Monday, March 11

" स्वतंत्र लेखन "10 मार्च 2019

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             ब्लॉग संख्या :-323



भावों के मोती परिवार
06-01-2019
भावों के मोती-परिवार
भावों के मोती का अद्भुत परिवार
सर्जन व साहित्य साधनामय संसार
वयोवृद्ध पितामह लाम्बाजी,व्यासजी
दाहिमाजी संग सर्व बुजुर्ग अधिवासी
छेड़कर, नित प्रवीणा वीणा की तान
पुलकित पूर्णिमा लिए नवल विहान
सतत सज्जित सरगम पूरित संगीता
अग्रजा रागिनी,नीलिमा परम पुनीता
श्रेष्ठ भजन लिए ज्येष्ठ शम्भू परमेश
मुक्त प्रवाह दूनौरिया संग शेर मुकेश
पन्त अनंत लेखन बहु भावविभूषित
चन्दर-चरण,तम हरण,पद्य-परिष्कृत
वर्ण गणन,भाव मनन माहिर ऋतुराज
उत्प्रेरण,नवप्रवर्तन का करते आगाज़
काव्य-सरिता झर-झर,हृदय हरिशंकर
मन की अभिलाषा, रचना करे निरन्तर
भज गोविंद,करते आरती व आराधना
सकल गुणीजन करते निःस्वार्थ साधना

भावों से भरी भार्गवी,सुकवि छवि दिनेश
उर उषा की सुर सारिका,रेखा रवि विशेष
निश्छल चंद्र चारु पूनम भरे प्रबोध प्रभात 
रिपुदमन सरस संतोष,देवेंद्र के खिले गात
मेघा नारायण की कृपा से बरसे बन रसधार 
विनीत मोहन की लेखनी से अनुपम बहार
भागवत कथा या गीता पाठ करे ब्रह्माणी
मीना की वीणा तनुजा शब्द सुमन जुबानी
गजल गंगा विपिन बहुरंगा भद्रावले मुकेश
संध्या पहर मुखर सुलोचना नित अर्थान्वेष
श्रीशिवेंद्र लोक प्रताप पुण्य उमा शितिकण्ठ
स्वर्ण कलश सुधा रस पूरित अघट आकंठ
अशोक भाव जो भरे भुवन में मनीष बलबीर
माणिक सी अमोल है नीलम अनिता सुधीर
कुन्ना कुसुम सी कलित अंजूलता ललित वेश
रेणु रंजन के अंजुमन में पहुँचे पथिक राकेश
शिव राम राजेंद्र नील गगन के शब्द चित्रकार
भाव मोहिनी नीता प्रियंका शिल्पी-शब्दकार
बूँद स्वाति को सीप समाते सुविज्ञ शिल्पकार
भावों के मोती का अद्भुत परिवार
-©नवल किशोर सिंह
संविधान भी आज..
आंसू बहा रहा होगा..
अपने उस पन्ने पर
जिस पर लिखा होगा
अभिव्यक्ति की आजादी का कानून..
कुछ लोगों ने बना लिया इसे..
वतन तोड़ने का जुनून..
करते बदनाम ये..
अपनी ही सेना को सरेआम..
नहीं आते बाज वो..
करने से अपने ही देश को बदनाम..
सेना का शौर्य इनको खलता है..
करे वार दुश्मन पर तो..
अंग-अंग इनका जलता है..
इरादे लेकर बैठे है ये..
वतन खोखला करने का..
खेले ये खेल घिनौने..
अपनी ही जेबें भरने का..
सत्ता ही है इनका सपना..
आतंकियों को है दामाद बनाना..
लूट जाए देश भले ही..
इनको है अपना सिक्का चलाना..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

स्वतंत्र लेखन
पिरामिड

दरिन्दा/पिशाच

1
ये
जिंदा 
दरिन्दा
मन नँगा
मस्ती में चूर
अस्मत को लूट
उड़ गया परिन्दा।

2
मैं
दैत्य
विरुद्ध
दुर्गा नारी
नही कामिनी
बुलंद होंसले 
सर्व बाधा तारिणि।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित

