हम भी कुछ पहचान बनायें दिखें कुछ काबिल से ।।
ऐसे हों शुभ कर्म हमारे दुनिया हमको याद करे
दुश्मन की भी आँख हो नम जायें जब महफिल से ।।
दुनिया में दायित्व निभाने हर एक इंसा आया है
गीता के श्लोकों में भी यही सार बतलाया है ।।
रामचरित मानस भी सुन्दर दायित्वों की कृति है
हर पात्र ''शिवम" अपना सुन्दर दायित्व निभाया है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम"
यदि नहीं समझेंगे दायित्व
तो नहीं आ सकता स्थायित्व
दिन का कोई मोल नहीं होगा
प्रगति का कोई बोल न होगा।
सुबह में उत्साह न होगा
भाव में प्रवाह न होगा
शाम सुहानी न होगी
और दीवानी न होगी।
दायित्व में सम्भावना है
दायित्व में ही भावना है
दायित्व बिना सब कुछ अधूरा
फिर काम होगा कैसे पूरा।
दायित्व लो और बनो उत्तरदायी
किसी कर्मठ की बनों चाहे परछाई
काम तो करना ही होगा बढ़ने के लिए
चाहो हो जाओ करते करते धराशायी।
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निभाते - निभाते
अपना दायित्व
बहुत दूर चली आई मैं
पर स्वयं छूट गई
कहीं पीछे ही
शायद स्वयं ही
छोड़ दिया खुद को
खो सी गई....
कतरा - कतरा रोशनी
बंद मुट्ठी से
फिसलती रही...
संग - संग ख्वाहिशें भी
दम तोड़ती रही...
दायित्वों के साँचे में
वजूद मेरा ढलता रहा....
कतरा-कतरा वक्त
वर्फ सा पिघलता रहा.... ।
उषा किरण
जीवन दिया है तो शक्ति भी देना।
कर सकूँ हृदय से भक्ति भी देना।
निभाऊँ उत्तरदायित्व अपने सारे,
हे ईश्वर मुझे इतनी शक्ति भी देना।
लडाई लडूँ तो बुराईयों से प्रभु जी,
नहीं हटूँ दूर कभी सच्चाई के पथ से।
जिंंन्दगी जिऊँ तो सदा ऐसी जिऊँ मै,
नहीं उतरूँ कभी स्व कर्तव्य के रथ से।
दायित्व निभाऊँ सब समाज के लिये मै।
कर्तव्य निभाऊँ कुछ परिवार के लिये मै।
परोपकारी बनकर हमेशा रहूँ हे भगवन,
वलिवेदी पर चढूँ तो स्वदेश के लिये मै।
भय मुझे कभी इन शत्रुओं से नहीं हो।
दुश्मनी मेरी कभी किसी से नहीं हो।
शुभाशीष प्यार सबका ही मिलता रहे
दायित्व निभाने में कोई कसर नहीं हो।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
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दायित्व जिम्मेदारी की ले
आज मैं हूँ हैरान
कभी बहू,
कभी पत्नी,
कभी मां बन
विभिन्न रूपों के
अस्तित्व की हो गई ऐलान
हर दायित्व के
बोझ में दबी
मैं न ले सकी विराम
सोच जिव्हा पर रह गई
कि छेड़ दू कोई अब संग्राम
हर व्यक्ति ने सीख दी
यह तुम्हारी दायित्व है
न तुम जीवन में
कर सकोगी अपने कार्यो से विश्राम
दायित्व क्या?
जीवन से इतना बड़ा है
कि न बन पाए मेरी अलग पहचान
वसुंधरा, लक्ष्मी, सरस्वती खिताब देकर
घोषणा कर देते हो सरे -आम
कभी पूछा किसी ने न मुझसे
दायित्वों की सूची थमा दी कि
अब ये ले लो सब तुम्हें करने है काम
.....निशा मिश्रा
" दायित्व"
पुरूषों के कँधों पर ,
दायित्व का भार है,
कम ना समझो नारी को,
जीवन का वो सार है,
बेटी बनकर घर आई,
निभाया दायित्व बेटी का,
दी बाबुल ने शिक्षा,
आजादी दी, परवाज दिये,
फैला पंख उसने लक्ष्य पाने का आगाज़ किया,
बाबुल ने जब विदा किया,
निभाने को ससुराल में,
नये दायित्व का भार दिया,
नारी तेरी लीला न्यारी,
निभाती दायित्व दो घरों का,
कभी ना तू हारी,
दायित्व निभाने में,
नारी तू सब पर भारी।
स्वरचित-रेखा रविदत्त
28/7/18
शनिवार
मुझे तो रुकना है.........
