Sunday, March 31

" स्वतंत्र लेखन "31 मार्च 2019

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"स्वतंत्र"
विधा:-पिरामिड

1)
ये
नारी
दामिनी
सीता तुल्य
अभिनन्दन
खिला उपवन
अद्भुत द्रव्य मन।।

2)
ये
शुचि
जननी
हरियाली
प्रेम संस्कार
वेद ग्रँथ सार
अभिनन्दित भूमि।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित मौलिक


मन......?

मौन एक कथा है....... या एक व्यथा है

मन के कोरे कागज पे

चली लेखनी विचारों की।

मन से ही क्यों पूछ रहे हो

कौन गली है हम बंजारों की।

मन ने छोड़ा जब साथ हमारा

तुमने थामा जब हाथ हमारा

अब चाह नहीं है उपहारों की।

तुम बिन अब अच्छा लगता नहीं

खाली तस्वीर दीवारों की।

मौन एक कथा है बस........

या एक व्यथा है बस..........

द्रवित हृदय के उद्गारो की।

कभी अपने मन से पूछो ?

रहते हो दौलत की इमारत में

खुद को समझो खुद से

आत्मा की अदालत में।

एक ज्वाला है तन में

एक ज्वाला है मन में

एक ज्वाला है वतन में

एक ज्वाला है जहन में

कैसे हो ज्वाला का दहन

एक भड़की है आग

इस व्याग्र मन में

क्यू एकांत चाहे मेरा मन

मन की चाहत ,मन की भाषा

समझ ना पाए अब तक कोई

गजब है एक ऐसी जिज्ञासा

स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित@#$
सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज


विधा-छंदमुक्त
आज का आयोजन-स्वतंत्र लेखन


"चुनावी तान"

मीठे वादों की सौगात तो देखो
अब कोयल-सी इनकी आवाज देखो
हटा देगें हम गरीबी 
नेताओं की स्याह चाल तो देखो।

वादे सब चकानाचूर तो देखो
बनी गरीबी नासूर तो देखो
मरता है रोज मजदूर 
चढा शूली पर आज किसान तो देखो।

बदला देश का वर्तमान तो देखो
बातों में इनके तूफान तो देखो
गरीब नहीं रहेगा देश में कोई
नेताओं की चुनावी तान तो देखो।

आ गई हाथ में सता तो देखो
बदले नेताओं के सुर-ताल तो देखो।
खड़ी है गरीबी चौराहे पर अभी
नेताजी हुए मालामाल तो देखो।

राकेशकुमार जैनबन्धु
गाँव-रिसालिया खेड़ा,सिरसा
हरियाणा


* विधा - बंधन मुक्त गीतिका 
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
पड ना जाए अकाल घमासान ,पानी की बचत कर ! 
कहीं प्यासा ना रहे हिन्दुस्तान ,पानी की बचत कर !!

घायल है प्रकृति और हरियाली का हटता आवरण !
प्रदूषण का चूर कर अभिमान ,पानी की बचत कर !!

लहुलहान है नदियाँ ये घाव सहती झीले व पोखर ! 
चम्बल बचा ,कर अभियान पानी की बचत कर !!

यह ना हिन्दू है ना मुसलमान ,ना सिक्ख ना ईसाई !
बांट सबमे तू इसे एक समान ,पानी की बचत कर !!

ये बची हरयाली कोई चुरा ना ले हमसे कोई यहाँ !
दुश्मनो को कर सावधान ,पानी की बचत कर !! 

कदम - कदम पर खुशियों की खेती हो यहाँ अब !
मिटा दे वीराना रेगिस्तान , पानी की बचत कर !!

सपने ना बिखर जाए ,इसे सच करने की चाह लें !
कब से खड़ा है ऊँटवान , पानी की बचत कर !!

जल नहीं तो कल नहीं ,यह शाश्वत सच है प्यारे !
घर में आने वाला मेहमान ,पानी की बचत कर !!

हरीतिमा छाए कण कण में ,कर प्रयास तू अब तो !
जन जन का है आव्हान , पानी की बचत कर !! 

* प्रहलाद मराठा 


विधा- गीतिका छन्द

गीतिका छन्द में एक प्रेम गीत-------

अश्रु जल भरकर नयन में याचना करते रहे।
इस तरह ही उम्र भर हम वन्दना करते रहे।।

तुम पुरुष हो है तुम्हें अधिकार जो चाहो करो,
है मुझे आदेश सह लो और घुट-घुट कर मरो।
तुम रचा सकते यहाँ संसार नित अपना नया,
मौन हो लूं कुछ न बोलू कह रही मुझसे हया।

राह में व्याकुल खड़े हम कामना करते रहे।
इस तरह ही उम्र भर हम वन्दना करते रहे।।

एक थी मन की कसक जो भावनाओं में ढली,
राह थी ऐसी अपरिचित मैं नही अब तक चली,
थी मधुर बेला नयन मूंदें रहे थे हम खड़े,
मैं चकित साभार थी पग लोकलज्जा में जड़े।

देव प्राणों में बसे हम प्रार्थना करते रहे।
इस तरह ही उम्र भर हम वन्दना करते रहे।।

कह नहीं सकती ह्रदय की जीत थी या हार थी,
तन समर्पित था उन्हें पर वेदना सुकुमार थी।
मैं तुम्हारा चाँद लेकर रात भर जगती रही,
वेदना से छटपटाती देह ये गलती रही।

नेह का दीपक जला कर साधना करते रहे।
इस तरह ही उम्र भर हम वन्दना करते रहे।।

ध्येय ही जब मिट गया हो धैर्य हम कैसे धरें?
गीत ही जब खो गया हो राग लेकर क्या करें?
पग जिसे मंजिल समझ कर रुक गये थे राह में,
शून्य भरकर चल दिये हैं चिर मिलन की चाह में।

प्रेम को पूजा समझ आराधना करते रहे।
इस तरह ही उम्र भर हम वन्दना करते रहे।।

राजेश बाजपेयी
लखीमपुर खीरी
सर्वाधिकार सुरक्षित रचना


वोट हमारा है अधिकार।
वोट से करो सच्चा प्यार।

वोट शासन की सरिता है।
वोट विकास की सविता है।
वोट जिन्दगी का किरदार-----

वोट विकास की गुनिया है।
वोट चेतन की दुनिया है।
वोट सभी दें तो हुशियार ------

एक दिन का राज वोट है।
करना हमें सही चोट है।
डालो वोट मिला हक यार----

सभी दलों के लें पहचान।
उम्मीदवार को भी जान।
वोट सत्य की सही पुकार-----

सही चयन पूरा मतदान।
तभी देश का हो कल्याण।
वोट बनता है प्रगति द्वार।
वोट हमारा है अधिकार।

