Saturday, May 9

" मनपसंद विषय लेखन"04मई2020

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ब्लॉग संख्या :-726
दिनांक 4 मई
विषय मनपसंद


क्या
तुमने कभी
कविता लिखी है
अगर हां तो
पता होगा तुमको
भावनाओं का बहाव
अंतस की गहराईयो से
निकल आता है बरबस,
सुख की कविता
लंबी नही होती
पर दुख की
दुख की कविता
लंबी नदिया सी बहती
बहती ही चली जाती है
सांत्वनाओं के किनारो को
वह तोडती हुई चली जाती है ,
कविता
बनाई जाती है
नही वो तो खुद ब खुद
निकल आती है
जैसे बांध के टूटने पर
बह आती है नदी वेग से
बस बह आती है कविता भी
और भिगो जाती है हर मन को,
खालीपन दुख देता है
अंतस का खालीपन भी
कविता के लिखे जाने पर भी
अंतस कब खाली रह पाता है
वह तो सतत भरता चला जाता है
और कविताएं बनती चली जाती है

कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद

विषय मन पसंद लेखन
विधा काव्य

04 मई 2020,सोमवार

जल थल नभ वायु अग्नि
पंच तत्व से निर्मित काया।
चकाचोंध करती भौतिकता
दिखती चारों ओर है माया।

ये जीवन है जग में साधना
लक्ष्य प्राप्ति की आराधना।
सब प्रयास रत नित रहते हैं
सबकी अपनी स्नेह भावना।

हर मंजिल पाने को उत्सुक
तपोभूमि नित तप करता है।
कुछ पाने की मन आकांक्षा
प्रकृति आगे कौन टिकता है?

जीवन लेकर सब आते जग
सब कठपुतली बनकर नाचे।
मानव एक खिलौना प्रभु का
सत्यज्योति से सबकुछ पाते।

ज्ञान तर्क विज्ञान सब फीके
क्या अस्तित्व है मानव का?
धरती धधके तपती नित ही
बड़ा महत्व होता सावन का।

श्वासों की माला ही जीवन
भक्ति भाव है मात्र साधना।
करुणा ममता स्नेह समर्पण
मिलकर करलो सभी वन्दना।

स्वरचित, मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
दिनांक 4।5।2020 दिन सोमवार
विषय मन पसंद लेखन


एक प्रतिज्ञा

बेवजह अब नहीं अब घर से निकलने वाले।
बेरहम कोरोना के हाथों न अब छलने वाले।।

बना के दूरी एक मीटर की दूसरों से सदा।
अगर जरूरत पड़ी तभी हम चलने वाले।।

घर में रहकर ही लॉक डाउन दिवस काटेंगे।
तोड़ेंगे उसकी कमर हम हाथ न आने वाले।।

साफ सफाई का भी पूरा ध्यान रक्खेंगे।
एक भी मौका उसे अब नहीं देने वाले।।

दिशा निर्देशों का पूरी तरह से पालन करके।
जीती जाती है जंग कैसे यह कहने वाले।।

दुनिया देखेगी कैसे तोड़ेगा दम कोरोना।
उसकी चालों में देशवासी न फँसने वाले।।

लाकर जन जागृति सबको हम समझाएंगे।
इस तरह विपदा से निकलेंगे हम भारत वाले।।

फूलचंद्र विश्वकर्मा

विषय - मनपसंद


।। कमाल कविता का ।।

चित्त की शुद्धि करता हूँ
जब जब कविता लिखता हूँ ।।

जैसे कविता खत्म हुई
कहाँ कहाँ नहि फिरता हूँ ।।

मानो कविता माध्यम है
मैं माया से निकरता हूँ ।।

मोहमाया में फँसा रहूँ
फिर भी बहुत सुधरता हूँ ।।

ध्यान क्या पहले मिनट तक
अब घण्टों दम भरता हूँ ।।

अनुलोम प्रतिलोम न जानूँ
प्रयोग यह भीड़ में मैं करता हूँ ।।

याद आयी कविता कि मन
कि शुन्यता से गुजरता हूँ ।।

कितनी कविता लिखती है
जब राहों में चलता हूँ ।।

कविता तुझे प्रणाम करूँ
गम में भी मैं हँसता हूँ ।।

रीता रीता था यह मन
अब पल पल 'शिवम' सजता हूँ ।।

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 04/05/2020
विषय .........कलम
विधा........ कुण्डलियाँ
***********************************
लेखन हो मन भावनी,कलम बने हथियार।
काव्य छंद दोहा लिखे,गीत गज़ल का सार।।
गीत गज़ल का सार,धर्म का हो उजियारा।
सार्थक मन अधिकार,लेख बनता अति प्यारा।।
कहे कन्हैया लाल ,सदा हो मंगल देखन।
जाये सुधर समाज,लिखो नित पावन लेखन।।
**********************************
रचना करती लेखनी, ले स्याही निज पास।
वेद ग्रंथ लिखता रहें, धर्म कर्म की आस।।
धर्म कर्म की आस,सदा मानव हितकारी।
देता जग को ज्ञान ,भाव शुभदा सुखकारी।।
कहे कन्हैया लाल ,कुपथ से मानव बचना।
नेक राह अब साध,कलम लिखती है रचना।।
************************************
स्वलिखित
*कन्हैया लाल श्रीवास 'आस'*
भाटापारा छ.ग.
जि.बलौदाबाजार भाटापारा

