफ़ेद और काली...
फिर मन में आया यह शायद उसकी बच्ची है...जो मेरे हाथ से दूध पीती थी...
आज माँ बनी तो बच्चों को जैसे मिलाने लाई है...
बच्चों को मेरे साथ खेलता देख वो कहीं निकल गयी...
उसको जैसे भरोसा था मुझपर...
और मैं सोच में पड गया...
काश! हम इंसान भी ऐसे ही भरोसा कर सकते तो...
रिश्ते पीढ़ी दर पीढ़ी प्यार से निभते...
काश....ऐसा भरोसा कर सकते...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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II इंसान - मुर्दा II
ढो रहे थे काँधे पे रो रहे थे सभी....
लाश उसकी ज़िंदा रहा था जो कभी...
थे संगी सखा कुछ बचपन के....
रिश्ते में...घर के लोग..रो रहे सभी...



प्राण गए तो मर गया ज़िंदा था जो अभी अभी...
ज़िंदा था तो रिश्ता था मुर्दा है तो कुछ नहीं...
है मुर्दे की पहचान यही भाव जिसमें नहीं कोई...
घर...समाज...धर्म...क़ानून सब पराये हो जाते हैं...
घर में रहने की इजाज़त नहीं...शमशान ले जाते हैं...

मुर्दे की है पहचान यही....
ज़िंदा हैं तो भाव हैं...मर गया कोई सुख दुःख नहीं...
मुर्दे की पहचान यही....

बीच चौराहे पे हुआ क़त्ल सब ने देखा पर नहीं असर...
कोख में बच्ची क़त्ल, दिल किसी में रहम नहीं...
तार तार हुई अस्मत, दिन दहाड़े एक नारी की...
चीत्कार सुनी अनसुनी रही दिल में दर्द की कमी रही...
पत्थर दिल बन रह गए सभी, आँखों में थी नमी नहीं...
शमशान बना है जब सारा शहर जिसमें मुर्दों की कमी नहीं...
फिर क्यूँ मुर्दा है सिर्फ वही जिसके प्राण बचे नहीं....
क्या मुर्दे की पहचान यही....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०१.०२.२०१९
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II इंसान - २ II
विधा - त्रिवेणी...
१.
धर्म, जात, ताज...
कोई कीमत नहीं तुम बिन...
इंसान हो तुम !



२.
सृष्टि... देव... इश्वर....
किस का औचित्य तुम बिन...
इंसान हो तुम !

३.
जीवन...मौत...मोक्ष...
नहीं आस्तित्व तुम बिन....
इंसान हो तुम !

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०१.०२.२०१९

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II इंसान - ३ II
मौत को मेरी ज़िन्दगी ने मुझ सा बना दिया....
अपने चेहरे को उसपे लगा दिया....
मौत बदहवास हो भाग रही है...
हर पल छुपती....
कभी यहां...कभी वहां....
अपनी पहचान भूल कर....
अपने को मारने को...
अपनी ही तलाश कर रही है....
मौत मौत से ही हार रही है......



जैसे इंसान अपने से हार रहा है....
पल पल...
हर पल....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०१.०२.२०१९


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II संत II
विधा:: दोहे
सरल सरस सुन्दर कथन, सात्विक मन से होय...
मिल जाए ऐसा पुरुष, संत जानिए सोय....



कृष्णा वृन्दावन मिलें, काशी में शिव धाम
यहां समागम संत हो, संगम है सव धाम...

महिमा पावन संत की, मुख से कर अविराम....
निर्मल मन हो जायगा, दरस मिलें हरि-राम...

वाणी ऐसी बोलिये, संतहि रूप सुभाय...
आपण को निर्मल करे, औरों को कर जाय....
पूजो ऐसे संत को, जो प्रभ जोत जलाय....
आप तरे सो तो तरे, तुझे संग ले जाय....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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II क्षणिकाएं.... II
...बे-मौसम...
१.
काले दुपट्टे के पीछे से...
दाग़ छुपाता चाँद...
पल भर को झाँका...
दो मोती गिरे...
दिल धड़का गड़गड़ सा...
बादल बरस पड़े...



२.
अचानक कड़कती सर्दी में...
धूप निकली...
कुहरा छंट गया...
ज़र्द-सर्द रिश्ते पिघल गए...
मौसम खिल उठा....

३.
आँख खुली...सपना टूटा...
आईना पोंछा....
चहरे सब बदले मिले...
खूं बिन चहरा पीला...
बेआवाज़ आईना टूटा...
बेमौसम ही मैं भीगा....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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ग़ज़ल - न दर्दे दवा और न दुआ चाहता हूँ....
तुझे मिलके खुद से दगा चाहता हूँ....
कि होना तुझी में फना चाहता हूँ....



अजब खेल दिल का गजब इश्क़ जादू...
न दर्दे दवा और न दुआ चाहता हूँ....

मुझे क्या पता था खुदा वो नहीं है...
*ज़बीं* ज़ख्म अब मैं सिला चाहता हूँ....

न जाना जिसे और देखा नहीं मैं....
उसी नाज़नीं का हुआ चाहता हूँ....
तसव्वुर से तस्वीर दिल जो बनायी...
उसे देखूं हर शै खुदा चाहता हूँ...
मिलूं जब भी खुद से उसे देखूं 'चन्दर'...
छुपा जो मुझी में मिला चाहता हूँ....
*ज़बीं* = माथा
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
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I कण II नमन भावों के मोती.....
रोज़ सुबह उठता हूँ....
अपना कर्म करता हूँ...
कभी संतुष्ट...
कभी खुद से...
विक्षिप्त रहता हूँ...



कोई जी रहा है....
कोई मर रहा है....
हर पल सृष्टि में....
परिवर्तन हो रहा है...
जीवन का मौत में...
मौत का जीवन में...
देख कर सब...
खुद को ढूंढता हूँ....
कहाँ से आ आया मैं....
कहाँ को जाऊँगा...

वेद...पुराण...शास्त्र....
सभी भरे पड़े हैं....
इश्वर के हम कण हैं...
उसी से निकले हैं...
उसी में विलीन होंगे...

जब आसाँ है सब इतना...
तो फिर...
रोज़ क्यूँ मरना और जीना है...
या कि फिर सब यह खेल तमाशा है....
क्यूँ हैं धर्म जात पात के खाते...
रोज़ ही हम क्यूँ फिर इन्हें...
जोड़ते और घटाते ?
यत पिण्डे तत ब्रह्माण्डे...
यत ब्रह्माण्डे तत पिण्डे....
उद्घोष भारतीय शास्त्रों का...
वैज्ञानिकों का ?
सृष्टि अणुओं से बनी है...
मूल रूप में अणु वही हैं...
परस्पर और उतने ही...
विरोधी....
विद्युत प्रवाह...गतिमान....
निरंतर...
पेड़...पौधे...जीव...जंतु....
मरते रहते हैं...
फिर जन्म लेते हैं....
पर अणु /कण....
न मरता है न जन्म लेता है...
अनादि है....
इस देह में भी....
यही अणु गतिमान हैं...
हर क्षण बदलते रहते हैं...
संघर्षण चलता रहता है...
कहीं कोई मर रहा है...
तो कोई जन्म ले रहा है....
निरंतर....
देह बदल रही है...
आत्मा अनादि है...
अंश है....
प्रतिबिम्ब है...
तुझ में...मुझमें....
उस 'विराट रूप' का...
और यही अंश...
विघटित न हो कर...
जब मूल स्वरूप में...
समाहित हो 'विराट' होता है...
उद्घोष करता है...
'अहम ब्रह्मास्मि'...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२४.०१.२०१९

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II कलम II
कलम तेरी है बात निराली...
कब..कैसे...किसपे चल जाए...
कभी मधुर बजती बाँसुरिया सी...
कभी तलवार चमक दिखलाये...
कब...कैसे...किसपे चल जाए..



कभी चले ठुम्मक ठुम्मक...
पैंजनियां छनकाये...
तुलसी के छंदों में मीठी...
राम धुन सुनाये....
बच्चों की किलकारिओं सी...
मिश्री कर्ण घुल जाए....
कभी बारिश में भीगी...
कागज़ पे...
नाव चलती जाए....
बच्चों की हठखेलियों से तू...
सब मन मोह ले जाए......
बिलकुल नटखट बच्चे जैसे तू...
न जाने कब क्या कर जाए....
कलम तेरी है बात निराली...
कब...कैसे...किसपे चल जाए..

जवाँ दिलों की धड़कन में तू ...
धक् धक् कर रह जाए....
बन आवाज़ खामोश दिलों की...
दिल को दे समझाए....
कभी टूटे जो दिल किसी का....
मरहम दे है लगाए....
दर्द में जब कोई डूबे आशिक़...
तू सैलाब ले कर आये....
डुबोकर समंदर अश्कों में...
तू चमत्कार दिखलाये....

उड़े चुनरिया गोरी की तो...
पवन ठहर जाए....
गाल पे काला तिल गोरी का...
तू पहरेदार बनाये....
जब लहराए पवन मस्त सी, तू...
ज़ुल्फ़ गोरी की लहराए....
कंगना...बिंदिया चमकी जब...
तू बिजली बन गिर जाए...
कभी गाल गुलाबी बनाती...
कभी पंखुड़ी से होंठ बनाये...
कितने रूप हैं तेरे कलम जी....
कैसे कोई बतलाये....
आती जब ठहरे हाथों में, तो...
नया सृजन कर जाए....
ज़िन्दगी के हर सफ़े को तू....
खोल खोल समझाए.....
पर बेशर्म हाथों का खिलौना बन...
विध्वंस रचती जाए....
हर गली..मोड़..हर बाग़ में बैठी...
तू अपने गीत सुनाये....
कभी दुहाई देती उम्र..जज़्बों की...
कभी देह चिल्लाये....
पर नासमझ ये दुनिया ऐसी....
तेरी बोली समझ न आये....
जात पात न धर्म लिहाज तुझे है....
तू सबके ताज सजाये.....
गीत गोबिंद बने तुझसे, कभी...
गीता राह दिखलाये....
बन कबीर तू दिल को खोजा....
नहीं बहरा खुदा बतलाये....
पहुंची जब सूरदास हाथ में...
कान्हां की मूरत दे दिखलाये.....
जग दंग देख रह जाए.....
कभी रसखान कभी मीरा में...
तू प्रेम सुधा बरसाए...
जग प्रेममय हो जाए....
कभी बन लक्ष्मी बाई तू...
देश की आन बचाये....
कभी वीरों के चरण कमलों में....
तू फूल बन बिछ जाए.....
कभी हिमालय पे ललकारे...
तो कभी सियाचिन जाए....
ज़िन्दगी और मौत का सच तू....
आँखों से दिखलाये....
जब माँ के जांबाज़ों के आगे...
कृतज्ञता से झुक जाए...
तेरे अश्रुओं से सब की ही...
रूह पिघल बह जाये.....
जब ललकारे देश के दुश्मन...
तू बन शमशीर चमक जाए....
किस विद करून मैं तेरा वर्णन....
मुझे समझ न आये....
जब मांगू मैं सुकून खुदा से...
तू माँ की लोरी सुनाये....
जब लगूं कभी मैं गिरने तो...
बाजू पिता की तू बन आये....
बन जीवन संगिनी मेरी तू....
हर मोड़ पे साथ निभाए....
जैसे भाव उमड़ें मन मेरे...
तू वैसे ही बहती जाए....
कलम तेरी तो है बात निराली...
कब...कैसे...किसपे चल जाए..
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२२.०१.२०१९

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II कलम २ II
विधा:: ग़ज़ल
शब्दों के आँचल में भाव छुपा डाले...
उनको हो न खबर ज़ख्म सिला डाले...



कलम उठा कर अपनी उनको दे डाली...
जीवन के सब अपने राग मिटा डाले....

मेरी ग़ज़लें पढ़ कर उनको वह्म हुआ...
तोड़ कलम, मेरा वो हाथ दबा डाले....

दहशतगर्द-सियासत सब मतलब खातिर...
कलम सिपाही, गर्दन हाथ कटा डाले...
सत्य 'चँदर' कटु है पर यह होता आया...
जिन हाथों में लाठी भैंस चुरा डाले...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२२.०१.२०१९

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II चित्र / तस्वीर - २ II
तस्वीर बनायी है इक मैंने...
कुछ आढी तिरछी रेखाओं से...



उलझी सी ज़ुल्फें उसकी...
सुलझाने की कोशिश में...
हाथ बढ़ाया मैंने...
की रंग से भरने लगे...
तकदीर में उसकी...

उलझी लटें लहराने लगी...
माथे की रेखाएं चमकने लगी....
होंठ थे की रह रह के मुस्कुरा देते...
मधुर संगीत जैसे बज रहा हो मन में कहीं...
आँखें थी हिरनी जैसी, चंचल सी...
पल भर में वश कर ले सभी...

देखते ही देखते मुस्कुरा के यूं चली...
और फिर दूरररररररररररर.....
बहुत दूर कहीं निकल गयी.....
उलझन में हूँ मैं तस्वीर में रंग…
स्याह भरूं या कि
रंग-ऐ-खूँ....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१९.०१.२०१९

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II चित्र / तस्वीर II सुप्रभात.....नमन भावों के मोती...
II क्या करूँ मैं...... II
बूढी अम्मा के कमरे में एक बक्सा पड़ा है...
ऊपर बड़ा सा ताला जड़ा है....
घर के लोगों की आँखों में वो कभी चमक....
कभी निराशा सा देता है....
"अजी सुनो कभी पुछा अपनी अम्मा से...
इस 'पिटारे' में ऐसा क्या छुपा रखा है"...
"हां पूछा बहुत बार, पर कोई जवाब नहीं मिला".....



एक सुबह अम्मा अपने नित-नेम से निवृत हो...
बक्से के पास बैठ गयी...
इतने में ही खबर कानों में पंहुच गयी...
सब की आँखें बक्से पे जम गयीं...
अम्मा ने बक्सा खोला....