#यादें

यादों का पसर जाना यूँ
मन के गलियारों में
कही दूर ले जाता है
खुद को खुद ही से
डबडबाती आँखे
खोया सा मन
बैठे बैठे मुस्कुराना
मुस्कुराते हुए रो पड़ना
यादें ही तो अपनी है
जो अपनों के लिए
अपने पास रहती है
सरोवर सी बहती है
कविता सी कहती है
हँसती मुस्कुराती है
रोती और रुलाती है
फिर समझाती है
हल्का कर जाती है
फिर जाते जाते
छोड़ जाती है
अपने पुराने निशान
जहां से चले 
वही पहुँच जाने को
बस ये सिलसिला
थमता नही है
क्योंकि यादें तो यादें है
जो रुकती नही है

.......सुमन जैन
नई दिल्ली
विषयःस्वतंत्र लेखन
*
नारी आदिशक्ति जग-कारिणि,धारिणि जग संहारिणि है।
नारी नव दुर्गा-रूपिणि है, श्री , विद्या-बुधि धारिणि है।
माता,भगिनी ,पुत्री, प्रेयसि ,प्रिया ,मित्र सहचारिणि है।
रानी कैकेयी, दुर्गा, पद्मिनि, लक्ष्मी ,भय-हारिणि है।।

द्वापर युग की कृत्या द्रुपदा , त्रेता की कृत्या सीता।
पुरुषोत्तम की शक्ति-स्रोत वह, योगेश्वर की गुरु गीता।
भोग्या मात्र नहीं,वह तो है ,रत्न-प्रसू वसुधा जैसी।
विषम गरल की शमनकारिणी,शीतल सौम्य सुधा जैसी।

पद-तल भूगोल और करतल,पर खगोल लेकर उछली।
अबला कहाँ , महा सबला है ,सभी दिशाओं में मचली।
गढ़ती जाती कीर्तिमान नव ,चढ़ती जाती शीर्ष-शिखर।
रूढ़िग्रस्तता के जड़ तम को,वेध रही बनकर दिनकर।।
. --डा.'शितिकंठ'
💐" देख ज़रा "💐