दिन :सोमवार
दिनांक :०४-०५-२०२०

रचना का विषय :मनपसंद विषय लेखन।
विधा :मुक्तक काव्य
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शीर्षक :#कब #तक

व्यथा .........आभागे पेट का है ,
हाथों को तो मुँह का सफ़र मालूम है।
हालातों ने पैरों में डाली बेड़ियाँ,
पैरों को तो रूह का सफ़र मालूम है।।

ज़िंदगी की काली अंधेरी पगडंडियों में,
दूर-दूर तक कोई रोशनी नहीं दिखती।
जुगनुओं की बाट जोह रहा हूँ कब से ,
वो आए ,आके ज़रा सी रोशनी कर दे।।

हर तरह की आग बुझाने के तरीक़े जहाँ में ,
मिल के लोगों ने ईजाद कर लिया अब तक।
पर,........इन भूखे पेटों की आग बुझे कैसे,
ये पहेली .......अबूझ बनी रखी है अब तक।।

ठुनकते बच्चों को किसी तरह मना भी लूँ,
कभी और खिलौने देने का आसरा देकर।
पर,..........इन भूखे पेटों को मनाऊँ कैसे,
जब अंदाज़ा नहीं ,रोटी मिलेगी कब तक।।

ज़रा सी रोशनी मिल जाती तो ,
कुछ डेग बढ़ा के देख भी आता।
अछूत बीमारी से निजात मिलेगा कब तक,
ख़ाली हाथों को काम मिलेगा कब तक।।

•••#कुमार @ शशि

#घोषणा :ये मेरी स्वरचित,अप्रकाशित और मौलिक रचना है।
दिन :सोमवार
दिनांक :०४-०५-२०२०

रचना का विषय :मनपसंद विषय लेखन।


शीर्षक : बुढ़ापा








बुढ़ापा
(बच्चे और बहू की नजर से)

सिर पर सफेद बाल है ,
उन पर मेहंदी लगती है।
झुकती कमर है,
फिर भी अकड़ कर चलती है।।


सांसे खम -खम करती है ,
फिर भी शोखियां मचलती है ।
लड़खड़ाते कदम है
पर जवानी उफनती है।।


धार्मिक ग्रंथ में छिपाकर,
गंदे साहित्य चश्मे से घूरती है।
ऊपर बर्फ जमी है,
अंगारा अंदर सुलगती है।।

बाहर जपते माला,
कहते मुख से राम राम।
दिल अभी भी मंजनू जैसा,
भटकता रहता सुबह शाम।।


अंशु प्रिया अग्रवाल
सर्व मौलिक अधिकार सुरक्षित

दिनांक-04/05/2020
विषय- जल




यदि पृथा पे जल ना होता
कौन सृष्टि के पीत वसन को
रंग हरा भरा कर पाता

कौन सौपता इसे जलसंपदा
कहां सुख से नदियां सोती
जिनकी कोखे सूनी होती

जल की इस अमृतधारा से
कैसे चातक प्यास बुझाता
तृप्त होती सूखी छाती
छक के पीती प्यासी माटी

कैसी जल से मुग्ध मयूरा
सुध- बुध खोकर नर्तन करता
बिना नीर कैसे धरा के आंगन में
उमंग का उत्सव प्रागंण सजता


जल की गंध व्याकुल कर गई
मेरी मूर्छित स्वास्थ्य को
स्पर्श छुअन भड़क गई
उस सुनहरी आग को
बूंद प्यासी स्वयं थी
पी रही थी रूप को
झिलमिलाते स्वप्न
तृप्ति कर रहे थे भू को


स्वरचित
सत्य प्रकाश सिंह
प्रयागराज
तिथ8-04/05/2020
विषय- मनपसंद



"मेरे जीवन के वरदान"

था मेरा जीवन एक सूखी नदी
जलप्लावन बन कर आये तुम।
चल रही थी मैं जलते रेगिस्तान में
बन शीतल फुहार आये तुम।
था चारों तरफ मेरे घुप्प अन्धेरा
जुगनू की रोशनी सा जगमगाए तुम।
जब भी जी घबराया मेरा
हिम्मत की बयार बन कर आये तुम।
चलती रही इन कंटीली राहों पर
रहों में मेरे फूल बिखराये तुम।
था मेरा जीवन सूना-सूना
आशा की किरण बन झिलमिलाये तुम।
जब भी तेरी यादों का साया लहराया
फूलों सा जीवन महकाये तुम।
बदल दी दुनिया मेरी, बोलो कौन हो तुम?
हाँ,,, मेरे जीवन में वरदान बन कर आये हो तुम!

