सरिता गर्ग






"लेखिका परिचय"

1 - सरिता गर्ग 2 - 29th जनवरी 3 - मेरठ 4 - एम. ए . बी .एड. 5 - कविता ( छंद मुक्त, छंद बद्ध ) ,दोहे ,मुक्तक, हाइकु, वर्ण पिरामिड, लेख, लघु कथा आदि 6 - प्रकाशित काव्य संग्रह 'तेरे मेरे शब्द', मैगजीन और अखबार में कुछ कविताएं। 7 - काव्य सम्पर्क सम्मान अनेक सम्मान पत्र एवम धन राशि 8 - अवकाश प्राप्त अध्यापिका 9 - एम - 311 आशियाना उत्सव कालवाड़ रोड जयपुर 10 - sarita garg 0411@gmail.com

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विषय- रात/रजनी/विभावरी

धवल चाँदनी रात में
सितारों जड़ी
चादर ओढ़े
शबनम से नहाई
बैठी है धरा
यौवन से भरपूर
मुस्काता चाँद
देख रहा है
लजाई धरा को
हसरत से
मगर धरती को प्रतीक्षा है
प्राची से उगते सूरज की
क्षितिज पर
मिलन की आस लिए
रात के इस
चौथे पहर में
सोच रही है
कब बीतेगी
विभावरी
किरणों के रथ पर
सवार भास्कर
समेट लेगा
धरा को
अपने आगोश में
ओढ़ा कर
स्वर्णिम रश्मियों की
रेशमी चादर
विदा कर
विभावरी को

सरिता गर्ग

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तिथि-30/12/19
विषय-बीता साल

बीत गई बिसराइये , हुआ पुराना साल ।
नये साल का कीजिये,फिर से इस्तकबाल।।

हाड़-तोड़ महनत करी, न कर पाये कमाल।
हमें न कुछ हासिल हुआ,प्रियवर बीते साल।।

महक गुजरते साल की,सदा रहेगी साथ
पाया है सौगात में , प्रिया तुम्हारा हाथ।।

लेखा पिछले साल का,करिए सोच-विचार
काँटों की शैया मिली ,या फूलों के हार।।

सरिता गर्ग
विषय-नश्वर

जो आया है जायगा,नश्वर है यह देह।
मिट्टी का यह तन बना ,करो न इससे नेह।।

नश्वर है यह जिंदगी,छूटेंगे जब प्राण।
सुखों-दुखों से जगत के,पा जायेगा त्राण।।

अंत समय जब आ गया,जाना खाली हाथ।
जोड़-जोड़ धन तू मरा, कुछ न जाए साथ।।

जीवन जल का बुलबुला,पल में ही मिट जाय।
जल में ही मिल जाय जब, फिर नहीं दे दिखाय ।।

जीवन क्षणभंगुर तेरा ,इतना ले तू जान।
धन-वैभव से दूर हो,प्रभु में धर ले ध्यान।।

सरिता गर्ग


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तिथि - 26/6/19
विधा - कविता
विषय - इंद्रधनुष


सात रंग आकाश में 
जब जब खिलते जायें
अम्बर की शोभा बढ़े 
इंद्रधनुष कहलाये
इंद्रधनुष मन में खिले 
खुशियां मिलें अपार
लालायित मन हो उठे
पाने तेरा प्यार
बीच घटा के दिख रहे 
इंद्रधनुष के रंग
मनवा मेरा नाचता 
आज मयूरा संग
जीवन में बिखरे रहें 
सुंदर सातों रंग
मेरी खुशियों में पड़े
कभी न कोई भंग
मन पर मेरे खिल उठे
कुछ खुशियों के फूल
अम्बर में ज्यों खिल उठे
इंद्रधनुष के फूल
रंग भरे हों प्यार के
सजना तेरे संग
जीवन बगिया में खिलें
भाँति भाँति के रंग

सरिता गर्ग
स्व रचित
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जेब हो तुम्हारी 
या हो हमारी
दिल पर है भारी
खाली हो जेब अगर
चिंता ग्रस्त हो जाते
कल की चिंता में 
आज भी गंवाते
दर दर ठोकर खाते
आसानी से न मिले तो
छल कपट से कमाते
ज्यादा भरी हो तो 
रातों की नींद गंवाते
खोने का डर सताता
चोर जेबें लगवाता
और अधिक धन 
पाने का मन बनाता
स्टेटस बढाने की लालसा
मन में जगाता
हे ईश्वर
सद्बुद्धि देना
लालच , छल कपट से
दूर रखना
जेब इतनी भरी हो
जीवन यापन हो जाये
सन्तोष मन में जगाये
तृप्ति की भावना
मन में घर कर जाये