सबसे ऊपर एक सादा लाल सा जोड़ा पड़ा है...
शादी का लगता है...
फिर एक सूट निकला साथ में कुछ पैसे...
"अरे ये तो वही सूट और पैसे हैं अम्मा..
जो मैंने तुमको "दिए" थे जब पहली तनख्वाह मिली थी....
अभी तक रखे हैं "....
और निकले उपहार जो कभी अम्मा ने....
अपनी बहु बेटे को शादी की सालगिरह पर दिए थे...
पर उनको पसंद नहीं थे....पड़े थे...
फिर अम्मा ने हाथ में धागे उठाये...शायद २५-३०......
राखी के धागे हैं..एक दूसरे से बंधे......
जो उस भाई के लिए थे जो उसको छोड़ गया था...
क्यूँकी उसने घर की मर्जी के बिना शादी की थी....
फिर निकला पायल का जोड़ा...जो उसने पोती को दिया था...
पर बहु-बेटे ने वापिस कर दिया था...
और..... बस.....यही कुछ उसमें भरा पड़ा था...
बाकी सारा बक्सा खाली पड़ा था...
अम्मा की जीवन में रिश्तों की तरह....

अम्मा की वीरान आँखें दीवार को देख रही थी...
जैसे सवाल हो उन आँखों में....क्या कसूर था उसका...
उसने तो बेटी..बहन..पत्नी..माँ..दादी का रिश्ता जीया....
पर उसको...
पति भी ५ साल पहले छोड़ के संसार से चला गया...
कौन सा रिश्ता उसके पास है....
फिर धीरे धीरे फिसलती पुतलियाँ स्थिर हो गयी....
बक्से का मुह खुला हुआ था...कह रहा हो जैसे....
लो अब सब खाली हो गया......
घर में शोर सा मच गया...
अजी "बुढ़िया" चली गयी....अब जल्दी से इसकी तयारी कर दो...
और ४ दिन में ही सब काम ख़तम कर दो मेरे पास टाइम नहीं है....
मेरे दिल से वो "रिश्तों के पिटारे" की तस्वीर नहीं जाती....
आँखों के आगे से "हिर्दय विहीन रिश्तों" की तस्वीर नहीं जाती....
क्या करूँ मैं......
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१९.०१.२०१९

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II प्रवाह II नमन भावों के मोती....
विधा:: हाइकु
१.
भावातिरेक 
रूह का अभिषेक
काव्य प्रवाह



२.
कवि स्वभाव
विचारों का प्रवाह
बिम्ब निर्वाह

३.
'भावों के मोती'
प्रवाह अभ्यंतर
कवि स्वतंत्र

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१७.०१.२०१९


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II तलाश II सुप्रभात ....नमन भावों के मोती....
बहुत काटा-पीटी सी ज़िन्दगी है मेरी...
रोज़ ही नए सवाल देती है....
कुछ के तो खुद ही जवाब देती है...
पर वो भी समझ कहाँ पाता हूँ......
उलझ सा जाता हूँ...जाने क्या चाहता हूँ...
बहुत काटा पीटी है ज़िन्दगी मेरी....



पड़ोस में जवां मौत हो गयी है...
घर उनका उजड़ सा गया है...
पर...बच्चे मेरे की शादी है...
ढोल बज रहा है...मैं नाच गा रहा हूँ....
अपने को बना रहा हूँ... यां शायद
दर्द भरी चीखों से डर रहा हूँ...
कुछ समझ नहीं पाता हूँ…

ताज़ा सुन्दर से फूल लिए..मंदिर जा रहा हूँ…
सामने एक मासूम..फूल सा कोमल बच्चा…
चुप्पचाप सा...आँखों में अनगिनत सवाल लिए...
पर मैं बिना कुछ बोले....निकल जाता हूँ...
भगवान् को "दे" कर भी मैं खुश नहीं रह पाता हूँ...
कुछ समझ नहीं पाता हूँ…

अभी अभी सब्जी मंडी में....
एक "बूढी औरत" से..प्याज का भाव पूछता हूँ...
शायद कहीं कम भाव में मिलें..आगे बढ़ जाता हूँ...
वापिस आ के पाता हूँ वो "बूढी औरत"...
अपनी ज़िन्दगी का हिसाब कर निकल चुकी है...
और मैं अपना हिसाब करने बैठ जाता हूँ...
कुछ समझ नहीं पाता हूँ….
कभी लगता है दो कदम पे मंज़िल मिल ही जाएगी...
मीलों भागता हूँ फिर नाउम्मीद वापिस लौट आता हूँ...
छाँव में भी तपती रेत का अहसास होता है...
मन में अजीब सी प्यास का ऊफान उठता है...
शायद स्वाति बूँद की तलाश है मुझको..
पर....कुछ समझ नहीं पाता हूँ....
बहुत ही काटा पीटी सी ज़िन्दगी है मेरी...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१६.०१.२०१९


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II त्याग II क्षणिका
१.
मन को साधा...
आभास हुआ... 
कीचड में...
खिलता कँवल...
कीचड त्याग कर...



२.
त्याग...
न विरक्ति न मोक्ष...
स्थानांतरण है...
आत्मा का...
एक शरीर से
दूसरे शरीर तक...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१४.०१.२०१९


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II शहर3 II
मर रहा शहर फिर भी मौन सा क्यूँ है...
दिल में डर आँखों में खौफ सा क्यूँ है...
तोड़ गयी दम कली कुचली जाती रही...
अपने से हर शख्स अजनबी सा क्यूँ है...



चाँद तारों में विदाई करने के सपने थे...
महंदी रचने से शगुन अभी शुरू थे हुए...
नज़र जाने किसकी खा गयी थी उसको...
संग उसके ही लुट गए सब के सपने थे....

ए खुदा भेजा क्यूँ मुझको तू ऐसे शहर....
आब-ओ-हवा में जिसके दौड़ता है ज़हर...
हर आँख अपने से यहां चुराती है नज़र...
अपने घर की नहीं किसी को कोई खबर...

दिल दिया था तो रहम भी कुछ दिया होता...
शर्म-ओ-हया से आँख भी नम किया होता...
नहीं था बस तेरे तो फिर इतना किया होता...
मुझे पथ्थर या खुद से अजनबी किया होता...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१४.०१.२०१९
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II दीवार II नमन भावों के मोती....
विधा: क्षणिका.....
१.
ब्रह्म होना...
अवश्यंभावी है..
दरकार है तो...
पञ्च भौतिक...
दीवार गिराने की....



२.
बहुत सस्ते में मिल गया मुझे...
'तू'...
इक 'मैं' दीवार गिराने से...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II


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II मोह II
विधा : वर्ण पिरामिड
है
मोह 
कविता
छंद गद्य
प्रार्थना हार
सृजन साकार
'छलिया' साक्षात्कार



II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II
०५.०१.२०१९


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II बेटी 4 II
है
सेतु
तनया
दो जहान
स्व पहचान
अभिमान स्वान
ज़मीन आसमान



II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०४.०१.२०१९




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II बेटी II
बेटी आँगन का फूल हो तुम...
जीवन स्वर में संगीत हो तुम...
तुम से घर में उजियारा है....
तेरी पायल का छनकारा है...
तुम हो तो घर में बहारें हैं...
बिन तेरे शमशान ये सारे हैं...
बस मेरा मश्वरा एक है यही.....
समझना अपने को निर्बल नहीं...
शक्ति तुम में असीमित समायी है...
कुदरत की ही तू परछाई है....
पत्थर दिल मत बनना तुम...
पत्थर बन मुसीबत से लड़ना तुम....
ललकारे गर जीवन में कोई...
धोबी पछाड़ से पछाड़ना तुम...
बढे हाथ किसी राक्षस का अगर...
दुर्गा बन तब संहारना उसे तुम...
बन लक्ष्मी बाई देश जगाना है...
माँ टेरेसा जैसे भी संभालना है....
मत माँगना भीख किसी से तुम...
अधिकार स्वयं पैदा करना तुम...
अटल हो तुम परचंड हो तुम....
कर्म करो निर्भय हो कर तुम...
माँ बाप का गौरव मान हो तुम...
इस भारत माँ को शान हो तुम...



II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II


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II बेटी2 II
सिर्फ तीन दृश्य?......
सो जा लाडो मेरी...
इक राजकुमार आएगा...
बिठा घोड़े पे दूर देस ले जाएगा....
सो जा लाडो मेरी...
कितना मधुर सा लगता है...सुनना....



** “साडा चिड़ियाँ दा चम्बा वे बाबुल असां उड जाना...
साडी लंमी उडारी ए के मुड़ असां नईयों आणां..."
(बाबुल तेरा घर इस चिड़िया का रैन बसेरा है...
ये चिड़िया इसको छोड़ अब उड़ जा रही है...
और इतनी दूर जा रही है कि वापिस नहीं आएगी)**

नाज़ों से पाली को अपने हाथ से विदा किया...
एक राजकुमार के संग....
दर्द है जुदाई में पर एक मिठास है रिश्ते नए की...
बेटी का घर बसने की....
कितनी प्यारी सी चाहत है....
बेटी की....माँ की...बाबुल की...

"बहुत रोई होगी तड़पी होगी मरने से पहले...
कैसे दरिंदे हैं जिन्होंने जला डाला बुरी तरह से"....
एक विवाहिता के मृत शरीर को देख कर सब बोल रहे थे...
चिड़िया को किसी ने बहुत दूर.....ऐसी जगह भेज दिया...
जहां से वापिस न आ सके...
बाबुल की चिड़िया....
कैसे दरिंदे थे जिन्होंने जला डाला....
दूसरों को गाली दे के हम धुल गए...
पर आये कहाँ से वो...
राजकुमार...दरिंदे....
कहाँ से?....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
**पंजाब का एक लोकगीत

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II बेटी ३ II
१.
है
बेटी
सम्मान 
अभिमान
रिश्तों की जान
संवाहक आन
सदाचार संज्ञान



२.
है
आत्मा
तनया
प्रेम रत्न
सृष्टि आधार
जोड़े परिवार
देवी रूप साकार

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०४.०१.२०१९


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II कर्म II
II छंद - कुंडलियां II
पग धर नभ पर चलत ही, ऊंची रही उड़ान…
तन मन से जब कट गया, गैर हुआ इंसान…
गैर हुआ इंसान, मन प्रेम मोल न जाना....
कह चन्दर कविराय, साथ ना कुछ है जाना…
कर्म सँवारे जन्म, जब जाना छोड़ के जग...
करले कर्म सुधार, सन्मार्ग पर तू धर पग....



II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II
०३.०१.२०१९




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II कर्म 2II
II छंद - कुंडलियां II
रँगमँच है सारा जहां, इसके हम किरदार... 
रंग बदलता है यहां, हर कोई किरदार....
हर कोई किरदार, बैठा चहरा छुपाये...
तू मत भाग पीछे, चहरा नकली लगाये...
कर निस्वार्थ कर्म, तू छोड़ के सब प्रपंच...
ढूंढें तुम्हें जहां, जब जाओ छोड़ रँगमँच...



II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II
०३.०१.२०१९


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II कर्म ३ II
विधा: वर्ण पिरामिड
है
कर्म 
निष्काम
अभिराम
रहीम राम
आत्मिक विश्राम
सत्कर्म अविराम



II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०३.०१.२०१९


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II स्वप्न II
मैं ख़ुशी से फूला नहीं समा रहा था....
मेरी बेटी ने गोल्ड मैडल जीता था...
जुडो में....
चारों तरफ ढोल नगाड़े बज रहे थे...
सभी उसकी जय जयकार कर रहे थे...
साथ में मात पिता की...
जिनकी यह बच्ची है...
जिसने पूरे देश का सर...
गर्व से ऊंचा किया है....
मैं भी उन संग नाच रहा था...
गर्व से सब को बता रहा था...
यह मेरी बेटी है....
उछल रहा था जोर जोर से...
यह मेरी बेटी है...



मेरी बेटी...
हमारी कहना भी भूल गया...

पापा...पापा....
आँखें खुली तो पाया बिस्तर पर हूँ...
बेटी कह रही थी...
मुझे स्कूल छोड़ आओ न पापा...
लेट हो रही हूँ...
और आप हैं अभी तक सो रहे हैं....
मैं झल्ला गया...
इतना सुन्दर सपना देख रहा था....
"रिक्शा कर के चली जा अपने आप...
मेरे पास वक़्त नहीं है..."
बेटी चुप्पचाप निकल गयी....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II


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II बीता कल II
न मैं जानू न तू जाने....
प्रेम की भाषा प्रेम ही जाने...
जो बीता वो दिन था....
निकल गयी वो रात...
प्रेम कभी न बीता कल था....
न वो गुज़री हुई रात....



नज़ाकत भरी उंगलियां...
चेहरे को ढूंढती तेरे...मेरे...
कानों में साँसों की सरगोशी...
थिरकती खून में तेरे...मेरे...
कैसे कह दें कि है कोई याद...
या बीती हुई बात....
कैसे कह दें....

मन तेरा मेरा कब था अलग...
भाव किसके सरिता थे...
किसके समंदर....
किसने किसको जीता...
और किसने किसको हारा....
अलविदा तुमने तू को कह दिया...
मैंने मैं को कर दिया...
न 'तुम' तुम हो न 'मैं' ही मैं हूँ....
न कल थी फ़रियाद कोई...
न आज है फ़रियाद....
किस के लिए और क्यूँ करें...
‘हम’ फ़रियाद....
प्रेम कभी न बीता कल था....
न वो गुज़री हुई रात....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
३१.१२.२०१८

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II स्वतंत्र लेखन II नमन भावों के मोती
विधा: ग़ज़ल - ज़िन्दगी इक सफर सुहाना है...
('यह मुलाक़ात इक बहाना है...प्यार का सिलसिला पुराना है'...
जनाब नक्श लायलपुरी जी की ग़ज़ल की ज़मीन में लिखी ग़ज़ल)



ज़िन्दगी इक सफर सुहाना है....
गुनगुनाओ मधुर तराना है.....

क्या मिला और रह गया क्या है...
सोच कर ज़िन्दगी गँवाना है....
चाहतें कब कहाँ हुईं पूरी...
मन का संतोष ही खजाना है...
भूल जाओ बिछड़ गया जो भी....
क्यूँ सफर नर्क सा बनाना है....
मौत 'चन्दर' तेरी बने उत्सव....
कर्म ऐसे कमा के जाना है....
साथ मिल कर के "भावों के मोती"...
हर कला को हमें सजाना है....
'नक्श' तेरी ग़ज़ल के क्या कहने....
हर जुबां लब पे यह तराना है....
*यह मुलाक़ात इक बहाना है...
प्यार का सिलसिला पुराना है *
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
३०.१२.२०१८


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I सौदेबाजी - तिजारत II
तुम जब से गए हो....
मेरी आंखें दीप की तरह...
जलती हैं....
अश्क टप टप...
दामन पर गिरते हैं....
तन भी मन के साथ...
जलने लगता है....
फिर बाढ़ आती है...
बहा ले जाती है सब...
विभीषिका से मैं...
बिखर जाता हूँ....



