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ब्लॉग संख्या :-721
विषय-मनपसंद
प्रभु मिलन
-------
पग रज का कण जो एक मिले,
उसे चंदन मान,माथ लगाऊँ मैं,
जो कृपा बूंद की एक गिरे,
इस जग बंधन से तर जाऊँ मैं।
तुम कण-कण में बसते प्रभु,
कभी आकृति स्वरूप का भान भी दो,
मेरी इन नि:सार नैनों में अपनी ज्योति का ज्ञान भी दो,
सत् के दुर्गम मार्ग से किंचित भी न घबराऊँ मैं,
हाथों में हाथ सदा रखना जो क्षण भर भी लड़खड़ाऊँ मैं।
हो चहुँ ओर अंधेर घना,
मुझे सूक्ष्म दीप ही बना देना,
इस जगत के मोह बंधन से मुझे,
तुम बंधन मुक्त करा देना,
जब अंतिम घड़ी मेरी आए,तब भी तेरी लगन लगाऊँ मैं,
हो मिलन तुझसे ऐसा प्रभु कि तुझमे ही रम जाऊँ मैं।
-निधि सहगल 'विदिता'
प्रभु मिलन
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पग रज का कण जो एक मिले,
उसे चंदन मान,माथ लगाऊँ मैं,
जो कृपा बूंद की एक गिरे,
इस जग बंधन से तर जाऊँ मैं।
तुम कण-कण में बसते प्रभु,
कभी आकृति स्वरूप का भान भी दो,
मेरी इन नि:सार नैनों में अपनी ज्योति का ज्ञान भी दो,
सत् के दुर्गम मार्ग से किंचित भी न घबराऊँ मैं,
हाथों में हाथ सदा रखना जो क्षण भर भी लड़खड़ाऊँ मैं।
हो चहुँ ओर अंधेर घना,
मुझे सूक्ष्म दीप ही बना देना,
इस जगत के मोह बंधन से मुझे,
तुम बंधन मुक्त करा देना,
जब अंतिम घड़ी मेरी आए,तब भी तेरी लगन लगाऊँ मैं,
हो मिलन तुझसे ऐसा प्रभु कि तुझमे ही रम जाऊँ मैं।
-निधि सहगल 'विदिता'
विषय मनपसंद लेखन
विधा काव्य
29 अप्रेल 2020,बुधवार
जग चिंतक सब चिन्तित हैं
नयन नीर चिंता से बह रहे।
आपदा प्रबंधन सब श्रेष्ठ है
सुखशांति की राह देख रहे।
संकट विकट जगत में आया
जिसको खुद मानव ही लाया।
छिपा हुआ, खुद अपने गृह में
जिसका कोई निदान न पाया।
होड़ मची थी आविष्कार की
प्रतिस्पर्धा आगे विकास की।
प्रक्षेपास्त्र हथियार नवीनतम
निर्मित करने उठी प्यास थी।
परमाणु बम विश्वयुद्ध समाप्ति
जन धन क्षति मानव था रूखा।
आतुर अति जैविक हथियार से
मानवता विश्व शांति जग भूला।
शंख घण्टिया आज शांत सब
खड़े देवालय आज मौन यह।
निर्मल धारा गंग जल बह रही
देख रहा है,भगवान भक्त वह।
नहीं निदान नहीं उपचार कुछ
दानव कोरोना धूम मचा रहा।
एक सोच अटल विश्वास नर
नया सवेरा सब को दिख रहा।
स्वरचित, मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
विधा काव्य
29 अप्रेल 2020,बुधवार
जग चिंतक सब चिन्तित हैं
नयन नीर चिंता से बह रहे।
आपदा प्रबंधन सब श्रेष्ठ है
सुखशांति की राह देख रहे।
संकट विकट जगत में आया
जिसको खुद मानव ही लाया।
छिपा हुआ, खुद अपने गृह में
जिसका कोई निदान न पाया।
होड़ मची थी आविष्कार की
प्रतिस्पर्धा आगे विकास की।
प्रक्षेपास्त्र हथियार नवीनतम
निर्मित करने उठी प्यास थी।
परमाणु बम विश्वयुद्ध समाप्ति
जन धन क्षति मानव था रूखा।
आतुर अति जैविक हथियार से
मानवता विश्व शांति जग भूला।
शंख घण्टिया आज शांत सब
खड़े देवालय आज मौन यह।
निर्मल धारा गंग जल बह रही
देख रहा है,भगवान भक्त वह।
नहीं निदान नहीं उपचार कुछ
दानव कोरोना धूम मचा रहा।
एक सोच अटल विश्वास नर
नया सवेरा सब को दिख रहा।
स्वरचित, मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
दिनांक :- 29/04/2020
वार :- बुधवार
विषय :- मनपसंद विषय लेखन
" ख्वाब "
गरमी की तपतपाती तुम धूप जैसी हो
मरुस्थल में चलती धुल भरी तुम आंधी जैसी हो
राहों में भटकता मैं मुसाफ़िर पानी की तलाश में
प्यासे का दृष्टिभ्रम करती तुम मरीचिका जैसी हो
उस मरीचिका को देखकर तुम्हारा ख़्याल आता हैं
इन अंधेरी रातो में अब सिर्फ तुम्हारा ख़्वाब आता हैं।
काली अंधेरी डरावनी तुम रात जैसी हो
उस रात को रोशन करती तुम जुगनू जैसी हो
रातों को जागता मैं आशिक़ उल्लू
माँ की गोद में चैन की नींद सोती तुम बच्चे जैसी हो
उस सोते बच्चे को देखकर तुम्हारा ख़्याल आता हैं
इन अंधेरी रातो में अब सिर्फ तुम्हारा ख़्वाब आता हैं।
मधुवन में पुष्पित तुम गुलाब जैसी हो
फिजाओं में घुलती गुलाब की तुम महक जैसी हो
फूलों पर मंडराता मैं आवारा भवरा
पुष्पों को तोड़ने वालो को चुभती तुम काँटों जैसी हो
इन काँटों को देखकर तुम्हारा ख़्याल आता हैं
इन अंधेरी रातो में अब सिर्फ तुम्हारा ख़्वाब आता हैं।
बारिश में कडकडाती तुम बिजली जैसी हो
बिन पानी के तड़पडाती तुम मछली जैसी हो
वो बादल हूँ मैं जो गरजता है पर बरसता नहीं
अपने नृत्य से मोहित करती तुम मोरनी जैसी हो
उस मोरनी को देखकर तुम्हारा ख़्याल आता हैं
इन अंधेरी रातो में अब सिर्फ तुम्हारा ख़्वाब आता हैं।
खेतों में फसलों पर जमी तुम ओस जैसी हो
आसमां पर छाये घने तुम कोहरे जैसी हो
तुम्हारे प्यार में खड़ा मैं खेतो का बिजूखा
लहराती हुई फसलों की तुम सन्नसनाहट जैसी हो
ये सन्नसनाहट सुनकर तुम्हारा ख़्याल आता हैं
इन अंधेरी रातो में अब सिर्फ तुम्हारा ख़्वाब आता हैं।
मेरी जिंदगी की तुम खुली किताब जैसी हो
मेरी कविताओं को पढ़ती तुम पाठक जैसी हो
बदनाम हूँ मैं तो आवारा शायर महफ़िलो का
तुम मेरी लिखी शायरी और ग़ज़लो जैसी हो
इन ग़ज़लो को पढने पर तुम्हारा ख़्याल आता हैं
इन अंधेरी रातो में अब सिर्फ तुम्हारा ख़्वाब आता हैं।
इन अंधेरी रातो में अब सिर्फ तुम्हारा ख़्वाब आता हैं।।
स्वरचित
प्रतिक सिंघल " प्रेमी "
वार :- बुधवार
विषय :- मनपसंद विषय लेखन
" ख्वाब "
गरमी की तपतपाती तुम धूप जैसी हो
मरुस्थल में चलती धुल भरी तुम आंधी जैसी हो
राहों में भटकता मैं मुसाफ़िर पानी की तलाश में
प्यासे का दृष्टिभ्रम करती तुम मरीचिका जैसी हो
उस मरीचिका को देखकर तुम्हारा ख़्याल आता हैं
इन अंधेरी रातो में अब सिर्फ तुम्हारा ख़्वाब आता हैं।
काली अंधेरी डरावनी तुम रात जैसी हो
उस रात को रोशन करती तुम जुगनू जैसी हो
रातों को जागता मैं आशिक़ उल्लू
माँ की गोद में चैन की नींद सोती तुम बच्चे जैसी हो
उस सोते बच्चे को देखकर तुम्हारा ख़्याल आता हैं
इन अंधेरी रातो में अब सिर्फ तुम्हारा ख़्वाब आता हैं।
मधुवन में पुष्पित तुम गुलाब जैसी हो
फिजाओं में घुलती गुलाब की तुम महक जैसी हो
फूलों पर मंडराता मैं आवारा भवरा
पुष्पों को तोड़ने वालो को चुभती तुम काँटों जैसी हो
इन काँटों को देखकर तुम्हारा ख़्याल आता हैं
इन अंधेरी रातो में अब सिर्फ तुम्हारा ख़्वाब आता हैं।
बारिश में कडकडाती तुम बिजली जैसी हो
बिन पानी के तड़पडाती तुम मछली जैसी हो
वो बादल हूँ मैं जो गरजता है पर बरसता नहीं
अपने नृत्य से मोहित करती तुम मोरनी जैसी हो
उस मोरनी को देखकर तुम्हारा ख़्याल आता हैं
इन अंधेरी रातो में अब सिर्फ तुम्हारा ख़्वाब आता हैं।
खेतों में फसलों पर जमी तुम ओस जैसी हो
आसमां पर छाये घने तुम कोहरे जैसी हो
तुम्हारे प्यार में खड़ा मैं खेतो का बिजूखा
लहराती हुई फसलों की तुम सन्नसनाहट जैसी हो
ये सन्नसनाहट सुनकर तुम्हारा ख़्याल आता हैं
इन अंधेरी रातो में अब सिर्फ तुम्हारा ख़्वाब आता हैं।
मेरी जिंदगी की तुम खुली किताब जैसी हो
मेरी कविताओं को पढ़ती तुम पाठक जैसी हो
बदनाम हूँ मैं तो आवारा शायर महफ़िलो का
तुम मेरी लिखी शायरी और ग़ज़लो जैसी हो
इन ग़ज़लो को पढने पर तुम्हारा ख़्याल आता हैं
इन अंधेरी रातो में अब सिर्फ तुम्हारा ख़्वाब आता हैं।
इन अंधेरी रातो में अब सिर्फ तुम्हारा ख़्वाब आता हैं।।
स्वरचित
प्रतिक सिंघल " प्रेमी "
दिन :बुधवार
दिनांक :२९-०४-२०२०
विषय : मनपसंद
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
शीर्षक: #छोटी-छोटी #तीलियाँ ।
छोटी-छोटी चोटी की तीलियाँ ,
अपने सिर पर बारूद लिए फिर रही है।
रगड़ने को आतुर जन भी ,
चूकते कहाँ हैं,
मौक़ा मिलते ही रगड़ देते हैं।
एक छोटी सी चिंगारी ,
घने जंगलों तक को ,
अपनी कपटी लपट से कर देती है स्वाहा।
ये छोटी-छोटी तीलियाँ।।
ख़ुद जलने की परवाह भूल,
ना जाने किसके प्रभाव में,
इतनी प्रवाह से लपटें उठातीं हैं,
ख़ुद तो जलती ही है ,
दूसरों को जलाती हैं ।
ये छोटी -छोटी तीलियाँ ।।
शराब,सिगरेट,कोकीन,हफ़ीम,चरस,गाँजा,
सब उसके ग़ुलाम हो गए हैं।
वासना की बाँध तोड़,
कुछ फ़ैशन में ,कुछ आदत में ,कुछ मजबूरी में,
तीलियों के संग आते हैं,
तीलियों को संग लाते हैं ,
सुलगा देते हैं,
फिर छोड़ देते हैं ।
धीरे -धीरे ये शौक़ ,
उनकी आदतों में शामिल हो जाती है,
कसाब की तरह।
और ,
फिर तितलियों की तलाश में ,
तीलियाँ लेकर निकल पड़ते हैं ।
जलने के लिए ,जलाने के लिए
बस एक रात,
हूर संग बिताने के लिए।
ये छोटी-छोटी तीलियाँ ।।
आह ,और ये छोटी तीलियाँ,
फिर किसी नए पैक में सजकर ,
तैयार हो जाती है ,
अपने सिर पर बारूद का ढेर ले,
गोलबंद,क़िलाबंद होकर।।
अगरबत्ती से शुरू होती है ,
फिर मोमबत्ती ,दीया ,चूल्हा ....,
तंदूर ....घर ...कॉलेज ...नुक्कड़ ,
और झोंक देती है पूरे देश को ,
जलने के लिए ,तड़पने के लिए।
ये छोटी -छोटी तीलियाँ ।।
•••#कुमार @शशि
#बरबीघा (बिहार )
दिनांक :२९-०४-२०२०
विषय : मनपसंद
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
शीर्षक: #छोटी-छोटी #तीलियाँ ।
छोटी-छोटी चोटी की तीलियाँ ,
अपने सिर पर बारूद लिए फिर रही है।
रगड़ने को आतुर जन भी ,
चूकते कहाँ हैं,
मौक़ा मिलते ही रगड़ देते हैं।
एक छोटी सी चिंगारी ,
घने जंगलों तक को ,
अपनी कपटी लपट से कर देती है स्वाहा।
ये छोटी-छोटी तीलियाँ।।
ख़ुद जलने की परवाह भूल,
ना जाने किसके प्रभाव में,
इतनी प्रवाह से लपटें उठातीं हैं,
ख़ुद तो जलती ही है ,
दूसरों को जलाती हैं ।
ये छोटी -छोटी तीलियाँ ।।
शराब,सिगरेट,कोकीन,हफ़ीम,चरस,गाँजा,
