जब तक हैं सो पूजले हर सुखों का मूल ।
पिता वचन वन गमन की , की नही भूल ।
काँटे भी फिर बन गये सदा सुगन्धित फूल ।
युग युग तक आदर्श है श्री राम अवतार ।
पिता वचन को मानकर संकट मिले हजार ।
कभी न कोसे पिता को कभी न किया विचार ।
ऐसे आदर्शों पर चल जीवन ''शिवम" सुधार ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
वह मुझे
संजोता है हर पल
जब से मैं हूँ
उसकी जिन्दगी में।
मैं हूँ
खुद जिन्दगी उसकी।
संवारता है मेरा कल
अपना आज गिरवी रखकर।
मेरे अश्रुओं को मोती समझ
गिरने न देता अंखियों से बाहर।
मुझमें वो
देखता है अपना अक्स।
चाहता बेपनाह मुझे।
मांगने से पहले
पूरी करता ख्वाहिश मेरी।
खुशियों से भरता
मुट्ठी मेरी।
चाहत ये उसकी
जाऊं मैं
सितारों से आगे।
मेरे दुखों का पहरेदार है वो।
तकलीफों की आहट
से पहले
बन जाता है वो
ढाल मेरी
और समेट लेता है
मुझे
अपनी सबल और
प्यार से भरी बाहों में।
पलकें से समेटे हैं उसने
मेरी राहों के कांटे।
छोटा सा भी दुख मेरा
उड़ा देता है
नींदें
उसकी आँखों से
क्यों कि बसा रखा है
मुझे
उसने अपनी सांसों में।
वह इंसान नहीं देवता है
वह मेरे प्यारे पिता हैं।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान)
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
पिता की फैली विस्तृत बाहें
कर देतीं जो सुगम विषम राहें
ये वो आसमाॅ जिसके नीचे
होतीं पूरी मन की चाहें।
पिता के कन्धे आकाश छुआते
हम इस पर बैठ खूब इतराते
ऊॅचाई से यही परिचय करवाते
लम्बी दूरी तक भी सैर कराते।
सच कहूॅ पिता की भी परछाई
लेती रहती ममता की अंगड़ाई
इसमें अद्भुत करुणा समाई
जो होती है बहुत सुखदायी।
पिता से घनी न कोई छाॅह
पिता से बलिष्ठ न कोई बाॅह
पिता से सुन्दर न कोई ठाॅह
पिता ताउम्र सुविधा बारहों माह।
पिता ही सर्वोच्च
तभी परमपिता कहलाए
हर पल दे हौसला
पल पल है आगे बढ़ाए।
जीवन है नैया
पतवार स्वयं बन जाए
डगमगाए हो कश्ती कभी
स्वयं ही पार लगाए।
अंतस हो गहन पीड़ा
नही किसी को वो दिखलाए
सदा मुस्कान चेहरे पर लिए
संध्या समय वो घर आए।
मेरे परमपिता
तुम ही मेरा अभिमान हो
दुनिया मे न तेरे जैसा
हौसलों का कोई जहां हो।
हाथ जोड़ नतमस्तक रही
सदा तेरे ही चरणों मे
इस जन्म तो क्या,
न सातों जन्म मांगू,
मैं तो मांगू,
लाखों जन्म तेरा साथ।
सदा रखना
शीश पर मेरे अपना हाथ।
निःशब्द हूँ, मैं मौन हूँ
नही शब्दकोष है मेरे पास
मेरे जन्मदाता पिता
तू ही मेरा मान अभिमान।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏
वीणा वशिष्ठ शर्मा
&&&
पिता संबंध
बचपन का स्कंध
सख्त प्रबंध
*
कड़ा शासन
है पिता प्रशासन
अनुशासन
*
पिता चालक
परिवार पालक
कुटुंब गाड़ी
*
पिता स्तंभ
हैं सख्त अनुबंध
पुख्ता कुटुंब
*
माता की इच्छा
संबल औ सुरक्षा
पिता परीक्षा
*
सर पे हाथ
मां की बिंदी सौभाग्य
पिता के साथ
&&&
रंजना सिन्हा सैराहा...