इश्क़ किया तुमसे....
सौदेबाजी नहीं की...
दिल के बदले...
दिल नहीं माँगा...
वैसे भी इश्क़ में...
माँगा कहाँ जाता है...
मिल जाता है....
जिसका जो नसीब !

जोड़ता हूँ फिर अपने को....
पल पल तिनका तिनका....
फिर एक बवंडर आता है....
तेरी यादों का...
उड़ा ले जाता है मुझे....
तिनका तिनका....
मैं फिर ...
बिखर जाता हूँ...
बिखरने और जुड़ने का...
रिश्ता...
मैं बरसों से...
यूं ही शिद्दत से...
निभाता आ रहा हूँ...
हाँ, इश्क़ किया मैंने...
तिजारत नहीं...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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II स्वतंत्र लेखन II नमन भावों के मोती.....
विधा :: ग़ज़ल-हम सदा रिश्ते क्यूँ आजमाते रहे...
रात भर तुम मुझे यूं सताते रहे... 
चाँद तारों में छुप मुस्कुराते रहे...



उम्र भर आयी तो मन लगा सोचने...
हम सदा रिश्ते क्यूँ आजमाते रहे...

रात आंधी चली कुछ ऐसी ज़ोर से..
सहर में भी बिखर बिखर जाते रहे...
हो नहीं साथ दिल मगर कहता यही...
रहगुज़र मेरी तुम रौशनाते रहे...
मैं ख़ुशी का पता जब से गम का दिया...
मिलने से सब मुझे हिचकिचाते रहे...
शायद आ जाए मुझ पे तेरा दिल कभी...
सोच कर तुमसे नज़रें मिलाते रहे...
सोच मत दुनिया से है मिला क्या 'चँदर '...
गालियां दीं जिन्हें पूजने भी उन्हें जाते रहे...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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II पायल3.....II
पायल....
न जाने कितने भावों में....
सम्मुख होती है हमारे....
साकार...निराकार...
चेतन...अवचेतन मन में....
जागते और सोते !



रात के द्वितीय पहर में...
अचानक सन्न सन्न सी सुनाई पड़ती है....
विरहणी के स्वरों की पदचाप....
विहंगम सी....दूर हर छोर के आर पार....
कम्पन समंदर में होती है...
कश्मकश में ह्रदय...
लाख कोशिशों के बाद भी...
अपने को डूबता पाता है...
राग मधुकौंस की लहरों में...
आँखें जड़वत... द्रवित...अविचल...
ह्रदय की भाषा से अनजान...
अंधेरों को टोहती हैं....

भीतर उतरती जाती है...
पैंजनियां की छम छम....
गुंजन तीव्र होने लगती है....
छनकती पैंजनियां के संग...
डूबने लगता है....
भीतर ही भीतर...
ऋषभ धैवत का मिलन होता है...
अहीर भैरव स्फुटित होता है...
तन मन झंकृत हो उठता है...
पैंजनियां से....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२२.१२.२०१८


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II पायल2.....II
पायल....
न जाने कितने भावों को जन्म देती है....
प्रियतमा के पैरों में....
मन के तारों को झंकृत करती है....
सांसों में स्वर सजाती है....
शब्दों को अलंकृत करती है....
रुनझुन रागों को जन्म देती है....
मन मयूर नृत्य करता है...
ग़ज़लों में उसकी झंकार भरती है ...
प्रियतमा के पैरों की पायल...
सन्न सन्न करती...
दिल पर चलती सुनाई देती है...
महकती है...सन्न सन्न....



पत्नी के पाओं में जब...
यही पायल...
छनन छनन करती है...
मन में लहरें ज्वार बन उछलती हैं....
जैसे सभी बंधन तोड़ देंगी....
समर्पण को सब अर्पण कर देंगी...
अपने अहम को...
समस्त आस्तित्व को...
छन्न सी गहरे डुबो देती हैं...
पायल... छनन छन्न...

बेटी के नन्हें नन्हें पैर...
जब इठलाते चलते हैं....
मानो सभी ऋतुओं ने...
बेटी के पाओं में...
शरणागति ले ली हो...
मौसम कोई भी हो...
मन आनंद में झूमता है....
छम छम पायल...
बेटी की...
रूह को तर कर देती है...
छमा छम...
निश्छलता...निर्मलता...
रूह को वैसे ही आनंदित करती है...
जैसे राम के पैरों की पैंजनियां तुलसीदास को....
लल्ला की माँ यशोधा को....
यह पैंजनियां...
मन मोहती है हर किसी का...
पैंजनियां...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२१.१२.२०१८

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II भूख II नमन भावों के मोती....
भूख मत पूछ यारा क्या क्या और कैसे जुर्म ढहाती है...
किसी को हंसाती है तो किसी को बहुत ही रुलाती है....
कहीं तो ज़मीन खोद कर सबका पेट वो भर्ती जाती है.....
कहीं अन्नदाता को दाने दाने को मोहताज कर जाती है...



कहीं भूख से तिलमिला कर बच्चे मिटटी खाते फिरते हैं....
कहीं कुत्तों के मुंह से निवाला गिरे के लिए झगडे होते हैं....
झोंपड़ी में बच्चों को बहलाने को पानी ही पका करता है....
भूख,माँ आंसू पी बुझाती है बच्चों को थपकी दे भगाती है....

कहीं गोदाम भरा अनाज से देख लाला खूब मुस्कुराता है....
कहीं लाल अपने को माँ एक वक़्त खाना खिला न पाती है....
कहीं पसलियों में जकड़ी माँ को चूसता फिरता है शिशु...
तो कहीं किसी को ५२ व्यंजन परोसे थाली पसंद न आती है....
कहीं अबला बच्चों के क्रंदन मजबूर तन बेचती जाती है...
कहीं भूख अस्मिता लूट कर किसी की ठहाके लगाती है....
न जाने क्यूँ बेदर्द, बेशर्म, ढीठ और छिछोरी होती है भूख...
मुर्दों का तन ही नहीं उनके वसन तक उतार खा जाती है....
दोस्त या फिर हों दुश्मन भूख पल में सब बदल देती है......
नाखून अँगुलियों से पलक झपकते वो अलग कर देती है....
भूख ने नाता जिस से भी जोड़ा है वो राजा हो या कि रंक...
न चैन से उसे जीने देती है न ही चैन से उसे मरने देती है....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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II भूख2....II
भूख न होती तो...
सृष्टि न होती...
सुना है भगवान् अकेला था...
अपने मन को बहलाने को...
सृष्टि निर्माण किया....
शौक भगवान् का...
या भूख...



इंसान में इंसानियत जगी...
धर्म स्थापित हुआ..
धर्म की भूख बढ़ी...
धर्मस्थल स्थापित हुए....
फिर माया का पदार्पण...
धर्म को भूख में ले डूबी...
न धर्म रहा...न इंसान....

दो कपड़ों में संतोष था कभी....
प्रगति ने साधन क्या दिए...
मन में भूख को पर लग गए....
स्वार्थ ने अँधा कर दिया...
एक दूसरे को लूटने की भूख...
ईमानदारी बिकी...
इंसानियत बिकी...
समाज टूटा...
समाज सेवक....
लोगो के नेता बन गए....
नेता को जय जय कार ले उडी...
जय जय कार की भूख...
सेवक को खा गयी....
नेता बिकाऊ हो गया...
वोट खरीद कर अपने को बेच दिया....
राष्ट्र ताकता रहा....
भूखा भगवन नाम का....
घर बार...पत्नी बच्चे त्याग...
वन चला गया...
भूख में अमर हो गया...
भूख कब कहाँ मरी है....
हमेशा से है...सदा के लिए रहेगी...
कभी मुझमें...तो...
कभी तुझ में....
सृष्टि को चलना है...
भूख के सहारे....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२०.१२.२०१८

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निशा....
तुम मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा हो....
इंतज़ार की लम्बी रात हो....
घुटती साँसों की धड़कनों में....
डूबती...तैरती सी आहट हो...
मेरे कांपते हाथों में....
एक दूसरे को संभालती...
उँगलियों की बदहवासी....
जिन्होंने जितनी बार तेरा नाम लिखा....
अपने होश खो दिए....
पलकें इंतज़ार करते करते....
इतनी बोझिल हो गयी हैं...
कि जलने लगी हैं....
अंगारों सी...
नींद आती है तो यह बंद नहीं होतीं...
डरती हैं....
कहीं तुम सपनों में आओ...
और तेरा दामन जल जाए...



II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१८.१२.२०१८


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II साक्षात्कार II
दीवारें मेरी तरह ही सहमी सी थीं....
उनको लगा की मैं चिलाऊँगा....
पर मैं उनको और वो मुझे...
घूरती रहीं....
चुप्पचाप...



मैंने हाथ बढ़ा कर छूआ एक दीवार को...
पपड़ी सी यहां पर थी....
स्पर्श पाते ही मेरा...झर गयी....
भीतर सीलन थी...
न जाने कब से सिसक रही थी...
मेरी तरह....

मैंने रंग रोगन से पुताई की...
पर वो चमक न पायी...पहले जैसी...
बार बार पुताई की...पर...
वैसी की वैसी रही....
अक्स अलग अलग से उभर आये थे....
दीवार पर जगह जगह....
ऐसे लगा मैं अपना ही साक्षात्कार कर रहा हूँ....
न जाने लोग कैसे कहते हैं की पत्थरों में...
न जुबां होती न दिल...
परिवार के बिना वो भी उदास...ग़मगीन होती हैं....
संग सब के वो खिलती हैं बोलती हैं....
अब न वो बोलती हैं न मैं बोलता हूँ....
मौन से एक दूसरे को ताकते रहते हैं...
साक्षात्कार दोनों एक दूसरे में....
अपना ही करते हैं....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 


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II कचरा पेटी १ ... II
आज तुम...
बहुत चुप्प चुप्प से थे...
पहले की तरह कोई बात नहीं...
कोई गिला...शिकवा...गुस्सा...
कुछ भी नहीं...
दुनिया की बातें जो चुभती थी तेरे दिल में...
कचरा कह निकालते थे सब मुझ पे...



पर आज बिना कुछ कहे...सुने तुम मुझको...
सदा के लिए अलविदा कह निकल गए....
शायद कचरा नहीं रहा मन में तुम्हारे या
बदल दिया मुझको....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 

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II कचरा पेटी2 II
तुम तब कितना अपने से थे....
कचरा ही सही सब निकालते थे...
और मैं...
उसको अपने अंदर..
कुछ इस तरह ढक लेती थी कि...
उसकी गंध किसी तक भी...
ख़ास कर तुम तक ना पहुंचे...
फ़िक्र थी तुम्हारी घुटन की...
बेशक मेरी सांसें उस गंध से घुट रहीं थी....
पर तुम्हारी साँसों को महसूस करने को...
अपनी साँसों का घुटना मंज़ूर था मुझे....
पर तुम.....
बिना बोले...
बिना मेरी घुटन को महसूस किये...
चले गए....
बदल दिया मुझको....



II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०९.१२.२०१८
क्रमशः....


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II कचरा पेटी ३ II
कभी कभी घुटन कितनी भयावह हो जाती है....
सांस चलती रहती है सहज सी पर...
लगता जैसे बोझ सा उठाये चल रही है...
ना खुद रूकती है ना दिल को ठहरने देती है....



तुम जब थे साथ तो साँसों में तुम्हारी खुशबू थी...
अपने शरीर की गंध भी उमंग देती थी...
अपने को अलग अलग रूप में संवारने का...
एक अजीब सी ललक थी हर अंदाज़ में अपने को निखारने की...
एक तरंग थी जो नृत्य करने को मजबूर कर देती थी...
एक प्यास थी जो चाह को मजबूत करती थी....
एक अहसास थी जो अपने को अपने से मिलाती थी...
जो दुनिया की हर शै से अलग कर देती थी बदहवास सी...
एक मुस्कराहट थी जो हर किसी को अपना बना लेती थी...
एक तमन्ना थी हर उस मुकाम को पाने की जो किसी का ना था...

आज वही गंध अपनी....
परायी सी है...
घुटन देती है....बहुत....
चले गए तुम....
बदल दिया मुझको....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०९.१२.२०१८
क्रमशः....

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II कचरा पेटी4....II
तुमको मेरी इस घुटन का अहसास नहीं है...
होगा भी कैसे...तुम्हारे साथ ऐसा हुआ नहीं ना....



हर कोई मुझसे सवाल करता है तुम्हारे बारे...
जो सवाल कम विष भीगे तंज ज्यादा होते....
जो नहीं करते उनकी निगाहें मेरा पीछा करती हैं...
चुभती हैं मेरे तन बदन में...
मन को मार कर सब सह रही हूँ...
कभी मन करता है सब छोड़ के भाग जाऊं...
क्यूँ सहती हूँ मैं....
पर नहीं जा पाती...
इस लिए नहीं कि पाँव नहीं चलते...
इस लिए भी नहीं कि अब...
मेरा जिस्म निर्जीव सा हो गया है...
इस लिए भी नहीं कि कोई तरस खायेगा....
मुझे अपनाएगा...
नहीं....
शायद इस लिए कि...
तुमने भी तो मेरे साथ हर पल गुज़ारा है....
एक विश्वास सा है तुम....
ऐसा नहीं कर सकते...
तुम्हारी सांसें भी तो उखड़ती होंगी...
तुम भी तो ऐसे ही बदहवास होगे...
जानती हूँ तुम कचरा निकाले बिना नहीं रह सकते...
मेरे सिवा और किसी पे नहीं निकाल पाओगे....
जानती हूँ तुम्हें....
ऐसा लगता है उस दिन भी तुम...
कुछ कहना चाहते थे...
कुछ तो था जो नहीं कहा....
बस उसी इंतज़ार में...
कभी तुम आओ और
अपने मन से कचरा निकालो...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०९.१२.२०१८

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II प्रेरणा II नमन भावों के मोती....
नाहक डरते हो तुम.....
दुःख से कभी सुख से....
कभी रौशनी से मुंह फेर लेते हो...
कभी अँधेरे से घबराते हो....
जान कर भी तुम...
अपने को नहीं पहचानते....