*********************
प्रबोध मिश्र 'हितैषी'
बड़वानी(म.प्र.)45155

शिक्षा ज्यौति उदित हुई है
हर नर को कर काम देदो
मेहनतकश युवा दुःखी सब
उनके दिल को अब न भेदो
बड़ी परीक्षा से वे गुज़रे
तब उपाधि हाथ मे आई
पद एक सैकड़ो की संख्या
श्रम करके मुँह की खाई
बेरोजगारी एक अभिशाप
काम नहीं तो दाम नहीं है
शिक्षित होकर आस पराई
यह जीवन में सही नहीं है
भूखा नर क्या पाप न करता
है कहावत बड़ी पुरानी
आत्मविश्वास हिले युवक का
है दयनीय युवा कहानी
आसमान छू रही मंहगाई
सुरसा जैसा मुँह फैलाये
कौन सहारा है जीवन में
बेरोजगार समीप बुलाये
आशा और विश्वास स्वप्न 
दहक रहे अग्नि के अंदर
हरे हो रहे दर्द अनौखे 
हाल बना उसका है बदतर
सगे संबंधी सब कतराते
सदा दूरियां वे रखते हैं
बेकार है, अति निकम्मा
ताने सब मिल कसते हैं
अपराधी बन शिक्षित भटके
रोज़गार नित विज्ञापन देखे
कड़ी परीक्षा बेसहारा वह
जीवन मे क्या दुःख न झेले
युवावर्ग के परिश्रम से ही
सदा राष्ट्र जग आगे बढ़ता
विकसित होता राष्ट्र विश्व में
सत्यमेव जीवन वह गढ़ता।।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।


■गजल 
■तिथि_31\3\2019

मुहब्बत है मुझसे इस बात का इस्बात तो हो
तुझसे वास्ता जानलूँ एक मुलाकात तो हो।

जलता रहा हूँ मैं कतरा कतरा शबनम से
भीगना चाहता हूं इश्क में बरसात तो हो।

ढल कर हर शामें भी सहर हो जाती है।
लम्हा लम्हा शब में ठहर कर बात तो हो।

इस सफर में तेरे सिवा न मुकाम आएगा
जैसी भी हो तुम मगर मेरी हयात तो हो।

इतना भी बे दाद न कीजिये उल्फ़तमें#राय
चले आओ मुकम्मल एक हसीं रात तो हो।

पी राय राठी
भीलवाड़ा, राज


1 

शूल की जीत 
गुलाब की खुशबु 
महकी प्रीत 

2

सुहानी भोर 
मनोहर मुस्कान 
चहके पक्षी 



ऊँची उड़ान 
हंसते गाते पक्षी 
भूले थकान 


प्राची के नाम 
भानु की प्रेमपाती 
मुस्काती प्रभा 



सिंदूरी भाल 
महके प्राची गात 
अरुण साथ 



बादल ओट 
अरूणाई लजायी 
रवि चुम्बन 

(स्वरचित )सुलोचना सिंह 
भिलाई (दुर्ग )


!! चुनावी बिगुल !!

चुनावी नगाड़े बज रहे

कुछ सीट पाकर हँस रहे !!

कुछ मन पसंद नही पाये
वो असमंजस में फँस रहे !! 

नेताओं के इम्तिहान हैं
वो घर घर जाकर नच रहे !!

बड़े बड़े वादे देकर वह 
आम जन को गस रहे !!

बड़े प्यारे नजारे ''शिवम" 
साज कैसे कैसे सज रहे !! 

बच्चों को भी मात देते 
हमें नेता आज दिख रहे !!

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्" 
स्वरचित 31/03/2019


विषय _ स्वतंत्र लेखन
विधा _ग़ज़ल 

ये है बात अपनी मुलाकात की । 
वो शायद सुबह थी बरसात की ।।

मुहब्बत थी उससे जता न सकी । 
तो समझे ही क्यों बात हालात की ।

नहीं अब करेंगे गिला आपसे ।
भूले हम भी पल अब वो लम्हात की ।।

हमें ना पता कब दगा दे गया ।
न फिक्र उनको थी जज़्बात की ।।

अकेले बुलाया है जाना पड़े । 
वजह क्या है ऐसी मुलाकात की ।।

तनुजा दत्ता (स्वरचित )


स्वतन्त्र विषय लेखन
💐💐💐
💐💐💐💐
राधा की विरह वेदना
🍀🍀🍀🍀🍀🍀
माने ना,माने ना,माने ना।
मोरा चंचल जियरा माने ना।

जब से श्याम ने छोड़ा ब्रज को,
उन बिन मोहे कछु भाये ना।
मोरा............

सूना आँगन,सूनी गलियाँ।
सूना है मधुबन।
सूनी आँखें राह तकत हारे,
अबहूँ श्याम आये ना।
मोरा.........

सुध,बुधखोकर,व्याकुल होकर,
दौड़ी जाऊँ यमुना तट पर।
गोप,ग्वाल सब रो,रोकर हारे,
पर अजहूँ श्याम आये ना।
मोरा.............
🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी


दिल बहुत नाजुक होता यारो
इस पर कभी तुम वार न करना।

किसी को बना सको तो ठीक,
तुम दिल पर प्रहार न करना।

दिल तो दिल मोहित हो जाऐ,
इसको कभी जुदा न करना।

सहयोग करें तो अच्छा वरना,
दुखियों को यूं दुखी न करना।

परोपकार दिल से सुखदायक,
स्वयं का पुण्य प्रताप न हरना।

शुभकर्म तो दिल से करलें प्यारे,
जीवन झोली दुख से न भरना।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.



 रिश्ते ...


******
कुछ अनमोल रिश्ते ...
जो बांधते हैं हमें ....
एक प्रेम की डोर से ....
वो बड़े नाज़ुक़ होते हैं ...
ज्यूँ ग़ुलाब की पंखुड़ियाँ ...
हाँथ लगते ही टूट कर 
बिख़र जातीं है ...
बस वैसा ही हमारा रिश्ता भी ...
फूलों सा नाज़ुक होता है ...
और ज़रा सा ''नफरतों'' की। .
आँधियाँ क्या चलती ...
बिना आवाज़ ही ...
टूट कर बिखर जाती हैं !!
ठीक वैसे ही जैसे धरती पर खड़ा ..
अडिग प्रहरी सा कोई ....
पुराना दरख़्त ...
आँधी तूफां से हार कर ...
छोड़ देता है अपनी जड़ें ...
ठीक वैसे ही हमारे रिश्तें ...
''गलत फ़हमियों'' की आग़ में ..
झुलस जाते हैं ....
जैसे बिख़र जाते हैं ....
जब भर जाती है। ...
''वहम'' की कड़वाहट ....
और बिख़र जाते है टूट कर ...
वो रिश्तों की मोतियाँ .....
जिन्हें पिरोते हैं हम प्रेम की डोरी में .....
फ़िर !! क्यूँ ना समेट लें हम ?
उन अनमोल रिश्तों को !!
क्यों ना मिटा दें अपने ''वहम ''को ?
क्यों ना त्याग दें अपनी ''नराजगी'' को ?
क्यों ना झुंक कर उठा लें 
उन बिखरे मोतियों को ?
और गूँथ लें रिश्तों की माला !!
बाँध दे एक ''प्यार के रिश्ते'' की ..
मज़बूत ''गाँठ'' !!!!
जिसे कोई आंधी ना उड़ा सके ...
कोई तूफां ना मिटा सके ....
कोई सैलाब ना बहा सके ...
चलो फ़िर से एक हो जाएँ !
सुन रहे हो न !!!!!
****************
# मणि बेन द्विवेदी