अनिता निधि
न्यू बाराद्वारी,साक्ची
जमशेदपुर
4/5/2020/सोमवार
मनपसंद विषय लेखन


*पागल पवन पुरवैया*
नवगीत

चुपके चुपके चली पवन पुरवैया,
पागल घूंघट खोले।
देखें गोरी का मुख चूमे वैरन,
अपना राज न खोले।
पागल घूंघट खोले-----

ये क्यों रोज चिढ़ाती मुझको साथी,
मेरा धीरज डोले।
जब कहीं पनघट पर आऐं सजनवा,
मेरा मनवा डोले।
पागल घूंघट खोले----

सखियो लाज बहुत आती है मुझको,
जब भी ऐसा होता।
क्यों घूमती फिरती है ऐसी तू,
सारा कुनबा बोले।
पागल घूंघट खोले----

मुखड़ा निहार ये
पागल पुरवाई,
कहीं इशारा करती।
जब भी देखें साजन मोरे मानो,
आहें भरते हौले।
पागल घूंघट खोले----

सच चुपके चुपके घूरे गिरधारी,
बैठ वलैयां लेता।
निरख नहीं लेता जबतक मुझको ये
मन में मिश्री घोले।
पागल घूंघट खोले----

स्वरचित,सर्वथा मौलिक अप्रकाशित
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र
विषय मनपसंद लेखन
4 मई 2020 सोमवार


गीतका
विधाता छंद आधारित
1222 1222 1222 1222
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हमें जो प्रीत करते हैं, वही ताने सुनाते हैं।
अभी जो पास बैठे हैं, कभी नजरें चुराते हैं।1
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रखा क्या खाक दुनिया में, बिना तेरे नहीं कुछ भी,
दिखाना चांँद सा मुखड़ा, सितारे आजमाते है।2
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नहीं अब दूरियाँ रखना, जमाने से नहीं डरते,
बगावत हम नहीं करते, वफा का हक जताते हैं।3
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रखो तुम हाथ में पतवा, किनारे तब सही लगते।
जमाना छोड़ देता है, हकीकत यह बताते हैं।4
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हवा शोला नही देना, जलाकर राख कर देगा।
मिला जो साथ तेरा भी, चलो फिर से बुझाते हैं।5
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खली है दूरियाँ यारा, मिली तुम प्रेम सागर सी,
तनो को बहुत भोगा है, चलो दिल को मिलाते हैं।6
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मिली अब राह जीवन की, प्रिय तुम साथ में रहना।
कभी बिछड़े नहीं हम तुम, कसम वादा निभाते हैं।7
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स्वरचित प्रमाणित
नमन मंच:- भावों के मोती

दिनांक:- 04/05/2020

विषय:- बेटी

नन्हें - नन्हें हाथों से अपने
गालों को मेरे सहला देती है
पल भर में मेरी भोली सी बेटी
संतापित मन को बहला देती है।
***

खाना पकाने में उँगली जली मेरी
माँ की तरह मुझे वो डाँटने लगी
मासूम सी बेटी मेरी न जाने कब
हर दर्द मेरा ‘ कृती ‘ बाँटने लगी।
***

न जाने कब बेटी इतनी बड़ी हो गई
पहन के लाल जोड़ा आके खड़ी हो गई
हुआ साकार बचपन यादों में उसका ‘कृती’
बहुत मुश्किल विदाई की ये घड़ी हो गई।
📝वेदस्मृति ‘ कृती’
स्वरचित. पुणे ( महाराष्ट्र)
४/५/२०२०
मनपसंद विषय लेखन


ये जैसा भी वक़्त,गुज़र जाएगा ,
आज है वो जो कल,न रह पाएगा,
मत गुमां कर ,खुद पर कर लें रहम,
अपना साया भी छोड़ चला जाएगा ।
कर्म ऐसे करें,खुद से नज़रें मिला,
इस जहां से रूखसत कर पाएगा,
सच के आईने में देखो तस्वीर ज़रा,
भ्रम दिल का सारा निकल जाएगा ।
आपदा से न डर, संकल्प कर,
अनवरत चलते जाना, संघर्ष कर,
बाधा राहों की रोके, करें सामना,
चीरकर तम को रोशन हो आँगना।
ज़िंदगी बन सुहानी गुज़र जाएगी,
सद्भावों से जुड़ कर सँवर जाएगी ।

स्वरचित
चंदा प्रहलादका

भावों के मोती।
विषय-मनपसंद

शीर्षक -घर बैठे-बैठे
स्वरचित ।

कहते हैं कुछ,हो गये बोर🤔
घर बैठे बैठे।
तो...
क्या जरूरत बैठने की
लगे रहो घर के कामों में🤔
बोरियत जब देखेगी व्यस्त
भाग जायेगी.... 😅
ना हो तो बीबी की
चमचागिरी करो
और फिर देखो फायदे...

गरमागरम चाय संग
पकोड़े, कचौड़ी
या उत्तपम, डोसा।
ब्रेडरोल, चटनी या
फिर हलवा,समोसा।
बेशक टमाटर प्याज
आपसे ही कटवायें।
पर ऐसे मौके अब
कहां बार-बार आयें।

और जब इस से मन भर जाए
तो बच्चों के साथ लग जाए।
पूछें स्कूल कॉलेज की बातें
क्या हैं उनकी ख्वाहिशें।।

या फिर करलें कोई
छूटे हुए शौक पूरे।
लिखने दें कोई कविता
पत्नी पर हास्य से भरी हुई।
बन जाये सुरेंद्र शर्मा या
काका हाथरसी।
या फिर बनायें पति पर
कार्टून कोई।
निकाल दें कई भड़ास
मन में समाई।।

सुबह-सुबह करलें बागवानी
देखें फूलों की कलियां खिलती।
अरे भई जिंदगी के तमाम काम
बाक़ी हैं या रह गए थे
बहुत से शौक
जिंदगी की भगदड़ में।।

