लेखक परिचय 1 संतोष श्रीवास्तव 2 18/12/1956 3 भोपाल 4 एम काम 5 सामाजिक आलेख , कहानी कविता , व्यंग , नाटक , क्षणिका, बैंकिग आलेख , बैंक पुस्तकों भारतीय रिजर्व बैक मे आलेख , अन्य बैंको की पुस्तकों, गृह पत्रिका में आलेख , मंच संचालन , कविता पाठ, आकाशवाणी से कहानी , कविता पाठ , नाटकों का प्रसारण , हवामहल से नाटक प्रसारण , जयशंकर प्रसाद की कहानी "मधुआ" का नाटयरूपान्तरण एवं प्रसारण वर्ष 1964 से सतत लेखन जारी, दिल्ली प्रेस की गृहशोभा, सरिता मेरी सहेली, कादम्बिनी, धर्मयुग, हिन्दुस्तान, पत्रिका, दैनिक भास्कर, नयी दुनिया , इकोनोमिक्स टाईम्स, सहित राष्ट्रीय स्तर पर लेखन एवं प्रकाशन अविरल जारी है । 6 - 7 यूनियन बैंक से 2016 में सेवानिवृत् अनेक स्थानीय , राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त । अखिल भारतीय साहित्य परिषद से कहानी विधा पर पुरस्कार 8 बी 33 रिषी नगर ई 8 एक्स टेंशन बाबडिया कलां भोपाल 462039 मध्यप्रदेश मोबाइल 9993372408 मेल Santosh.shri18@gmail.com
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नेतृत्व
हो परिवार में
नेतृत्व बुजुर्गों का
रहते हैं सुकुन से
छोटे बड़े सब सदस्य
मजबूत नेतृत्व
देश का उन्नति
विकास शांति
है चहुंओर
बने सहयोगी
सभी नागरिक
सिखायें कुशल
नेतृत्व , प्रबंधन
बचपन से बच्चों को
होंगे सफल अपने
कार्य क्षेत्र में सदैव
करें सम्मान
कुशल नेतृत्व का
करें मजबूत हाथ
फैलाओ मत अफवाहें
रुकावटें डालो मत
लाओ अमन चैन देश में
खुशहाली हो जीवन में
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
हो परिवार में
नेतृत्व बुजुर्गों का
रहते हैं सुकुन से
छोटे बड़े सब सदस्य
मजबूत नेतृत्व
देश का उन्नति
विकास शांति
है चहुंओर
बने सहयोगी
सभी नागरिक
सिखायें कुशल
नेतृत्व , प्रबंधन
बचपन से बच्चों को
होंगे सफल अपने
कार्य क्षेत्र में सदैव
करें सम्मान
कुशल नेतृत्व का
करें मजबूत हाथ
फैलाओ मत अफवाहें
रुकावटें डालो मत
लाओ अमन चैन देश में
खुशहाली हो जीवन में
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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हसीं मौसम
रहें सब
प्रसन्न घर में
साथ बैठे हो
बच्चे बुजुर्ग सब
चलती रहें
हँसी ठिठोली
खाये
भजिये पकौड़े
जल रहीं हो
अंगीठी पास
मंद मंद
हो गरमी
मुँह में
हो चाय
की चुस्की
यहीं तो हैं
हसीं मौसम
के जलवे
निकले घुमने
कहीं दूर
संग जीवनसाथी
समुद्र किनारे या
हों सुहानी वादियां
मुस्कुराहट हो
चेहरों पर
सफर बनेगा
सुहाना
उत्साह उमंग
लायेगा
जीवन में
हसीं मौसम
सुहाना
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
रहें सब
प्रसन्न घर में
साथ बैठे हो
बच्चे बुजुर्ग सब
चलती रहें
हँसी ठिठोली
खाये
भजिये पकौड़े
जल रहीं हो
अंगीठी पास
मंद मंद
हो गरमी
मुँह में
हो चाय
की चुस्की
यहीं तो हैं
हसीं मौसम
के जलवे
निकले घुमने
कहीं दूर
संग जीवनसाथी
समुद्र किनारे या
हों सुहानी वादियां
मुस्कुराहट हो
चेहरों पर
सफर बनेगा
सुहाना
उत्साह उमंग
लायेगा
जीवन में
हसीं मौसम
सुहाना
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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तुलसी
हर घर में
हैं पूज्य
तुलसी पूजन
है पुण्य
परिवार
तुलसी बिन
है शून्य
हैं तुलसी
औषधियों का
भंडार
आयुर्वेद में
बसा है
फायदों का
संसार
तुलसी की
मातृ छाया
बनी रहे
बच्चों पर
उनकी
जलाते दीपक
नित सुबह शाम
वंदना करते
भक्त सुबह शाम
स्वलिखित
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खर प्रचंड तेज
बनों
प्रचंड
जीवन में
लो हर
चुनौतियों से
लोहा
सफलताएं
चूमेंगी कदम
अनेक
रखो
रफ्तार तेज
जीवन में
तभी जीत
पाओगे
प्रतिस्पर्धा के
इस दौर में
प्रखर बनो
प्रचंड बनो
करो वार तेज
अनेक
समझो मत
कमजोर
अपने को
संघर्ष ही
जीवन है
लेना है
संकल्प यह
सलफता
पायेंगे हम
अनेक
देख लो
इतिहास
जीता वही
युद्ध में
थे जिसके
प्रहार
अनेक
रखो मानसिकता
खुली हमेशा
सकारात्मक
हो विचार
नहीं है
बाधा कोई
जीवन में
करोगे फतह
शिखर
अनेक
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
बनों
प्रचंड
जीवन में
लो हर
चुनौतियों से
लोहा
सफलताएं
चूमेंगी कदम
अनेक
रखो
रफ्तार तेज
जीवन में
तभी जीत
पाओगे
प्रतिस्पर्धा के
इस दौर में
प्रखर बनो
प्रचंड बनो
करो वार तेज
अनेक
समझो मत
कमजोर
अपने को
संघर्ष ही
जीवन है
लेना है
संकल्प यह
सलफता
पायेंगे हम
अनेक
देख लो
इतिहास
जीता वही
युद्ध में
थे जिसके
प्रहार
अनेक
रखो मानसिकता
खुली हमेशा
सकारात्मक
हो विचार
नहीं है
बाधा कोई
जीवन में
करोगे फतह
शिखर
अनेक
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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छंदमुक्त कविता
नव वर्ष
हे नव वर्ष
तुम्हारा
स्वागत है
तुम
सरस मधुर
बन कर आओ
मानवता
भाईचारे का
लाओ संदेशा
सुखी समृद्ध हो
हर नागरिक
है यही कामना
हमारी
प्रतिष्ठा बड़े
विश्व में
भारत की
करते यही प्रार्थना
ईश से
पिछले साल तो
हमने सहें हैं
दर्द अनेक
कभी बाढ़ तो
कभी अलगाव
जगमग हों
दिशा चहुंओर
भारत की
आर्थिक जगत में
भरे भारत हुंकार
हे नव वर्ष
तुम्हारा
स्वागत है
अभिवादन है
अभिनन्दन है
स्वलिखित
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@नव वर्ष
हे नव वर्ष
तुम्हारा
स्वागत है
तुम
सरस मधुर
बन कर आओ
मानवता
भाईचारे का
लाओ संदेशा
सुखी समृद्ध हो
हर नागरिक
है यही कामना
हमारी
प्रतिष्ठा बड़े
विश्व में
भारत की
करते यही प्रार्थना
ईश से
पिछले साल तो
हमने सहें हैं
दर्द अनेक
कभी बाढ़ तो
कभी अलगाव
जगमग हों
दिशा चहुंओर
भारत की
आर्थिक जगत में
भरे भारत हुंकार
हे नव वर्ष
तुम्हारा
स्वागत है
अभिवादन है
अभिनन्दन है
स्वलिखित
सावन
बदल गया है
आज सावन भी
कहीं बाढ़
तो कहीं सूखे में
बदल गया है सावन
भाई बहन के
रिश्तों में
आ गयी है
दौलत की
देहरी
राधा भी