***
अस्मिता को तार कर ,आत्मा पर वार कर
मान पर चोट कर कहाँ भाग जाएगा ।

रक्तरंजित तन ये ,बदले की आग लिये 
स्वरूप चंडी का धरे , तुम्हें ढूँढ़ लाएगा ।

हाथ में कटार लिये ,लक्ष्य पर दृष्टि किये 
प्रहार से दुष्ट अब , कैसे बच पाएगा ।

गोद मे बेटी दुलारी,पड़ी जो दृष्टि तुम्हारी
दुर्बल न समझ तू , मुंड कट जाएगा ।

कभी दुर्गा कभी काली, कभी लक्ष्मीबाई बन
पाप के विरुद्ध खड़ी , अंत तेरा आएगा ।


स्वरचित 31.3.2019
इस फागुनी बयार का अहसास चुभन है।
तन की है और मन व आँसुओं की छुवन है।।
आमों की डालियों में आया बौर देख के। 
बौराई धरा है औ ये बौराया गगन है।। 
ऋतुराज आ गया है संवेदना लिये। 
छाया है जो बसन्त उसका मीत मदन है।। 
तन ही व्यथित नहीं है मन हृदय विकल है।। 
अन्तस् में तेरे स्मरण की ही तो तपन है ।। 
तुम आते या न आते मुझको ये तो बताते। 
मैं दौड़ी चली आती, मिलने की लगन है।। 
इस ऋतु का असर ऐसा कुछ कह नहीं सकती। 
मधुमास को, मदन को, गीता का नमन है।


अप्रतिम सौन्दर्य 

हिम से आच्छादित 
अनुपम पर्वत श्रृंखलाएँ
मानो स्फटिक रेशम हो बिखर गया
उस पर ओझल होते 
भानु की श्वेत स्वर्णिम रश्मियाँ 
जैसे आई हो श्रृँगार करने उनका 
कुहासे से ढकी उतंग चोटियाँ 
मानो घूंघट में छुपाती निज को
धुएं सी उडती धुँध
ज्यों देव पाकशाला में
पकते पकवानों की वाष्प गंध
उजालों को आलिंगन में लेती
सुरमई सी तैरती मिहिकाएँ 
पेड़ों पर छिटके हिम-कण
मानो हीरण्य कणिकाएँ बिखरी पड़ी हों
मैदानों तक पसरी बर्फ़ जैसे
किसी धवल परी ने आंचल फैलया हो
पर्वत से निकली कृष जल धाराएँ
मानो अनुभवी वृद्ध के
बालों की विभाजन रेखा
चीङ,देवदार,अखरोट,सफेदा,चिनार 
चारों और बिखरे उतंग विशाल सुरम्य 
कुछ सर्द की पीड़ा से उजड़े 
कुछ आज भी तन के खड़े 
आसमां को चुनौती देते
कल कल के मद्धम स्वर में बहती नदियाँ 
उनसे झांकते छोटे बड़े शिला खंड 
उन पर बिछा कोमल हिम आसन
ज्यों ऋषियों को निमंत्रण देता साधना को
प्रकृति ने कितना रूप दिया कश्मीर को
हर ऋतु अपरिमित अभिराम अनुपम
शब्दों मे वर्णन असम्भव।

कुसुम कोठारी।

" गिरा अनयन नयन बिनु बानी "


विषय-स्वतंत्र लेखन
"स्वच्छ भारत"
राज़ बदायूँनी
भारत स्वच्छ बनाना है,
हमें स्वच्छता अपनाना है।
मेरे भारत को विश्वपटल के,
उच्च शिखर ले जाना है।।

महात्मा गांधी ने भी तो,
स्वच्छता अभियान चलाया था।
खद्दर धोती पहन हाथों से,
चरखा खूब चलाया था।।
उन्ही के आदर्शों पर हमको,
यही अभियान चलाना है।
भारत स्वच्छ---------------

सत्य अहिंसा के पथ पर,
हमको चलना सिखलाया है।
देश की खातिर मर मिटने का,
ही तो पाठ पढ़ाया है।।
आओ मिलकर हम सबको,
तिरंगा का मान बड़ाना है।
भारत स्वच्छ---------------

मेरे भारत के वीर देश की,
सीमाओं पर जाग रहे।
हम क्यों अपने कर्तव्यों से,
फिर क्यों पीछे भाग रहे।।
आओ हम सब मिलकर के,
दुश्मन को मार भगाना है।
भारत स्वच्छ--------------
----------
गीतकार-राज़ बदायूँनी
बाजार कलां उझानी
बदायूँ (उ.प्र)


विधा:- गीत
मैं अपनी रचना पटल पर प्रस्तुत कर रहा हूँ वह मेरे द्वारा स्वरचित एक गीत है।यह गीत गुना जिला(म.प्र.) की एक नदी पर आधारित है जिसका नाम - " गुनिया " है।किवदंती है कि शहर के मध्य बहने बाली इस नदी और इस नदी के आस पास उगने बाला घांस - " गुनैया " के कारण ही इस जगह का नाम 'गुना ' पड़ा है।
उक्त रचना बुंदेलखंडी (खड़ी बोली ) जो स्थानीय भाषा है, उसी में लिखी गई है।

💐#गुनिया#

राम ने गुंनिया खाली दओ, जनम मेरो कंडा बीनत गओ।(स्त्री स्वर)
राम ने गुनैया खली दओ, जनम मेरो घांस काटत गओ। 
( पुरुष स्वर )

बड़ेतला की पार पे
एक कौआ बोले रे
गोकुल कुंड में न नहा
वलम मोहे डर लागे रे
राम ने गुनिया......(स्त्री)

बन्दा के पानी तने तुम देखो
कित्ते कमल खिल रहे रे
गोंदरन को मैं हटाऊँ
तुम फूल तोड़ो रे
राम ने गुनैया.......(पुरुष)

ओड़िया की रुन्द में
हल्ला हो रहो रे
नई बहू के हाथ में
लम्पा घुस गयो रे
राम ने गुनैया.......(पुरुष)

बागन में झूला डर रहो
तनक तुम ठाड़े रहियो रे
जीजी ने भेजी तुम्हे मिठाई
काहे तुम ठर्रा पिओ रे
राम ने गुनिया........(स्त्री)

( मेरे कविता संग्रह "अनुगूँज " से )
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी, गुना (म.प्र)


दिनांक - 31/03/2019
विषय - स्वतंत्र


विधा - गजल (बेबह्र) 

