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ब्लॉग संख्या :-723
भावों के मोती
दिनांक-01/05/2020
दिन-शुक्रवार
विषय-मनपसंद विषय लेखन
शीर्षक- श्रमिक का जीवन
विधा- कविता
***********************
श्रमिक के जीवन की भी
क्या अजब कहानी है
तन पर न ढंग का कपड़ा
पेट भर न दाना- पानी है
श्रमिक के जीवन की भी
क्या अजब कहानी है।
रोजी-रोटी के खातिर
निस दिन पलायन जारी है
दु:खों से इनका गहरा नाता
खुशियां तो जैसे बेगानी हैं
श्रमिक के जीवन की भी
क्या अजब कहानी है।
हर मौसम की मार ये झेलता
दुःख-पीड़ा जीवन भर सहता
पर हार कभी न मानी है
श्रमि के जीवन की भी
क्या अजब कहानी है।
स्वरचित- सुनील कुमार
जिला- बहराइच,उत्तर प्रदेश
दिनांक-01/05/2020
दिन-शुक्रवार
विषय-मनपसंद विषय लेखन
शीर्षक- श्रमिक का जीवन
विधा- कविता
***********************
श्रमिक के जीवन की भी
क्या अजब कहानी है
तन पर न ढंग का कपड़ा
पेट भर न दाना- पानी है
श्रमिक के जीवन की भी
क्या अजब कहानी है।
रोजी-रोटी के खातिर
निस दिन पलायन जारी है
दु:खों से इनका गहरा नाता
खुशियां तो जैसे बेगानी हैं
श्रमिक के जीवन की भी
क्या अजब कहानी है।
हर मौसम की मार ये झेलता
दुःख-पीड़ा जीवन भर सहता
पर हार कभी न मानी है
श्रमि के जीवन की भी
क्या अजब कहानी है।
स्वरचित- सुनील कुमार
जिला- बहराइच,उत्तर प्रदेश
दिन- शुक्रवार
विषय- मनपसंद विषय लेखन
शीर्षक-दशा किसान की
विधा- कविता
*************************************
देख दशा किसान की
मन बहुत व्यथित है आज
अन्नदाता ही इस देश का
क्यों है आज बेहाल।
खून- पसीना एक कर
करता जो निस दिन काम
जाड़ा- गर्मी- बरसात
कभी करता नही आराम
फिर अन्नदाता ही इस देश का
क्यों है आज बेहाल।
कभी ओला- कभी बारिश
कभी तेज आंधी - तूफान
प्रकृति का हर प्रकोप
सहता है किसान
फिर अन्नदाता ही इस देश का
क्यों है आज बेहाल।
कृषि प्रधान देश अपना
कृषक ही इसकी शान
जय जवान-जय किसान
कहता सकल जहान
फिर अन्नदाता ही इस देश का
क्यों है आज बेहाल।
खून-पसीने से अपने
करता धरती का श्रृंगार
फिर अन्नदाता ही इस देश का
क्यों है आज बेहाल।
विषय- मनपसंद विषय लेखन
शीर्षक-दशा किसान की
विधा- कविता
*************************************
देख दशा किसान की
मन बहुत व्यथित है आज
अन्नदाता ही इस देश का
क्यों है आज बेहाल।
खून- पसीना एक कर
करता जो निस दिन काम
जाड़ा- गर्मी- बरसात
कभी करता नही आराम
फिर अन्नदाता ही इस देश का
क्यों है आज बेहाल।
कभी ओला- कभी बारिश
कभी तेज आंधी - तूफान
प्रकृति का हर प्रकोप
सहता है किसान
फिर अन्नदाता ही इस देश का
क्यों है आज बेहाल।
कृषि प्रधान देश अपना
कृषक ही इसकी शान
जय जवान-जय किसान
कहता सकल जहान
फिर अन्नदाता ही इस देश का
क्यों है आज बेहाल।
खून-पसीने से अपने
करता धरती का श्रृंगार
फिर अन्नदाता ही इस देश का
क्यों है आज बेहाल।
दिनांक 1।5।2020 दिन शुक्रवार
विषय मन पसंद विषय लेखन
श्रमिक दिवस
अपने श्रम सीकर से सिंचित, वसुधा का तन जो करता है।
कहते हैं श्रमिक सभी उससे, माटी सै सोना बनता है॥
उसको वैभव से क्या लेना, वह धरती को स्वर्ग बनाता है।
कम संसाधन में जीना सीखा, धन को पग से ठुकराता है॥
वह उन्नति का आधार खम्भ, है सदा राष्ट्र का मान बढ़ाए।
उसके माथे का स्वेद विंदु, मुक्ता सम शोभा सरसाए ॥
अपने बच्चों का पेट काट, जो पर हित सदा निरत रहता।
स्वर्णिम आभा से दूर किंतु, अपनी कुटिया में मग्न रहता॥
पर गृह में जलता रहे दीप, निज गृह की न परवाह करे।
अपनी अस्थियाँ जलाता है, प्रतिफल की कभी न चाह करे॥
मन में कर्त्तव्य भावना है, चेहरे पर कभी विषाद नहीं।
परहित हर संकट से लड़ता, रखता मन में अवसाद नहीं॥
उनके प्रति कर्त्तव्य हमारा है, श्रमिकों कों भी सम्मान मिले।
जीवन के जो आधार पुरुष, जन-जन में उनको मान मिले॥
एक मई को श्रमिक दिवस,बस इतना मान न इतराना।
प्रतिदिन करें सम्मान श्रमिक का,तभी सफल होगा गाना।।
समझें इनकी उपयोगिता और, सामाजिक जिम्मेदारी भी।
हर पथ पर ये बहुत जरूरी,जन जन भागीदारी भी।।
इनका हो उत्थान तभी यह, देश समुन्नत हो सकता है।
इनका पूजन वंदन हो,तब द्रुत गति से बढ़ सकता है।।
फूलचंद्र विश्वकर्मा
विषय मन पसंद विषय लेखन
श्रमिक दिवस
अपने श्रम सीकर से सिंचित, वसुधा का तन जो करता है।
कहते हैं श्रमिक सभी उससे, माटी सै सोना बनता है॥
उसको वैभव से क्या लेना, वह धरती को स्वर्ग बनाता है।
कम संसाधन में जीना सीखा, धन को पग से ठुकराता है॥
वह उन्नति का आधार खम्भ, है सदा राष्ट्र का मान बढ़ाए।
उसके माथे का स्वेद विंदु, मुक्ता सम शोभा सरसाए ॥
अपने बच्चों का पेट काट, जो पर हित सदा निरत रहता।
स्वर्णिम आभा से दूर किंतु, अपनी कुटिया में मग्न रहता॥
पर गृह में जलता रहे दीप, निज गृह की न परवाह करे।
अपनी अस्थियाँ जलाता है, प्रतिफल की कभी न चाह करे॥
मन में कर्त्तव्य भावना है, चेहरे पर कभी विषाद नहीं।
परहित हर संकट से लड़ता, रखता मन में अवसाद नहीं॥
उनके प्रति कर्त्तव्य हमारा है, श्रमिकों कों भी सम्मान मिले।
जीवन के जो आधार पुरुष, जन-जन में उनको मान मिले॥
एक मई को श्रमिक दिवस,बस इतना मान न इतराना।
प्रतिदिन करें सम्मान श्रमिक का,तभी सफल होगा गाना।।
समझें इनकी उपयोगिता और, सामाजिक जिम्मेदारी भी।
हर पथ पर ये बहुत जरूरी,जन जन भागीदारी भी।।
इनका हो उत्थान तभी यह, देश समुन्नत हो सकता है।
इनका पूजन वंदन हो,तब द्रुत गति से बढ़ सकता है।।
फूलचंद्र विश्वकर्मा
01 मई 2020,शुक्रवार
होगा वही जो राम रचि राखा
हम निमित्त हैं वही विधाता।
बिन उसके पत्ता न हिलता
सच में वह है जग रखवाला।
जग संहारक पालन करता
वह उदर नित सबका भरता।
वह प्रकृति का स्वयम नियन्ता
जैसा चाहे वैसा वह करता।
जग के शासक आज मौन हैं
पहन मुखोटा बैठे शान्त हैं।
कोरोना सर्वव्यापी जगत में
घर बैठा इंसा अति क्लांत है।
भांति भांति तरकीब लगाई
लेकिन कोई काम न आई।
डरो नहीं तुम दुनियां वालों
वही होगा जो चाहेगा सांई।
जल थल नभ अगन पवन
सबको दिख रहे आज नवल।
बदरी काली शीघ्र छटेगी यह
पुनः खिलेंगे सुवासित कमल।
स्वरचित, मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
होगा वही जो राम रचि राखा
हम निमित्त हैं वही विधाता।
बिन उसके पत्ता न हिलता
सच में वह है जग रखवाला।
जग संहारक पालन करता
वह उदर नित सबका भरता।
वह प्रकृति का स्वयम नियन्ता
जैसा चाहे वैसा वह करता।
जग के शासक आज मौन हैं
पहन मुखोटा बैठे शान्त हैं।
कोरोना सर्वव्यापी जगत में
घर बैठा इंसा अति क्लांत है।
भांति भांति तरकीब लगाई
लेकिन कोई काम न आई।
डरो नहीं तुम दुनियां वालों
वही होगा जो चाहेगा सांई।
जल थल नभ अगन पवन
सबको दिख रहे आज नवल।
बदरी काली शीघ्र छटेगी यह
पुनः खिलेंगे सुवासित कमल।
स्वरचित, मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
दिन :शुक्रवार
दिनांक :०१-०५-२०२०
विषय :मनपसंद विषय लेखन
विधा :#छंदमुक्त कविता
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
•••#मज़दूर_दिवस।
ज़िंदगी के हर मज़े से दूर,कष्ट भरपूर,उसका प्रथम लक्ष्य पाना निवाला है।
पग-पग तिरस्कृत है जीवन उसका,सच ,....उसका कोई नहीं रखवाला है।।
अश्क़ आ जाते हैं सुनके उनकी विपदा,............रूह काँप-काँप जाती है।
ख़ूब पता दुनियाँ को,वो क़र्ज़ में जन्मेगा ,जिएगा औ’ क़र्ज़ में मरने वाला है।।
पेट पीठ मिलकर हैं एक,.......धँस गयी हैं आँखें,...........सूख गए हैं अश्क़।
इस भाग-दौड़ की ज़िंदगी में कौन देखता उसे,सब चूस के काम लेनेवाला है।।
भगवान भी देर से सुनते हैं फ़रियाद उनकी,...जब तक ख़ुद वो टूट ना जाय।
कौन पूछता उसकी बीमार बीबी का हाल ,कौन बच्चों को दूध देने वाला है।।
उसकी षोडशी बेटी को पुचकारते हैं लोग,....उसकी नीयत निहारते हैं।
क़र्ज़ बाप को देकर उसको उघारते,उसकी इज़्ज़त कौन बचानेवाला है।।
कभी लगता है,.....खुदा मज़दूरों को जन्म ना दे,..........तो अच्छा है।
इक छोटी सी ज़िंदगी में वो,कई-कई बार मरता,कौन गिनने वाला है।।
सहानुभूति के हाथ भी उस पर ,............बड़े ही महँगे उठते हैं शशि ।
वही सटते जो रखता कहीं पर निगाह औ’ कहीं निशाना लगानेवाला है ।।
•••#कुमार @ शशि
दिनांक :०१-०५-२०२०
विषय :मनपसंद विषय लेखन
विधा :#छंदमुक्त कविता
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•••#मज़दूर_दिवस।
ज़िंदगी के हर मज़े से दूर,कष्ट भरपूर,उसका प्रथम लक्ष्य पाना निवाला है।
पग-पग तिरस्कृत है जीवन उसका,सच ,....उसका कोई नहीं रखवाला है।।
अश्क़ आ जाते हैं सुनके उनकी विपदा,............रूह काँप-काँप जाती है।
ख़ूब पता दुनियाँ को,वो क़र्ज़ में जन्मेगा ,जिएगा औ’ क़र्ज़ में मरने वाला है।।
पेट पीठ मिलकर हैं एक,.......धँस गयी हैं आँखें,...........सूख गए हैं अश्क़।
इस भाग-दौड़ की ज़िंदगी में कौन देखता उसे,सब चूस के काम लेनेवाला है।।
भगवान भी देर से सुनते हैं फ़रियाद उनकी,...जब तक ख़ुद वो टूट ना जाय।
कौन पूछता उसकी बीमार बीबी का हाल ,कौन बच्चों को दूध देने वाला है।।
उसकी षोडशी बेटी को पुचकारते हैं लोग,....उसकी नीयत निहारते हैं।
क़र्ज़ बाप को देकर उसको उघारते,उसकी इज़्ज़त कौन बचानेवाला है।।
कभी लगता है,.....खुदा मज़दूरों को जन्म ना दे,..........तो अच्छा है।
इक छोटी सी ज़िंदगी में वो,कई-कई बार मरता,कौन गिनने वाला है।।
सहानुभूति के हाथ भी उस पर ,............बड़े ही महँगे उठते हैं शशि ।
वही सटते जो रखता कहीं पर निगाह औ’ कहीं निशाना लगानेवाला है ।।
•••#कुमार @ शशि
मजदूर
रामभाया,
गाँव की गरीबी से,
होकर मजबुर ।
छोटी गठरी में,
कुछ सामान,कुछ सपने ।
लेकर निकला घर से,
घर से दूर ၊
शहर में बन गया,
मजदूर ၊
कभी देखा,
चाय के कट्टे,
कभी देखा,
ईंट की भट्टी ၊
लेकर छोटी,
सामान की गठरी,
दिखा कभी,
रेल की पटरी ၊
नहीं बनाई कभी,
खुद की खोली ,
बना दी सेठ की,
सुंदर हवेली ၊
खुद को रखकर बेहाल ၊
बना दिए बड़े बड़े मॉल ၊
पूंजीपति की पड़ी,
उस पर नज़र ၊
ले गये एक दिन,
उसे उठाकर ၊
लोहे की भट्ठी पर,
तान कर सीना ၊
फटे हुए गमछे से,
पोंछता रहा पसीना ၊
खुद रहा बेहाल,
सेठ हो गया माला माल ၊
मुनाफा कमाता गया सेठ,
खुद चढ़ता रहा,
मंदी की भेंट ၊
मंदी की भेंट चढे,
लगने लगा ड़र ၊
खुद का पेट ना,
भर पाए बराबर ၊
सोच सोचकर,सोचता,
क्या भेजू इस माह घर।
सोचा सेठ से,
मिलाए नज़र ၊
यहां भी हो गयी,
उसकी बंद बोली ၊
यूनियन लीडर ने,
भरली अपनी झोली,
उसके पैर लगी,
बंदूक की गोली ၊
अभी भी,
रामभाया है मजबूर ၊
सब कहते है उसे,
लंगड़ा मजदूर ၊
सब कहते है उसे,
लंगड़ा मजदूर 1
✍ प्रदीप सहारे
रामभाया,
गाँव की गरीबी से,
होकर मजबुर ।
छोटी गठरी में,
कुछ सामान,कुछ सपने ।
लेकर निकला घर से,
घर से दूर ၊
शहर में बन गया,
मजदूर ၊
कभी देखा,
चाय के कट्टे,
कभी देखा,
ईंट की भट्टी ၊
लेकर छोटी,
सामान की गठरी,
दिखा कभी,
रेल की पटरी ၊
नहीं बनाई कभी,
खुद की खोली ,
बना दी सेठ की,
सुंदर हवेली ၊
खुद को रखकर बेहाल ၊
बना दिए बड़े बड़े मॉल ၊
पूंजीपति की पड़ी,
उस पर नज़र ၊
ले गये एक दिन,
उसे उठाकर ၊
लोहे की भट्ठी पर,
तान कर सीना ၊
फटे हुए गमछे से,
पोंछता रहा पसीना ၊
खुद रहा बेहाल,
सेठ हो गया माला माल ၊
मुनाफा कमाता गया सेठ,
खुद चढ़ता रहा,
मंदी की भेंट ၊
मंदी की भेंट चढे,
लगने लगा ड़र ၊
खुद का पेट ना,
भर पाए बराबर ၊
सोच सोचकर,सोचता,
क्या भेजू इस माह घर।
सोचा सेठ से,
मिलाए नज़र ၊
यहां भी हो गयी,
उसकी बंद बोली ၊
यूनियन लीडर ने,
भरली अपनी झोली,
उसके पैर लगी,
बंदूक की गोली ၊
अभी भी,
रामभाया है मजबूर ၊
सब कहते है उसे,
लंगड़ा मजदूर ၊
सब कहते है उसे,
लंगड़ा मजदूर 1
✍ प्रदीप सहारे
मनपसंद लेखन
1/5/2020/शुक्रवार
हाइकु5,7,5
*जीवन*
1//
जीवन मृत्यु
सांसारिक विधान
आवागमन
2//
*राज*
कानून राज
खोखला राजकाज
चुनाव ताज
3//
*सूरज*
उदयांचल
प्रभात हलचल
सूरज उगा
4//
*दर्पण*
आत्म दर्शन
निहारते दर्पण
ये आवरण
5//
*समय*
लेख कपाल
समय सदाचार
रहे उधार
स्वरचित
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र
1/5/2020/शुक्रवार
हाइकु5,7,5
*जीवन*
1//
जीवन मृत्यु
सांसारिक विधान
आवागमन
2//
*राज*
कानून राज
खोखला राजकाज
चुनाव ताज
3//
*सूरज*
उदयांचल
प्रभात हलचल
सूरज उगा
4//
*दर्पण*
आत्म दर्शन
निहारते दर्पण
ये आवरण
5//
*समय*
लेख कपाल
समय सदाचार
रहे उधार
स्वरचित
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र
भावों के मोती
विषय - मनपसंद ।
शीर्षक - भ्रम
स्वरचित/
भ्रम ही भ्रम चहूं ओर है
ना राह कोई दिखती।
झूठ के बादलों में छिप गया
सत्य के रथ का पहिया।
निराश हताश बैठा पथिक
जाये अब किस ओर?
