Wednesday, April 29

" बंदिश/ बेड़ी"28अप्रैल2020

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ब्लॉग संख्या :-720
भावों के मोती
दिनांक- 28/04/ 2020

दिन- मंगलवार
आज का शीर्षक- बंदिश/ बेड़ी
************************************
सदियों से पड़ी हैं बेड़ियां पांव में
फिर भी चलती हूं मैं धूप छांव में
कभी तपती दुपहरी
तो कभी शीतल छांव में
मैं चलती हूं अक्सर
अपने वजूद की तलाश में
मैं होना चाहती हूं मुक्त
इन बेड़ियों के जाल से
जो बात-बात पर मुझे टोकती हैं
मेरे बढ़ते कदमों को रोकती हैं।
ये बेड़ियां जो मुझे रोज देती हैं
तानें- उलाहने
उठाती हैं ये उंगलियां मेरे चरित्र पर
पर मैं कर देती हूं अक्सर नजर अंदाज़
इनके तानों को इनके उलाहनों को
क्योंकि मुझे सलीके से तोड़ना है
इन बेड़ियों का मजबूत जाल
और जाना है चौखट के उस पार भरनी है मुझे उन्मुक्त उड़ान
सफलता के अनंत आकाश में
पूरे करने हैं मुझे अपने सब अरमान।
मैं जानती हूं अब ये बेड़ियां मुझे
आगे बढ़ने से नहीं रोक पाएंगी
मेरे हौसलों के आगे ये‌ टूटती जाएंगी
धीरे-धीरे खो देगीं ये अपना वजूद
और एक दिन खुद ही कर देंगी
मेरे पांवों को अपने बंधन से मुक्त
चौखट के उस पार जाने को
सपनों को सच कर दिखाने को।

स्वरचित- सुनील कुमार
जिला- बहराइच,उत्तर प्रदेश।
विषय बन्दिश
आयोजन स्वतंत्र


डर था जिस बात का
वही हुआ
टूट कर बिखर गई हूँ
दिल लगाया था उससे
शीशे का दिल
पास था जिसके
अब जब बिखर ही गई,हूँ
तो समेटना भी है खुद को
मगर
लाख प्रयत्न के बाद भी
नही समेट पा रही हूँ खुद को
क्युँकि
यादों ने उसकी
#बंदिश जो लगा दी

स्वरचित
सूफिया ज़ैदी

विषय बंदिश,बेड़ियां
विधा काव्य

28 अप्रेल 2020,मंगलवार

सबसे बड़ा सुख स्वतंत्रता
बंधन नित जीवन जकड़े।
उनको मिलती सदा बेड़ियां
जो बदकर्मो में नित रहते।

चले सौहार्द पावन जीवन
परोपकार जीवन की पूंजी।
संस्कार और आत्मबल है
उत्तम श्रेष्ठ समस्या कुँजी।

गजराज जब मद में आता
डाले महावर पैरों में बेड़ी।
मानव दुष्कर्म परिणाम हैं
वह बनता हवालात कैदी।

समायोजन करती है प्रकृति
पर्यावरण अति प्रदूषित था।
मानव विश्व अज्ञान में लिपटे
मात्र बेड़ियां एक सबक था।

जल वायु ध्वनि स्वच्छ सब
उत्तम शिक्षा जगत को देदी।
ये कोरोना प्रेरणा बहाना है
इंसान बन गया ,घर में कैदी

गुण सूत्र , विज्ञान के पा लिए
बहक गया मानव धरती पर।
पड़ी बेड़ियां जब निज पैरों में
आई अक्ल उसको धरती पर।

जो आता है वह जाता जग
कोरोना कभी ,नहीं दिखेगा।
कुम्भकरण सा सोया मानव
अब धरती पर पुनः जगेगा।

स्वरचित, मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
बंदिश

नारी तेरे देह से,

जब खत्म हुवा मोह ၊
तब किया हमने,
तुझ पर संदेह ၊
संदेह आते ही,
हुवा बंदिशों का,
खेल शुरु ၊
हम पीने लगे दारु ၊
दारु की नशा में,
होते गये सराबोर ၊
हँसते-खेलते जीवन को,
समझने लगे बोर ၊
तेरी हँसी, तेरी गपशप,
तेरा मुस्कराना, तेरा चलना,
सब ले जाता, संदेह की ओर ၊
संदेह जब गहराता गया,
जलाने लगे तेरी कोमल काया ၊
खत्म हो गया, इन्सानी प्यार ၊
मुक दर्शक लकड़ी,
बनी हथियार ၊
हथियार की मार से,
रात भर तू अकड़ी ၊
फिर भी जी नहीं भरा,
तो जंजीरों में जकड़ी ၊
मासुम बच्चे,
तुझे देखकर रोऐ ၊
तु उन्हे, देखकर रोऐ ၊
हम जो चादर,
तानकर सोये ၊
सुबह हम बेख़बर ,
छोड़ गये तेरा प्राण,
तेरा शरीर नश्वर ၊
इन्सानी समाज को,
इसकी है, खबर ၊
उन्हे है,
"पती- पत्नी"
रिश्ते का ड़र ၊
हम जो तेरी,
चिता पर ၊
संवेदना के चार आँसु रोऐ ၊
फिर संदेह की दुनिया में खोऐ..
फिर संदेह की दुनिया में खोऐ.၊

X प्रदीप सहारे
विषय - बंदिश/बेड़ियां
विधा- ग़ज़ल


बेड़ियां खुद कीं खुद पर लगाया करो
जग के न तो खुद उसूल बनाया करो ।।

रूह से तालमेल बैठा लीजिए
ये आवाज कभी नही भुलाया करो ।।

जीत मिलेगी जीवन में सदा तुम्हे
सच मानिए ये सच अपनाया करो ।।

हम इंसान हैं इंसानियत धर्म है
इंसानियत से नीचे न जाया करो ।।

स्वतंत्रता सही पर किसी कि स्वतंत्रता
का हनन हो ये पाप न उठाया करो ।।

ये मन जैसा ढालो ढल जाएगा
अच्छाई में ढलना सिखाया करो ।।

बंदिशों ने बहुत कुछ बताया 'शिवम'
बंदिश से बदलाव नेक लाया करो ।।

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 28/04/2020


विषय - बंदिश/बेड़ी
द्वितीय प्रयास


नही चाहता ये दिल रिहाई
हो कोई अदालत सुनवाई।।

अजीब से हालात इस दिल के
नही जाय ये हालत बताई।।

कैद करके रखा है ये दिल
किसी ने क्या कहूँ सौदाई।।

शिकारी की तरह तीर मारा
छटपटाये ये दिल नही दवाई।।

सैयाद को ढूढ़े खुद शिकार
सैयाद को रहम नही आई।।

ये कैसा खेल कहीं तो स्वत:
समर्पण औ कहीं आतताई।।

बेड़ियाँ खुद गले डाले है
ये दिल भी क्या शय बनाई।।

निकलने का नाम न ले दिल
औ सैयाद 'शिवम' नारसाई।।

नारसाई = पहुँच से बाहर

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 28/04/2020
28-04-2020
विषय _ बंदिशें/बेड़िया