साँझ सुहानी अब ढलने लगी। 
रुत भी सुहानी संवरने लगी।

पहनाने को बाँहों की माला प्रिये,
ख्वाहिशें हैं नादां मचलने लगी।

बैठो दो पल चाँद-तारों की महफिल में,
तेरे आगोश में जैसे बिखरने लगी।

अब जलना शमां का सुहाता नहीं,
रोशनी भी दरमियां है खलने लगी।

करने दो चाँद - तारों को सरगोशियां,
तेरे पहलू में 'उषा' निखरने लगी। 

डॉ उषा किरण
पूर्वी चंपारण, बिहार


**बेटियां**
मिलती है बड़े भाग्य से
ये प्यारी बेटियां
होती है ईश्वर की अनोखी
ये सौगात बेटियां
सुनसे मकानों को
घर बना देती है
आने से उसके
गूंज उठती है गलियां मुस्कुराहट से उसकी
खिल उठती है कलियां
चंचल सी चहलकदमी
होती है बेटियां
अंधीयारे में उम्मीद की
किरण होती हैं बेटियां
होती है मासूम सी
उसकी शैतानियां
नन्हे नन्हे से हाँथो में
जब खनकती है चुड़िया.
देख कर तो पिता की
दूर हो जाती है परेशानियां
टेड़ी मेड़ी जब बनाए
बेटी वो रोटीयां
लेती है बार बार मैया तो बलैया
होती है ओस की बूंद सी
प्यारी ये बेटियां
जहां से सारे
न्यारी होती हैं बेटियां
जाने क्यों जल्दी ही बड़ी
हो जाती है बेटियां
दस्तूर है दुनिया का
बन के दुल्हन गैरो के घर
विदा होती हैं बेटियां
विदाई के पलों में
रो रो कर हर पल उसे
तहती हैं मैया
आ जी भर के निहार लु
तुझे मैं प्यारी लाडो
छूटने वाले हैं तुझसे अब तो
ये गली के चौराहे
पिता न मिला पाएंगे
भीगीआँखें बिटिया
घर पिया का तुझे
सजाना होगा बिटिया
छोड़ कर बचपन
बाबुल का आंगन
सुना कर जाती हैं बेटियां
मिलती है बड़े भाग्य से
ये प्यारी बेटियां
चांद पूनम का
करवा चौथ होती हैं बेटियां
हर त्योहार, हर खुशी का आगाज होती हैं बेटियां 
*प्रीतिप्रिया** स्वरचित


आता नहीं साथियों मुझसे हास्य लिखना।
पढ़कर इसे श्रीमान,आप कहीं हँस न देना।।

जब आप अपने बराबर वाले के यहाँ जायें।
पियो उसके घर आराम से प्रेम पूर्वक चाय।।

आप अपने से कम स्तर वाले के यहाँ जायें।
वहाँ चाय में दूध, पत्ती तथा प्रेम भरपूर पायें।।

अपने से ऊपर के स्तर वाले यहाँ आप जायें।
मिलकर उससे आप अत्यन्त प्रसन्न हो जाये।।

मिलेगी नहीं उसके यहाँ आपको पीने को चाय।
वहाँ अगर पानी मिले,पीकर ही कृतार्थ हो जायें।।

पूछ ले भूलकर अगर वह आपसे, पीने को चाय।
कहता व्यथित हृदय, कह न देना पीने को चाय।।

आपने गर कहा हाँ घन्टों करना पडेगा इन्तज़ार।
चाय आने की प्रतीक्षा में हुजूर होते रहेंगे बेकरार।।

अन्तहीन प्रतीक्षा के बाद आयेंगे कप छोटे छोटे ।
जितने बड़ों में आपके बच्चे गुड्डे गुड़िया हैं खेलते।।

इन छोटे कपों में भी आयेगी, तली से ऊपर चाय ।
पीकर जिसे आपकी श्रीमान,जिव्हा ही तर हो पाये ।।

रसायनिक विषलेषण से मालूम कर पाओगे चीनी ।
बिना किसी हुज्जत के ही पड़ेगी चाय आपको पीनी।

डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
“व्यथित हृदय मुरादावादी”
स्वरचित


आपके बारे में लग जाता, पढ़कर यह अनुमान 
आप कर्तव्य परायण थे, हे राम भक्त हनुमान 
(सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं), यदि कहते हैं भगवान 
तो बोलो अब क्या चाहिए, इससे अधिक प्रमाण।

आप थे महावीर, रहे नहीं कभी अधीर
राम दर्शन करा दिये, बलिष्ट सीना अपना चीर
आप थे हरेक क्षण, हर ज़गह, और हर समय
राम सेवा में लगे रहे, और रहे उनमें तन्मय।

आप अमर, आप अजेय, आप महाज्ञानी और भक्त वत्सल
आपको नहीं अच्छा लगता, करता है जब कोई छल
राम में ही लीन रहते, आप सदा हरेक पल
मेरी आराधना प्रभु स्वीकार करो, हो न पाये यह निष्फल। 

आप हो शिव के अंश, करता आपको मैं प्रशंस
पीड़ित करता है मुझे, जीवन मरण का तीक्ष्ण दंश
मेरी प्रार्थना पर हे प्रभु, दे लो थोडे़ अपने कान
हे महाबली श्रेष्ठ हनुमान, हे कर्तव्य निष्ठ हनुमान।


विधा:: ग़ज़ल - इश्क़ की हद्द से मुझे यूं भी गुज़र जाना था

इश्क़ की हद्द से मुझे यूं भी गुज़र जाना था….
पर नज़र तेरी खुदा हो न उतर जाना था….

राज़ की बात कहूँ तुझसे ए मेरे दिलबर….
मैं जफ़ा तेरी से बिखरा न बिखर जाना था….

मौसमे इश्क़ की फ़रियाद कहे दिल मेरा….
मर लिया उसपे कभी खुद पे भी मर जाना था….

राह-ए-इश्क़ मशवरा-ए-दानिस्ता ‘चन्दर’…
भूल कर भी न तुझे ले के बिसर जाना था….

हुस्न-ओ-इश्क समर में उलझ गया ‘चन्दर’…
नासमझ इश्क़ में जीना हो तो मर जाना था….

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
३१.०३.२०१९


विधा-मुक्त

अपनी नैतिकता हमने यूँ खो दी हैं
कितने नीचे अब हम गिर गये हैं
मजहब,जात में इतने बट गये है
हम इंसान अब कहाँ रह गये हैं
टूट कर हम ऐसे बिखर गये हैं
सर्वघर्म समभाव का भाव,
अब कहाँ रह गया हैं।
आँखों का पानी मर गया हैं,
दिल भी पत्थर बन गया हैं,
इंसानियत को शर्मशार किया हैं,
खुद को अब हैवान बना दिया हैं
क्या मोहब्बत में भी बंदिशें हैं?
अब लोगो के दिलो में रंजिशें हैं
मोहब्बत को ऐसे क्यों बाँट दिया हैं?
सियासतदाँ ने खूब सियासत किया हैं
मजहब,जात में इतने बट गये हैं
हम इंसान अब कहाँ रह गये हैं।।

-आकिब जावेद
स्वरचित


🍁
मान सरोवर ना ये आँखे , फिर भी भर जाता है।
शीशे का दिल नही मगर, पल भर मे टूट जाता है।

🍁
बातो से विश्वास जगे , बातो से टूट जाता है।
करते है हम प्यार जिसे, इक पल मे छूट जाता है।