जाये जिस भी ओर
भोर की ना किरण विकसती।
कहती प्रीति बात
रात भ्रम की अति काली।
निकलो इससे बाहर नहीं तो
गागर जीवन की रह जाय खाली।।
प्रीति शर्मा"पूर्णिमा"
01/05/2020
विषय - मनपसंद ।
शीर्षक - भ्रम
स्वरचित/
भ्रम ही भ्रम चहूं ओर है
ना राह कोई दिखती।
झूठ के बादलों में छिप गया
सत्य के रथ का पहिया।
निराश हताश बैठा पथिक
जाये अब किस ओर?
जाये जिस भी ओर
भोर की ना किरण विकसती।
कहती प्रीति बात
रात भ्रम की अति काली।
निकलो इससे बाहर नहीं तो
गागर जीवन की रह जाय खाली।।
प्रीति शर्मा"पूर्णिमा"
01/05/2020
शीर्षक-- ।। मजदूर ।।
कर मेहनत मजदूरी चैन से सो जाते ।
नही की चोरी नही डाला डाका कोई
पर न जाने क्यों इज्जत नही पाते ।
शायद दुनिया को झूठ फ़रेब पसंद
और वो झूठ बोलने उन्हे नही आते ।
बनावटीपन भी दुनिया के न आए
इसलिये शायद वो जग को न भाते ।
गरीबों मजदूरों के तो सिर्फ एक
ईश्वर ही दुनिया में हमदर्द कहाते ।
खुद सब करते हैं ये दुनिया वाले
मगर मजदूर पर इल्जामात लगाते ।
क्यों अन्याय है यह मजदूरों संग
यह प्रश्न सदियों से अनबुझ कहाते ।
वैसे जागरूकता आयी समाज में
अब मजदूर दिवस भी हम मनाते ।
मगर यह दिवस सिर्फ औ सिर्फ
सरकारी फाइलों में शोभा बढ़ाते ।
मजदूर तो आज भी मजदूर है
लोग कहाँ उसे इज्जत से बुलाते ।
कितने दर्द हैं उसके सीने में
पर कभी न वो जुबाँ पर लाते ।
दुनिया की हर तरक्की में वो
'शिवम' सदा हंसकर हाथ बँटाते ।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 01/05/2020
कर मेहनत मजदूरी चैन से सो जाते ।
नही की चोरी नही डाला डाका कोई
पर न जाने क्यों इज्जत नही पाते ।
शायद दुनिया को झूठ फ़रेब पसंद
और वो झूठ बोलने उन्हे नही आते ।
बनावटीपन भी दुनिया के न आए
इसलिये शायद वो जग को न भाते ।
गरीबों मजदूरों के तो सिर्फ एक
ईश्वर ही दुनिया में हमदर्द कहाते ।
खुद सब करते हैं ये दुनिया वाले
मगर मजदूर पर इल्जामात लगाते ।
क्यों अन्याय है यह मजदूरों संग
यह प्रश्न सदियों से अनबुझ कहाते ।
वैसे जागरूकता आयी समाज में
अब मजदूर दिवस भी हम मनाते ।
मगर यह दिवस सिर्फ औ सिर्फ
सरकारी फाइलों में शोभा बढ़ाते ।
मजदूर तो आज भी मजदूर है
लोग कहाँ उसे इज्जत से बुलाते ।
कितने दर्द हैं उसके सीने में
पर कभी न वो जुबाँ पर लाते ।
दुनिया की हर तरक्की में वो
'शिवम' सदा हंसकर हाथ बँटाते ।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 01/05/2020
विधा-हायकू
विषय - मन:स्थिति
---------------------
मनस्थिति
स्वर्ग नरक का
बोध कराती।
स्वर्ग होता
आत्मिक आनंद
की अनुभूति
नरक होता
घोर असमंजस
दिशाभ्रम का
मन का शील
और सहृदयता
स्वर्ग होते
आकुल मन
और आतुरता
कहिये नर्क
साथ किसी का
और अपनापन
स्वर्ग सदा
तम का राज
असहाय स्थिति
नरक ही है
----------------------------
गोविंद व्यास रेलमगरा
विषय - मन:स्थिति
---------------------
मनस्थिति
स्वर्ग नरक का
बोध कराती।
स्वर्ग होता
आत्मिक आनंद
की अनुभूति
नरक होता
घोर असमंजस
दिशाभ्रम का
मन का शील
और सहृदयता
स्वर्ग होते
आकुल मन
और आतुरता
कहिये नर्क
साथ किसी का
और अपनापन
स्वर्ग सदा
तम का राज
असहाय स्थिति
नरक ही है
----------------------------
गोविंद व्यास रेलमगरा
नमन "भावों के मोती"🙏
01/05/2020
कविता
विषय:-"मजदूर"
जिसके हिस्से मौसम का,आया एक ही रूप,
रोज कुआं खोद पानी पियें,हाथ में आई धूप,
श्रम का होता मोल भाव,मिले तिरस्कार कभी खूब,
परिश्रम की चक्की में,पिसती जाती भूख,
क्या बूढ़ा,क्या बचपन पेट करे मजबूर,
हाथों में बस मिट्टी है,और चाँद बहुत है दूर,
स्वप्नों को काँधे पे लादे, घर से निकले दूर,
हाँ, छोटी-छोटी खुशियों में जीता ये मजदूर l
श्रम को बस सम्मान मिले,हर लेंगे हर शूल,
शोषण न हो,अधिकार मिले,दुःख जायेंगे भूल l
स्वरचित
ऋतुराज दवे
कविता
विषय:-"मजदूर"
जिसके हिस्से मौसम का,आया एक ही रूप,
रोज कुआं खोद पानी पियें,हाथ में आई धूप,
श्रम का होता मोल भाव,मिले तिरस्कार कभी खूब,
परिश्रम की चक्की में,पिसती जाती भूख,
क्या बूढ़ा,क्या बचपन पेट करे मजबूर,
हाथों में बस मिट्टी है,और चाँद बहुत है दूर,
स्वप्नों को काँधे पे लादे, घर से निकले दूर,
हाँ, छोटी-छोटी खुशियों में जीता ये मजदूर l
श्रम को बस सम्मान मिले,हर लेंगे हर शूल,
शोषण न हो,अधिकार मिले,दुःख जायेंगे भूल l
स्वरचित
ऋतुराज दवे
कवि जसवंत लाल खटीक
##############
दिहाडी मजदूर हूँ मै ,
मेहनत करके पेट भरना ,
पसीने के संग आखेट करना ।
अपने हक के लिए लड़ता हूँ ,
क्योंकि
मुझे परिवार का पालन पोषण करना ।।
दिनभर की कड़ी मेहनत ,
साथ में कंजूस सेठ की फटकार ।
चन्द पैसो के लिए ,
झगड़ जाते है बीच बाजार ।।
मेरे पसीने की कीमत ,
वो सेठ लगाते है ।
जिनके पसीने तो ,
एसी में ही छुट जाते है ।।
मेहनत का सही मोल ,
मुझे नही मिल पाता है ।
फिर भी मेरा जमीर ,
कभी नही डगमगाता है ।।
पाई-पाई इकट्ठी करके ,
दो जून की रोटी कमाता हूँ ।
लोगो के महल बनाता ,
और खुद झोपडी में जीवन गुजारता हूँ ।।
मेरा दुःख " कवि जसवंत " लिखता ,
हम मजदूरो को हमारा हक दो ।
दुनिया भर की दौलत नही चाहिए ,
हमे तो बस पसीने की कीमत दे दो ।।
##############
दिहाडी मजदूर हूँ मै ,
मेहनत करके पेट भरना ,
पसीने के संग आखेट करना ।
अपने हक के लिए लड़ता हूँ ,
क्योंकि
मुझे परिवार का पालन पोषण करना ।।
दिनभर की कड़ी मेहनत ,
साथ में कंजूस सेठ की फटकार ।
चन्द पैसो के लिए ,
झगड़ जाते है बीच बाजार ।।
मेरे पसीने की कीमत ,
वो सेठ लगाते है ।
जिनके पसीने तो ,
एसी में ही छुट जाते है ।।
मेहनत का सही मोल ,
मुझे नही मिल पाता है ।
फिर भी मेरा जमीर ,
कभी नही डगमगाता है ।।
पाई-पाई इकट्ठी करके ,
दो जून की रोटी कमाता हूँ ।
लोगो के महल बनाता ,
और खुद झोपडी में जीवन गुजारता हूँ ।।
मेरा दुःख " कवि जसवंत " लिखता ,
हम मजदूरो को हमारा हक दो ।
दुनिया भर की दौलत नही चाहिए ,
हमे तो बस पसीने की कीमत दे दो ।।
शीर्षक -"संदेह"
संदेह और शक का कोई इलाज नहीं ,
नारियों को शोषित करने का औजार यही।।
क्यों जग का रिवाज यही,
नारी निकृष्ट है विश्वास यही।।
विश्वास अधूरा नहीं होता!
समर्पण थोड़ा नहीं होता!
क्यों विवाह के सात वचन बेमानी हो जाते ?
शक के रथ पर सवार सब रिश्ते टूट जाते ?
शक तो बुझा हुआ अंगारा होता है।
जो धीरे-धीरे धधकता,
बढ़ाता रहता दूरियां,
हिलाता संबंधों की मिश्री जैसी डलियाँ।।
इंसानियत को भगाकर,
इल्जाम खुद पत्नी पर लगाता ।
चरित्रहीन कभी बनाता,
कभी अग्नि परीक्षा करवाता।।
@ अंशु
संदेह और शक का कोई इलाज नहीं ,
नारियों को शोषित करने का औजार यही।।
क्यों जग का रिवाज यही,
नारी निकृष्ट है विश्वास यही।।
विश्वास अधूरा नहीं होता!
समर्पण थोड़ा नहीं होता!
क्यों विवाह के सात वचन बेमानी हो जाते ?
शक के रथ पर सवार सब रिश्ते टूट जाते ?
शक तो बुझा हुआ अंगारा होता है।
जो धीरे-धीरे धधकता,
बढ़ाता रहता दूरियां,
हिलाता संबंधों की मिश्री जैसी डलियाँ।।
इंसानियत को भगाकर,
इल्जाम खुद पत्नी पर लगाता ।
चरित्रहीन कभी बनाता,
कभी अग्नि परीक्षा करवाता।।
@ अंशु
1/5/2020/शुक्रवार
*भ्रम,संदेह,संशय*
मुक्तक
कैसे दूर हो शिकायत तुम्हारी।
भ्रम तो एक लाईलाज बीमारी।
मर गये इसके सब वैद्य हकीम,
मानो बड़ी है अपनी लाचारी।
इसे मन से जल्दी आप उतारें।
अब नहीं रहने दें अपने द्वारे।
संशय समन नहीं करे बीमारी,
यह दौड़ लगाऐ सदा पिछवारे।
संदेहों के मकड़जाल में रहते।
ऐसे लोग उसी हाल में रहते।
जानबूझ कहीं इसको जो पालें,
वह हमेशा इसी काल में रहते।
सदा सदाचरण हम करते जाऐं।
बस परोपकार में खपते जाऐं।
कोई शक संदेह नहीं घसीटें,
सही राम भजन में रहते जाऐं।
स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र
*भ्रम,संदेह,संशय*
मुक्तक
कैसे दूर हो शिकायत तुम्हारी।
भ्रम तो एक लाईलाज बीमारी।
मर गये इसके सब वैद्य हकीम,
मानो बड़ी है अपनी लाचारी।
इसे मन से जल्दी आप उतारें।
अब नहीं रहने दें अपने द्वारे।
संशय समन नहीं करे बीमारी,
यह दौड़ लगाऐ सदा पिछवारे।
संदेहों के मकड़जाल में रहते।
ऐसे लोग उसी हाल में रहते।
जानबूझ कहीं इसको जो पालें,
वह हमेशा इसी काल में रहते।
सदा सदाचरण हम करते जाऐं।
बस परोपकार में खपते जाऐं।
कोई शक संदेह नहीं घसीटें,
सही राम भजन में रहते जाऐं।
स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र
दिनाँक-1-5-2020
विषय-श्रम का देवता किसान।
विधा-घनाक्षरी
रात-दिन पाये कष्ट फिर भी रहे वो मस्त.
पूरे देश का ही पेट भरता किसान है।
कैसे करे वो गुजारा नहीं रहा कोई चारा.
कर्जे के बोझ से भी डरता किसान है।
डीजल के बढ़े दाम कैसे चले फिर काम.
दुख पूरी दुनिया के हरता किसान है।
फसल को खाद नही बेटी को दामाद नही.
यही सोच-सोच नित मरता किसान है।।
मजदूर दिवस को समर्पित रचना।
रवेन्द्र पाल सिंह'रसिक' मथुरा।
विषय-श्रम का देवता किसान।
विधा-घनाक्षरी
रात-दिन पाये कष्ट फिर भी रहे वो मस्त.
पूरे देश का ही पेट भरता किसान है।
कैसे करे वो गुजारा नहीं रहा कोई चारा.
कर्जे के बोझ से भी डरता किसान है।
डीजल के बढ़े दाम कैसे चले फिर काम.
दुख पूरी दुनिया के हरता किसान है।
फसल को खाद नही बेटी को दामाद नही.
यही सोच-सोच नित मरता किसान है।।
मजदूर दिवस को समर्पित रचना।
रवेन्द्र पाल सिंह'रसिक' मथुरा।
।। रात्रि में दर्द ।।
रात्रि में दर्द छुपा गहराया है।
मदमाया सबको रुलाया है।।
नगरों की चकाचोंध में
किसी को उजियाला
किसी को अँधियारा
दिखलाया है।
रात्रि में दर्द......
उन बच्चों को बेबस बना
मजदूरी का रूप दिखलाया है
आँखो से आँसू टपकाकर
उनका दुःख जतलया है।
रात्रि में दर्द......
जिन हाथों में किताब-कलम होनी थी
हाथों में मजदूरी का टोकरा थमवाया है,
उन कोमल हाथों में छाले देखकर
आँसुओ से अँधियारा दिखलाया है।
रात्रि में दर्द........
सारा दिन काम करवाकर
संसार ने भूखा सुलाया है
बेबस उन निराश आँखो ने
अपना भाग्य दिखलाया है।
रात्रि में दर्द.......
भाविक भावी
रात्रि में दर्द छुपा गहराया है।
मदमाया सबको रुलाया है।।
नगरों की चकाचोंध में
किसी को उजियाला
किसी को अँधियारा
दिखलाया है।
रात्रि में दर्द......
उन बच्चों को बेबस बना
मजदूरी का रूप दिखलाया है
आँखो से आँसू टपकाकर
उनका दुःख जतलया है।
रात्रि में दर्द......
जिन हाथों में किताब-कलम होनी थी
हाथों में मजदूरी का टोकरा थमवाया है,
उन कोमल हाथों में छाले देखकर
आँसुओ से अँधियारा दिखलाया है।
रात्रि में दर्द........
