गोधूलि वेला शाम की सबै सुहावे
बछड़े अपनी माँ को देखें और रमाँवे ।।
दिन भर के बिछुड़े को माँ गले लगावे
चिड़ियाँ चीं चीं करती घोंसले को धावे ।।
सूरज भी शीतल हो अपने पथ को जावे
चाँद की राह निहारें चाँद न दरश दिखावे ।।
आकाश में चहुँ दिश लालिमा सी छा जावे
थके किसान खेत से अपने घर को आवे ।।
गृहणी सजकर पति मिलन की आस लगावे
चोपालें सज जायें सबई मिल बैठ के गावे ।।
ऐसी सुन्दर शाम मनहि को बहुत ही भावे
बसी है जो तस्वीर ''शिवम" बरवस लुभावे ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
संध्या
*******
संध्या के आगोश में
कौमुद तनिक झलक रहे।
मंद हवा संग पर्ण भी
बहके-बहके लहर रहे।
खग-विहग राह अपने नीड़
व्योम दिवा भी बहक रहे।
पल-पल बढ़ती शाम चली
दर्प यूं तमसा निगल रहे।
संध्या मन अति धुति मान
नीरद भी घनघोर रहे।
मन पुलकित तन मुदित से
भ्रमर कुसुम तन डोल रहे।
सुर अमर अनुपम संध्या
संध्या आरती सुरलोक लगे।
वीणा शर्मा,पंचकूला
रुठा था जो सजन मुझसे , वो फिर से मेरा हो गया !!
आए खुशियों के पल हज़ारों और दिल गुनगुनाने लगा !
तेरी मोहब्बत का नशा , अ'साथियाँ , मेरे जिस्म-ओ-जिगर पर छाने लगा !!
हुई मदहोश सी मैं , तेरे सिवा कुछ और नज़र न आने लगा !
थम जाए ये पल यहीं , बस यही तमन्ना ये दिल करने लगा !!
अजब सा खुमार है ये मोहब्बत का , न खुद की खबर है , न जमाने की चिंता !
कब सुबह हुई , कब साँझ ढली , कैसे-कैसे ये दिन बीता !!
अब तो बस यही चाहत है कि तेरा साथ न छूटे !
कुछ भी हो जाए , मगर अ'दोस्त , तू मुझसे कभी न रूठे !!
साँझ
**************
देखो ये सिंदूरी साँझ प्रिये,
मेरे मन को है अति भया।
लेकर छटा सलोना चंदा,
श्यामल गगन में आया।
देखो धरा नवेली भी,
कैसे सिमट रही है।
चाँदनी की चूनर,
गगन से लिपट रही है।
प्रीत की उष्णता में,
अंबर रहा पिघल है।
शबनम की झरती बूँदें,
होती धरा विकल है।
जाने हो कब से बैठी,
मुखड़ा सुजाय सजनी।
देखो मिलन को आतुर,
चली शृंगार करने रजनी।
विकल हो रहा मन,
मान भी तू जाओ।
जिया में लगी अगन है,
अब और न तड़पाओ।
उषा किरण
"साँझ"
हो गई साँझ
ढ़ल गये दिन
सूर्य पथिक भी
थके थके से
चाँद चाँदनी फैलाने
को है आतुर
खग लौट चले
तरु की ओर
यामिनी आने को
है ब्याकुल
गाय रभाँती
लौट चली घर
साँझँ बाति
की हो गई
बेला
चौपाल भी
बाट निहारे
राह निहारत हो गई शाम
कब आओगे मेरे श्याम।
स्वरचित आरती -श्रीवास्तव।
जिन्दगी की जद्दोजहद, अपने हिस्से का आंसमां तलाशती हूं
मायूस सी मेरी सूरत, सांवरे की वो भीगी पलकें संवारती हूं।
मेरे मुकाम के लिये जो फना हो जाये वो मुकद्दर तलाशती हूं
घटाओं सी घनेरी इन जुल्फों की फिर बिजलियां संवारती हूं।
वो सुहानी शाम, सुरमयी, सुरमयी... मैं अपनी मांग सजा लेती हूं ......
काले बादलों में उमङती छिपती, रोशनी की किरण तलाशती हूं
मंदिर में उस संगमरमर से उसके वजूद का हिसाब मांगती हूं।
मेरी धङकन से निकली दुआओं, आरजूओं की रवानगी मांगती हूं
हैताष्य, निराश भोले मन संग हंसती कुछ किरदार निभा लेती हूं।
वो सुहानी शाम, सुरमयी, सुरमयी... मैं अपनी मांग सजा लेती हूं ......