🍁
दिखता नही घमण्ड किसी का, पर वो कितना ऊँचा है।
सागर से गहरा मानव मन, फिर भी कितना छिछला है।

🍁
लेखन मे संसार समाहित , लेकिन वो ना दिखता है।
शेर कहे पागल मन मेरा, ना जाने किसको तकता है।

🍁
स्वरचित ... Sher Singh Sarraf


विषय- ईश्वर से मुलाकात
कविता

रात अचानक सपने में ईश्वर से मेरी भेंट हो गयी,
ऐसा लगा कि पल भर में मेरी आशा परिपूर्ण हो गयी ।
भावविभोर खड़ी थी मैं उस परम शक्ति स्वरूप के सम्मुख
किंकर्तव्यविमूढ़ हो रही थी मैं,समझ नहीं आता थाअब कुछ।
किंतु उनके मुखमण्डल का तेज देख मैं द्रवित हो गयी,
प्रश्नों की अनगिनत शृंखला मेरे मन में सृजित हो गयी।
मैंने पूछा- हे भगवन ! क्यों जग में हाहाकार मचा है ?
इस धरती पर मानवता का न कोई प्रतिरूप बचा है।
ईश्वर ने तब सहज भाव से मुझको उसका हल बतलाया ,
मेरे सारे भ्रम का ताला अपने उत्तर से खुलवाया ।
कहा कि इस धरती पर हर मानव दूजे पर दोष लगाता ,
किंतु वक्त आने पर अपना ही कर्तव्य निभा न पाता ।
यदि हर व्यक्ति निंदा तजकर अपना हर कर्तव्य निभाए ,
निश्चित ही समाज में फैला दुख का अंधकार मिट जाए।
हल हो गयी समस्या मेरी , मन पूरा संतुष्ट हो गया,
आँख खुली तो समझ में आया ,सपना था जो दूर हो गया।

स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर


यह मनभावन से न्यारे मेघ

नित नव वीथिका सजाते मेघ
रंगोली गगन रचाते मेघ
हर पल में यूं रूप बदलते
लुकाछिपी संग खेल खेलते
यह मन भावन से न्यारे मेघ

कभी शितिकंठ नचाते मेघ
सिंहनाद से ज्यूँ गरजे मेघ
दादुर धुन से बनते गाने
कोयल छेड़े अपनी ताने
यह मनभावन से न्यारे मेघ

कभी विरह की आग लगाते
कभी मिलन की आस जगाते
कभी प्यार की कली खिलाते
मन सागर में. भंवर उठाते
ये मनभावन से न्यारे मेघ

मीनाक्षी भटनागर
स्वरचित


ईश्वर
*****
गीतिका
÷÷÷÷÷
हरिगीतिका छ॔द में ,,,
2212,2212 2212 2212
**************************
ईश्वर जगत की चेतना,संसार के आधार हैं /
निर्गुण सगुण हर रूप में छाए हुए साकार हैं/
~~
मनु मोह-माया से ग्रसित,भूले सभी अनुदान को,
जो मिल रहा,जो मिल चुका,भगवान के उपकार हैं/
~~
सब धर्म की वाणी वही,सदज्ञान के हरि रूप हैं ,
करुणा दया-सागर वही,प्रभु प्रेम के अवतार हैं/
~~
सूरज गगन,धरती चमन,संसार के मालिक वही,
सबके हृदय मे बास करते,जग-सृजन सूत्राधार हैं/
~~
हम कर्म-पथ पे चल रहे,शुभ कर्म कर लें हम सभी,
बस जिंदगी में कर्मफल पर ही हमे अधिकार है/
~~
हरि आदि हैं आगोचरा,भव-सिंधु का प्रारूप हैं,
जब जिंदगी-नौका फंसे,प्रभु नाँव खेवनहार हैं/
~~
मस्जिद,इसाई धर्म,मंदिर -साधना प्रभु रूप हैं,
पाहन अगर मानो शिवालय,हृदय मे ओंकार हैं//
~~
वो राम हैं वो श्याम हैं,साईं-गुरू -सतज्ञान में,
अनजान हम प्राणी सभी,प्रभु ज्ञान के आगार हैं //
****************************
ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार


१२२२-१२२२-१२२

सलोनी सी कोई हमदम रही है,
वो मेरी साहिबा आलम रही है।

उसी से बज्म की रौनक है यारा,
सुहाना सा कोई मौसम रही है।

है भरती जख्म वो सारे सदा ही,
मेरे हर जख्म का मरहम रही है।

बहे दरिया सा उसकी आँख में यूंँ,
सदा जैसे यहांँ पुरनम रही है।

कहे क्या देख उन खामोशियों को,
जुबांँ विश्वास पे कायम रही है।

महक उठती फिज़ा भी तो उसी से,
कोई मुमकिन छिपा रुस्तम रही है।

रहे मासूम दिल के सिलसिले अब,
सदा "चंचल" मिलन संगम रही है।

चंचल पाहुजा
दिल्ली


🌺 गीत 🌺
*********************
☀️☀️☀️☀️☀️☀️☀️☀️

सोंधी-सोंधी याद तुम्हारी ,
रह- रह कर तड़पा जाती है ।
बीते हुये लम्हों की खुशुबू ,
जिय को फिर मचला जाती है।।

तुम आये तो नेहा जागा ,
कोमल मन में प्रीति समाई ।
प्यार का अंकुर जब उगाया ,
दिल ने बरबस ली अँगड़ाई ।।
बातों का फिर चला सिलसिला ,
लगा, वक्त सरपट भागा था ।
सूरज जाने कब ढल जाता ,
रात चाँदनी सब त्यागा था ।।

प्यासी आँख दूर हुई निंदिया ,
बस सावन बरसा जाती है ।
बीते हुये लम्हों की खुशुबू ,
जिय को फिर मचला जाती है ।।

जाने क्या था उन नैनों में ,
मन का पंछी डूब गया था ।
कैसा भोला अपनापन था ,
हक से दिल को लूट गया था ।।
पर दुनिया को रास न आया ,
पावन, निश्छल मिलन,सहारा ।
चंद खोखली जिद ने घोंटा ,
अरमानों का गला हमारा ।।

क्या गुजरी थी दुखते रग पर ,
तड़ित बली दहला जाती है ।
बीते हुये लम्हों की खुशुबू ,
जिय को फिर मचला जाती है ।।

🌹🍀🌸🌷

🌻🍀**...रवीन्द्र वर्मा आगरा 



हाँ मैं मजदूर हूँ..
तपती धूप में,अथाह श्रम से...
निखरता कोहिनूर हूँ..
हाँ मैं मजदूर हूँ...
नेताओं के भाषण का..
संपदकों के अखबारों का...
चमकता नूर हूँ...
हाँ मैं मजदूर हूँ...
दो वक्त की रोटी के खातिर...
अपने बच्चों की खातिर..
अपने गाँवों से दूर हूँ...
हाँ मैं मजदूर हूँ..
लाचार हूँ मजबूर हूँ...
पर श्रम से अपने मजबूत हूँ...
हाँ मैं मजदूर हूँ..
सदियों से हूँ उपेक्षित..
अधिकारों से हूँ वंचित..
सुख समृद्धि से दूर हूँ..
हाँ मैं मजदूर हूँ..
स्वर्णिम युग की आधारशिला...
जगत का शिल्पकार हूँ..
स्वेद रत्न से भरपूर हूँ..
हाँ मैं मजदूर हूँ...
श्रम ही मेरी आस्था...
श्रम ही मेरी भक्ति...
श्रम का ही पर्याय हूँ...
श्रम में ही चूर हूँ..
हाँ मै मजदूर हूँ...