सारा दिन काम करवाकर
संसार ने भूखा सुलाया है
बेबस उन निराश आँखो ने
अपना भाग्य दिखलाया है।
रात्रि में दर्द.......
भाविक भावी
दिनांक - 1-5-2020
विषय - मनपसंद
( श्रमिक दिवस को समर्पित) )
काम छोटा या बड़ा नहीं
काम तो बस काम होता है
काम करने वाला हर शख़्स
एक मज़दूर ही तो होता है ।
वह अपनी क्षमता अनुरूप
बहाता है अपना पसीना
उसके श्रम की बूँदों से
काम सफल और पूर्ण होता है।
वह अपने-अपने स्तर पर
अपने-अपने पद पर आसीन
कर्तव्य बोध जतलाता है ।
स्वीकृत और प्रदत्त कार्य में
स्व निष्ठा मोहर लगाता है ।
मज़दूर बहुत कर्मठ होता है
कर्मयुद्ध का पुरोधा होता है
फ़र्श से अर्श तक जा जाकर
मंज़िल को पहचान लेता है ।
मज़दूर है ज़िम्मेदार नागरिक
उसका भी उतना ही रूतबा
समाज में क़ायम होता है ।
फैक्ट्री, फुटपाथ वाले ही नहीं
हर श्रमबद्ध मज़दूर होता है।
बात महज़ संकीर्णता की है
आओ, आज गर्व से कहें
हाँ, मैं भी एक मज़दूर हूँ
एक नेक,सच्चा कर्मयोगी
हाँ, मैं भी एक मज़दूर हूँ ।
आओ, श्रम का सम्मान करें
खुद का खुद जयगान करें ।
जय जवान जय किसान
जयति जय श्रमिक महान ।
संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
विषय - मनपसंद
( श्रमिक दिवस को समर्पित) )
काम छोटा या बड़ा नहीं
काम तो बस काम होता है
काम करने वाला हर शख़्स
एक मज़दूर ही तो होता है ।
वह अपनी क्षमता अनुरूप
बहाता है अपना पसीना
उसके श्रम की बूँदों से
काम सफल और पूर्ण होता है।
वह अपने-अपने स्तर पर
अपने-अपने पद पर आसीन
कर्तव्य बोध जतलाता है ।
स्वीकृत और प्रदत्त कार्य में
स्व निष्ठा मोहर लगाता है ।
मज़दूर बहुत कर्मठ होता है
कर्मयुद्ध का पुरोधा होता है
फ़र्श से अर्श तक जा जाकर
मंज़िल को पहचान लेता है ।
मज़दूर है ज़िम्मेदार नागरिक
उसका भी उतना ही रूतबा
समाज में क़ायम होता है ।
फैक्ट्री, फुटपाथ वाले ही नहीं
हर श्रमबद्ध मज़दूर होता है।
बात महज़ संकीर्णता की है
आओ, आज गर्व से कहें
हाँ, मैं भी एक मज़दूर हूँ
एक नेक,सच्चा कर्मयोगी
हाँ, मैं भी एक मज़दूर हूँ ।
आओ, श्रम का सम्मान करें
खुद का खुद जयगान करें ।
जय जवान जय किसान
जयति जय श्रमिक महान ।
संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
दिनांक-01/05/2020
विषय-मजदूर
अनंत अस्तबल में बैठा
मेरा मन प्रत्यूर से कहता।
संपूर्ण प्रहार प्रकृति के
मै मजदूर ही क्यों सहता।।
तपता सीना तपती माथा
मजदूर कहता अपनी गाथा।
व्योम मुझी से क्यों थर्रातें
बादल हमसे ही क्यों गुर्राते।
फड़ -फड़ गिरे फूस के छप्पर
खड़-खड़ गिरे घरों के खप्पर
उठते तेज हवा के बवंडर
प्रकृति के झूठे अनुराग इतराते।।
थकी दुपहरी में पीपल पर
कोयल बोलती शून्य स्वरों में
फूल आखिरी ये बसंत के
गिरी मजदूरों के उष्म करो में
मध्य निशा का मैं अभागा
रात्रि के अंतिम प्रहर तक जागा
उखड़ी सांसें थाम -थाम
सुबह दुपहरिया शाम- शाम
बेदर्द वक्त से हार -हार
चाहत मन की मार- मार
ना जाने हम कैसे जीते हैं।।
मेरे हाथों में है छाले
पैरों में पड़ी बिवाई
मेरे ही दमखम से
उनके घरों में है रौनक आई।।
यह रोटी कितनी महंगी है
वो क्या हमें बताएंगे
जिस्म गिरवी रखकर हमने
हर रोटी की कीमत चुकाई है।।
तन दुबला है मेरा
लगता जैसे कंकाल।
वसन है मटमैला मेरा
कंधों पर गमछा रुमाल।।
ओ मंदिरों के बहरे पाषाण
हम ब्रज से तेरी कब्र खोदने आते हैं
हटो हमारे गरीबी की व्योम
मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं।
मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह
प्रयागराज
विषय-मजदूर
अनंत अस्तबल में बैठा
मेरा मन प्रत्यूर से कहता।
संपूर्ण प्रहार प्रकृति के
मै मजदूर ही क्यों सहता।।
तपता सीना तपती माथा
मजदूर कहता अपनी गाथा।
व्योम मुझी से क्यों थर्रातें
बादल हमसे ही क्यों गुर्राते।
फड़ -फड़ गिरे फूस के छप्पर
खड़-खड़ गिरे घरों के खप्पर
उठते तेज हवा के बवंडर
प्रकृति के झूठे अनुराग इतराते।।
थकी दुपहरी में पीपल पर
कोयल बोलती शून्य स्वरों में
फूल आखिरी ये बसंत के
गिरी मजदूरों के उष्म करो में
मध्य निशा का मैं अभागा
रात्रि के अंतिम प्रहर तक जागा
उखड़ी सांसें थाम -थाम
सुबह दुपहरिया शाम- शाम
बेदर्द वक्त से हार -हार
चाहत मन की मार- मार
ना जाने हम कैसे जीते हैं।।
मेरे हाथों में है छाले
पैरों में पड़ी बिवाई
मेरे ही दमखम से
उनके घरों में है रौनक आई।।
यह रोटी कितनी महंगी है
वो क्या हमें बताएंगे
जिस्म गिरवी रखकर हमने
हर रोटी की कीमत चुकाई है।।
तन दुबला है मेरा
लगता जैसे कंकाल।
वसन है मटमैला मेरा
कंधों पर गमछा रुमाल।।
ओ मंदिरों के बहरे पाषाण
हम ब्रज से तेरी कब्र खोदने आते हैं
हटो हमारे गरीबी की व्योम
मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं।
मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह
प्रयागराज
भावो के मोती,
मन पसंद विषय,पर,
चोखा जापानी विधा,
1/जिन्दगानी की,
कहानी मत पूंछ,
शूल ऊगाता,
कोई मेरे राहों में,
पांव शूलों के,
अनुकूल बनाता,
तुमको चाहा,
रिश्तों की डोर बांध,
तुमका मांगा,
अपने ही खातिर,
तेरी आँखों में,
आकर बोलती है,
मेरी गजल,
जो दीवानों में चुप,
जिन्दगानी की,
रवानी मत पूंछ,
तेरे बिन गुजरा।।
मन पसंद विषय,पर,
चोखा जापानी विधा,
1/जिन्दगानी की,
कहानी मत पूंछ,
शूल ऊगाता,
कोई मेरे राहों में,
पांव शूलों के,
अनुकूल बनाता,
तुमको चाहा,
रिश्तों की डोर बांध,
तुमका मांगा,
अपने ही खातिर,
तेरी आँखों में,
आकर बोलती है,
मेरी गजल,
जो दीवानों में चुप,
जिन्दगानी की,
रवानी मत पूंछ,
तेरे बिन गुजरा।।
विषय _ संदेह ।
एक बात सुंदर होना गुनाह था क्या मेरा।
माँ कहती घर में रहे भाई कहते बंधन में रहो।
क्या था ये संदेह।संदेह शक की वजह।
मैं विदधालय जाए पापा संग जाए
और इधर उधर मत देखो क्या है ये
संदेह हां निसंदेह ।
पति घर आई देवर संग जरा हंस दी।
उसी रात पिटाई ।
घुंघट का बंधन न हंसना किसी के संग
क्या था ये संदेह और शक ।
एक रोज संदेह मन पर भरी हुआ पति के मन।
जन्मदिवस था मेरा बन बैठी दुल्हन ।
दमक रहा था चेहरा मेरा।
तोहफ़ा मेरा तेजाबी बोतल
लो छिडक दिया मुझ पर संदेह में आकर।
संदेह ने असपताल पहुँचा दिया।
मरने को बेबस कर दिया।
संदेह का इलाज नही।
सुंदर होना संदेह पर भारी।
सवरचित
एक वेदना नारी की।
पूनम कपरवान ।
देहरादन ।
उत्तराखंड ।
एक बात सुंदर होना गुनाह था क्या मेरा।
माँ कहती घर में रहे भाई कहते बंधन में रहो।
क्या था ये संदेह।संदेह शक की वजह।
मैं विदधालय जाए पापा संग जाए
और इधर उधर मत देखो क्या है ये
संदेह हां निसंदेह ।
पति घर आई देवर संग जरा हंस दी।
उसी रात पिटाई ।
घुंघट का बंधन न हंसना किसी के संग
क्या था ये संदेह और शक ।
एक रोज संदेह मन पर भरी हुआ पति के मन।
जन्मदिवस था मेरा बन बैठी दुल्हन ।
दमक रहा था चेहरा मेरा।
तोहफ़ा मेरा तेजाबी बोतल
लो छिडक दिया मुझ पर संदेह में आकर।
संदेह ने असपताल पहुँचा दिया।
मरने को बेबस कर दिया।
संदेह का इलाज नही।
सुंदर होना संदेह पर भारी।
सवरचित
एक वेदना नारी की।
पूनम कपरवान ।
देहरादन ।
उत्तराखंड ।
विषय _मन पसंद
दिनांक 1/5/2020
जिंदगी
हम हंसते हैं तो
हंसती है जिंदगी,
सच में आईना है जिंदगी
हमारा ही अक्स
दिखातीहै जिंदगी।
रोओगे तो रुलाएगी जिंदगी।
ले ले के एक ही तो
मिली है जिंदगी।
बनो एक मिसाल कि
बेमिसाल बन जाए जिंदगी।
तुम जमाने के साथ नहीं
जमाना तुम्हारे साथ चले
हिम्मते मदद ,मददे खुदा है जिंदगी।
कर लो दुनियां मुट्ठी में तो
दुनियां तुम्हारी है ।
तुम जैसा बनोगे
वैसी होगी जिंदगी
हंसते हैं तो हंसती है जिंदगी।
सच में आईना है जिंदगी
हमारा हीअक्स दिखाती है जिंदगी।।
माधुरी मिश्र।
साहित्यकार जमशेदपुर झारखंड
दिनांक 1/5/2020
जिंदगी
हम हंसते हैं तो
हंसती है जिंदगी,
सच में आईना है जिंदगी
हमारा ही अक्स
दिखातीहै जिंदगी।
रोओगे तो रुलाएगी जिंदगी।
ले ले के एक ही तो
मिली है जिंदगी।
बनो एक मिसाल कि
बेमिसाल बन जाए जिंदगी।
तुम जमाने के साथ नहीं
जमाना तुम्हारे साथ चले
हिम्मते मदद ,मददे खुदा है जिंदगी।
कर लो दुनियां मुट्ठी में तो
दुनियां तुम्हारी है ।
तुम जैसा बनोगे
वैसी होगी जिंदगी
हंसते हैं तो हंसती है जिंदगी।
सच में आईना है जिंदगी
हमारा हीअक्स दिखाती है जिंदगी।।
माधुरी मिश्र।
साहित्यकार जमशेदपुर झारखंड
1-5-20:मजदूर दिवस
स्वपसंद -
#मजदूर दिवस पर ग़ज़ल-
22 22 22 22
---
व्याकुल प्राण पुकार रहे हैं।
निशदिन राह निहार रहे हैं।-1
-
तुम तो बैठे हो महलों में
करते हम बेगार रहे हैं।-2
-
तुमने खायी मेवा मिश्री
हम भूखे मन मार रहे हैं।-3
-
पिज़्ज़ा बर्गर मक्खन रोटी
लख टपकाते लार रहे हैं।-4
-
भरकर पेट मिले रोटी कब
दोनों जून प्रहार रहे हैं।-5
-
तुम मद के सिंहासन बैठे
हम कितने लाचार रहे हैं।-6
-
जन्म तुम्हारा सफल हुआ है,
हम धरती पर भार रहे हैं।-7
-
भूख न जानी तुमने अपनी
भूख से' हम बेज़ार रहे हैं।-8
-
कूड़े की ढेरी पर बैठे
जूठे कौर निहार रहे हैं।-9
-------
DrHem Lata
Agra
स्वपसंद -
#मजदूर दिवस पर ग़ज़ल-
22 22 22 22
---
व्याकुल प्राण पुकार रहे हैं।
निशदिन राह निहार रहे हैं।-1
-
तुम तो बैठे हो महलों में
करते हम बेगार रहे हैं।-2
-
तुमने खायी मेवा मिश्री
हम भूखे मन मार रहे हैं।-3
-
पिज़्ज़ा बर्गर मक्खन रोटी
लख टपकाते लार रहे हैं।-4
-
भरकर पेट मिले रोटी कब
दोनों जून प्रहार रहे हैं।-5
-
तुम मद के सिंहासन बैठे
हम कितने लाचार रहे हैं।-6
-
जन्म तुम्हारा सफल हुआ है,
हम धरती पर भार रहे हैं।-7
-
भूख न जानी तुमने अपनी
भूख से' हम बेज़ार रहे हैं।-8
-
कूड़े की ढेरी पर बैठे
जूठे कौर निहार रहे हैं।-9
-------
DrHem Lata
Agra
परेशानी हो या आँधी हो दिन रात श्रम करते हैं।
बोझा सर पे लेकर चलते श्रमिक नहीं थकते हैं।।
ग़रीबी कहो या लाचारी , किस्मत की है मारी ।
तपते तन ,जलते मन व दिल में दर्द रहे भारी ।।
मन से कठोर होकर , मेहनत दिन रात करते हैं ।
बोझा सर पे लेकर चलते श्रमिक नहीं थकते हैं।।
सुलगती साँसें ,मचलता मन छुटते पसीने से ।
चमकता उनका तन ,पाँव के छाले महीने से ।।
आह न निकलती कांटे पाँवों में रोज चुभते हैं ।
बोझा सर पे लेकर चलते श्रमिक नहीं थकते हैं।।
परिवार पालते हैं हर दर्द को सीने से जकड़ते हैं।
सिसकियों को दबाकर वो रोज खुद से लड़ते हैं।।
पसीना बहता है तन से आँखों से आँसू बहते हैं ।
बोझा सर पे लेकर चलते श्रमिक नहीं थकते हैं।।
मौसम भी जब दगा दे जाता आँधी व तुफान से।
आँखों में नमी लेकर वह कहता है भगवान से ।।
भरी गर्मी हो या दुपहरी कभी नहीं वो रुकते हैं ।
बोझा सर पे लेकर चलते श्रमिक नहीं थकते हैं।।
निक्की शर्मा रश्मि
मुम्बई
बोझा सर पे लेकर चलते श्रमिक नहीं थकते हैं।।
ग़रीबी कहो या लाचारी , किस्मत की है मारी ।
तपते तन ,जलते मन व दिल में दर्द रहे भारी ।।
मन से कठोर होकर , मेहनत दिन रात करते हैं ।
बोझा सर पे लेकर चलते श्रमिक नहीं थकते हैं।।
सुलगती साँसें ,मचलता मन छुटते पसीने से ।
चमकता उनका तन ,पाँव के छाले महीने से ।।
आह न निकलती कांटे पाँवों में रोज चुभते हैं ।
बोझा सर पे लेकर चलते श्रमिक नहीं थकते हैं।।
परिवार पालते हैं हर दर्द को सीने से जकड़ते हैं।
सिसकियों को दबाकर वो रोज खुद से लड़ते हैं।।
पसीना बहता है तन से आँखों से आँसू बहते हैं ।
बोझा सर पे लेकर चलते श्रमिक नहीं थकते हैं।।
मौसम भी जब दगा दे जाता आँधी व तुफान से।
आँखों में नमी लेकर वह कहता है भगवान से ।।
भरी गर्मी हो या दुपहरी कभी नहीं वो रुकते हैं ।
बोझा सर पे लेकर चलते श्रमिक नहीं थकते हैं।।
निक्की शर्मा रश्मि
मुम्बई
दिनांक-१-५-२०शुक्रवार