सरिता गर्ग
स्व रचित

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विषय - मैं / स्वयम

मैं ईश्वर हूँ मैं परमेश्वर
मैं नियंता मैं अभियंता
मैं संहारक मैं विध्वंसक
उगता सूरज हूँ 
ढलती साँझ हूँ
पर्वत की ऊंचाई और 
सागर की गहराई हूँ
बिजली की चमक और
बादलों की गड़गड़ाहट हूँ
बरसती बौछार हूँ
झरने की फुहार हूँ
फूलों की सुगंध हूँ
माटी की सौंधी गन्ध हूँ
सीप का मोती हूँ
नयनों की ज्योति हूँ
जीवन की तरुणाई हूँ
अम्बुआ की अमराई हूँ
बंसी की तान हूँ
बालक की मुस्कान हूँ
खुशियों की शहनाई हूँ
शायर की एक रुबाई हूँ
मैं जीवन की हरियाली हूँ
सुख दुख को देने वाली हूँ
सूरज की अगन और
सहरा की तपन हूँ
उड़ता बादल और 
लहराता आँचल हूँ
जग का रखवारा
सर्वशक्ति मान हूँ
सकल जहान हूँ
मै स्वयंभू
मैं ही कहाता भगवान हूँ

सरिता गर्ग
स्व रचित

विषय - मैं

मैं ढूंढ रही खुद में
खुद को
पर ढूंढ नहीं 
अब तक पाई
अंदर तक झांका अपने को
तस्वीर न कोई दिख पाई
साक्षात्कार किया 
अपना जब जब
सवाल कोई न
हल कर पाई
मेरा वजूद
है भी या नहीं
यह बात समझ
अब तक न आई
माटी का एक खिलौना हूँ
जब चाहा जिसने खेला है
मन मेरा शीशे सा नाजुक
जब चाहा जिसने तोड़ा है
अरमान नहीं मन में मेरे
क्या मैं कोई इंसान नहीं
इस रंग बदलती 
दुनिया में
खुद की खोज
आसान नहीं

सरिता गर्ग
स्व रचित

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मान करोगे सबका गर
सम्मान मिलेगा सबका
मात पिता का मान करोगे
सुख पाओगे मन का
गुरु की सेवा से बढ़ कर
कोई काम नही है दूजा
ज्यों मन्दिर में करने जायें
आरत वंदन पूजा
देश की खातिर मर मिटने की
ज्योत जलायें मन में
स्वाभिमान से जी लें
चाहे फिर मर जाये पल में
ईश्वर के आराधन में
बस जीवन अपना बीते
वरना अंत समय आएगा
हाथ रहेंगे रीते
बच्चों को हम सबक सिखायें
मान करें वो सबका
इज्जत देने से मिलती है
मिलता प्यार सभी का

सरिता गर्ग
स्व रचित

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सोच विचार
न कर प्रतिकार
मताधिकार

वोट माँगते
चेहरे अनजान
झूठी मुस्कान

देते दस्तक
हैं वोट प्रचारक
नत मस्तक

वोट करना
हमारा अधिकार
करें प्रचार

सरिता गर्ग
स्व रचित


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वस्त्र रेशमी 
तन पर पहनें 
नेता मन्दिर जायें
प्रभु चरणों में लोट लोट कर
नत मस्तक हो जाएं
करें आरती पूजन अर्चन
घी का दीप जलायें
चुनाव जिता दो हे प्रभु
प्रसाद तेरा मैं पाऊँ
गर जीता विपक्ष से
स्वर्ण मुकुट पहनाऊँ
हाथ बाँध नेता सभी
घर घर अलख जगायें
वोट सभी देना मुझे
काम तुम्हारे आऊँ
गाँव गली हर शहर में
पक्की सड़कें बनवाऊं
जल की गंगा मैं बहा
सब की प्यास बुझाऊँ
अंधकार का नाम न होगा
हर घर में उजियारा होगा
देश की खातिर बलि बलि जाऊँ
अपने तन का रक्त बहाऊँ
नेता झूठे वादे करते
जनता का धन खाते
उन गलियों में कभी न जाते
जहाँ खातिर वोट की जाते
मत देने से कभी न चूको
यह अधिकार हमारा है
अपना नेता उसको चुन लो
जो हमदर्द हमारा है