सब उसके ग़ुलाम हो गए हैं।
वासना की बाँध तोड़,
कुछ फ़ैशन में ,कुछ आदत में ,कुछ मजबूरी में,
तीलियों के संग आते हैं,
तीलियों को संग लाते हैं ,
सुलगा देते हैं,
फिर छोड़ देते हैं ।
धीरे -धीरे ये शौक़ ,
उनकी आदतों में शामिल हो जाती है,
कसाब की तरह।
और ,
फिर तितलियों की तलाश में ,
तीलियाँ लेकर निकल पड़ते हैं ।
जलने के लिए ,जलाने के लिए
बस एक रात,
हूर संग बिताने के लिए।
ये छोटी-छोटी तीलियाँ ।।
आह ,और ये छोटी तीलियाँ,
फिर किसी नए पैक में सजकर ,
तैयार हो जाती है ,
अपने सिर पर बारूद का ढेर ले,
गोलबंद,क़िलाबंद होकर।।
अगरबत्ती से शुरू होती है ,
फिर मोमबत्ती ,दीया ,चूल्हा ....,
तंदूर ....घर ...कॉलेज ...नुक्कड़ ,
और झोंक देती है पूरे देश को ,
जलने के लिए ,तड़पने के लिए।
ये छोटी -छोटी तीलियाँ ।।
•••#कुमार @शशि
#बरबीघा (बिहार )
तिथिः *षष्टी वैशाख शुक्ल पक्ष*
नमन मंचः *भावों के मोती*
दैनिक कार्यः *मनपसंद विषय लेखन*
विधाः *गीतिका* (हास्य व्यंग्य)
यतिः *14.12 मात्रा पर*,
अंत्यानुप्रासः *गुरू/ लघू/ गुरु*
ढलते दिन का सखी सूर्य, छुपा पच्छिम जाय रे।
नार निठल्ली फूहड़ तू, देखि खिलकत आय रे।
ढंग बहू की बातन का, सुनि सास झुँझलाय रे।
दिवरा ढिग में बैठि सुनें, भाभो हँसि सुनाय रे।
भयी बावरी ज्योंहि फूहड़, चक्कि साँझ चलाय रे।
रोयि रोयि फूहड़ पीसै, चून कुत्ता खाय रे।
भाई बतुनी नेता जी, बातुनी का खाय रे
नाचैं हाथ नयन मटकैं, ताली देय बजाय रे।
अधजल गगरी छलक पडे, थोथा चना सुनाय रे।
निरा अनाड़ी कवि बनके, निगुर कविता गाय रे।
स्वरचित रचना द्वाराः
मंगलसैन डेढ़ा निर्गुर
नई दिल्ली
नमन मंचः *भावों के मोती*
दैनिक कार्यः *मनपसंद विषय लेखन*
विधाः *गीतिका* (हास्य व्यंग्य)
यतिः *14.12 मात्रा पर*,
अंत्यानुप्रासः *गुरू/ लघू/ गुरु*
ढलते दिन का सखी सूर्य, छुपा पच्छिम जाय रे।
नार निठल्ली फूहड़ तू, देखि खिलकत आय रे।
ढंग बहू की बातन का, सुनि सास झुँझलाय रे।
दिवरा ढिग में बैठि सुनें, भाभो हँसि सुनाय रे।
भयी बावरी ज्योंहि फूहड़, चक्कि साँझ चलाय रे।
रोयि रोयि फूहड़ पीसै, चून कुत्ता खाय रे।
भाई बतुनी नेता जी, बातुनी का खाय रे
नाचैं हाथ नयन मटकैं, ताली देय बजाय रे।
अधजल गगरी छलक पडे, थोथा चना सुनाय रे।
निरा अनाड़ी कवि बनके, निगुर कविता गाय रे।
स्वरचित रचना द्वाराः
मंगलसैन डेढ़ा निर्गुर
नई दिल्ली
कविता कवि की साधना है,
वीणापाणी की वन्दना है।।
कविता ही कवि की आशा है,
कविता कवि की परिभाषा है।
कविता है कवि की बोलचाल,
कविता है निज कवि की ढाल।
कविता है कवि के मन की पीड़ा,
कविता सच बोलने का है बीड़ा।
कविता वेदना कवि के मन की,
संवेदना है कवि के निज मन की।
कविता माध्यम है भावों का,
पल पल हर पल संभावों की।।
कविता प्रेरणा कल्पना है,
निर्माण की हर परिकल्पना है।।
कविता विश्वास है कवियों का,
कविता आभास है कवियों का।।
कविता है परिश्रम कवियों का,
कविता परिणाम है कवियों का।।
कविता में कवियों का भाव सार।
कवि के इसमें हैं सद्विचार।।
कविता है जन्मी सर्वप्रथम,
कविता सच कह दे ले न दम।
कविता को सहारा कवि ने दिया,
कविता ने कवि को है दिया।।
कविता ही कवि की पूजा है,
साथी न शिवा कोई दूजा है।
कविता कवि के हैं अश्रुपात,
कविता कवि का है ह्रदयाघात।।
कविता अपनों की बिछड़न है,
कविता कवि ह्रदय की तड़पन है।
कविता है कहानी बचपन की,
कविता है निशानी बचपन की।।
कविता हर जीत का जश्न भी है,
कविता निज जीत का यत्न भी है।
कविता ही कवि का तन मन है,
कविता ही कवि का जीवन है।।
कविता संदेश सुनाती है,
कविता परिवेश सुनाती है।।
कविता तुलसी, मीरा का प्यार।
रांझे और हीर के बाहों का हार।।
कविता है जवानी वीरों की,
है शौर्य कहानी वीरों की।।
कविता बसंत की है बयार,
कविता वर्षा के जल की धार।।
कविता इतिहास है कल युग का,
कविता प्रयास है कल युग का।।
कविता है माता की लोरी,
पालना है रेशम की डोरी।।
कविता है पिता का स्वप्न सोच,
कविता है पिता के मन का बोझ।
कविता है बहन का रक्षा सूत्र,
कविता भाई का सफलता सूत्र।
कविता में हर खुशी और गम है,
कविता भावों का संगम है।।
*प्रशान्त कुमार "पी.के."*
साहित्य वीर अलंकृत
आशुकवि
पाली - हरदोई
उत्तर प्रदेश
वीणापाणी की वन्दना है।।
कविता ही कवि की आशा है,
कविता कवि की परिभाषा है।
कविता है कवि की बोलचाल,
कविता है निज कवि की ढाल।
कविता है कवि के मन की पीड़ा,
कविता सच बोलने का है बीड़ा।
कविता वेदना कवि के मन की,
संवेदना है कवि के निज मन की।
कविता माध्यम है भावों का,
पल पल हर पल संभावों की।।
कविता प्रेरणा कल्पना है,
निर्माण की हर परिकल्पना है।।
कविता विश्वास है कवियों का,
कविता आभास है कवियों का।।
कविता है परिश्रम कवियों का,
कविता परिणाम है कवियों का।।
कविता में कवियों का भाव सार।
कवि के इसमें हैं सद्विचार।।
कविता है जन्मी सर्वप्रथम,
कविता सच कह दे ले न दम।
कविता को सहारा कवि ने दिया,
कविता ने कवि को है दिया।।
कविता ही कवि की पूजा है,
साथी न शिवा कोई दूजा है।
कविता कवि के हैं अश्रुपात,
कविता कवि का है ह्रदयाघात।।
कविता अपनों की बिछड़न है,
कविता कवि ह्रदय की तड़पन है।
कविता है कहानी बचपन की,
कविता है निशानी बचपन की।।
कविता हर जीत का जश्न भी है,
कविता निज जीत का यत्न भी है।
कविता ही कवि का तन मन है,
कविता ही कवि का जीवन है।।
कविता संदेश सुनाती है,
कविता परिवेश सुनाती है।।
कविता तुलसी, मीरा का प्यार।
रांझे और हीर के बाहों का हार।।
कविता है जवानी वीरों की,
है शौर्य कहानी वीरों की।।
कविता बसंत की है बयार,
कविता वर्षा के जल की धार।।
कविता इतिहास है कल युग का,
कविता प्रयास है कल युग का।।
कविता है माता की लोरी,
पालना है रेशम की डोरी।।
कविता है पिता का स्वप्न सोच,
कविता है पिता के मन का बोझ।
कविता है बहन का रक्षा सूत्र,
कविता भाई का सफलता सूत्र।
कविता में हर खुशी और गम है,
कविता भावों का संगम है।।
*प्रशान्त कुमार "पी.के."*
साहित्य वीर अलंकृत
आशुकवि
पाली - हरदोई
उत्तर प्रदेश
29/4/20
तिमिर अज्ञान हर करके नया जीवन बना देना।
दया के सिंधु हो स्वामी हमे अपना बना लेना।
मैं सबसे बेहद प्यार करू अपना दिल निसार करू।
करू हर पल सभी की सेवा मुझको ऐसा बना देना।
हर कण में तेरी माया हर पल में तेरी छाया।
तेरे प्यार में जग समाया मन मे मेरे समा देना।
तू धरती और गगन है तू ही चाँद का रूप है।
हजारों तारो की प्रभा तू है रवि किरणों में समा लेना।
जहाँ पर फूल खिलते है वही पर तू मुस्कराया है।
जहाँ बहती प्रेम गंगा की धारा हमे भी वही बहा देना।
मधुर गीत की ताने जहाँ पर कोकिला भरती।
फलों से भरी डाली सा प्रभू मुझको भी झुका देना।
सुबह पक्षी चहचहाते है भवरे गीत गुनगुनाते है।
चमकती ओस की बूंदो सा प्रभू हमको बना देना।
नही कोई जगह ऐसी जहाँ पर मौजूद नही है तू।
करू सत्संग तेरे संग है आदी ऐसा बना देना।
तू संसार का रचयिता तूने ही गीतों को रचा है।
जहां भी देखू मेरे भगवान छवि अपनी बसा देना।
पड़ा संसार सूना है। दुखो का अंबार टूटा है।
मिटा कर दर्द प्राणी का प्रभू अपना बना लेना।
स्वरचित
मीना तिवारी
तिमिर अज्ञान हर करके नया जीवन बना देना।
दया के सिंधु हो स्वामी हमे अपना बना लेना।
मैं सबसे बेहद प्यार करू अपना दिल निसार करू।
करू हर पल सभी की सेवा मुझको ऐसा बना देना।
हर कण में तेरी माया हर पल में तेरी छाया।
तेरे प्यार में जग समाया मन मे मेरे समा देना।
तू धरती और गगन है तू ही चाँद का रूप है।
हजारों तारो की प्रभा तू है रवि किरणों में समा लेना।
जहाँ पर फूल खिलते है वही पर तू मुस्कराया है।
जहाँ बहती प्रेम गंगा की धारा हमे भी वही बहा देना।
मधुर गीत की ताने जहाँ पर कोकिला भरती।
फलों से भरी डाली सा प्रभू मुझको भी झुका देना।
सुबह पक्षी चहचहाते है भवरे गीत गुनगुनाते है।
चमकती ओस की बूंदो सा प्रभू हमको बना देना।
नही कोई जगह ऐसी जहाँ पर मौजूद नही है तू।
करू सत्संग तेरे संग है आदी ऐसा बना देना।
तू संसार का रचयिता तूने ही गीतों को रचा है।
जहां भी देखू मेरे भगवान छवि अपनी बसा देना।
पड़ा संसार सूना है। दुखो का अंबार टूटा है।
मिटा कर दर्द प्राणी का प्रभू अपना बना लेना।
स्वरचित
मीना तिवारी
भावों के मोती
विषय-मनपसंद।
शीर्षक -मेहरबानी आज करदो।
स्वरचित।
बस ये मेहरबानी आज कर दो।
मैं रहूं मैं ये दिल आजाद करदो।।
दिल-ए-बरबादियों की ये दास्तां।
कूचे गली में सरे-आम कर दो।
आई है बहार दिल में मेरे फिर से।
कोई गुल बगीचा मेरे नाम कर दो
शौ़क था बहुत घूमें दरिया किनारे।
मौसम शहर का खुशग़वार कर दो।
हमारी जान को अब जान कर दो।
तुम्हारी है "प्रीति" पैग़ाम कर दो।।
प्रीति शर्मा"पूर्णिमा"
29/04 /2020
विषय-मनपसंद।
शीर्षक -मेहरबानी आज करदो।
स्वरचित।
बस ये मेहरबानी आज कर दो।
मैं रहूं मैं ये दिल आजाद करदो।।
दिल-ए-बरबादियों की ये दास्तां।
कूचे गली में सरे-आम कर दो।
आई है बहार दिल में मेरे फिर से।
कोई गुल बगीचा मेरे नाम कर दो
शौ़क था बहुत घूमें दरिया किनारे।
मौसम शहर का खुशग़वार कर दो।
हमारी जान को अब जान कर दो।
तुम्हारी है "प्रीति" पैग़ाम कर दो।।
प्रीति शर्मा"पूर्णिमा"
29/04 /2020
विषय - मनपसंद
विधा- काव्य
इक साथ सभी संग रहा है
रामायण में भी पाया है ।
राम के हर गम में संग संग
लक्ष्मण सा भ्रात कहाया है ।
वन में बाल्मीकी सा मुनी
सीता को सुख की छाया है ।
वीर बालक लव कुश से पाय
माता का मन हरषाया है ।
गम देने से पहले दाता
कोइ आस किरण जगाया है ।
बेसहारा कभी नहि कोई
कोशिश भर कहीं कहाया है ।