फिर क्यों बोर होने का अलाप गाया
अरे भाई अब तो शुभ समय आया।
वह तो अभी तक हो रहे थे..
एक जैसी जिंदगी जीते जीते
समय के हाथों मजबूर हो रहे थे।।

कुछ नया करो,
कुछ मजे लो जिंदगी में
प्यार करो, प्यार से जी लो।
कुछ प्रेरणा लो,कुछ प्रेरणा दो।।

देश में अपना भी कुछ योगदान तो दो।
चाहे घर बैठ कर ही सही
खुद चैन से जीओ और
औरों को भी जीने दो।
यह बोर होने का समय नहीं
यह भरपूर जीने का समय है।
यह भरपूर जीने का समय है।।

प्रीति शर्मा"पूर्णिमा"
4/5/2020
बिषय, स्वतंत्र लेखन

तेरे नैनों ने जादू किया
चुरा दिल मेरा लिया
नटखट है तेरी सूरतिया
मन में बस गई मोहनी मूरतिया
सर्वस्व अर्पण है तुझपे किया
कब दिन होता कब है रैना
मनवा में बिलकुल न चैना
कब लोगे मेरी खबरिया
वेदर्दी क्यों बन बैठे हो
जाने क्यों मुझसे रुठे हो
क्यों फेर ली मुझसे नजरिया
आ जाओ प्रभु बांकेबिहारी
तुमको पुकारे दासी तुम्हारी
सुना दो फिर से वो प्यारी वो बसुरिया
स्वरचित सुषमा ब्यौहार
मनपसंद लेखन
तिथि 4_5_2020


तलाश है मुझे
उस सुकून की
जिसमें न हो जिक्र तुम्हारा
न हो तुम्हारी यादों का सहारा
तलाश है मुझे
उस सुकून की
कि न देखे आँखे
इधर उधर
कि हर आहट पर लगे
किसी ने मुझे पुकारा
तनहाईयों ने मेरी
दिला दिया यकीन
कि तुम न लौट कर आओगे
फिर भी
रहता है हरदम इन्तज़ार तुम्हारा
तलाश है मुझे
उस सुकून की
मिल जाए वो पल
जो दे मुझे
जीने का सहारा

स्वरचित
सूफिया ज़ैदी
विषय : मनपसंद विषय लेखन
विधा : कविता

तिथि : 4. 5. 2020

प्रतीक्षा
-------

बहुत राह तकी हम सजना तुम्हारी
कठिन परीक्षा तुम लीन्हीं हमारी।

इक तो थी रात और दूजे अंधेरी
उर को डरातीं थीं चिंताएं घनेरी,
चांद की चाल भी थी अति धीमी
चांदनी भी, उपजाती थी ख्वारी!

बहुत राह तकी हम सजना तुम्हारी
कठिन परीक्षा तुम लीन्हीं हमारी।

हर आहट पर आस थी बंधती
आते न तुम तो निराशा घिरती
इक प्रतीक्षा दूजे कसम दे दीन्ही
रोऊंभी न,तेरी कसम बलिहारी!

बहुत राह तकी हम सजना तुम्हारी
कठिन परीक्षा तुम लीन्हीं हमारी।

हलक में यूं हाय! अटके थे प्राण
किस विध अंत होवे दारुण त्राण,
तेरा आगमन ले आया रंगीं बहार
तेरे दीदार ने दी मेरी सांसें संवारी!

बहुत राह तकी हम सजना तुम्हारी
कठिन परीक्षा तुम लीन्हीं हमारी।

-रीता ग्रोवर
-स्वरचित
सोमवार/4मई/2020
मन पसंद लेखन में हमारी प्रस्तुति

विधा - कविता
शीर्षक- " हम वहीं है "

हम वहीं हैं, जहाँ तुम छोड़ गए थें!
गर्म धूप, तूफानी हवावों , उड़ती रेत, या तेज बारिश में ....!!
हम वहीं हैं ..................
सांसो की खुशबू लिए .......
खुश्क पत्तियों में, लिखती कोई कहानी !!
हम वहीं हैं जहाँ तुम .........
तुम मुझे ढूंढ लेना ....
अपनी गर्म सांसों में .....
सरसराती हवाओं में, बंद घरों में,
या
बहकती फजाओ मे ......
हम वहीं हैं जहाँ तुम ........

हम वहीं हैं .....
एक बार बस एक बार ...
खैरिअत पूछ लेना ....
जिस्म के निचुडे पानी से
या
गर्म सूरज और रात रानी से !!
हम वही हैं .......