आयोजन - मनपसंद~ कविता ~
~•~
जिसमे है सुख उसमे है दुख हुई पूरी नहीं पिपासा है।
कुदरत का गजब तमाशा है कुदरत का गजब तमाशा है।
गर्मी में लूह बरसता है बरसे सर्दी में बर्फ कहीं,
कारण सूरज को मानें क्यों है दिखता कोई तर्क नहीं।
ना डूबे वो ना निकले वो ना घटता बढता ताप कभी,
सर्दी में गिरता ओष-धुन्ध गर्मी में उड़ता भाप कभी।
प्रकिर्त प्रेम है दोनों में मौसम की अपनी भाषा है,
कुदरत का गजब तमाशा है कुदरत का गजब तमाशा है।
सूरज स्थाई रहता है द्विय गति से धरती चलती है,
मौसम तभी बदलता है जब धरती जगह बदलती है।
कहता विज्ञान है कहते जो दादा-दादी नाना-नानी है,
दिन और रात,रात और दिन धरती से बनी कहानी है,
इसरो,रसिया, नासा चीन भी करता यही खुलासा है,
कुदरत का गजब तमाशा है कुदरत का गजब तमाशा है।
सन्तोष परदेशी
आयोजन - मनपसंद~ कविता ~
~•~
जिसमे है सुख उसमे है दुख हुई पूरी नहीं पिपासा है।
कुदरत का गजब तमाशा है कुदरत का गजब तमाशा है।
गर्मी में लूह बरसता है बरसे सर्दी में बर्फ कहीं,
कारण सूरज को मानें क्यों है दिखता कोई तर्क नहीं।
ना डूबे वो ना निकले वो ना घटता बढता ताप कभी,
सर्दी में गिरता ओष-धुन्ध गर्मी में उड़ता भाप कभी।
प्रकिर्त प्रेम है दोनों में मौसम की अपनी भाषा है,
कुदरत का गजब तमाशा है कुदरत का गजब तमाशा है।
सूरज स्थाई रहता है द्विय गति से धरती चलती है,
मौसम तभी बदलता है जब धरती जगह बदलती है।
कहता विज्ञान है कहते जो दादा-दादी नाना-नानी है,
दिन और रात,रात और दिन धरती से बनी कहानी है,
इसरो,रसिया, नासा चीन भी करता यही खुलासा है,
कुदरत का गजब तमाशा है कुदरत का गजब तमाशा है।
सन्तोष परदेशी
तिथिः *वैशाख शुक्ल अष्टमी*
नमन मंचः *भावों के मोती*
दैनिक विषयः *मनपसंद*
विधाः *लघू कहानी*
शीर्षकः *नीला गीदड़ा*
(१) एक गीदड़ घुस गया गाँव में
गाँव में एक धोबी का घर था
कढाई में नील भिगोया था
गिदड़ा गिरा कढाई में
गीदड़ा हो गया नीला
(२) गीदड़ा था बेचैन
भाग चला जंगल की ओर
नीले रंग का प्राणी देखा
डर गए जंगल के गीदड़
(३)नीला गीदड़ भाँप गया था
ये नीला रंग विशेष है
शेर का शागिर्द बताया
अब रौब था नीले गिदड़े का
(४)अपनों से ही बैर ठान लिया
खुद का राज छुपा लिया
जंगल के गीदड़ बेहाल थे
नीले गीदड़ का जुलम बहुत था
(५)जंगल के गीदड़ों ने ठान लिया था
नीले की खोलेंगे पोल
सभा बुलाई सब गीदड़ों ने
सभापति बनाया महाराज शेर को
(६)गीदड़ों की सभा में नाच गान हुआ
हुकि हू, हुकि हू, हुकि हू, हुकि हू
रूक नही पाया नीला गीदड़ा
नीला गीदड़ भी बोल उठा
हुकि हू, हुकि हू, हुकि हू, हुकि हू
(७)खुल गई पोल नीले गीदड़े की
शेर ने उसे दबोच लिया
ये बदला था महापाप का
अपनों को दिए संताप का
(८)नीला गीदड़ बन गया निवाला
निकल गया सब नीला काला
कोई अपनी पहचान छुपाकर
कोई अपनों पर ही जुलम करेगा
जैसे नीला गीदड़ा मर गया
ऐसे ही बेमौत मरेगा,
~~~~~~~~~~~~~~~~~
इस कहानी का विचार पंचतंत्र की एक कहानी से लिया गया है, उपरोक्त रचना को मैनें केवल सीमित शब्दों में अपने तरीके से व्यक्त किया है।
~~~~~~~~~~~~~~~
मंगलसैन डेढ़ा 'निर्गुर'
नई दिल्ली
जयहिंद
नमन मंचः *भावों के मोती*
दैनिक विषयः *मनपसंद*
विधाः *लघू कहानी*
शीर्षकः *नीला गीदड़ा*
(१) एक गीदड़ घुस गया गाँव में
गाँव में एक धोबी का घर था
कढाई में नील भिगोया था
गिदड़ा गिरा कढाई में
गीदड़ा हो गया नीला
(२) गीदड़ा था बेचैन
भाग चला जंगल की ओर
नीले रंग का प्राणी देखा
डर गए जंगल के गीदड़
(३)नीला गीदड़ भाँप गया था
ये नीला रंग विशेष है
शेर का शागिर्द बताया
अब रौब था नीले गिदड़े का
(४)अपनों से ही बैर ठान लिया
खुद का राज छुपा लिया
जंगल के गीदड़ बेहाल थे
नीले गीदड़ का जुलम बहुत था
(५)जंगल के गीदड़ों ने ठान लिया था
नीले की खोलेंगे पोल
सभा बुलाई सब गीदड़ों ने
सभापति बनाया महाराज शेर को
(६)गीदड़ों की सभा में नाच गान हुआ
हुकि हू, हुकि हू, हुकि हू, हुकि हू
रूक नही पाया नीला गीदड़ा
नीला गीदड़ भी बोल उठा
हुकि हू, हुकि हू, हुकि हू, हुकि हू
(७)खुल गई पोल नीले गीदड़े की
शेर ने उसे दबोच लिया
ये बदला था महापाप का
अपनों को दिए संताप का
(८)नीला गीदड़ बन गया निवाला
निकल गया सब नीला काला
कोई अपनी पहचान छुपाकर
कोई अपनों पर ही जुलम करेगा
जैसे नीला गीदड़ा मर गया
ऐसे ही बेमौत मरेगा,
~~~~~~~~~~~~~~~~~
इस कहानी का विचार पंचतंत्र की एक कहानी से लिया गया है, उपरोक्त रचना को मैनें केवल सीमित शब्दों में अपने तरीके से व्यक्त किया है।
~~~~~~~~~~~~~~~
मंगलसैन डेढ़ा 'निर्गुर'
नई दिल्ली
जयहिंद
1/5/2020
बिषय स्वतंत्र लेखन
जो दिन रात मेहनत कर खून पसीना बहाते हैं
भरी दुपहरी या हो शीत तनिक नहीं घबराते हैं
कभी ओले पानी की मार
कभी पाला कभी कीटाणु की भरमार
हो जाता है कभी कभी इस मौसम से लाचार
कभी नहीं हो पाते इनके सपने साकार
निरंतर लड़ता रहता एक विश्वास के साथ
फिर भी नहीं आ पाता कुछ भी हाथ
हम जो भोजन कर रहे किसान की बदौलत
उसके लिए तो बस पसीना ही उसकी दौलत
किसान नहीं तो हम भूखे ही मर जाऐंगे
दो वक्त की चैन से रोटी भी न खा पाएंगे
स्वरचित सुषमा ब्यौहार
बिषय स्वतंत्र लेखन
जो दिन रात मेहनत कर खून पसीना बहाते हैं
भरी दुपहरी या हो शीत तनिक नहीं घबराते हैं
कभी ओले पानी की मार
कभी पाला कभी कीटाणु की भरमार
हो जाता है कभी कभी इस मौसम से लाचार
कभी नहीं हो पाते इनके सपने साकार
निरंतर लड़ता रहता एक विश्वास के साथ
फिर भी नहीं आ पाता कुछ भी हाथ
हम जो भोजन कर रहे किसान की बदौलत
उसके लिए तो बस पसीना ही उसकी दौलत
किसान नहीं तो हम भूखे ही मर जाऐंगे
दो वक्त की चैन से रोटी भी न खा पाएंगे
स्वरचित सुषमा ब्यौहार
तिथि-01/05/2020
विषय- मनपसंद
'मजदूर'
******
जिसके सर पर छत है खुले आकाश का,होता रहता वज्रपात,
फिर भी वह आत्मविश्वास से लबरेज है , वह है मजदूर।
कंधों पर सपनों का बोझ ढो रहा, चला जा रहा मंजिल है दूर,
अपने पसीने से भूमि सींचता,है श्रम से थक कर है वह चूर।
अपने हथौड़े से करता एक-एक प्रहार,रखता जाता एक- एक ईंट,
अपने श्रम से लोगों की इच्छाओं के महल निर्माण करने में मशगूल।
है पसीने से लथपथ,करता जा रहा मेहनत भर दोपहर,
काम करने में है वो तल्लीन,बच्चा रो रहा है कहीं दूर।
खून पसीना बहा कर भी वह पाता नहीं मजदूरी भरपूर,
खून चूसते मिल मालिक बनाने में अपने महल मशगूल।
खा गये उसके यौवन;जीवन क्षुधा,चिंता,दीनता,क्लेश से भरपूर,
फिर भी उसके जीवन में सुख-दुख का बजता संगीत,वह।
नहीं वह मजबूर।
वह गुलाम नहीं किसी का,फैलाता नहीं हाथ,अपने दम पर जीता है,
चला जा रहा अपने श्रम पथ पर वो कोई नहीं वो है मजदूर।
जीवन में सफलता का कण नहीं, उसकी मंजिल है दूर,
फिर भी चेहरे पर है आत्मसंतुष्टी और श्रम स्वेद का नूर।
थक कर लौटा सांझ को वो अपने घर बांधे प्रीती भरपूर,
बच्चे उससे लिपट जाते, गृहस्वामिनी भी खड़ी कर जोड़।
दिन भर की थकान मिटती उन्मुक्त हँसी में भूले मिल की खड़-खड़,
अपने परिवार के संग हँसते-खेलते जीवन जीते भरपूर।
अनिता निधि
जमशेदपुर,झारखंड
विषय- मनपसंद
'मजदूर'
******
जिसके सर पर छत है खुले आकाश का,होता रहता वज्रपात,
फिर भी वह आत्मविश्वास से लबरेज है , वह है मजदूर।
कंधों पर सपनों का बोझ ढो रहा, चला जा रहा मंजिल है दूर,
अपने पसीने से भूमि सींचता,है श्रम से थक कर है वह चूर।
अपने हथौड़े से करता एक-एक प्रहार,रखता जाता एक- एक ईंट,
अपने श्रम से लोगों की इच्छाओं के महल निर्माण करने में मशगूल।
है पसीने से लथपथ,करता जा रहा मेहनत भर दोपहर,
काम करने में है वो तल्लीन,बच्चा रो रहा है कहीं दूर।
खून पसीना बहा कर भी वह पाता नहीं मजदूरी भरपूर,
खून चूसते मिल मालिक बनाने में अपने महल मशगूल।
खा गये उसके यौवन;जीवन क्षुधा,चिंता,दीनता,क्लेश से भरपूर,
फिर भी उसके जीवन में सुख-दुख का बजता संगीत,वह।
नहीं वह मजबूर।
वह गुलाम नहीं किसी का,फैलाता नहीं हाथ,अपने दम पर जीता है,
चला जा रहा अपने श्रम पथ पर वो कोई नहीं वो है मजदूर।
जीवन में सफलता का कण नहीं, उसकी मंजिल है दूर,
फिर भी चेहरे पर है आत्मसंतुष्टी और श्रम स्वेद का नूर।
थक कर लौटा सांझ को वो अपने घर बांधे प्रीती भरपूर,
बच्चे उससे लिपट जाते, गृहस्वामिनी भी खड़ी कर जोड़।
दिन भर की थकान मिटती उन्मुक्त हँसी में भूले मिल की खड़-खड़,
अपने परिवार के संग हँसते-खेलते जीवन जीते भरपूर।
अनिता निधि
जमशेदपुर,झारखंड
कुछ सपने
एक माँ का लाल परदेस गया, मजदूरी तलाश में।
मन कुछ अरमान लिए,और भटक गया जहान में।
नहीं उसके सपने बड़े,बस कुछ ही छोटे-छोटे देखें,
दो रोटी मिलना मुश्किल,वो नादां खोया ख्याल में।
कठिन परिश्रम दिन भर करता,भूखा सोता रात में।
कल का दिन अच्छा होगा, वो उठता इसी आस में।
आने वाली हर बाधा को,दर किनार सदा करता वो।
एक काम बनता कभी ,उसे नसीब समझ लेता वो।
फटी रजाई तारे गिनता,उसमें भी खुश रह लेता वो।
महल देख कभी कभी, खो जाता नादां सपनों में।
मेहनत दिन-रात करता,और श्रमिक बन जीता वो।
पर चोरी अन्याय की राह,भूल कभी ना जाता वो।
कहे वीणा पाएगा मंजिल ,विश्वास माँ आशीष में।
कभी तो होंगे सपने पूरे,जी रहा वो इसी उम्मीद में।
वीणा वैष्णव"रागिनी"
राजसमंद
एक माँ का लाल परदेस गया, मजदूरी तलाश में।
मन कुछ अरमान लिए,और भटक गया जहान में।
नहीं उसके सपने बड़े,बस कुछ ही छोटे-छोटे देखें,
दो रोटी मिलना मुश्किल,वो नादां खोया ख्याल में।
कठिन परिश्रम दिन भर करता,भूखा सोता रात में।
कल का दिन अच्छा होगा, वो उठता इसी आस में।
आने वाली हर बाधा को,दर किनार सदा करता वो।
एक काम बनता कभी ,उसे नसीब समझ लेता वो।
फटी रजाई तारे गिनता,उसमें भी खुश रह लेता वो।
महल देख कभी कभी, खो जाता नादां सपनों में।
मेहनत दिन-रात करता,और श्रमिक बन जीता वो।
पर चोरी अन्याय की राह,भूल कभी ना जाता वो।
कहे वीणा पाएगा मंजिल ,विश्वास माँ आशीष में।
कभी तो होंगे सपने पूरे,जी रहा वो इसी उम्मीद में।
वीणा वैष्णव"रागिनी"
राजसमंद
शुक्रवार दिनांक 1/5/2020
विषय मनपसंद
मजदूर दिवस पर मेरी स्वरचित रचना है।
कर्म प्रधान विश्व करि रखा
कर्म ,अलग अलग कर्म ,
रोजी रोटी के लिए कर्म
पढ़ाई का कर्म
कर्म ही धर्म है
कर्म होगा तो
फल भी मिलेगा
मजदूरी काहे की मजदूरी
काम करते है
पैसा पाते है
परिवार चलाते है
विश्वकर्मा भी कर्म किये
उन्होंने तो नहीं कहा कि
हम मजदूर है।
यदि बिना मुद्रा के श्रम करते है तो
श्रमदान कहते है।
मजदूरी मजदूरी
लगता है मजबूरी !
जाके पूछो उनसे
जिनको मिलता नहीं काम
लगे है लम्बी कतारों में
इंतजार में है कब मिलेगा काम
कर्म करना हमारा कर्म है ।
हम कर्म करते है उसके
फलस्वरूप पैसा मिलता है
चलता है घर परिवार हमारा ।
।डा., इंजीनियर, पुलिस,दारोगा
शिक्षक ,नेता सब करते है अपना कर्म
सबके अपने अपने कर्म है
ना कोई बड़ा,
ना कोई छोटा
सबका कर्म महान है
सबका कर्म परिहार है।
जमादार हो या शिक्षक
धोबी हो या हो पंडित
कितना कुछ गिनाऊं भाई
जाने सकल जहान है ।
सबका अपना अपना कर्म है ।
सबका कर्म महान है।
हर कर्म को करें सम्मान
यही सत्कर्म है।
माधुरी मिश्र साहित्यकार
जमशेदपुर झारखंड।
विषय मनपसंद
मजदूर दिवस पर मेरी स्वरचित रचना है।
कर्म प्रधान विश्व करि रखा
कर्म ,अलग अलग कर्म ,
रोजी रोटी के लिए कर्म
पढ़ाई का कर्म
कर्म ही धर्म है
कर्म होगा तो
फल भी मिलेगा
मजदूरी काहे की मजदूरी
काम करते है
पैसा पाते है
परिवार चलाते है
विश्वकर्मा भी कर्म किये
उन्होंने तो नहीं कहा कि
हम मजदूर है।
यदि बिना मुद्रा के श्रम करते है तो
श्रमदान कहते है।
मजदूरी मजदूरी
लगता है मजबूरी !