रूठी है
सावन में
किशन
भूला
गोपियन में
वृन्दावन
बेगाना हो गया
सावन में
मत करो
रिश्ते
बदनाम
बच्चियों
बहनों
की हो रक्षा
हर बार
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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जीवन शैली
हो जीवन शैली
सरल मधुर
जीवन हो अपना
मधुरम् मधुरम्
बने सहायक
जीवन में सब के
फैले रिश्तों में
मधुरस मधुरस
होती हर एक की
अपनी जीवन शैली
सैनिक मुस्तैदी से
रहता सीमा पर
करता नहीं परवाह
ठंड, गर्मी की है
चलाते दिन रात
रेल बस हवाई जहाज
करते देखभाल
मरीजों की दिन राथ
है उनकी जीवन शैली
सेवा मानव की
है गर्व हमें
इन इन्सानों पर
ढालते जीवन शैली
जरूरत के अनुरूप
अपनाये यही
जीवन शैली
हम भी तुम भी
संग जीवनसाथी अपने
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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अधिकार
करें अधिकार की
बात बाद में
पहले बने कर्मठ
मेहनती और
ईमानदार
है अधिकार
सब के बराबर
चाहे बेटा हो
या हो वह बेटी
जल और जमी
पर है सबका
अधिकार
चाहे वो हो
कोई अमीर या
हो कोई गरीब
अधिकार है
सब को
जीने का
हर जीव
हर प्राणी को
करो ईश
वंदना सब
इतने उपजे
संसाधन जग में
न कोई रहे
भूखा प्यासा
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
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फासले / दूरी
अजब पहेली है
ये जिन्दगी
कभी देती
खुशी तो गम
दिखने लगे हैं
फासले उम्र की
कगार पर
झुर्रिया बताने
लगी हैं
हाले ए मिजाज के
दूरियाँ कुछ
यूँ बढ़ गयी
इन्सान में
नकाब से
चेहरे नजर
आने लगे हैं
ऐ खुदा
मौत दे देना
भले ही
पर फासले
न दे रिश्तों में
मुकाम ने
भले ही बढ़ा
दी हों दूरियाँ
पैर
महफ़ूज हैं
तो काहे के
फासले
अपने
माँ-बाप से
न बढ़ाना
दूरियाँ
मंदिर- मस्जिद
है यहाँ फिर
कबा - काशी
जाना है क्यो
इतनी
मोहब्बत कर
ऐ इन्सान
अपनों से
दूरियाँ
जिन्दगी की
यूँ ही
कट जायेगी
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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जनतंत्र
विधा - हाइकु
ये जनतंत्र
भारत का गौरव
रहे अमर
ये जनतंत्र
विश्व उदाहरण
है हिन्दुस्तान
जनतंत्र है
जन मन आकांक्षा
जय भारत
वोट डालते
लोकतंत्र उत्सव
जनतंत्र का
मने खुशियाँ
हर घर घर में
है जनतंत्र
सही फैसले
बढते यूँ कदम
है जनतंत्र
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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परिवर्तन
है परिवर्तन
प्राकृति का नियम
कभी शीत
तो कभी ग्रीष्म
बरसात है
पावन ॠतु
चहुंओर फैली
हरियाली और
खुशहाली
चलता रहता
दौर परिवर्तन का
अंधविश्वास
अंधकार का
हो अंत
फैले उजियारा
हर घर
आज खरी
उतरती हैं
बेटियाँ
हर चुनौती का
करती सामना
डट कर
बेटियाँ हैं सहारा
माता पिता का
यह भी है
एक कहानी
परिवर्तन की
करें स्वागत
परिवर्तन का
ढलें और ढालें
अपने को
नये युग में
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
है परिवर्तन
प्राकृति का नियम
कभी शीत
तो कभी ग्रीष्म
बरसात है
पावन ॠतु
चहुंओर फैली
हरियाली और
खुशहाली
चलता रहता
दौर परिवर्तन का
अंधविश्वास
अंधकार का
हो अंत
फैले उजियारा
हर घर
आज खरी
उतरती हैं
बेटियाँ
हर चुनौती का
करती सामना
डट कर
बेटियाँ हैं सहारा
माता पिता का
यह भी है
एक कहानी
परिवर्तन की
करें स्वागत
परिवर्तन का
ढलें और ढालें
अपने को
नये युग में
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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भावों के मोती दिनांक 25/6/19
मोबाइल / फोन
है चमत्कार
मोबाइल फोन
बैठे रहो
कौसो दूर
बात होती
चंद क्षणों में
आधुनिक
हो गया है
आज मोबाइल
बन गया है
स्मार्ट फोन
मुट्ठी में
बंद हो गयी
दुनियां सारी
चाहे हो
पैसों का लेन देन
शिक्षा या स्वास्थ्य
मिलती है , मोबाइल
गूगल पर सब जानकारी
और भी सभी जरूरतों
सब का हल है
मोबाइल फोन
है सलाम तुझे
मोबाइल
आज की है
तू सबसे ज्यादा
जरूरी आवश्यकता
स्वलिखित लेखक
संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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सैलाव
सैलाव की तरह लोग उसकी तरफ बढ़ रहे थे। ऐसा लग रहा था सुनामी आ गयी हो शौरगुल हो रहा था ।
जैसे जैसे आवाजें बढ़ रही थी, उत्सुकता से लोग मंडप के करीब आते जा रहे थे , कुछ लोग संगीता के हमदर्द बन रहे थे तो कुछ तमाशबीन बन मजा ले रहे थे ।
संगीता के लिए यह बहुत चुनौतीपूर्ण क्षण थे एक तरफ खुद का भविष्य, माता-पिता की इज्जत और दूसरी तरफ समाज में सकारात्मक बात रखना भी था ।
दुल्हा बना संदेश , जिसने शादी के पहले एक आदर्श व्यक्ति का चौला पहन रखा था , जैसे जैसे शादी की रस्मे पूरी होती जा रही थी वह और उसके पिता , दोस्त और रिश्तेदार अपना चौखटे बदलते जा रहे थे । नशा, कर के बात बात पर लड़ाई के बहाने ढूंढना , बदतमीजी करना और दहेज के रुप में नये नये सामान की मांग करना याने कुल मिलाकर :
" उसके गले में रस्सी बांधकर निरीह गाय को घसीट कर ले जाने जैसी हालत उसकी थी ।"
यद्यपि संगीता को उठाया जाने वाला कदम अव्यवहारिक लग रहा था , फिर भी उसने मन में ठान लिया और विदा से पहले कहा:
" मुझे आपकी सभी मांगें और शर्तें मंजूर है लेकिन मैं पहले संदेश से अकेले में बात करना चाहती हूँ ।"
संदेश के घर वाले खुश हो गये ,
"अब लडकी उनके चंगुल में आ गयी है और संदेश तो पहले से ही उनकी मुट्ठी में है ।"
कमरे में जा कर पहले तो संगीता ने संदेश को खूब खरीखोटी सुनाई , फिर जल्दी से कमरे से बाहर निकल कर कमरा बाहर से बंद कर दिया और कहा :
" संदेश को हमने आपको नगद , सामान , जेवर दे कर खरीद लिया है और वह कह रहा है वह यही रहेगा । "
आप लोग सामान बटोर कर जा सकते है ।
पूरे मंडप में सन्नाटा छा गया । पासा एकदम पलट गया था , बिना दुल्हा-दुल्हन के बारात पहुंचेगी तब क्या होगा ?