बंदिशे और बेड़िया एक बंधन है
पैरों और जवानी सीमा रेखा पर।
बाढ का पानी और जवानी
कहाँ रुकती बंदिशों पर भी ।
जवान नौजवान पडेंग़े जब नशों में
लाख कोशिश और बेडिया न बांध पाती बंदिश को।
प्यार में जब हो जाऐ कदम आशिक कहाँ रुकते है
संस्कारो की बदिंश लोगों की नजरे
बेड़िया बन चुभती है।
स्वरचित
पूनम कपरवान
देहरादून
उत्तराखंड ।

आयोजन - बेड़ियाँ/ बंदिश
दिन - मंगलवार

ये बेडिया पाँवों की
महावर रंगे पैरों की ।
पाज़ेब शोभे नन्हें पाँवों
ये कहानी मजबूरियो की।

क्या समझूँ इस रितियो को
छोटी उम्र मे ब्याही बेटियों की ।
या जमाने की कुरीतियों की
या ग़ुलामी की ज़ंजीरो की ।

बहुत असमंजस मे हूँ
किसके हैं ये बेड़ियाँ।
ख़ूबसूरत नन्हें क़दमों में
किसने लगा दी बेड़ियाँ।

बढ़ने दो नन्हें क़दमों को
वो भी एक जीवन हैं ।
क्यूँ बंदिश मे जीने को
मजबूर हैं ये ज़िंदगी ।

छोटी उम्र ब्याह कर
कुम्हलाती ये बच्चियाँ ।
खेलने की उम्र चौका
और घर सम्भालती बेटियाँ।

हर उम्र में कितना सहती बेटियाँ
बेड़ियों बंदिशो को क्यूँ नहीं तोड़ती
स्वतंत्रता से कब जियें बेटियाँ
संविधान ने दिया हक़ कब समझती ।

शिक्षा से ना करो वंचित उसे
बेटियों से ही जमाना हैं ।
हक़ हैं उनका समानता
फिर क्यूँ ये अंतर हैं ।

स्वरचित - सीमा पासवान
दिनांक 28।4।2020 दिन मंगलवार
विषय बंदिश


बंदिशें खुद पर लगाकर हम घरों में ही पड़े हैं।
मानकर आदेश सरकारी साथ डटकर खड़े हैं।।
घर में रह परिवार और समाज होगा सुरक्षित।
इसलिए छत्तीस दिन से इस महामारी से लड़े हैं।।
तोड़ देंगे संक्रमण की जुड़ने वाली सारी कड़ियाँ।
देश की सेवा करेंगे नियम पालन में कड़े हैं।।
मन की सारी कामनाएं फिर कभी पूरे करेंगे।
अभी तो आपात स्थिति के लिए हम सब बढ़े हैं।।
बंदिशें हट जाएंगी धैर्य से हम करें प्रतीक्षा।
झेलें संकट कुछ दिनों का अभी तो खतरे बड़े हैं।।
साथियों! दायित्व है इस समय हम कानून मानें।
साथ दें उनका जो निश दिन हमारे हित खड़े हैं।।

फूलचंद्र विश्वकर्मा

विषय - बंदिश/बेड़ी

बंदिश की बेड़ियों में तुम मुझे
आखिर कब तक रख पाओगे
मान मर्यादा का जूठा दिखावा करके
मुझ पर बंदिशें कब तक लगाओगे
तुम मुझ पर बंदिश लगा सकते हो
पर मेरे मजबूत इरादों पर नहीं
तुम मुझे रोक सकते हो
पर नदी की तरह बहते अनवरत
मेरी सोच,मेरे विचारों पर
तुम कभी बेड़ियां नहीं डाल सकते
तुम मुझे झकड़ सकते हो
पर मेरे उस सपने को नहीं
जिसकी वजह से आज मैं जिंदा है
चाहे बेड़ियों का जितना मजबूत जाल बना लो तुम मगर
मेरे बढ़ते क़दमों को वो जाल
और मजबूती देगा
तुम जितना मुझको रोकोगे
मेरा हौंसला आगे बढ़ने का
उतना ही गहरा होता जाएगा
तुम्हारे ही अस्त्र से मैं तुम
पर प्रहार करूंगी
इन बेड़ियों को ही मैं अपना अस्त्र
बनाकर इस बंधन से मुक्त हो जाऊंगी
आखिर तुम कब तक बेड़ियों में रखोगे
मैं तो वो आजाद चिड़ियां हूं
जो एक दिन अपने पर फैलाकर
दूर कहीं ऊंचे आसमां में उड़ ही जाऊंगी
अपना परचम स्वयं ही लहराऊंगी
मेरी सफलता के गीत एक दिन
देखना तुम खुद गाओगे

जया वैष्णव
जोधपुर ,राजस्थान


दिनांक - 2 8,4,2020
दिन - मंगलवार

विषय - बंदिश , बेड़ी

कोविड - 19 ले आया है,
बंदिश की नई तलवार।
पहले ही कितनी बेड़ियों में ,
हम सदियों से थे गिरफ्तार ।

नर - नारी में भेदभाव का ,
मन में घुला हुआ जो संस्कार।
अनचाहीं बेड़ियाँ हैं ये अपनीं,
इनसे हम हुए कितने लाचार।

ऊँच नीच और धर्म जाति कीं,
बेड़ियाँ पहुँच गईं हर द्वार ।
खुश रहते हम इन में बंधकर ,
इन्हें मान रहे हम सद व्यवहार।

ईर्ष्या द्वेष माया अहंकार सब ,
तमाम बेड़ियों के ही प्रकार।
जकड़े रहेंगे जब तक हम इनमें,
हो सकता नहीं सुखद संसार।

स्वरचित , मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश

दिनांक-28/04/2020
विषय-बंदिश/बंधन


दमक लालिमा की सुर्ख महावर
मध्य मांग में भरे सिंदूर
मैं पिया की अमिट एक बंधन बन जाऊं........
कर के आऊं जब मैं सोलह श्रृंगार
गेसू में महके गजरे का प्यार
मैं पिया के मस्तक का चंदन बन जाऊं........
लालिमा मेरे अधर की
ओढ के माधुर्य का चादर
मैं पिया के नैनो का अंजन बन जाऊं.........
बन के दमकूँ मै कुमकुम सी
मधुर मोहिनी सी गुनगुन
मैं पिया के कुंडल का कुंदन बन जाऊं........
रूप रस रची गंध की
भ्रमर गुंजित मदमस्त सुहाग
मैं प्रीत पिया की पावस अभिनंनदन बन जाऊं...
पैरों में ठहरे दस्तूर महावर
पायल की हो झंकार
मैं पिया के की दहलीज बंधन बन जाऊं........