शरीर प्राण और मन
पालन पोषण शिक्षा
ज्ञान मान और धन
पिता जीवन प्रकाश
पिता अमित विश्वास
पिता हाथ ईश्वर का
पिता एक पूर्वाभास
पिता अमृतम कलश
ऐश्वर्य सब पितृ वश
पिता अद्वितीय प्रिय
सदैव वसति पुत्र हिय
समान अनुपम नयन
पिता शत - शत नमन
विपिन सोहल
परमपिता प्रभु परमात्मा हमारे।
जिनसे हमसब पहुंचे यहाँ तक,
वही तो हैं शुभ सुखदाता हमारे।
काया हमें परमात्मा से मिली है।
जीवन में प्रगति इनसे मिली है।
संस्कृतिसंस्कारों कीजननी माता
पिता पदवी पिता बन के मिली है
संस्कृति शिक्षा पिता से मिली है।
सत्य धर्मनीति पिता से मिली है।
जो सद संस्कारों से विरत रहे हैं,
उन्हें शिक्षा नहीं पितासे मिली है।
नहीं निराश हों पिताजी सिखाते।
जिया कैसे जाऐ पिताजी बताते।
श्रम करें निशदिन पिताजी हमारे,
जिंंन्दगी से साक्षात पिता कराते।
स्वरचितः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
मेरी आँखों में दीखता आकाश हो तुम...
मेरे साकार सपनों का आधार हो तुम...
रगों में बहती स्वावबलंबी धार हो तुम...
पथ पे बढ़ते रहने की हुंकार हो तुम...
न होता उजला जीवन गर तुम नहीं होते...
बिन तेरे भय से निष्प्राण से जी रहे होते...
कंटक राहों पे पाँव मेरे लहू लुहान होते...
हाथों से अपने कांटे गर तुम न चुने होते...
उछाल हवा में जिसदिन बाहों में थामा तुमने....
आसमाँ तो उस दिन ही था छू लिया मैंने...
सितारे फीके मेरी आँखों की चमक के आगे...
जब बाहों में ले झूला मुझे झुलाया था तुमने....
याद है मेरी साँसों को तेरी दर्द छुपाने की कला....
चहरे आँखों से हर पल तेरे मुस्कुराने की कला....
सब के सपनों के लिए दिन रात की जदोजहद...
याद है वो दृढ़ता तेरी हालात से लड़ने की कला....
नहीं हो पास मेरे पर धडकनों में धड़कते हो तुम...
मेरी आँखों में साँसों में मेरी बातों में रहते हो तुम...
अहसास हर पल है तेरे प्यार भरे आषीश का मुझे....
कमी है तो बस यह ही की अब डांटते नहीं हो तुम....
सांस जब तक मेरे जीवन में रहेगी ऐ खुदा...
क़र्ज़ पिता का हर पल करूंगा मैं अदा...
नाम तुम्हारा न धूमिल होने दूंगा मैं कभी...
ऐसी ज़िन्दगी मैं हर पल जीऊंगा मेरे पिता....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
1.पिता -
पिता नहीं
कोरे कागज पर लिखा
एक-
स्थाई पता है।
2.पिता -
ब्रह्मा है पिता
पिता विष्णु
पिता महादेव है।
सम्पूर्ण सृष्टि में
पिता ही केवल एक है।
पिता -पिता नहीं..........
3.पिता -
अपने वंश बीजों को
मातृ-मृदा में गाड़कर
उन्हें वोता है ,
स्वेद से सींचता है,
कर्म से अंकुरित करता है
और -
फलों के लद जाने पर
स्वयं नहीं खाता ।
पिता -पिता नहीं...........
4.विना मातृ शक्ति के
यह पिता भी अधूरा है
जिसे -
आने वाला समय
एक पुत्र ही
पूरा करता है ।
पिता -पिता नहीं.........
स्वरचित: डॉ. स्वर्ण सिंह रघुवंशी
गुना-कैंट(म.प्र.)
माँ का सम्मान और ताकत है,
पिता एक मजबूत छत समान है,
जिस छत्रछाया में हम सुरछित हैं!
पूरा जीवन मेहनत वो करते,
उफ तक मुँह से कभी न करते,
मुसीबतों से हमें वो बचाते,
चट्टान बन आगे डट जाते!!
हमारी खुशी में खुश हो जाते,
अपना गम कभी न जताते,
साहस हमें हर पल दे जाते,
ज़िन्दगी जीना हमें वो सिखाते!!