मीराबाई को बिष प्याला
असर न कोई दिखलाया है ।
सदा संग साँवरिया प्यारा
बेशक वन में भटकाया है ।
यादें भी अनमोल 'शिवम'
यादों ने हमें हँसाया है ।
जीने को तिनके का सहारा
इस भव से पार लगाया है ।
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 29/04/2020
विधा- काव्य
इक साथ सभी संग रहा है
रामायण में भी पाया है ।
राम के हर गम में संग संग
लक्ष्मण सा भ्रात कहाया है ।
वन में बाल्मीकी सा मुनी
सीता को सुख की छाया है ।
वीर बालक लव कुश से पाय
माता का मन हरषाया है ।
गम देने से पहले दाता
कोइ आस किरण जगाया है ।
बेसहारा कभी नहि कोई
कोशिश भर कहीं कहाया है ।
मीराबाई को बिष प्याला
असर न कोई दिखलाया है ।
सदा संग साँवरिया प्यारा
बेशक वन में भटकाया है ।
यादें भी अनमोल 'शिवम'
यादों ने हमें हँसाया है ।
जीने को तिनके का सहारा
इस भव से पार लगाया है ।
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 29/04/2020
*गणेश वंदना*
काव्य
जय जयति जयति जय जग वंदन।
जय गणपति करें सभी वंदन।
हम करें समर्पित भावसुमन।
बस हैं रोली अक्षत चंदन।
हम नमन गजानन तुम्हें करें।
नित भक्ति भाव से तुम्हें भजें।
प्रभु ज्ञान प्रकाश हमें दीजिए।
कुछ भास सुहास हमें दीजिए।
वर दें जय वरदायी देवा। सदा करें फलदायी सेवा।
तुम विपति विनाश करें जग की।
प्रभु पीर हरें सारे भव की।
हर जन मन मानस प्रमुदित हो।
धरती का रज कण कुसुमित हो।
परोपकार परमार्थ करें।
अब राग-द्वेष सब दूर करें।
ये आलोकित हो जाए धरा।
मन हरियाला हो हरा-भरा।
बढे प्रेम प्रीत प्रसार यहां।
लगे सनेह के विचार यहां।
मन का दर्पण सुन्दर हो।
अपना अंतर्मन सुन्दर हो।
न हो भेद भाव आपस में,
केवल प्रभु प्रेम सुदर्शन हो।
स्वरचित
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र
काव्य
जय जयति जयति जय जग वंदन।
जय गणपति करें सभी वंदन।
हम करें समर्पित भावसुमन।
बस हैं रोली अक्षत चंदन।
हम नमन गजानन तुम्हें करें।
नित भक्ति भाव से तुम्हें भजें।
प्रभु ज्ञान प्रकाश हमें दीजिए।
कुछ भास सुहास हमें दीजिए।
वर दें जय वरदायी देवा। सदा करें फलदायी सेवा।
तुम विपति विनाश करें जग की।
प्रभु पीर हरें सारे भव की।
हर जन मन मानस प्रमुदित हो।
धरती का रज कण कुसुमित हो।
परोपकार परमार्थ करें।
अब राग-द्वेष सब दूर करें।
ये आलोकित हो जाए धरा।
मन हरियाला हो हरा-भरा।
बढे प्रेम प्रीत प्रसार यहां।
लगे सनेह के विचार यहां।
मन का दर्पण सुन्दर हो।
अपना अंतर्मन सुन्दर हो।
न हो भेद भाव आपस में,
केवल प्रभु प्रेम सुदर्शन हो।
स्वरचित
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र
दिनांक-29/04/2020
विषय- मनपसंद (माता-पिता)
"माता-पिता"
माँ की ममता को सलाम
माँ की आवाज दिल का सुरुर है
माँ की मौजूदगी दिल का सुकून है
माँ की मुस्कुराहट फूलों की खुश्बू है
माँ का दुख दिल का लहू है
माँ की ममता प्यार का साया है
माँ के पैरों के नीचे सारा जहाँ है
पिता हमारे जीवन के है वटबृक्ष
मिलती उनसे हमें सघन छाया
जीवन की तपिश को ठण्ढक देते
कठिन चुनौतियों में ढाल बन जाते
करते हमारी कठिन राहों को सुगम
करते हमारे जीवन को उज्जवल
पिता से ही माँ की हँसी और
हम बच्चों का हास विलास है
पिता परिवार का एक तपस्वी है
हमारे जीवन का खेवनहार है।
इसलिये कर लो माता पिता की सेवा
और अपनी झोली भर लो पुण्य की मेवा।
अनिता निधि
जमशेदपुर,झारखंड
विषय- मनपसंद (माता-पिता)
"माता-पिता"
माँ की ममता को सलाम
माँ की आवाज दिल का सुरुर है
माँ की मौजूदगी दिल का सुकून है
माँ की मुस्कुराहट फूलों की खुश्बू है
माँ का दुख दिल का लहू है
माँ की ममता प्यार का साया है
माँ के पैरों के नीचे सारा जहाँ है
पिता हमारे जीवन के है वटबृक्ष
मिलती उनसे हमें सघन छाया
जीवन की तपिश को ठण्ढक देते
कठिन चुनौतियों में ढाल बन जाते
करते हमारी कठिन राहों को सुगम
करते हमारे जीवन को उज्जवल
पिता से ही माँ की हँसी और
हम बच्चों का हास विलास है
पिता परिवार का एक तपस्वी है
हमारे जीवन का खेवनहार है।
इसलिये कर लो माता पिता की सेवा
और अपनी झोली भर लो पुण्य की मेवा।
अनिता निधि
जमशेदपुर,झारखंड
शीर्षक .. विष प्याला
*******************
क्रूर हृदय से अपनों ने, जीवन भर दी विष प्यालों में।
जबतक आग को हवा दी तबतक,शेर जला अंगारों में।
कोमल मन के भाव सभी, धूँ धूँकर तबतक जले मेरे,
जबतब प्रेम हृदय से जलकर,मिट ना गया मन भावों से।
**
नगमस्तक भी रहा तभी तक, जबतक मन में प्रीत रहा।
क्रूर थे मन के भाव सभी के , जाना तब मुझे तीर लगा।
सारे दृश्य उभर नयनों में, छल के राज खोलते अब,
बात समझ में आई तबतक, शेर बिका भंगारों में।
**
क्रोध नयन से फूट पडे, प्रतिशोध की ज्वाला धँधक उठी।
समर भूमि में खडा पार्थ सा, अपनों से मन विरत हुई।
क्या मै विष को पीकर के ,शिव शम्भू का गुणगान करू,
या फिर सारे मोह त्याग कर, जैन मुनि सा ध्यान धरू।
**
या मै योगी बन कर भटकू, नटवर नागर मीरा सा।
या कौटिल्य बनू हे राघव, नाश करू घन नन्दों का।
जलता मन तन तपता मेरा, भाव भी लहू लुहान हुए,
नयनों से नीर रस बरसते ऐसे, जैसे ज्वाला फूट पडे।
**
शेर सिंह सर्राफ
*******************
क्रूर हृदय से अपनों ने, जीवन भर दी विष प्यालों में।
जबतक आग को हवा दी तबतक,शेर जला अंगारों में।
कोमल मन के भाव सभी, धूँ धूँकर तबतक जले मेरे,
जबतब प्रेम हृदय से जलकर,मिट ना गया मन भावों से।
**
नगमस्तक भी रहा तभी तक, जबतक मन में प्रीत रहा।
क्रूर थे मन के भाव सभी के , जाना तब मुझे तीर लगा।
सारे दृश्य उभर नयनों में, छल के राज खोलते अब,
बात समझ में आई तबतक, शेर बिका भंगारों में।
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क्रोध नयन से फूट पडे, प्रतिशोध की ज्वाला धँधक उठी।
समर भूमि में खडा पार्थ सा, अपनों से मन विरत हुई।
क्या मै विष को पीकर के ,शिव शम्भू का गुणगान करू,
या फिर सारे मोह त्याग कर, जैन मुनि सा ध्यान धरू।
**
या मै योगी बन कर भटकू, नटवर नागर मीरा सा।
या कौटिल्य बनू हे राघव, नाश करू घन नन्दों का।
जलता मन तन तपता मेरा, भाव भी लहू लुहान हुए,
नयनों से नीर रस बरसते ऐसे, जैसे ज्वाला फूट पडे।
**
शेर सिंह सर्राफ
आज मनपसंद विषय सेदोका प्रेषित
१/मनुज लोक,
वसुधा के आंगन,
चिर पुण्य से आये,
कर्म वीर के,
हाथों मेहंदी लगे,
साधे तो संध्या जाते।
२/वसुधा पर,
जो जन जीवन को,
संगीत बनाकर,
गाना आ जावे,
वह मानव धन्य,
जीने की कला जाने।।
३/अंधकार में,
शुभ प्रकाश पाने,
जीवन पथ पर,
चलते रहे,
वसुधा के आंगन,
मन दीप जलाये।
४/सुख और दुख,
हमारे गुरु बनते,
चरित्र गठन में,
मन ढलता,
विशिष्ट ढांचे पर,
ज्ञान हमें मिलता।।
सेदोका कार देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग।।
भावों के मोती पर।।
१/मनुज लोक,
वसुधा के आंगन,
चिर पुण्य से आये,
कर्म वीर के,
हाथों मेहंदी लगे,
साधे तो संध्या जाते।
२/वसुधा पर,
जो जन जीवन को,
संगीत बनाकर,
गाना आ जावे,
वह मानव धन्य,
जीने की कला जाने।।
३/अंधकार में,
शुभ प्रकाश पाने,
जीवन पथ पर,
चलते रहे,
वसुधा के आंगन,
मन दीप जलाये।
४/सुख और दुख,
हमारे गुरु बनते,
चरित्र गठन में,
मन ढलता,
विशिष्ट ढांचे पर,
ज्ञान हमें मिलता।।
सेदोका कार देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग।।
भावों के मोती पर।।
दिनांक-29/05/2020
विषय- नारी व्यथा
वो कलयुग के प्रीतम क्षण
सुनो तुम मेरी व्यथा
आज कहती मैं तुझसे
अपने दर्द की कथा..
चूड़ियों के टूटने से जख्मी होती है कलाइयां
बेदर्द बयां करती तन मन की रूसवाईयां।।
एक दर्द निष्प्राण करता मुझे.........
करुण क्रंदन हृदय करता
बेदर्द जख्म तेरा
मेरे प्राणों को हरता
एक कील न जाने क्यों
मेरे तन मन को चुभता
हृदय तार झंकृत हो उठता
सिद्ध चित विकृत हो जाता
कदाचित ऐ काले सूरज........
एक सृष्टि ,दो दृष्टि ना रखता
कानन उपवन से कहता
देख प्रकृति की अनुकंपा
हम दोनों को दिए उसने
एक को दर्द, एक को चंपा
कितना तूने भेद किया
क्यों कहता तु ...........
दोनों का समभाव किया
मेरा तो श्रृंगार किया
हृदयाघात तिरस्कार किया
रो रहा है बावुल का आंगन
दीवारें चीखती है रात -दिन
खो गए रात के रंगीन सपने
बिछुड़ गये मुझसे अपने
गुम हुई मेरी नादानियां
कील -कील चुभ रही
उड़न परियों की कहानियां
वो हँसी खिलखिलाहट
न जाने कहां गुम हो गई शैतनियां
शो केस में दर्द पैदा करती
नादान चूड़ियों की बेचैनियां
स्वरचित...
सत्य प्रकाश सिंह
विषय- नारी व्यथा
वो कलयुग के प्रीतम क्षण
सुनो तुम मेरी व्यथा
आज कहती मैं तुझसे
अपने दर्द की कथा..
चूड़ियों के टूटने से जख्मी होती है कलाइयां
बेदर्द बयां करती तन मन की रूसवाईयां।।
एक दर्द निष्प्राण करता मुझे.........
करुण क्रंदन हृदय करता
बेदर्द जख्म तेरा
मेरे प्राणों को हरता
एक कील न जाने क्यों
मेरे तन मन को चुभता
हृदय तार झंकृत हो उठता
सिद्ध चित विकृत हो जाता
कदाचित ऐ काले सूरज........
एक सृष्टि ,दो दृष्टि ना रखता
कानन उपवन से कहता
देख प्रकृति की अनुकंपा
हम दोनों को दिए उसने
एक को दर्द, एक को चंपा
कितना तूने भेद किया
क्यों कहता तु ...........
दोनों का समभाव किया
मेरा तो श्रृंगार किया
हृदयाघात तिरस्कार किया
रो रहा है बावुल का आंगन
दीवारें चीखती है रात -दिन
खो गए रात के रंगीन सपने
बिछुड़ गये मुझसे अपने
गुम हुई मेरी नादानियां
कील -कील चुभ रही
उड़न परियों की कहानियां
वो हँसी खिलखिलाहट
न जाने कहां गुम हो गई शैतनियां
शो केस में दर्द पैदा करती
नादान चूड़ियों की बेचैनियां
स्वरचित...