लेकिन संगीता जानती थी जहर को जहर ही मारता है इसलिए कठोर निर्णय जरूरी है । काफी मान-मनोब्बत करने के बाद भी संगीता अपने निर्णय से पीछे नहीं हटी ।
सब ने संदेश को बुलाने के लिए कहा ।
संगीता ने फिर कमरे में जा कर संदेश को पूरी बात बताई और कहा :
" अब निर्णय उसके हाथ है ।"
संदेश समझ गया :
"अगर अब संगीता से पंगा लिया तो वह न घर का रहेगा न घाट का ।"
इसलिए उसने भी संगीता की हाँ में हाँ मिलाई ।
बिना दुल्ह-दुल्हन के बारात विदा हो गयी थी ।
संगीता जानती थी कि :
"उसको ससुराल में ही जीवन बिताना है और अब सास ससुर ही उसके माता पिता है , संदेश को वह अपना जीवन समर्पित कर चुकी है लेकिन उसके इस एक कदम से समाज की कई बेटियों के भविष्य से खिलवाड़ करने वाले कई अनेक परिवारों को सबक मिलेगा ।"
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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वजह
रूठ जाने की
कोई तो वजह होगी
बेवजह
अपने तो पराये
हुआ नहीं करते
पूछी थी वजह
कृष्ण ने राधा से
रूठ जाने की
सुर लहरियां
बांसुरी की
बजाई न थी
कृष्ण ने
बच्चों से
पूछी थी
वजह नाराज
होने की
माँ बाप ने
नहीं दिया
मकान पैसा
बेटे ने कहा था
वजह नहीं होती
कोई नाराजगी की
स्वार्थ बनता है
कारण नाराजगी का
खुले दिलो दिमाग से
जियें जिन्दगी
वजह बन जाऐगी
प्यार मोहब्बत की
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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है
बहुत
बेईमान
जिन्दगी
अपनी कम
पराई ज्यादा है
जिन्दगी
जाने मत दो
मौकों को
हाथ से
कब रूठ
ये जिन्दगी
मौकों की है
अजब कहानी
अपने कम
बेगाने ज्यादा है
ये मौके
मांगे दुआ
मौला से इतनी
किन्ही भी
मौकों पर
न रहे खाली
झोली
फकीर की
ऐ
इन्सान
तम बन तू
इतना खुदगर्ज़
घोटाले दे गला
दूसरों का
अपने मौकों
के लिए
स्वलिखित
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ख्याल आया
एक दिन बैठे बैठे
नेता कभी
बूढ़ा होता नहीं
हिरोईनें
कहलाती
सदा बहार
अभिनेत्री
तो फिर मैं
सफेद बालों का
बूढ़ाऊ पति
कहलाए क्यो ?
बचा के रखे
पेंशन के पैसों से
ले के आया
सिर की कालिख
इन्तजार किया
सब के सोने का
क्लीन सेव
के बाद
बालों में लगाई
खूब कालिख
बन ठन कर
पहनी जिन्स टाप
फिर बोला :
साला मैं तो
साहिब बन गया
चाल मेरी देखो
रूप मेरा देखो
मैं तो मियाँ
अपनी बीबी का "
बीबी ने किया
पहचानने से इनकार
नाती पोतों ने किया
डंडे से वार
है कोई लफंगा
घुस आया
घर के अंदर
सिर पकड़
कर बैठा हूँ
बाहर
इन्तजार में
इसके कि
कब हटे
सिर से काली
स्वलिखित लेखक
संतोष श्रीवास्तव भोपाल
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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दौराहे पर
अटक जाती है
जिन्दगी कभी-कभी
एक तरफ कुआं
तो दूसरी तरफ
होती है खाई
यहीं फैसले
होते है अहम
जो अविरल गति दे
जिन्दगी को
लिए गये
फैसले हो ऐसे
परिवार में
जो न बढ़ाए
फासले
माता-पिता के
त्याग और
फैसलों से
ही पहुँचते है
बच्चे ऊँचाईयों तक
उन्हें न पहुंचे
दुःख और कष्ट
लेना है ये फैसला
उन नादानो को
चलती है गाड़ी
सड़क पर
चंद सेकेन्ड के
गलत फैसले
उजाड़ देते है
हँसते खेलते
परिवार को
पहुँचो चाहे
कितने भी
आसमां की
ऊँचाईयों पर
पर फैसले हो
जमी पर
दिल की
तन्हाईयों से
रखों ध्यान एक
इस बात का
जिन्दगी के
फैसले हो दिमाग से
स्वलिखित लेखक
संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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फागुन की इस बेला में
पुलकित मन संसार।
रंग बिरंगे रंगों की
होली पर
उड़ती रहे बयार।
होली के
हर रंग है मोहक
सबका अपना मोल।
प्रेम रंग जो मिल जाये
तो जीवन अनमोल।
नीले, पीले, हरे, गुलाबी,
लाल अबीर गुलाल।
तन मन झूमें मस्ती में
हर बार होली में
दूर करे सब रंजिशें,
ख़ुशियों के ये रंग।
श्याम रंग राधा रंगे,
दिल में जगे उमंग।
होली पर गाये फाग
और बजाऐ मृदंग
होली के रंग
में गये कान्हा
राधा संग
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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महत्व बहुत है
जिंदगी में
चयन का
सही हो तो
जीवन सफल
होता है
पहला चयन
सही दोस्तों का
संगत हो अच्छी
तो जीवन की
राह होगी सदमार्ग
जीवनसाथी का
जब हो चयन उचित
रहेगा दाम्पत्य जीवन
सदा सुखी
स्वविवेक से
काम लो हमेशा
चयन गलत
न होगा
कभी जिन्दगी में
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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वक्त है
बड़ा बलवान
कब किस
करवट बैठता है
कोई नही जानता
लेता है जब
ये करवट
बना देता है
राजा को रंक
रात
जब लेती है
करवट
उम्मीदों की
रोशनी फैलती है
चहुंओर
उम्र की करवट
रुबरू करा
देती है
जिंदगी की
पहेलियों से
कभी धूप तो
कहीं छाह
नज़ाकत समझो
ऐ इन्सान
वक्त की
लेता है करवट
जब ये
पहुँच जाता है
इन्सान
श्मशान तक
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
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रात का अंधेरा
लाज बचाती वह
दुर्योधन के
चीर हरण से
उम्मीद नहीं
आएगा किसन
कोई आज
कपड़ा आज
लगता मोहताज
शरीर का
कपड़ा गायब
होता जाता
लज्जा अपने में
सिमटती जाती
रहेगी मर्यादा में
जब बहन बेटियां
कपड़े इज्जत
बचाएंगे उनकी
और आखिर में
कपड़ा तेरी
अजब कहानी
जिंदगी भर पहने जो
इन्सान कपड़े रंगीले
सफेद कफन ही
साथी आखिर उसका
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
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नारी तेरे रूप अनेक
नारी के हैं
रूप अनेक
कभी माँ तो
कभी होती
बेटी , बहन
करती पूरे