सवरचित मौलिक रचना
रत्ना वर्मा
204अंबिका अपार्टमेंट
सराएढेला
दिनाँक4/5/2020
बिषय मन पसन्द

शीर्षक-स्नेह
स्नेह अनमोल है
माँ का,
सींचती है वह
खून की बूँदोंसे
ममता के सागर से
पोषण करती है
कष्टों को सहकर!
जीवन की कठिन राह में
अडिग रहकर
मिटा सका नही
उम्र का कोई भी पडाव
माँ के वात्सल्य को,
जीवन की कोई आँधी
उडा नही पायी
उसकेआँचल को,
ममता की गागर मे
अमृत की धारा है माँ,
दुनियाँ के सब रिश्तोंमें
सबसेअनोखी है माँ,
सबसे प्यारी है माँ
सबसे न्यारी है माँ!
स्वरचित
साधना जोशी
उत्तर काशी
उत्तरा खण्ड
भावों के मोती
आयोजन- मनपसंद विषय लेखन एवं ऑडियो-वीडियो प्रस्तुति

दिनांक-04/05/2020
शीर्षक-चंचल मन
विधा- कविता
*************************************
कितनी बातें मन पर लिख दीं
फिर भी समझ न पाए हम मन को
पल में यहां पल में वहां
भटकाता ये हमको
क्यों समझ न पाए हम मन को।
कभी यहां कभी वहां
ले जाता ये हमको
क्यों रोक न पाएं हम मन को।
लाख बिठाते पहरे इस पर
फिर भी रोक न पाते इसको
ये भम्रता है हमको
हो सके तो कोई बता दें
कैसे वश में कर पाएं हम मन को।

स्वरचित- सुनील कुमार
जिला- बहराइच, उत्तर प्रदेश
दिनांक 4-5- 2020
विषय मनपसंद रचना


नयनो का यह दोष है, नयनों की है चाल| अच्छे खासे व्यक्ति को, कर देती बेहाल|

इधर-उधर है झांकती,लेती किसी को देख| चित्र उसी का खींचकर, दिल को देती भेज

प्रतिपल करती योजना, आए उसे फिर देख
बिन देखे नहीं चैन है ,प्रतिफल देती संदेश

मन को पंछी बना कर भेजतीउसके पास|
आठ पहर उड़ता फिरे, प्रिय मिलने कीआस

व्याकुल पंछी की तरह, मन हो जाताअधीर|
कौन भला उसकी हरे हर पल व्याकुलपीर

मैं प्रमाणित करता हूं कि
यह मेरी मौलिक रचना है
विजय श्रीवास्तव
बस्ती
उत्तर प्रदेश
आधार छंद लावणी ---मुक्तक
16'14=30अंत गुरु
रोज संदेश लेकर प्रिय का,पुरवाई जब आती है।

जीवन के मीठे सपने वो, चुपके से दे जाती है।
प्रेम फुहारों से भीगे पल, आँखों में भरकर नित ही-
बातें कर के भँवर दल से, उर आनंद समाती है।

काले मेघों से ये बिजली, चमक धरा पर आती है।
भेज रहा है गगन प्रेम की, प्रियतम को ज्यों पाती है।
जीवन का संदेश लिए जब, बरसे धारा अंबर से-
सुखद उमंगों से भर कर ही, कोयल राग सुनाती है।

चुपके चुपके मंद पवन आ, फूलों को सहलाती है।
मधुर रागिनी राग सुना कर, कलियों को बहलाती है।
जीवन छोटा हो या लम्बा, हँसकर जीना तुम सीखो-
प्राण वायु बनकर प्राणी की, खुश होकर बलखाती हैं।
राज्यश्री सिंह
स्वरचित
4/5/20
शीर्षकः-पक्षियों की सीख

बह रही है कल कल करती हुयी मां नर्मदा नदी।
पड़ी हैं माँ नर्मदा नदी में चट्टानें बहुत बड़ी बड़ी।।

कम नहीं हो पा रही चट्टानो से भी उसकी गति।
बहुत तेज गति से जा रही बहती मां नर्मदा नदी।।

आ रहे पक्षी जाने कहाँ से एक चट्टान पर रुके।
बहुत दूर तक उड़ने के कारण थे वह थके थके।।

कह रहे एक दूजे से आगया कैसा अजब समय।
आदमी सड़कों पे आ नहीं रहा नज़र,कैसा समय।।

नजर आ रहा नहीं है दूसरे के भी वह पास पास।
दिखाई देने वालों की भी संख्या नहीं कोई खास।।

मानवों को पड़ता है किन किन मुसीबतों को रोना।
सुना आगई पर अब,शायद कोई बीमारी करो ना।।

हँसा दूसरा पक्षी बोला करो ना नहीं, कहो कोरोना।
इस बीमारी के कारण छोड़ है दिया हाथ मिलाना।।

आदमियों को हम पंक्षियों से भी लेनी चाहिये सीख।
रहते साथ दिखाते नहीं, साथी को अपने कभी पीठ।।

अपनी चोंचों से ही अपने बच्चों को हैं भोजन कराते।
प्यार व तकरार में भी चोंचे अपनी सदा रहते लड़ाते।।

रहते हैं झुन्डों में हम, अकेले नहीं कभी भी विचरते।
साथियों की जान बचाने में है अपनी जाँन हैं गंवाते।।

आदमियों को हम पंक्षियों से भी लेनी चाहिये सीख ।
रहते हैं साथ दिखाते नहीं, साथी को कभीअपने पीठ।।

डाक्टर सुरेन्द्र सिंह यादव
“व्यथित हृदय मुरादाबादी”
विषय--मन पसंद विषय लेखन


"बन बैठे हैं भेंड़ सभी"

कल तक थे जो सिसक रहे,नहीं पास कछु खाने को।
आज खड़े हैं लाइन में,वही मदिरा को पाने को।।