सत्य प्रकाश सिंह
२९/४/२०
विषय-मनपसंद विषय
आशियाने में अपने ! कुछ दिन बिताते हैं ,
चलिए !आशियाने में अपने ,जन्नत बसाते हैं।
बिखरे हुए लम्हों की ! यहाँ बिसात लगाते हैं ,
आइए ! हम मिलकर ,खूब मुस्कुराते हैं।
गीत तो दिलों में ! सभी गुनगुनाते हैं ,
सुनिए ! आज मिलकर ,सुर ताल लगाते हैं।
फलक से उठाकर ! चाँद ले आते हैं ,
देखिए ! कैसा खूबसूरत , अपना घर सजाते हैं ।
धड़कनों को वापस , दिलों से मिलाते हैं ,
ठहरिये ! नया घर , नई कायनात बनाते हैं।
कंचन वर्मा
स्वरचित
नई दिल्ली
विषय-मनपसंद विषय
आशियाने में अपने ! कुछ दिन बिताते हैं ,
चलिए !आशियाने में अपने ,जन्नत बसाते हैं।
बिखरे हुए लम्हों की ! यहाँ बिसात लगाते हैं ,
आइए ! हम मिलकर ,खूब मुस्कुराते हैं।
गीत तो दिलों में ! सभी गुनगुनाते हैं ,
सुनिए ! आज मिलकर ,सुर ताल लगाते हैं।
फलक से उठाकर ! चाँद ले आते हैं ,
देखिए ! कैसा खूबसूरत , अपना घर सजाते हैं ।
धड़कनों को वापस , दिलों से मिलाते हैं ,
ठहरिये ! नया घर , नई कायनात बनाते हैं।
कंचन वर्मा
स्वरचित
नई दिल्ली
दिनांक:- 29/04/2020
मनपसंद विषय:- नारी
नारी तेरे रूप अनेक
———————-
रूप धरे जब तू प्रेयसी का
प्रियतम में हो ऊर्जा संचार।
और बने जब भार्या किसी की
इक घर का बन जाती आधार।
हँस कर सहती पीड़ा प्रसव की
करने को सृष्टि का विस्तार।
कर्तव्यों की भट्टी में तप कर
करती सबके सपने साकार।
स्रोत शक्ति का कहते तुझे सब
फिर भी दिखती है क्यूँ लाचार।
करके ख़त्म लाचारी अपनी
ख़ुद को भी अब तू दे आकार ।
है साथी , प्रतिद्वन्द्वी नहीं तू
क्यूँ उलझे द्वन्दों में बेकार।
बढ़ अब आगे हो के सबल तू
निर्बलताओं का कर संहार।
पूरक होंगे महिला पुरुष जब
होगा सुन्दर फिर ये संसार।
📝वेदस्मृति ‘ कृती’
स्वरचित , मौलिक
मनपसंद विषय:- नारी
नारी तेरे रूप अनेक
———————-
रूप धरे जब तू प्रेयसी का
प्रियतम में हो ऊर्जा संचार।
और बने जब भार्या किसी की
इक घर का बन जाती आधार।
हँस कर सहती पीड़ा प्रसव की
करने को सृष्टि का विस्तार।
कर्तव्यों की भट्टी में तप कर
करती सबके सपने साकार।
स्रोत शक्ति का कहते तुझे सब
फिर भी दिखती है क्यूँ लाचार।
करके ख़त्म लाचारी अपनी
ख़ुद को भी अब तू दे आकार ।
है साथी , प्रतिद्वन्द्वी नहीं तू
क्यूँ उलझे द्वन्दों में बेकार।
बढ़ अब आगे हो के सबल तू
निर्बलताओं का कर संहार।
पूरक होंगे महिला पुरुष जब
होगा सुन्दर फिर ये संसार।
📝वेदस्मृति ‘ कृती’
स्वरचित , मौलिक
बांध लें बंधन में मुझको प्रीत के तू प्यार के।
रंग तुम पर हों निछावर, रूप के श्रंगार के।
बंध के बंधन में तुम्हारे रंग है मन के निराले।
खेल प्रिय मुझको तुम्हारे है जीत के हार के।
तन समर्पित मन समर्पित हैं अवशेष क्या।
सार्थक जीवन किया मैंने तुम्ही पर वार के।
श्वास के अवरोह से मन का स्पन्दन कहे।
संग संग चलते हुए हम गीत गाएं प्यार के।
प्रेम ही पूजा मेरी और प्रेम ही निष्ठा मेरी।
डिग न पाए मन कभी कोप से संसार के।
स्वरचित विपिन सोहल
रंग तुम पर हों निछावर, रूप के श्रंगार के।
बंध के बंधन में तुम्हारे रंग है मन के निराले।
खेल प्रिय मुझको तुम्हारे है जीत के हार के।
तन समर्पित मन समर्पित हैं अवशेष क्या।
सार्थक जीवन किया मैंने तुम्ही पर वार के।
श्वास के अवरोह से मन का स्पन्दन कहे।
संग संग चलते हुए हम गीत गाएं प्यार के।
प्रेम ही पूजा मेरी और प्रेम ही निष्ठा मेरी।
डिग न पाए मन कभी कोप से संसार के।
स्वरचित विपिन सोहल
विधा-दोहा गजल
मानव हृदय दलाल है ,कौन करे विश्वास।
मानुष सबका काल है ,कौन करे विश्वास।
दया-धर्म सब एक है , करे जात मनुहार।
जातिवाद विकराल है , कौन करे विश्वास।
मानव हृदय बदल गया,सोच बनी संकीर्ण।
हाल बड़ा बेहाल है, कौन करे विश्वास।
नाते सभी तोड़ दिए ,भूल गया व्यवहार।
समय बना जंजाल है ,कौन करे विश्वास।
सहन शक्ति गायब हुई, रिश्ते चकनाचूर।
मानव करे कमाल है,कौन करे विश्वास।
रास्ते सभी बंद हुए ,भूल गया पहचान।
अन्तर्मन में उबाल है, कौन करे विश्वास।
✍️अनुज
राकेशकुमार जैनबन्धु
मानव हृदय दलाल है ,कौन करे विश्वास।
मानुष सबका काल है ,कौन करे विश्वास।
दया-धर्म सब एक है , करे जात मनुहार।
जातिवाद विकराल है , कौन करे विश्वास।
मानव हृदय बदल गया,सोच बनी संकीर्ण।
हाल बड़ा बेहाल है, कौन करे विश्वास।
नाते सभी तोड़ दिए ,भूल गया व्यवहार।
समय बना जंजाल है ,कौन करे विश्वास।
सहन शक्ति गायब हुई, रिश्ते चकनाचूर।
मानव करे कमाल है,कौन करे विश्वास।
रास्ते सभी बंद हुए ,भूल गया पहचान।
अन्तर्मन में उबाल है, कौन करे विश्वास।
✍️अनुज
राकेशकुमार जैनबन्धु
दिनांक _29/4/2020
मनपसंद विषय _पंछी
पंछी
मैं नील गगन का का पंछी हूं
डाल डाल और पात पात पर
विचरण करता रहता हूं,
जात पात से काम नहीं है
रंग रूप का भेद नहीं
आज यहां तो कल वहां
मैं आवारा मैं बंजारा पंछी हूं
मै नील गगन का पंछी हूं।
सुबह सबेरे उठता हूं
जो मिल जाए खा लेता हूं
लम्बी उड़ान भरता हूं
उड़ते उड़ते दूर देश चल जाता हू
नि कोई टिकिट ,ना कोई वीजा
सहज इंट्री पाता हूं
अच्छा हुआ कि पंछी हूं
अपने मन का मालिक हूं
मैं नील गगन का पंछी हूं।
ना घर है ना महल अटारी
ना ही बच्चों की जिम्मेदारी
ना धन दौलत की मारा मारी
मैं प्यार का दाना चुगता हूंऔर
प्यार के बोल सुनाता हूं ।
मैं नील गगन का पंछी हूं
मैं नील गगन का पंछी हूं!!
मनपसंद विषय _पंछी
पंछी
मैं नील गगन का का पंछी हूं
डाल डाल और पात पात पर
विचरण करता रहता हूं,
जात पात से काम नहीं है
रंग रूप का भेद नहीं
आज यहां तो कल वहां
मैं आवारा मैं बंजारा पंछी हूं
मै नील गगन का पंछी हूं।
सुबह सबेरे उठता हूं
जो मिल जाए खा लेता हूं
लम्बी उड़ान भरता हूं
उड़ते उड़ते दूर देश चल जाता हू
नि कोई टिकिट ,ना कोई वीजा
सहज इंट्री पाता हूं
अच्छा हुआ कि पंछी हूं
अपने मन का मालिक हूं
मैं नील गगन का पंछी हूं।
ना घर है ना महल अटारी
ना ही बच्चों की जिम्मेदारी
ना धन दौलत की मारा मारी
मैं प्यार का दाना चुगता हूंऔर
प्यार के बोल सुनाता हूं ।
मैं नील गगन का पंछी हूं
मैं नील गगन का पंछी हूं!!
दिनांक=29/04/2020
विषय =मनपसंद
ग़ज़ल
नफ़रत न घोलों अरे दलालों,ये हिन्दूस्तान हैं
हिलमिल कर सबका रहना,इसकी शान है।
माना जहर घोलने का,तुमको पैसा मिलता
दौलत के खातिर बैच रहा,तू अपना ईमान है।
क्या औरों से कभी, गलती जुर्म नहीं होते
एक मजहब पर तेरी,खूब चलती ज़बान है।
आग क्यो बांट रहै, इस तरह से तुम
क्यों देखते नही यहां,अपना भी मकान है।
दौलत कमा खूब कमा,पर समझले तू इसे
ये वतन है अपना ,ना की तेरी दुकान है।
राहत न मिलेगी तुझे,जब जाओगे वहां
इस जहां के बाद , दुजा भी ज़हान है।
धर्म मजहब हामिद,मत घोलो सियासत में हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई,यहां एक जान है।
हामिद संदलपुरी
विषय =मनपसंद
ग़ज़ल
नफ़रत न घोलों अरे दलालों,ये हिन्दूस्तान हैं
हिलमिल कर सबका रहना,इसकी शान है।
माना जहर घोलने का,तुमको पैसा मिलता
दौलत के खातिर बैच रहा,तू अपना ईमान है।
क्या औरों से कभी, गलती जुर्म नहीं होते
एक मजहब पर तेरी,खूब चलती ज़बान है।
आग क्यो बांट रहै, इस तरह से तुम
क्यों देखते नही यहां,अपना भी मकान है।
दौलत कमा खूब कमा,पर समझले तू इसे
ये वतन है अपना ,ना की तेरी दुकान है।
राहत न मिलेगी तुझे,जब जाओगे वहां
इस जहां के बाद , दुजा भी ज़हान है।
धर्म मजहब हामिद,मत घोलो सियासत में हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई,यहां एक जान है।
हामिद संदलपुरी
विषय--मनपसंद
"क्यों न रस पान करे ये दिल"
मन मीत मिली है सरिता सी, कैसे उसका मैं मान करूँ,
वह आई है हाला बनके,कैसे अधरों से पान करूँ।
है प्रेम रुपी आँचल ओढ़े, हर पल दिल को है सहलाती,
वह आई स्नेह कली बनकर ,लहरों सी वह है लहराती।
वह पुष्प कली है कोमल सी,कैसे उसका सतकार करूँ।।
दस्तक देती हर पल दिल में,खुशबू उसमें है जूही सी,
मकरन्द बिखेर रही सम्मुख, गहराई उसकी है कूँई सी।
वह आम्र मंजरी सी तरुणी, कैसे उसका यश गान करूँ।।
मेरे मन बीच मरूथल को,सिंचित करती अपने जल से,
हर लेती तन के कष्टों को, ढक लेती जब निज आँचल से।
वह प्रथम प्रणय का आलिंगन, कैसे दिल के उदगार कहूँ।।
मेरे उर की इस तप्त भूमि को,हर पल वह है दहकाती,
ओढ़ चुनर दुल्हन के सम,रति भावों को है महकाती।
वह प्रथम प्रणय की सूर्य रश्मि, कैसे उसका श्रृंगार करूँ।।
आई है मधुर बसंत लिसे अधरों से पान करूँ।।
(अशोक राय वत्स)©® स्वरचित
रैनी, मऊ, उत्तरप्रदेशए, पुष्पित पुष्पों से सजी हुई,
क्यों न रस पान करे ये दिल, है वह वेणी सी गुंथी हुई।"क्यों न रस पान करे ये दिल"
मन मीत मिली है सरिता सी, कैसे उसका मैं मान करूँ,
वह आई है हाला बनके,कैसे अधरों से पान करूँ।
है प्रेम रुपी आँचल ओढ़े, हर पल दिल को है सहलाती,
वह आई स्नेह कली बनकर ,लहरों सी वह है लहराती।
वह पुष्प कली है कोमल सी,कैसे उसका सतकार करूँ।।
दस्तक देती हर पल दिल में,खुशबू उसमें है जूही सी,
मकरन्द बिखेर रही सम्मुख, गहराई उसकी है कूँई सी।
वह आम्र मंजरी सी तरुणी, कैसे उसका यश गान करूँ।।
मेरे मन बीच मरूथल को,सिंचित करती अपने जल से,
हर लेती तन के कष्टों को, ढक लेती जब निज आँचल से।
वह प्रथम प्रणय का आलिंगन, कैसे दिल के उदगार कहूँ।।
मेरे उर की इस तप्त भूमि को,हर पल वह है दहकाती,
ओढ़ चुनर दुल्हन के सम,रति भावों को है महकाती।
वह प्रथम प्रणय की सूर्य रश्मि, कैसे उसका श्रृंगार करूँ।।
आई है मधुर बसंत लिसे अधरों से पान करूँ।।
(अशोक राय वत्स)©® स्वरचित
रैनी, मऊ, उत्तरप्रदेशए, पुष्पित पुष्पों से सजी हुई,
वह लाजवंती वह सुघड़ हृदय,किस कर उसका गुणगान करूँ।।
मन मीत मिली है सरिता सी, कैसे उसका मैं मान करूँ।
वह आई है हाला बनके, कै
आज का कार्य
-----------------
मन पसंद विषय पर रचना
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
वंशवाद :: भयंकर त्रासदी
********************
वंशवाद को पोषित करना,
बहुत बड़ा है पाप।
गुण-अवगुण पहले पहचानें,
वरना जीवन शाप।।
सत्ता उनके हाथों मत दो,
जो सद्गुण से हीन।
उनके दुर्गुण दुख दें हमको,
जीवन हो गमगीन।।
कई उदाहरण मिलें हमें,
पढ़, देखें इतिहास।
ऐसे मानव की खुद जनता,
करती है उपहास।।
सज्जन औ' गुणवान रहें जो,
उनको दें सम्मान।
अंध भक्ति की आदत छोड़ें,
बनें नहीं नादान।।
~~~~~~~~~
मुरारि पचलंगिया
-----------------
मन पसंद विषय पर रचना
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
वंशवाद :: भयंकर त्रासदी
********************
वंशवाद को पोषित करना,
बहुत बड़ा है पाप।
गुण-अवगुण पहले पहचानें,
वरना जीवन शाप।।
सत्ता उनके हाथों मत दो,
जो सद्गुण से हीन।
उनके दुर्गुण दुख दें हमको,
जीवन हो गमगीन।।
कई उदाहरण मिलें हमें,
पढ़, देखें इतिहास।
ऐसे मानव की खुद जनता,
करती है उपहास।।
सज्जन औ' गुणवान रहें जो,
उनको दें सम्मान।
अंध भक्ति की आदत छोड़ें,
बनें नहीं नादान।।
~~~~~~~~~
मुरारि पचलंगिया
बिषय स्वतंत्र लेखन
मन रे तू काहे न धीर धरे
तेरे करने से कुछ भी न होगा
वही होगा जो प्रभु करे
महल अटारी रुपया पैसा काहे जोड़ धरे