हर रूप में
अपने कर्तव्य
अनेक
हरीभरी धरा
सा है रूप
अनेक
मौन सदा रहती है
पर कह जाती
बात अनेक
बच्चों संग
बच्चे बन जाती
माँ बन शिक्षा देती
पत्नी हो
परिवार संजोती
ईश्वर की अनोखी
रचना है नारी
सहनशीलता,
त्याग की
मूरत है नारी
खुद रह जाती है
भूखी
परिवार को रखती है
सुखी
हर जगह
फैहरा रही
सफलता के
परचम , नारी
आसमां को
छू रही नारी
देश , समाज में
योगदान
देती है नारी
तूझे सत सत
नमन है नारी
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
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पूरी है दुनियाँ एक
बांटा सरहदों में
इन्सान ने
अखंड भारत था
एक
इतिहास ने बना दिये
देश अनेक
अपनी सरहद की
रक्षा करते
वीर जवान
शहीद हो जाते
हँसते हँसते
सरहदों में बंट गई
इन्सानियत
एक दूसरे की
खून की प्यासी
हो गयी है
इन्सानियत
हर एक है
अपने , अपनों का
प्यारा
अमन चैन से रहे
जब सब
सरहदें हों शांत
उन्नति करे
हर देश
विकास करे
हर देश
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
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पवन
बीत चली ठंडी महक
पवन सुहानी बहने लगी
भोले ने बजाया डमरू
भांग की महक उड़ने लगी
पवन बसंती
ने छूआ आसमां
हुलियारों की
निकली टोली
रंगों ने बांधा समां
पवन में लहराये
तिरंगा
देश विदेश तक
परचम फहराये
बात जब हो
देशभक्ति की
सब को भाए
तिरंगा
मनभावन है
शीतल पवन
मन-मष्तिक
हो जाए मदहोश
ऐसे प्यारे
भारत देश का
हर कण कण लगे
सुहावन
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
जीने की भी
एक कला होती है
बहादुर जीते है
बहादुरी के साथ
देश के लिए
होते है शहीद
न्योछावर कर देते है
सब कुछ अपना
कला ,
बचपन जीने की
होती है मजेदार
अपने में मगन
छूने की कामना
है गगन
रहता है बुढापे में
आसरा भगवान का
नाती पूतो के साथ
जीने की
कला होती है निराली
सीखो
हँसी खुशी जीना
जीवन को बनाओ
सतरंगी
ईमानदारी लगन
मेहनत से जियो
देश समाज के
विकास में
योगदान देने की
सीखो कला
मेरे दोस्त
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
अनंत है अंत
अंत का अंत नहीं है
चलती रहती है
सृष्टि
बस बदल जाती है
दृष्टि
अपने , अपनों को
चले जाते हैं
यादें छोड़ कर
जब है जिन्दगी
जीता है इन्सान
जीवन और अंत है
ईश्वर के हाथ
जब रहे
खुश रहे
साथ साथ
जीवन का अंत
यादों की शुरूआत
अनंत यादें
कभी न खत्म
होने वाला अंत
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
अंत का अंत नहीं है
चलती रहती है
सृष्टि
बस बदल जाती है
दृष्टि
अपने , अपनों को
चले जाते हैं
यादें छोड़ कर
जब है जिन्दगी
जीता है इन्सान
जीवन और अंत है
ईश्वर के हाथ
जब रहे
खुश रहे
साथ साथ
जीवन का अंत
यादों की शुरूआत
अनंत यादें
कभी न खत्म
होने वाला अंत
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
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लघुकथा विधा
भारत के बहादुर सैनिक
" रेल अबाध गति से जा रही थी । मै दोस्त की बारात में भोपाल से पुणे जा रहा था। अहमदनगर से कुछ सेना के जवान सवार हुए , सभी बड़े मस्त मौला थे। हँसी मजाक का दौर चल रहा था अब मैं अपने को नहीं रोक सका और ऊपर वाली बर्थ से नीचे आ कर उनके साथ बैठ गया । जब मैने दोस्त की शादी कि जिक्र किया तब उनमें से एक रामशंकर ने कहा :
" ये दूरियां वाली शादी हमारे यहाँ नहीं होती हमारे यहाँ तो छत पर चढ़ कर बहूरिया को आवाज दो तो वो घर आ जाती है । " बस एक गांव दो घर " और सभी जोर से हँस दिये ।
उनमें से एक जवान दीनानाथ अभी भी गंभीर था । संभवतः उसकी आँखो की पौरो में आंसू थे ।
मुझसे नहीं रहा गया । मैने कहा :
" भाईसाहब आप इतने उदास और गंभीर क्यो है ? "
वह बोले :
" कभी कभी कुदरत के खेल बड़े निराले होते है एक बार हम जम्मू डिविजन में तैनात थे मेरे साथ जगदीश भी
था । देवरिया का वह रहने वाला था । उसकी शादी पक्की हो गयी थी और छुट्टी भी मिल गयी थी । वह बहुत खुश था उसी रात उसकी माँ का फोन आया था । वह बोली थी :
" बेटा बस एक इच्छा है तूझे दूल्हा बने हुए देखना है , दुल्हन तो दो घर छोड़ कर है बैचारी मेरा काम निपटाने आ जाती है बहुत प्यारी है बहू छमिया ।"
तभी बाहर फायरिंग की आवाज आने लगी पूरी यूनिट को एलर्ट कर पोजीशन लेने को कहा गया ।
मैं और जगदीश केम्प के बाहर आए बाहर अंधेरा था सिर्फ गोलियों की रोशनी जुगनुओं की तरह चमक रहीं थी और आवाजें आ रही थी । यह आतंकी हमला था । वह अंदर केम्प में घुसना चाह रहे थे करीब पांच थे वह ।
गेट पर पोजीशन लिए मैं और जगदीश अपने आदमियों को कवर दे रहे थे तभी एक ग्रेनेट आ कर गेट से टकराया और जगदीश घायल हो गया फिर भी उसने हिम्मत नही हारी और हम सब ने मिल कर उन पाँचों को मार
गिराया । आपरेशन सफल रहा । जगदीश को अस्पताल ले जाया गया लेकिन वह शहीदों में अपना नाम लिखवा चुका था ।
मैं उसके पार्थिव शरीर के साथ गांव आया । मजाल थी जो उस माँ की आँखो में एक भी आँसू आया ।
छमिया जरूर एक कौने में गुमसुम खड़ी थी ।
माँ , छमिया का हाथ पकड़ कर आगे आई और बोली :
" बेटी , मेरे बेटे जगदीश से तू जुड़ी थी अब मैं मुझे उससे मुक्त करती हूँ तूझे देश को सैनिक देना है इसलिए तूझे ब्याह तो करना ही है । "
जगदीश की माँ और छमिया ने जगदीश को मुखाग्नि दी ।
छमिया ने जगदीश को सलूट किया और मेरे सीने से लग कर रोने लगी । जगदीश की माँ भी आ गयी और अपने दिल का गुबार निकल जाने के बाद सभी की सहमति से छमिया का ब्याह मेरे साथ कर दिया ।"
अब मैं गाँव ही जा रहा हूँ और वहां जगदीश की माँ , छमिया और हमारा बेटा जीत इन्तजार कर रहा है । बड़ा बहादुर है और हमारे देश का एक और सैनिक । "