रुक जा तू ए वक़्त मुझे तो अभी न मरना है....
बहुत हैं दायित्व जिन्हे अभी पूरा करना है.....
बेटी ने कॉलेज की पढ़ाई अभी तो पूरी की है...
रुक जा थोड़ी देर अभी उसे डॉक्टर बनना है...
मोहल्ले में पानी की समस्या है बहुत ही भारी....
एक माह तो रोज़ हमें अभी करना धरना है....
राज़ की बात मेरी धीरे से कान में तुम ये सुन लो...
अगले साल वेतन बढ़ने पर एरियर मुझे मिलना है....
दुश्मन पडोसी आँखों में मेरी रोज़ ही चुभता है...
उस से पहले मुझ को तो हर हाल न मरना है....
तुम तो चलते रहते हो बिन मतलब के ए वक़्त....
अभी पड़े मेरे काम बहुतेरे, मुझे तो रुकना है....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
मैं, कर्ताधर्ता
पर्वत समान
अनगिनत दायित्वों को समेटे
अडिग,हर बाधाको निबटने के लिए
निशचिंत खड़ा।
जीवन को झकझोरती विपत्तियाँ
आंधी ,तूफानों से निबटना
तलहटी में सजाई,
बगिया की रक्षार्थ,सेवार्थ में सदा ततपर
स्वयं का दायित्व निर्वाह करता
मैं,हृदय में समाए पर्वताकार पिता हूँ।
नन्ही पौध को वृक्ष बनाता
कभी शुष्क न होने देता
स्वयं दायित्वों को,वज्र सा हाथ मे थामे
कठोरता से सदा उसका पालन करता।
दायित्वों की परिभाषा पहले न जानी थी
कण कण फैला हुआ मैं धरा पर था,
दायित्वों के निर्वाह ने,
कण कण में फैला हुआ मुझे,
दायित्वों के रूप में,पर्वत बना दिया।
लक्ष्य से मैं,डिगा नही,
सोच कर की ये
तुच्छता होगी।
अंततः विकट परिस्थितियों में भी
कांटो की चुभन,आंधी तूफानों में रहकर
स्व दायित्वों में सफलता पा ली।
दायित्वों की सीढ़ी पार करता हुआ,
आज मैं,कठोर पिता,हृदय में,
कोमल गुलाब छुपाएं बैठा हूँ।
स्वयं के दायित्वों का निर्वाह करता हुआ,
स्वयं पर ही फख्र करता हूँ।
दायित्वों की पूंजी को समेटने का भरसक प्रयास करता हूँ।
वीणा शर्मा
होंसलें अगर हों बुलंद तो,
आसमां को छू ही लेंगे हम,
दिल में गर हो सच्ची लगन,
दायित्व अपना निभा लेंगे हम!!
मानव रूपी इस जीवन में,
दायित्व का है बड़ा स्थान,
हर रिश्ते की हैं जिम्मेदारी,
निभाकर करो वफादारी!!
एक दायित्व भारतीय होने का,
अच्छे नागरिक बन समाज में,
मानवता को प्रधान बनाये हम,
और सच्चा फर्ज निभायें हम!!
"संगीता कुकरेती"
बचपन से फिसलकर जाने कब
दायित्वों ने कन्धों को झुका दिया
जिंदगी ने भी यूँ ही चलते चलते
जिम्मेदारियों का अहसास करा दिया।
माता -पिता भाई -बहन पत्नी, औलाद
सारे रिश्ते नाते बँधे है जाने किस डोर से
भीड़ में कहीं खो न जाये हम
जीवन ने किरदारों को पढ़ना सिखा दिया।
सर्वेश पाण्डेय
28-07-2018
दायित्व एक शब्द नही है।
इसमें भरे है अर्थ अनेक।
निभाओ तो दायित्व है
वरना समर्थ सिर्फ़ है एक।
माँ बाप का है दायित्व
ओलाद का है दायित्व
कर्तव्य निभाओ अधिकार जताओ
मानो तो दायित्व वरना
ढीठ कर्महीन बन जाओ।
भाई का बहन के लिये
पती का पत्नी के लिये
नोकर का मालिक के लिये
इंसान का इंसान के लिये।
मानो तो दायित्व है
नही तो कुछ नही
मौज में रहो मस्त रहो
जग मे अपना कुछ नही।
*रेणू अग्रवाल*
*28::7::2018;;*
जीवन में दायित्व कई पड़े हैं
तभी तो हम राहों में खड़े हैं .