लाकडाउन में पड़े अकेले हथेली पे जान धरे
खाली कोठी खाली कमरे तुझ पर सब हंस रहे
रहने खाने बाला न कोई सब बेकार परे
भाई बंधु कुटुंब कबीला इनका काहे गुमान करे
मतलब के सभी हैं नाते
काहे अपना अपना करे
आज चेतन का समय है काहे न चिंतन करे
भज ले राम भजन तू प्यारे इस महामंत्र से प्यारे कोरोना महामारी भी डरे
स्वरचित सुषमा ब्यौहार
मन रे तू काहे न धीर धरे
तेरे करने से कुछ भी न होगा
वही होगा जो प्रभु करे
महल अटारी रुपया पैसा काहे जोड़ धरे
लाकडाउन में पड़े अकेले हथेली पे जान धरे
खाली कोठी खाली कमरे तुझ पर सब हंस रहे
रहने खाने बाला न कोई सब बेकार परे
भाई बंधु कुटुंब कबीला इनका काहे गुमान करे
मतलब के सभी हैं नाते
काहे अपना अपना करे
आज चेतन का समय है काहे न चिंतन करे
भज ले राम भजन तू प्यारे इस महामंत्र से प्यारे कोरोना महामारी भी डरे
स्वरचित सुषमा ब्यौहार
दिनांक-29-4-2020
विषय-मनपसंद लेखन
विधा-कुंडलियां
"नज़राना"
1)
नज़राना है प्यार का,सबसे अनुपम भेंट।
बसी हृदय में प्रीत हो,ना हो लाग लपेट।
ना हो लाग लपेट,सरल मन सबको भाते।
करे जगत कल्याण,सत्य का पाठ पढ़ाते।
अविरल बहता नेह,ग्रंथ वो पढ़ें पुराना।
लेकर उनसे सीख,बांटते फिर नज़राना।।
2)
सपना देख बिहँस पड़ी,अजन्मी इक अबोध।
नज़राना उसको मिला,सुखद मात की गोद।
सुखद मात की गोद,,जगत में आ चकराई।
देख यहाँ की रीत,डरी सहमी घबराई।
सुन 'मेधा' हिय भाव,किसे वो माने अपना।
हुआ कोख में भान,ये तो था एक सपना।।
*वंदना सोलंकी"मेधा"*©स्वरचित
29-4-2020
विषय-मनपसंद लेखन
विधा-कुंडलियां
"नज़राना"
1)
नज़राना है प्यार का,सबसे अनुपम भेंट।
बसी हृदय में प्रीत हो,ना हो लाग लपेट।
ना हो लाग लपेट,सरल मन सबको भाते।
करे जगत कल्याण,सत्य का पाठ पढ़ाते।
अविरल बहता नेह,ग्रंथ वो पढ़ें पुराना।
लेकर उनसे सीख,बांटते फिर नज़राना।।
2)
सपना देख बिहँस पड़ी,अजन्मी इक अबोध।
नज़राना उसको मिला,सुखद मात की गोद।
सुखद मात की गोद,,जगत में आ चकराई।
देख यहाँ की रीत,डरी सहमी घबराई।
सुन 'मेधा' हिय भाव,किसे वो माने अपना।
हुआ कोख में भान,ये तो था एक सपना।।
*वंदना सोलंकी"मेधा"*©स्वरचित
29-4-2020
🔔 गीतिका 📯🇮🇳
*******************************
🇮🇳 स्वाधीनता 🇮🇳
*******************************
हमको सदा ही प्यारी स्वाधीनता हमारी ।
सारे जहां में न्यारी है धीरता हमारी ।।
करते नहीं हैं पहले यों वार हम किसी पर ,
गर घात देखें , रोंदे रणनीयता हमारी ।
जब भी हमारी सरहद कोई पुकार आई ,
घर तक छकाये दुश्मन, यह वीरता हमारी ।
जग जानता है सारा, हम नीति पर चले हैं,
सीमा रखाती चौकस , गम्भीरता हमारी ।
माँ भारती की कसमें खाकर बड़े हुए हैं ,
फौलाद बन के गरजे , शालीनता हमारी ।
जो शान्ति से हैं जीतीं , नारी चमन सजाने,
रण-चण्डिका भी बनती ,कमनीयता हमारी।
अपना तिरंगा फहरे नित शान से गगन में ,
पहचान जिन्दगी की भारतीयता हमारी ।।
🇮🇳 🌴🌹🌻🌷🇮🇳़
🌺🍀**....रवीन्द्र वर्मा आगरा
*******************************
🇮🇳 स्वाधीनता 🇮🇳
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हमको सदा ही प्यारी स्वाधीनता हमारी ।
सारे जहां में न्यारी है धीरता हमारी ।।
करते नहीं हैं पहले यों वार हम किसी पर ,
गर घात देखें , रोंदे रणनीयता हमारी ।
जब भी हमारी सरहद कोई पुकार आई ,
घर तक छकाये दुश्मन, यह वीरता हमारी ।
जग जानता है सारा, हम नीति पर चले हैं,
सीमा रखाती चौकस , गम्भीरता हमारी ।
माँ भारती की कसमें खाकर बड़े हुए हैं ,
फौलाद बन के गरजे , शालीनता हमारी ।
जो शान्ति से हैं जीतीं , नारी चमन सजाने,
रण-चण्डिका भी बनती ,कमनीयता हमारी।
अपना तिरंगा फहरे नित शान से गगन में ,
पहचान जिन्दगी की भारतीयता हमारी ।।
🇮🇳 🌴🌹🌻🌷🇮🇳़
🌺🍀**....रवीन्द्र वर्मा आगरा
दिनांक -29/04/2020
विषय मनपसंद लेखन
नारी व्यथा"
हां मैं नारी हूं?
मूक बनी मै........
सदियों से पीड़ा सहती आई
हां मैं एक नारी हूं।
हां मैं नारी हूं।।
आस निराश व्यथित मन है,
अपमानित सम्मानित तन है।
पीड़ा ,तिरस्कार मै सहती आई
आह कसकती कहती आई
सदियों से मैं रोती आई
हां मैं एक नारी हूं।
हां मैं नारी हूं।।
बोझिल कदमों से चलती आई
नभ ,पग,तल पर रखती आई
नैनो में अश्रु जल भर कर
हर युग में मैं सहती आई
विकल विहल मै नारी हूं।
हां मैं एक नारी हूं।।
छल किया इंद्र ने ......
शापित हुई मैं ,अहिल्या नारी हूं,
सीता ने दी अग्नि परीक्षा
द्रोपदी की आर्त पुकार
सुनकर मौन रहा संसार
नयनों से बहते आंसू
सदियों से मैं पोछती आई
अबला सबला मैं नारी हूं ।
हां मै एक नारी हूं।
युगो -युगो से प्यासी मृगतृष्णा.....
हां मैं एक नारी हूं ।
हां मैं नारी हूं।।
स्वरचित ,मौलिक रचना
रंजना सिंह
प्रयागराज
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हां मैं एक नारी हूं।
हां मैं नारी हूं।।
बोझिल कदमों से चलती आई
नभ ,पग,तल पर रखती आई
नैनो में अश्रु जल भर कर
हर युग में मैं सहती आई
विकल विहल मै नारी हूं।
हां मैं एक नारी हूं।।
छल किया इंद्र ने ......
शापित हुई मैं ,अहिल्या नारी हूं,
सीता ने दी अग्नि परीक्षा
द्रोपदी की आर्त पुकार
सुनकर मौन रहा संसार
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सदियों से मैं पोछती आई
अबला सबला मैं नारी हूं ।
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हां मैं नारी हूं।।
स्वरचित ,मौलिक रचना
रंजना सिंह
प्रयागराज
मन पसंद विषय
छुपा रखी है मैंने
तस्वीर तेरी दिल मे
सोचती हूँ उकेर कर
किसी कागज़ पर
दिखाऊँ किसी चित्रकार को
रंग भर दे वो उसमे
और मैं भी खुद को
रंगो की दुनिया में पाऊँ
या फिर दिखाऊँ किसी शायर को
लिख दे वो गज़ल
और तुम्हे मैं गुनगुनाऊँ
छुपी है तस्वीर तेरी दिल मे
मूंद लूँ आँखें अपनी
और सपनों में तुम्हे पाऊँ
धीरे-धीरे तुम बिन
जिन्दगी गुज़र रही है
स्वरचित
सूफिया ज़ैदी
छुपा रखी है मैंने
तस्वीर तेरी दिल मे
सोचती हूँ उकेर कर
किसी कागज़ पर
दिखाऊँ किसी चित्रकार को
रंग भर दे वो उसमे
और मैं भी खुद को
रंगो की दुनिया में पाऊँ
या फिर दिखाऊँ किसी शायर को
लिख दे वो गज़ल
और तुम्हे मैं गुनगुनाऊँ
छुपी है तस्वीर तेरी दिल मे
मूंद लूँ आँखें अपनी
और सपनों में तुम्हे पाऊँ
धीरे-धीरे तुम बिन
जिन्दगी गुज़र रही है
स्वरचित
सूफिया ज़ैदी
विषय- स्वैच्छिक
शीर्षक- माटी
वीर भूमि की माटी ही
माथे पर शोभित चंदन है
इसमें है रक्त शहीदों का
इसका शत शत अभिनन्दन है ||
है पूज्यनीय यह वन्दनीय
हम इसकी पूजा करते हैं
इस गोदी का सौभाग्य मिला
धरती का वंदन करते हैं ||
स्वरचित मौलिक
शिवानी शुक्ला श्रद्धा'
जौनपुर उत्तर प्रदेश
शीर्षक- माटी
वीर भूमि की माटी ही
माथे पर शोभित चंदन है
इसमें है रक्त शहीदों का
इसका शत शत अभिनन्दन है ||
है पूज्यनीय यह वन्दनीय
हम इसकी पूजा करते हैं
इस गोदी का सौभाग्य मिला
धरती का वंदन करते हैं ||
स्वरचित मौलिक
शिवानी शुक्ला श्रद्धा'
जौनपुर उत्तर प्रदेश
दिनांक -२९/४/२०२०
मनपसंद विषय - चांद
*******************
यूं ही रात भर
चांद को तकती रही ।
पलकों पर तेरे ,
अक्स को सजाती रही।
चांदनी बैठ कर मेरे सिरहाने ,
उलझी लटों को सुलझाती रही।
मैं जानती हूँ ,
तू गैर है , फिर भी ।
तुझे पाने की तमन्ना लिए
विरह की आग में,
आज तक खुद को
जलाती रही ।
तनुजा दत्ता ( स्वरचित)
मनपसंद विषय - चांद
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यूं ही रात भर
चांद को तकती रही ।
पलकों पर तेरे ,
अक्स को सजाती रही।
चांदनी बैठ कर मेरे सिरहाने ,
उलझी लटों को सुलझाती रही।
मैं जानती हूँ ,
तू गैर है , फिर भी ।
तुझे पाने की तमन्ना लिए
विरह की आग में,
आज तक खुद को
जलाती रही ।
तनुजा दत्ता ( स्वरचित)
विषय- कोरोना
विधा-दोहा
तोता बैठा डाल पर,
देख रहा है हाल।
मानव तुँ कहाँ छिपा,
क्यों है तूँ बेहाल।।
बहुत फैंकता रहा है,
औरो पर निज जाल।
आज खुद फँस गया है तुँ,
नही है क्या मलाल।
कर दिया है कितनों को,
तूने खुद कंगाल।
नहले पे दहला जान,
सँभाल अपनी चाल।
बजरंगी आए शहर ,
केले की पड़ताल।
सबका हिस्सा खा रहा,
बजा रहा है गाल।
पानी भी नही छोड़ा,
सुखा दिए सब ताल।
कुछ तो सोचा कर कभी,
औरों का भी ख्याल।
'शिवम' सच्ची सीख जान,
कोरोना का काल।
बहतर है कुछ सीख ले,
वरना भय विकराल।
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 29/04/202
विधा-दोहा
तोता बैठा डाल पर,
देख रहा है हाल।
मानव तुँ कहाँ छिपा,
क्यों है तूँ बेहाल।।
बहुत फैंकता रहा है,
औरो पर निज जाल।
आज खुद फँस गया है तुँ,
नही है क्या मलाल।
कर दिया है कितनों को,
तूने खुद कंगाल।
नहले पे दहला जान,
सँभाल अपनी चाल।
बजरंगी आए शहर ,
केले की पड़ताल।
सबका हिस्सा खा रहा,
बजा रहा है गाल।
पानी भी नही छोड़ा,
सुखा दिए सब ताल।
कुछ तो सोचा कर कभी,
औरों का भी ख्याल।
'शिवम' सच्ची सीख जान,
कोरोना का काल।
बहतर है कुछ सीख ले,
वरना भय विकराल।
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 29/04/202
दिनांक २९/४/२०२०
मनपसंद लेखन।
मेरी माँ।
माँ तेरी स्नेह स्पर्श को भूला न पाई।
हर क्षण हर पल तेरी याद में रोई।।
ममता भरा वह स्पर्श तुम्हारा।
फिर ना दिया मुझे सहारा।।
वात्सलता की मूरत थी तुम।
कहाँ हो गई माँ तुम गुम।।
ओढ़े रहती मुस्कान चेहरे पर।
भूल न पाई कभी एक पल।।
मन में यही चाहत रहती
फिर शिशु बन मैं साथ रहती।।
अमूल्य था वह वात्सलय तुम्हारा
सुनहरा पल था जीवन का हमारा।।
बिखर गई है मेरी खुशियां
जब से तुम छोड़ गई दुनिया।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
मनपसंद लेखन।
मेरी माँ।
माँ तेरी स्नेह स्पर्श को भूला न पाई।
हर क्षण हर पल तेरी याद में रोई।।
ममता भरा वह स्पर्श तुम्हारा।
फिर ना दिया मुझे सहारा।।
वात्सलता की मूरत थी तुम।
कहाँ हो गई माँ तुम गुम।।
ओढ़े रहती मुस्कान चेहरे पर।
भूल न पाई कभी एक पल।।
मन में यही चाहत रहती
फिर शिशु बन मैं साथ रहती।।
अमूल्य था वह वात्सलय तुम्हारा
सुनहरा पल था जीवन का हमारा।।
बिखर गई है मेरी खुशियां
जब से तुम छोड़ गई दुनिया।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
विषय मनपसंद
विधा-छंदमुक्त
बहुत लिखा जाता है
प्रेम पर ,बहुत शर्मिंदगी से
लिया जाता है नाम प्रेम
का, पर कोई नहीं
जानता ,यह प्रेम है क्या ?
भोर की पहली किरण
सा ,उष्ण है ये प्रेम,
पूजा के फूलों
की तरह पवित्र है
ये प्रेम, प्रेम ही वह
शक्ति है जो
साधारण से इंसान को
भी मिला देती है
भगवान से ,
प्रेम ही तो वह ताकत
है जो ,धनी को भी
पिघला देती है
निर्धन के दीन संताप से,
प्रेम ही वह शै है
जो ले आती है,
इंसानों को ,
जानवरों के भी पास,
प्रेम ही है वह बला ,
जो इंसान पूजता है,
पत्थरों को भी,
प्रेम से ही टिका है,
यह संसार,
अगर प्रेम नहीं होता,
तो कुछ भी नहीं होता,
इंसानियत है जिंदा,
इसी के दम से,
इस संसार में अगर,
प्रेम ही हो गया खत्म,
तो इंसान भी ना रहेगा।,
संसार भी ना रहेगा।
आशा शुक्ला
शाहजहाँपुर, उत्तरप्रदेश
विधा-छंदमुक्त
बहुत लिखा जाता है
प्रेम पर ,बहुत शर्मिंदगी से
लिया जाता है नाम प्रेम
का, पर कोई नहीं
जानता ,यह प्रेम है क्या ?