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
भारत के बहादुर सैनिक
" रेल अबाध गति से जा रही थी । मै दोस्त की बारात में भोपाल से पुणे जा रहा था। अहमदनगर से कुछ सेना के जवान सवार हुए , सभी बड़े मस्त मौला थे। हँसी मजाक का दौर चल रहा था अब मैं अपने को नहीं रोक सका और ऊपर वाली बर्थ से नीचे आ कर उनके साथ बैठ गया । जब मैने दोस्त की शादी कि जिक्र किया तब उनमें से एक रामशंकर ने कहा :
" ये दूरियां वाली शादी हमारे यहाँ नहीं होती हमारे यहाँ तो छत पर चढ़ कर बहूरिया को आवाज दो तो वो घर आ जाती है । " बस एक गांव दो घर " और सभी जोर से हँस दिये ।
उनमें से एक जवान दीनानाथ अभी भी गंभीर था । संभवतः उसकी आँखो की पौरो में आंसू थे ।
मुझसे नहीं रहा गया । मैने कहा :
" भाईसाहब आप इतने उदास और गंभीर क्यो है ? "
वह बोले :
" कभी कभी कुदरत के खेल बड़े निराले होते है एक बार हम जम्मू डिविजन में तैनात थे मेरे साथ जगदीश भी
था । देवरिया का वह रहने वाला था । उसकी शादी पक्की हो गयी थी और छुट्टी भी मिल गयी थी । वह बहुत खुश था उसी रात उसकी माँ का फोन आया था । वह बोली थी :
" बेटा बस एक इच्छा है तूझे दूल्हा बने हुए देखना है , दुल्हन तो दो घर छोड़ कर है बैचारी मेरा काम निपटाने आ जाती है बहुत प्यारी है बहू छमिया ।"
तभी बाहर फायरिंग की आवाज आने लगी पूरी यूनिट को एलर्ट कर पोजीशन लेने को कहा गया ।
मैं और जगदीश केम्प के बाहर आए बाहर अंधेरा था सिर्फ गोलियों की रोशनी जुगनुओं की तरह चमक रहीं थी और आवाजें आ रही थी । यह आतंकी हमला था । वह अंदर केम्प में घुसना चाह रहे थे करीब पांच थे वह ।
गेट पर पोजीशन लिए मैं और जगदीश अपने आदमियों को कवर दे रहे थे तभी एक ग्रेनेट आ कर गेट से टकराया और जगदीश घायल हो गया फिर भी उसने हिम्मत नही हारी और हम सब ने मिल कर उन पाँचों को मार
गिराया । आपरेशन सफल रहा । जगदीश को अस्पताल ले जाया गया लेकिन वह शहीदों में अपना नाम लिखवा चुका था ।
मैं उसके पार्थिव शरीर के साथ गांव आया । मजाल थी जो उस माँ की आँखो में एक भी आँसू आया ।
छमिया जरूर एक कौने में गुमसुम खड़ी थी ।
माँ , छमिया का हाथ पकड़ कर आगे आई और बोली :
" बेटी , मेरे बेटे जगदीश से तू जुड़ी थी अब मैं मुझे उससे मुक्त करती हूँ तूझे देश को सैनिक देना है इसलिए तूझे ब्याह तो करना ही है । "
जगदीश की माँ और छमिया ने जगदीश को मुखाग्नि दी ।
छमिया ने जगदीश को सलूट किया और मेरे सीने से लग कर रोने लगी । जगदीश की माँ भी आ गयी और अपने दिल का गुबार निकल जाने के बाद सभी की सहमति से छमिया का ब्याह मेरे साथ कर दिया ।"
अब मैं गाँव ही जा रहा हूँ और वहां जगदीश की माँ , छमिया और हमारा बेटा जीत इन्तजार कर रहा है । बड़ा बहादुर है और हमारे देश का एक और सैनिक । "
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
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मानवता तब
चूर चूर हो गयी
जब लिपटे
वीर जवान
तिरंगे में
दहशतगर्दों का
क्या है काम
इन्सानो की
इस दुनिया में
क्या
यह नहीं सोचते
मानवता के हत्यारे
उनके घर नहीं है
माँ बहन बेटी बहू
या फिर नहीं गूंजती
उनके घर
बच्चों की किलकारियां ?
शायद बिना
माँ के
पैदा हुआ था
" शैतान " है नाम उसका
सैनिकों अब बन जाओ
काल
उन मानवता के
हत्यारों के
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
चूर चूर हो गयी
जब लिपटे
वीर जवान
तिरंगे में
दहशतगर्दों का
क्या है काम
इन्सानो की
इस दुनिया में
क्या
यह नहीं सोचते
मानवता के हत्यारे
उनके घर नहीं है
माँ बहन बेटी बहू
या फिर नहीं गूंजती
उनके घर
बच्चों की किलकारियां ?
शायद बिना
माँ के
पैदा हुआ था
" शैतान " है नाम उसका
सैनिकों अब बन जाओ
काल
उन मानवता के
हत्यारों के
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
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कांटो पर चलने वाले
मुकाम पा जाते हैं
मखमल पर चलने वाले
अक्सर भटक जाते है
महलों की चमक
इरादों से भटका देती है
झोपड़ी वाले
महान हो जाते हैं
आग घर की
रोटी बनाती है
भड़क जाऐ तो
शीला बन जाती है
दिल से चाहे तो
अपने है
नफरत आँखो से
गिरा देती है
लौ से करो
मोहब्बत इतनी
रोशन करें
जिन्दगी सब की
अगर बन गयी
शौला वो तो
तबाह करेगी
ज़िन्दगियाँ सब की
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
मुकाम पा जाते हैं
मखमल पर चलने वाले
अक्सर भटक जाते है
महलों की चमक
इरादों से भटका देती है
झोपड़ी वाले
महान हो जाते हैं
आग घर की
रोटी बनाती है
भड़क जाऐ तो
शीला बन जाती है
दिल से चाहे तो
अपने है
नफरत आँखो से
गिरा देती है
लौ से करो
मोहब्बत इतनी
रोशन करें
जिन्दगी सब की
अगर बन गयी
शौला वो तो
तबाह करेगी
ज़िन्दगियाँ सब की
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
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साँप ज्यादा जहर भरा है
इन्सान में
अपना बन कर काटता है
आस्तीन में ही छिपा रहता है
इन्सान की
भाई, भाई के लिए
उगलता है ज़हर
फिर डसता अपने ही
परिवार को
सास - बहू की जहरीली नौकझौक से
दिल हो जाता है तार तार
हर कोई जहर खिलाता
रहता है बार बार
हाँ जहर तो मारता है
एक बार
रिश्तों के जहर मारते है
जिंदगी भर
जहर बदनाम हो कर भी
है वफादार
इन्सान वफादारी का ढोंग
करते हुए भी
है बदनाम
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
इन्सान में
अपना बन कर काटता है
आस्तीन में ही छिपा रहता है
इन्सान की
भाई, भाई के लिए
उगलता है ज़हर
फिर डसता अपने ही
परिवार को
सास - बहू की जहरीली नौकझौक से
दिल हो जाता है तार तार