जब से खुले ये मदिरालय,गदर कट गया लेने को।
पैसा लेकर खड़े सभी, बस मदिरा ही लेने को।।

राजा हो या रंक यहाँ, सभी पड़े थे सुस्ती में।
देख रंग फिर से मदिरा का, झूम रहे सब मस्ती में।।

भूल गए हैं नियम सब,धक्कम पेली करें सभी।
पीने को मिल जाए मदिरा, इसीलिए हैं खड़े सभी।।

मोहताज पड़े थे जो दानों को, वो भी धन कुबेर हैं अब।
देखो मदिरा के खातिर, कैसे गले लगे हैं सब।।

मदिरा पीने की इच्छा ने, आज मिटाए भेद सभी।
मदिरालय के खुलते ही, बन बैठे हैं भेंड़ सभी।।
(अशोक राय वत्स) ©® स्वरचित
रैनी, मऊ, उत्तरप्रदेश।
मनपसंद विषय लेखन
विधा - ग़ज़ल

काफ़िया - अल
रदीफ़ - कर देख लें।
बह्र - २१२२ २१२२ २१२२ २१२

धड़कनों से आज कह दो, अब मचल कर देख लें।
पार हद से प्यार में चल आ, निकल कर देख लें।

ना करें रुसवा हमें हम इश्क़ की पहचान हैं।
नफ़रतों की आग में जलते जो जलकर देख लें।

हम मुहब्बत के दिवाने है इबादत इश्क़ ही।
हैं पनाहों में खुदा के आप चल कर देख लें।

जुल्म सहते ही रहे हम अब तलक तो प्यार में।
चल ज़माने के सभी अब दर्द सह कर देख लें।

मौत ही चाहे अगर तो वो ज़ुदा कर दे हमें।
है नहीं अंजान रस्ता खुद बदल कर देख लें।

स्वरचित
बरनवाल मनोज अंजान
धनबाद, झारखंड
4/5/20
विषय-मनपसंद


जरा सी रोशनी पाकर अंधेरे भाग जाते है।
रवि को आता देखकर सितारे छिप जाते है।

अदृश्य वायरस जिन्हें हम न देख पाते है।
अजी बिन देखे ही उनको हम घर मे छिप जाते है।

बड़ी जदो जहद शामे गुजरती बिन मुस्कराते है।
अरे बिंदास कहकहों से रोग भी भाग जाते है।

सरोवर में खड़ा गज पुकारे नाथ आ जाओ।
नही करते देर कुछ पल की स्वयं दौड़े आते है।

गुजरना था कन्हिया का बचपना माँ यशोदा सङ्ग।
तभी तो ताले तोड़ कर बासुदेव सङ्ग जाते है।

लिखी विधिना की विधि को मिटा सकता नही कोई।
स्वयं श्री राम भी देखो सिया सङ्ग वनवास जाते है।

करो कितने यतन यारो स्वयं को काल से बचकर।
मिली है जितनी साँसे जीने की हम उतनी ही पाते है।

स्वरचित
मीना तिवारी
भावों के मोती
दिनांक :- 04/05/2020

विषय :- स्वतंत्र लेखन

अजीब कश्मकश है....
दो नैया...
धाराएं विपरीत दो...
बस खेवैया एक..
कैसे बैठे सामंजस्य..
खाए जा रहा यही रहस्य..
जिंदगी ही है,
या भुलभुलैया?
समझ नहीं आती
इसकी ताता थैय्या।
कब तक!
आखिर कब तक?
उठाएगी ये दोहरी जिम्मेदारी..
ये जिंदगी...
कोई तो ठौर होगा?
हार गया हूँ मन से...
थक गया हूँ तन से...
कैसे पार हो भँवर ये?
एक ही आस मन में...


स्वरचित :- राठौड़ मुकेश
विषय - मनपसंद
04/05/20

सोमवार
सूर्योदय

जब दूर क्षितिज से उदय अरुण का हो जाता है,
सारे जग का तम पल भर में ही हर जाता है।
ऐसा लगता है दुख की रात टली हो कोई ,
सुख का प्रकाश जीवन में खुशियाँ भर जाता है।
प्रकृति पर किरणों की थिरकन मन पुलकित करती,
आकाश लालिमा से सूरज की सज जाता है।
तितलियाँ पुष्प पर उड़- उड़कर करती क्रीडाएं ,
भ्रमरों का गुंजन कानों में रस टपकाता है।
नदियों की निर्मल लहरें चंचल होकर बहतीं,
वृक्षों पर विहगों का कलरव मन को भाता है।
गाँवों की चहल- पहल जीवन को गतिमय करती,
फिर लोक-संस्कृति का सौन्दर्य निखर जाता है।

स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
दिनांक-,04/05 /2020
विषय मनपसंद लेखन


"बुढ़ापा "

सो रहा वृद्ध एक टूटी खाट,
धवल चंद्रमा उजली रात ।
नीली छतरी अनंत आकाश ,
तारों की थी सजी बरात ।

धवल चंद्र की चंचल किरणें ,
तत्पर अंक लगाने को ।
तम नैनों में अश्रु है छलके ,
देख वृद्ध मुख मंडल को।

चिपका गाल है दुर्बल काया ,
रजनी सहलाती है तन को ।
मध्य रात्रि का स्वप्न सजाकर,
महकाती है तन को ।