भोर की पहली किरण
सा ,उष्ण है ये प्रेम,
पूजा के फूलों
की तरह पवित्र है
ये प्रेम, प्रेम ही वह
शक्ति है जो
साधारण से इंसान को
भी मिला देती है
भगवान से ,
प्रेम ही तो वह ताकत
है जो ,धनी को भी
पिघला देती है
निर्धन के दीन संताप से,
प्रेम ही वह शै है
जो ले आती है,
इंसानों को ,
जानवरों के भी पास,
प्रेम ही है वह बला ,
जो इंसान पूजता है,
पत्थरों को भी,
प्रेम से ही टिका है,
यह संसार,
अगर प्रेम नहीं होता,
तो कुछ भी नहीं होता,
इंसानियत है जिंदा,
इसी के दम से,
इस संसार में अगर,
प्रेम ही हो गया खत्म,
तो इंसान भी ना रहेगा।,
संसार भी ना रहेगा।
आशा शुक्ला
शाहजहाँपुर, उत्तरप्रदेश
दिनांक 29-4- 2020
विषय मनपसंद रचना
विधा गीत
कागज पर स्याही से,
हम महल बनाते हैं|
पूरे हो ना पूरे हों,
पर ख्वाब सजाते हैं|
जिंदगी हमको दिन भर,
बस घाव ही देती है|
यह ख्वाब ही हैं हमको,
मरहम जो लगाते हैं|
ख्वाबों और ख्वाहिश का,
बड़ा नाजुक रिश्ता है |
यह ख्वाबही तो जगकर,
ख्वाहिश को जगाते हैं|
ख्वाहिशें तमन्ना को,
परवाज़ कराती हैं|
यह ख्वाब ही है जो ,
उनको पूरा करवाते हैं|
मैं प्रमाणित करता हूं कि
यह मेरी मौलिक रचना है |
( सर्वाधिकार सुरक्षित)
विजय श्रीवास्तव
बस्ती
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विधा गीत
कागज पर स्याही से,
हम महल बनाते हैं|
पूरे हो ना पूरे हों,
पर ख्वाब सजाते हैं|
जिंदगी हमको दिन भर,
बस घाव ही देती है|
यह ख्वाब ही हैं हमको,
मरहम जो लगाते हैं|
ख्वाबों और ख्वाहिश का,
बड़ा नाजुक रिश्ता है |
यह ख्वाबही तो जगकर,
ख्वाहिश को जगाते हैं|
ख्वाहिशें तमन्ना को,
परवाज़ कराती हैं|
यह ख्वाब ही है जो ,
उनको पूरा करवाते हैं|
मैं प्रमाणित करता हूं कि
यह मेरी मौलिक रचना है |
( सर्वाधिकार सुरक्षित)
विजय श्रीवास्तव
बस्ती
II मनपसंद विषय लेखन II नमन भावों के मोती....
विधा: ग़ज़ल - बाँटूँ मैं रोज़ रोज़ लियाकत कहाँ कहाँ....
दिन चार ज़िन्दगी में रिफाकत कहाँ कहाँ....
सच की अदायिगी में अदावत कहाँ कहाँ....
मत सोच झूट को मिली शुहरत कहाँ कहाँ....
ये देख सच ने दी है शहादत कहाँ कहाँ...
क्या आईना दिखाया गया हुकुमरान को...
बरसी है रात जम के कयामत कहाँ कहाँ...
सच पास था जो मेरे वो सब झूट ले गया...
सर पे लगा के मेरे वो तुहमत कहाँ कहाँ....
हिन्दू है मुसलमान है कोई सिख ईसाई है...
भारत को खा रही है सियासत कहाँ कहाँ....
खंजर कहाँ से लाऊँ जो नफरत को चीर दे....
बाँटूँ मैं रोज़ रोज़ लियाकत कहाँ कहाँ....
मिट जाना तय है 'चँदर' तो फिर सोचना भी क्या...
रहमत दुआएं इश्क़ सदाकत कहाँ कहाँ....
रिफाकत = दोस्ती / रिश्ते
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा
विधा: ग़ज़ल - बाँटूँ मैं रोज़ रोज़ लियाकत कहाँ कहाँ....
दिन चार ज़िन्दगी में रिफाकत कहाँ कहाँ....
सच की अदायिगी में अदावत कहाँ कहाँ....
मत सोच झूट को मिली शुहरत कहाँ कहाँ....
ये देख सच ने दी है शहादत कहाँ कहाँ...
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बरसी है रात जम के कयामत कहाँ कहाँ...
सच पास था जो मेरे वो सब झूट ले गया...
सर पे लगा के मेरे वो तुहमत कहाँ कहाँ....
हिन्दू है मुसलमान है कोई सिख ईसाई है...
भारत को खा रही है सियासत कहाँ कहाँ....
खंजर कहाँ से लाऊँ जो नफरत को चीर दे....
बाँटूँ मैं रोज़ रोज़ लियाकत कहाँ कहाँ....
मिट जाना तय है 'चँदर' तो फिर सोचना भी क्या...
रहमत दुआएं इश्क़ सदाकत कहाँ कहाँ....
रिफाकत = दोस्ती / रिश्ते
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा
भावों के मोती
दिनांक- 29/04/ 2020
आज का विषय- मनपसंद विषय लेखन
एक प्रार्थना ईश्वर के नाम *************************************
हे प्रभु आनंद दाता उपकार हम पर कीजिए
भवसागर से उबार हमें दीजिए।
फंसी है नैया बीच मझधार पार इसे कीजिए
हे प्रभु आनंद दाता उपकार हम पर कीजिए।
भूल हुई अगर कोई हमसे तो भूल माफ कीजिए
हे प्रभु आनंद दाता उपकार हम पर कीजिए।
नहीं चाहिए धन-दौलत बस स्नेह अपार दीजिए
स्वस्थ-सुखी हो हर- जन वरदान यह दीजिए।
भवसागर से उबार हमें दीजिए
हे प्रभु आनंद दाता उपकार हम पर कीजिए।
*************************************
हे जगत नियंता- पालनहारी
आन पड़ी हम पर विपदा भारी
सजा दी किस भूल की इतनी भारी
त्राहि-त्राहि कर रही दुनिया सारी।
कठिन परीक्षा की यह घड़ी हमारी
संकट से उबारो हे त्रिपुरारी
कहते एकता में बल है भारी
फिर क्यों बिखरी है दुनिया सारी
मानवता के हम है पुजारी
पर तुमसे बड़ा न कोई उपकारी
धैर्य अपना अब दुनिया हारीव
बस तुमसे है अब आस हमारी।
प्रभु तुम ही हो गिरतों का सहारा
न जाने कितनों को संकट से उबारा
नहीं भूलेंगे हम उपकार तुम्हारा
प्रभु अब हर लो संकट हमारा।
स्वरचित-सुनील कुमार
जिला-बहराइच,उत्तर प्रदेश।
दिनांक- 29/04/ 2020
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भूल हुई अगर कोई हमसे तो भूल माफ कीजिए
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नहीं चाहिए धन-दौलत बस स्नेह अपार दीजिए
स्वस्थ-सुखी हो हर- जन वरदान यह दीजिए।
भवसागर से उबार हमें दीजिए
हे प्रभु आनंद दाता उपकार हम पर कीजिए।
*************************************
हे जगत नियंता- पालनहारी
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संकट से उबारो हे त्रिपुरारी
कहते एकता में बल है भारी
फिर क्यों बिखरी है दुनिया सारी
मानवता के हम है पुजारी
पर तुमसे बड़ा न कोई उपकारी
धैर्य अपना अब दुनिया हारीव
बस तुमसे है अब आस हमारी।
प्रभु तुम ही हो गिरतों का सहारा
न जाने कितनों को संकट से उबारा
नहीं भूलेंगे हम उपकार तुम्हारा
प्रभु अब हर लो संकट हमारा।
स्वरचित-सुनील कुमार
जिला-बहराइच,उत्तर प्रदेश।
मनपसन्द लेखन
संत
सुभ्रमर दोहा
21 गुरु 6 लघु
एकाकार हो ईश से ,पाते ज्ञान सुजान ।
ऐसे ज्ञानी संत से ,होता है उत्थान । ।
पायें गुण संतत्व के ,सच्चाई आधार ।
त्यागे माया मोह को,सन्यासी आचार ।।
संतो के आशीष से,होते पूरे काम ।
अज्ञानी को ज्ञान दे,सिक्त करें हैं धाम ।।
पाखंडी के भेष में,बेच रहे ईमान ।
सच्चे ज्ञानी संत का ,होता है सम्मान।।
अज्ञानी हत्या करें,भरा हुआ क्यों रोष।
लज्जा आती है नहीं,संतो का क्या दोष ।।
अनिता सुधीर आख्या
संत
सुभ्रमर दोहा
21 गुरु 6 लघु
एकाकार हो ईश से ,पाते ज्ञान सुजान ।
ऐसे ज्ञानी संत से ,होता है उत्थान । ।
पायें गुण संतत्व के ,सच्चाई आधार ।
त्यागे माया मोह को,सन्यासी आचार ।।
संतो के आशीष से,होते पूरे काम ।
अज्ञानी को ज्ञान दे,सिक्त करें हैं धाम ।।
पाखंडी के भेष में,बेच रहे ईमान ।
सच्चे ज्ञानी संत का ,होता है सम्मान।।
अज्ञानी हत्या करें,भरा हुआ क्यों रोष।
लज्जा आती है नहीं,संतो का क्या दोष ।।
अनिता सुधीर आख्या
दिनांक - 29,4,2020
दिन - बुधवार
विषय - मन पसंद लेखन ( कल )
कल आज कल में बीतती है ,
जिंदगी हर एक की।
कुछ याद कल को कर रहे हैं ,
बात है ये आज की।
सब गत आगत की चिंता में ,
राह पकड़ें आस की ।
नहीं झाँकते हैं भविष्य में ,
जरूरत अहसास की ।
हमें आज को सुधार कर ही ,
राह मिलेगी कल की ।
प्रेरक बनेगा इतिहास ही ,
होगी नींव आज की ।
स्वरचित , मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश .
दिन - बुधवार
विषय - मन पसंद लेखन ( कल )
कल आज कल में बीतती है ,
जिंदगी हर एक की।
कुछ याद कल को कर रहे हैं ,
बात है ये आज की।
सब गत आगत की चिंता में ,
राह पकड़ें आस की ।
नहीं झाँकते हैं भविष्य में ,
जरूरत अहसास की ।
हमें आज को सुधार कर ही ,
राह मिलेगी कल की ।
प्रेरक बनेगा इतिहास ही ,
होगी नींव आज की ।
स्वरचित , मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश .
मनपसंद विषय- गर्व से कहो हम हिंदी है
दिनांक- 29-०4-२०२०
सर्योदय की प्रथम किरण सी,
शिखरों से झर-झर कर बहती,
कण -कण में आलोड़ित हिन्दी।
सूर, तुलसी और केशव की ,
कविता का आगाज है, हिन्दी
आदिकाल से वर्तमान तक,
पीयूष स्रोत सी बहती हिन्दी।
सुहागन का श्रंगार है बिंदी,
भाषा का श्रंगार है हिन्दी।
मां की लोरी की मीठी थपकी सी
जन-जन का संवाद है हिन्दी
जीवन की सुबह है हिन्दी,
जीवन की शाम है हिंदी
वन -उपवन में सुरभित -पुष्पित,
ऐसी महकती सुवास है हिन्दी,
सरि की लहरों पर इठलाती,
कवियों के भावों में पलती,
कविता की भाषा है हिंदी।
सात स्वरों की सरगम हिन्दी
कानों में मिश्री सी घुल जाये,
जीवन की मिठास है हिंदी।
मंदिर की टन-टन में झंकृत ,
झाँझर की झंन-झंन में झंकृत
तन मन को झंकृत कर देवे ,
ऐसी मीठी तान है हिंदी।
मातृ भाषा ,राजभाषा और राष्ट्रभाषा हिंदी
यह गौरव-गाथा बतलाती,
सबकी प्यारी हिंदी ।
हम हिन्दी हैं, हम हिंदुस्तानी,
यह सुखद अहसास कराती हिन्दी।
स्मृति की जान है हिंदी
स्मृति का अभिमान है हिंदी ,
मेरा सारा जहां है हिन्दी।
दिनांक- 29-०4-२०२०
सर्योदय की प्रथम किरण सी,
शिखरों से झर-झर कर बहती,
कण -कण में आलोड़ित हिन्दी।
सूर, तुलसी और केशव की ,
कविता का आगाज है, हिन्दी
आदिकाल से वर्तमान तक,
पीयूष स्रोत सी बहती हिन्दी।
सुहागन का श्रंगार है बिंदी,
भाषा का श्रंगार है हिन्दी।
मां की लोरी की मीठी थपकी सी
जन-जन का संवाद है हिन्दी
जीवन की सुबह है हिन्दी,
जीवन की शाम है हिंदी
वन -उपवन में सुरभित -पुष्पित,
ऐसी महकती सुवास है हिन्दी,
सरि की लहरों पर इठलाती,
कवियों के भावों में पलती,
कविता की भाषा है हिंदी।
सात स्वरों की सरगम हिन्दी
कानों में मिश्री सी घुल जाये,
जीवन की मिठास है हिंदी।
मंदिर की टन-टन में झंकृत ,
झाँझर की झंन-झंन में झंकृत
तन मन को झंकृत कर देवे ,
ऐसी मीठी तान है हिंदी।
मातृ भाषा ,राजभाषा और राष्ट्रभाषा हिंदी
यह गौरव-गाथा बतलाती,
सबकी प्यारी हिंदी ।
हम हिन्दी हैं, हम हिंदुस्तानी,
यह सुखद अहसास कराती हिन्दी।
स्मृति की जान है हिंदी
स्मृति का अभिमान है हिंदी ,
मेरा सारा जहां है हिन्दी।
मनपसंद विषय #गीतिका
2122 2122 2122 2
आज धरती पर नया सूरज उगाना है।
भर उड़ानें नील नभ को छान आना है।(1)
हौसलों की हम उगाएँगे नयी फसलें,
स्वर्ण की चिड़िया वतन को फिर बनाना है।(2)
वीर ललनायें सभी हम शक्ति है इतनी
दुश्मनों को धूल में जाकर मिलाना है ।
(3)
गीत गायें देवगण समृद्धि की अपनी
फिर वही ऐश्वर्य भारत को दिलाना है।4
लहलहाती थी धरा उन्मुक्त खुशियों से
फिर इसे अब उस तरह ही मुस्कराना है ।(5)
कोख सूनी हो गई थी हाय वसुधा की
फिर वही सन्तानवत पौधे उगाना है।(6)
प्राण दायी इस पवन का कर्ज है हम पर ,
बस प्रदूषण से हमें इसको बचाना है ।(7)
DrHem Lata
Agra UP
2122 2122 2122 2
आज धरती पर नया सूरज उगाना है।
भर उड़ानें नील नभ को छान आना है।(1)
हौसलों की हम उगाएँगे नयी फसलें,
स्वर्ण की चिड़िया वतन को फिर बनाना है।(2)
वीर ललनायें सभी हम शक्ति है इतनी
दुश्मनों को धूल में जाकर मिलाना है ।
(3)
गीत गायें देवगण समृद्धि की अपनी
फिर वही ऐश्वर्य भारत को दिलाना है।4
लहलहाती थी धरा उन्मुक्त खुशियों से
फिर इसे अब उस तरह ही मुस्कराना है ।(5)
कोख सूनी हो गई थी हाय वसुधा की
फिर वही सन्तानवत पौधे उगाना है।(6)
प्राण दायी इस पवन का कर्ज है हम पर ,
बस प्रदूषण से हमें इसको बचाना है ।(7)
DrHem Lata
Agra UP
दिनांक--29/04/2020
विषय--मनपसंद
विधा--अतुकान्त कविता
*******************
------छाया-----
************
अकेला पर्वत
अपने अकेलेपन में
चिलचिलाती धूप में
जलता हुआ
या मुसलाधार बूँदों की
मार सहता हुआ
सोचता है यह
कि कोई छाया मिले
ताकि जलन और आघात से
मुक्ति मिले उसे भी
प्रकृति सुनती है
उसकी बेबस पुकार
फिर फैला देती है
तरुओं की कोमल छाया
और उसके तन पर
असंख्य तृण-गुल्मों की
चादर भी फैला देती है
फिर तो वह पर्वत
अपने बेढ़ब रूपाकार में भी
अत्यंत मनोहर हो जाता है
लोग आते हैं वहाँ
निज मन से लुभाया
धन्य प्रकृति !