सरिता गर्ग
स्व रचित

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विषय - संगी साथी
विधा - छंद मुक्त

संगी साथी मेरे सजना
आज मुझे कुछ तुमसे कहना
बाबुल का घर छोड़ा जिस दिन
संग तुम्हारे हो ली उस दिन
संग साथ अब जीवन भर का
हमें निभाना पल पल छिन का
सुख दुख सब बांटेंगे मिलकर
होठों पर मुस्कान रहेगी
धूप छांव सब जीवन भर की
तेरी मेरी संग रहेगी 
सपनों का संसार सजेगा
दिल धड़कन का साज बजेगा
आँगन में बिरवा रोपूंगी
खिल उठेगा मेराअँगना 
नन्हें नन्हें सुमन खिलेंगे
चमन सा महकेगा मन अँगना
एक दूजे पर रंग मलेंगे
पिचकारी की होंगी बौछारें
दिवाली के दीप जलेंगे
खुशियों के होंगे फव्वारे
झूमे गाएंगे हम दोनों
बाजेगा फिर मेरा कंगना
मौसम आये जाएं कितने
अपना संग न छूटे सजना

सरिता गर्ग
स्व रचित

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यादें औरआँसू ह्रदय पर्वतों से टकरा जब लौटे याद तुम्हारी , बिन ऋतु नयन घाटियों में जल बरसाती आंख हमारी यादों और आंखों का दिल से,कितना गहरा नाता आंखों में जब आये कोई दिल में भी आ जाता । क्रन्दन करते मन के नभ में बदली सी छा जाती वायु वेग से याद तुम्हारी तन शिथिल कर जाती । नयनों में ,यादों के हर पल दीपक-से जल जाते , पलकों पर भी यादों के, कुछ मोती आ बस जाते । कभी नयन से ये मोती , झरने से झर झर जाते नयन कटोरो में रुक कर कभी आंखें धुंधली कर जाते । यादों का मौसम हो ना हो, जब चाहे आ जाते कैसे होते हैं ये आंसू बिन मांगे आ जाते ।


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सूर्य और धरा जुगनुओं से चमकते सितारों से भरे नील गगन से चंदा की धवल चाँदनी ने शुष्क धरा पर बरसाए कुछ शबनम मोती भीगी धरती भीगे द्रुम हर पत्ता पत्ता सद्यः स्नात सुंदरी से नयन नत नहा उठे फिर ओस कणों से भोर भये उगते सूरज ने धरती का आलिंगन कर चूम लिया मोती सम उन ओस कणों को देख प्रिय के रक्तिम कपोल दूर क्षितिज से रवि मुस्काया और फिर ढ़क दिया अपनी स्वर्णिम रश्मियों के आवरण से लजाई धरा को सरिता गर्ग