स्वरचित
सत्य प्रकाश सिंह
प्रयागराज

साथियों
28/4/2020/मंगलवार
*बंदिश/बेडी*

काव्य

कब ये नया सबेरा आऐगा।
जो बंदिश से मुक्ति दिलाऐगा।
टूटें जल्दी अपनी सब बेड़ी,
तब मानव स्वतंत्र कहलाऐगा।

नव शिखर चढ़ें हम प्रगति करें।
नव सृजन करें प्रभु तमस हरें।
नहीं बंदिश हो अब कोई यहां,
हो नया सबेरा नव भक्ति करें।

हो जीवन दर्शन बस मानवता।
दिखे नयी सुबह मिटे दानवता।
काटें सभी बेड़ियां आपस की,
मिले चहुंओर सुख सदाशयता।

कोई बंधन बंदिश रहे नहीं।
यहां परतंत्र कोई रहे ‌ नहीं।
हो नया सबेरा नया उजाला,
अब ये बंदिश बेड़ी पडें नहीं।

स्वरचित
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र

*बंदिश/बेडी*काव्य

दिनांक-28-4-2020
विषय-बंदिश/बेड़ी


बंदिशें/बेड़ियां

कभी साथी बनकर
कभी साकी बनकर
कभी प्रेरणा बनकर
कभी उपमा बन कर
आदर्श रखना जानती है
नई राह बनाना जानती है !!

बंदिशों में रहना
डर डर कर रहना
घूंघट पर्दे में रहना
खामोशी में रहना
हल नहीं है, वो यह जानती है
न को न कहना जानती है !!

अपनी खातिर
अपनों की खातिर
स्वाभिमान की खातिर
परिवर्तन की खातिर
त्याग करना भी जानती है
पहल करना जानती है !!

घर से बाहर की दौड़ हो
प्रतिस्पर्धा की होड़ हो
ज़िंदादिली से जीती है
संतुलन बना के रखती है
हर कार्य करना जानती है
उसे बखूबी साधना जानती है!!

ये आज की नारी है
जो कुरीतियों की बेड़ियां
दृढ़ इरादों से तोड़ कर
स्वयं की बनाई राह पर
सगर्व चलना जानती है
अब बंदिशों में न रहना जानती है।।

*वंदना सोलंकी मेधा*©स्वरचित
नई दिल्ली
तिथी - २८/४/२०
बिषय - बंदिश/बेडियाँ

विधा - मुक्त छंद

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तुम बुलाते हो मुझे बार बार,
दे कर दुहाई सात फेरों की......
* * *
क्यों ढूंढते हो मुझे बहारों में,
नहीं हूँ अब मैं संसार की राहों में।।
क्यूँ चाहते हो मेरा अब तुम साथ,
नहीं हूँ अब जमाने के बंधनों में.....
अब मैं केवल रूह हूँ,
माँ हूँ, बसती हूँ बच्चों की धड़कन में,
अपनी ममता में, कर्तव्यों की राहों में।।
* * *
जब छोड़ा था जमाने ने मेरा साथ
क्यूँ तब तुम नहीं थे मेरे साथ?
दो-राहे पर खड़ी थी जब मैं अकेली
क्यूँ तब तुम नहीं थे मेरे साथ?
जिम्मेदारी की मार सह रही थी अकेली
क्यूँ तब तुम नहीं थे मेरे साथ?
दुखों में जब टूट जाते थे दिल के जज्बात
क्यूँ तब तुम नहीं थे मेरे साथ?
बहुत चली काँटों व अंगारों पर अकेली
क्यूँ तब तुम नहीं थे मेरे साथ?
तन भी जब आमादा था छोड़ने को संसार
क्यूँ तब तुम नहीं थे मेरे साथ?
तब खड़े थे तुम भी औरों के साथ
मुझे बिखेरते देखने को......
* * *
बदल जाता है सब समय के साथ,
राहें अलग होते ही.......
जरूरते बन जाती हैं मुद्दा खास
राहें अलग होते ही....

कुछ दूर कर देते हैं
रश्मों - रिवाज
अब कैसे आऊं??
उठते कदम तब होता
बेड़ियों का अहसास
अब कैसे आऊं??

मीनूशुक्ल
राजकोट
विषय बंदिश
दिनांक २८-४-२०२०






बंदिशों से, दिक्कत नहीं है मुझे।
आजादी नहीं,सांस लेने दो मुझे,
पूरी उम्र गुजार लूंगी, दर्द सहके,
गैर सम्मुख,शर्मिंदा ना करो मुझे।

कमरे में,चाहो जो सजा दो मुझे।
गैर सामने,अच्छा कहने दो मुझे।
खामोश रह सब सहन करूंगी मैं,
बारात ले आए थे,तुम लेने मुझे।

नारी हूँ,कीमत चुकानी होगी मुझे।
आंसू,पानी तरह पीना होगा मुझे।
किससे शिकायत,अनजान शहर,
अगले जन्म,नारी ना बनाना मुझे।

जहां ने, मेरा दायरा बताया मुझे।
चोट खा,मुस्कुराना सिखाया मुझे।
कहती वीणा,ये कैसा नारी जीवन,
बहुत समझा,समझ न आया मुझे।


वीणा वैष्णव"रागिनी"
राजसमंद
28 अप्रेल 2020
विषय- बंदिश/ बेड़ी


बंदिश,बेड़ी नहीं सुघठित जीवन है
सभ्यता अनुशासन दो सोपान हैं
परिवार का एक्य है हिफाजत है
उसूल पर चलें बंदिशें होंगी नहीं
बेजा पंख पसारे बेड़ियां करेंगीसही।

ख्वाब देखते हैं पर
बंदिशे हज़ार हैं।
हैं कदम धरती पर
चांद को छूने का अरमान है।

विषाणु ऐसा आया कि
ताला खुल ना पाया
सहायक बनो प्रशासन के
शीघ्र विषाणु का हो सफाया।