जाके पूछो उनसे
जिनको मिलता नहीं काम
लगे है लम्बी कतारों में
इंतजार में है कब मिलेगा काम
कर्म करना हमारा कर्म है ।
हम कर्म करते है उसके
फलस्वरूप पैसा मिलता है
चलता है घर परिवार हमारा ।
।डा., इंजीनियर, पुलिस,दारोगा
शिक्षक ,नेता सब करते है अपना कर्म
सबके अपने अपने कर्म है
ना कोई बड़ा,
ना कोई छोटा
सबका कर्म महान है
सबका कर्म परिहार है।
जमादार हो या शिक्षक
धोबी हो या हो पंडित
कितना कुछ गिनाऊं भाई
जाने सकल जहान है ।
सबका अपना अपना कर्म है ।
सबका कर्म महान है।
हर कर्म को करें सम्मान
यही सत्कर्म है।
माधुरी मिश्र साहित्यकार
जमशेदपुर झारखंड।
विषय -मनपसंद
दिनांक -01/05 /2020
मजदूर"
लगा वो कर्मरत में निरंतर...
हाथों में लेकर छीनी ,हथौड़ी
पत्थर पर करता प्रहार बार-बार
सिर पर पगड़ी माथे पर पसीना,
गमछे से पोछता वो बार-बार
करता प्रहार बार-बार।
जाड़ा गर्मी बरसात सहता
तपती जेठ दुपहरी सहता
सूखी काया लेकर चलता
श्रमिक श्रम दिन-रात करता
न शिकवा कोई तन से है
न शिकायत कोई जग से है
लगा रहता कर्म पथ में निरंतर.....।
सिर पर रखे ईटों का बोझा
महलों का करता निर्माण
रच -रच कारीगरी वो करता
महलों को देता सुंदर आकार
रूखी सूखी रोटी वो खाता
झोपड़ी में करता विश्राम
लगा कर्म रत में निरंतर......।
हंसता और मुस्कुराता रहता
दो रोटी की आस लिए
लगा रहता कर्म रत में निरंतर
चलता रहता कर्म पथ पर निरंतर..।।
स्वरचित, मौलिक रचना
रंजना सिंह
प्रयागराज
दिनांक -01/05 /2020
मजदूर"
लगा वो कर्मरत में निरंतर...
हाथों में लेकर छीनी ,हथौड़ी
पत्थर पर करता प्रहार बार-बार
सिर पर पगड़ी माथे पर पसीना,
गमछे से पोछता वो बार-बार
करता प्रहार बार-बार।
जाड़ा गर्मी बरसात सहता
तपती जेठ दुपहरी सहता
सूखी काया लेकर चलता
श्रमिक श्रम दिन-रात करता
न शिकवा कोई तन से है
न शिकायत कोई जग से है
लगा रहता कर्म पथ में निरंतर.....।
सिर पर रखे ईटों का बोझा
महलों का करता निर्माण
रच -रच कारीगरी वो करता
महलों को देता सुंदर आकार
रूखी सूखी रोटी वो खाता
झोपड़ी में करता विश्राम
लगा कर्म रत में निरंतर......।
हंसता और मुस्कुराता रहता
दो रोटी की आस लिए
लगा रहता कर्म रत में निरंतर
चलता रहता कर्म पथ पर निरंतर..।।
स्वरचित, मौलिक रचना
रंजना सिंह
प्रयागराज
दिनांक - 1,5,2020
दिन - शुक्रवार
विषय - मन पसंद लेखन ( धरती की गोद में)
प्रथम प्रस्तुति -
यहाँ जन्म लेते अमीर गरीब सब ,
पलते सभी हैं धरती की गोद में।
पानी, पदार्थ कई , खाद्य सामग्री,
साधन सभी हैं धरती की गोद में।
नहीं भेदभाव, दिखे है समानता ,
सही स्वराज्य है धरती की गोद में।
दानी महात्मा पापी आततायी ,
सुर असुर सब हैं धरती की गोद में।
भलाई अधिक है और कम है बुराई ,
जिंदा तभी हैं धरती की गोद में ।
मिटायें बुराई हम रखें सफाई ,
रहना अगर है धरती की गोद में ।
स्वरचित , मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश .
दिन - शुक्रवार
विषय - मन पसंद लेखन ( धरती की गोद में)
प्रथम प्रस्तुति -
यहाँ जन्म लेते अमीर गरीब सब ,
पलते सभी हैं धरती की गोद में।
पानी, पदार्थ कई , खाद्य सामग्री,
साधन सभी हैं धरती की गोद में।
नहीं भेदभाव, दिखे है समानता ,
सही स्वराज्य है धरती की गोद में।
दानी महात्मा पापी आततायी ,
सुर असुर सब हैं धरती की गोद में।
भलाई अधिक है और कम है बुराई ,
जिंदा तभी हैं धरती की गोद में ।
मिटायें बुराई हम रखें सफाई ,
रहना अगर है धरती की गोद में ।
स्वरचित , मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश .
विषय: मनपसंद विषय लेखन
विधा : कविता
तिथि : 1.5.2020
मज़दूर
--------
मैं भी हूं मज़दूर-
कलम का मज़दूर,
दिन रात रहता हूं-
लिखने में मशगूल।
शब्दों के चित्र बनाता हूं-
भावों को आकार में लाता हूं,
कलम की मज़दूरी कर मैं-
रूखा सूखा खाता हूं।
कभी उपन्यास का भवन-
कभी कहानी का मकान बनाता हूं,
कभी लघुकथा की झग्गी-
कभी काव्य लहर बहाता हूं।
मेरा मान करो न करो
मेरी कलम का मान करो भरपूर,
कलम का मैं पुजारी हूं
कहलाता हूं कलम का मज़दूर।
-रीता ग्रोवर
-स्वरचित
विधा : कविता
तिथि : 1.5.2020
मज़दूर
--------
मैं भी हूं मज़दूर-
कलम का मज़दूर,
दिन रात रहता हूं-
लिखने में मशगूल।
शब्दों के चित्र बनाता हूं-
भावों को आकार में लाता हूं,
कलम की मज़दूरी कर मैं-
रूखा सूखा खाता हूं।
कभी उपन्यास का भवन-
कभी कहानी का मकान बनाता हूं,
कभी लघुकथा की झग्गी-
कभी काव्य लहर बहाता हूं।
मेरा मान करो न करो
मेरी कलम का मान करो भरपूर,
कलम का मैं पुजारी हूं
कहलाता हूं कलम का मज़दूर।
-रीता ग्रोवर
-स्वरचित
मनपसंद आयोजन
खत्म सी हो गई थी
जीने की आस
सुहाता था ना कुछ भी
ना आता था कुछ रास
टूटा था दिल कुछ इस तरह
कि नही लगता था कही भी मन
भाने लगा था मुझे अकेला पन
फिर एक दिन
महकते फूलों पर
तितलियों को मंडराते देखा
नील गगन में
चिड़ियों को चहकते देखा
मगन सब अपनी ही धुन मे
ना खोने का डर ना टूटने का गम
देख प्रकृति का सुंदर नज़ारा
खुद को मैंने आईने मे निहारा
सुनी सदा अंतरात्मा की
जो कह रही थी मुझसे बार बार
रह गए दिन ज़िंदगी के थोड़े
कर ले खुद से प्यार
स्वरचित
सूफिया ज़ैदी
खत्म सी हो गई थी
जीने की आस
सुहाता था ना कुछ भी
ना आता था कुछ रास
टूटा था दिल कुछ इस तरह
कि नही लगता था कही भी मन
भाने लगा था मुझे अकेला पन
फिर एक दिन
महकते फूलों पर
तितलियों को मंडराते देखा
नील गगन में
चिड़ियों को चहकते देखा
मगन सब अपनी ही धुन मे
ना खोने का डर ना टूटने का गम
देख प्रकृति का सुंदर नज़ारा
खुद को मैंने आईने मे निहारा
सुनी सदा अंतरात्मा की
जो कह रही थी मुझसे बार बार
रह गए दिन ज़िंदगी के थोड़े
कर ले खुद से प्यार
स्वरचित
सूफिया ज़ैदी
विषय-मनपसंद
(मजदूर दिवस पर)
मैं मजदूर हूँ मेहनत कश,
मेहनत करना मेरा कर्म है।
पसीने की कमाई खाता हूँ,
मेरा कर्म ही तो मेरा धर्म है।
अपनी मेहनत से मैं तो ,
श्रम के फूल खिलाता हूँ।
जीने की मौलिक आवश्यकता,
सबको मैं समझाता हूंँ।
सभी काम हैं निर्भर मुझ पर,
मैं उद्योगों की बुनियाद हूंँ।
बनाकर महलों को मैं तो,
झोपड़ी में ही आबाद हूंँ।
शोषित हूँ पर चिंता नहीं है ,
निर्धन हालातों से मजबूर हूंँ।
कोई गम नहीं फिर भी मुझको,
मैं मेहनत कस मजदूर हूंँ।
आशा शुक्ला
शाहजहांपुर, उत्तरप्रदेश
(मजदूर दिवस पर)
मैं मजदूर हूँ मेहनत कश,
मेहनत करना मेरा कर्म है।
पसीने की कमाई खाता हूँ,
मेरा कर्म ही तो मेरा धर्म है।
अपनी मेहनत से मैं तो ,
श्रम के फूल खिलाता हूँ।
जीने की मौलिक आवश्यकता,
सबको मैं समझाता हूंँ।
सभी काम हैं निर्भर मुझ पर,
मैं उद्योगों की बुनियाद हूंँ।
बनाकर महलों को मैं तो,
झोपड़ी में ही आबाद हूंँ।
शोषित हूँ पर चिंता नहीं है ,
निर्धन हालातों से मजबूर हूंँ।
कोई गम नहीं फिर भी मुझको,
मैं मेहनत कस मजदूर हूंँ।
आशा शुक्ला
शाहजहांपुर, उत्तरप्रदेश
1/4/20
खामोश है खुदा भी
प्रार्थना का जिक्र भी
बंधी आस आसरो की।
उम्मीद पोटली की।
अंतहीन दायरे है।
सूनी पड़ी राहे है।
गुमशुम से है ताके।
गुमशुदा से है झांके।
अनजान भ्रम उपजे।
शंकित भाव जागे।
वक्त उलझा उलझा।
न करते किसी से साझा।
सिमटी सी जिंदगी है।
अजीब बन्दगी है।
न दिखे कोई परछाई।
उदासी गजब है छाई।
युगों तक होगी चरचा।
संदेह मौत वर्षा।
छिप बैठे नन्हे परिंदे।
भरते कुलांचे हँसते।
किलकारियां खो गई है।
पिंजरे में बंद होकर।
स्वरचित
मीना तिवारी
खामोश है खुदा भी
प्रार्थना का जिक्र भी
बंधी आस आसरो की।
उम्मीद पोटली की।
अंतहीन दायरे है।
सूनी पड़ी राहे है।
गुमशुम से है ताके।
गुमशुदा से है झांके।
अनजान भ्रम उपजे।
शंकित भाव जागे।
वक्त उलझा उलझा।
न करते किसी से साझा।
सिमटी सी जिंदगी है।
अजीब बन्दगी है।
न दिखे कोई परछाई।
उदासी गजब है छाई।
युगों तक होगी चरचा।
संदेह मौत वर्षा।
छिप बैठे नन्हे परिंदे।
भरते कुलांचे हँसते।
किलकारियां खो गई है।
पिंजरे में बंद होकर।
स्वरचित
मीना तिवारी
नमन मंच
विषय स्वतंत्र
शीर्षक "श्रम के प्रतिबिंब
विशुद्ध श्रम से,
तुम उपजाते,
जीवन भूमि से।
तपाकर तन,
साधकर मन,
करते प्रतिक्षा,
अन्न की तुम।
प्रकाशित निरन्तर,
श्रम के प्रतिबिंब से।
रोटी सूखी,
बिटिया भूखी,
लादकर बोझ,
सांसें भी झोंकी,
सड़क बनाते,
भवन सजाते,
भोजन भी
भर पेट न पाते,
रोज कमाते रोटी,
तन भी बस ढक ही पाते।
तज कर गांव,
आंचल की छांव,
पेट पालने को
ढूंढते ठांव,
मुट्ठी भर अन्न,
पर ही प्रसन्न,
भुखमरी बैठी
लगाकर आसन,
ढूंढती दांव,
तुम्हें सहज ही दबोचने ।
रश्मि रावत
गाजियाबाद
मौलिक रचना
विषय स्वतंत्र
शीर्षक "श्रम के प्रतिबिंब
विशुद्ध श्रम से,
तुम उपजाते,
जीवन भूमि से।
तपाकर तन,
साधकर मन,
करते प्रतिक्षा,
अन्न की तुम।
प्रकाशित निरन्तर,
श्रम के प्रतिबिंब से।
रोटी सूखी,
बिटिया भूखी,
लादकर बोझ,
सांसें भी झोंकी,
सड़क बनाते,
भवन सजाते,
भोजन भी
भर पेट न पाते,
रोज कमाते रोटी,
तन भी बस ढक ही पाते।
तज कर गांव,
आंचल की छांव,
पेट पालने को
ढूंढते ठांव,
मुट्ठी भर अन्न,
पर ही प्रसन्न,
भुखमरी बैठी
लगाकर आसन,
ढूंढती दांव,
तुम्हें सहज ही दबोचने ।
रश्मि रावत
गाजियाबाद
मौलिक रचना
1/5/2020
दिवस की कहानी
स्वरचित
अब रोज़ नए ही दिवस चलें
कभी मज़दूर तो कभी बच्चों का
कभी मम्मी का तो पापा का
दादा दादी भी शामिल इसमें
फिर योग भी जुड़ा इसमें
मित्र दिवस और चित्र दिवस
जाने कितने अनमोल दिवस
कुछ सरकारी कागज़ में फिर
सब दर्ज़ किया जाता रहता
और फिर रिपोर्ट की तैयारी
मोटी फाइल होतीं सारी
कुछ फोटो भी नत्थी करते
और नाम बड़े उसमें भरते
क्या दिवस मना कर जतलाते
मज़दूर क्या हैं ये बतलाते
वो तो पत्थर ही तोड़ रहा
मैली गुदड़ी ही ओढ़ रहा
कागज़ बस चला हिसाबों में
फाइल के साथ दराजों में
कुछ नए नियम फिर बन जाते
कुछ लोगों के मन सिक जाते
ये दिवस का खेल यूँहीं खिलता
किसको क्या इससे फिर मिलता
सब दुनिया का एक ही किस्सा
किसको मिलता इसका हिस्सा
डॉ. शिखा
दिवस की कहानी
स्वरचित
अब रोज़ नए ही दिवस चलें
कभी मज़दूर तो कभी बच्चों का
कभी मम्मी का तो पापा का
दादा दादी भी शामिल इसमें
फिर योग भी जुड़ा इसमें
मित्र दिवस और चित्र दिवस
जाने कितने अनमोल दिवस
कुछ सरकारी कागज़ में फिर
सब दर्ज़ किया जाता रहता
और फिर रिपोर्ट की तैयारी
मोटी फाइल होतीं सारी
कुछ फोटो भी नत्थी करते
और नाम बड़े उसमें भरते
क्या दिवस मना कर जतलाते
मज़दूर क्या हैं ये बतलाते
वो तो पत्थर ही तोड़ रहा
मैली गुदड़ी ही ओढ़ रहा
कागज़ बस चला हिसाबों में
फाइल के साथ दराजों में
कुछ नए नियम फिर बन जाते
कुछ लोगों के मन सिक जाते
ये दिवस का खेल यूँहीं खिलता
किसको क्या इससे फिर मिलता
सब दुनिया का एक ही किस्सा
किसको मिलता इसका हिस्सा
डॉ. शिखा
मनपसंद विषय लेखन
ओ मातृभूमि!
—————ओ मातृभूमि!
तू असीम है
तू अथाह है
तेरी थाह पाने को
हर हद से गुजरना चाहती हूँ...!
तू आस है
मेरा विश्वास है
तुझे अर्पित करने
अपने प्राण देना चाहती हूँ....!!