मैं हर पल तुम्हें उद्वेलित करती हूँ....
नस नस में तेरे...
उमंग बन बहती हूँ...
हर पल तुझे पुकारती हूँ....
कदम दर कदम...
तेरे पाँव के नीचे की ज़मीन का आभास देती हूँ....
कौन सी राह पथरीली है....
कहाँ दलदल है....
कहाँ तू फिसलेगा...
कब तू बिछडेगा अपनों से....
कैसे मिलेगा सपनों से....
आसमान में उड़ने के संग...
ज़मीन की खुशबू का अहसास देती हूँ...
सत्य असत्य का दर्पण हूँ....
रिश्तों और शरीरों में बिखरी नहीं हूँ मैं....
कण कण में व्याप्त मैं...
अक्षुण 'विशाल कण' हूँ...
जो विघटित नहीं होता...
क्यूंकि....
मैं कभी न जन्म लेती हूँ...
न मरती हूँ...
न आग जलाती है मुझे...
न पानी गीला करता है....
न घूप तपाती है मुझे...
न छाँव ठंडक देती है....
जन्म जन्मांतर से तेरे संग हूँ...
पहचान मुझे....
जिसने पहचाना...
उसकी ही प्रेरणा बन गयी मैं....
फिर वो...
मेरी तरह कालजयी हो गया...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०८.१२.२०१८

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II स्वतंत्र लेखन II
II शैतान न बदला....II
अजब सा खेल है....
इंसान को पूजा....
वो पथ्थर बन गया....
तन और मन....
छील गया....
खून के आंसू से भी...
नहीं पिघला....



पथ्थर को पूजा....
वो देवता बन गया....
माथा रगड़ा....
लहू से अभिषेक हुआ...
पर उसका रंग न बदला...

इंसान बदल गया...
देवता बदल गया...
शैतान न बदला....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०२.१२.२०१८


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II सरिता II
मैं सरिता कल कल करती...मेरी पीड न जाने कोई...
जो भी आता मैल ही धोता...बिन पूछे मुझे हर कोई !



समय के साथ बहती मैं हर पल....जाने है हर कोई....
फिर भी अपने मतलब को मुझे बींध रहा हर कोई !

क्या रंग है मेरा अपना....रंग अपना भर जाता हर कोई.....
दर्द अपना मैं किस से कहूँ.....बेदर्द है हर कोई !
काश फिर से आये भागीरथ....फिर आये शिव कोई.....
मुझको अपने संग में ले ले....पीड रहे न कोई !
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०१.१२.२०१८

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II उपहार II
क्या उपहार दूँ..
तुम्हें मैं...
क्या उपहार दूँ... 
वस्त्र दूँ गरीब तन को....
या अमीर चाटुकार बन...
तुम्हे रेशम उपहार दूँ...
तुम बोलो क्या चाहिये...
तुमको मैं....
क्या उपहार दूँ....



अट्टहास करते दानव की...
भुजा उखाड़ दूँ...
कोमल काया से या कोई...
मैं खिलवाड़ करूँ...
बोलो न तुमको, मैं...
क्या उपहार दूँ....

कुत्तों से खाएं छीन जो...
उन्हें भोजन ओ प्यार दूँ...
या तेरे अहम को मैं...
माला-हार दूँ...
बोलो न तुमको, मैं...
क्या उपहार दूँ....
धूप में जलती भुनती काया...
अपना पेट जो भर न पायी...
उसको खाना दो बार दूँ...
या तेरे पेट को मैं...
और विस्तार दूँ...
क्यूँ चुप्प हो तुम बोलो न...
तुमको, मैं...
क्या उपहार दूँ....
ज़मीर अपना मार कर मैं...
बेशर्मी...बेहया सत्कार करूँ...
नहीं तुम्हें मैं देख देख...
खुद को ही मार लूँ...
क्यूँ मौन धरा तुमने अब...
बोलो ज़रा..तुमको, मैं...
क्या उपहार दूँ.....
जिह्वा मौन..शिथिल अंग हैं...
धरती पे तेरे नयन गढ़े हैं...
इन्हें पुकार करूँ...
या पत्त्थर हो मैं मौन धरूँ...
बोल न तू...तुमको, मैं...
क्या उपहार दूँ.....
निश्चल ...निर्मल प्रेम..
आरूढ़ नहीं हो तुम...
निर्लज्ज..निरंकुश...आरोही तेरा...
क्या आह्वान करूँ...
फूटो तो ओ शिला मस्तक ...
मैं तुम्हें....अब...
क्या उपहार दूँ....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२७.११.२०१८

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II स्वतंत्र लेखन II
II ज़लज़ला II
कल रात ज़लज़ला आया....
धरती इतनी ज़ोर से काँपी...कि 
सब कुछ अस्त व्यस्त हो गया....
बहुत से बृक्ष जड़ से उखड गए....
दीवारें गिर गयीं....
शीशे चूर चूर हो गए...



हमारे बीच भी ऐसा ही...
ज़लज़ला आया था...कभी...
सब रिश्ते टूट गए...
सब कुछ बिखर गया...
पर हमारा दम्भ....
न टूटा...
न ही दरार पड़ी....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२५.११.२०१८

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II स्वतंत्र लेखन II
नज़रों से हम तेरी तो आबाद हो गए....
नज़रों से हम तेरी तो आबाद हो गए….
थे रकीब मेरे जो सब बर्बाद हो गए…



दिल रहे बेचैन तेरे दीद के लिए…..
तुम न जाने ईद का क्यूँ चाँद हो गए….

कर वफ़ा दिल टूटना तो आम हो गया….
हम वफ़ा नफरत तेरी नाशाद हो गए….
बन गले का हार मुझको ऐसे तुम मिले…
जिस्म दो इक जान के संवाद हो गए….
ज़िन्दगी ओ मौत की हद्द पार कर गए….
इश्क़ की मंज़िल के हम अनुवाद हो गए….
घास मत डालो कभी उन मंद इंसां को….
इश्क़ के बेवजह जो प्रतिवाद हो गए….
चुप्प तुम ‘चन्दर’ रहो शोर न करो अब….
लो मुहावरे भी ग़ज़ल के स्वाद हो गए….
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२५.११.२०१८

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II स्वतंत्र लेखन II
दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….
दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….
ऐसे अपना मन बहलाऊँ…
गर बात करे तेरी कोई मुझसे…
उसको दुनिया के ढंग समझाऊँ….
तुमको उन सबसे छुपाऊं….
उल्फत का मैं धर्म निभाऊं….
दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….



शर्मों हया में जकड़ी तू है…
मर्यादा में पंख कटे हैं मेरे…
तेरी मेरी धुन में रमे हैं…
मेरे तेरे शाम सवेरे…
लगे तमाम शाहों के पहरे…
कैसे कटें उनके ये घेरे…
रुक रुक कर खुद को बतलाऊँ…
दिल को सब पहलू समझाऊँ…
दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….
ऐसे अपना मन बहलाऊँ…

बहरे कान हैं दिल बेज़ुबान है…
दुनिया में हर कोई भगवान् है…
ऐसे भगवानों की दुनिया में…
अपनी प्रीत को कैसे निभाऊं…
तेरी लाज को कैसे बचाऊं…
हर पल अपने को समझाऊँ…
दिल को यूं हर बार मनाऊं…
दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….
नाव में मेरी पत्थर हैं भरे…
भाव समंदर उठती लहरें…
हिचकोले खाती चलती है…
डोर बंधी माहि संग गहरे…
उस छोर कब अपने को पाऊं…
तेरी सुनूं अपनी कह सुनाऊँ…..
दिल से दिल की बात कराऊँ…
यूं तुझ संग मैं प्रीत निभाऊं…
दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….
ऐसे अपना मन बहलाऊँ…
II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II
०४.११.२०१८

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II अहंकार II
विधा :: दोहा
अहंकार के मूल में, निज स्वार्थ का रूप...
रिश्तों को ग्रसित करे, मन को करे कुरूप...



अहम अंत रावण किया, हिरण्याक्ष का नाश ...
फिर भी इंसां समझता, मेरा नहीं विनाश...

मैं अरु तू बन हम रहें, जीवन मधुर सुवास....
अहम् बीच में जब पड़ा, 'हम' की टूटी श्वास...
अहंकार को पाल मत, बहुत बुरा यह रोग....
जीवन भर रिश्ते रहें, तिरसठ छतीस योग....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०३.११.२०१८


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ग़ज़ल - इश्क़ पीना ज़ह्र पिलाना है...
तेरा अंदाज़ कातिलाना है....
लूट कर चैन मुस्कुराना है...



धूप खिलना बहुत ज़रूरी है...
रिसते घर को अगर बचाना है....

मौत आई न ही खबर उसकी...
हर तगाफुल मुझे सताना है...
शाख से फूल तोडना, अपनी...
नीच फितरत को ही दिखाना है...
आँख से आँख लड़ गयी तो फिर....
जून का माह भी सुहाना है.....
है जुनूँ इश्क़ सर पे चढ़ता जब...
फिर ज़माना खुदा बेगाना है...
है नज़ाकत से हुस्न फूल खिले....
खूं जिगर से महक जगाना है.....
बात 'चन्दर' वफ़ा नहीं अब तो...
इश्क़ पीना ज़ह्र पिलाना है...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२८.१०.२०१८


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II चुनाव II सुप्रभात - नमन भावों के मोती
विधा :: हाइकु
१.
चुनाव आया
मुखौटा देश हित
जनता चित



२.
नेता कमाल
हो गए मालामाल
जन बेहाल

3.
नेता हैं दूल्हे
रिजल्ट में दुल्हन
जन बाराती
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२६.१०.२०१८

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II क्षण II
विधा :: छंद - ताटक
दिन हर क्षण डूबा जाए है, दिल धड़कन भी समझाए...
बरसों का सामां बाँध रखा, "मैं" सूरज चढ़ता जाए...



ईंट सीमेंट गारा ले कर, दम तोड़ कर बनाया घर...
टूटा दम सब धरा रह गया, कण रेत न ले जाया पर...

क्षण ही मीठा ओ क्षार बने, शत्रु मीत भी सबका यह...
पल में अहम सब मिट्टी मिला, जीत छीन ले जाए यह
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२५.१०.२०१८


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II क्षण II
विधा: दोहा
जीवन हर क्षण रेत सा, फिसल हाथ से जाय...
घट कर पूनम चाँद ज्यों, 'मावस का हो जाय...



II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२५.१०.२०१८



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II क्षण II
विधा : ताँका
लोभित क्षण 
जग पूनम चाँद
सत्य भ्रमित
प्रतिपल निहारे
अमावस की रात



II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२५.१०.२०१८


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II क्षण II
विधा :: छंद – ताटक
क्षण भंगुर ये जीवन सारा, जग भी मिथ्या है सारा I
जो समझा वही पार उतरा,जो उलझा वो ही हारा II



नाम जपत प्रभु दुख हर लीना, मन संशय मत तू लेना I
बिगड़ी भी बन जाए उसकी, जो शरण हरी की लीना II

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२५.१०.२०१८

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II स्वार्थ II
विधा : हाइकु
१.
रिश्ते भावों के
पुष्पित हर मन 
घर महके



२.
भव सागर
रिश्ते बने व्यापार
डूबते घर

३.
रिश्तों का सौदा
मरी इंसानियत
पिटे संस्कार
४.
टूटें दीवारें
बिन बंधन पक्के
रूह के रिश्ते
५.
महाभारत
चौसर की बिसात
रिश्तों पे घात
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२३.१०.२०१८

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II स्वार्थ II
विधा :: पिरामिड
१.
है 
रिश्ता
आनंद
मकरंद
संस्कार पंद
महके सुगंध
सुमधुर संबंध



२.
है
स्वार्थ
अनाथ
खोये साथ
सहायतार्थ
करता कृतार्थ
जो रिश्ता परमार्थ

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२३.१०.२०१८

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II रिश्ते II
विधा: ताँका
रिश्तों की नाव 
भव सागर भाव
टूटे किनारे
दुख सुख के धारे
विश्वास ही उभारे



II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२३.१०.२०१८



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"भाव / भावों के मोती" ...नमन भावों के मोती....
१.
"भावों के मोती"
छह माह उदीप्त
लेखन ज्योति



२.
"भावों के मोती"
रचनाएं पुष्पित
भाव महकें

३.
भावों के मोती
सुरभित संसार
भाव आहार
४.
दवे व् वीणा
"भावों के मोती" मीना
प्यारा नगीना
5.
हाइकु विधा
दवे परलक्षित
भाव स्फुटित
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२२.१०.२०१८

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II कलरव..... II
भोर होने में बहुत वक़्त होता है फिर भी....
न जाने मेरा मन क्यूँ उद्वेलित होता है...
कहीं भीतर अजीब सी अकुलाहट होती है....
ऐसे जैसे मैं पीछे न रह जाऊं...
आनंद से वंचित न रह जाऊं....
कोयल की कूक से...
जो भोर होने से पहले ही होने लगती है....
मधुरतम...अनोखी....
फिर पंछिओं की चहचहाट...कलरव....
हर परिंदा जैसे स्वागत कर रहा है...
ज़िन्दगी का...स्वर्णमयी भोर का...
तो मैं क्यूँ पीछे रहूँ....
मेरे अंतर्मन उछलने लगता है....
बिलकुल बच्चे जैसे....
एकदम बच्चे जैसा....
किलकारियां...कलरव....
भीतर ही भीतर अँगड़ाईआं लेने लगती हैं....
मधुरतम...मधुरतम अँगड़ाईआं...
कलरव की....



जारी है....

II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II
२०.०९.२०१८


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II इश्क़ की मंज़िल के हम अनुवाद हो गए.... II
नज़रों से हम तेरी तो आबाद हो गए....
थे रकीब मेरे जो सब बर्बाद हो गए...



दिल रहे बेचैन तेरे दीद के लिए.....
तुम न जाने ईद का क्यूँ चाँद हो गए....

