Sunday, July 22

"स्वतंत्र लेखन "22जुलाई 2018



मत पूँछो कि बेटी क्या होती है

वो कुल के लिये वरदान और इज़्ज़त होती है 

और प्यार और ममता मानवता की मूर्ति भी होती है

पापा की लाडली गुड़िया और माँ की ममता की प्रतिरूप होती है

नियम है और रिवाज़ भी इसीलिये सौंपते हैं उसे दूसरों को व्याह कर

वहाँ भी वोह प्यार और समर्पण से सबको अपना लेती है

मोहती है सब जन को ससुराल में भी बनकर प्यारी सबकी

निभाती है लाज वो एक साथ दोनों ही घरों की

जब भी वो कभी जमाई सँग मायके आती है

समझिये हज़ारों बहारें उसके साथ झूम झूम के आती हैं

प्रसन्न पापा मम्मी के चेहरे भी खिल उठते है..

जब वे प्यारी बेटी और जमाई का अपने घर में स्वागत करते हैं

बहुत विशेष अतः होती हैं प्यारी बेटियाँ

हाँ ईश्वर का ही हर दंपति को वरदान होती हैं बेटियाँ

जरूरत इस बात की है कि उनकी महत्ता को स्वीकारें हम

और उन्हें उनके अनुरूप प्यार व्यवहार भी दे दें हम

(स्वरचित)

अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव




भूल जाते हैं लोग या कि वक्त भुलाता है
वक्त हर हाल में हमारा मित्र कहलाता है ।।

नींद नही आती थी कभी उनकी यादों में
मगर अब बिना गोली लिये नींद आता है ।।

वक्त ने हमको इतना छकाया इतना थकाया 
बैठे ही दिल नींद के आगोश में चला जाता है ।।

कभी कोई उलझन तो कभी कोई उलझन
इन्ही उलझनों में उलझ कर दिल रह जाता है ।।

कैसे कह सकते हम आखिर वक्त को शत्रु 
न चाहने पर भी कभी यह हमको हँसाता है ।।

दिल को टूटने भी नही देता है यह वक्त
एक साथ छूटता है तो दूसरा जुड़वाता है ।।

वक्त क्या क्या न खेल खिलवाये ''शिवम"
वक्त दुनिया में अपने को मित्र कहलवाता है ।


क्यूं अब भी उदास है
ये शाम मेरी मुरझाई सी,
दामन में मेरे कुछ नहीं

इक रात है तन्हाई की l

पूछता है वक्त मुझसे
छोड़ दूं मैं क्यूं तुझे,
तूं मेरा किरदार है
मेरा-तेरा प्यार है,
तूं नहीं तो मै नहीं
तेरे बिन कुछ भी नहीं,
कभी रात की कभी भोर की
इस दौर की उस दौर की

ये जिन्दगी परछाई सी
क्यूं अब भी उदास है
ये शाम मेरी मुरझाई सी l

ऐ चांद ! आज तूं नम सा है
तारों का संग कम सा है,
रोशनीं तेरी है कहां
जैसे जुदा मेरे निशां,
तूं ज़मीं से घट रहा
मैं भी यहां सिमट रहा,
रिश्ते मेरे दूर हो रहे
बिछड़नें को मजबूर हो रहे,
वक्त ने निगला मुझे
पर क्या हुआ है तुझे ?

तेरे आनें की घड़ी में
ये कलियां क्यूं कुम्भलाई सी 
क्यूं अब भी उदास है
ये शाम मेरी मुरझाई सी l

श्री लाल जोशी "श्री"
तेजरासर, (मैसूरू)




जिन ऑखो मे सपने है
तुम उनको नम न करना ।
बह जाएगे ऑसुओ मे
यू सपने कम न करना।
जिन ऑखो मे सपने है ,,,,
आज हुई गर हार तो 
कल जीत तुम्हारी होगी।
हार के डर से प्यारे तुम
अपनी कोशिश जम न करना ।
जिन ऑखो मे सपने ,,,,,
रोना धोना छोडकर के
अब जीवटता से काम लो।
आया है दौर ए मुश्किल 
मुश्किलो मे तुम गम न करना।
जिन ऑखो मे सपने ,,,,,
रौशन होती है ये दुनिया 
बस एक तेरी हंसी से
रो रो कर तुम अपनी इस
दुनिया मे तम न भरना।
जिन ऑखो मे सपने है
तुम उनको नम न करना।