स्वरचित :- मुकेश राठौड़


गंगा (गीत)

तेरा जल अमृत कहलाये।।2।।
नदी नहीं है, माँ तू हमारी।।2।।
तेरा जल अमृत कहलाये।

हर कोई तेरे आगे शीश नवाये। 
देख तुझे मन गीत है गाये।।
खुशी देता है साथ माँ तेरा।
दुख हो जाये दूर मेरा।।

तेरा जल अमृत कहलाये।
नदी नहीं है, माँ तू हमारी।

शिव के मन में है तेरा बसेरा।
तुझको अपनी जटा में धारा।।
देवो ने तेरा योगदान है गाया।
मुक्ति का हमे मार्ग बताया।।

तेरा जल अमृत कहलाये।
नदी नहीं है, माँ तू हमारी।

मनुष्य रहेगा सदैव ऋणी तेरा।
हर युग मे कवि गायेगा गुणगान तेरा।।
तुमने किया इस धरती को पावन।
त्यागकर के दिया हम सबको जीवन।।

तेरा जल अमृत कहलाये।
नदी नहीं है, माँ तू हमारी।

डॉ स्वाति श्रीवास्तव


जय जवान जय किसान

हमारा देश सच में, विभिन्नताओं से भरा है।
कहीं देश का खुशियों का, त्योहार आई पी एल है,
तो कहीं देश का अन्न्दाता, मृत्यु के करीब खड़ा है।
बच्चों की तरह पाला है उसने खेत को,
जो बेमौसम औलवृष्टि से बेसुध बिखरा पड़ा है।
दिमाग सुन्न हो जाता है,
आगे की सोच कर,
और पिछला बकाया लेने, लेनदार दर पे खड़ा है।
यह भी तो विभिन्नता ही है, हमारे देश की,
कहीं मिनटों में करोड़ों के वारे न्यारे हैं।
कहीं परिवार को दो वकत की रोटी देने में असमर्थ,
समय से पहले जिंदगी से हारे हैं।
अजीब बिढ़ंबना है शुर्ख़यिओं में वो है,
जो रात आयाशी के नशे में मदहोश पड़ा है।
उसकी खबर नहीं मिल पाती उसके घरवालों को,
जो सरहद पर देश के लिए आतंकियों लड़ा है।
चलो कोई बात नहीं सरकार, तो आख़िर दे ही देगी,
इनको मुआवज़े के रूप में कुछ इनाम।
पर शायद सरकारें नहीं जानती,
पैसे तो जिंदा लोगों के लिए होते हैं, मुर्दों का पैसे से क्या काम।
देश प्रेम ओर साहस उसका,
घटिया राजनीती की भेंट चढ़ गया।
बलिदान ओर शौर्य जैसे,
सत्ता के चोरों के सवालों मे पड़ गया।
जय जवान जय किसान भारत देश का नारा है।
एक घर में तो एक सरहद पर घटिया राजनीति से हारा है।

जय हिंद,
जय जवान ।
खुशहाल रहे,
मेरा हिंदुस्तान।

स्वरचित : राम किशोर, पंजाब।


बताओ क्यों मौन है प्रतिभा तुम्हारी ,
दिल पै क्यों चला करती है तेरे आरी |
तुम्हारी सदा संवेदना से रहती है यारी ,
बिखराओ तुम थोड़ी कागज पै स्याही |

सब दाग तेरे दिल के धुल जायेंगे ,
जब मोती तेरी कलम से बिखेरेंगे |
वही तो हार सुदंर भावों के बनेंगे ,
नई उर्जा नई रोशनी तुझमें भरेंगे |

नयी पीढियों के वही तोआदर्श होगें ,
दिखायेंगे रास्ता वही भटके हुऐ को |
कल्पना के चित्र में भरे नये रंग होगें ,
हौसलों के पंख देखना सतरंग होगें |

स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश


"स्वतंत्र-लेखन"
"पहला-कदम"
पहला कदम जो उठाये हम
याद रखे ये बात सदैव
उठाया गया पहला
बदल सकता है तकदीर हमारी,

सोच समझ कर ले हम निर्णय
फिर उठाये हम पहला कदम
जग मे नही कोई कार्य असंभव
बस रखे भरोसा स्वयं पर।

उठाया गया एक छोटा कदम
कर देगा आगे मार्ग प्रशस्त
हो जायेगी घबराहट दूर
करें सपनों को साकार जरूर।

उठ जाये जो पहला कदम
मिलकर रहेगीं मंजिल जरूर
चलो ले एक निर्णय आज
उठाये सपनों की दिशा मे कदम आज।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।


"लिबास"

बेच दिया ईमान सबने
रद्दी में ईमानदारी फेंककर
टूटी हुई कलम से
आज नसीब वो अपना लिखने लगे हैं।
बदल गया है देश अपना
बदल गया समाज
बिल्डिंग बनने लगी है सीमेंट की
दिल पत्थर के बनने लगे हैं।
दूसरों को गिराकर गड्ढे में
ठहाके लगाते हैं जो
वे गिराकर खुद को अपनी नजरों में
सब कुछ आज छिपाने लगे हैं।
शराफत को हाथ में लेकर
घूम रहा हूँ चोरों की बस्ती में
बिगड़े लिबास हैं जिनके
वो सरे आम इज्ज़त नीलाम करने लगे हैं।
खड़ा था जो ईमानदारी की चौखट पर
उलझी है दिल की डोर मेरी
कोई सुलझाएगा या नहीं
क्या सभी लिबास अपना बदलने लगे हैं?