कर वफ़ा दिल टूटना तो आम हो गया....
हम वफ़ा नफरत तेरी नाशाद हो गए....
बन गले का हार मुझको ऐसे तुम मिले...
जिस्म दो इक जान के संवाद हो गए....
ज़िन्दगी ओ मौत की हद्द पार कर गए....
इश्क़ की मंज़िल के हम अनुवाद हो गए....
घास मत डालो कभी उन मंद इंसां को....
इश्क़ के बेवजह जो प्रतिवाद हो गए....
चुप्प तुम 'चन्दर' रहो शोर न करो अब....
लो मुहावरे भी ग़ज़ल के स्वाद हो गए....
II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II
रकीब = प्रतिद्वंद्वी/प्रतिस्पर्धी
नाशाद = दुःखी
बे-तकल्लुफ "आंद" काफिया नज़रअंदाज़ कीजिये

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II उठा हाथ सब का भला माँगना... II
उठा हाथ सब का भला माँगना...
करूँ ना बुरा मैं दुआ मांगना...



न हो चमन खौफ परेशाँ ग़मज़दा...
करूँ कुछ ऐसा हौसला मांगना...

न हो 'आसिफा' कोई बेआबरू...
जहां रौशन दिमाग का मांगना...
मिले हो मुझे तुम खुदा का करम...
खुदा से भला और क्या मांगना...
छुपा है खुदा हर किसी में 'चँदर'...
खुदा से खुदा का बुरा मांगना ?...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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सिर्फ तीन दृश्य?......
1.
सो जा लाडो मेरी...
इक राजकुमार आएगा...
बिठा घोड़े पे दूर देस ले जाएगा....
सो जा लाडो मेरी...
कितना मधुर सा लगता है...सुनना....



2.
*“साडा चिड़ियाँ दा चम्बा वे बाबुल असां उड़ जाना...
साडी लंमी उडारी ए के मुड़ असां नईयों आणां...
"बाबुल तेरा घर इस चिड़िया का रैन बसेरा है...
ये चिड़िया इसको छोड़ अब उड़ जा रही है...
और इतनी दूर जा रही है कि वापिस नहीं आएगी"

नाज़ों से पाली को अपने हाथ से विदा किया...
एक राजकुमार के संग....
दर्द है जुदाई में पर एक मिठास है रिश्ते नए की...
बेटी का घर बसने की....
कितनी प्यारी सी चाहत है....
बेटी की....माँ की...बाबुल की...
3.
"बहुत रोई होगी तड़पी होगी मरने से पहले...
कैसे दरिंदे हैं जिन्होंने जला डाला बुरी तरह से"....
एक विवाहिता के मृत शरीर को देख कर सब बोल रहे थे...
चिड़िया को किसी ने बहुत दूर.....ऐसी जगह भेज दिया...
जहां से वापिस न आ सके...
बाबुल की चिड़िया....
कैसे दरिंदे थे जिन्होंने जला डाला....
दूसरों को गाली दे के हम धुल गए...
पर आये कहाँ से वो...
राजकुमार...दरिंदे....
कहाँ से?....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
*पंजाब का लोकगीत...शादी के समय लड़की गाती है...

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तरुवर छाया कहीं मिल जाती है…....
मंद मंद चलती समीर, यूं तेरे बालों को लहराती है....
जैसे मस्त बदली कोई, चाँद को चूम चूम जाती है...



सुप्त इश्क़ का अंकुर, उर में हलचल करता है...
मतवारे ननों से जब तू, मय छलकाती आती है...

खिल जाऊं कमल जैसे, मन शैशव हो जाए है...
अधीर हुए होंठों को जब तू, मदिरा पिला जाती है....
ना मैं चतुर बनिक सा, ना नट सा कलाकार हूँ...
चाकर हो जाता हूँ जब, मृगनयनी आँखें मटकाती है...
प्रीत लगा के तुमसे, मन "चन्दर" अब आराम से है...
जैसे तपती रूह को तरुवर छाया कहीं मिल जाती है...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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II अमिट-रिश्ते.... II
खाली सा मकाँ है...
ईंट पत्थरों का....



कभी बोलते थे खिड़की दरवाज़े....
घंटियाँ बजती थी बच्चों की आवाज़ में...
कभी-कभी कोई कर्कश आवाज़...
झकझोर जाती थी दीवारों को....
मीठे नमकीन पल थे ये सभी....
तीखी मिर्ची सा स्वाद भी था जिनमें कभी...
ज़िन्दगी चल रही थी यूं ही....
पर आज.....सब वीरान सा....

हर तरफ खामोशी सी पसरी है...
दिल की धड़कन भी सहमी सी चलती है...
टूट न जाए खामोशी कहीं...
रिश्ता कहाँ टूटता है....
जिनमें ज़िन्दगी के दस साल गुज़ारे थे हमने...
मन बार बार आज देखता है....
उन्हीं ईंट पत्थरों को....
आँखों से छू के हर कोने को...
हर दीवार को...
यहाँ कभी तस्वीर हुआ करती थी...
बच्चों की...
तो वहां मेरी...
रिश्ते भी...
आँगन के पौधों की तरह हैं....
देखभाल ज़रूरी है....
प्यार से सींचने के लिए...
विश्वास ज़रूरी है...
धूप से बचाने के लिए...
छाँव...एक सुखद अहसास....
सब पन्ने ज़िन्दगी के अब...
सिमट गए दिल के कोने में...
अमिट हो कर...
ईंट पत्थरों का रिश्ता....
बच्चों...पौधों का रिश्ता...
और रिश्ता अपना टूटने का...
पत्थर पे एक लकीर की तरह....
अमिट.....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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कभी मुड़ के देखो ज़रा जिंदगी को...
कभी मुड़ के देखो ज़रा जिंदगी को...
कहाँ छोड़ आये हैं हर इक ख़ुशी को...



चले थे जहां से वो परिवार अपना...
गये रह वो पीछे ले आये खुदी को...

है मौसम वही कश्तियाँ भी वही हैं...
कहाँ से मगर लाएं बारिश भीगी को...
रहे पास जब सब मिले न कभी, अब...
जिसे याद करते दुआ दें उसी को...
गया जो निकल कब है लौटा कभी वो...
बिछड़ने से पहले न समझे किसी को...
न ‘चन्दर’रहा न ज़माना रहा वो…
यूं रो रो के शिकवे करें ज़िंदगी को…
II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II

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I एक नए सृजन के लिए.....II
सावन में भी.....
एक पेड़ ठूंठ सा निर्जन खड़ा है....
किसी को उसकी काया से भय लगता है...
कोई अपशगुन समझ...
उसके सर से तेल उतारता है....
तो कोई धुप बत्ती कर रहा है....
किसी को उसपे दया आती है....
तो जल अर्पण कर देता है....



पर ना जाने क्यूँ मुझे ऐसे लगता है....
कि वो सब आडम्बर त्याग कर...
अंतर्मुखी हो गया है....
ऊर्जा संजो रहा है.....
अपने को त्यार कर रहा है...
एक नए सृजन के लिए......

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
(मेरी किताब 'आप की नज़र' से )

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ग़ैर-मुदर्रफ़ (ग़ज़ल बिना रदीफ़)
कभी तुम कह नहीं पाये कभी मैं सुन नहीं पाया...
ज़रा सी बात से देखो ज़हर रिश्तों में घुल आया....



नहीं जो पास था मेरे रही चाहत उसी की बस...
मिला मुझको नहीं वो और जो था पास गंवाया...

करोगे बात दिल से तुम अगर तो राह निकलेगी...
चमकती बिजलियों ने घोर बादल को भी दहलाया...
जमाने भर की खुशियां भी उसे खुश कर नहीं पायी...
जगी जब प्रीत दिल में तो, तभी सावन बरस आया....
नहीं ले जाएगा कोई जहां से कुछ कभी 'चन्दर'....
जहां को जीत कर के भी सिकंदर ने ये समझाया....

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II छंद II
दाम पड़ती छोटी जाए, कृष्णा उदर बंध ना पाए...
माँ लल्ला का बंधन चाहे, योगी भी पकड़ना चाहे...
माया धारी में जो उलझे,योग ज्ञान तप से ना सुलझे...
बलिहारी लीला पे जाऊं,बिना प्रेम कृष्ना ना पाऊं...
बन दामोदर कीन्हीं किरपा,बंधे दाम छोटी में कृष्णा...
पद पंकज तोरे है बिनती,बांधों 'चंदर' अपनी प्रीती...



II स्वरचित वंदन - सी.एम्.शर्मा II


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तमन्नाओं मत उड़ो इतना के ज़मीं से कट जाऊं मैं....
सूरज की तपन से पिघल थम से फिर गिर जाऊं मैं....
होश में रह के उड़ोगे तो मैं भी संभल जाऊँगा....
बेहोश हो गिरा तो साथ तुमको भी ले डूब जाऊँगा मैं...



चाँद की तमन्ना ने आग लगा दी चाहतों को मेरे....
साँसों ने फिर जिस्म को जलाने की सजा दी मेरे....
तूफानों की ज़द पे सफ़ीने रहते आखिर कब तक....
उनको भी तमन्ना थी 'मरने' की लग के सीने से मेरे....


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सफर बाकी है....
उम्र भी
ता ज़िन्दगी
मेरे साथ ही चली
मैं थक गया वो
नहीं थकी
कहे चल और
अभी तो सांस
उखड़ने का
वक़्त है और
कि अभी
सफर की
रात और है
तेरे हिस्से में
जान और है
यूं बैठा तो
लुट जाएगा
अंत से पहले
मिट जाएगा



फर्क नहीं
कौन जीता
कौन मरता है
हर कोई अपना
पेट भरता है
तेरे हाथ से
लाठी ले लेंगे
अपनी काठी
तुझे दे देंगे
बोझ से तू न
रुक पायेगा
न चल पायेगा
उठ चल के
अभी वक़्त
बाकी है
तेरी साँसों का
सफर अभी
बाकी है


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ये ग़ज़ल श्री नक्श ल्यालपुरी जी की लिखी ग़ज़ल “ये मुलाक़ात इक बहाना है….प्यार का सिलसिला पुराना है’ पर आधारित है….फिल्म खानदान…म्यूजिक ख़्याम साहिब जी…)
शमअ से कह रहा दिवाना है….
जल के तुझमें मुझे समाना है…..




तीर नज़रों के चल चुके अब तो….
दर्द सह कर भी मुस्कुराना है….


जान निकले खुदा उसी खातिर...
जिसकी ज़ानें मेरा सिरहाना है....

चाँदनी रात जल रही कितनी….
दिल हुआ फिर कहीं विराना है….




की समर्पित ग़ज़ल उसे ‘चन्दर’…

जिसका हर होंठ पे तराना है….
*प्यार का सिलसिला पुराना है…
ये मुलाक़ात इक बहाना है*….

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मन तू मुझको दगा दे गया....
न जाने कहाँ खो गया...

हर शै में ढूँढा तुझको...
कभी रईस दोस्तों में...
कभी महबूब में....
हर बाग़ की फूल-पती...
गहन कंदराओं में भी खोजा तुझको...
पर तू...
न जाने कहाँ खो गया है....

भटकता रहा मैं दरबदर...
देखा खुदा को जाती हर रहगुज़र...
किताबों में..तो कभी उपदेशों में...
कहीं तो मिलेगा...पर तू नहीं मिला...
कहीं नहीं मिला...
कहीं टिका नहीं...रुका नहीं...

मिला तो एक गरीब की झोंपड़ी में...
दीये की बुझती टिमटिमाती लौ में...
एक नन्ही सी बिटिया...
माँ की गोदी में लेटी अपलक...
माँ के मुख को देख रही थी...
लोरी सुन रही थी...

माँ की ममतामयी आवाज़ की...
स्वर लहरियां एक अजीब सी...
मिठास अंदर ही अंदर भर गयी...
गोद में लेटी नन्ही सी बेटी का…
मासूम...नूरानी चेहरा...
झोंपड़ी को रौशन कर रहा था...
दीये की लौ शरमा के बुझ गयी....
मेरी तन्द्रा भंग हो गयी...

मन मुझे मिल गया था...
लोरी की मिठास में...
नन्हें से फूल में....
जो हर दर्द से..हर चिंता से...
हर बेरहमी से अंजान...
शांत और स्थिर था...
माँ की गोद में....
जो...
माँ की आँखों का...
तारा...
उसकी ज़िदगी का...
दीपक थी....

II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II 
२५.०९.२०१८
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आज फिर तुमने, दिल मेरे पे, दस्तक दी है....
मेरे बालों में, तेरी उँगलियों ने, हरकत की है...
एक सिहरन सी, बदन मेरे में, लहराई है......
ठहरे पानी में हलचल ने ली अंगड़ाई है

है हवाओं का रुख भी, मेरी साँसों की तरह....
तेरे अहसास से धीमा सा, कभी तेज ज़रा...
झूल रहे पते लटके हुए, हवा से कुछ ऐसे...
वक़्त जाने का तेरा, सांस मेरी भटके जैसे....

लोग कहते हैं हम तुम से, जुदा रहते हैं...
एक दूसरे से अलग और ही, जहां रहते हैं...
आज तुम आयी हो, इन सब को,बता कर जाना...
प्यार मोहताज नहीं, बंधन का, बता कर जाना...

किस तरह इनसे कहूँ मैं, तुमसे रोज़ मिलता हूँ...
कब से हूँ तेरा किस जन्म से मैं यूं मिलता हूँ....
तुम ही बोलो क्या तुम थी जुदा, मुझसे कभी....
मेरी साँसों में नहीं और कहीं, बसी थी कभी.....

II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II 

@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
विधा: ग़ज़ल 

तुमसे बिछड़ के मुझ को सब वो यार पुराने याद आये... 
हर बात पुरानी याद आयी वो दिन सुहाने याद आये... 

जब देखूं हंसों के जोड़े मेरी सब यादें बोलें... 
आँख मिली कब दिल धड़का मिलने के बहाने याद आये... 

ख़्वाब सुनहरे रात चाँदनी ओ भावों का वो झुरमुट... 
तन्हाईओं में साथ तेरे वो वादे निभाने याद आये... 

कालिज की कैंटीन पार्क जिसमें दिन गुजरे थे अपने... 
चाय संग तुझको मेरे वो गीत सुनाने याद आये... 