दिले नादान फिर मेरी सिसकी ना गूंजे , चुप का पहरा लगा देती हूं
मन शब्दों की मुस्कान से भीगे भीगे,अनकहे अलफाज सजा लेती हूं।
पलछिन पलछिन खुद से खुद पर इतना क्यूं यकीन बना लेती हूं
जिस राह मुङ कर कभी ना जाना, ना देखा,वो निशान मिटा देती हूं
वो सुहानी शाम, सुरमयी, सुरमयी... मैं अपनी मांग सजा लेती हूं ......
दिन दोपहर शब या रात, बादल, अम्बर चाहे बरसात,निभा लेती हूं
मेरी सादगी, बंदिगी, मेरी कहानी में ढल ढल कर निखर जाती हूं।
चार कन्धों की यारी और ये दुनियां सारी, आंखें नम करा लेती हूं
कसक है, जिंदा रहूं मौत के बाद, मैं! ऐसी जिन्दगी तलाशती हूं।
वो सुहानी शाम, सुरमयी, सुरमयी... मैं अपनी मांग सजा लेती हूं ......
---------------डा. निशा माथुर
दिनभर के निबटा कर काम
समय का मंच संभाल रही है
मुस्काती इठलाती शाम
सजा रही है आंगन नभ का
झिलमिल चांद सितारों से
गूंज रही हैं दसो दिशाएं
पंछियों की पुकारों से
महक रहे हैं आंगन आंगन
द्वारे द्वारे दीप जले
लेकर अपनी खरी कमाई
आंख के तारे घर को चले....
सपना सक्सेना
स्वरचित
जब सूर्य दिन भर की तपन से व्यथित हो,
सागर मे विश्राम करता है,
और चाँद भी सितारों संग ,
क्षितिज पर विद्यमान होता है I
तब साँझ का क्षितिज पर आगमन होता है।
जब विहग दल दिन भर की थकन से विह्वल हो,
नीड़ में विश्राम करता है और
दिन भर से दूर बच्चों को ममता की छाँव देता है,
तब साँझ का क्षितिज पर आगमन होता है ।
जब वाहन घर को मुडने लगते हैं,
आशियाने चहकने लगते है,
प्रिया के गजरे महकने लगते है,
तब साँझ का क्षितिज पर आगमन होता है।
जब श्रमिक हाड़तोड श्रम के पश्चात ,
घर आकर सुख की निंद्रा में डूब जाता है,
और दूसरे दिन के पुनः संघर्ष के लिए स्वयं में उर्जा भरता है,
तब साँझ का क्षितिज पर आगमन होता है।
जब बेलों भी घण्टियों का स्वर मद्धम होती है,
हलदर का जोश भी क्षीण है,
और गाँव की रौनक थकने लगती है ,
तब साँझ का क्षितिज पर आगमन होता है।
जब छुइमुई निशा के अहसास से सिकुडने लगती है,
सुरजमुखी दृढ़ता खोने लगता है,
जब पंकज सिमटने लगता है,
तब साँझ का क्षितिज पर आगमन होता है।
जब नदियाँ थककर सुस्त हो जाती हैं,
झरनो की उच्छृंखला भी थमने लगती है,
कानन में साँय साँय सा सन्नाटा उभरने लगता है,
तब साँझ का क्षितिज पर आगमन होता है।
जब मछुआरों की नाव हाँफने लगती है,
माझी की पतवार घर को मुड़ती है,
और जहाजों के लंगर तट को खोजने लगते हैं,
तब साँझ का क्षितिज पर आगमन होता है।
जब मन्दिर घण्ट मंगल गान करता है ,
धूप, चंदन , अगरबत्ती से हृदय महकने लगता है,
और अंतस ईश्वर भक्ति में लीन होता है I
तब साँझ का क्षितिज पर आगमन होता है।
जब जीवन दायित्वों से पूर्ण होता है,
मन आध्यात्म को प्रेरित होता है,
और ह्रदय में सुकून व चैतन्य में शिव विद्यमान होता है,
तो मानव जीवन के क्षितिज पर साँझ का आगमन होता है।
स्वरचित : मिलन जैन
अजमेर (राजस्थान)
साँझ को रवि लेता विश्राम
घर लौटता कर पूरा काम
घर घर बजते शंख नाद
झिलमिल करते गंगा घाट
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सूर्य की आभा हुई सिन्दूरी
दिन की कहानी हुई पूरी
रात और दिन की है मिलन बेला
लाती रोज रोज अनुपम मेला