हर कोई जहर खिलाता
रहता है बार बार
हाँ जहर तो मारता है
एक बार
रिश्तों के जहर मारते है
जिंदगी भर
जहर बदनाम हो कर भी
है वफादार
इन्सान वफादारी का ढोंग
करते हुए भी
है बदनाम
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
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विधा लघुकथा
तकिया
"पिताजी जैसे ही मुझे मालूम हुआ आपने अपना छोड़ कर अलग किराये का कमरा लिया है तो मैं अपनेआप को रोक नहीं सकी और फौरन चली आई ।"
संगीता ने दुखी मन से पिताजी से
कहा ।
" हाँ बेटी तूने अच्छा किया ।"
रामलाल ने कहा ।
"लेकिन ऐसा क्या हुआ जो आपने इतना बड़ा फैसला किया मैं तो सोच रही थी आपसे सुखी और कोई नही होगा भईय्या - भाभी आफिसर है , पोते पोती मकान गाडी नौकर और अच्छा खाना सब कुछ तो है ।"
संगीता ने कहा ।
दुखी मन से रामलाल ने कहा :
"बेटी जिसने पूरी जिन्दगी ईमानदारी की रोटी नमक खाई है जो स्वाभिमानी जीवन जिया है उसके घर में रात रात पार्टियाँ हो रिश्वतबाजी चलती हो पैसा ही ईमानधर्म हो , सब अपने मन के हो अनुशासन , नैतिकता नहीं हो ऐसे माहौल में मैं नही रह सकता ।
मैं अपनी छोटी सी पेंशन से अपना गुजर बसर कर लूँगा कम से कम मुझे आत्मसंतुष्ट तो है ।"
संगीता को याद है वह पुरानी बात जब वह छोटी थी और उसके पिताजी पुलिस विभाग में इन्क्वायरी कैस डील करते थे तब एक इंस्पेक्टर जो सस्पेंड था पिताजी के पास कुछ रूपये ले कर आया था और कैस रफा-दफा करने का कह रहा था तब पिताजी उसका गिरेबान पकड़ कर एसपी के पास ले गये थे और कहा था :
" साहब गलत काम करके ये सस्पेंस होते है और वही उम्मीद ये मुझ से करते है ।"
अपनी ईमानदारी के कारण ही उनकी पूरी नौकरी उसी सेक्शन में गुजरी थी और आज भी लोग उनका नाम ईज्जत से लेते है ।"
रामलाल कह रहे थे :
"बेटी हम तकिया आराम के लिए लगाते है लेकिन अगर वही तकिया परेशानी का सबब बन जाए तो हटा देना ही अच्छा है । "स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
तकिया
"पिताजी जैसे ही मुझे मालूम हुआ आपने अपना छोड़ कर अलग किराये का कमरा लिया है तो मैं अपनेआप को रोक नहीं सकी और फौरन चली आई ।"
संगीता ने दुखी मन से पिताजी से
कहा ।
" हाँ बेटी तूने अच्छा किया ।"
रामलाल ने कहा ।
"लेकिन ऐसा क्या हुआ जो आपने इतना बड़ा फैसला किया मैं तो सोच रही थी आपसे सुखी और कोई नही होगा भईय्या - भाभी आफिसर है , पोते पोती मकान गाडी नौकर और अच्छा खाना सब कुछ तो है ।"
संगीता ने कहा ।
दुखी मन से रामलाल ने कहा :
"बेटी जिसने पूरी जिन्दगी ईमानदारी की रोटी नमक खाई है जो स्वाभिमानी जीवन जिया है उसके घर में रात रात पार्टियाँ हो रिश्वतबाजी चलती हो पैसा ही ईमानधर्म हो , सब अपने मन के हो अनुशासन , नैतिकता नहीं हो ऐसे माहौल में मैं नही रह सकता ।
मैं अपनी छोटी सी पेंशन से अपना गुजर बसर कर लूँगा कम से कम मुझे आत्मसंतुष्ट तो है ।"
संगीता को याद है वह पुरानी बात जब वह छोटी थी और उसके पिताजी पुलिस विभाग में इन्क्वायरी कैस डील करते थे तब एक इंस्पेक्टर जो सस्पेंड था पिताजी के पास कुछ रूपये ले कर आया था और कैस रफा-दफा करने का कह रहा था तब पिताजी उसका गिरेबान पकड़ कर एसपी के पास ले गये थे और कहा था :
" साहब गलत काम करके ये सस्पेंस होते है और वही उम्मीद ये मुझ से करते है ।"
अपनी ईमानदारी के कारण ही उनकी पूरी नौकरी उसी सेक्शन में गुजरी थी और आज भी लोग उनका नाम ईज्जत से लेते है ।"
रामलाल कह रहे थे :
"बेटी हम तकिया आराम के लिए लगाते है लेकिन अगर वही तकिया परेशानी का सबब बन जाए तो हटा देना ही अच्छा है । "स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
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मर्यादा में बंधी रहती है
दहलीज
एक चौखट में बंधी है
दहलीज
दहलीज के अंदर है
घर की इज्जत
बाहर गयी तो
सरे आम बदनाम है
आबरू
आज हर मुकाम पर
खड़ी है नारी
पड़ रही है वह
हर सफलता पर भारी
मत बांधो उसे
दहलीज की रेखा में
आने दो बाहर बेटी बहू को
दहलीज के
बेटों की तरह
काम करने दो उन्हें
घर बाहर के
दहलीज तो है बस
आँखो की मर्यादा तक
बढो और भेदो लक्ष्य
उन्नति के उच्च सोपान तक
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
दहलीज
एक चौखट में बंधी है
दहलीज
दहलीज के अंदर है
घर की इज्जत
बाहर गयी तो
सरे आम बदनाम है
आबरू
आज हर मुकाम पर
खड़ी है नारी
पड़ रही है वह
हर सफलता पर भारी
मत बांधो उसे
दहलीज की रेखा में
आने दो बाहर बेटी बहू को
दहलीज के
बेटों की तरह
काम करने दो उन्हें
घर बाहर के
दहलीज तो है बस
आँखो की मर्यादा तक
बढो और भेदो लक्ष्य
उन्नति के उच्च सोपान तक
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
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जिन्दगी गुजर
जाती है
सवालों के
जंजाल में !
बड़ी बेदर्द से
जबाव मांगती है
जिन्दगी
हर सवाल का
सवाल कभी यक्ष प्रश्न
बन जाते है
और हम जबावो के
चक्रव्यूह में
फंस जाते हैं
बुढापा
अपने आप में है
एक सवाल
बच्चों को पाला
पेट काट कर
अब वो बुढापा
काटेंगे कैसा ?
सबसे मुश्किल
सवाल होता है
जिन्दगी का अंत
इन्सान चिर निद्रा
में सो जाता है
और दुनियां करती है
विश्लेषण उसकी
जिन्दगी का
काश सवालों को
विराम लग जाऐ
और
जिन्दगी अविराम
हो जाऐ
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
जाती है
सवालों के
जंजाल में !
बड़ी बेदर्द से
जबाव मांगती है
जिन्दगी
हर सवाल का
सवाल कभी यक्ष प्रश्न
बन जाते है
और हम जबावो के
चक्रव्यूह में
फंस जाते हैं
बुढापा
अपने आप में है
एक सवाल
बच्चों को पाला
पेट काट कर
अब वो बुढापा
काटेंगे कैसा ?