हामिद सन्दलपुरी की कलम से




 ओरों की या बात करूँ अनजाना लगता है
सीधा सादा दिल तन्हा अब प्यासा लगता है।।


तुमको देखे बिन जीवन अब कोरा लगता है
दीवाना सा,परवाना औ चंदा लगता है।।

उल्फ़त की नगरी में तू दरवाजा लगता है
कोना कोना हर लम्हा महफूज़ सा लगता है।।

तेरे हाथों का गजरा बांधा मोहक लगता है
फूलों सँग यूं तेरा खिलना सपना लगता है।।

मेरे दिल की धड़कन को वो गिनता रहता है
खुजराहों की मूरत सा तू प्यारा लगता है।।

वीणा शर्मा



कभी,कभी अपना बेगाना लगता है।
जीवन का हर रंग पुराना लगता है।

जीवन में कुछ करना है, तो करके देखो।
खुद हँसकर जियो औरों को हँसाकर देखो।
फिर जीवन में अनेकों रंग घुल जायेंगे।
खोई हुई खुशियाँ फिर मिल जायेंगे।
जियो और जीने दो,मूल मन्त्र पढ़ लो।
औरों की ख़ुशी में,खुद ख़ुशी ढूँढो।
फिर तो जीवन में सवेरा हो जायेगा।
फैला हुआ अँधेरा मिट जायेगा।।
स्वरचित
बोकारो स्टील सिटी


मै पिया की विरहिणी, 
पिया गए परदेश ।
सौतन के वश हो गए, 
मै धरूँ कौन सा वेश! 
बाहर सूना , अंदर सूना, 
लगे सूना ये जग सारा। 
कैसे हुआ निर्मोही तू, 
मेरा साजन प्यारा। 
पुछू तुमसे पवन बावरी, 
तूने देखा मेरा साजन। 
बदली तू ही पता बता दे, 
प्यासा है मेरा मन। 
मेघा बरसे, या फिर बरसे, 
चाहे पूरा सावन। 
अँखियाँ बरसे निशदिन, 
फिर भी, रेतीला मेरा मन। 
उषा किरण



माना मैं आधुनिक हूँ ,
कहने को स्वतंत्र हूँ,
कटे हुए बाल हैं मेरे

जिन्स मैं पहनती हूँ,
ऊँची एढ़ी के सैण्डल पहनकर,
ठकठक करके चलती हूँ।
गाडी चलाती हूँ ,
अंग्रेजी में बतियाती हूँ,
पर बात अस्तित्व की आए तो,
मौन हो जाती हूँ।

दुनिया के नज़रिये से देखें,
तो मस्त निश्चंत दिखती हूँ,
पर बात निर्णय लेने की आए,
तो मौन कर दी जाती हूँ ।

कहने को बंगला है मेरा,
भारी गहने पहनती हूँ ,
महंगे महंगे कपड़े पहनकर,
दुनिया घूम आती हूँ।
पर बात हैसियत की आए,
तो मौन हो जाती हूँ ।

कहने को पढ़ी लिखी हूँ,
स्वतंत्र विचार रखती हूँ,
दुनिया मुझसे राय है लेती,
समझदार कहलाती हूँ,
पर बात सम्मान की आए,
तो मौन हो जाती हूँ।

घर के बाहर तख्ती,
टंगी है मेरे नाम की ।
पर ढूँढ रही हूँ कोना कोना,
स्वयं के पहचान की।
सोच रही हूँ बैठी बैठी,
इक भ्रम को मैं जीती हूँ।
मन में इतना बोझ उठाकर,
क्यूँ मैं चलती फिरती हूँ।
पर आँच जब रिश्ते पर आए,
तो मौन हो जाती हूँ।
तो मौन हो जाती हूँ॥

स्वरचित मिलन जैन



मैं जिसे रात -दिन सजाता हूँ,
मैं जिसे रात-दिन सजाता हूँ...
गीत ..ओ मैं तुम्हे सुनाता हूँ...