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तिथि - 10/6/19
विषय - कोयल

जब जब तुम बातें करो,मुँह में मिसरी घोल
कोयल से मीठे लगें प्रिय तुम्हारे बोल

कोयल काली हो भली मीठे गीत सुनाय
जो नारी मृदुभाषिनी वह सुंदरता पाय

कोयल कूके बाग में बन में नाचे मोर
अच्छे दिन भी आएंगे होगी नूतन भोर

कोयल कौवे से कई , पंछी हुए अनेक
कोयल ही लागे भली , गाती कितना नेक

कोयल रहती पेड़ पर ,मत काटो तुम पेड़
पंछी सब मर जायेंग,गर काटे जो पेड़

सरिता गर्ग
स्व रचित
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मुलाकात बहुत थकी हूँ सोचा कुछ पल आज खुद की खुद से मुलाकात करूं भूल जाऊं रौशनी और शोरगुल की दुनिया ना करूं बन्धनों की परवाह हर याद,हर अहसास हर सोच और हर दस्तक को कर दूं अनसुना खुद में खुद की तलाश करूं और खुद से खुद की मुलाकात करूं डूब जाऊं अपने मन के अंधेरों की रौशनी में निकल जाऊं सैर पर एक ऐसे विशाल आसमान की जो बहुत बड़ा है मेरी सोच और मेरी नजरों के दायरे से और तब झांकू मन दर्पण में मन के अंधेरे ही कभी कभी जिंदगी की सच्चाई से मुलाकात करा देते हैं जो पल हमें खुशी नही देते पूर्णता का अहसास नही कराते उन्हें पीछे छोड़कर आगे बढ़ना ही श्रेयस्कर है इसीलिये खो जाती हूँ, कुछ देर इन्हीं अंधेरों में ये अंधेरे ही मेरी मुलाकात रौशनी से कराते हैं और अपने अवलोकन के बाद मैं निखर जाती हूँ कर पाती हूँ अपने अस्तित्व की एक अनोखी पहचान और हो जाती है एक सार्थक मुलाकात मुझसे ही मेरी सरिता गर्ग

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विषय - युवा

युवा युवती
मिलन समारोह
विवाह रस्म

देश के युवा
कटिबद्ध सैनिक
चर्या दैनिक

सेना जवान
सैनिक अभियान
सोया जहान

युवा इंसान
स्वप्निल आसमान
ऊँची उड़ान

सरिता गर्ग 
स्व रचित

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ना कोई खबर भेजी
ना कोई खबर आई
क्यों छोड़ गए तन्हा
होती रही रुसवाई
छपते रहे चर्चे
पर्चों में तुम्हारे
पर मुझको नहीं भेजी
एक प्यार भरी पाती
हवाओं से सन्देसा भेजा
चलती रही पुरवाई
बादल भी बरसते रहे
तुम्हें याद न आई
जीती हूँ उसी पल को
मौसम वो सुहाना हो
आ जाये खबर तेरी
या खुद तेरा आना हो
तुम बन के खबर खुद ही
एक बार चले आओ
पलकों पर ठहरे आँसू
अधरों से तुम पी जाओ

सरिता गर्ग 
स्व रचित
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चयन प्रक्रिया
गुरुतर कार्य
ठोक बजा कर
करो चुनाव
सोचो समझो और विचारो
तब कहीं अपने पांव पसारो
नेता अगर चुनो तुम कोई
हो ऐसा जो
सुख दुख समझे
जनता का हित
करता जाय
विषय चुनो पढ़ने को ऐसा
जो मन को तृप्ति दे जाय
मित्र चुनो जीवन में ऐसा
दांया हमरा हाथ कहाय
विपत घड़ी में आगे आकर
सब संकट से हमें बचाए
संगी साथी वही चुनो
जो पथभृष्ट न करने पायें
गुरु वही उत्तम जीवन में
जो सन्मार्ग हमें दिखलाये
जीवन साथी वही चुने
दिल में अपने जो बस जाए
पलकों पर जो हमें सजाये
दामन खुशियों से भर दे
पूरा जीवन साथ निभाये
प्रेमी वही चुनो जीवन में
प्यार भरा हो जिसके मन में
चाहे कितनी कठिन परीक्षा
सब में खरा उतर जो पाये
चयन करो जिसका भी तुम
मन में भर विश्वास
सपने सारे होंगें पूरे
गर खुद पर विश्वास

सरिता गर्ग
स्व रचित

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सुनहरी धरा पर
प्रस्फुटित अंकुर
प्राची में उगे
सूर्योदय जैसा है
ओस कणों ने
मेरे आँगन के अंकुर को
धीरे से जगाया
बहती पवन ने
माँ सा
प्यार से सहलाया
मुँह चूमा
और दुलराया
तपती धूप ने
जब झुलसाया
बारिश की बूंदों ने
प्यार से नहलाया
प्यारे बच्चे सा 
रूप उसने पाया
सुबहोशाम देख उसे
मेरा मन हरषाया
पत्ते निकले टहनी लहकी
अंकुर तब 
पुष्प बन लहराया
मेरा रोम रोम
खुशी से भीगा
खिलखिलाया
हरा भरा रक्खो
इस जगती को
पल्लवित पुष्पित अंकुर
मन महकाता है
हमारा जीवन है
प्राणदाता है

सरिता गर्ग
स्व रचित
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तिथि - 20/6/19
विधा - व
विषय - दर्पण