तू निष्ठा है
मेरी श्रद्धा है
तुझमें एकरूप होने
तेरी मिट्टी में मिलना चाहती हूँ....!!!
तू माँ है
तुझमें भरा वात्सल्य है
तुझे फिर से पाने को
यहाँ बार-बार मैं जन्म लेना चाहती हूँ....!!!!
तू मेरा अभिमान है
तू मेरा स्वाभिमान हैं
वीर प्रसूता वसुंधरा,माटी तेरी चंदन
उससे अपने माथे पर तिलक करना चाहती हूँ...!!!!!
~~~~~~~~~~~~~~~~
डा० भारती वर्मा बौड़ाई
ओ मातृभूमि!
—————ओ मातृभूमि!
तू असीम है
तू अथाह है
तेरी थाह पाने को
हर हद से गुजरना चाहती हूँ...!
तू आस है
मेरा विश्वास है
तुझे अर्पित करने
अपने प्राण देना चाहती हूँ....!!
तू निष्ठा है
मेरी श्रद्धा है
तुझमें एकरूप होने
तेरी मिट्टी में मिलना चाहती हूँ....!!!
तू माँ है
तुझमें भरा वात्सल्य है
तुझे फिर से पाने को
यहाँ बार-बार मैं जन्म लेना चाहती हूँ....!!!!
तू मेरा अभिमान है
तू मेरा स्वाभिमान हैं
वीर प्रसूता वसुंधरा,माटी तेरी चंदन
उससे अपने माथे पर तिलक करना चाहती हूँ...!!!!!
~~~~~~~~~~~~~~~~
डा० भारती वर्मा बौड़ाई
दिनांक-1-5-2020
छंद-मनहरण घना क्षरी
विषय-प्रेम
प्रीत ऐसी लग जाये
जो सांसों में रम जाए
राग मिलन का गाये
प्रेम में डूब जाए
गीत मिलन के गाये
प्रेमी जब मिल जाये
कली कली खिल जाए
उपवन हर्षाए
भ्रमर गुंजन करें
फूल फूल डाली डाली
महक बिखर जाए
वन उपवन में
कोकिल कुहक रही
खिले बौर आम्र डाली
विरह की वेदना में
तड़पी राधा सीता
मनोज तिवारी,,निशान्त
छंद-मनहरण घना क्षरी
विषय-प्रेम
प्रीत ऐसी लग जाये
जो सांसों में रम जाए
राग मिलन का गाये
प्रेम में डूब जाए
गीत मिलन के गाये
प्रेमी जब मिल जाये
कली कली खिल जाए
उपवन हर्षाए
भ्रमर गुंजन करें
फूल फूल डाली डाली
महक बिखर जाए
वन उपवन में
कोकिल कुहक रही
खिले बौर आम्र डाली
विरह की वेदना में
तड़पी राधा सीता
मनोज तिवारी,,निशान्त
विषय - मनपसंद
आज का दिन कल इतिहास बन जायगा
नहि कर गम दिन ये स्वत: ढल जायगा।।
समझा कर सच्चाई की महत्ता को
सच के साथ तूफां भी टल जायगा।।
आज किया हुआ तेरा हरेक कार्य
कल कर्म की किताब में लिख जायगा।।
अति संवेदनशीलता भटकाय है
पढ़ इतिहास पढ़ कर के डर जायगा।।
बड़े बड़े ज़हीन मयकदा क्यों गए
जबाब खुद ही ये तुझको मिल जायगा।।
हो मिर्ज़ा ग़ालिब या हो फिर मजाज़
लत ये देखेगा तो सिहर जायगा।।
गम तो इम्तिहान का वक्त होय है
चाहे तो रब का भी दर मिल जायगा।।
शौक नेक भी हुआ करते हैं 'शिवम'
अपनाइए बुरा वक्त कट जायगा।।
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
आज का दिन कल इतिहास बन जायगा
नहि कर गम दिन ये स्वत: ढल जायगा।।
समझा कर सच्चाई की महत्ता को
सच के साथ तूफां भी टल जायगा।।
आज किया हुआ तेरा हरेक कार्य
कल कर्म की किताब में लिख जायगा।।
अति संवेदनशीलता भटकाय है
पढ़ इतिहास पढ़ कर के डर जायगा।।
बड़े बड़े ज़हीन मयकदा क्यों गए
जबाब खुद ही ये तुझको मिल जायगा।।
हो मिर्ज़ा ग़ालिब या हो फिर मजाज़
लत ये देखेगा तो सिहर जायगा।।
गम तो इम्तिहान का वक्त होय है
चाहे तो रब का भी दर मिल जायगा।।
शौक नेक भी हुआ करते हैं 'शिवम'
अपनाइए बुरा वक्त कट जायगा।।
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
शुक्रवार/ 1मई /2020
मन पसंद आयोजन में हमारी प्रस्तुति .... शीर्षक- मजदूर
विधा - कविता
हर अनुकूल परिस्थितियों में,
जी लेता है मजदूर .....!!
अपने कंधों पर बोझ उठा कर -
साहस का परिचय देता है मजदूर!!
कल, कारखाने, खदान सभी-
चलते इनके दम पर .....!!
बहा कर अपना खून पसीना,
देश को सोना , देता है मजदूर!!
अधिकार के लिए लड़ता ....
वह अनशन भी करता है ।
मरता क्या नहीं करता ....
फिर भी निर्मल मन रखता है !
अनगिन स्वप्न लिए आंखो में ,
कभी भूखा भी सो जाता है मजदूर!!
रत्ना वर्मा
स्वरचित मौलिक रचना
धनबाद -झारखंड
मन पसंद आयोजन में हमारी प्रस्तुति .... शीर्षक- मजदूर
विधा - कविता
हर अनुकूल परिस्थितियों में,
जी लेता है मजदूर .....!!
अपने कंधों पर बोझ उठा कर -
साहस का परिचय देता है मजदूर!!
कल, कारखाने, खदान सभी-
चलते इनके दम पर .....!!
बहा कर अपना खून पसीना,
देश को सोना , देता है मजदूर!!
अधिकार के लिए लड़ता ....
वह अनशन भी करता है ।
मरता क्या नहीं करता ....
फिर भी निर्मल मन रखता है !
अनगिन स्वप्न लिए आंखो में ,
कभी भूखा भी सो जाता है मजदूर!!
रत्ना वर्मा
स्वरचित मौलिक रचना
धनबाद -झारखंड
विषय_ मन पंसद
गरीब मजदूर |
ह
देख बेबसी गरीब मजदूर की | सदियों से नही पनप पाये ये |
जी तोड मेहनत करते परिवार सहित |
फिर भी पेट भर नही खा पाते |
सुबह सबेर ये निकल पडते |
पीठ पर बांधे बालक को पत्थर तोडती |
तपती दुपहरी हो या हो शीत घनी |
रेत सीमेट मिलाती भर तगारी देती |
पर हाय कैसी ये मजबूरी इनकी |
कोई क्यौ समझ न पाता |
क्यौ भरते अपनी तिजोरी ,
देते क्यो नही पूरा मेहताना |
है मानव ईश्वर से कुछ तो डरो |
सब कुछ देख रहा वह हे कणकण मे वास
खता अवश्य मिलेगी उससे |
मजदूर को न सताओ इस तरह |
स्वरचित_ दमयंती मिश्रा
गरीब मजदूर |
ह
देख बेबसी गरीब मजदूर की | सदियों से नही पनप पाये ये |
जी तोड मेहनत करते परिवार सहित |
फिर भी पेट भर नही खा पाते |
सुबह सबेर ये निकल पडते |
पीठ पर बांधे बालक को पत्थर तोडती |
तपती दुपहरी हो या हो शीत घनी |
रेत सीमेट मिलाती भर तगारी देती |
पर हाय कैसी ये मजबूरी इनकी |
कोई क्यौ समझ न पाता |
क्यौ भरते अपनी तिजोरी ,
देते क्यो नही पूरा मेहताना |
है मानव ईश्वर से कुछ तो डरो |
सब कुछ देख रहा वह हे कणकण मे वास
खता अवश्य मिलेगी उससे |
मजदूर को न सताओ इस तरह |
स्वरचित_ दमयंती मिश्रा
१/५/२०२०
मज़दूर दिवस
शत
नमन
मज़दूर
श्रम दिवस
अथक प्रयास
राष्ट्र का विकास
सामाजिक विश्वास
सोना
उगले
जमीं तल
उजास कल
धीरज प्रबल
कमल दलदल
सुवासित पल- पल
करे
संताप
खाना पीना
खून पसीना
जीवन यूँ जीना
भ्रमित हो जायेंगे
क़र्ज़ चुका न पायेंगे
स्वरचित
चंदा प्रहलादका
मज़दूर दिवस
शत
नमन
मज़दूर
श्रम दिवस
अथक प्रयास
राष्ट्र का विकास
सामाजिक विश्वास
सोना
उगले
जमीं तल
उजास कल
धीरज प्रबल
कमल दलदल
सुवासित पल- पल
करे
संताप
खाना पीना
खून पसीना
जीवन यूँ जीना
भ्रमित हो जायेंगे
क़र्ज़ चुका न पायेंगे
स्वरचित
चंदा प्रहलादका
01/05/2020
अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर/श्रमिक दिवस पर
कुछ हाइकु
श्रमिक श्रम,
अमीरों की बैसाखी,
कर्म चंदन ।
कैसी लाचारी ?
जुड़े दो जून रोटी,
मासूम स्वप्न ।
कोल्हू का बैल,
दिन भर खपता,
निचोड़े तन ।
स्वेद की बूँदें,
तन से यूँ ढलकें,
मही संदल ।
फिर भी भूखा,
पेट पीठ हैं एक,
छवि धूमिल ।
अधूरे ख्वाब,
सिसकते जज्बात,
बेजुवां मन ।
स्तुत्य श्रमिक,
तू ही है कर्ता-धर्ता,
तुझे नमन ।
-- नीता अग्रवाल
#
अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर/श्रमिक दिवस पर
कुछ हाइकु
श्रमिक श्रम,
अमीरों की बैसाखी,
कर्म चंदन ।
कैसी लाचारी ?
जुड़े दो जून रोटी,
मासूम स्वप्न ।
कोल्हू का बैल,
दिन भर खपता,
निचोड़े तन ।
स्वेद की बूँदें,
तन से यूँ ढलकें,
मही संदल ।
फिर भी भूखा,
पेट पीठ हैं एक,
छवि धूमिल ।
अधूरे ख्वाब,
सिसकते जज्बात,
बेजुवां मन ।
स्तुत्य श्रमिक,
तू ही है कर्ता-धर्ता,
तुझे नमन ।
-- नीता अग्रवाल
#
विषय - मनपसंद
01/05/20
शुक्रवार
'अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस'
मैं सबके हित भवन बनाता
पर मेरा घर कहीं नहीं है ,
फुटपाथों पर रात काटता
शायद मेरी यही नियति है।
जीवन का अभिशाप झेलता
मेरा मन विचलित रहता है ,
मिली विरासत में जो गरीबी
यही मेरी पैतृक सम्पत्ति है।
कर्ज महाजन का देने में
मेरे खेत -मकान बिक गए ,
भूखे पेट खेलते बच्चे
देख मेरी छाती फटती है।
क्यों अमीर महलों में रहकर
हमें अमीरी दिखा रहे हैं ,
जबकि उनके सुख की दुनिया
मेरे ही श्रम से बनती है|
हम मजदूरों के जीवन पर
क्यों संसार आज भी चुप है ,
क्यों हम श्रमिकों की कराहटें
ईश्वर ने भी नहीं सुनी हैं।
क्यों अमीर इस ताजमहल को
देख शान से इतराते हैं ,
जबकि इन महलों की शोभा
श्रमिकों के श्रम से बढ़ती है।
स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
01/05/20
शुक्रवार
'अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस'
मैं सबके हित भवन बनाता
पर मेरा घर कहीं नहीं है ,
फुटपाथों पर रात काटता
शायद मेरी यही नियति है।
जीवन का अभिशाप झेलता
मेरा मन विचलित रहता है ,
मिली विरासत में जो गरीबी
यही मेरी पैतृक सम्पत्ति है।
कर्ज महाजन का देने में
मेरे खेत -मकान बिक गए ,
भूखे पेट खेलते बच्चे
देख मेरी छाती फटती है।
क्यों अमीर महलों में रहकर
हमें अमीरी दिखा रहे हैं ,
जबकि उनके सुख की दुनिया
मेरे ही श्रम से बनती है|
हम मजदूरों के जीवन पर
क्यों संसार आज भी चुप है ,
क्यों हम श्रमिकों की कराहटें
ईश्वर ने भी नहीं सुनी हैं।
क्यों अमीर इस ताजमहल को
देख शान से इतराते हैं ,
जबकि इन महलों की शोभा
श्रमिकों के श्रम से बढ़ती है।
स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
"मजदूरी"
डरी हुई, घबराई सी
बड़ी दूर से आई थी,
एक आवाज थी थकी हुई
एक आवाज थी दबी हुई,
मालिकों से कुचली हुई
मशीनों में झुलसी हुई,
ग़रीबी का दंश झेलती
पृकृति का रंज ठेलती
बेचारी ये मजदूरी
मजबूर ये मजदूरी।
चिलचिलाती धूप में
पसीने से नहाई हुई,
परिवार का पेट भरती
सूदखोरों की जेब भरती
ज़िन्दगी से रोज लड़ती
ये कारखानों वाली मजदूरी,
धूप में जलती,बारिशों में भीगती
पूरी दुनिया से दूर खड़ी
लोकतंत्र से प्रश्न करती
ये काश्तकारों वाली मजदूरी,
बर्तनों को साफ करती
ये काम वाली मजदूरी,
गंदे नालों में रोज़ उतरती
अंजाम देती मजदूरी,
विकास के नाम पर
नेताओं की जुबान पर
सोचता हूं रोज बिकती
ईमान वाली मजदूरी,
बेचारी ये मजदूरी
मजबूर ये मजदूरी।
ग़ज़ब की इन्सानियत है
ग़ज़ब का है ऊंचा इन्सान
खुदगर्ज, स्वार्थ का पुलिंदा
मन में केवल झूठा अभिमान,
इस इंसान के पीछे भी
हैं, एक और इंसान,
जिसके सपना नहीं, अनुमान नहीं
नफा नहीं, नुकसान नहीं,
इसी दूसरे इंसान का
अभिशाप है ये मजदूरी,
इसी दूसरे इंसान के
साथ है ये मजदूरी,
ग़रीबी का दंश झेलती
पृकृति का रंज ठेलती
बेचारी ये मजदूरी
मजबूर ये मजदूरी,
मजदूर वाली मजदूरी।
श्रीलाल जोशी "श्री"
तेजरासर, बीकानेर।
(मैसूर)
डरी हुई, घबराई सी
बड़ी दूर से आई थी,
एक आवाज थी थकी हुई
एक आवाज थी दबी हुई,
मालिकों से कुचली हुई
मशीनों में झुलसी हुई,
ग़रीबी का दंश झेलती
पृकृति का रंज ठेलती
बेचारी ये मजदूरी
मजबूर ये मजदूरी।
चिलचिलाती धूप में
पसीने से नहाई हुई,
परिवार का पेट भरती
सूदखोरों की जेब भरती
ज़िन्दगी से रोज लड़ती
ये कारखानों वाली मजदूरी,
धूप में जलती,बारिशों में भीगती
पूरी दुनिया से दूर खड़ी
लोकतंत्र से प्रश्न करती
ये काश्तकारों वाली मजदूरी,
बर्तनों को साफ करती
ये काम वाली मजदूरी,
गंदे नालों में रोज़ उतरती
अंजाम देती मजदूरी,
विकास के नाम पर
नेताओं की जुबान पर
सोचता हूं रोज बिकती
ईमान वाली मजदूरी,
बेचारी ये मजदूरी
मजबूर ये मजदूरी।
ग़ज़ब की इन्सानियत है
ग़ज़ब का है ऊंचा इन्सान
खुदगर्ज, स्वार्थ का पुलिंदा
मन में केवल झूठा अभिमान,
इस इंसान के पीछे भी
हैं, एक और इंसान,
जिसके सपना नहीं, अनुमान नहीं
नफा नहीं, नुकसान नहीं,
इसी दूसरे इंसान का
अभिशाप है ये मजदूरी,
इसी दूसरे इंसान के
साथ है ये मजदूरी,
ग़रीबी का दंश झेलती
पृकृति का रंज ठेलती
बेचारी ये मजदूरी
मजबूर ये मजदूरी,
मजदूर वाली मजदूरी।
श्रीलाल जोशी "श्री"
तेजरासर, बीकानेर।
(मैसूर)
1/5/2020/शुक्रवार
*मजदूर दिवस*
काव्य
श्रम सीकर से सिंचित देह।
मिलता नहीं कहीं पर नेह।
बारहों मास काम करें हम,
गरमी सर्दी बरसता मेह।
कर्म सभी हम करते जाऐं।
धर्म कर्म में पलते जाऐं।
श्रमिक सिकंदर कहलाता है,
पर हम अपनों से छलते जाऐं।
न रहने का कोई ठिकाना।
इधर उधर ही आना-जाना।
रोते हंसते खाते पीते,
नहीं कहीं पर ठौर बिछौना।
हर मौसम से हम लड़ते हैं।
नहीं काम से हम डरते हैं।
फिर भी लोग झिड़कते हमको,
कब समझो कैसे जीते हैं।
सबका मन मनमोहन जाने।
प्रतिदिन जाते सभी कमाने।
भूख प्यास से व्याकुल होते,
सही कभी ना मिलता खाने।
लिखा पढ़ा ना बच्चे पाते।
अपना बचपन यूंही खपाते।
संस्कार नहीं शिक्षा मिलती,
अपना जीवन व्यर्थ गंवाते।
स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र
*मजदूर दिवस*
काव्य
श्रम सीकर से सिंचित देह।
मिलता नहीं कहीं पर नेह।
बारहों मास काम करें हम,
गरमी सर्दी बरसता मेह।
कर्म सभी हम करते जाऐं।
धर्म कर्म में पलते जाऐं।
श्रमिक सिकंदर कहलाता है,
पर हम अपनों से छलते जाऐं।
न रहने का कोई ठिकाना।
इधर उधर ही आना-जाना।
रोते हंसते खाते पीते,
नहीं कहीं पर ठौर बिछौना।
हर मौसम से हम लड़ते हैं।
नहीं काम से हम डरते हैं।
फिर भी लोग झिड़कते हमको,
कब समझो कैसे जीते हैं।
सबका मन मनमोहन जाने।
प्रतिदिन जाते सभी कमाने।
भूख प्यास से व्याकुल होते,
सही कभी ना मिलता खाने।
लिखा पढ़ा ना बच्चे पाते।
अपना बचपन यूंही खपाते।
संस्कार नहीं शिक्षा मिलती,
अपना जीवन व्यर्थ गंवाते।
स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र
दिनांक 01-04-2020
मनपसंद विषय लेखन
कविता -मजदूर
निर्माण धरा पर जो करता,
कभी पुरस्कृत क्यों नहीं होता?