धन्य धन्य छाया !!
*********
सुरेश मंडल
पूर्णियाँ,बिहार
विषय--मनपसंद
विधा--अतुकान्त कविता
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------छाया-----
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अकेला पर्वत
अपने अकेलेपन में
चिलचिलाती धूप में
जलता हुआ
या मुसलाधार बूँदों की
मार सहता हुआ
सोचता है यह
कि कोई छाया मिले
ताकि जलन और आघात से
मुक्ति मिले उसे भी
प्रकृति सुनती है
उसकी बेबस पुकार
फिर फैला देती है
तरुओं की कोमल छाया
और उसके तन पर
असंख्य तृण-गुल्मों की
चादर भी फैला देती है
फिर तो वह पर्वत
अपने बेढ़ब रूपाकार में भी
अत्यंत मनोहर हो जाता है
लोग आते हैं वहाँ
निज मन से लुभाया
धन्य प्रकृति !
धन्य धन्य छाया !!
*********
सुरेश मंडल
पूर्णियाँ,बिहार
दिनांक २९-४-२०२०
🙏जीने का अंदाज रखो🙏
जिंदगी जीने का,एक अलग अंदाज मिला मुझको।
अलग रंग ढंग दुनिया के,जिसने समझाया मुझको।
माँ शारदे साज हूँ,माँ कृपा वाणी में रखती ओज हूँ।
मेरे हाथों की रेखाएं,यही सब तो बताती है मुझको।
लड़ लेती मैं जमाने से,पर थे उनमें कुछ मेरे अपने।
कुछ ने समझा मुझे ,कुछ नहीं समझ पाए मुझको।
हाथ कलम धारण की, कुछ कहते पागल मुझको।
कैसे समझाऊ उनको,आप ही समझाओ मुझको।
सबके अंदाज निराले,होठों लतीफे आवाज छाले।
माँ शारदे पारखी नजर,पहचानू हुनर मिला मुझको।
कितने गलत अंदाजो को ,मैंने नजरअंदाज किया।
शारदे आशीष ने,तभी तो यह मुकाम दिया मुझको।
जिंदगी में खुशियां है बहुत ,जीने का अंदाज रखो।
मैं की भावना से दूर रहो ,हम ने दिया सब मुझको।
कहती वीणा,जीवन में कभी भूल उदास मत होना।
यही सबक ले मुझसे,आशीष अपना देना मुझको।
वीणा वैष्णव"रागिनी"
राजसमंद
🙏जीने का अंदाज रखो🙏
जिंदगी जीने का,एक अलग अंदाज मिला मुझको।
अलग रंग ढंग दुनिया के,जिसने समझाया मुझको।
माँ शारदे साज हूँ,माँ कृपा वाणी में रखती ओज हूँ।
मेरे हाथों की रेखाएं,यही सब तो बताती है मुझको।
लड़ लेती मैं जमाने से,पर थे उनमें कुछ मेरे अपने।
कुछ ने समझा मुझे ,कुछ नहीं समझ पाए मुझको।
हाथ कलम धारण की, कुछ कहते पागल मुझको।
कैसे समझाऊ उनको,आप ही समझाओ मुझको।
सबके अंदाज निराले,होठों लतीफे आवाज छाले।
माँ शारदे पारखी नजर,पहचानू हुनर मिला मुझको।
कितने गलत अंदाजो को ,मैंने नजरअंदाज किया।
शारदे आशीष ने,तभी तो यह मुकाम दिया मुझको।
जिंदगी में खुशियां है बहुत ,जीने का अंदाज रखो।
मैं की भावना से दूर रहो ,हम ने दिया सब मुझको।
कहती वीणा,जीवन में कभी भूल उदास मत होना।
यही सबक ले मुझसे,आशीष अपना देना मुझको।
वीणा वैष्णव"रागिनी"
राजसमंद
भावों के मोती
दिनांक - 29/04/2020
मन पसन्द विषय लेखन
"नया सवेरा"
मिटाते चलें हम, गम का अंधेरा
आएं हम लेकर, एक नया सवेरा
ना हो जीवन में, साया दुखों का
जीते रहें सब , हर पल सुखों का ।।
ना बैर किसी से, ना हो दुश्मनी
करें चिंता सबकी, करें फिक्र अपनी
जिएंगे सदा हम, हर पल खुशी का
रखेंगे जब ध्यान, हम हर किसी का ।।
ना कोई अपना, ना कोई पराया
"अपने" की भावना ने, गम में डुबाया
ये संसार अपना, हम भी सभी के
यही सोच हमको, रखे दूर गमों से ।।
संवार लें जिंदगी को, खाएं हम कसम
मुश्किलों में साथ, नहीं छोड़ेंगे हम
सोचें यही ,मिले नया सवेरा
कर जाए जीवन में सुख का बसेरा ।।
स्वरचित मौलिक रचना
"उषा जोशी"
दिनांक - 29/04/2020
मन पसन्द विषय लेखन
"नया सवेरा"
मिटाते चलें हम, गम का अंधेरा
आएं हम लेकर, एक नया सवेरा
ना हो जीवन में, साया दुखों का
जीते रहें सब , हर पल सुखों का ।।
ना बैर किसी से, ना हो दुश्मनी
करें चिंता सबकी, करें फिक्र अपनी
जिएंगे सदा हम, हर पल खुशी का
रखेंगे जब ध्यान, हम हर किसी का ।।
ना कोई अपना, ना कोई पराया
"अपने" की भावना ने, गम में डुबाया
ये संसार अपना, हम भी सभी के
यही सोच हमको, रखे दूर गमों से ।।
संवार लें जिंदगी को, खाएं हम कसम
मुश्किलों में साथ, नहीं छोड़ेंगे हम
सोचें यही ,मिले नया सवेरा
कर जाए जीवन में सुख का बसेरा ।।
स्वरचित मौलिक रचना
"उषा जोशी"
दि.29/4/20.
मन पसंद विषय लेखन
दो मुक्तकः
* अफवाहों को हवा न दो ,मत झूठ उछालो।
गंगा - जमुनी प्रिय तसबीर, बिगाड़ न डालो।
अरे ! धर्मं के मठाधीश , या ठेकेदारो,
झाँको ,आँको भीतर, भय के साँप न पालो।।
*
संशय-सर्पों की फुफ़कारें , केवल ज़हर - ज्वाल उगलेंगी।
जो उपवन की हरियाली सँग,तिनका-तरु-डालें डँस लेगी।
सोचो ,समझो,वैमनस्य से,सुख की हवा कहाँ बह सकती?
'जियो और जीने दो'की भावना,सुरक्षित क्या रह सकती?
-डा.'शितिकंठ'
मन पसंद विषय लेखन
दो मुक्तकः
* अफवाहों को हवा न दो ,मत झूठ उछालो।
गंगा - जमुनी प्रिय तसबीर, बिगाड़ न डालो।
अरे ! धर्मं के मठाधीश , या ठेकेदारो,
झाँको ,आँको भीतर, भय के साँप न पालो।।
*
संशय-सर्पों की फुफ़कारें , केवल ज़हर - ज्वाल उगलेंगी।
जो उपवन की हरियाली सँग,तिनका-तरु-डालें डँस लेगी।
सोचो ,समझो,वैमनस्य से,सुख की हवा कहाँ बह सकती?
'जियो और जीने दो'की भावना,सुरक्षित क्या रह सकती?
-डा.'शितिकंठ'
मनपसन्द विषय लेखन
29/08/2020
सकल पदार्थ है घर मांही।
घर बैठकर आनंद उठाहीं।।
बाहर होवे है बड़ी ठुकाई।
पिछवाड़ो वा देत सुजाई।।
घर बैठकर बीवी निहारो।
चुप रहकर काज सँवारो।।
गृहकार्य में हाथ बंटाओ।
भार्या बोले चुप है जाओ।।
मत घूमें तूँ बरमुडा पहन।
ना होवे श्रीमती से सहन।।
ऐश किन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय कोई नाई।।
©️अश्वनी कुमार चावला"ऐश"✍🏻
अनूपगढ़,श्रीगंगानगर,
29/08/2020
सकल पदार्थ है घर मांही।
घर बैठकर आनंद उठाहीं।।
बाहर होवे है बड़ी ठुकाई।
पिछवाड़ो वा देत सुजाई।।
घर बैठकर बीवी निहारो।
चुप रहकर काज सँवारो।।
गृहकार्य में हाथ बंटाओ।
भार्या बोले चुप है जाओ।।
मत घूमें तूँ बरमुडा पहन।
ना होवे श्रीमती से सहन।।
ऐश किन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय कोई नाई।।
©️अश्वनी कुमार चावला"ऐश"✍🏻
अनूपगढ़,श्रीगंगानगर,
विषय : मनपसंद विषय लेखन
विधा : कविता
तिथि : 29.4.2020
जगाओ नैतिकता
------------------
फैली है महामारी
खतरनाक अत्याचारी।
लगी पुकार डॉक्टरों पर-
आन पड़ी है तुम पर ज़िम्मेदारी भारी।
तुम्ही हो सैनिक, लड़ो इससे-
जैसे सीमा पर लड़ती सेना सारी।
डॉक्टरों ने तो लगा दी जान-
पर सरकार की न थी पूरी तैयारी।
आधे-अधूरे सुरक्षा कवच-
कर्त्तव्य निभाते हुए कइयों ने जान हारी।
सीमा पर सैनिक, बीमारी में डॉक्टर-
देवें जान, निभाएं कर्तव्य, जब जब स्थिति खारी!
पर शेष लोग क्या सिर्फ़ ताली बजाएं गे-
चंदे एकत्र करेंगे , और नए आदेश करें गे जारी?
कोई तोड़ते कानून
कोई डॉक्टरों की सेवा ले कर,उन्हीं को देते गाली,
न डॉक्टरों को सुरक्षा, न आवश्यक सेवा कर्मियों को सुरक्षा-
न टैक्स की छूट, ऊपर से जी एस टी भारी!
कहीं स्थिति का लाभ उठा कर कमा रहे कई ढेरों ढेर मुनाफ़ा
40 रु का मास्क 400रु में, बेच रहे व्यापारी?
क्यों धार्मिक संस्थाएं, मूक बनी बैठीं-
उठाती क्यों नहीं, डॉक्टरों के सुरक्षा कवचों की ज़िम्मेवारी?
जागो नैतिकता जागो, सभी जनता वर्गों में जागो
गेरुए हों, शिक्षक हों, कर्मचारी या खादी व सत्ताधारी,
जगाओ एक दूजे को, जगाओ निज अंतर को-
जगाओ सोई नैतिकता को, चाहे अपनी हो या सरकारी!
देश के भारी संकट में सारे जनता वर्ग-
एक हो कर बनो नैतिकता-धारी?
एकता के बल के आगे-
झुक जाती हर दुश्वारी।
-रीता ग्रोवर
-स्वरचित
विधा : कविता
तिथि : 29.4.2020
जगाओ नैतिकता
------------------
फैली है महामारी
खतरनाक अत्याचारी।
लगी पुकार डॉक्टरों पर-
आन पड़ी है तुम पर ज़िम्मेदारी भारी।
तुम्ही हो सैनिक, लड़ो इससे-
जैसे सीमा पर लड़ती सेना सारी।
डॉक्टरों ने तो लगा दी जान-
पर सरकार की न थी पूरी तैयारी।
आधे-अधूरे सुरक्षा कवच-
कर्त्तव्य निभाते हुए कइयों ने जान हारी।
सीमा पर सैनिक, बीमारी में डॉक्टर-
देवें जान, निभाएं कर्तव्य, जब जब स्थिति खारी!
पर शेष लोग क्या सिर्फ़ ताली बजाएं गे-
चंदे एकत्र करेंगे , और नए आदेश करें गे जारी?
कोई तोड़ते कानून
कोई डॉक्टरों की सेवा ले कर,उन्हीं को देते गाली,
न डॉक्टरों को सुरक्षा, न आवश्यक सेवा कर्मियों को सुरक्षा-
न टैक्स की छूट, ऊपर से जी एस टी भारी!