राकेशकुमार जैनबन्धु
रिसालियाखेड़ा, सिरसा
हरियाणा।


गजल

हमारी याद में आकर,हमें अपना बना लेना।
कभी हमें याद करके तुम, भी कुछ सपने सजा लेना।।

मुहब्बत के ककहरे का,अभी नहीं ज्ञान है हमको।
अगर हम फिसल भी जाएं, तो तुम हमको उठा लेना।।

मुहब्बत तुमसे है हमको, यह अपने दिल को समझाना।
अगर दिल मान जाए तो , गले हमको लगा लेना।।

दुनिया के जज्बातों का, नहीं कोई इल्म है हमको।
यदि रूठें कभी तुमसे, हमें आकर मना लेना।।

अगर न ऐतबार हो ,यहां आकर आजमाना तो।
फिर भी रास न आए तो, फिर दामन छुड़ा लेना।।

सुनो इस वत्स की बातें, हमारी हर खुशी तुम हो।
हमारी हर नज्म है तुमसे, जिसे चाहो सुना लेना।।

(अशोक राय वत्स) स्वरचित ©
जयपुर


विधा--मुक्तक
🇮🇳 #जय_हिंद_जय_हिंद_की_सेना🇮🇳
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳

अपनी अबोध बेटी से बात करते,एक सैनिक पिता का अंतर्मन।
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छोड़ मुझे अब मेरी गुड़िया , मुझको रण पर जाना होगा।
आतंकी की आंखें कपटी , उन्हें नोंच कर लाना होगा।
जिन गिद्धों ने मारा पंजा , मातृभूमि पर लाश बिछाईं-
गाड़ धरा में उनकी नस्लें , नरक द्वार पहुंचाना होगा।

अर्जुन बन संहार करूंगा , उमर करूंगा उनकी छोटी।
काल बनूंगा उनके आगे , काट देह की बोटी बोटी।
छाती चीर पापियों की फिर, कृष्ण समान करूंगा नर्तन-
भारत माँ का सुत मैं सच्चा , खाया नमक यहाँ की रोटी।

कायरता से सेना मारी , दुश्मन न ललकार के आया ।
आगे आकर वार करे जो , लाल वही है माँ का जाया।
दंश मिटेगा उन सांपों का , जिनके पाप दबी है वसुधा -
छल कितना भी बलशाली हो , सदा अंत में मुँह की खाया।

मन में उमड़ रहा जो गुस्सा , कैसे ताव तुझे दिखलाऊँ।
मेरी नन्हीं बिटिया सुन तो , लौट के शायद मैं न आऊँ।
मैं न रहूँ तो मत रोना तुम , भारत माँ की सेवा करना-
गले लगा फिर हर्षित होना, मान शहीदों का जब पाऊँ ।

आशा अमित नशीने
राजनांदगाँव


(रचना -चले लेखनी ऐसी)
चले लेखनी सदा ही ऐसी,
अंधियारा ही मिट जाये।
फैला दो प्रकाश सदा तुम,
कोहरा जिससे छंट जाये।
सत्य पथ पर रहें अडिग हम,
साहस से सदा ही डट जायें।
चले लेखनी सदा ही ऐसी,
अंधियारा ही मिट जाये।।.......
सच्ची लेखनी के प्रभाव से ,
सिंहासन भी हिल जाये।
बिनते कूड़ा नन्हे हाथों को,
बस्ता कलम भी मिल जाये।
प्रहार बुराई पर कर दो,
खोया बचपन भी मिल जाये।
चले लेखनी सदा ही ऐसी,
अंधियारा ही मिट जाये।।......
राजा रंक का भेद यहां पर,
लेखनी से भी कट जाये।
डिगे न पग विपदा में कभी भी,
साहस सदा ही मिल जाये।
रहे न कोई भूखा प्यासा,
सबको छत भी मिल जाये।
चले लेखनी सदा ही ऐसी,
अंधियारा ही मिट जाये।।.......
जाति - धर्म का भेद न हो,
ऊंच नीच की हो न भावना।
सदा आपसी भाईचारे की ,
एकता को हम दिखलायें।
चले लेखनी सदा ही ऐसी,
अंधियारा ही मिट जाये।।......
हो न व्यर्थ रस गुणगान किसी का,
हो सदा सच्चाई का सम्मान।
समझो कलम की ताकत को तुम,
बने लेखनी सबका अभिमान।
फैलादो मानवता की किरणें,
खुशियां सभी को मिल जाये।
चले लेखनी सदा ही ऐसी,
अंधियारा ही मिट जाये।।......
मातृभूमि की सेवा में हम,
आओ एकता दिखलायें।
भारत माता की सेवा में,
सच्चे वीर सपूत हम बन जायें।
भारत भू सदा सेवा में तेरी,
जीवन यह अर्पित हो जाये।
बनकर कलम के सच्चे सिपाही,
आओ सेवा में डट जायें।
चले लेखनी सदा ही ऐसी,
अंधियारा ही मिट जाये।।......
.....भुवन बिष्ट
(रानीखेत),उत्तराखण्ड
(स्वरचित/मौलिक रचना )


हाथों में मेहंदी और उस पर तेरा नाम
परिणय सूत्र कितना सुंदर अभिराम
अटूट रिश्ते में अब मैं बँध गई
जन्म जन्मांतर मैं तेरी हो गई
हाथों में तेरा मेरा हाथ रहे
सातों जन्मों तक ये साथ रहे
मैंने बाबुल घर आज छोड़ा
पल्लू में बँधकर नाता जोड़ा
तेरे घर को मैंने नतमस्तक होकर
अपना ही घर मान सहर्ष स्वीकारा
माता पिता से जो मैंने संस्कार पाए
संस्कारित चरण तेरे घर में बढ़ाए
नए लोग नए रिश्ते बन गए
अब वे ही मेरे अपने हो गए
दाम्पत्य जीवन रथ के हम दो पहिए
प्रेम,विश्वास,त्याग संग आगे बढ़िए

संतोष कुमारी’ संप्रीति’
स्वरचित


स्वतंत्र विषय
मरु-किसान-चोका
साँझे की खेती
बेबस कर देती
चिंता है खाई
बिटिया की सगाई
फटी सी साड़ी
सिलती रहे नारी
बन्द दवाई
परेशान है माई
गिरवी गाय
ब्याज न भर पाए
बाली-बिछिया
बिक गई बछिया
अंतर्चीत्कार
बहु बार गुहार
ले पैदावार
उर्वर साहूकार
मरु किसान
उजड़ा खलिहान
स्वप्न लहुलुहान।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित



हंसिया-हथौड़ा
लाल सलाम,
तानो तंबू
छोड़ो काम,
किसका खुदा
किसका राम,
पुरे माह के 
ले लो दाम ।

कारखानों पर
काली छांया,
पुरे साल में
किया -कराया,
मारे नारे
काम गवांया,
जीवन खोया
बिना आराम ।

करनी किसकी
भरता कौन,
मरती मानवता
सांसे मौन,
भूखे बच्चे,
सिसकती बीवी
हड़तालों से
है अनजान।