हाड मास जल जाते श्रम से,
कभी आदृत क्यों नहीं होता?
जीवन भर करता मजदूरी,
पत्थर तोड़ता, मिट्टी ढोता।
नसीब में है केवल मेहनत,
धीरज यह कभी नहीं खोता।
क्षण भर श्रम से जी न चुराता,
खून पसीना एक है करता ।
महल अट्टालिका निर्मित करे,
खुद झोपड़ियों में है रहता।
सड़क, पटरियाँ, हवाई पट्टी,
सुंदर निर्माण यही कर पाता ।
पहुँचाता सबको गंतव्य पर,
खुद जहांँ था वहीं रह जाता।
माटी के दीपक गढ़कर यह,
रोशन उज्ज्वल जग करता ।
उपकरण विद्युत निर्मित कर,
अंधियाले छप्पर में रहता ।
कागज कलम पाठशाला सब,
उत्पादन,निर्माण जिम्मेदारी।
सबको शिक्षा सुविधाएँ देता,
सीख न पाता है कलम कारी।
उत्सव त्योंहारों पर जो सदा,
दुनिया के जश्न है मनवाता ।
अपनी रोटी की विवशता में,
खर्चे की चिंता है गिनवाता ।
आतिशबाजी जब करते सब,
खुशी से यह गदगद हो जाता।
जला नहीं पाता खुद लेकिन,
निर्माण पर अपने है इठलाता।
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे,चर्च,
ईश्वर का है धाम बनाता ।
सीना चीर उदधि, नदी का,
सेतु बनाकर काम बनाता।
उन निर्माता मजदूरों को हम,
झुककर शीश नवाते हैं ।
देर सवेर वो जब घर पहुँचे
भोजन के निवाले आते हैं।
समय है मानवता को जगाएं,
मज़दूर दिवस पर शपथ उठाएँ।
दीन हीन के हित सोचें कुछ,
आओ उन सबको गले लगाएँ।
स्वरचित मौलिक
कुसुम लता 'कुसुम'
नई दिल्ली
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निर्माण धरा पर जो करता,
कभी पुरस्कृत क्यों नहीं होता?
हाड मास जल जाते श्रम से,
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जीवन भर करता मजदूरी,
पत्थर तोड़ता, मिट्टी ढोता।
नसीब में है केवल मेहनत,
धीरज यह कभी नहीं खोता।
क्षण भर श्रम से जी न चुराता,
खून पसीना एक है करता ।
महल अट्टालिका निर्मित करे,
खुद झोपड़ियों में है रहता।
सड़क, पटरियाँ, हवाई पट्टी,
सुंदर निर्माण यही कर पाता ।
पहुँचाता सबको गंतव्य पर,
खुद जहांँ था वहीं रह जाता।
माटी के दीपक गढ़कर यह,
रोशन उज्ज्वल जग करता ।
उपकरण विद्युत निर्मित कर,
अंधियाले छप्पर में रहता ।
कागज कलम पाठशाला सब,
उत्पादन,निर्माण जिम्मेदारी।
सबको शिक्षा सुविधाएँ देता,
सीख न पाता है कलम कारी।
उत्सव त्योंहारों पर जो सदा,
दुनिया के जश्न है मनवाता ।
अपनी रोटी की विवशता में,
खर्चे की चिंता है गिनवाता ।
आतिशबाजी जब करते सब,
खुशी से यह गदगद हो जाता।
जला नहीं पाता खुद लेकिन,
निर्माण पर अपने है इठलाता।
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे,चर्च,
ईश्वर का है धाम बनाता ।
सीना चीर उदधि, नदी का,
सेतु बनाकर काम बनाता।
उन निर्माता मजदूरों को हम,
झुककर शीश नवाते हैं ।
देर सवेर वो जब घर पहुँचे
भोजन के निवाले आते हैं।
समय है मानवता को जगाएं,
मज़दूर दिवस पर शपथ उठाएँ।
दीन हीन के हित सोचें कुछ,
आओ उन सबको गले लगाएँ।
स्वरचित मौलिक
कुसुम लता 'कुसुम'
नई दिल्ली
दिनांक 1-5-2020
विषय:-मन.पसंद
दर्द मत बांटो जहाँ में,
दर्द का एहसास बांटो|
मनुज हो तो मनुज से,
मनुज की पहचान बांटो|
अपनी खातिर जीने वाले,
जी रहें हैं रोज़ ही,
दूजो को भी प्यार करने,
का समर्पित भाव बांटो |
किसी को खुशहाली देने,
की कमाई सीख लो|
पीर पराई मिटाने का,
कुशल उपचार बांटो|
क्या करोगे रख के दौलत
यहीं सब रह जायेगा|
हर किसी को हो सके तो,
इसका ही सद्ज्ञान बांटो|
प्यार की धारा बहाने का,
हुनर खुद सीख कर||
बनके बंजारा जहाँ में,
प्यार का गुणगान बांटो|
श्रम के मोती श्रमिक से,
लूट ना पाये कोई|
मजदूर के श्रम का हृदय,
से सम्मान बांटो|
तुम मुझे समझो बडा़,
मैं तुम्हें समझू बड़ा|
झुक के चलने के चलन,
का उम्र भर सज्ञान बांटो|
मैं प्रमाणित करता हूँ कि
यह मेरी मौलिक रचना है|
विजय श्रीवास्तव
बस्ती
विषय:-मन.पसंद
दर्द मत बांटो जहाँ में,
दर्द का एहसास बांटो|
मनुज हो तो मनुज से,
मनुज की पहचान बांटो|
अपनी खातिर जीने वाले,
जी रहें हैं रोज़ ही,
दूजो को भी प्यार करने,
का समर्पित भाव बांटो |
किसी को खुशहाली देने,
की कमाई सीख लो|
पीर पराई मिटाने का,
कुशल उपचार बांटो|
क्या करोगे रख के दौलत
यहीं सब रह जायेगा|
हर किसी को हो सके तो,
इसका ही सद्ज्ञान बांटो|
प्यार की धारा बहाने का,
हुनर खुद सीख कर||
बनके बंजारा जहाँ में,
प्यार का गुणगान बांटो|
श्रम के मोती श्रमिक से,
लूट ना पाये कोई|
मजदूर के श्रम का हृदय,
से सम्मान बांटो|
तुम मुझे समझो बडा़,
मैं तुम्हें समझू बड़ा|
झुक के चलने के चलन,
का उम्र भर सज्ञान बांटो|
मैं प्रमाणित करता हूँ कि
यह मेरी मौलिक रचना है|
विजय श्रीवास्तव
बस्ती
वो
वीर
जवान
सीमा पर
रक्षा करता
है आने की चाह
माँ ताकती है राह
है
देश
प्रथम
बाकी गौण
जिसके लिये
उसके लिये है
बलिदान महान
हैं
देश
के लिये
तैनात वे
चौबीस घण्टे
और सातों दिन
बारिश,शीत, ग्रीष्म
स्वरचित
मीना कुमारी
वीर
जवान
सीमा पर
रक्षा करता
है आने की चाह
माँ ताकती है राह
है
देश
प्रथम
बाकी गौण
जिसके लिये
उसके लिये है
बलिदान महान
हैं
देश
के लिये
तैनात वे
चौबीस घण्टे
और सातों दिन
बारिश,शीत, ग्रीष्म
स्वरचित
मीना कुमारी
विधा-हाइकु
✍🏻👊🏻हाइकु पंच,मजदूर दिवस पर👊🏻✍🏻
चौपट धन्धे।
कोरोना का कहर।।
भूखे है बन्दे।
है मजबूर।
घरों में कैद आज।।
है मजदूर।
मैं मजदूर।
बैठा हूँ मजबूर।।
क्या है क़सूर।
दे चाय चीनी।
तस्वीर खींच लीनी।।
इज्ज़त छीनी।
मेरी ख़ुद्दारी।
भोजन किट ले ली।।
भूख लाचारी।
देकर दान।
मत खींचो सेल्फियां।।
हो अपमान।
वो भगवान।
देख रहा ऊपर।।
गुप्त हो दान।
©️अश्वनी कुमार चावला"ऐश"✍🏻
अनूपगढ़,श्रीगंगानगर,01/मई/202
✍🏻👊🏻हाइकु पंच,मजदूर दिवस पर👊🏻✍🏻
चौपट धन्धे।
कोरोना का कहर।।
भूखे है बन्दे।
है मजबूर।
घरों में कैद आज।।
है मजदूर।
मैं मजदूर।
बैठा हूँ मजबूर।।
क्या है क़सूर।
दे चाय चीनी।
तस्वीर खींच लीनी।।
इज्ज़त छीनी।
मेरी ख़ुद्दारी।
भोजन किट ले ली।।
भूख लाचारी।
देकर दान।
मत खींचो सेल्फियां।।
हो अपमान।
वो भगवान।
देख रहा ऊपर।।
गुप्त हो दान।
©️अश्वनी कुमार चावला"ऐश"✍🏻
अनूपगढ़,श्रीगंगानगर,01/मई/202
"मजदूर की हालात देख"
फटी बिवाई
नित करे कमाई
ओढ रजाई
नींद न आई तो
मजदूर की हालात देख।
खेत सूखे
रिश्ते सब हैं रूखे
पेट से रात को भूखे
न भूख मिटे तो
मजदूर की हालात देख।
जर्जर शरीर
पीर ही पीर
दिल में चुबते तीर
न मिले सुकून तो
मजदूर की हालात देख।
बड़ी परेशानी
है रात तूफानी
न घर में पानी
प्यास नहीं बुझे तो
मजदूर की हालात देख।
साहुकार शैतान
देख तू बिकते मकान
बिके खलिहान
फुटपाथ मिले कभी तो
मजदूर की हालात देख।
क्या यही है मजदूर
सुख है कोसों दूर
दुख मिले भरपूर
दूर न हों दुख कभी तो
मजदूर की हालत देख।
✍️अनुज
राकेशकुमार जैनबन्धु
फटी बिवाई
नित करे कमाई
ओढ रजाई
नींद न आई तो
मजदूर की हालात देख।
खेत सूखे
रिश्ते सब हैं रूखे
पेट से रात को भूखे
न भूख मिटे तो
मजदूर की हालात देख।
जर्जर शरीर
पीर ही पीर
दिल में चुबते तीर
न मिले सुकून तो
मजदूर की हालात देख।
बड़ी परेशानी
है रात तूफानी
न घर में पानी
प्यास नहीं बुझे तो
मजदूर की हालात देख।
साहुकार शैतान
देख तू बिकते मकान
बिके खलिहान
फुटपाथ मिले कभी तो
मजदूर की हालात देख।
क्या यही है मजदूर
सुख है कोसों दूर
दुख मिले भरपूर
दूर न हों दुख कभी तो
मजदूर की हालत देख।
✍️अनुज
राकेशकुमार जैनबन्धु
दिनांक 1 मई 2020
विषय मजदूर
आज कलम की मजदूरी खूब रही
मजदूर तेरी चर्चाएं आज खूब रही
सबने बनाए चित्र तेरे जीवन के
शब्दों मे रचनाएं तेरी भी खूब रही
तुम मेहनती, संघर्षरत हमेशा से
जीवंतकथाएं तेरी आज खूब रही
तूने दिया सोचने, कहने को बहुत
तेरी मेहनत की निशानी खूब रही
जिए खुशी सुकुन से, कामना मेरी
यूं तो बातें यहां वहां तेरी खूब रही
तेरे को सम्मान मिले, मेरी खुशी है
संघर्षों मे जिंदगी लडती खूब रही
घर बने तेरा, खुशहाल परिवार हो
तेरे लिए कामनाएं आज खूब रही
कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद
विषय मजदूर
आज कलम की मजदूरी खूब रही
मजदूर तेरी चर्चाएं आज खूब रही
सबने बनाए चित्र तेरे जीवन के
शब्दों मे रचनाएं तेरी भी खूब रही
तुम मेहनती, संघर्षरत हमेशा से
जीवंतकथाएं तेरी आज खूब रही
तूने दिया सोचने, कहने को बहुत
तेरी मेहनत की निशानी खूब रही
जिए खुशी सुकुन से, कामना मेरी
यूं तो बातें यहां वहां तेरी खूब रही
तेरे को सम्मान मिले, मेरी खुशी है
संघर्षों मे जिंदगी लडती खूब रही
घर बने तेरा, खुशहाल परिवार हो
तेरे लिए कामनाएं आज खूब रही
कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद
विषय...मजदूर श्रमिक
विधा ...गीत
पीड़ा का मधुमास
व्याकुल पीड़ा का मधुमास,
मिटती क्यों नहीं प्यास।
श्रमरत रहूँ दिवस औ रात,
फिर भी जीवन है उदास।।
कहती होकर पलकें अधीर ,
खिलेंगें सुखों के पलास,
व्याकुल पीड़ा का मधुमास।।
वेदनामयी अमिट लकीरें,
घेरती देह को धीरे।
पीठ व पेट चिपक हैं जाते,
मिले मंजिल नदी तीरे।।
जलाऊँ कब तलक विकल साँस,
व्याकुल पीड़ा का मधुमास।।
घोषणा के मोहक जाल में,
मजदूर मरे अकाल में।
किसको मेरी फिक्र भला है,
विवश जीता हर हाल में ।।
भला निर्बल किसका खास,
व्याकुल पीड़ा का मधुमास।।
साधना कृष्ण
लालगंज,वैशाली
बिहार
विधा ...गीत
पीड़ा का मधुमास
व्याकुल पीड़ा का मधुमास,
मिटती क्यों नहीं प्यास।
श्रमरत रहूँ दिवस औ रात,
फिर भी जीवन है उदास।।
कहती होकर पलकें अधीर ,
खिलेंगें सुखों के पलास,
व्याकुल पीड़ा का मधुमास।।
वेदनामयी अमिट लकीरें,
घेरती देह को धीरे।
पीठ व पेट चिपक हैं जाते,
मिले मंजिल नदी तीरे।।
जलाऊँ कब तलक विकल साँस,
व्याकुल पीड़ा का मधुमास।।
घोषणा के मोहक जाल में,
मजदूर मरे अकाल में।
किसको मेरी फिक्र भला है,
विवश जीता हर हाल में ।।
भला निर्बल किसका खास,
व्याकुल पीड़ा का मधुमास।।
साधना कृष्ण
लालगंज,वैशाली
बिहार
बरसों बीते तुमको देखे
जानें कैसे होंगे मीत
आंसू बन आंख से निकले
मेरे भीगे - भीगे गीत
बरसों बीते तुमको देखे
जाने कैसे होंगे मीत
बात कभी जब हो जाती
हम कितने हैरान हुए
पा न सके तुमको पर
खोकर कितने वीरान हुए
छूट न पाई आज तलक
मेरे पागल मन की प्रीत
बरसों बीते उनको देखे
जाने कैसे होंगे मीत
ज़िक्र कोई जो करता उनका
हिलता कोना-कोना मनका
दिल की धड़कन बढ़ जाती
मुझे गुमां होता यौवन का
मेरी पलके भूल है जाती
पलक झपकने की रीत
बरसों बीते उनको देखे
जाने कैसे होंगे मीत
आकर भी मिल जाओ कभी
ख्वाबों में रोज मिला करते हो
मेरी खता माफ भी कर दो
ऐसे ही गिला क्यों करते हो
अभी मना रहा हूं मन को
मेरी हार है उनकी जीत