मैला वसन अधर है सूखे ,
पेट पीठ मिल एक हो गए ।
आलिंगन करती है वसुधा ,
सजल नयन नवनीत हो गए ।

न तकिया न ही बिछौना है
तन हारा अब मन भी हारा है ।
बुढ़ापा एक बोझ बन गया
अपनों में भी परायापन है । ।

स्वरचित, मौलिक रचना
रंजना सिंह
प्रयागराज
भावों के मोती
दिनांक - 04/05/2020

विषय - मन पसन्द लेखन

"मेरा मन"

क्या कहता है मेरा मन !
नहीं इस बात के मायने
क्या करते हैं हम !
समझना ये है जरूरी ।।

किया है जो हमने !
किया क्या निस्वार्थ भाव से
या अभिलाषा है कुछ पाने की
बदले में इसके ! ।।

कर रहे यदि हम परहित ,
वजह हैं हम किसी की खुशी के
तो सौभाग्य होगा हमारा ।।

और यदि किसी की भी आंख के आंसुओं की वजह बने हम
तो दुर्भाग्य नहीं इससे बड़ा कोई हमारा ।।

इसीलिए दें खुशी ,पाएं खुशी !
बांटें खुशी , समेटें खुशी !

स्वरचित मौलिक रचना
"उषा जोशी
4/5/2020/सोमवार
*विविधता में एकता*
व्यंग्य छंदमुक्त

देखिए अपने भारत में
विविधता में एकता
रोज आदमी मर रहा है
कोई रोटी कपड़े मकान के लिऐ
कोई नित बिकते ईमान के लिऐ।
कहीं ये कामान्ध हो रहा है
तो कोई धर्मांध हो रहा है।
फिर भी आदमी रो रहा है।
कोई अपनों के लिए तो
कोई पराये हित मर रहा है।
ये देश देख रहा है उधर
वो देश बेच रहा है।
मुझे आरक्षण दिख रहा है
तुम्हें सुभक्षण लग रहा है।
राजनीति नंगी हो गई है
बहुत ही बेढंगी हो गई है।
सिद्धांत ताक पर रख दिए मैंने
गैरों के हाथ काटकर धर दिऐ मैंने।
अत्याचार पापाचार थम नहीं रहे।
सदाचारी बेचारे कहीं जम नहीं रहे।
कोई बार बार थूक रहा है
कोई थूककर चाट रहा है।
कोई कहीं कलमा पढ़ रहा है।
कोई जबरदस्त बलमा बन रहा है।
कोई मजे ले रहा तो कोई दे रहा।
आदमी अजीब सा हो गया।
जैसे किसी दुनिया में खो गया।
संवेदनाऐं गिरवी रखी हैं।
भावनाऐं मृतप्राय पड़ी हैं।
'तनखा' सिर्फ़ 'तन' ही खा रही मानते हैं हम।
इसीलिए परोपकार के लिऐ
रिश्र्वत मांगते हैं हम।
जीवन तुम्हारा नर्क बन रहा।
मगर किसी के ऊपर थूककर तुम्हें अवश्य ये
स्वर्ग के रास्ते खोल रहा।
क्या साक्षात नहीं दिख रहा।
बुद्धिजीवियों की बुद्धि
कहीं भ्रष्ट गई है।
लगता है विचारों से कहीं रुष्ट हो गई है।
राष्ट्र से नाता नहीं रहा हमें।
ज्ञान से भी अंध ज्ञान हो रहा हमें।
जो बोलना नहीं सीख पाऐ है अभी तक
वो बुद्धि को ज्ञान बांट रहे हैं।
जिन्हें समझते सभी वेवकूफ
वही तो ज्यादा होशियारी छांट रहे हैं।
लोग कहें गधे के सींग नहीं होते
मगर हमें तो उगते दिख रहे हैं।
क्या यही कहाऐ कथित गंगा जमुनी तहजीब
लोग चढ़ रहे यहां स्लीव।
विविधता में एकता देख रहे हैं।
सचमुच अपने वाले
अपनों को ही कोस रहे हैं।

स्वरचित
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र"
संदेश (एस ऐम एस)

सहमी, डरी हुई, "कमसिन तनख़्वाह"

हर माह,चुपचाप सर झुकाए आ रही है
और एक "ज़रूरत" नाम का आशिक
सीटी हर महीने बजाता रहता है।
मजबूरियां दामन नही छोड़ती
और हौसला उम्मीद नही छोड़ने देता ।
बेबसी रोज तड़पा रही है,
मेरी लाचारगी मुझे हर पल खा रही है,
उम्मीद की लौ आगे बढ़ने का जज्बा जगा रही है।
मध्यमवर्गीय जीवन न उच्चस्तर पकड़ पाता है,
न ही अपने आपको निम्नस्तर में गिनवाता है ।
अजीव सी हालत हो जाती है बीस तारीख के बाद
हर दिन महीना सा लगता है,
हर क्षण कहर बरपाती लू सा गुजरता है,
इंतजार माशूक से ज्यादा तनख्वाह का रहता है,
हर तकाजे वाले से साया दूर ही रहता है,
ऊपर से हारी बोमारी,कोई उत्सव मार जाता है
लाचारी की कोढ़ में खाज कर जाता है,
ये बीस से तीस तारीख का सफर हर महीने
अनचाहा तनाव सा कर जाता है।
तनख्वाह के संदेश का सुबह से इंतजार
होता है,हर संदेश मानो रुपये जमा होने का ही
होता है,मुस्कुराता चेहरा बता देता है ,जिस्म
फिर हरकत सी ले लेता है ,
बीस से तीस तारीख के सफर का आखिरी पड़ाव
मोबाइल पर तनख्वाह का संदेश फिर सुकून दे देता है।
कामेश की कलम से