आशा पालीवाल पुरोहित राजसमंद
दिनाँक28-4-2020
विषय-वंदिश/बेड़ियाँ

विधा-घनाक्षरी
दया,क्षमा,शीलता है प्रीति, प्यार मधुरता.
आदर में बड़ों के शीश नबता हमारा है।
बंधन बँधा जो वो काटे से भी नही कटा.
भाई हेतु तज दिया राज्य यहाँ सारा है।
सूरत सजाई प्रीत प्यार वाली कुछ ऐसी.
बंंदिशों को तोड़ सारा जीवन गुजारा है।
माटी मेरे देश की सत्य परिवेश वाली.
मुख में रखी जिसे प्रभु ने दुलारा है।
रवेन्द्र पाल सिंह'रसिक' मथुरा ।
दिनांक 28 अप्रैल 2020
विषय बेडियां


सीमाओं मे सीमाएं बन गई
हालातों मे कुछ ऐसी ठन गई
कैद रह गए जैसे परकोटे मे
विपदाएं घर के बाहर बन गई

विश्व सकल लड रहा एकजुट
शत्रु है अदृश्य ताकतवर बहुत
जरूरी हो गया भीतर रहना
स्थितियां ही कुछ ऐसी बन गई

सैर सपाटा सब तीज त्यौहार
विवाह, भोज, मिलन,व्यवहार
सब के सब स्मृतियों मे बस
घडियां ही कुछ ऐसी बन गई

सडके खाली, शहरों में सन्नाटा
कौन देख रहा नफा और घाटा
जीवन बचाने को हरेक आतुर
कडियां ही कुछ ऐसी कस गई

समय का पलटा जाना तय है
सुखद पलों का आना निश्चय है
पर संघर्ष करना है दिन बहुत
बेडियां ही कुछ ऐसी बन गई

रात बीतेगी,नया सवेरा आएगा
जग फिर पहले सा हो जाएगा
गलतियां सीखा जाएगी सबक
करनी ही कुछ ऐसी कर गई

कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद
तिथिः वैशाख शुक्ल पंचमी
नमन मंचः *भावों के मोती*

दैनिक कार्य शीर्षकः बंदिश/बेड़ी
रचना का शीर्षकः द्रोपदी
( पदात्मक प्रंसग)

आज द्वापर युग का काला अध्याय लिखा जाने वाला है,

भरी सभा में सभी मौन हैं,

द्रोपदी का चीर हरण जो होने वाला है,

पांडवों की बलशाली भुजाओं पर शर्त रूपी बेड़ियां लगी हैं,

पितामह भिष्म की जुबान पर प्रतिज्ञावश बंदिश लगी है,

धृतराष्ट्र तो पहले ही पुत्र मोह की बेड़ियों में जकड़े जा चुके हैं,

द्रोपदी अपने मुँहबोले भाई श्री कृष्ण से गुहार लगा रही है,

चीर हरण हो रहा, सब के बीच कन्हाई|
तू कृष्णा सो रहा, शरम तुझे आती नहीं||

श्रीकृष्ण अदृष्य हैं,

श्रीकृष्ण द्रोपदी को दिखाई नहीं पड़ते,

द्रौपदी रूदन करती है,

द्रोपदी कहती है,

हे अनहद हद हो गई, बंदिश में रणधीर|
कैसी हैं ये बेड़ियां, बोलो कृष्णा बीर||

अदृष्य कृष्णा तब केवल द्रोपदी को दिखाई देते हैं,

कृष्णा मुश्कुराते हैं,

कहतें हैं कृष्णा द्रोपदी से,

अनहद में हद बहन, मैं दिखाई देता हूँ|
ओम नाद को सुनो, मैं सुनाई देता हूँ||

अब द्रोपदी आश्वस्त है,

कृष्णा साथ जो हैं,

कौरव हताश हो चले हैं,

चीर है कि- हरण होता नहीं,

चीर हरण ना हुआ, कौरवा हीन हताश|
थक थक गए शरीर, बंद भये अट्टाहास||

कौरवों के पिशाची अट्टहास अब बंद हो गए हैं,

"मगर द्रोपदी के प्रश्न तो अभी शेष है ?"

द्रोपदी सोंच रही है,

"पाँचो पाण्डव चुप क्यों हैं ?"

"धृतराष्ट्र कुछ क्यों नहीं कहते ?"

"और पितामह! पितामह अपनी पोत्र वधू को नग्न क्यों देखना चाहते हैं ?"

कृष्णा जानते हैं द्रोपदी के मन की पीड़ा,

कृष्णा द्रोपदी को समझाते हैं,

मन है बेड़ी तन की बंदिश,
बंधनों में बंधा शरीरा|
वचन बंधे हैं बंधनों में,
जब बंधे हाथ रणधीरा||

कौरव हताश होकर बैठ गए हैं,

पाण्डव बैचैन हैं,

चीर हरण रूक गया है,

और कृष्णा! कृष्णा तो अभी भी मुशकुरा रहें हैं'

कृष्णा की यह मुशकान कभी नहीं जाती,

यह तो निरंतर प्रवाहित होती ही रहेगी,

यूगों युगों तक,

ये मुशकान अज़ल है, अनंत है, शाश्वत है,

हरिओम🙏
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उपरोक्त पद रचना क्षणिकाएं, दोहे, सोरठा, मुक्तक, व रोला विधा की साहयता से संकलित की गई है, क्षणिक त्रुटियों के लिए लेखक क्षमाप्रार्थी है🙏
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स्वरचित रचना द्वाराः
मंगल डेढ़ा उर्फ
Nirgur Besur Sa
New Delhi

विषय : बंदिश
विधा कविता

तिथि : 28.4.2020

बंदिश
------

पंछी
पिंजरा
बंदिश
निराशा
अवसाद।
रचनात्मकता-
मुर्झाना मत,
कलात्मकता-
हराना मत;
जीवित रहना
जीवंत रहना
निराशा में आशा
जगाए रखना
प्रतीक्षा की जोत
जलाए रखना।
रात खत्म होने पर-
होगा सवेरा
तेरी मेरी खुशियों का डेरा।
हां, रात थोड़ी लंबी है-
बड़ाना होगा सब्र का घेरा
बंदिश की लंबाई में-
ज़िदगी समाई
बंदिश के बाहर खड़ा
कोरोना हरजाई।