सबसे मुश्किल
सवाल होता है
जिन्दगी का अंत
इन्सान चिर निद्रा
में सो जाता है
और दुनियां करती है
विश्लेषण उसकी
जिन्दगी का
काश सवालों को
विराम लग जाऐ
और
जिन्दगी अविराम
हो जाऐ
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
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जब तलक
जुड़ी हैं
जिन्दगी , सांस से
उड़ती है पतंग
आसमां में
अनजान जगह
अनजानों के बीच
उड़ती है पतंग
बैरानी सी आसमां में
देखती आसमां से
पतंग
दुनियां की बेवफाईयाँ
सब तरफ है
लूट खसोट और
हैवानियाँ
अपनी ऊँचाईयों पर
इतना मत इतरा
ऐ इन्सान
डोर जब तलक
जुड़ी है
उड़ती रहेगी
ये पतंग
न जाने कब
कट जाऐगी
डोर जिन्दगी की और
गुजारेगी
गुमनाम जिन्दगी
ये पतंग
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
कब कट जाए डोर
भरोसा नहीं
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जय जवान
जय किसान के बाद
अब हुआ है
जय विज्ञान का
उद्घोष
जब हुआ तीनों का
साथ
देश का हुआ
चहुंओर विकास
और हुऐ
मजबूत हाथ
विज्ञान की
जरूरत है आज
चिकित्सा शोध
खेती उत्पादन
अंतरिक्ष में
विडम्बना है
मिसाइल टैंक
परमाणु बमों ने
विश्व को खड़ा
कर दिया
बर्बादी के कगार पर
विज्ञान ने दिखाई
नयी राह जगत को
अंधविश्वास का
किया अंत
और ज्योति जलाई
सच्चाई की
सही मायने में
सही काम के लिए
शोध करें
उपयोग करें
विज्ञान का
चारों और फै लाऐ
संदेशा ज्ञान का
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
जय किसान के बाद
अब हुआ है
जय विज्ञान का
उद्घोष
जब हुआ तीनों का
साथ
देश का हुआ
चहुंओर विकास
और हुऐ
मजबूत हाथ
विज्ञान की
जरूरत है आज
चिकित्सा शोध
खेती उत्पादन
अंतरिक्ष में
विडम्बना है
मिसाइल टैंक
परमाणु बमों ने
विश्व को खड़ा
कर दिया
बर्बादी के कगार पर
विज्ञान ने दिखाई
नयी राह जगत को
अंधविश्वास का
किया अंत
और ज्योति जलाई
सच्चाई की
सही मायने में
सही काम के लिए
शोध करें
उपयोग करें
विज्ञान का
चारों और फै लाऐ
संदेशा ज्ञान का
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
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भावों के मोती दिनांक 3/2/2019
स्वतंत्र लेखन
लघुकथा विधा
सब हो साथ
हाथ में हो हाथ
बाबू जी मुझे रिटायर हुए तीन साल हो गये मेरी पेंशन अभी तक नही बनी न ही कोई और पैसा मिला है बेटी की शादी करनी है , बाबू जी बडी परेशानी में हूँ।"
रमा हाथ जोड़ कर प्रकरण डील करने बाबू के आगे गिडगिडा रही थी।
लेकिन बाबू उसकी तरफ ध्यान नही दे रहा था। जिनसे पैसों के लेनदेन की बात हो गयी थी उनके कैस निपटा कर कमरे से बाहर आ गया ।
रमा असहाय सी देखती रही ।
आखिर वह बड़े अधिकारी के पास जाने लगी लेकिन उसे रोक दिया ।
शाम को रमा घर गयी लेकिन
उस के चेहरे पर उदासी छाई हुई थी
वह कोने में जा कर बैठ गयी , अभी संगीता की शादी की तैयारी भी करना है पेंशन और बाकी पैसा नही मिले तो कैसे काम होगा ? संगीता के पिताजी अब दुनियां में नहीं है सब जिम्मेदारी उसी पर है ।
तभी संगीता आयी और दस हजार रूपये रमा को देते हुए बोली:
" कल यह पैसे बाबू को दे देना इतनी रिश्वत वह मान्ग रहा है ना ।"
रमा ने संगीता को देखते हुए कहा :
" बेटी इतने पैसे कहाँ से लाई एक महिने बाद तेरी शादी होनी है ?"और वह शंकालू निगाह से उसे देखने लगी ।
तभी बाहर से संगीता की जिससे शादी होने वाली थी वह दामाद परेश अंदर आया और बोला :
" माँ जी आप जैसा सोच रही है वैसा कुछ नही है । एक दिन संगीता मुझे मिली थी लेकिन हमेशा खिलखिलाने वाली संगीता उस दिन एकदम खामोश थी वह तो कुछ बता नही रही थी लेकिन बहुत जोर देने पर उसने यह बताया तब मैने ही उसे यह पैसे दिये है अब कल यह पैसे देने बाद जब आपका काम हो जाऐगा तब उस बाबू पर आगे कार्रवाही करवाई जाऐगी मैने विभाग में शिकायत कर दी है और हाँ आप चिंता मत करिऐ मुझे सिर्फ पढी लिखी समझदार संगीता चाहिये शादी बिल्कुल सादी होगी अभी आपकी दो बेटियाँ और उनका भी तो ध्यान रखना है ।"
रमा की उदासी मुस्कुराहट में बदल गयी थी ।
वह मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी सभी को परेश जैसा दामाद बेटा मिले अब वह अकेली नहीँ थी । काश उसने संगीता के बाद बेटे की चाह नहीँ की होती ?
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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हे इन्सान
तू इन्सान बन कर
रहना सीख
फरेब , चापलूसी जो
कूट कूट कर भरी है तुझ में
उससे निकल और
इन्सानियत से जीना सीख
ईश्वर ने दिया है
ये मानव शरीर
उसे मानवता और
नेक काम में लगा
तेरे काम ही
तेरी पहचान है
चाहे तो इज्जत
कमा ले
नहीं तो करोड़ों
इन्सान हैं यहाँ पर
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
तू इन्सान बन कर
रहना सीख
फरेब , चापलूसी जो
कूट कूट कर भरी है तुझ में
उससे निकल और
इन्सानियत से जीना सीख
ईश्वर ने दिया है
ये मानव शरीर
उसे मानवता और
नेक काम में लगा
तेरे काम ही
तेरी पहचान है
चाहे तो इज्जत
कमा ले
नहीं तो करोड़ों
इन्सान हैं यहाँ पर
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
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भावों के मोती
दिनांक 23/6/19
स्वतंत्र लेखन
विधा - लघुकथा
इन्सानियत
कड़ाके की ठंड थी , सब गरम कपड़ो में अपने
को ढके थे ।
अचानक अम्मा जी को निमोनिया हो गया था , और उन्हें अस्पताल में भरती कर दिया था , 90 साल की अम्मा जी जिजीविषा के कारण जिन्दगी और मौत से खेल रही थी और आखिर में उन्होंने मौत को भी
हरा दिया था ।
अब चौबीसों घंटे तो कोई अम्मा जी सेवा और साथ नहीं रह सकता था , हालांकि उनके तीन बेटे और एक बेटी थी , याने भरा पूरा परिवार था , पर वही बात , समय किसी के पास नहीं था । सब अपने आफिस और कारोबार में व्यस्त थे । आखिर काफी खोजबीन के बाद अम्मा जी देखभाल के लिए कमला बाई मिल गयी थी यही कोई चालीस साल की रही होगी , पति का देहान्त हो गया था , दो बच्चे थे । घरों में काम करके वह बच्चों को पढ़ा लिखा रही थी ।
कमला बाई को अम्मा जी की देखरेख की जिम्मेदारी सोपीं गयी थी । तीनों भाई दो दो हजार मिला कर कमला बाई को देने को राजी हुए । भाईयो और उनकी पत्नियों ने सोचा अरे दिन भर की चिल्ल-पों से तो अच्छा है कि दो दो हजार दे दो ।