कहीं स्थिति का लाभ उठा कर कमा रहे कई ढेरों ढेर मुनाफ़ा
40 रु का मास्क 400रु में, बेच रहे व्यापारी?
क्यों धार्मिक संस्थाएं, मूक बनी बैठीं-
उठाती क्यों नहीं, डॉक्टरों के सुरक्षा कवचों की ज़िम्मेवारी?
जागो नैतिकता जागो, सभी जनता वर्गों में जागो
गेरुए हों, शिक्षक हों, कर्मचारी या खादी व सत्ताधारी,
जगाओ एक दूजे को, जगाओ निज अंतर को-
जगाओ सोई नैतिकता को, चाहे अपनी हो या सरकारी!
देश के भारी संकट में सारे जनता वर्ग-
एक हो कर बनो नैतिकता-धारी?
एकता के बल के आगे-
झुक जाती हर दुश्वारी।
-रीता ग्रोवर
-स्वरचित
दिनांक 29/4/ 2020
आयोजन मनपसंद
सामंत आन
पदान्त है
चामर छंद आधारित गीतिका
21 21 21 21 21 21 21 2
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
त्याग दें बुरा सभी भला सुमीत मान है।
वो बुला रही सुना जनाब प्रीत गान है।
🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️
शोध बोध सिद्धि साधना रहे प्रमाण जो,
पूर्ण ज्ञान वेद मान बांँट रीत आन है।
🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼
जीव का भला करो रखो महान भावना,
नेक कर्म राह चलो दया नीति दान है।
🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸
आप से बड़ी नहीं विशेष आज बात है,
वर्तमान देखलो सँभाल एक जान है।
🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀
दर्द चीख सामना बहाव मौत हो रहा,
यातना सहें नही बचाव ही बिहान है
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
स्वरचित मौलिक
केशरी सिंह रघुवंशी हंस
आयोजन मनपसंद
सामंत आन
पदान्त है
चामर छंद आधारित गीतिका
21 21 21 21 21 21 21 2
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त्याग दें बुरा सभी भला सुमीत मान है।
वो बुला रही सुना जनाब प्रीत गान है।
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शोध बोध सिद्धि साधना रहे प्रमाण जो,
पूर्ण ज्ञान वेद मान बांँट रीत आन है।
🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼
जीव का भला करो रखो महान भावना,
नेक कर्म राह चलो दया नीति दान है।
🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸
आप से बड़ी नहीं विशेष आज बात है,
वर्तमान देखलो सँभाल एक जान है।
🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀
दर्द चीख सामना बहाव मौत हो रहा,
यातना सहें नही बचाव ही बिहान है
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
स्वरचित मौलिक
केशरी सिंह रघुवंशी हंस
दिनांक 29 अप्रैल 2020
विषय मनपसंद
वायरस का ऐसा कहर पहली बार देखा है
सूना सूना सा ऐसा शहर पहली बार देखा है
सूनी गलियां, बंद बाजार, सडको पे सन्नाटा
जीवन का कुछ ऐसा पहर पहली बार देखा है
खौफ मे है जिंदगी और मृत्यु तांडव कर रही
फिजा मे घुला ऐसा जहर पहली बार देखा है
सोच मे डूबा इंसान न जाने क्या होगा कल
मेरी बस्ती मे ऐसा असर पहली बार देखा है
हो सब कुछ अच्छा, हर दिल की इच्छा यही
लडता एकजुट ऐसा शहर पहली बार देखा है
कमलेश जोशी
विषय मनपसंद
वायरस का ऐसा कहर पहली बार देखा है
सूना सूना सा ऐसा शहर पहली बार देखा है
सूनी गलियां, बंद बाजार, सडको पे सन्नाटा
जीवन का कुछ ऐसा पहर पहली बार देखा है
खौफ मे है जिंदगी और मृत्यु तांडव कर रही
फिजा मे घुला ऐसा जहर पहली बार देखा है
सोच मे डूबा इंसान न जाने क्या होगा कल
मेरी बस्ती मे ऐसा असर पहली बार देखा है
हो सब कुछ अच्छा, हर दिल की इच्छा यही
लडता एकजुट ऐसा शहर पहली बार देखा है
कमलेश जोशी
दिनाँक-29/4/2020
बिषय- मन पसंद
विधा-छन्द मुक्त काव्य
शीर्षक--मैजीवन हूँ
मै जीवन हूँ
कभी फूल सा कोमल
कभी बज्र सा कठोर
कभी अमावस सा काला
कभी चाँदनी सा उजला हूँ!
मैंजीवन हूँ,
चारअवस्थाएं मेरी हैं
नारी और पुरूष सबमें हूँ
हर सासों मे मेरा बसेरा
ना मैं मेरा हूँ ना मैं तेरा हूँ!
मै जीवन हूँ,
कभी प्रेम का मीठा सागर
कभी तिरष्कार का मारा,
कहीं थनी का खजाना हूँ,
कहीं निर्धन की झोपडी हूँ!
मैंजीवम हूँ,
संबंधों का मीठा कुआँ हूँ
कभीअकेलेपन का खण्डहर ,
कहीं फूलों का उपबन हूँ,
कहीं कंटीला जंगलहूँ!
मैजीवन हूँ,
रेगिस्तान की रेत हूँ मैं,
हिमालय की ठंडक हूँ,
गहरा हूँ भवसागर सा
कहीं चंचल नदी जल हूँ!
मै जीवन हूँ,
कभी सुखद हूँ कभी दु:खद हूँ,
कहीं सरल हूँ कहीं जटिल हूँ,
कभी अडिग हूँ कभी क्षणिक हूँ,
हाँ मै जीवन हूँ ,हाँ मै ही जीवन हूँ
स्वरचित
साधना जोशी
उत्तर काशी
उत्तराखण्ड
बिषय- मन पसंद
विधा-छन्द मुक्त काव्य
शीर्षक--मैजीवन हूँ
मै जीवन हूँ
कभी फूल सा कोमल
कभी बज्र सा कठोर
कभी अमावस सा काला
कभी चाँदनी सा उजला हूँ!
मैंजीवन हूँ,
चारअवस्थाएं मेरी हैं
नारी और पुरूष सबमें हूँ
हर सासों मे मेरा बसेरा
ना मैं मेरा हूँ ना मैं तेरा हूँ!
मै जीवन हूँ,
कभी प्रेम का मीठा सागर
कभी तिरष्कार का मारा,
कहीं थनी का खजाना हूँ,
कहीं निर्धन की झोपडी हूँ!
मैंजीवम हूँ,
संबंधों का मीठा कुआँ हूँ
कभीअकेलेपन का खण्डहर ,
कहीं फूलों का उपबन हूँ,
कहीं कंटीला जंगलहूँ!
मैजीवन हूँ,
रेगिस्तान की रेत हूँ मैं,
हिमालय की ठंडक हूँ,
गहरा हूँ भवसागर सा
कहीं चंचल नदी जल हूँ!
मै जीवन हूँ,
कभी सुखद हूँ कभी दु:खद हूँ,
कहीं सरल हूँ कहीं जटिल हूँ,
कभी अडिग हूँ कभी क्षणिक हूँ,
हाँ मै जीवन हूँ ,हाँ मै ही जीवन हूँ
स्वरचित
साधना जोशी
उत्तर काशी
उत्तराखण्ड
दिनांक 29।4।2020 दिन बुधवार
विषय मन पसंद लेखन
नारी व्यथा
भारतीय संस्कृति की सुपोषिका नारी है गौरव गाथा।
देवों का भी जिनके सम्मुख झुकता था उन्नत माथा।।
गार्गी अपाला अरुंधती सावित्री सीता गुण खानी।
अनुसूया मंदोदरी तारा राधा गिरिजा पद्मा ज्ञानी।।
विद्या वैभव शक्ति स्वामिनी देवी हैं नारी रूपा।
सरिता सम शीतलकारी हैं पोषण कारी मातृ स्वरूपा।।
वंदनीय थीं सभी नारियाँ जिनसे रक्षित गौरवगान।
तीनों ऋण पूरा करने में देतीं अपना सम्पूर्ण योगदान।।
भारत की प्राचीन परंपरा नारी बिना अधूरी थी।
मध्यकाल तक आते आते नारी बनी मयूरी थी।।
वन्दनीय से भोग्या बन राजाओं के मन बहलाने का साधन।
श्रृंगारिक नख-शिख वर्णन सुनना उनका मात्र मनोरंजन।।
ग्रसित हुआ नारी का गौरव पुरूष आश्रिता कहलाई।
अर्धांगिनी सहचरी थी अब गई अनुचरी बतलाई।।
विवश हो गई है नारी अब शापित जीवन जीने को।
अत्याचारों की मारी बेबस अपमानित विष पीने को।।
नारी की व्यथा लिखी जाए तो महाकाव्य बन सकता हैं।
नारी के आँखों से निकले जल से सागर भी भर सकता है।।
पुरूष प्रधानता है समाज में नारी का अस्तित्व नहीं।
हुई शिकार दमन की अब तो जैसे उसका कोई स्वत्व नहीं।।
जीवन देने वाली नारी जीवन की रक्षा माँग रही।
कैसा समाज का रूप बना नारी खुद से भाग रही।।
कृष्ण मुरारी लाज बचाने एक बार फिर से आओ।
नारी को सम्मान दिलाने चीर शील का फैलाओ।।
फूलचंद्र विश्वकर्मा
विषय मन पसंद लेखन
नारी व्यथा
भारतीय संस्कृति की सुपोषिका नारी है गौरव गाथा।
देवों का भी जिनके सम्मुख झुकता था उन्नत माथा।।
गार्गी अपाला अरुंधती सावित्री सीता गुण खानी।
अनुसूया मंदोदरी तारा राधा गिरिजा पद्मा ज्ञानी।।
विद्या वैभव शक्ति स्वामिनी देवी हैं नारी रूपा।
सरिता सम शीतलकारी हैं पोषण कारी मातृ स्वरूपा।।
वंदनीय थीं सभी नारियाँ जिनसे रक्षित गौरवगान।
तीनों ऋण पूरा करने में देतीं अपना सम्पूर्ण योगदान।।
भारत की प्राचीन परंपरा नारी बिना अधूरी थी।
मध्यकाल तक आते आते नारी बनी मयूरी थी।।
वन्दनीय से भोग्या बन राजाओं के मन बहलाने का साधन।
श्रृंगारिक नख-शिख वर्णन सुनना उनका मात्र मनोरंजन।।
ग्रसित हुआ नारी का गौरव पुरूष आश्रिता कहलाई।
अर्धांगिनी सहचरी थी अब गई अनुचरी बतलाई।।
विवश हो गई है नारी अब शापित जीवन जीने को।
अत्याचारों की मारी बेबस अपमानित विष पीने को।।
नारी की व्यथा लिखी जाए तो महाकाव्य बन सकता हैं।
नारी के आँखों से निकले जल से सागर भी भर सकता है।।
पुरूष प्रधानता है समाज में नारी का अस्तित्व नहीं।
हुई शिकार दमन की अब तो जैसे उसका कोई स्वत्व नहीं।।
जीवन देने वाली नारी जीवन की रक्षा माँग रही।
कैसा समाज का रूप बना नारी खुद से भाग रही।।
कृष्ण मुरारी लाज बचाने एक बार फिर से आओ।
नारी को सम्मान दिलाने चीर शील का फैलाओ।।
फूलचंद्र विश्वकर्मा
.. भावों के मोती
************************************
विषय.............नवगीत
विधा..............लावणी छंद
मात्राभार.........(16,14)
★★★★★★★★★★★★★★★★★
*दिनाक --------- 29/04 /2020*
*दिन --------------.बुधवार*
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
ध्रुव पंक्ति:-
*नमन करूँ मैं माँ शारद को,*
*मुझको नित ही ज्ञान मिले।*
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
नेह सुधा रस पावन जग में,
दिव्य ज्योति का मान मिलें।
*नमन करूँ मैं माँ शारद को,*
*मुझको नित ही ज्ञान मिले।*
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
श्वेत विमल तन भायी माता,
सात स्वरों की तु भवानी।
श्वेत हंस चरणन ही भाता,
ज्ञान बुद्धि की तु सयानी।
भाष बोल मधुरस सा भर दो,
मुझको सद सम्मान मिलें।
*नमन करूँ मैं माँ शारद को,*
*मुझको नित ही ज्ञान मिले।*
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
वीणा पुस्तक कर पर सोहे,
कंठ गले पर साज धरें।
ज्ञान दायिनी माता जग की,
नैतिक उर आनंद भरे।
यश वैभव का मानव जग में,
मुझको भी वरदान मिलें।
*नमन करूँ मैं माँ शारद को,*
*मुझको नित ही ज्ञान मिले।*
************************************
स्वलिखित
*कन्हैया लाल श्रीवास 'आस'*
भाटापारा छ.ग.
जि.बलौदाबाजार भाटापारा
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विषय.............नवगीत
विधा..............लावणी छंद
मात्राभार.........(16,14)
★★★★★★★★★★★★★★★★★
*दिनाक --------- 29/04 /2020*
*दिन --------------.बुधवार*
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ध्रुव पंक्ति:-
*नमन करूँ मैं माँ शारद को,*
*मुझको नित ही ज्ञान मिले।*
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नेह सुधा रस पावन जग में,
दिव्य ज्योति का मान मिलें।
*नमन करूँ मैं माँ शारद को,*
*मुझको नित ही ज्ञान मिले।*
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श्वेत विमल तन भायी माता,
सात स्वरों की तु भवानी।
श्वेत हंस चरणन ही भाता,
ज्ञान बुद्धि की तु सयानी।
भाष बोल मधुरस सा भर दो,
मुझको सद सम्मान मिलें।
*नमन करूँ मैं माँ शारद को,*
*मुझको नित ही ज्ञान मिले।*
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वीणा पुस्तक कर पर सोहे,
कंठ गले पर साज धरें।
ज्ञान दायिनी माता जग की,
नैतिक उर आनंद भरे।
यश वैभव का मानव जग में,
मुझको भी वरदान मिलें।
*नमन करूँ मैं माँ शारद को,*
*मुझको नित ही ज्ञान मिले।*
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स्वलिखित
*कन्हैया लाल श्रीवास 'आस'*
भाटापारा छ.ग.
जि.बलौदाबाजार भाटापारा
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