                   दर्पण दिखाता है शरीर सौष्ठव , खूबसूरती या बदसूरती, चेहरे पर झलकते नव रस या हृदय के भाव। इसीलिए हृदय या मन को भी दर्पण कहा जाता है। अच्छे-  बुरे, सुख- दुख,घृणा ,डर ,आश्चर्य , प्रेम,आनन्द सभी कुछ तो किसी व्यक्ति के चेहरे पर लिखा होता है, जिसे हम पढ़ सकते है। अतः चेहरा भी आईना है।
         साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। समाज में जो कुछ घटित होता है, साहित्य में उसके दर्शन हो जाते है । समाज का यथार्थ ही साहित्य है ।
           दर्पण बहुत नाजुक होता है जो जरा सी ठेस लगने से चटख जाता है, कभी कभी चूर-  चूर हो जाता है।
        प्रिय जब तोड़ता है हृदय दर्पण तो दर्पण का हर टुकड़ा चीत्कार करता है पर फिर भी प्रिय के लिए समर्पित रहता है। हर टुकड़े में प्रिय ही प्रतिबिम्बित होता है।जब टुकड़े प्रिय के पथ पर बिखरते है  तब ठोकर खा कर भी मुस्कुराता है।प्रिय के जलाए दीपक में रोशनी बन बिखरता है।
     प्रिय जब तोड़े ....हृदय मेरा
     दर्पण सा ..टूट बिखर जाऊँ
     हर बिखरे ......टूटे टुकड़े में
     प्रिय को.. मैं ही नजर आऊं
     ठोकर चाहे..... मारे कितनी
     उसके पैरों में.... बिछ जाऊँ
     चाहे औरों से...... प्यार करे
     मैं उनमें .उसको दिख जाऊँ
     बस यही ....तमन्ना है उसके
     मन्दिर का दीपक बन जाऊं

सरिता गर्ग
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वस्त्र इंसान की
मूलभूत जरूरत
तन पर परिधान
मौसम की 
मार से बचाते
व्यक्तित्व की शोभा बन जाते
समाज में रुतबा बढाते
न मिल पाता
कुछ बदनसीबों को
आज भी इस धरा पर
तन ढकने को परिधान
कहीं घूमते
कीमती वस्त्रों में सज्जित
नर नारी
कहीं एक चीथड़े से
ढकती तन नारी
आज भी दुष्कर्मी करते
समाज में
किसी द्रौपदी का चीर हरण
आज भी न्याय न पाती नारी
बदल दो ये तस्वीर
भारत के वीरों
करो माँ का सम्मान
माता के धीरों
कहीं गर जो देखो
अधढका तन
ओढा दो उसे तुम
अपने तन का वसन
कोई न रहे अर्धनग्न
नर हो या नारी
तस्वीर बदलेगी
दुनिया की सारी

सरिता गर्ग
स्व रचित
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जब नयना तुमसे चार हुए
सुख चैन से मैं न सो पाई
हर पल दिल मेरा,कसकता है
पर कुछ न तुमसे कह पाई
यह कैसा रोग लगा मुझको
न जीती हूँ , न मरती हूँ 
तेरे ही ख्यालों में हर पल
दीपक बाती सी जलती हूँ
दिल हरदम रोता हँसता है
चुप चुप तुमसे कुछ कहता है
मैं भीड़ में तन्हा होती हूँ
एकांत मिले तो रोती हूँ
कहते हैं लोग यही अक्सर
यह रोग आग का दरिया है
कोई डूब के भी तर जाता है
कोई बीच भँवर फंस जाता है
तुम वैद्य बनो खुद आ जाओ
आकर तुम दवा पिला जाओ
किसी और के बस की बात नहीं
आकर मेरा रोग मिटा जाओ

सरिता गर्ग
स्व रचित
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तेरी सोचों के
नीले आकाश में 
पंछी बन
विहार करती हूँ
तेरे ख्यालों के समंदर में
मैं डूब डूब जाती हूँ
इक पल मैं
राहत नहीं पाती हूँ
ये सिलसिले
क्यों खत्म 
नहीं हो पाते हैं
उगते सूरज में
क्यों चेहरा
तेरा दिखता है
ऊषा की लाली
खोल जाती है
यादों की पोटली
एक एक लम्हा
उसमें से 
चुन चुन कर
उठाती हूँ
आंखों में भर लेती हूँ
पल पल उन्हें जीती हूँ
इक तेरा ख्याल
सजा रहता है
दिन भर
पलकों पर
घिरती साँझ
मुझे क्यों उदास
कर जाती है
रात बैरन बन 
सामने आ जाती है
तुझे पाने को
मेरी सांसें
फिर पंख फड़फड़ाती हैं
ये सिलसिले क्यों
खत्म नहीं हो पाते हैं
क्यों एक पल भी मैं
राहत नहीं पाती हूँ
एक बार चले आओ
धीरे से सुला जाओ
थोड़े से लम्हें
राहत के
मेरे नाम कर जाओ