अम्मा जी , कमला बाई से बहुत खुश थी , वह बहुत अच्छे से उनक सेवा कर रही थी ।
लेकिन एक बात थी , अम्मा जी बुढ़ापे की देहरी में थी और कब उनके दिमाग में क्या आ जाए और कमला बाई को रूपया पैसा न दे दें इसलिए परिवार का एक न एक सदस्य कमरे में मौजूद रहता था ।
कमला बाई कड़ाके ठंड में भी सिर्फ एक साड़ी में गुजर रही थी , इस और किसी का ध्यान नहीं था ।
कमला बाई के हाथों खाते पीते आखिर एक दिन अम्मा जी दुनियाँ से चल बसीं ।
कमला बाई सगी बेटी से भी ज्यादा रो रही थी और भागदौड़ कर सब काम कर रही थी ।
ठठरी जला कर सब घर आ गये थे और अम्मा जी के आखरी समय में उपयोग में लाये गये शाल रजाई गद्दे बाहर फैंकने की बात चल रही थी क्यो कि अब मरे- गड़े की चीजें घर में नहीं रखनी थी । कमला बाई को कल से नहीं आने के लिए कह दिया था , कायदे से उसे बीस दिन के पैसे देने थे , परन्तु सब जान कर भी अनजान थे । रात हो चली थी ।
अम्मा जी के सब सामान की गठरी बना कर कमला बाई को कचरे में फैंकने के लिए दे दी थी ।
अपने सिर पर रखी गठरी से कमला बाई को और ज्यादा ठंड सताने लगी थी । उसने सोचा इन चीजों को कचरे में फैंकने से सुबह तक तो यह कीचड़ में खराब हो जाऐगे और किसी काम के नहीं रहेंगे । उसके पैर अपने घर की तरफ मुड़ गये ।
घर में बच्चे चटाई पर कुकडे मुकडे सो रहे थे । कमला बाई ने गद्दे बिछा कर बच्चों को लेटाया फिर रजाई उड़ाई फिर खुद भी रजाई में घुस गयी ।
आज उसे बहुत प्यारी नींद आ रही थी ऐसा लग रहा था मानों अम्मा जी अपने हाथ उसके और बच्चों के सिर पर फैर कर आशीर्वाद दे रही हो ।
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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भावों के मोती दिनांक 22 / 6 / 19
गवाह / सबूत
विधा - छंदमुक्त
न्याय उलझा है
गवाह और सबूत में
अस्मिता लूट रही
खुले बाजार में
शैतान घुम रहे
समाज में
बच्चियाँ भयभीत हैं
भेड़ियों से
तारीख पर तारीख में
उलझा है न्याय
बदल जाते है गवाह
मिटा दिये जाते हैं सबूत
न्याय की देवी बांधे है
आँखो पर पट्टी
कैसे मिलेगा इन्साफ
जरूरत है
त्वरित न्याय की
मनोबल न टूटे
पीड़ितों का
बदलें पुरातन कानून
गवाहों पर हो
सख्ती कानून की
पुलिस रहे ईमानदार
तब खत्म होगा
गवाह गुमराह करने
सबूत मिटाने का
घिनोना खेल
समाज होगा निर्भिक
आम आदमी निडर
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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भावों के मोती दिनांक 21/6/19
योग
योग के रंग में
रंगी है दुनियाँ
हर तरफ हैं
योग की खुशियाँ
मन शरीर रहे
स्वस्थ अब
योग है साथी
सब का अब
बचपन में
खेल कूद
करते थे सब
आफिस की
भागदौड़
करते है सब
महिलाए घरेलू
कामों में
संलग्न रह ,
रहती है फिट
बुढापे में
घूमते फिरते
है सब
फिर भी
महत्व है
योग का
जीवन में
योग करो
स्वस्थ रहो
स्वस्थ जीवन
का राज
है यही
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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भावों के मोती दिनांक 20/6/19
दर्पण / आईना
छंदमुक्त कविता
हर रोज दर्पण से
मुलाकात होती है
दिल की बात
दिल में रह जाती है
बस चेहरा देख कर
खुश हो लेता हूँ
अब तलक नूर है
चेहरे पर
इन्सान जीता है
गलतफहमियों में
असलियत से
कतराता है
आईना दिखाता है
असली चेहरा
तब वह पछताता है
अपने ही जाल में
फ॔सता जाता है इन्सान
दीन ईमान से दूर
होता जाता है
आखरी समय में
जब वक्त आईना
दिखाता है
इन्साफ मांगता है
फिर इन्सान
भले बुरे सारे कर्मों को
दर्पण देखे और दिखाए
स्वलिखित लेखक
संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
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भावों के मोती दिनांक 19/6/19
किनारा / तट
चलता चल
राह ताल तलैया
पास किनारा
दूर किनारा
भटकती है नैया
हिम्मत साथी
उड़ता पंछी
ढूंढता है मुकाम
मिलता तट
न भटकाव
न कोई इन्तजार
मिला किनारा
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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2*भा.18/6/2019/मंगलवार
#पदकः#छंदमुक्तः, व्यंग्य
भावों के मोती दिनांक 18/6/18
छंदमुक्त कविता
पदक
जिन्दगी है
मैदान
इन्सान
खिलाड़ी
खेल खिलाती है
किस्मत
कभी हार
तो कभी
गले लगते है
पदक
जीत पर
न गुमान करो
ए इन्सान
हार पर
न हो हताश
ये पदक आज
उसके गले है तो
कल होगा
तुम्हारे
भेदते रहो लक्ष्य
मत हटो
मेहनत और लगन
से पीछे
हार भी
हार जाऐगी
तुम्हारे आगे
वरण करेगा
पदक तुम्हारा
पदक की
लालसा में
ईष्या मत
पालना
मेरे दोस्त
करो प्रतिस्पर्धा
ईमान से
पदक है पहचान
प्रतिष्ठा का
करो अपना नाम
ऊँचा और ऊँचा
स्वलिखित लेखक
संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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भावों के मोती दिनांक 12/6/19
चक्रव्यूह
इन्सान रचता रहता है
चक्रव्यूह हमेशा
अपनों फंसाने के लिए
नहीं छोड़ता
कोई कसर मारने के लिए
कृष्ण भी तब पंगू थे
जब अभिमन्यु फंसा था
चक्रव्यूह में
अट्टहास लगाया कौरवों ने
असहाय थी एक माँ
मंथरा के चक्रव्यूह में
फ॔से थे राम
दशरथ का देहान्त
14 साल वनवास
भाईयों के बीच दूरियाँ
इसलिए बुरे होते है
हमेशा चक्रव्यूह
जीवन में सबक लो
इन चक्रव्यूहों से
परिवार में न रचो
कोई चक्रव्यूह
हो मान सभी का
चक्रव्यूह में फंस कर
नहीं पायी है
किसी ने सुख
शान्ति और संतोष
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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भावों के मोती दिनांक 10/6/19
कोयल
रूप रंग पर जाओ मत
मधुर वाणी है सब से मुख्य
कोयल की बोली से
मन हो उठे मयूर
कोयल के सब दीवाने
होती जब की वह कारी
बगिया में चहके जब वो
टूटे लोगों का ध्यान मगन
घुमे अमराई जब कोयल
कुहू कुहू से गूंजे बगिया
कृष्ण की बाजी बासुरिया
राधा डोले संग सखिया
सीख देती है सबक कोयल
काले गोरे का न भेद करो
सब है उस दाता के बच्चे
रहो मानव बन कर सच्चे
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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