-रीता ग्रोवर
-स्वरचित
**
28 अप्रैल 2020
मंगलवार

बंदिश/बेड़ी

बंदिश है अब देश में, बदल गए आचार।
बड़ी आपदा जगत में, बचना मेरे यार।।1

कोटर मैं बैठे सभी, करते रहे विचार।
छुटकारा कब तक मिले, पता नहीं है यार।।2

राशन की चिंता लगी, खुलती नहीं दुकान।
रोजगार मिलता नही, कैसे हो भुगतान।3

नारायण रक्षा करो,संकट मे है प्राण।
भारी विपदा जगत में, करो सभी का त्राण।4

रेल यान सब बंद है, सूनी हुई दुकान।
दुनिया की गति थम गई, समय बड़ा बलवान।।5

नर भूषण है जगत का,रक्षा करना राम।
सुबह शाम लेते सदा,केवल तेरा नाम।6

केशरीसिंह रघुवंशी हंस

विषय - बंदिश/ बेड़ी
28/04/20

मंगलवार
कविता

बंदिश किसी की कल्पनाओं पर अगर लग पाएगी ,
मन की गहन अनुभूति फिर कैसे मुखर बन पाएगी ।

सुन्दर, सलोनी स्वप्नधारा दायरे में संकुचित ,
कब भावनाओं की तरंगों को सृजित कर पाएगी।

मन तो बड़ा चंचल है, बिन पंखों के ही छूता गगन,
उसके लिए कोई भी सीमा रोक न मग पाएगी।

वह तोड़कर सब श्रृंखलाएं , तोलता पर व्योम में,
उसकी स्वच्छंद उड़ान बंदिश से नहीं थम पाएगी।

स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
28/4/2020
बंदिश/बेड़ी

पैरों में बंधी बेड़ियां,
बंदिशें लगी दिल पर।
इन्हें तोड़ कर बोलो।
कोई कैसे जायेगा कहां पर।

इन्सान को कोई कहां समझ पाया।
दिल की बातें यूंहीं दिल में हीं दफनाया।
औरों के इशारे पर चला हरदम।
मंजिल मिली नहीं यहां पर।
पैरों में............

लाखों दुःख हैं,अनेकों झमेले हैं।
सबकुछ यहां इन्सां झेलता अकेले है।
साथ देता नहीं कोई रिश्ता-नाता।
सब कोई है परेशान यहां पर।
पैरों में.............

स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
28 /4 /2020
बिषय बंदिश, बेड़ी

कैसे जाऊँ पीहर मैं बेड़ी पड़ी हैं पांव
सन्नाटा सा पसरा हुआ सारे शहरों गाँव में
याद बहुत आती है गर्मी के नजारों की
नि:शब्द चले गए वो अनूठे त्यौहारों की
याद बहुत आती है अपने घर के आमों की
आंगन में पड़ी खाट वो ठंडी ठंडी शामों की
जाने कब बैठने को मिलेगा वो पीपल की छांव में
घर का दूध घी छाछ मन से नहीं जाता है
वो खरबूज तरबूजों का टोकना याद बहुत आता है
कभी चौपड़ कभी शतरंज सभी मिल खेलते थे ताश
मन से नहीं जाता मायके का वह मोह पाश
इससे ज्यादा दुनिया का सुख न बात वो अनमोल पांव की
बंदिश बहुत कड़ी है सिर पर मन मसोसकर रहना है
अब तो जो अच्छा बुरा बस अकेले सहना है
सपनों में देखा करती तस्वीर अपने गाँव की
स्वरचित सुषमा ब्यौहार
दिनांक 28-04-2020
विषय- बंदिश /बेड़ियां


बंदिश मेरे सुख साधन,
खुशी पर लगा सकते हो तुम
कलम न बंदिश में रह पाए,
चाहे जीवन हो गुमसुम ।

प्रेम स्नेह की पावन धारा,
विपरीत दिशा में मोड़ चुके तुम
खुश हो बस इतना सोच कर
धार कलम की तोड़ चुके तुम।

प्रतिभा नहीं बंदिश में रहती
खुद को जितना झोंक दो तुम
कलम है खड्ग से बलशाली,
साहस हो तो रोक लो तुम।

ऐ मेरी पथ की बाधाओं ,
वापस अपना रुख कर लो।
निर्भय हूं मैं निष्ठावान हूँ,
चाहे जितना दुख भर लो।

प्रतिभा न मोहताज किसी की,
लाखों हों चाहे इल्ज़ाम।
ईमान मेरा पहचान है मेरी,
बंदिश को भी मेरा सलाम।

क्षुद्र विचारों की बेड़ी क्या,
धार कलम की रोक सकेगी?
अथाह सागर के पानी को,
धरती कितना सोख सकेगी।

कलम ही मेरी सच्ची साथी,
तमस में हाथ पकड़ती है
मार्ग प्रशस्त करती है नित,
बंदिश में नहीं जकड़ती है।

श्रेष्ठ है यह इंसानों से तो,
मन भावों को समझती है
बेड़ी नहीं बनती है पथ की
ईर्ष्या में न धधकती है।

आक्षेप कलम को दो चाहे तुम
बंदिश से दामन भर लो।
ये कलम है साहब नहीं रुकेगी
धरती गगन एक कर लो।

कुसुम लता'कुसुम'
नई दिल्ली

28/04/20
बेड़ियां

छंदमुक्त
**

पाँवों की बेड़ियां सदियों की दास्तान कहती है ,
वर्जनाओं में जकड़े रहने की व्यथा बयान करती हैं,
परंपराओं और रूढ़ियों की जंजीरों में बंधी ,नारी
नित परीक्षाओं और कसौटियों से गुजरा करती है ।

हाथों का खिलौना बन अपनों से ही छली जातीं है ,
इन सबके बावजूद खामोशी से सहन कर जातीं है,
अवसर मिलने पर बेड़ियां तोड़ अपने पैर पसारती
ऊंची छलांग लगा आसमान से तारे भी ले आती हैं।

बेड़ियों से आजाद करना समाज की जिम्मेदारी है।
मत कतरना पर इनके,हौसले की उड़ान देनी है
अद्भुत अनंत विस्तार लिये नारी सृजनकारी है,
स्वयं को आजाद करो, ये तुम्हारी भी जिम्मेदारी है।

अनिता सुधीर
लखनऊ
विषय- बंदिश /बेड़ी

नन्ही कली बाट देख रही
दूर क्षितिज के कोने से ।
धरा सुगंधित हो रही,
रजनीगंधा के फूलों से ।

डगमग -डगमग पग धरती,
चल पड़ी क्षितिज के कोने से।
मन में टीस उठी .....
हृदय के एक कोने से ।

नन्ही कली ने खोली आंखें,
धरा ने सत्कार किया ।
भास्कर का हुआ उदय,
किरणों ने आलिंगन किया ।

जमाने ने बंदिशे लगाई
लगाई पैरों में बेड़ियां ।
नाजुक सुर्ख कलाइयों ने,
पहनी सुहाग की चूड़ियां ।