इस दुनियां में मंजर तो देखो
हाथ में सबके खंजर तो देखो।

नशा करते फिरते हैं गलियों में
उन सबके अस्थि पंजर तो देखो।

झाँकते हैं सदा दूसरों के घर में
कभी अपने घर के अंदर तो देखो।

खोए रहते हो सदा सुख-वैभव में
कभी खाली धरा बंजर तो देखो।

रखते क्यों हो जात-पात का भेद
फैला देश में ये आडंबर तो देखो।

मत इतना गुमान कर खुद पर
कभी अमावस का चंद्र तो देखो।

नहीं रहा कोई अमर इस धरा पर
मिट गए बड़े-बड़े धुरंधर तो देखो।

रचनाकार:-
राकेशकुमार जैनबन्धु
रिसालियाखेड़ा, सिरसा

हरियाणा,

।। एकाग्रता ।।

ऐसे ही न आती है लेखन की शक्ति

लाना होता है मन में सच्ची विरक्ति ।।

प्रेम में भी जब सिर्फ प्रिय को भजते 
बन जाती तब वही इबादत या भक्ति ।।

भटका मन कभी नही कुछ पाता 
करता हूँ मैं एकाग्रता की संतुति ।।

मन में अथाह शक्ति सीखो बांधना 
कुछ पाने की है यह उत्तम युक्ति ।।

लेखन कला शक्ति है आये शनै: शनै:
जन्म मरण से भी मिले 'शिवम' मुक्ति ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 10/03/2019
(बसंत बहार) 
जय जय वीणावादनी।
जय वीणा की झंकार।। 
पीताबंर ओढ़े है धरती। 
आयी है बसंत बहार।। .....
सद्बुद्धि सदमार्ग मिले। 
कृपा मातेश्वरी तुम्हारी।। 
ज्ञान का मन में हो संचार। 
मिटे अशिक्षा अत्याचार।। 
राग द्वेष से मुक्त हो जग।
बहे प्यार खुशियों की धार।। 
पीताबंर ओढ़े है धरती। 
आयी है बसंत बहार।। .....
जय जय वीणावादनी।
जय वीणा की झंकार।। 
ज्ञान कला संगीत की। 
माता भरती हो भंडार।। 
खेत खलिहानों ने भी ओढ़ी। 
नयनाभिराम हैं पुष्प सुगंधित।। 
रंग बिरंगी धरा पिताबंरी। 
मन में भी जागे संचार।। 
पीताबंर ओढ़े है धरती। 
आयी है बसंत बहार।। .....
सुख दुःख का यह ज्ञान कराता। 
पतझड़ बित बसंत आ जाता।। 
ज्ञान के चक्षु खुल जायें। 
मानव मानवता दिखलायें।। 
मानव के हृदय में जगा दे। 
सद्गुण साहस सुविचार।। 
पीताबंर ओढ़े है धरती। 
आयी है बसंत बहार।। .....
जय जय वीणावादनी।
जय वीणा की झंकार।। 
...........भुवन बिष्ट 
रानीखेत, उत्तराखंड
आज का शीर्षक-स्वतंत्र विषय लेखन
विधा- गीत
***********************************
इक पहेली बन गई है नींद मुझको प्रात ग्राही ।
स्वप्न में बादल मुझे क्यूँ प्यार का देता दिखाई ?
क्षितिज के उस छोर तक फैली हुईं श्यामल घटाएं ।
सिक्त झंझावात की उद्वेल चाटुल धृष्टताएं ।
मेदिनी के वक्ष पर कादम्बिनी ने झड़ जगा दी ।
कौन पी-पी के प्रणय में टेर चातक ने लगा दी ।
चिर पिपासित चाहना उर की मुझे किस ओर लाई ?(1)
आज शंका शील हूँ मैं जागरण है या सपन है ।
प्रत्यक्ष इक सूरत निराली भोर की पहली किरन है।
चन्द्र लज्जित हो रहा है देख उन्नत भाल जिसका ।
छिटक कुन्तल जाल से लट,लग रहा लघु व्याल जिसका।
मदिर आँखों के चषक से पारसाई लड़खड़ाई ।।(2)
कब बुझाए बुझ सकी लाखों जतन से प्यास मन की ?
कब मिटाए मिट सकी चिर वेदना उर के स्वजन की ?
जो नियति ने लिख दिया है लेख मिलकर ही रहेगा ।
'अ़क्स 'दुःख, खुशियाँ,पतन ,उत्थान पाकर ही रहेगा ।
क्या कभी मंशा विधाता की किसी ने जान पाई ?(3)
***************************************
स्वरचित-राम सेवक दौनेरिया
"अ़क्स "
बाह -आगरा (उ०प्र०)

विषय .. सन्नाटा 
विधा .. लघु कविता 
**********************
🍁
सन्नाटा इस रात का, 
कोई तोड रहा है।
दर्द भरी सिसकारी है ये,
कोई तडप रहा है।
🍁
क्या कोई विरहन के मन मे,
प्रीतम आस जगी है।
या कोई वैधव्य नायिका,
दुख से रात जगी है।
🍁
मन असहज होकर के मेरा,
द्वार से दूर निहारू।
शेर हृदय मे करूणा जागा,
तुमको आज बता दूँ।
🍁
शरद ऋतु की काली रातें,
मन बेचैन करे है।
कोशिश करता सोने की पर,
आँखो मे नींद नही है।
🍁