" स्वरचित संगीता कुकरेती "
जिनके मजबूत कंधों पर,
खड़ा हमारा घर है,
सहता सब, ना कहता कुछ,
धरती पर ये एक ऐसा नर है,
अपनी बगिया का बनकर माली,
सिंचता उसको जीवन भर है,
बेटी की मुस्कान की खातिर,
रखता उसकी खुशियों पर नजर है,
करना है एक दिन कन्यादान,
बिछुडने की मन में तड़प है,
दे वर के हाथों में हाथ,
बिन कहे नैन कह जाते बात,
पूंजी ये मेरे जीवन भर की,
आज से शोभा है ये तेरे घर की।
स्वरचित-रेखा रविदत्त
26/7/18
आज तेरी कमी सी लगती है,
आँखों मे नमी सी लगती है,
बहुत खुश नसीब होती वो संतान,
जिसे तेरी बरगद जैसी छाया मिलती है
आज.......
छाया घोर अंधेरा,
तू सूरज का उजाला होता,
तेरी एक किरण से ही,
तकदीर चमक ती है.
आज.......
माँ जन्म देती है,
कष्ट बहुत ही सहती है,
तेरे बिना जन्म लेना भी हकीकत नहीं लगती है.
आज.....
कष्ट सहकर
अपनी ना कहकर,
बच्चो के लिए तुम्हारी
जान निकलती है l
आज.......
माना की माँ अनमोल है,
पर तेरा भी नहीं कोई तोल है,
तेरी छत्र छाया के बिना,
क्या कोई संतान निखरती है l
आज.....
कुसुम पंत
स्वरचित
सभी पिताओ को समर्पित
मेरी कलम उन्हें समर्पित करूं
वो लोहपुरूष इस जीवन मे
किन शब्दों में उन्हें वर्णित करूँ
पग पग मेरे कदमों में
उनके धैर्य की परछाई है
उनकी यादों के अमृत कलश ने
आँखों से नेह छलकाई है
मेरी तुतलाती बातें सुन
वो खुशी से निहाल हो जाते थे
ट्रिन ट्रिन करती साइकिल पर
बिन थके सैर कराते थे
अंगूर मिठाई गुड़िया कपडे
सबका ढेर लगाते थे
ख़ुद टूटी चप्पल में घूमते
पर हमें राज कराते थे
बम पटाके जब फोड़ती
चिन्ता में घिर जाते थे
मम्मी की डाँट से बचाते
खुद मुजरिम बन जाते थे
बुरी नज़र से जब कोई देखे
हिमालय से तन जाते थे
पेट दर्द हो जब मुझे
तो कर्फ्यू में दवा ढूंढ लाते थे
संस्कारों की पूंजी दी और
कर्त्तव्यों का भान दिया
स्वयं सूर्य से तपते रहे पर
हमें सिन्दूरी सवेरा दिया
नम है आँखे ह्रदय है भारी
किन शब्दों से आभार करूँ
वो लोहपुरूष हैं पिता मेरे
उनके चरणों में नित वन्दन करुँ
स्वरचित : मिलन जैन
कभी जमीं कभी आसमां हैं पिता
एक हिम्मत एक हौसला हैं पिता .
जीवन की कठिन राह में देता
सहारा हैं पिता .
धूप में छाँव की तरह
रेगिस्तान में गाँव की तरह
एक मजबूत ढ़ाल हैं पिता हैं .
एक कठिन परिश्रम एक समर्पण
का नाम हैं पिता जीवन में हमारे
सपनों में उड़ान भरने का
नाम हैं पिता .
स्वरचित:- रीता बिष्ट
पिता को समर्पित चंद हाइकु
(1)
जीवन धूप
पिता का समर्पण
छाते का रूप
(2)
सब सहता
बिटिया की विदाई
"पिता"फटता
(3)
स्वप्न सवार
परिवार की नैया
"पिता" खिवैया
(4)
अर्पित जान
"पिता" की खामोशी भी
घर की शान
(5)
दौड़ता रोज
"पिता" के काँधे पर
घर की सोच
(6)
रोज घिसता
"पिता" जादू चिराग
ख़ुशी बाँटता
ऋतुराज दवे
कन्या के जन्म लेते ही पिता, ऐसा पिता बन जाता है।
पल पल बङते उसके रूपों संग, उसका रूप ढल जाता है।
अपनी तनया को गोदी लेते ही वो मां जैसा बन जाता है,
अपने सीने से लगा प्यार से, थपकाकर उसे सुलाता है।
उसके रोने, उसकी सिसकी पर, जब वो लोरी बन जाता है,
पलको की कोरो पर अश्कों के मोती, बीन बीन कर लाता है।
नन्हें नन्हे उसके कदमों संग, हरपल वो बच्चा बन जाता हैं,
अपनी बेटी की तुतलाती बोली में अपना बचपन जी जाता है।
तितली सी खिलती तनूजा का, फिर ऐसा साथी बन जाता है,
उसकी मुस्कान, हंसी ख़ुशी के लिये, कैसे यारीयां निभाता है।
स्वप्न सजाती वैदेही के लिये जब वो जनक बन जाता है,
अपने अनुभव और सामथ्र्य से बेहतर का, राम ढूंढकर लाता है।
ससुराल विदा होती आत्मजा का, जब वो बाबुल बन जाता है,
अपने अंश -वंश को भीगे नयनों संग,कैसे डोली में बैठाता है ?