गगन की उन्मुक्त उड़ाने
आंधियां भी उड़ा न पायी
सदियों से लगती रही बंदिशे,
बढ़ते कदमों को रोक न पायी।।

स्वरचित, मौलिक रचना
रंजना सिंह
प्रयागराज
विषय बंदिश

मुझसे पूछा गया प्रश्न
बंदिशों के हैं हालात
कैसा बीत रहा है यह समय कठिन

थोड़ा सकुचाई मैं प्रश्न सुन
मैंने कहा
मुझे तो नहीं हुआ अनुभव भिन्न

स्त्री जीवन में तो बन्दिशें सदा से रही हैं
सदा रहेंगी

वे बोले
वर्तमान समय में हैं नारी नर एक समान
हर क्षेत्र में बना रहीं हैं वो मुकाम

मैं बोली
आप सही कह रहे हैं महाशय
बन्दिशों में मिली छूट का है यह परिणाम
वर्तमान समय में नारी बना रही है जो मुकाम

परन्तु
स्त्री जीवन में बंदिशें सदा से रही हैं
सदा रहेंगी
स्वरचित
मीना कुमारी
दिनांक - 28-4-2020
विषय - बंदिश/ बेड़ी


इस वैश्विक महामारी के दौर में
हमें निज स्थिति सुदृढ़ बनानी होगी ।
किसी के जीवन का ना यूँ अंत हो
कुछ बंदिश जन हित में लगानी होगी ।
कोरोना वायरस फैलाता है संक्रमण
दैहिक निकटता पर बंदिश लगानी होगी ।
हाथों की सफ़ाई और मास्क पहनना ज़रूरी
गंदगी,लापरवाही पर बंदिश लगानी होगी ।
लॉकडाउन के दौरान हो रही परेशानियाँ
मगर हमें अधीरता पर बंदिश
लगानी होगी ।
लोकतंत्र हमारा, माना लोगों का तंत्र
हमें अराजकता पर बंदिश लगानी होगी ।
अधिकारों के संग कर्तव्य भी निर्धारित
इनके दुरुपयोग पर बंदिश लगानी होगी ।
सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था चरमराई
हमें फ़ालतू ख़र्चों पर बंदिश लगानी होगी ।
लाखों लोगों का जीवन हुआ बदहाल
अपनी स्वार्थी प्रवृति पर बंदिश लगानी होगी ।
सोने की चिड़िया, पुनः विश्व विजयी बने
पश्चिमी उत्पादन पर बंदिश लगानी होगी ।

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
दिनांक- 28/4/2020
विषय- बंदिश/ बेड़ी
िधा- छंदमुक्त
****************
बंदिशों का भी अपना ही हिसाब है,
जबरदस्ती लग जायें तो बुरी लगती,
हित में लगें तो जिंदगी सी प्यारी,
इतनी बुरी नहीं होती ये बंदिशें सारी |

घर से शुरू होती बंदिशों की कहानी,
माता-पिता करते हैं इसकी अगवानी,
अबोध बच्चों को वो कैसे समझाते ?
कुछ नियम हमको हितकारी बताते |

खान-पान और पहनावा सिखलाते,
संस्कारों की एक बेड़ी पहनाते,
जो इसका पालन कर जाता,
समाज में वो सभ्य कहलाता |

कभी नोटबंदी बनकर सामने आती,
कभी कोरोना के खिलाफ खड़ी हो जाती,
बंदिशों में घर पर आज जो रह रहे,
कोरोना को मुँह तोड़ जवाब वो दे रहे |

बंदिशों का सकारात्मक रूप भी होता है,
वरना बिना बाँध के पानी को कौन रोका है,
बंदिशें जीवन की वो लक्ष्मण रेखा हैं,
पालन गर हो तो खुशी का सवेरा है |

स्वरचित- संगीता कुकरेती
विषय - बंदिश/ बेड़ी
दिनाँक-28/04/20

दिन--मंगलवार
विधा--कविता
**************
उन्मुक्त
जीवन चाहिए
तभी जीवन यह सार्थक है
वरना जिन्दगी ही क्या
सब कुछ निरर्थक है
बंदिश सांसों को
घोंटने का घोषणापत्र है
बेड़ी पाँव में हो या अन्यत्र
दुखद ही दुखद सर्वत्र है
क्या यह
जो कहा जाता है
सत्य है
नहीं यह असत्य है
सत्य है कि
सीमा में बंदिश
उत्तम संस्कार है
बेड़ी
कुसंस्कारों पर
मानवता से प्यार है।

********
सुरेश मंडल
पूर्णियाँ,बिहार
आज का शीर्षक : बन्दिश / बेड़ी
विधा : स्वतंत्र

दिनांक : 28.04.2020
दिन : मंगलवार


गीत

जंजीरों से हाथ बंधे हैं ,
पड़ी बेड़ियाँ पाँवों में !
पीड़ा झेल रहे बरसों से ,
खुशबू नहीं हवाओं में !!

भेदभाव बचपन से पाया ,
नज़रें इसे बयां करती !
सहने की बस सीख मिली है ,
प्रीत यहाँ आहें भरती !
शहरी शिक्षा , सोच है बदली ,
फिज़ा न बदली गावों में !!

जहाँ पनपती घोर गरीबी ,
और विचार न जागे हैं !
भाग्य जगाते लड़के हैं बस ,
हम तो बड़े अभागे हैं !
दुख की बदली यहाँ न छंटती ,
पलक चढ़ी आशाओं में !!

उम्मीदों की डोर थामकर ,
बैठे हैं आँखें मूंदे !
घोर तपन है लगी लगन है ,
कब बरसें शीतल बूँदें !
जाने कब जीवन महकेगा ,
सुख की गहरी छांवों में !!

नारी जीवन कठिन तपस्या ,
मर मर जीना पड़ता है !
रब देता है राह कंटीली ,
देह सुकोमल घड़ता है !
दूर दूर तक छोर दिखे ना ,
उम्मीदों की नावों में !!