मैं जिसे.......

तेरी आंखों में एक समन्दर है,
तेरी...आंखों में एक समन्दर है....
तेरी आंखों में एक समंदर है..

...इनमे अक्सर मैं डूब जाता हूँ
इनमे अक्सर मैं डूब जाता हूँ..

मैं जिसे.....

...तू तो मिलती है मुझे लहरों की तरह,
तू तो मिलती है मुझे लहरों की तरह....
तू...तो मिलती है मुझे लहरों की तरह....
मैं रेत के घर सा बिखर जाता हूँ...
मैं रेत के घर सा विखर जाता हूँ.....

मैं जिसे......
कल मिलूं ना मैं तुझसे शायद,
कल मिलूं ना मैं तुझसे शायद,,
कल..मिलूं ना मैं तुझसे शायद..

हर दिन यह सोच के मिलजाता हूँ...

मैं जिसे.....

....राकेश



याद आते हो खुद ही 
हम याद नहीं करते 
देखकर तस्वीर को 

हम तस्वीर नहीं खींचते।

किसी की तसव्वुर में
हम आँखे बंद नहीं करते 
होकर साथ किसी का
हम सफर नहीं करते ।

दो गज जमीन काफी है 
हमे दफनाने के लिए 
सारी धरती पर 
हम हुकूमत नहीं करते।

आपके पहलू में जाकर बैठें 
ऐसा नसीब हम नहीं रखते 
महके दिल हमारा 
नज़र में ऐसा सुमन
हम नहीं रखते।

जिनका ख्याल हमें तड़पाता है 
दिल में उनका मकान 
हम नहीं रखते
जो करा दे आँखो से बरसात 
तसव्वुर में उनकी तस्वीर
हम नहीं रखते।
@शाको
स्वरचित


अपने संस्कारों को नहीं भूलती हूँ 
इनके मूल्यों को मैं जानती हूँ 
अनमोल धरोहर हैं ये हमारी
सुविचारों से पहचान है हमारी 

संस्कार स्वयं की खूबसूरती है
घर घर की ये लक्ष्मी है 
समाज की अनुभूति है
स्वराष्ट्र का अभिमान हैं 

संस्कारों में नहीं दिखावा है 
आडम्बरों से दूरी है
कुरीतियों की नहीं मजबूरी है 
इनसे आती नहीं कमजोरी है 

संस्कार हमारे विश्वास है 
सुरभित एक एहसास है 
नई पीढ़ी में संस्कारों का
विस्तार बहुत जरूरी है 

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल


संभल संभल पग धरले नारी,
ये जग इतना महान नहीं.
समझे तेरी भावनाओं को,
यहाँ पर कोई इंसान नहीं.
बनी सीता तो राम ने ने ही अग्नि मे झोंक दिया,
द्रोपदी बनी तो
पांडवो ने ही जुए मे हार दिया.
करे तेरा सम्मान ऐसा कोई यहाँ परवाना नहीं
संभल.....
कुकर्म ये मर्द करता है,
दोषी नारी कहलाती है
इसके कर्मो की भी सजा नारी को दी जाती है,
संभल.....
नहीं बनना सीता मुझको ना द्रोपदी बनना है
बनु सुनीता और कल्पना
चाँद पकड़ कर लाना है,
करू समर्पित सभी नारी को
इस जैसा कोई महान नहीं
संभल.......
कुसुम पंत
स्वरचित


जिस भी दिल में प्यार रहा है
बस जीना दुश्वार रहा है

दिल ने खेली दिल की बाजी
दिल का दिल पर वार रहा है

दो जहां भी निसार उसपर
जान से प्यारा यार रहा है

लाख करे इनकार जुबां से
आंखों में तो प्यार रहा है

सदके निगाहे यार गज़ब के
तीर जिगर के पार रहा है

छोड़ ना जाना बीच सफर में
रब से ज्यादा एतबार रहा है .....