आंगन में उङती फिरती चिङिया का, जब सूनापन छा जाता है,
अपनी उम्र उसे लगा,जीवन को हार, मन्नतें मांगता रह जाता है।
-------------- डा. निशा माथुर
1-पिता महान
बरगद समान
रखते ध्यान।
2-पिता प्रकृति
आवरण कठोर
हृदय सौम्य।
3-पिता चिंतित
करे आत्म मंथन
मुख मुस्कान।
4-त्याग की मूर्ति
रखे आत्मविश्वास
वंदन पिता।
5-कर्मठ पिता
सागर सा गम्भीर
रखते धीर।
सर्वेश पाण्डेय
26-07-2018
स्वरचित।
पापा मेरे प्यारे पापा
वे क्षण तो अनमोल थे पापा
जब आपका साथ था पापा
उत्साहित था मेरा जीवन
जब था आपके सुन्दर मार्गदर्शन
दुनिया के थपेड़ों से थे हम अन्जान
जब छूटा आपका साथ
बचपन हो गया हैरान
उनमुक्त हँसी था जीवन में
अब तो है बस फेक हँसी
मुक्त हस्त जो प्यार लुटाया
आपने जीवन शानदार बनाया
आपने दिये जो संस्कार, मै अपने
बच्चों में डाल सकूँ, यही है मेरा प्रयास
हर जन्म में आप ही मेरे पापा बनो
मैं मागूँ ईश्वर से सुबह और शाम
पापा मेरे प्यारे पापा
वो क्षण तो अनमोल थे पापा।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।
ग्रंथों मैं सबसे ऊँचा नाम हैं गीता का ।
रिश्तों मैं सबसे ऊँचा नाम हैं पिता का॥
पिता वो है जो खुद भूखा रह कर सबको खीला देता हैं।
परिवार के लिये अपने अरमानों को भुला देता हैं ॥
पिता का दर्द क्या होता हैं, ये पिता बन के जाना
ये दुनिया दारी हैं , तजुर्बा सबकुछ सीखा देता हैं ॥
अपने माता पिता का कभी अपमान ना करना ' पंकज '
सही गलत क्या हैं ,भगवान धरती पर ही दिखा देता हैं ॥
पिता, धूप छांव में सदा हरा भरा
खूब तपे वह खड़ा खड़ा
डांट पिलाकर संवारे जीवन
जैसे उगते सूरज में खिले उपवन
बाहर से कठोर भीतर से नरम
नारिकेल की भांति घर में जीता
मशहूर होने की चाहत नहीं
सबके मन को भरता राह दिखाता
पापा क्यों कहते रहते है
हमको सुख सुविधा देकर
दुख दर्द वो सहते रहते है
जब जब भी देखूं में उनको
माथे पर शिकन रहती है
पढ़ाई और शादी की चिंता
दिमाग में उनके पलती है
चाहे कुछ भी हो जाए पर
वो कभी आह नही करते है
सबको कपडे जूते दिलाये
अपनी अलमारी नहीं भरते है
पसीने की असली कीमत
झर्झर बनियान बतलाती है
काँटे चुभते रहते जूतों से
पर हिम्मत नहीं कतराती है
पाई पाई जोड़ कर पिताजी
संतान का पालन करते है
भलाई के लिए हमें डाँटते
पर प्यार भी बहुत करते है
पापा ही है मेरी दौलत
पापा से मेरी पहचान
"जसवंत" यू ही लिखते रहना
बढ़ती जाएगी पापा की शान
भावों के मोती
स्वरचित 26-07-2018
विषय - पिताजी
कवि जसवंत लाल खटीक
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