बरसों बीते उनको देखे
जाने कैसे होंगे मीत
काली रातों में बरस रही
रिमझिम बूंदें सावन की
मेरी पलकें देख रहीं हैं
राह तुम्हारे आवन की
तुम बिन मूक है गीत मेरे
सूना तुम बिन जीवन संगीत
बरसों बीते उनको देखे
जाने कैसे होंगे मीत
विपिन सोहल
जानें कैसे होंगे मीत
आंसू बन आंख से निकले
मेरे भीगे - भीगे गीत
बरसों बीते तुमको देखे
जाने कैसे होंगे मीत
बात कभी जब हो जाती
हम कितने हैरान हुए
पा न सके तुमको पर
खोकर कितने वीरान हुए
छूट न पाई आज तलक
मेरे पागल मन की प्रीत
बरसों बीते उनको देखे
जाने कैसे होंगे मीत
ज़िक्र कोई जो करता उनका
हिलता कोना-कोना मनका
दिल की धड़कन बढ़ जाती
मुझे गुमां होता यौवन का
मेरी पलके भूल है जाती
पलक झपकने की रीत
बरसों बीते उनको देखे
जाने कैसे होंगे मीत
आकर भी मिल जाओ कभी
ख्वाबों में रोज मिला करते हो
मेरी खता माफ भी कर दो
ऐसे ही गिला क्यों करते हो
अभी मना रहा हूं मन को
मेरी हार है उनकी जीत
बरसों बीते उनको देखे
जाने कैसे होंगे मीत
काली रातों में बरस रही
रिमझिम बूंदें सावन की
मेरी पलकें देख रहीं हैं
राह तुम्हारे आवन की
तुम बिन मूक है गीत मेरे
सूना तुम बिन जीवन संगीत
बरसों बीते उनको देखे
जाने कैसे होंगे मीत
विपिन सोहल
1.5.20
मजदूर दिवस पर प्रयास****
***********************
पेट की अगन कितना ज्वलन्त
अपने सपनों को बेचकर
दुनिया को दिखाते रंगीनियाँ
बन्द डिब्बों में जहाँ सारा
या करतब में परिवार हो सारा
हम मजदूर
गोद में पलते नन्हे शिशु
अबोध बचपन की खातिर
तोड़ती हूँ पत्थर या उठाती
झिलमिल रौशनी माथे पर
नगर सेठ के पोते के ब्याह की
झिलमिल रौशनी
और मेरी ख़ुशी के तारतम्य
हम मजदूर
ये नदियां तालाब कुऐं सरकारी फरमान
बिखरे हे हमारे कई अरमान
निर्मित करते हम भूखे प्यासे
कुदाल चलाते
पर डकार मारकर हक हड़पते
सरकारी कागज़ी खाना पूर्ति
बेबस लाचार हम मजदूर
देवताओं तुम्हे तराशा छेनी हथोड़े से
किये कई नुकीले प्रहार हे भगवन्
तुम सजीव हो उठो
तराशे नक्काशीदार ये मन्दिर मीनारें
छलनी होता व्यथित मन
हम मजदूर
बड़े बंगले महल अटारी
वास्तु अनुरूप बनाते मकान
जिनमे पलते सपने मधु रस
विलासिता के वैभवता के
जो सिर्फ मन में ही पलते
नही कभी साकार इन सपनो का संसार
सरकारी या गैर सरकारी
पेट की अगन या कुछ किस्मत
पर हम अविरल तत्पर सदैव ही
सिर पर बांध अंगोछा
तैयार
मजदूर।।
स्वरचित
माधुरी सोनी*मधुकुंज*
मजदूर दिवस पर प्रयास****
***********************
पेट की अगन कितना ज्वलन्त
अपने सपनों को बेचकर
दुनिया को दिखाते रंगीनियाँ
बन्द डिब्बों में जहाँ सारा
या करतब में परिवार हो सारा
हम मजदूर
गोद में पलते नन्हे शिशु
अबोध बचपन की खातिर
तोड़ती हूँ पत्थर या उठाती
झिलमिल रौशनी माथे पर
नगर सेठ के पोते के ब्याह की
झिलमिल रौशनी
और मेरी ख़ुशी के तारतम्य
हम मजदूर
ये नदियां तालाब कुऐं सरकारी फरमान
बिखरे हे हमारे कई अरमान
निर्मित करते हम भूखे प्यासे
कुदाल चलाते
पर डकार मारकर हक हड़पते
सरकारी कागज़ी खाना पूर्ति
बेबस लाचार हम मजदूर
देवताओं तुम्हे तराशा छेनी हथोड़े से
किये कई नुकीले प्रहार हे भगवन्
तुम सजीव हो उठो
तराशे नक्काशीदार ये मन्दिर मीनारें
छलनी होता व्यथित मन
हम मजदूर
बड़े बंगले महल अटारी
वास्तु अनुरूप बनाते मकान
जिनमे पलते सपने मधु रस
विलासिता के वैभवता के
जो सिर्फ मन में ही पलते
नही कभी साकार इन सपनो का संसार
सरकारी या गैर सरकारी
पेट की अगन या कुछ किस्मत
पर हम अविरल तत्पर सदैव ही
सिर पर बांध अंगोछा
तैयार
मजदूर।।
स्वरचित
माधुरी सोनी*मधुकुंज*
मनपसंद लेखन
दिनांक-१/५/२०२०
नवगीत।
हमारा देश भारत
नैतिकता आर्दश बने
भारत की पहचान बने
हम मिलकर देशवासियों
नीज देश अभिमान बने।
भाल ऊँचा किया हिमालय
गंगा बहे निर्मल धारा
नाना प्रकार भोजन से
देश अपना महान बने
नैतिकता आर्दश बने
भारत की पहचान बने
रंग बिरंगे फूल यहाँ।
हरियाली ही पहचान बने।
हिमालय से आच्छादित पर्वत
आर्यावर्त के भाल सजे
नदी घाटी है सुहानी
हो सुरक्षित ताने बाने
सब मिलकर देशवासियों
नीज देश अभिमान बने।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
दिनांक-१/५/२०२०
नवगीत।
हमारा देश भारत
नैतिकता आर्दश बने
भारत की पहचान बने
हम मिलकर देशवासियों
नीज देश अभिमान बने।
भाल ऊँचा किया हिमालय
गंगा बहे निर्मल धारा
नाना प्रकार भोजन से
देश अपना महान बने
नैतिकता आर्दश बने
भारत की पहचान बने
रंग बिरंगे फूल यहाँ।
हरियाली ही पहचान बने।
हिमालय से आच्छादित पर्वत
आर्यावर्त के भाल सजे
नदी घाटी है सुहानी
हो सुरक्षित ताने बाने
सब मिलकर देशवासियों
नीज देश अभिमान बने।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
मनपसंद विषय- बेटी
कोयल की है कुहू-कुहू है बेटी
जीवन की सरगम है बेटी
जीवन का मधुबन है बेटी
जीवन का सावन है बेटी।
पायल की छनछन है बेटी,
चूड़ी की खनखन है बेटी।
जीवन का मान है बेटी,
जीवन का सम्मान है बेटी।
गीता का कर्म है बेटी,
बाइबल और कुरान है बेटी।
त्रेता की सीता सी बेटी,
कलयुग की सानिया सी बेटी।
जीवन की सुबह है बेटी,
जीवन की सांझ है बेटी।
जीवन का गुलाल है बेटी
जीवन का श्रंगार है बेटी।
जीवन की उजास है बेटी,
जीवन की सुवास है बेटी ।
दोनों कुलों की शान है बेटी,
जीवन की अनुपम कृति है बेटी।
जीवन पथ की प्रगति है बेटी,
स्मृति का अभिमान है बेटी।
यह रचना मेरी स्वरचित मौलिक है।
श्रीमती स्मृति श्रीवास्तव ' रश्मि '
शासकीय महारानी लक्ष्मीबाई कन्या
शाला नरसिंहपुर
कोयल की है कुहू-कुहू है बेटी
जीवन की सरगम है बेटी
जीवन का मधुबन है बेटी
जीवन का सावन है बेटी।
पायल की छनछन है बेटी,
चूड़ी की खनखन है बेटी।
जीवन का मान है बेटी,
जीवन का सम्मान है बेटी।
गीता का कर्म है बेटी,
बाइबल और कुरान है बेटी।
त्रेता की सीता सी बेटी,
कलयुग की सानिया सी बेटी।
जीवन की सुबह है बेटी,
जीवन की सांझ है बेटी।
जीवन का गुलाल है बेटी
जीवन का श्रंगार है बेटी।
जीवन की उजास है बेटी,
जीवन की सुवास है बेटी ।
दोनों कुलों की शान है बेटी,
जीवन की अनुपम कृति है बेटी।
जीवन पथ की प्रगति है बेटी,
स्मृति का अभिमान है बेटी।
यह रचना मेरी स्वरचित मौलिक है।
श्रीमती स्मृति श्रीवास्तव ' रश्मि '
शासकीय महारानी लक्ष्मीबाई कन्या
शाला नरसिंहपुर
◆आयोजन👉प्रदत्त शीर्षक "मजदूर दिवस" पर सृजन
◆शीर्षक👉मजदूर
◆दिन👉शुक्रवार
◆दिनांक👉०१-०५-२०२०
◆विषय👉मजदूर【प्रदत्त शीर्षक】
◆विधा👉दोहा छंद
◆ भावों के मोती परिवार को निवेदित:-
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
🌼🌹👇सृजन👇🌹🌼
भडुए चमचे मुफ़्त में , रहे मलाई चाट।
श्रमिक रहा निज जिंदगी , पानी पीकर काट।।०१।।
भड़ुओं के सरदार हैं , असरदार सब लोग।
शोषण करके श्रमिक का , छकते छप्पन भोग।।०२।।
कामगार का काट धन , मजे मारते जौंन।
करिये उनके गात को , सब रोगों का भौंन।।०३।।
कामगार की जो नहीं , देता यहाँ पगार।
पहुँचा उसको दीजिए , प्रभुवर मौत-कगार।।०४।।
श्रम का अवमूल्यन करे , नहीं जताए नेह।
भेज दीजिए जल्द प्रभु , कोरोना उस देह।।०५।।
काट रहे भड़वे सभी , वक्त मलाई चाट।
मिहनतकश मजदूर तू , पानी पीकर काट।।०६।।
मिहनतकश मजबूर को , मत देना संत्रास।
श्रम है सच्ची साधना , मत करना उपहास।।०७।।
जीवन का कटु सत्य यह , करो मित्र विश्वास।
ओस चाटने से नहीं , बुझती प्यारे प्यास।।०८।।
पीर झेलते रात-दिन , होकर के मजबूर।
ओस चाटकर प्यास निज , बुझा रहे मजदूर।।०९।।
__________
✍रचनाकार:-
अनिल कुमार शुक्ल 'अनिल'
दुर्गाप्रसाद , बीसलपुर
पीलीभीत , उत्तर-प्रदेश
👉स्वरचित/स्वप्रमाणित
◆शीर्षक👉मजदूर
◆दिन👉शुक्रवार
◆दिनांक👉०१-०५-२०२०
◆विषय👉मजदूर【प्रदत्त शीर्षक】
◆विधा👉दोहा छंद
◆ भावों के मोती परिवार को निवेदित:-
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
🌼🌹👇सृजन👇🌹🌼
भडुए चमचे मुफ़्त में , रहे मलाई चाट।
श्रमिक रहा निज जिंदगी , पानी पीकर काट।।०१।।
भड़ुओं के सरदार हैं , असरदार सब लोग।
शोषण करके श्रमिक का , छकते छप्पन भोग।।०२।।
कामगार का काट धन , मजे मारते जौंन।
करिये उनके गात को , सब रोगों का भौंन।।०३।।
कामगार की जो नहीं , देता यहाँ पगार।
पहुँचा उसको दीजिए , प्रभुवर मौत-कगार।।०४।।
श्रम का अवमूल्यन करे , नहीं जताए नेह।
भेज दीजिए जल्द प्रभु , कोरोना उस देह।।०५।।
काट रहे भड़वे सभी , वक्त मलाई चाट।
मिहनतकश मजदूर तू , पानी पीकर काट।।०६।।
मिहनतकश मजबूर को , मत देना संत्रास।
श्रम है सच्ची साधना , मत करना उपहास।।०७।।
जीवन का कटु सत्य यह , करो मित्र विश्वास।
ओस चाटने से नहीं , बुझती प्यारे प्यास।।०८।।
पीर झेलते रात-दिन , होकर के मजबूर।
ओस चाटकर प्यास निज , बुझा रहे मजदूर।।०९।।
__________
✍रचनाकार:-
अनिल कुमार शुक्ल 'अनिल'
दुर्गाप्रसाद , बीसलपुर
पीलीभीत , उत्तर-प्रदेश
👉स्वरचित/स्वप्रमाणित
भावों के मोती
दिनांक - 01/05/2020
विषय * मन पसन्द
"श्रमिक"
करे भवन निर्माण आलीशान
यही तो है श्रमिक महान
मानव श्रम का आदर्श उदाहरण
स्वयं करे तंगी में जीवन यापन ।।
आर्थिक क्रिया कलापों में योगदान
धूप वर्षा में करे कार्य महान
करता लोगों के सपने साकार
श्रम से करता अर्जन अपना आहार ।।
श्रमिक पसीना बहाता है
नसीब ऐसा कि फुटपाथ पर ही सो जाता है
इंसान की मुश्किलें बढ़ने पर वे मजबूर होते हैं
मेहनत करने वाले हर इंसान मजदूर होते हैं ।।
ख्वाब दूसरों का, पूरा करने में
जीवन समर्पित कर देता है
दो जून की रोटी की खातिर
जीवन दांव पर लगा देता है ।।
बिन श्रमिक के समाज की
आर्थिक उन्नति नहीं हो सकती
सहयोग होता है उसका जब
तब ही उद्योग ,व्यापार, कृषि फल- फूल सकती ।।
स्वरचित मौलिक रचना
"उषा जोशी"
दिनांक - 01/05/2020
विषय * मन पसन्द
"श्रमिक"
करे भवन निर्माण आलीशान
यही तो है श्रमिक महान
मानव श्रम का आदर्श उदाहरण
स्वयं करे तंगी में जीवन यापन ।।
आर्थिक क्रिया कलापों में योगदान
धूप वर्षा में करे कार्य महान
करता लोगों के सपने साकार
श्रम से करता अर्जन अपना आहार ।।
श्रमिक पसीना बहाता है
नसीब ऐसा कि फुटपाथ पर ही सो जाता है
इंसान की मुश्किलें बढ़ने पर वे मजबूर होते हैं
मेहनत करने वाले हर इंसान मजदूर होते हैं ।।
ख्वाब दूसरों का, पूरा करने में
जीवन समर्पित कर देता है
दो जून की रोटी की खातिर
जीवन दांव पर लगा देता है ।।
बिन श्रमिक के समाज की
आर्थिक उन्नति नहीं हो सकती
सहयोग होता है उसका जब
तब ही उद्योग ,व्यापार, कृषि फल- फूल सकती ।।
स्वरचित मौलिक रचना
"उषा जोशी"
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