स्वरचित ... Sher Singh Sarraf

🌱🌱🌱🌱🌱🌱
जिन्दगी
🌺🌺🌺
वो तो कोई और होंगे,जो हंसके जी लेते होंगे।
यहां तो आलम ये है कि,
कांटों पे भी चलके गुजारा ना हुआ।
जीवन तो शोला है,
जीवन तो आग का दरिया।
जीवन है एक चुनौती,
चाहे घटिया हो या बढ़ियां।
आग के इस दरिया को,
पार तो करने होंगे।
वो तो...............
जीवन मीठा जहर है।
घूंट,घूंट करके है पीना।
जीवन कड़वी दवा है।
उसको भी होगा पीना।
चाहे ऐसे या वैसे,
कैसे भी जीने होंगे।
वो तो.................
जीवन के रंग अनोखे।
जीवन के ढंग अनोखे।
टेढ़े,मेढ़े हैं रास्ते।
उलटे,सीधे सरीखे।
तुम्हें इन रास्तों को,
पार तो करने होंगे।
वो तो..............
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
स्वतंत्र लेखन
माता
माता की अस्थियाँ हाथ में
मन के प्रश्न साथ में
इसे कहाँ विसर्जित करूँ?
कैसे विसर्जित करूँ?
और क्यों विसर्जित करूँ?
क्या ये गंगा में बह जाएगी
किन्तु,वो अस्थियाँ
जो माता ने हमें दी है
वो तो यहीं रह जाएगी
हमारे शरीर में
यह भस्म-भूत नहीं
एक चेतन है
मातृ-अंश-कण है
मरती है क्या माता 
महज राख क्षार बहने से
नहीं,माता कभी मरती नहीं
लोगों के कहने से
सत्ता अदृश्य में लीन हुई
या,परम पद आसीन हुई
अरे,माता,जीवन का पर्याय
सृष्टि का सबल अभिप्राय
पालन,पोषण औ जीवन-दान
जग में यहीं कहीं विद्यमान
हम में,तुम में,सब में
सदैव रहेगी विराजमान
माता,सार्वकालिक है,अनश्वर है 
माता,अपर रूप ईश्वर है
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
भावों के मोती अद्भुत हैं
स्वर वर्ण की सुन्दर माला
कण्ठ विराजे मात शारदे
काव्य कुंज मन मतवाला
भावों के मोती में बहती
भावों की पावनमय गङ्गा
ऋतुराज मुकेश शंभो
वीणा सुरमय होती संध्या
चंद्रप्रकाश रश्मि प्रीति
पूनम चँदा और पूर्णिमा
रामप्रसाद राम सेवक से
बनी हुई भावों की गरिमा
अभय अशोक और मनीष
देवेंद्र उषा प्रिय सारिका
शीला रचना अति भव्य है
गीत खुशी गावे संगीता 
सुलोचना सुरेंद्र संतोष
रेणु संतोष मय कृतिंया
नीलम देवेंद्र और अंजू
करे काव्य सुंदर बतिया
स्वस्थ तन हो स्वस्थ मन हो
स्वस्थ करे आचार विचार
दोहरा चरित्र मुखौटा पहने
ऐसा जीवन अति धिक्कार।।
गणना करना अति मुश्किल
भावों के उज्ज्वल मोती की
अखंडित आलोकित करती
जयति जय दिव्य ज्योति की।।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।।
नमन भावों के मोती , 
आज का विषय , स्वतंत्र लेखन , पिरामिड , देश ,
दिन , रविवार , 

दिनांक, 10, 3, 2019 , 

वो
कौन
करता
कमजोर 
अपना देश
लालच कुर्सी का 
भ्रष्ट मानसिकता |

ये
देश 
महान 
बलिदानी 
कर्तव्यनिष्ठ
सजग जनता 
समर्पण गहना |

है
माटी
पावन 
देश धरा 
पूजा करते 
हृदय हमारा 
हिन्दुस्तान है प्यारा |

वो
लोग
साधना
देश धर्म
जीवन धन 
त्याग बलिदान 
पूजनीय सर्वदा |

है
नहीं
सम्मान 
प्रधानता 
सत्ता की चाह 
देश के दुश्मन 
जरूरत दर्पण |

स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश 
जब तक ईशकृपा नहीं होती,
एक कदम आगे नहीं बड सकता।
कृपादृष्टि डालेंगें भगवन तभी,
कुछ भी मनमर्जी से कर सकता।

लक्ष्य निर्धारित कर आगे बड पाऊं,
ऐसी सोच प्रभु जी देना मुझको।
शुभचिंतन सदा सद्कर्म करूं मैं,
ऐसी ही कोई बीजमंत्र देना हमको।

समझूं मर्म दुनिया में आने का 
क्यों मुझे भेजा है उसने।
किस कारण अवतरित हुआ मै,
पता करूं सेजा है किसने।

उतार चढाव जीवन में आऐं,
मुस्कित रह क्यों नहीं जी पाऐं।
रहें प्रफुल्लित बन संसारी,
क्यों प्रेमसुधा रस नहीं पी पाऐं।

हतोत्साहित होता रहता मन
जब आत्मसमर्पण हम कर देते।
धीर वीर गंभीर बनें तो निश्चित,
सदा विजय वरण हम कर लेते।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.