मुश्किल हैं ये राहों का सफर
जिसमें कभी दिन हैं तो कभी पहर.
जिंदगी में सब रिश्ते निभाना भी एक कला हैं
कोई इसमें माहिर तो कोई निर्बल अकेला हैं .
हर मोड़ पर जिंदगी चलती हैं दायित्व से
कभी माता-पिता का दायित्व बनकर
कभी पुत्र पुत्री का दायित्व बनकर
जो भी हो दायित्व दिल से निभाओ ईमानदारी
से निभाओ .
दायित्व में हर दायित्व को अपना फर्ज
और कर्ज मानकर निभाओ.
स्वरचित:- रीता बिष्ट
जाने है दुनिया सारी
यदि न हो हमें दायित्व का एहसास
तो हम सोये चादर तान
माँ बाप का रखे ध्यान
ये तो है दायित्व का सार
अपनी इच्छा हो अधुरा
दायित्व के आगे इन्सान भुला
वास्तविक यश दायित्व निभाने
मे हैं, इन्सान तु इसे जान
दायित्व के है रूप अनेक
सही समय पर हम टैक्स चुकाये
यह भी तो है दायित्व हमारा।
हम गर चाहे अपना अधिकार
तो पूरा करना हो कर्तव्य
कर्तव्य और अधिकार का तो है
चोलीदामन का संबंध
इसे नही भुल जाये हम।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।
दिनांक 28.7.18
दिन शनिवार
विषय दायित्व
रचयिता पूनम गोयल
जीवन-पर्यन्त व्यक्ति ,
अनेक दायित्वों से घिरा रहता है !
मृत्यु तक भी ,
वह उनसे मुक्त न हो पाता है !!
क्योंकि जन्म के बाद से ही ,
वह सांसारिक-बन्धनों में जकड़ जाता है !
जिनसे चाहकर भी ,
वह छूट नहीं पाता है !!
रिश्तों का एक बहुत बड़ा मेला ,
उसके इर्द-गिर्द मँडराता है !
और उनके लिए वह ,
अपना पूरा जीवन समर्पित कर जाता है !!
इसी का नाम सृष्टि है ,
जिसका रचयिता , सबका भाग्यविधाता है !
सबको कर्मों के बन्धन में बाँधकर ,
वह अपने खेल रचाता है !!
कौन तुम अंकुर खुश्बू के अंकुरण?
1
धन की चाह में
उजड़ता हुआ वन
उड़ान की चाह में
दमकता हुआ गगन
याद आयी श्मशानो की आग
बस गया शहर में मातम का स्वर
रोती सिसकती घर-घर की चौखट
रूठ गया शहर में मधुर संगीत
मुँद गईं पलकें आवाजें जब बंद हुई
विरान हो गया खुश्बूओं का उपवन
सब खामोश हुए कि रोया जग
माली ने लूटा हरियाली की तस्वीर
कली का वृन्त-ग्रन्थि अंकुर
कौन तुम अंकुर खुश्बू के अंकुरण?
2
दूर जंगल में सूखी डाली
दूर जंगल में उजड़ी हरियाली
दूर जंगल में सूखे पत्तों का समुन्दर
आज हर जंगल हो गया मरू-प्रदेश
कब महका जानें ना फूलों का स्वर
कब भौंरो ने गूँजन किया कुछ याद नहीं
जंगल-नीर-पर्वत का आज सिर्फ दोहन
चल रहे हैं हम प्रकृति के विरूद्ध
दिल में मचलता हुआ लालच
और आँखो में वहशी सी तस्वीर
तपती हुई रेत पर अब चल
कौन तुम अंकुर खुश्बू के अंकुरण?
3
राख का स्वप्न हमारे अरमान
और खिलवाड़ करते प्रकृति से
तपता बदन फिरभी उजाड़ता जल-थल-नभ को
सोचते हैं मौन में डूबकर हम
खोजता आया हमे आज दायित्व क्यों?
कौन तुम और दीप्त दायित्व
कौन तुम किस दीन-हीन की पहचान?
@शाको
स्वरचित