स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )
28/4/2020
बिषय _बंदिश,बेड़ी

बहुत इच्छा थी कुछ करने की,
आगे बढ़ने की ,
ताकि दुनिया मेरे नाम से मुझे जाने,
पहले मैंने हिम्मत जुटाई
फिर आगे बढ़ी।
बंदिशें तो‌बहुत थी एक-एक करके
सब को थोड़ा ।फिर आगे निकल गई,
मददे ए हिम्मत हिम्मत ए खुदा
सुना तो था देखा नहीं था।
लेकिन मैंने यह किया तो‌ हिम्मत भी आई
औरआगे बढ़ने की शक्ति भी मिली ।
तब बंदिशें मेरे लिए
कोई रुकावट ना बन सकी ,
घर से निकली कई लोगों से मिलीलीटर
अच्छे ,बुरे हर तरह के लोग मिली
सब ने बहुत कुछ सिखाया ,
कुछ लोगों ने सिखाया कुछ अनुभव ने,
अब मैं लोगों को सिखाती हूं कि
बंदिशे कहीं कुछ नहीं होती ,
सूरज को बादल नहीं रोक सकता
अग्नि को हवा नहीं बुझा सकती
पवन को पहाड़ नहीं रोक सकता
जिसके अंदर हिम्मत है ओ बंदिशों को
तोड़ सकता है ,आगे बढ़ सकता है
बंदिशे कभी बेड़ियां नहीं बनती।
जो वीर होते हैं उनका संकल्प दृढ़ होता है
वे कभी विघ्न बाधाओं से नहीं डरते।।

माधुरी मिश्र
साहित्यकार
जमशेदपुर झारखंड
दिन - मंगलवार
दिनांक - 28/04/2020

विषय - बेड़ी

हां मैं भी एक जिंदगी हूं ,
मत बांधो मुझे बेड़ी से ,
हर वक्त कसी जाती हूं ,
नयी नयी कसौटी से।

क्या हुआ जो ईश्वर ने,
मुझे नारी रूप में भेजा है,
मैं सृष्टि करती हूं मानव की,
किसी ने पीड़ा जानी न मन की ।

कभी लगायी रिश्तों की बेड़ी
कभी बंधन में बांध दिया
मुक्त करो मुझे ऐसे बंधन से
जहां जबरन रिश्ता निभाया।

कभी पहनती लज्जा की बेड़ी
कभी मैंने घूंघट ओढ लिया
हर वो काम किया मैंने
जिसे न मन से स्वीकार किया।

दीपमाला पाण्डेय
रायपुर छग
स्वरचित
28/4/20

मैं छली गई
छलती ही रही
छलती ही रहूंगी सदियों तक।
मैं बंधी रही हूँ।
पहन बेड़िया
परंपराओं और रूढ़ियों की।
टूटती आशाएं
उम्मीदों की डोरी
नाच रही हूँ।
कठपुतली सी बन।
मिट जाते है।
ख्वाब सुनहरे
बन जाती जब सृजना नारी।
कट जाते है पंख
भर उड़ान के प्यारे
कैद पिंजरे में होकर
देखा माँ को
पहने बेड़िया
कितना था उपहास किया।
तू लड़ी नही
क्यो लड़ न सकी
दो माँ मुझको
जवाब जरा
समझ गई अब माँ की वेदना
माँ की वो मूक व्यथा
सह रही थी।
सहती ही रही।
सहनशीलता वो दे गई माँ

स्वरचित
मीना तिवारी
विषय.:-बंदिश/बेड़ी
दिनांक 28-4-2020

विधा:-गीत

काट कर बेड़ियाँ,
तोड़ कर बंदिशे|
आप के पास आये हैं हम|
आपकी इक नजर चाहिए|

जाति इंसान हो, प्रेम ही, धर्म हो|
एक दूसरे की खातिर जहाँ,
प्यार हो|
ऐसी दुनियांहमें चाहिए|

जहाँ चंदन की खुशबू, हवाओं में हो|
और फूलों की खुशबू,
फ़िजाओ में हो|
हमें ऐसा चमन चाहिए|

बूढ़े बरगद की पूजा ,
जहाँ होती हो|
प्यार के पंछी की बोलियाँ,
गूंजती हो|
छांव वही ममता मयी चाहिए|

बेड़ियाँ जहाँ जाने से, घबराती हों|
बेकली पास आने से डर,
जाती हो|
हमें ऐसी सूंकूं भरी,
जगह चाहिए|

मैं प्रमाणित करता हूँ कि
यह मेरी मौलिक रचना है

विजय श्रीवास्तव
बस्ती

दिनांक-28/42020
बिषय- बंदिश

विधा मुक्तक काव्य

बंदिशे हमेशा बुरी नही होती इन में बसी होती अपनों की चिंता,प्यार, हिफाजत , गुजारिश,
ममत्व ,मर्यादा,संभल कर चलने का सबब,
त्याग ,समर्पण कर्तव्य विश्वास अस्तित्व का!

बचपन की बंदिशे सम्भल कर चलनासिखाती,
जवानी की बंदिशे मर्यादा का पाठ पढाती है,
प्रौढ की बंदिशे जिम्मेदारियों के लिए सजगता
बृद्थावस्था की प्यार की बंदिशेअपनो चिंता!

बंदिशें बुरी होती हैंअविश्वास की अभिमानकी
भेदभाव की उन्नति के मार्ग की भावहीनता की
सजा की ,मजबूरी की,फिर तो पिंजरा सोने
का बेडियाँ चाँदीकी कैद की पहचान होती है!
स्वरचित
साधना जोशी
उत्तराखणड
उत्तरकाशी

शीर्षक- बंदिश/बेड़ी
विधा- काव्य

दिनांक- २८-४-२०
***************************
गुलामी की जंजीरों को हम सबने देखा है,
इन बेड़ियों ने समाज को बांध के रखा है।।

क्या कहूं बंदिशों की कितनी बड़ी है फेहरिस्त,
घुट-घुट कर नारी बन जाती है किश्त।।

कभी समाज में इज्जत का डर,
कभी वहशियों से अस्मत का डर।।

कभी जौहर, कभी बाल विवाह तो कभी सती प्रथा,
सदियों से चली आ रही ये कुप्रथा।।

हर गुनाह का सवाल उनसे किया जाता है,
बेड़िया उनके पैरों में डाल दिया जाता है।।

जब इन कुरीतियों से समाज निकला,
तो हर इंसान बन शैतान निकला।।

कब तक इन बंदिशों की आग चलेगी,
आखिर कब तक नारी एसिड से जलेगी।।

रात में घर से बाहर न निकलो,
लोग देख रहे हैं संभल के चलो।।

कपड़े इतने तंग और छोटे क्यूं हैं,
लोग नीयत के इतने खोटे क्यूं हैं।।

बंद करो झूठी शान,
बंद करो बंदिशें दुकान,
दो नारी को इज्जत सम्मान,
तभी होगा देश महान।।
***************************
स्वरचित एवं प्रकार्शनार्थ
प्रियंका प्रिया,पटना, बिहार।।

मंगलवार/ 28अप्रैल/2020
विषय- बंदिश / बेड़ी

विधा - हाइकु

कैसे आऊँ मैं
तुमसे मिलने भी
बेड़ी पाँव में !

एक अकेली
तड़पे जिया मेरा
पिया आओ न !