गीत,सपने रंगीले हो गये,
--------------------------------

सूखे अधर गीले हो गए,
सारे सपने रंगीले हो गए
जिन्दगी के सफर चलते रहे,
और दिन सजीले हो गए।।१।।
कीचड़ में कमल खिल गए,
जिन्दगी को महताब मिल गए,
मनकों श्रृंगार मिल गए,
सपनों को रुप मिल गए।।२।।
साथ को आवाज मिल गए,
गीतों को सर्वर मिल गए,
प्यासे को सुधा मिल गई,
पतझड़ को मधुमास मिल गए।।३।।
सूर् को कृष्ण मिल गए,
तुलसी को राम मिल गए,
कमलिनी को रवि मिल गए,
बांसुरी को सुर मिल गए।।४।।
देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग,।।

यूं आब से तिश्नगी पुकारी है। 
फिर वही जिन्दगी हमारी है।


किस कदर हम यूं हैरान हैं ।
जाने क्या मरजी तुम्हारी है।

किस चीज़ का गुमां हम करें ।
सांस पल - पल की उधारी हैं।

कितनी भोली हैं सूरत तेरी।
लगे हैं आसमां से उतारी है। 

संवर गई अपनी तकदीर भी।
जो मैंने जुल्फ तेरी संवारी है।

है जिन्दगी मौत का सिलसिला। 
कब कौन किसका शिकारी है। 

होश मुझको न आया कभी। 
न ही उनकी उतरी खुमारी है।

जो कट गयी थी वही जिन्दगी।
क्यूँ आज पल पल की भारी है।

यूँ सामां है जिन्दगी के सभी। 
हां बस इक कमी तुम्हारी है।

इश्क है जंग दुनिया में आखिर। 
उस पर शमशीर ये दुधारी हैं।

स्वरचित विपिन सोहल
विधा - गजल

ये जो मेरी जिन्दगानी है,
आपकी ही तो मेहरबानी है,

ना दिन में चैन ना रात में
तेरे प्यार की ही निशानी है,

कुछ तो खास बात है इश्क में
राधा भी कृष्ण की दीवानी है,

पी लिया जिसने विष प्याला
मीरा की वो प्रेम कहानी है,

क्यों तड़फ़ाते हो दिल लगाकर
महकी सी शाम रात सुहानी है,

इश्क के समुंदर में देखा डूबकर
बिन तेरे ये जिन्दगी वीरानी है,

स्वरचित
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा सिरसा (हरियाणा)
💐 त्योंधरी की आत्मगाथा 💐
*******************

त्योंधरी क्यों नाम धरा,यही सोचकर मैं हंसा।
दिमाग लगा आखिर थका,अंत हाथ कुछ न लगा।।
पहले सोचा परदेशी हूँ,पर लगता अब देशी हूँ।
यहीं का खाता हूँ यहीं रहता हूँ,यही की सोच यहीं पे छोड़ता हूँ।।

इन्हीं लोगों में बैठ,नित पान सुपारी पर पतली।
ऊपर से चून तम्बाखू हरी, पूड़ी पातर बेहद बड़ी।।
रोटी मोटी, अचार कड़ी,दाल भात में सान बड़ा को।
बड़े चाव से खाता हूँ, शायद मैं परदेशी हूँ।।

विंध्य क्षेत्र का नाम सुना था
राजनीति में सदा जुड़ा था
दिग्गज नेताओं का गढ़ था
यही सुना था,यही सुना था
पर त्योंधरी नाम नहीं सुना था।

बघेलराज का राजवंश था
विंध्याचल से घिरा खण्ड था
जाने वो कौन जवां मर्द था
इस वीरां में आन बसा था
त्योंधरी क्या नाम धरा था।

राजाओं के राज गये
प्रजाओं के साथ गये
मत पूछो छोड़कर क्या गये
कुछ अच्छे,कुछ मूर्ख बड़े
सब त्योंधरी में छोड़ गये।

समाजवाद का नाम ले ले कर
हर नेता बन जाता है
इधर उधर की कांट-छांट से
वह लेखक बन जाता है
अनपढ़ों में बुद्धू लीडर बन जाता है