सरिता गर्ग
स्व रचित

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विषय - नींद

निंदिया सजे
तन मन प्रफुल्ल
थकान मिटे

मन प्रसन्न
भरपूर निंदिया
बलिष्ट तन

समग्र नींद
परम आवश्यक
तन सौष्ठव

नशा सेवन
निष्क्रिय तन मन
गहरी नींद

बाधित निद्रा
संवेगी गतिविधि
पुनरावृति

सम्पूर्ण निद्रा
भरपूर सेहत
तन आराम

चिर निंदिया
पंच तत्व विलीन
अंतिम सत्य

सरिता गर्ग
स्व रचित


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विषय - नींद

आँखिन भारी हो रही , निंदवा हमहु आय
पंखा झल दो साजना ,हमका दओ सुलाय

नींदों में सजना मिले , उठ बैठी घबराय
धड़कन सखि ऐसी बढ़ी ,का तुमका बतलाय

सजना हैं परदेस मा , नींद न हमका आय
सखि उन्हें सन्देस दे , बैरन रात सताय

अंधकार से हम डरै ,निंदिया खुल खुल जाय
थोड़ी घनी अवाज भी, हमका दई डराय

दिनभर डट कर काम कर , खटिया रात बिताय
मनवा जब थक सोयगा , नींदहु बढ़िया आय

सरिता गर्ग
स्व रचित

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धरती बंटी हुई है , कुछ देश राज्य सूबों में
सरहद नहीं कोई भी इस प्यार की जहां में

सरहद शब्द का प्रयोग प्रायः देश की सीमा के लिए किया जाता है । देश की सरहदों पर वीर सैनिक विषम परिस्थितियों में जीते हैं। बर्फीली वादियों में सीना ताने , दुश्मन के प्रहार से खुद की रक्षा करते, दुश्मन का खात्मा करते हुए , सरहद की हिफाजत करते हैं।मातृभूमि की रक्षा उनका एकमात्र लक्ष्य होता है । 
प्यार में कोई सरहद नही होती, प्यार को सीमाओं में नही बांधा जा सकता । प्यार असीम , अनन्त और सार्वभौमिक है। प्यार संसार की किसी भी वस्तु या व्यक्ति से हो सकता है इसकी कोई सरहद या सीमा नहीं ।
कल्पना की उड़ान , सोच का सफर अंतहीन है । ख्वाबों और सपनों
की कोई सरहद नही होती । कवि अपने कल्पना लोक में धरा , व्योम, सूरज , चाँद
सितारों ,सम्पूर्ण ब्रह्मांड की सैर कर लेता है । कोई सरहद उसे रोक नहीं पाती ।
मन की उमंग, हृदय की तरंगें, रंगीन ख्वाबों की कोई सरहद नहीं होती । तमन्नायें,आरजू सरहद से परे हैं । सरहद परमात्मा नहीं बनाता। ईश्वर ने तो बेहिसाब दौलत परोसी है , इंसान ही उनका बंटवारा करता है , हदें तय करता है। मनुष्य की अधिकाधिक पाने की लालसा ने लूट खसोट की भावना को जन्म दिया और बन गईं सरहदें ।

खुदा ने एक दी धरती , ये उसकी ही खुदाई है
क्यों टुकड़े कर दिए धरा के , क्यों सरहदें 
बनाई है
करो विश्वास सब पर , प्रेम इस धरती पे तुम बाँटो
तुम्हारी जिंदगी भी तो उस , प्रभु ने ही रचाई है

सरिता गर्ग
स्व रचित
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विधा / हाइकु
विषय - पवन