तेरी वो मदहोश निगाहें ओ ज़ुल्फ़ों के घने साये... 
'चन्दर' की तुम ग़ज़ल हो तुमपे शेर बनाने याद आये...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II




@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ II भावों का अकाल.... II 

आज सुबह की बात है... किसी दोस्त के फंक्शन में बाहर गया हुआ था...वापिस अपने स्टेशन और ऑफिस आने के लिए सुबह जल्दी ही निकल आया.... रास्ते में एक ढाबे पे रुका... नाश्ता करने को... एक जगह कुर्सी पर बैठ गया... वहां पहले से एक बुजुर्ग नाश्ता कर रहा था... मैले से कपडे थे...दांत २ ही दिखाई दे रहे थे... दाल में डुबो कर परांठा खा रहा था.... मेरा नाश्ता आता इस से पहले वो खत्म कर चुका था... ७०-७५ वर्ष का लग रहा था शक़ल से....नाश्ता करने के बाद वो कुछ मुझे बोला पर मैं समझ नहीं पाया.... बहुत कोशिश की पर मैं समझ नहीं पाया.... फिर उसने हाथ जोड़े कुछ बोला...मुझे समझ आया कि वो चाय पिलाने को बोल रहा.... मैंने उसकी चाय का आर्डर भी दे दिया....नाश्ता कर मैं वहां से चला आया... उसने जो नाश्ता किया था उसके भी पैसे दे दिए थे मैंने.... पर अंदर ही अंदर न जाने मुझे घुटन होने लगी...सोच कर कि वो मुझसे बातें कर रहा था पर मुझे चाय पिलाने के इलावा कुछ समझ नहीं आया उसका... दांत नहीं थे मुंह में शायद इस वजह से या मैं सुन नहीं पाया...

बच्चा जब बोल नहीं पाता.... आ ऊँ ही करता है... तब भी माँ बाप समझ लेते कि वो क्या कह रहा है... फिर उसकी तुतलाती बातें भी समझ जाते हैं.... और वही बच्चे जब बड़े होते हैं... माँ बाप कुछ कहते हैं तो वो सुनते नहीं हैं... हाँ आगे से जवाब उनके त्यार मिलते हैं... लम्बे चौड़े भाषण के रूप में और फिर शब्दों को जो वो 'वस्त्र' पहनाते हैं उनका भी जवाब नहीं होता.... बूढा और बच्चा एक सामान होते हैं सुना... पढ़ा मैंने... और जब यही माँ बाप बूढ़े हो जाते हैं उनकी बातें न समझ आती न कोई सुनना चाहता है.... रह रह के मुझे वो बुजुर्ग याद आता है...भिखारी तो था नहीं वो... फिर...

वो मुझसे बातें कर रहा था... मैं समझ नहीं पाया.... उसकी आँखें धंसी थी... चहरा भी स्पॉट सा... क्या था दिल में उसके.... मैं वापिस मुड़ा... उसी जगह गया.... पर वो मुझे नहीं मिला... दूर दूर तक नज़र दौड़ाई... पर नहीं मिला.... अपने आप पर मुझे घिन्न आने लगी है... अपने इंसान होने पर... जो भावों को नहीं पढ़ पाया दूसरे इंसान के.... काश ! मेरे मन में भावों का अकाल न होता... ज़िन्दगी मेरी यंत्र जैसी न होती तो शायद में उसके भाव आँखों के... चहरे के... पढ़ पाता या कम से कम सुन सकता... कर बेशक मैं कुछ नहीं सकता था... पर उसके भाव पढ़ सकता...सुन सकता उसके दिल की...काश !! 

क्या पर्यावरण नुक्सान सिर्फ पेड़ पौधे काटने से या गाड़ियों से या चिमनियों से निकलते धुएं से हो रहा है.... या हम समझ कर भी नहीं समझ पा रहे हैं.... हम मशीनों का प्रयोग करते करते खुद भी मशीन जैसे हो गए है ... एक यंत्र कि तरह... रोबोट की तरह... जिसमें भाव नहीं हैं... और संस्कार...प्यार... लुप्त हो रहे हैं.... सबसे बड़ा अकाल पड़ रहा है... घरों के वातावरण दूषित हो रहे हैं....घर टूट रहे हैं.... समाज खंडित हो रहा है... जिसका हम इलाज नहीं कर रहे.... प्यार और संस्कार के बीज हम बो नहीं रहे हैं.... न प्रोत्साहन दे रहे ऐसे भावों को..... और यही यंत्र कहीं आग लगा रहे हैं... किसी का खून कर रहे हैं...किसी का बलात्कार कर रहे हैं.... किसी बुजुर्ग को बेघर कर रहे हैं.... इंसानियत का हर पल खून हो रहा है... इतना ज़हर वातावरण में.... और हम सब मूक...बधिर बने बैठे हैं.... क्यूंकि भावों का अकाल है सब में.... घिन्न आती है ऐसे वातारण से.... पर इलाज नहीं करेंगे हम....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा 
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एक अदना सा पत्थर रास्ते में पड़ा हुआ....
ठोकरों से इधर लुढ़का कभी उधर लुढ़का...
जानवर हो या इंसान...
सब के पाँव तले दबला-कुचला गया....
मल से कभी किसी की गाली से वो धुलता रहा...
निदा पत्थरों की बन गयी.... *निदा* की निदा...
जब उसने अपनी कलम से लिखा...
“पत्थरों में भी जुबां होती है दिल होते हैं....
अपने घर के दर-ओ-दीवार सजा कर देखो"...
एक दिन एक मस्त निगाह ने उसको छू लिया...
कोमल मखमली स्पर्श ने उसको सहला दिया...
अपने साथ ले गया वो इसको उठा के….
दिन बदल गए उस पत्थर के नाज़ुक स्पर्श पा के....
रोज़ रोज़ के अहसास से उस में भाव जागे...
कभी इधर तो कभी उधर मटकने लगा....
बहुत रोका उसको पर वो न रुका...
पत्थर तो आखिर पत्थर है...
कितना रोको तुमको कुछ फर्क नहीं पड़ता...
यह कहके एक दिन उन्हीं हाथों ने उसको फेंक दिया....
वो रास्ते में पड़ा हुआ किस्मत को देखता है....
कल था यहाँ पड़ा आज भी वहीँ है....
लगती थी ठोकर जो पहले...वो आज भी सही है....
फर्क मगर यह की अब दर्द महसूस होता है....
पत्थर को तराशने में..अपने हाथ भी छिलेंगे ...
यह सब जानते हैं...फिर भी...
पत्थर तो आखिर पत्थर है...
उस शायर का कलाम गुम सा हो गया...
“चन्दर” फिर से...रास्ते का पत्थर हो गया...!!

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 

*निदा* - जनाब निदा फ़ाज़ली साहब 

"“पत्थरों में भी जुबां होती है दिल होते हैं....
अपने घर के दर-ओ-दीवार सजा कर देखो"
जनाब निदा फ़ाज़ली साहब की ग़ज़ल का एक शैर

निदा = आवाज़ / पुकार
दबला-कुचला = पैरों तले रौंदना/दबाना
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नदिया सी मैं इठलाती रहती हूँ....
सागर से तुम खामोश रहते हो...
बेकाबू मेरे दिल की धड़कनों को...
चुप्पके से तुम आगोश लेते हो...
सिमट के मैं सिहर सी जाती हूँ...
लिपट के तुम सराबोर करते हो...
कभी तुम मजबूर हो जाते हो तो....
कभी मैं मजबूर सी रहती हूँ....

अथाह की थाह कहाँ ढूँढूँ मैं बता....
मेरी पनाह का एहतराम करते हो...
रहती हूँ उर में जागती हर पल मैं...
ख़्वाब में तेरे मगर मैं सोती रहती हूँ...
हसरतों का सागर जब तन्हा होता है...
ख़्वाबों में गहरे तुझ से आ मिलती हूँ.....
नहीं पता तकदीर ख़्वाब की है क्या...
धरा सी मैं जब संभलती हूँ कभी तो...
नभ सागर बन छलक जाते हो तुम...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
०८.०९.२०१८

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यह बंधन...

स्नेह बंधन है....
जो ख़ुशी से बाँधा जाए...
ख़ुशी ख़ुशी मन अपनाये....
बिना किसी शर्त के...
शिकायत के...
खुद-ब-खुद हर कोई....
अपना लगे...अपना हो जाए...

मन पखेरू दूर उड़ा ले जाए...
आजाद खुले आकाश में....
पर वो....
वापिस फिर चला आये.... 
बंधन में बंधा ....

मौत मिले कहीं तो..भिड़ जाए...
हार जाए पर शिकन न आये....

घूप में ठंडी हवा के झोंके आएं....
धड़कन रुकी हुई भी चल पड़े....
बूढ़े काँधे जवां बच्चे को ढोयें....
मरे हुओं को भी याद कर कर रोएं.....
यह बंधन.... 
न जाने कितने ज़ख्म सिले...
कितने नए दे...फिर सिले...
सिलसिला यूं ही चलता जाए...
पर बंधन यह कट न पाए.....

परिवार छोड़ सरहद पे हैं खड़े...
घूप..बरसात..बर्फ ठण्ड में लड़ें....
साँसों को रुकने न दें...
पांवों को थकने न दें...
अपनी छोड़ बस... 
दूसरों के लिए जीएं...
हर पल जैसे अमृत पीएं....

यह बंधन....
स्नेह बंधन है...

II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II 
०७.०९.२०१८


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II कवि II 

कवि के हैं रूप अनेक...

देह एक पर भेस अनेक....
कभी उद्यंड कभी शालीन...
उमड़े सागर कभी भाव विहीन...

कवि निर्माण कवि बिध्वंस...
कवि के मन उपजे हर अंश...
करे उपजाऊ मन बंजर कभी तो...
तहस नहस करे सब मंज़र वो...

प्रियतम कवि कल्पना में..
चाँद दिखे मन मंदिर में...
सूरज की अग्नि से ज्यादा...
ताप रखता अपने दिल में... 

कभी दूत वो भावों का सबके...
कभी विष उगले अपने मनके...
आतताईओं का यमदूत कभी वो...
अत्याचार करे कभी आँख मूँद वो... 

कवि रूप है बहुत ही महान...
गर कर ले कवि कोई ये भान...
सूरज निकले नहीं निकले पर...
कवि कल्पना उपजे हर पल...

आसमाँ धरा पर आ जाए वहीँ पे...
प्रेम विशाल ह्रदय कवि रहे जहाँ पे...
शत शत नमन उन कविओं को है.. 
साहित्य वसुंधरा जीवित जिनसे है...

II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II

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II मिलन II 

क्यूँ वीणा है मौन मेरी...

नयनं में भी नीर नहीं... 
विरह सलिल तृषित नहीं... 
हृदय में क्यूँ पीड़ नहीं....

क्यूँ पंक में पंकज खिले...
सरिता सागर में क्यूँ मिले...
नाद दनादन गूंजे भीतर...
शोर बाहर क्यूँ नहीं मिले....

धीरज ध्यान धर्म सब गूंगे...
बहरे हुए हैं कर्ण सभी के...
वैरी हाथ में ज़हर लिये हैं...
प्रेम मधुशाला क्यूँकर भीगे…

विरह पुलकित दर्द निहारे...
मलिन नीर हुआ गंगा धारे..
नाव डूब कर लगी किनारे....
रूह मिलन हुआ प्रीतम द्वारे..

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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II जन्म भूमि II माँ भारती....

वंदन करूं मैं किस विध तेरा...

रूप बनाया रचयिता ऐसा तेरा...
तेरे अधरों पे सजाई मुस्कान है
माँ भारती हम सब की पहचान है.. 

सर हिमालय गर्व है जिसका... 
झुक जाए सर हर किसी का...
तिलक करने को रहते तत्पर...
तेरे रणबांकुरे माँ हर पल आतुर...

ज्योत सुनहरी जलाये प्रथमाकर...
असम, अरुणाचल, मेघालय दिवाकर...
हर कोई करे अर्चना भावों से...
मन में उभरते आह्लादों से...

शांत रूह से करते जो श्रृंगार हैं... 
खजुराहो, साँची और उज्जैन हैं... 
मध्य प्रदेश सब करता मुहाल है...
गर्व करता भारतीय हर हाल है....

शान्ति दूत भारत का जग को...
पश्चिम में वहां उसका स्थान है...
हर और जिसने तेरा नूर बढ़ाया....
जग में वो महात्मा कहलाया....

उत्तर में बसती तेरी ही जान है....
गर्व से कहते वो हमारी शान है...
स्वर्ग धरा पे उतर आया जहां पे...
ऐसा रूप कश्मीर हिंदोस्तान है...

धर्म का डंका जिसने जग में बजाया..
भारत का अध्यात्म रूप दिखलाया....
कन्या कुमारी वो तेरा परम् स्थान है....
विवेकानन्द ने दिया रूप महान है....

हर परबत में तेरा अडिग श्रृंगार है...
नदियाँ..सागर तेरे संगीत गान हैं...
जब तू मुस्काये...चहचहाये है...
तेरे संग हर दिल खिल जाए है....

तेरा रूप बखान करूं मैं कैसे...
निशब्द मेरी है कलम माँ जैसे...
तेरे रूप में सब की ही शान है...
माँ भारती! हम सब की जान है...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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देख देख तन आपना, काहे का अभिमान....
खिलौना टूटे पल में, आन पड़े शमशान....

माया काया मोह का, रिश्ता बड़ा अजीब...
सगा कोई रहा नहीं, जिसके हुआ करीब....

बेटे का गरूर किया, बाप हुआ करजई...
दानवीर दुनिया कहे, कर बेटी विदाई...

भूपति जन्मांतर सोच कर, नापता है धरती...
बिसर गया मिलती कहाँ, दो गज ऊपर धरती...

खानदान मिटटी मिला, रावण किया गरूर...
'चन्दर' रख मन में हरी, हरे तेरा गरूर.... 

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II


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नित नूतन मन आनन्द रहे...
हर दिल में उत्सव गंध रहे....
परिचित अपरचित संग रहे...
हर पल उत्सव आनन्द रहे...
नित नूतन मन आनन्द रहे...

मन शीतल जग भी शीतल हो...
भीतर स्नेहदीप तेरे जलते हों...
तेरे नयन वसुधा में कोपल से...
स्वप्न अपरिचित अंकुरित हों...
बहार सब मन आँगन रहे....
नित नूतन मन आनन्द रहे...

हो धूसर पर न कीचड हो मन.. 
अबोध बालक पुलकित हो मन...
वयोवृद्ध का हाथ पकड़ कर तू...
ले आये उसे अपने घर आँगन....
आशीष हर पल तुझे मिलता रहे... 
नित नूतन मन आनन्द रहे...