सभी यहां पर नेता बसते
इसकी टोपी उसके सर रखते
बड़े प्रेम से पहिले मिलते
उन्हें बाद में अच्छे ठगते
त्योंधरी में रहते तो यही करते।

ओढ़ शेर की खाल गधे जी,
क्या सिंहराज बन सकते हैं।
गाँव छोड़ घने जंगल में ,
वे कभी नहीं चल सकते हैं।।

कभी नहीं जो सुना देखा था,
उसे आज मैं देख रहा हूँ ।
दूर सामने बैठों में से ,
उन प्रेमी को ढूंढ रहा हूँ।।




डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी, गुना(म.प्र.)
िषय- स्वतंत्र लेखन(चंद शेर)
काफ़िया-आरी
रदीफ़-है

स्त्री को ना समझना बिचारी है।
अच्छे-अच्छे पे यह तो भारी है।

वक्त आने पे ढाल ये बनती,
दुश्मनों से बचाती नारी है।

प्रेम में जीती ,प्रेम में मरती,
औरतों की महिमा न्यारी है।

खुद से अनजान, खुद से जुदा वो,
औरतों की अदा ये प्यारी है।

चल रही साथ मेरे यादें वो,
साथ देने की आपकी बारी है।

भार ना समझो बेटी को तुम तो,
बेटी तो फूलों से प्यारी है।

झूमें सारा समा खुशी से अब,
अफसर बनी बिटिया हमारी है।

दौड़ कर मिलती है गले मेरे,
वो सहेली बहुत प्यारी है।

जो सजी है उड़ान की महफिल,
बाजी मार रही उसमें नारी है।

फोन ने जो दिया हमें धोखा,
वक्त बेचैनी में गुजारी है।

आज लगता है ऐसा की सबने,
यादों की खोली जो पिटारी है।

संगदिल सनम तुम्हें है कहते 
हमने तो तुम पे जान वारी है।

नजर ना जाये लग कही तुम्हें,
खेली जो बहुत बढ़िया पारी है।

जल रहे "वीणा" अपने ही अब,
देख दिल पर रही चल कटारी है।

©सारिका विजयवर्गीय"वीणा"
नागपुर(महाराष्ट्र)
दिनांक-10/3/2019
विधा-ताँक़ा

विषय-स्वतंत्र

(१)
मनु नाविक
अरमानों सी नाव
तृष्णा है बाढ़
आशा निराशा ऊर्मि
जीवन महानद

(२)
धैर्य सहारा
निराशा तम घेरा
आशा सवेरा
ईश्वर ने उबारा
नवजीवन मेरा

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति’
स्वरचित

स्वतंत्र लेखन
विषय :स्वच्छ भारत ,स्वस्थ भारत
विधा दोहा
**** 
झाड़ू लेकर हाथ मे, "सेवक"करे गुहार
मत फैलाओ गंदगी,रक्खो साफ सँवार ।।

दोष प्रणाली पर लगे,क्यों कूड़े का भार ।
देशभक्ति ऐसे करो,खुद मे करो सुधार।।

देखो हर दीवार पर, पड़ी पान की पीक ।
तुम अब क्यों नही करते ,अपनी आदत ठीक।।

संभव हो तो थूक दो ,ये गन्दी पहचान ।
भारत को स्वच्छ करो ,रखो देश का मान।।

अर्थ सफ़ाई का समझ, रहो रोग से दूर।
स्वस्थ भारत मे रहो ,सेहत से भरपूर।।
***

स्वरचित
अनिता सुधीर श्रीवास्तव

विधा: ग़ज़ल - बचा दर्द-ए-कफ़न है और मैं हूँ...

महब्बत की अगन है और मैं हूँ....
न मिटता ये दहन है और मैं हूँ....

न पूछो हाल दिल मेरा फ़रिश्तो....
बचा दर्द-ए-कफ़न है और मैं हूँ....

नहीं अपना कहीं कोई जहां में...
अलग सब का चलन है और मैं हूँ....

रहो तुम अपने दिल के आशियाँ में....
मुझे फुरकत सहन है और मैं हूँ.... 

अदावत हुस्न की तो पूछना मत....
कभी सांसें हवन हैं और मैं हूँ.....