पवन पुत्र
हृदय बसे राम
परम भक्त

पवन गति
गहन झंझावात
आंधी तूफान

मन्द बयार
पुलकित हृदय
मनभावनी

शीत पवन
कांपता तन मन
ठंड गहन

सर्द मौसम
ठिठुरता शरीर
पवन वेग

शरद ऋतु
तीव्र पवन गति
बिखरी धुंध

मन्द मलय
सुगन्धित चमन
भौंरा गुंजन

सरिता गर्ग
स्व रचित
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विजय की कामना लेकर
विजय रथ पर चढ़ो वीरों
कंटकाकीर्ण है ये पथ
मगर बलवीर तुम वीरों
नही आंधी कोई तूफान
तुमको रोक पायेगा
तुम खुद तूफान हो
तूफान तुमको क्या डरायेगा
विजय पथ पर बिछे काँटे
बनेंगे फूल तुम देखो
तुम्हारे हौंसले ही
दाँत दुश्मन के तोडेंगे
पुकारे ये धरा तुमको
तुम्हारा ये लहू मांगे
बिछा कर लाश दुश्मन की
बढ़ो मंजिल पे तुम आगे
तिरंगा गाड़ सीने पे
उड़ा दो नींद दुश्मन की
नहीं पानी भी वो माँगे
करो हालत कुछ तुम ऐसी
दलों तुम मूंग छाती पे
न ले वो सांस एक पल भी
छुपे पाताल में जाकर
वहां से ढूंढ तुम लाओ
कुचल कर नाग के फन को
विजय का गान तुम गाओ

सरिता गर्ग

स्व रचित

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जय पथ पर बढ़ लाडले माता तुझे बुलाय
दुश्मन का संहार कर सकुशल वापसआय

दुश्मन की दहलीज तक आगे बढ़ता जाय
विजय पंथ का सूरमा अरि को मार गिराय

भारत माँ का लाल है कभी न मुहकी खाय
विजय पंथ पर चल पड़ा गाड़ तिरंगा आय

गरम सरद मौसम सहे बारिश उसे भिगाय
विजय पंथ रण बांकुरा , आगे बढ़ता जाय

माँ बहना पत्नी तजे ,विजय पंथ पर जाय
रोते बालक छोड़ कर , घर सूना कर जाय

सरिता गर्ग
स्व रचित

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चूहे मामा

काला चश्मा चढ़ा नाक पर
घड़ी सुनहरी सजा हाथ पर
अपनी लम्बी पूंछ हिला कर
चूहे मामा जी इतराये
चुहिया मामी सिले पजामा
मामा पहन उसे इठलाये
कितना सुंदर दिखता हूँ मैं
सोच सोच कर वो मुस्काये
आज सभी साथी पर अपना
खुल कर रौब जमाऊंगा
सभी जलेंगे फिर वो मुझसे
मैं राजा बन जाऊंगा
तभी सामने बिल्ली मौसी
आती पड़ी दिखाई
अब तो चूहे मामा जी की
घिग्घी सी बंध आई
सभी विचारों को मामा ने
मुश्किल से था थामा
जान बचा कर भागे बिल में
निकला वहीं पजामा

सरिता गर्ग
स्व रचित

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विधा - हाइकु
विषय - जल


जल रक्षण
सुरक्षित भविष्य
सुख आधार

जल जीवन
सींचता तन मन
जीवनाधार

नीर विहीन
जीवन असम्भव
जग सहरा

पावन नीर
ईश्वर उपहार
तृप्त संसार

अश्रु सलिल
उद्वेलित हृदय
दुख संकेत

सांसें समाप्त
जल विहीन मीन
जीवन अंत

जल संकट
सूखते जल स्त्रोत
धरा विनाश

सरिता गर्ग
स्व रचित

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भोर उजाला
सुखद अहसास
मन प्रसन्न

मन उजाला
हृदय प्रफुल्लित
सुमन सम

प्रातः उजास
स्वर्णिम आसमान
रवि आगत

सूर्य प्रकाश
जगत उजियारा
स्वर्णिम रश्मि

ज्ञान उजाला
अन्तर्मन प्रकाश
सुखानुभूति

सरिता गर्ग
स्व रचित

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आरम्भ अंत
सुनिश्चित प्रारब्ध
ईश्वर इच्छा

अंत निश्चित
जीवन नश्वरता
शाश्वत सत्य 

आवागमन
जीवन समापन
जन्म मरण 

अनन्त यात्रा
परमात्मा विलीन
महाप्रयाण

जीवन मृत्यु
ईश्वरीय विधान
देहावसान

सरिता गर्ग
स्व रचित

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माँ ने जब भी कोई लाल खोया होगा
चीख मारकर बालक कोई , रोया होगा
चूड़ी तोड़ सुहागन ने सर्वस्व लुटाया होगा
बूढा बाप फिर किसी रात ना सोया होगा