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
दिल के
दीप जलने लगे
मधुवन में रंग
जमने लगे
किससे कहें
हमारे आँगन में
सन्नाटा क्यों है
गोधूलि की बेला में
दूर गगन से
पंछी लौटे
अपने-अपने घोंसले में,
देखकर यह रीत
पेड़ो की डाली मुस्कुरायी है
पर हमारा दिल
विरान है
भींगे भींगे नैन हैं
बिछड़े साथी कब आयेंगे
कब से हम
कर रहे इंतजार हैं
जाने किसने सावन की
धूप सी लिख दि हमारी तकदीर
कुछ बात भी ना हुई
और दिल तोड़ दिए
सारे बंधन इक लम्हे में
तोड़ दिए
ऐ साँझ कुछ पल
ठहर जा
अभी वक्त लगेगा
बेवफा सनम को आने में
हसरत मिट जाएगी
वफा जल जाएगी
मोहब्बत लूट जाएगी
दिल के दीप जलाने में
आईना देखना छूट गया
वफा जब से रूठ गयी
जहर सी लगती है
अब तो साँस लेने में
हुई साँझ
दिल के दीप
जलने लगे
@शाको
स्वरचित
गोधूलि वेला को कहते हैं हम संध्या
जब आते हैं जंगल से पशुधन गायें भैसें
जिनके होते थे हरकारे अपने कृष्ण कन्हैया।
कलरव करते आते हैं पक्षी अपने नीड में सोने।
अपने बच्चों से मिलकर खुश होते हैं ये
चहक चहक कर इनके छौने चाहें बिछौने।
संध्या वंदन करते हैं कुछ पंडे और पुजारी।
करते भक्ति भाव से पूजन दर्शन दें त्रिपुरारी।
संध्या जाऐ रात घिर आऐ फिर से जग में
प्रतिदिन होय सबेरा ।
इसी चक्र में चलता जीवन मानव एक चितेरा।
सुबह शाम गैया दुहते हैं ग्वाले।
दूध अपने बच्चों को कुछ बछडों के हवाले।
हलधर सुबह सांझ खेतों में आते जाते
निशदिन अपनी खेती करते।
जीवन मरण भरण पोषण के चक्रव्यूह में
फंसा है फंसा रहेगा हर प्राणी इस जग का
यही नियति का खेल है प्यारे . . हम सब उसके राजदुलारे।
प्रभु के हाथों की कठपुतली हम
चाहे जैसा नाच नचाऐ।
हमको उसकी शरण में रहना है वो चाहें
खुश रक्खे या रूलाऐ।
सुबह सांझ वंदन करते रहे
यही चाहते हम ईश्वर से।
सबजन सुखी रहें मिलजुलकर
बस यही मनोरथ परमेश्वर से।
स्वरचित
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
१९/७/२०१८
(गुरुवार)
विषय- सँध्या/साँझ
विधा- हाइकु
१-
सोनाली साँझ
ढलता है सूरज
लौटते सब
२-
सँध्या का भाल
सूर्य की बिंदी लगी
सिंदूरी लाल
३-
साँझ सजीली
नीड़ को लौटें पंछी
चाय की चुस्की
४-
सँध्या है आती
जलाएं दीया-बाती
गाएं आरती
५-
सुरमई साँझ
मंजीरे और झाँझ
भजन-गान
६-
साँझ छबीली
चाँदनी रुपहली
तारों की टोली
७-
साँझ दुल्हन
शीतल है पवन
चन्दा सजन
#
- मेधा नारायण.
चंद हाइकु -"सावन "पर
(1)
"सावन" खले
विरह की आग में
बूंदों से जले
(2)
मेघ सुनाते
"सावन" का सन्देश
मोर नाचते
(3)
भीगा "सावन"
हरिता में सरिता
मनभावन
(4)
"सावन"झड़ी
जैसे मेघों को पड़ी
डाँट या छड़ी
(5)
खेतों में मेले
"सावन" का उत्सव
पानी के रेले
(6)
सुर "सावन"
बूँदों की ताल पर
थिरका मन
(7)
दर्द छुपाये
सावन के आते ही
आँसू मिलाये
(1)
"सावन" खले
विरह की आग में
बूंदों से जले
(2)
मेघ सुनाते
"सावन" का सन्देश
मोर नाचते
(3)
भीगा "सावन"
हरिता में सरिता
मनभावन
(4)
"सावन"झड़ी
जैसे मेघों को पड़ी
डाँट या छड़ी
(5)
खेतों में मेले
"सावन" का उत्सव
पानी के रेले
(6)
सुर "सावन"
बूँदों की ताल पर
थिरका मन
(7)
दर्द छुपाये
सावन के आते ही
आँसू मिलाये
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