जो हरी भरी निर्मल हो धरा...
हर मन रहे फिर खिला हुआ...
हर आँगन में पौधे लगा कर...
तू वसुधा का कम भार करे...
हर जीव में प्राण संचार करे...

नित नूतन मन आनन्द रहे...
हर पल उत्सव आनन्द रहे...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 

धूसर - धूल में सना तन




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कभी चले ठुम्मक ठुम्मक तो...
पैंजनियां छनकाये...
तुलसी के छंदों में तू...
राम धुन सुनाये....
बच्चों की हंसी में तू भी...
मिश्री सी घुल जाए....
कभी बारिश में भीगी कागज़ पे...
नाव चलती जाए....
बच्चों की हठखेलियों में शामिल तू...
सब मन मोह ले जाए......
बिलकुल नटखट बच्चे जैसे तू भी...
न जाने कब क्या कर जाए....

जवाँ दिलों की धड़कन में तू ...
धक् धक् कर रह जाए....
बन आवाज़ खामोश दिलों की...
दिल को दे समझाए....
कभी टूटे जो दिल किसी का....
मरहम दे लगाए....
दर्द में जब कोई डूबा आशिक़, तू...
सैलाब भी ले आये....
उड़े चुनरिया गोरी की तो...
पवन ठहर जाए....
गाल पे काला तिल गोरी के...
कभी पहरेदार दिखाए....
जब लहराए पवन मस्त सी, तू...
ज़ुल्फ़ गोरी की लहराए....
कंगना...बिंदिया चमकी जब, तू...
बिजली बन गिर जाए...
कभी गाल गुलाबी बनाती, कभी...
लब पंखुड़ी से सजाये....
कितने रूप हैं तेरे कलम जी....
कैसे कोई बताये....

आती जब ठहरे हाथों में तो...
नया सृजन कर जाए....
ज़िन्दगी के हर सफ़े को तू....
खोल खोल समझाए.....
हर गली हर मोड़ हर बाग़ में बैठी...
तू अपने गीत सुनाये....
कभी दुहाई देती उम्र..जज़्बों की...
कभी देह चिल्लाये....
पर नासमझ ये दुनिया ऐसी, उसको...
तेरी बोली समझ न आये....

जात पात न धर्म लिहाज तुझे है....
तू सबके ताज सजाये.....
गीत गोबिंद कभी बने तुझसे, कभी...
गीता राह दिखाए....
बन कबीर तू दिल को खोजा....
नहीं बहरा खुदा बतलाये....
पहुंची जब सूरदास के हाथ में...
जग दंग देख रह जाए.....
कभी रसखान कभी मीरा में...
कृष्णा बोल सुनाये....
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कभी बन लक्ष्मी बाई तू...
देश की आन दिखाए....
कभी वीरों के चरण कमलों में....
फूल बन बिछ जाए.....
कभी हिमालय पे ललकारे तू....
कभी सियाचिन जाए....
ज़िन्दगी और मौत का सच तू....
आँखों से दिखलाये....
माँ के जांबाज़ों को देती सलाम, तू...
रूह पिघल जाये.....
जब ललकारे देश के दुश्मन को तू....
शमशीर सी चमक जाए....
किस विद करून तुझे मैं वर्णन....
मुझे समझ न आये....
जब मांगू मैं सुकून खुदा से...
तू माँ की लोरी सुनाये....
क्या और कैसे करून मैं तुझको अर्पण...
दे किरपा कर बतलाये....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 

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ब्रह्मा रूप रचा ये संसार....
विष्णु उसका पालनहार....
शिव करते हैं सब संहार....
त्रिदेव रूप ही ये संसार.....

मात-पिता जन्म दिया है...
दोनों मेरे ही पालनहार...
सब अवगुण मेरे हर लीन्हे...
मात-पिता है मेरा संसार...

नहीं देखा मैंने कोई ईश्वर...
जगत रचाया जो जगदीश्वर....
नहीं सुना कानों में उसको...
नहीं हुआ वो मुझसे मुखरित...

हुआ पैदा तो माँ को देखा....
पिता मेरे ने गोद उठाया....
माँ ने मुझको मधु चटाया....
माँ ने मीठी लोरी को गाया....

जब दुःख मुझको कभी घेरा...
बहुत पुकारा त्रिदेव न आया....
हाथ जोड़े माथा भी मैं रगड़ा...
वो कभी मेरे सामने न आया....

बिन बोले बिन कुछ पूछे मुझसे...
माँ ह्रदय मेरे की भाषा बोली....
पिता मेरे ने पकड़ी जो उंगली...
दुःख से मुझे उभरना सिखाया....

माँ बाहों में जब झूला झुलाया....
बैकुंठ धाम तब समझ में आया...
पिता मेरा जब घोड़ी बन बैठा...
पुष्पक विमान मेरा तब आया....

मेरे इश्वर हैं मुझ में समाये...
मैं इश्वर का अंश कहलाया....
मात-पिता के चरणों में मैंने...
सब तीरथ का संगम पाया...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 

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प्रकीर्ति सजाई जहां को अपने हर रूप रंग...
जीवन जीने का इस से हर जीव पाए हैं ढंग....
है हरियाली जीवन संदेस धरा का ये सबको....
तुम रखोगे खुश मुझे मैं रखूँ खुशहाल तुमको...

ले प्रकाश सूर्य का पौधे करते हैं साँसों का दान....
आक्सीजन सब को बाँटते पर न करते अभिमान.....
फिर भी न जाने क्यूँ न समझे इंसान बना शैतान....
करे कत्ल अंधाधुन्द पेड़ महल बनाये आलिशान... 

न हों गर ये पेड़ पौधे न होगा आक्सीजन निर्माण....
सोचो कैसे ज़िंदा रहेगा धरा पे कोई भी ए इंसान....
न चहकेगी चिड़िया कोई न कोयल गीत गायेगी...
महल अटारी चढ़ देखना जब बारिश न आएगी....

न मयूर नाचेगा वन में न ही नाचेगा वो तेरे मन में....
सोच सोच अपना कृत्य तू पछतायेगा फिर मन में....
बेटी से रौनक है घर की हरियाली से धरा की है....
बेटियां वंश निर्माण करती हैं सृष्टि निर्माण धरा से है....

II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II

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बरसों बाद मैं 
उसके सामने था....

मैं इंतज़ार में था....
कब पलकें उठें उसकी...
और कब...
मैं अपनी तस्वीर...
उसकी पलकों के भीतर छुपे...
आईनों में देखूं...

समंदर जितने गहरे होते हैं....
सीप भी उतनी ही गहरी होती है....
सुना था मैंने के मोती पाने को....
बहुत गहरे उतरना पड़ता है....
बहुत गहरे.....

भीतर हमारे बहुत गहरे...
कहीं सीप छुप्पी है...
दो आँखों के बीच में..
जब सीप पलकें....
खोलती है तो...
खुद को पाते हैं....

समंदर मेरे पास था....
मैं गहरे उतर न सका....
पलकें खुली नहीं....
मैं खुद से मिल न सका....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा I

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सावन की रुत भीगा मौसम....
भीगा है मेरा मन.....
राह मैं तेरी देखूं हर पल....
आ जाओ न अब साजन.... 

मेहंदी रचा हाथों पे मैंने...
नाम तेरा छुपाया उसमें....
बार बार चूमूँ मैं उसको....
जैसे तुम्हें हो पाया मैंने....
अब रह पाऊं न तुम बिन....
आ जाओ न अब साजन.... 

सखियाँ झूम झूम के गायें...
मन मेरा भी ललचाये....
पर गाऊं मैं तेरे ही संग...
जब तू झूला मुझे झुलाये...
बीत न जाए ये सावन....
आ जाओ न अब साजन.... 

हंसती हैं सब सखी सहेली..
देख मेरी हालत जो बनी....
कोई कहे मैं हुई बावरी...
कोई कहे मैं तुझसे हारी...
कोई न जाने दिल मेरे को...
और इसका ये पागलपन...
आ जाओ न अब साजन.... 

यूं तो मौसम आते जाते...
हर पल तेरी याद दिलाते....
जब भी आँगन फूल खिलते...
'चन्दर' दीखते तुम मुस्काते...
मन भंवरा समझाऊँ कैसे....
मुआ सावन आग लगाए....
जले है सब मेरा तन मन...
आ जाओ न अब साजन.... 

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा 

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ये रंग....
ये रंग है तेरे मेरे प्यार के...
मेरे संसार के...
हर मौसम बहार के...
ये रंग...

खिलतें हैं जब तेरी हंसी की तरह...
मन कस्तूरी महकता है मेरा...
रोम रोम से निकलती फुहार से...
भीग जाता है तन मन मेरा...

खुलते हैं पट मेरी पलकों के जब...
सतरंगी से उभर...
तेरे अक्स जगमगाते हैं...
यादों के क्षितिज पे...

बेशक नहीं हो तुम साथ....
जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि ये आकाश...
देते हैं हर पल मुझे.....
तेरे होने का आभास....

नहीं होते धुंधले कभी ये...
न ही मटमैले होते हैं...
ये रंग हैं प्यार के...
मेरी चाह के...
मेरे इंतज़ार के...
ये रंग.....

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II हर पल II 

ज़िन्दगी मौत डगरिया हर पल....
जी रहा कोई सरफिरा हर पल....

खुद को जाना नहीं कभी भी अगर...
ढूंढता क्यूँ फिरे खुदा हर पल....

प्यार करना तुझे न भाया कभी...
धड़कनों बिन ही तू जिया हर पल...

याद जब भी किया उसे मैनें.....
ज़ख्म रिस्ता रहा मुआ हर पल.....

ज़िन्दगी-मौत खेल-खेला 'चन्दर'.... 
सांस जाती है दे सदा हर पल....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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विधा : ग़ज़ल 

प्रेम सौगात मिल गयी मुझको.....
अश्क बरसात मिल गयी मुझको....

वो तेरे हुस्न कर्म के जलवे....
ज़ख्म खैरात मिल गयी मुझको.....

बिन तेरे याद कुछ न रहता है....
याद बारात मिल गयी मुझको.....

मौत बेमौत देख मर जाए....
ऐसी सौगात मिल गयी मुझको....

जान कर भी न खुद को जाना, ज्यों... 
अजनबी गात मिल गयी मुझको.....

II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II 
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सुबह सुबह मैंने एक नन्ही सी परी को देखा....
बहुत सुन्दर सी फ्रॉक पहने झूम रही थी...
फुदक रही थी जैसे प्यारी सी चिड़िया....
जब वो झूमती उसकी फ्रॉक भी उसके साथ झूमती....
छतरी सी बन.....
जिसको देख वो खुश हो रही थी...
और मैं उसकी ख़ुशी से आनंदित....
मंत्रमुगध हो उसे देखे जा रहा था....
बस एक ही बात मुझे अटपटी सी लगी...
उसके ऊंचे से सैंडल....वो एक दो बार लड़खड़ाई....
मेरा मन धक् से रह गया कि कहीं चोट न लगे...
पर वह संभल जाती फिर झूमती....
मुझसे रहा नहीं गया पूछ ही लिया....
"बेटा...नाम क्या तुम्हारा"....
"ख़ुशी...."
"बहुत प्यारा नाम है और तुम भी बहुत प्यारे लग रहे हो....यह सैंडल तकलीफ नहीं देते"...
"नहीं तो".....
"किस लिए पहने इतने ऊंचे यह सैंडल"...
"भईया मुझे छोटी कहता है...मैं बड़ी दिखना चाहती आज"....
यह कहते उसके कोमल चेहरे पे इतनी प्यारी मनमोहक सी जो मुस्कान आयी...
यूं लगा जैसे वो मेरे "मोहन" की मासूम सी मुस्कान हो.....
मेरी आत्मा को उसने आनंद से अजीब से प्यार से भर दिया....
इतना अनमोल....प्रकिर्तिक....अदभुत...मनोहारी....

पर क्या हम ऐसा आनंद पा सकेंगे आने वाले समय में...
हम भ्रूण हत्या किये जा रहे हैं....
कहाँ से पाएंगे यह आनंद...यह सब मन की ख़ुशी....
कैसे मनाएंगे रक्षा बंधन...कैसे होगी दुर्गा पूजा...
ऐसी मुस्कान जो बिन मांगे आनंदविभोर कर दे.....
कहाँ से लाएंगे...
क्यूँ नहीं जाग रहे हम...
क्यूँ हम अपने सुनहरे भविष्य को ख़तम कर रहे हैं....
हम क्यूँ अपनी सच्ची ख़ुशी खो कर....
ख़ुशी का मुखौटा लगाए घूम रहे हैं....
आखिर क्यूँ.....
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मेरे भाव हर पिता के चरणों में समर्पित हैं....) 

मेरी आँखों में दीखता आकाश हो तुम... 
मेरे साकार सपनों का आधार हो तुम... 
रगों में बहती स्वावबलंबी धार हो तुम... 
पथ पे बढ़ते रहने की हुंकार हो तुम... 

न होता उजला जीवन गर तुम नहीं होते... 
बिन तेरे भय से निष्प्राण से जी रहे होते... 
कंटक राहों पे पाँव मेरे लहू लुहान होते... 
हाथों से अपने कांटे गर तुम न चुने होते...

उछाल हवा में जिसदिन बाहों में थामा तुमने....
आसमाँ तो उस दिन ही था छू लिया मैंने...
सितारे फीके मेरी आँखों की चमक के आगे...
जब बाहों में ले झूला मुझे झुलाया था तुमने....

याद है मेरी साँसों को तेरी दर्द छुपाने की कला....
चहरे आँखों से हर पल तेरे मुस्कुराने की कला.... 
सब के सपनों के लिए दिन रात की जदोजहद...
याद है वो दृढ़ता तेरी हालात से लड़ने की कला.... 

नहीं हो पास मेरे पर धडकनों में धड़कते हो तुम...
मेरी आँखों में साँसों में मेरी बातों में रहते हो तुम...
अहसास हर पल है तेरे प्यार भरे आषीश का मुझे....
कमी है तो बस यह ही की अब डांटते नहीं हो तुम....