आँख सामने गुजरे होंगे कितने मंजर
तड़प तड़प कर रोया होगा तभी समंदर
दर्द के कितने तूफां उठते होंगे मन में
बेटे ने जब कफ़न तिरंगा पहना होगा

बादलों ने गरज गरज दी होगी सलामी
बिजलियों ने चमक दागी होगी दुनाली 
दुश्मन को ललकार कहा होगा नभ ने
नहीं बचेगा , बता कौन अब तेरा माली

सरिता गर्ग
स्व रचित


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विषय - दाग

दाग चरित्र
कलुषित जीवन
निंदित व्यक्ति

उच्च चरित्र
व्यवस्थित जीवन
प्रशंसनीय

दाग शशांक
कलुषित सौंदर्य
शोभा विहीन

माथे कलंक
उपेक्षित जीवन
अवमानना

दाग दामन
असहनीय पीड़ा
हार्दिक कष्ट

सरिता गर्ग
स्व रचित


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माघ महीना
बसन्त आगमन
शुक्ल पंचमी


हिन्दू त्योहार
सरस्वती पूजन
वासन्ती वस्त्र

राग वसन्त
हिंदुस्तानी पद्धति
प्राचीन प्रथा

मनभावन
ऋतुराज बसन्त
सृष्टि यौवन

बसन्त ऋतु
प्राकृतिक सौंदर्य
पीली सरसों

सरिता गर्ग
स्व रचित











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विधा - छंद मुक्त
विषय- दिल


बैठी थी बेखबर
सपनों में खोई
कुछ जागी सी
कुछ सोई सोई
आंखें खुली थीं
पर होश बाकी न था
खुला था
दिल का दरवाजा
जबरन घुस आया था
न जाने कैसे
मौका पाकर
वह अजनबी
और मैं थी बेखबर
होश आया तब
जमा चुका था कब्जा
दिल की जमीन पर जब
वो आया 
कैसे और कब
नही जान पाई



शनैः शनैः
मुंदती पलकों पर
उतर आई थी
सुकून की शाम
और खिल चुके थे
दिल की जमीं पर
महकते फूल

सरिता गर्ग
(स्व रचित)

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शोभा जग की देखिये, खोल नयन के द्वार
आलोकित मन को करे, हो आनन्द अपार

द्वार हृदय का खोलिये, सब जग लेय समाय
सुख दुख सबका बांटकर,आपहु भी सुख पाय

दरवाजा मन का खुला,प्रिय उर लियो बसाय
प्रणय बेल रस सींच के,लिय परवान चढ़ाय

मति द्वार सब खोल कर,करो विचारो काम
भला बुरा सब सोचिये,सुखद होय परिनाम

ठंड लगे इस शीत में,लो सिगड़ी सुलगाय
गरमाई तन को मिले,हवा न पट खड़काय

सरिता गर्ग
(स्व - रचित)


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विधा- छंद मुक्त

किवाड़ की ओट से 
झाँकती चंद्रमुखी के
झील से गहरे दो नयन
उतर गए कटार से
सीने में
गुजरता रहा रोज
उसी गली से
जहाँ करती थी
मेरा इंतजार
किवाड़ थामे
झील सी गहरी आंखों से
मुझे निहारती
चुपचाप निकल जाता
कुछ न कहता
वो ख्वाबों में आती
मेरे सिरहाने बैठती
बाल सहलाती
सोने न देती
चुपचाप चली जाती
बताया किसी ने
वो नीम पागल है
खड़ी रहती है यूँ ही
किवाड़ की ओट से झाँकती
और मैं
थके कदमों से
निढाल सा लौटा घर
फिर गुजर न सका
उस गली से
नींद में आज भी खड़ी है
किवाड़ की ओट से झांकती
वह दस्यु सुंदरी

सरिता गर्ग
(स्व - रचित)
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विषय - किसान

है 
तेज 
तपती
धूप फैली
हल जोतता
फसल सींचता
भारतीय किसान 


देखे
बरखा
गर्मी सर्दी
खेती करता
फसल उगाता
मेहनती किसान

सरिता
गर्ग
(स्व रचित)
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