खिलाफत थी जिसे हमसे कहे अब.... 
न तुम बिन यह चमन है और मैं हूँ.....

करो कोई इलाज-ए-दिल कि 'चन्दर'....
फुगाँ-आहो दफ़न है और मैं हूँ....

फुरकत = जुदाई, फुगाँ-आहो = दर्द की इंतिहा/दर्द में चिलाना 

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 

१०.०३.२०१९

स्वतंत्र लेखन
बह़र :-22. 22. 22. 22
22. 22. 22 22
अर्कान:-फैलुन,फैलुन,फैलुन, फैलुन
काफिया:-आ(स्वर)
रदिफ :- होगा।
"गजल"
हमदम मेरा कैसा होगा।
शायद तेरे जैसा होगा।।

सच्चा होगा झूठा होगा।
हमदम वो ही मेरा होगा।।

दिल का लेना देना होगा।
काहे का शरमाना होगा।।

जग मे छाया पहरा होगा।
तेरा मेरा किस्सा होगा।।

जाने क्या क्या कहता होगा 
थोड़ा सा वो पगला होगा।।

हँसते हँसते रुठा होगा।
मुझको ही अब मनाना होगा

हार के भी जीता होगा।
संग अब जीना मरना होगा।

चुप चुप के ही रहना होगा।
मेरा ही वो यारा होगा।।

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल

विधा :- सार छंद 
( नातिन ऐश्वर्या द्वारा लिखित उसके प्रथम पत्र के प्रत्युत्तर में )

ब से मिली तुम्हारी चिट्ठी , नानी बलिहारी है ।
प्रथम रवि रश्मि सी मनमोहक , लगती अति प्यारी है ।।

निश्छल मन की बाल सुलभता , भरकर चिट्ठी लाई ।
भरे कुलाँचे नेह तुम्हारा , मृग छौने की नाईं ।।

मोहक चितवन प्रतिबिम्बित है , लिखे हुए भावों से ।
प्रेम तितलियाँ शब्द बने हैं ,पढ़ती हूँ चावों से ।।

प्रेम हमारे की कृतज्ञता , ज्ञापित की है तूने ।
मुखरित शब्दों की आतुरता , मर्म लगी हैं छूने ।।

रंग प्रेम का रक्तिम होता , चिह्न बनी स्याही है ।
पत्र लाल स्याही से लिखना , प्रेम की गवाही है ।।

बने शब्द भावों के मोती , हुई बहुत हैरानी ।
लिखी सलीक़े से सब बातें ,दिखे नहीं नादानी ।।

फूलों के सौरभ सी महकी , चिट्ठी दिल में मेरे ।
हृदय नीड़ की बुलबुल मुझको , हरपल रहती घेरे ।।

स्नेह सिक्त आँचल है मेरा , जब से चिट्ठी पाई ।
पुलकित नाना नानी भरते ,दिल की ख़ाली खाई ।।

सरस्वती का वर मिलने से , कुशल लेखनी तेरी ।
मधुर शील मृदु मलयानिल सी ,बुद्धि मनस्वी तेरी ।।

सबकी मिलें दुआएँ तुझको ,शुभाशीष हूँ देती ।
बने यशस्वी अरु वर्चस्वी , रहे प्रेम तूँ लेती ।।

स्वरचित :-
ऊषा सेठी 
सिरसा 125055 ( हरियाणा )

मेवाडी मे लिखने का प्रयास 

एक बढ़िया हंडो मलग्यो
जिवा रो एक फंडो मलग्यो 
भणाया लिखाया तो किदी कोनी
काॅपिया में बस अण्डो मलग्यो 

रिजल्ट लेई घरे वतायो
मारे कई हमज नी आयो
कोई बहानो काम नी आयो
अण पापाजी ने डण्डो मलग्यो 

काम काज किदा कणी
नसा पता का है ये धणी
खावा री नी घर मे कणी
कैवे ,कसो यो मुस्टण्डो मलग्यो 

नेताओं के लारे लाग्या
पार्टीयाँ के लारे भाग्या
दण दौड्या न राता जाग्या
टिकट की जगे झण्डो मलग्यो 
स्वरचित 
प्रकाश (p.k.)