सांस जब तक मेरे जीवन में रहेगी ऐ खुदा... 
क़र्ज़ पिता का हर पल करूंगा मैं अदा... 
नाम तुम्हारा न धूमिल होने दूंगा मैं कभी... 
ऐसी ज़िन्दगी मैं हर पल जीऊंगा मेरे पिता....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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गुरु छवि ऐसी प्यारी मनवा....
गुरु छवि ऐसी प्यारी.....

भोर मेरे जीवन की गुरु से....
निंदिया भी आये प्यारी...मनवा....
गुरु छवि ऐसी प्यारी...

राह न भटकूं जीवन में कभी....
गुरु अखियां रहत निहारी...मनवा.....
गुरु छवि ऐसी प्यारी...

सोच मेरी मन भाव प्रेम के....
गुरु दे हैं उभारी...मनवा.....
गुरु छवि ऐसी प्यारी....मनवा....

तृष्णा मिटी मन तृप्त भया अब....
गुरु सागर बलिहारी....मनवा....
गुरु छवि ऐसी प्यारी....

गुरु मेरे की ज्योत जगी जब से....
कुमति मेरी सब हारी....मनवा...
गुरु छवि ऐसी प्यारी.... 

देख देख छवि गुर आपण की....
मेरी नाचें वृतियां सारी...मनवा....
गुरु छवि ऐसी प्यारी.....

गुरु छवि मैं जब भी निहारूं....
पाऊं कृष्ण मुरारी....मनवा...
गुरु छवि ऐसी प्यारी.....

II गुरुकृपा रचित - सी.एम्.शर्मा II
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मुझे तो रुकना है.........

रुक जा तू ए वक़्त मुझे तो अभी न मरना है....
बहुत हैं दायित्व जिन्हे अभी पूरा करना है.....

बेटी ने कॉलेज की पढ़ाई अभी तो पूरी की है...
रुक जा थोड़ी देर अभी उसे डॉक्टर बनना है...

मोहल्ले में पानी की समस्या है बहुत ही भारी....
एक माह तो रोज़ हमें अभी करना धरना है....

राज़ की बात मेरी धीरे से कान में तुम ये सुन लो...
अगले साल वेतन बढ़ने पर एरियर मुझे मिलना है....


दुश्मन पडोसी आँखों में मेरी रोज़ ही चुभता है...
उस से पहले मुझ को तो हर हाल न मरना है....

तुम तो चलते रहते हो बिन मतलब के ए वक़्त....
अभी पड़े मेरे काम बहुतेरे, मुझे तो रुकना है....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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II  शिव  II

II  छंद चौपाई II

कहते हैं शमशान निवासी, रोम रोम रम रहा सुवासी...
आदि अंत का जो है ज्ञाता, महादेव वो है कहलाता..

पी कर ज़हर अमृत देता वो, ऐसा वैरागी मन से वो...
जीवन मौत समाये रहते, मृत्युंजय हो जग में रमते....

आदि अंत में भी रहता जो, सत असत परिभाषित करे जो...
जड़ चेतन में जो अविचल है,सनातन वही शिव शंकर है..

दुख लेके सुख देता है जो, भोला बम बम भोला है जो....
वंदन रूप करे जग उसका, सत्यम शिवम सुंदरम उसका... 

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
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I  शिव  II

शिव भोले बाबा, शिव शम्भू हमारे...
शिव चरणों में सब बंधू सखा रे....
शिव महिमा गुणगान करे हम...
शिव सुत हम शिव पिता हमारे....

शिव नाद गूंजे है ब्रह्माण्ड ये सारे...
शिव नर्तन कण कण में शिवा रे...
शिव मेरे भीतर शिव मेरे बाहर...
शिव मुझमें मैं शिव में रमा रे....

शिव देव देवा आदि देव शिवा रे....
शिव कण कण शिव शिव पुकारे....
शिव शिवहरी और अर्धनारीश्वर...
शिव सचराचर शिव ही जगदीश्वर...

शिव ब्रह्मा शिव विष्णु जगत शिव...
शिव काल शिव महाकाल शिवा शिव....
शिव पाताल धरा शिव अम्बर....
शिव शंकर हर दिशा शिव शंकर...

शिव रूद्र शिव है भोला मेरा शिव....
शिव सुख दुःख करता धर्ता शिव....
शिव बाघम्भर हरे सब भय  पीड़ा....
शिव नागेश्वर विष हर्ता मेरा शिव....

शिव त्रिलोकी शिव नाथ सखा रे...
शिव नीलकंठ शिव जगत पिता रे...
शिव सर चन्दर शीतल धरा है...
शिव गंगाधर विषपान किया रे.....

शिव शूल पाणी विष्णुवलभ शिव...
शिव अम्बिकानाथ भक्तवत्सला शिव....
शिव वामदेव विरुपाक्ष शिवा शिव....
शिव नीललोहित जटाजूट शंकर शिव....

शिव माहेश्वर शशिशेखर शिवा शिव...
शिव नीलकंठ शितिकंठ शिवा शिव...
शिव कामारि शर्व शिव अनीश्वर...
शिव सर्वज्ञ सदाशिव गिरीश्वर...

शिव तारक परमेश्वर सदाशिव....
शिव अनंत  दक्षाध्वरहर शिव....
शिव भक्ति निज चरणों की देना....
शिव शिव बोले मेरा हर रोम शिव....

शिव महिमा शिव आप ही रचाई...
शिव भाव दिए निमित चन्दर भाई...
शिव चरणों में बिनती यही मेरी...
शिव मृतुन्जय हर जन हो सुखाई...

II भोलेकृपा रचित - सी.एम्.शर्मा II

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विधा :: दोहे 

नेता भाषण दे रहा, चुनाव का अभियान...
झांसे से बचना सभी, बोल रहा शैतान....

चुनाव की महिमा बड़ी, नेता मुख गुणगान...
नेता वो ही तुम चुनो, जिसकी हो पहचान... 

सेवा मेरा कर्म है, सेवा ही अभिमान.... 
वोट मुझे ही दीजिये, जन-हित मेरी शान...

जन इक उठ बोला तभी, सच्ची तेरी बात...
पांच वर्ष पर थे कहाँ, कहाँ तेरी जमात....

मत पीटो अब ढोल तुम, न करो अपनी बात....
वोट न होगी धर्म पर, अरु जात नहीं पात...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
२६.१०.२०१८

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तेरा अंदाज़ कातिलाना है....
लूट कर चैन मुस्कुराना है...

धूप खिलना बहुत ज़रूरी है...
रिसते घर को अगर बचाना है....

मौत आई न ही खबर उसकी...
हर तगाफुल मुझे सताना है...

शाख से फूल तोडना, अपनी...
नीच फितरत को ही दिखाना है...

आँख से आँख लड़ गयी तो फिर....
जून का माह भी सुहाना है.....

है जुनूँ इश्क़ सर पे चढ़ता जब...
फिर ज़माना खुदा बेगाना है...

है नज़ाकत से हुस्न फूल खिले....
खूं जिगर से महक जगाना है.....

बात 'चन्दर' वफ़ा नहीं अब तो...
इश्क़ पीना ज़ह्र पिलाना है...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
 


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अध्यात्म ज्ञान 
अंतस अभियान 
मन सौपान 
२.
मन अध्यात्म 
महक सनातन 
घर पल्वित 
३.
हो मनोरथ 
निस्वार्थ कर्म पथ 
अध्यात्म रथ 


II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
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जलती एक ही ज्योत को ....

ज्योति एक जले....एक ही ज्योति जले....


सारे ब्रह्माण्ड में....सारे विश्व में....
एक ही ज्योति जले...ज्योति एक जले....

हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई...एक से एक भले..
फिर तू क्यूँ भेद करे....ज्योति एक जले.....

गंगा यमुना बहती धरा पर...वही तो भीतर बहे..
जिसे तू समझ न सके.....ज्योति एक जले.....

जो ब्रह्माण्ड में वो ही पिंड में...सब में वो ही जले...
तू क्यूँ अज्ञान पले.....ज्योति एक जले.....

निर्विकार वो साकार वो...हर मूरत वो ढले...
तेरी श्रद्धा फूले फले....ज्योति एक जले.....

उसका वैरी कोई नहीं है...वैर न वो भी करे...
फिर तू क्यूँ वैर करे....ज्योति एक जले.....

मेरे भीतर तेरे भीतर...सब के भीतर जले...
क्यूँ तू पराया बने....ज्योति एक जले.....

मैं अज्ञानी तू अभिमानी...काहे दम्भ करे...
जब एक ही एक रमे....ज्योति एक जले.....

ज्योति एक जले....एक ही ज्योति जले...

II स्वरचित सी.एम्.शर्मा II 
३०.१०.२०१८
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अश्क आँखों से बहाकर कोई इकरार करे...
संग दिल दुनिया में कैसे कोई इज़हार करे....

ले मुझे डूबा मेरा दोस्त मांझी वो मेरा… 
कैसे अपनों पे भी क्यूँ अब कोई ऐतबार करे…

अपने होंठों पे सजाओ गीत ऐसा कोई....
आग सावन की न दिल पे कोई भी वार करे...

रोज़ अब किस से कहें हम अपना तन्हाई-ए-गम...
याद करके दिल क्यूँ खुद को शर्मसार करे...

आज फिर दिल को रुलाया और समझाया है...
चाँद आयेगा ज़मीं पर क्यूँ तू एतबार करे… 

कौन लेता है जहां भर के ग़मों की दौलत...
जो तबाह इश्क़ में न शिकवा कभी यार करे…

II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II 
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दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….

दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….
ऐसे अपना मन बहलाऊँ…
गर बात करे तेरी कोई मुझसे…
उसको दुनिया के ढंग समझाऊँ….
तुमको उन सबसे छुपाऊं….
उल्फत का मैं धर्म निभाऊं….
दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….

शर्मों हया में जकड़ी तू है…
मर्यादा में पंख कटे हैं मेरे…
तेरी मेरी धुन में रमे हैं…
मेरे तेरे शाम सवेरे…
लगे तमाम शाहों के पहरे…
कैसे कटें उनके ये घेरे…
रुक रुक कर खुद को बतलाऊँ…
दिल को सब पहलू समझाऊँ…
दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….
ऐसे अपना मन बहलाऊँ…

बहरे कान हैं दिल बेज़ुबान है…
दुनिया में हर कोई भगवान् है…
ऐसे भगवानों की दुनिया में…
अपनी प्रीत को कैसे निभाऊं…
तेरी लाज को कैसे बचाऊं…
हर पल अपने को समझाऊँ…
दिल को यूं हर बार मनाऊं…
दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….

नाव में मेरी पत्थर हैं भरे…
भाव समंदर उठती लहरें…
हिचकोले खाती चलती है…
डोर बंधी माहि संग गहरे…
उस छोर कब अपने को पाऊं…
तेरी सुनूं अपनी कह सुनाऊँ…..
दिल से दिल की बात कराऊँ…
यूं तुझ संग मैं प्रीत निभाऊं…
दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….
ऐसे अपना मन बहलाऊँ…

II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II 

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जगमग जगमग धरा हो अपनी...
आसमां ख़ुशी से झिलमिलाये...
मन से मन का दीप जला के...
आओ सब दीपावली मनाएं...

मेरा हाथ तेरे काँधे पे हो...
तू ज्योति मेरे राह की हो...
कदम से कदम मिला के...
हम धरा से अम्बर छू आएं...
आओ सब दीपावली मनाएं...

जात पात दीवार ढहा दें...
इंसानियत का धर्म बना लें...
चहूँ दिशा हो प्यार का वैभव..
हम ऐसा हिन्दुस्तान बनाएं... 
आओ सब दीपावली मनाएं...

तेरी साँसों में जीवन मेरा हो...
दिल मेरे में धड़कन तेरी हो...
न कुछ तेरा ना कुछ मेरा...
धरा वसुदेव कुटुंबकम बनाएं... 
आओ सब दीपावली मनाएं...

परहित में निज स्वार्थ त्यागें...
सुख दुःख हो सब के साँझें
तेरे घर के अंधियारे को...
मेरे घर के दीप भगाएं....
आओ सब दीपावली मनाएं...

खुशिओं की फुलझड़ियाँ छूटें...
ठहाकों के बम घर घर फूटें...
वैर वैमनस्य मिटा दें सारा....
ऐसा हम संसार बनाएं....
आओ सब दीपावली मनाएं...

चन्दर शीतल मन हो अपना...
दिल के थाल में प्यार हो भरा..
वाणी मधुर मिष्ठान बनाके...
हर आँगन में फूल खिलाएं....
आओ सब दीपावली मनाएं...

सब की आँखों के सपनों में...
अपनेपन के रंग भरे हो...
आओ ऐसी रंगोली बना के...
भारत अपना मिल संजायें...
आओ सब दीपावली मनाएं...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 

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विधा: ग़ज़ल - तुम ठहर जाओ कभी 

जनाब मिर्ज़ा ग़ालिब साहिब की एक ग़ज़ल है "आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक...कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक" इसी ज़मीन में लिखी मेरी यह ग़ज़ल आपकी नज़र......

तुम ठहर जाओ कभी, शब् के सहर होने तक.... 
चैन साँसों को मिले, ख़त्म सफर होने तक.... 

चल चलें और कहीं दूर उड़ें हम तब तक.... 
खवाब आँखों में सजाये, जो नज़र होने तक.... 

तुम चमक हुस्न अदा शोख पे इतराओ क्यूँ.... 
फूल में नूर-न-बू इश्क़ नज़र होने तक... 

इश्क़ विश्वास ज़रूरी है निभाने के लिए.... 
शक मगर जाए न, रिश्तों के ज़हर होने तक.... 

आदमी कौन बुरा कौन यहां अच्छा है.... 
आस्तीन सांप है, डसने की ख़बर होने तक...

सबको मालूम वफ़ा इश्क़ जुनूँ का अंजाम.... 
कौन परवाह करे, राख जिगर होने तक.... 

आज फिर तुमने रुलाया-ओ-सताया मुझको.... 
याद जाए न तेरी, मौत 'चँदर' होने तक.... 

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
११.११.२०१८
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१.
तम का नाश 
विश्वास की जीत
जुगनू दीप

२.
अरि अँधेरा
जुगुनू जैसा मित्र 
राह दिखाए 

३.
नभ सितारे 
प्रकृति चमकाए 
जुगुनू दीप 

४.
आस विश्वास 
जुगुनू का सन्देश 
अंतस दीप 

II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II
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