हंसिया हथौड़ा
लाल सलाम
तानो तंबू
छोड़ो काम।

श्रीलाल जोशी "श्री"
तेजरासर, बीकानेर।


लघुकथा विधा

सैलाव

सैलाव की तरह लोग उसकी तरफ बढ़ रहे थे। ऐसा लग रहा था सुनामी आ गयी हो शौरगुल हो रहा था । 
जैसे जैसे आवाजें बढ़ रही थी, उत्सुकता से लोग मंडप के करीब आते जा रहे थे , कुछ लोग संगीता के हमदर्द बन रहे थे तो कुछ तमाशबीन बन मजा ले रहे थे । 
संगीता के लिए यह बहुत चुनौतीपूर्ण क्षण थे एक तरफ खुद का भविष्य, माता-पिता की इज्जत और दूसरी तरफ समाज में सकारात्मक बात रखना भी था । 
दुल्हा बना संदेश , जिसने शादी के पहले एक आदर्श व्यक्ति का चौला पहन रखा था , जैसे जैसे शादी की रस्मे पूरी होती जा रही थी वह और उसके पिता , दोस्त और रिश्तेदार अपना चौखटे बदलते जा रहे थे । नशा, कर के बात बात पर लड़ाई के बहाने ढूंढना , बदतमीजी करना और दहेज के रुप में नये नये सामान की मांग करना याने कुल मिलाकर :
" उसके गले में रस्सी बांधकर निरीह गाय को घसीट कर ले जाने जैसी हालत उसकी थी ।"
यद्यपि संगीता को उठाया जाने वाला कदम अव्यवहारिक लग रहा था , फिर भी उसने मन में ठान लिया और विदा से पहले कहा:
" मुझे आपकी सभी मांगें और शर्तें मंजूर है लेकिन मैं पहले संदेश से अकेले में बात करना चाहती हूँ ।"
संदेश के घर वाले खुश हो गये , 
"अब लडकी उनके चंगुल में आ गयी है और संदेश तो पहले से ही उनकी मुट्ठी में है ।"
कमरे में जा कर पहले तो संगीता ने संदेश को खूब खरीखोटी सुनाई , फिर जल्दी से कमरे से बाहर निकल कर कमरा बाहर से बंद कर दिया और कहा :
" संदेश को हमने आपको नगद , सामान , जेवर दे कर खरीद लिया है और वह कह रहा है वह यही रहेगा । "
आप लोग सामान बटोर कर जा सकते है ।
पूरे मंडप में सन्नाटा छा गया । पासा एकदम पलट गया था , बिना दुल्हा-दुल्हन के बारात पहुंचेगी तब क्या होगा ? 
लेकिन संगीता जानती थी जहर को जहर ही मारता है इसलिए कठोर निर्णय जरूरी है । काफी मान-मनोब्बत करने के बाद भी संगीता अपने निर्णय से पीछे नहीं हटी ।
सब ने संदेश को बुलाने के लिए कहा ।
संगीता ने फिर कमरे में जा कर संदेश को पूरी बात बताई और कहा :
" अब निर्णय उसके हाथ है ।"
संदेश समझ गया :
"अगर अब संगीता से पंगा लिया तो वह न घर का रहेगा न घाट का ।"
इसलिए उसने भी संगीता की हाँ में हाँ मिलाई ।
बिना दुल्ह-दुल्हन के बारात विदा हो गयी थी ।
संगीता जानती थी कि :
"उसको ससुराल में ही जीवन बिताना है और अब सास ससुर ही उसके माता पिता है , संदेश को वह अपना जीवन समर्पित कर चुकी है लेकिन उसके इस एक कदम से समाज की कई बेटियों के भविष्य से खिलवाड़ करने वाले कई अनेक परिवारों को सबक मिलेगा ।"

स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल


दे परीक्षा हुए निफराम,
अब तो खेलने का है बस काम,
टी वी देखे सुबह से शाम,
आँखों का हो चाहे काम तमाम,
महिने की अंतिम शाम,
अना था परीक्षा परिणाम,
धक धक दिल से आए आवाज,
खुलेंगें आज अंकों के राज,
कोई लुढका कोई बना सरताज,
करेगा कोई बच्चों पर अपने नाज,
नई कक्षा में बैठेंगे हो खुश मिजाज,
अगली परीक्षा की खातिर करना है आगाज़।
****
स्वरचित-रेखा रविदत्त
31/3/19


#विषय_ कलम:::::::
#रचनाकार_ दुर्गा सिलगीवाला सोनी::::

::::::;;;;:::;;;कलम;;;:::;;;:::::

दूर ही रहें वो हाथ कलम से,
जो धन दौलत कमाने में व्यस्त हैं,
सिर्फ वही रखें अब विचार अपने,
जो सत्य के साथ तटस्थ हैं,

लाभ और नफे की मन में चाहत,
सच्चाई को नजरअंदाज करे,
नकली चमकीले झूठे आडंबर में,
बगुला भगत भी दुनिया में राज करें,

कलम की ताकत असीमित होती,
कलम से अतीत कलम से आज,
भविष्य भी सुरक्षित हो सकता है,
सच की स्याही पर हो कलम का राज,

कलम चलाकर ही तुलसी दास ने,
ज्ञानियों की जात बता डाली,
उसका परिणाम भी हुआ यही की,
अज्ञानी भी देते नहीं थकते गाली,

सच्चे सिपाही तो कबीर थे कलम के,
उनसे नहीं हुई किसी की खुशामद,
अब कलम चलाने में भी निकला हूं,
हानि हो लाभ हो नफा हो या आमद,


है गजब से बात क्या कम
जो याद आते जाते हो तुम
जब याद कुछ करता हूं मैं 
तो याद आते जाते हो तुम

मै हादसों को भूल बैठा 
मै दुश्मनों को भूल बैठा 
जख्मों को सहलाता हूँ मै
तो याद आते जाते हो तुम

यह रात का गहरा अंधेरा 
जाने फिर कब होगा सवेरा 
सिहर के कंपकपाता हूँ मै 
तो याद आते जाते हो तुम

मेरे शब्द यह सीले हुए हैं 
अश्कों से ही गीले हुए हैं 
यह गीत जब गाता हूँ मै 
तो याद आते जाते हो तुम

यूं ही कभी तन्हाईयों में 
या बजती हुई शहनाईयों में 
खुदी को भूल जाता हूँ मै 
तो याद आते जाते हो तुम

विपिन सोहल


मासूम

तितली के रंगीन परों सी
जीवन में सारे रंग भरे 
चंचलता उसकी आँखों में
चपलता उसकी बातों मे
थिरक थिरक कर चलती थी
सरगम सी बहती रहती थी
पावों में पायलिया की खनखन
जल तरंग सी छिड़ती थी
घर की रौनक ,सांसो की डोरी
आँगन में चिड़िया सी चहकती थी
सुबह के सूरज की किरणों जैसी
चपल मुग्ध बयार सी बहती थी।
वक़्त का कहर ऐसा टूटा
हैवानियत ने उसे ऐसे लूटा
उसका सामान मिला झाड़ियों में
तन को उसके लहूलुहान किया 
जख्मी उसकी रूह हो गयी
हिरनी सी चपलता उसकी 
दरिंदगी की भेंट चढ़ गई
हर आहट से डर वो 
घर के कोने में दुबक गई
घर जो गूंजता था उसकी 
मासूम शैतानियों से,
मरघट सा सन्नाटा फैल गया।
कुछ क्यों हैवान हो रहे
क्यों जिस्म को नोच रहे
क्या उनके घर में बेटियाँ नहीँ
इन मासूम कलियों को खिलने दो
इतना भी नीचे मत गिरो 
इनकी चपलता चंचलता रहने दो 
घुट कर जीने को मजबूर न करो 
मासूमों को सर उठा जीने दो ।

"अंदाज"05मई2020

ब्लॉग की रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं बिना लेखक की स्वीकृति के रचना को कहीं भी साझा नही करें   ब्लॉग संख्या :-727 Hari S...