कामेश गौड़
जयपुर,राजस्थान
स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित
दिनांक-४/५/२०२०
मनपसंद लेखन


डमरू घनाक्षरी

झटपट उठ अब,सरपट घर चल।
जड़ अब मत बन,तज अब सब डर।।
घर पर रह कर,सब जन रब भज।
अब सब जन जग,खग उड़ नभ तर।।
लड़ मत हम सब,सहज सरल बन।
तज मद,पर धन,गम अब मत कर।।
चल अब हम सब,तट पर तप कर।
भय सब तज कर,चल सत्य पथ पर।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव
दिनांक 4-5- 2020
विषय मनपसंद रचना

शीर्षक-कोरोना से बचें बचाएं

लॉकडाउन में घर में रहकर, तोड़ें कोरोना चैन।
सड़क बाजार बाहर न निकलें, न बाइक न ट्रैन।।
बीमारी से बचना है तो, सात्विक जीवन अपनाएं;
मदिरा-मांस तामसी चीजें, गुटखा करिए बैन।।

'गर शंका हो कोरोना की, रहिए क्वारेंटेन।
जांच कराएं, नहीं छिपाएं, पता चले देन व्हेन।।
आप सुरक्षित राष्ट्र सुरक्षित, रहे सुरक्षित मानवता
खुशी नहीं दे सकते यदि तो, फिर क्यों देवें पैन।।

बाहर से जो लोग आ रहे, हो उनका स्कैन।
एसी, फ्रीज बंद ही रखें, भले चलाएं फैन।।
करें नहीं नादानी लाला, मुँह में मास्क लगाएं;
शादी-ब्याह में सिर्फ बाराती, फाइव-फाइव टैन।।

लैला मजनूँ पास बुलाएं, कहो डोन्ट इट कैन।
ज्यादा दिल का दर्द बताएँ, नीर बहायें नैन।।
अगर भावना में बह जाओ, रखिये दस फ़ीट दूरी;
पास न जाना दूर-दूर से, हो पुष्पों की रेन।।

नफरत वश मत बनें जानवर, रखें मानवता मैन।
अध्यात्म दर्शन अपनाएं, बौद्धिक जैसे जैन।।
आत्म शक्ति से दूर भगाएं, कोरोना को 'कौशल';
अगर न भागे लॉक लगाएं, कोशिश करें अगेन।।

मैं प्रमाणित करता हूं कि
यह मेरी मौलिक रचना है

कौशलेन्द्र सिंह लोधी 'कौशल'
सतना /टीकमगढ़ (म.प्र.)
जीभ काट दी गद्दारों ने,यूं अंग्रेजी खंजर चला।
अब मुंह से,वो कैसे जय श्री राम बोल पाएगा।

हाय हेलो से ही आजकल फुर्सत नहीं,तू सोच।
अब कानों में उनके,बता कैसे वेद घोल पाएगा।

याद रख तू फोटो दिखा,राम नहीं बना पाएगा।
देखने से बनेगा,तो वो दुर्योधन भी बन जाएगा।

मां-बाप सेवा की नहीं,चाहता बेटा श्रवण बने।
घोर कलयुग है नादां,यह कौन तुझे समझाएगा।

अब भी वक्त संभल,बन उदाहरण अपनो लिए।
कुछ खुशियां उन्हें दे,इतिहास अमर हो जाएगा।

कितना नादां है तू,आम बबूल नहीं लग पाएगा।
जैसा बोया है तुने,अनुरूप ही तो फल पाएगा।

मजबूती दे परिवार,और नींव पत्थर तू बन जा।
थोड़ा सीखा,तेरा भविष्य स्वत: निखर जाएगा।

बन जा तू बागबान,घर गुलिस्ता महक जाएगा।
संस्कारवान, ऐसे ही अपने बच्चों को बनाएगा।

तेरा जीवन तो,देख उसी दिन सार्थक हो पाएगा।
जब तेरे बेटे मैं कंस नहीं,बस श्रवण गुण आएगा।

कहती वीणा दे थोड़े ही संस्कार,भविष्य बचा ले।
वरना सच कहती ,बुढ़ापा तो तेरा बिगड़ जाएगा।

वीणा वैष्णव"रागिनी"
राजसमंद
आज का विषय है- मनपसंद विषय
दिनांक- 04/05 2020


चलना हमारा काम है

चलना हमारा काम है,
झर झर कर झरने बहते हैं,
गुनगुन कर बहती समीर है
,कल -कल कर नदियां बहती है,
समय चल रहा हो गतिमान,
प्रकृति के यह सारे उपादान
सिख लाते हैं हमको यही ज्ञान
चलना हमारा काम ।

यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
श्रीमती स्मृति श्रीवास्तव ' रश्मि '
शासकीय महारानी लक्ष्मीबाई कन्या शाला नरसिंहपुर


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