दिनांक-10-03-2019
विषय-स्वतंत्र लेखन
लघु कविता -वक्त के इंतजार में ! 
कुछ लेने नहीं आया था , 
मैं तो कुछ देने आया था ! 
वह नहीं हम देख सके 
नहीं कुछ ऐसा पा सके , 
आसमां से तारे न तोड सके
जीवन पथ न अपना मोड सकें ! 
क्या मन में अधूरे सपने थे , 
हो नहीं सके अपने थे ।
चाँद भी रोया था खपरेल से मकां में , 
भाग्य भी बिलखता पर्दे की आड़ में ।
सीप भी न ला सका संमदर से , 
रो भी नहीं सकता था जी भर के ।
एक साथ न मालूम यह कैसी यंत्रणा , 
निपटान ? नहीं हो सकती थी मंत्रणा , 
लूट गया हो गया तहस नहस, 
उल्टी बयार में , 
बस आँसू ही रह गये प्यार में।
काश वह दूर्दिन नहीं आता , 
सब के साथ यह दिल हर्षाता ।
सब मिलता आज साक्षात्कार में , 
यूँ दीदा न खोते, वक्त के इंतजार में ! 
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 'निश्छल',

10/03/2019

 भावों के मोती 
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स्वतंत्र लेखन - शीर्षक - यादें ......

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यादें ...
दस्तक देती हुई
दिल की दहलीज़ पर बैठी हैं
जानें कितनी यादें 
कुछ मीठीं ,कुछ कड़वी 
अंदर आने को आतुर
मगर सोचती हूँ 
कहाँ इन्हें रखूँ , 
कैसे इनको समहालूँ 
पहले ही से भरा हुआ है 
दिल का तहख़ाना
बरसों से सहेजी यादों से ।
और उन यादों में जीवन्त हैं 
कितनी सदियाँ
कितनी कहानियाँ !
कितने मोड़ ,कितनी गलियाँ 
कितने वसंत,कितने पतझड़ 
कितने वीराने ,कितने बीहड़ !
कितने अपने,कितने सपने 
जो आज खोगए हैं 
मुझसे दूर हो गए हैं 
मगर इन यादों में बस गए हैं।
ये यादें मुझे हँसाती हैं
रुलाती है 
और चिढ़ाती भी हैं ।
मगर, इनसे अलग 
मेरा कोई वजूद भी तो नहीं है !
अब और यादों के लिए 
जगह कहाँ से लाऊँ 
दिल के किस कोने में इन्हें बसाऊँ ?
फिर इन यादों को भी मुझसे शिक़ायत होगी
उमर ढलते ढलते मुझे भी इनसे मुहब्बत होगी
कहाँ कर पाऊँगी इन सबसे इंसाफ़ मैं
कैसे सम्हाल पाऊँगी इन सबको मैं 
ये सोचकर उदास हूँ मैं !
मगर यादों को दहलीज़ पर तो नहीं छोड़ सकती 
उन्हें अंदर आने की इज़ाजत दे ही दूँ मैं 
आज इन यादों को 
शायद,
मेरी ज़्यादा जरुरत है ।
अपना दिल थोड़ा सा बडा कर लूँ मै
इन्हें दहलीज़ से उठाकर दिल में पनाह दे दूँ मैं !
(C) स्वरचित भार्गवी रविन्द्र ......फ़रवरी २०१९

दिनाँक-10/03/2019
स्वतन्त्र लेखन
विधा-लघुकथा

बिटिया अनायास ही मेरे दिमाग को झकझोर कर देने वाला सवाल पूछ उठती है। पापा ; इस धरती पर इंसान की तादात दिन प्रतिदिन सुरसा राक्षसी के मुख की तरह बढ़ती जा रही है। इसके बावजूद धरती पर वनस्पति, वन्य जीव जन्तु विलुप्त होते जा रहे हैं।कई प्रजातियां तो नष्ट होने के कगार पर हैं।इसका क्या कारण है पापा ?
' बिटिया, इसका कारण इंसान ही है ।
इंसान अपने स्वार्थ वश कुदरत को मुट्ठी में लेकर सारे नियम कायदे ताक पर रख देता है ताकि वह कुदरत से बड़ा होने का तमगा भी स्वयं ले सके।
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा

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