सपना सक्सेना 

स्वरचित


पिया बिन सूना री सावन लागे ।

सखी री मोहे घर आंगन न सुहावे
पिया बिन सूना री सावन लागे। 
**************************
फूल खिले मुरझाए पिया नहिं आए,
पपिहा पिहु पिहु कूक मचाए जिया अकुलाये 
पुरवा अगन लगाए हिया झुलसाये,
रतिया बैरन निदिया न आवे 
सखी री मोहे घर आंगन न सुहावे
पिया बिन सूना री सावन लागे। 
**************************
छम छम पायलिया पुकारे कंगना झनकारे 
बदरवा घिर आये कारे कारे 
नयनवा बरसत सांझ सकारे 
कछु नहिं सूझे कछु नहिं भावे 
सखी री मोहे घर आंगन न सुहावे पिया बिन सूना री सावन लागे। 
*************************
बरखा अगन लगाए सजा नहिं
जाए,
सखी री मोरी दरपन मनहिं डराये 
काहे मोरे सजनवा न आये 
कब वा विरियां आवे सजनवा 
मोहे गले लगावे 
सखी री मोहे घर आंगन न सुहावे पिया बिन सूना री सावन लागे। 
***********************

अनुराग दीक्षित



औरत की जिंदगी कितनी व्यस्त, 
न कोई छुट्टी न कोई हॉफ डे,
फिरकी बन गया जीवन,
काम करती फुल डे!

न कोई पगार न कोई इंक्रीमेंट,
परिवार की खुशी को देती प्रीफेंस
न कोई बोनस न ही रिटायरमेंट,
बस खुशहाली हों परमानेंट!

"संगीता कुकरेती "



आँसू भी कमाल होते हैं
निकल ही पड़ते हैं,
चाहे पलकों के,सख्त
पहरे होते हैं।
कोई कहता मोती,
कोई कहता खार हैं ..
और भी कई नाम इनके,जो
शायरी और गज़लो में शुमार हैं ..
कहते हैं,दिलों में इनके
ठिकाने होते हैं
ग़म और खुशी,बहने के
इनके बहाने होते हैं..
आसां नहीं
दिल की दीवारों को भेदना
जब तक ना हो बहुत
खुशी या वेदना
इंम्तिहान लेते हैं
गर पड़ जाए इन्हें रोकना
तबाही मचा देते हैं दिलों में
तडप उठता हैं कोना-कोना
ना रोकना इन्हें बहने से
एक यही सच्ची जुबाँ है
दिल की,
प्रेम,भक्ति,विरह हो
या मिलन
हर हाल में इनका बह जाना
है जरूरी ..
दुनिया में ग़म है अधिक
और खुशीयाँ हैं कम
देखो,ना हो आपके कारण
किसी की आँखें नम ...
-मनोज नन्दवाना



है तमन्ना यही, इतना करम चाहते हैं
कुछ और न इसके सिवा, सनम चाहते हैं
एहसासों को कोई जुबां दे तो मेरे
तब बताये के कितना तुम्हें हम चाहते हैं

बेखुदी में कुछ कर गये होते
अपने ख्वाब की तरह ही, बिखर गये होते
खुद की जिंदगी ही दुश्मन बन बैठी थी
तेरा साथ ना रहा होता, तो मर गये होते

खता हुई हमसे जो मोहब्बत करना पड़ा
रूसवा हुई हुस्न इश्क को मरना पड़ा
बड़े सौदागर थे हम दिल की बस्ती के
सौदा मोहब्बत का मगर बड़ा महंगा पड़ा
महबूब के दीदार हो भले ख्वाबो में सही
इस तरह बच्चों की तरह मचलना पड़ा



No comments:

Post a Comment

"अंदाज"05मई2020

ब्लॉग की रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं बिना लेखक की स्वीकृति के रचना को कहीं भी साझा नही करें   ब्लॉग संख्या :-727 Hari S...