आज बंदिश
तोड़ सारे प्यास भी
बुझाओ मेरे !

सागर जाम
लिए बैठी हूँ पास
मेरे आओ न !

तुम मिले तो
सपनों का संसार
मिला है मुझे !!

स्वरचित मौलिक रचना
रत्ना वर्मा
धनबाद- झारखंड
बेड़ियाँ

बेफिक्र हुए इतने,कुछ याद ही नहीं
मन की करते गए,रोका उसे नहीं
सुध कभी किसी की,ली ही नहीं
दौड़े-उड़ते, चलते-बहते,रुके ही नहीं
कौन कहता है क्या,सुना ही नहीं
बस एक झक से बंधे,और चले वहीं
चाहे फिर जो हो, करना है वही
हम तो चले तुम भी,संग चलो वहीं
सुना नहीं, सुना नहीं, हरगिज़ नहीं
दौर ऐसा ये आया, कहीं जा सकते नहीं
ये बेड़ियाँ पैरों की,खोल सकते नहीं
बन्द कमरों से भी,झांक सकते नहीं
ये अति, फिर अति,होना तो था यही
चुप तो अब भी नहीं, बिल्कुल भी नहीं
छटपटाते उगलते, गरल हैं कहीं
समझो-समझो तुम्हारे,लिए ये नहीं
सीमा तय एक करो,बंदिशें भी सही
फिर खुशी चहचहायेगी, कदमों में ही
और खिल जाएगी, गुल से सारी ज़मीं
डॉ. शिखा
भावों के मोती
विषय-बंदिश/ बेड़ी

स्वरचित।

बंदिशें बस मेरे लिये हैं?
क्या मैं ही हूँ उद्दण्ड-प्रचण्ड?
सभी अनाचार अत्याचार की दोषी?

क्या मैं ही हूँ सभी रामायण -
महाभारत की दोषी?
बड़ी जल्दी लगा देते हैं
मुझ पर आरोप?

कभी वेशभूषा या व्यवहार
तो कभी बोलचाल या
नासमझी का जाल
सब मुझ पर ही क्यों कसता है?

क्या मैं ही सभी दुर्गुणों से युक्त ?
क्या पुरूष सभी दुर्गुणों से मुक्त?

भूल क्यों जाते हैं कि
मैं स्वेच्छा से आई थी वन
पति का साथ निभाने को
वरना तो ससुराल और
मायका था साधन संपन्न,
ऐश्वर्य भोगती राजकुमारी सा।

क्या बाली सही था या रावण?
अहंकार ने किसको भरमाया था?

महाभारत के प्रणेता
क्या भीष्म नहीं थे?
लाये जबरन राजकुमारी जीत।
या फिर धृतराष्ट्र
जो पालते रहे लालसा
अन्धी आंखों में राज करने की
पुत्र मोह में युवराज बनाने की?
दोषी बनादी मेरी हंसीं?

क्या निर्वस्त्र करना सभा में
मेरे व्यंग्य का परिणाम था
या अहंकार का बेशर्म आचरण?

क्या है जबाव किसी के पास?
मैं ही बन्दी,मैं ही शिकार
मुझ पर ही बन्दिश?
मेरे ही बंधें बेड़ी
वाह रे समाज
कमाल... कमाल... कमाल...

प्रीति शर्मा"पूर्णिमा"
28 /04 /2020
नमन मंच
28 - 4- 2029

विषय - बेड़ी

ब नदिश जब लग जाती हो जाते कुंठित मन,
सात्विक अभिव्यक्ति न होती,करते कृत्रिम
यत्न,

करते कृत्रिम यत्न काम न होता सौ प्रति -
शत,
कहलाता न मील का पत्थर हो जाता सामान्य र त्न,

ब न दिश किसी को न भाती देश में उपजे कांतिवीर,
कम उम्र के जोश ने बना दिया ऐतिहासिक
रणधीर,

परतंत्र यदि होते सब न लेते खुली हवा में
सांस,
वो देश कैसे प्रगति करता मिलता सदैव ही
त्रास,

ब न दि श जब हो जाती सरगम की निकले
नवीन राग,
कानों में अमृत घुलता माहौल हो जाता आत्मजाग ।

Dr पूनम सिंह
स्वरचित लखनऊ


कुछ बंदिशें कम किया कीजिए
खुलकर कभी तो जिया कीजिए


यह दुनिया-दारी फकत भीड़ है
कभी खुद से बातें किया कीजिए

बहुत दर्द देगा जो रिसता रहा तो
जख्में जिगर है सी लिया कीजिए

जब मुश्किलों के ना हों पार दरिया
नाम -ए- खुदा ले लिया कीजिए

अश्कों की मंजिल नजर से जुबां
जो आ जाए लब तक पिया कीजिए

गिला जब किसी से होने लगे तो
आईना सामने रख लिया कीजिए

विपिन सोहल

विषय बंदिश
विधा कविता

दिनाँक 28.4.2020
दिन मँगलवार

बंदिश/बेडी़
💘💘💘💘

टूट जाती हैं जब गर्दिशें
लग जाती हैं कई बन्दिशें
अभी कोरोना की गरम है लहर
सब कुछ ही गया एकदम ठहर।

बेडि़याँ पडी़ घर में ही रहो
दो गज़ दूरी से अपनी बात कहो
पीडा़यें जो हों चुपचाप सहो
मन के कोरे भावों में न बिल्कुल बहो।

अभी कोरोना की बेडी़ लम्बी है
चीन की हँसी ज़हरीली और दम्भी है
हमारे लिये बस एक ही मन्त्र है बाकी
कि हरेक को बनना अब बिल्कुल स्वावलम्बी है।

ये बंदिशें हमारी शुभचिंतक हैं
ये कोरोना की प्रबल विधंस्वक हैं
इतने समर्पित लोग जन सेवा में लगे हुए
सब कह दो कि हम उनके प्रशँसक हैं।

कृष्णम् शरणम् गच्छामि

स्वरचित
सुमित्रा नन्दन पन्त

विषय.:-बंदिश/बेड़ी
दिनांक 28/4 /2020



अतुकांत रचना।

चलो दूर चले यहाँ से ,
रश्म-रिवाजो की दुनियाँ से परे ,
रिश्ते-नातों का बोझ ना हो ,
बस प्यार ही दिल में पले।
धरती धानी हो , नीला गगन , कोई बंदिश ना हो ,उड़ते रहते परिंदों की तरह ,
शाम होते आ जाते घरोंदे तले ।

सहज-सरल मन होता ,
सोने से दिन ,रुपहली
रातें होतीं ,
वेदना तब सूर में ढलते ,
हर बेड़ी को तोड़ ,
पायल छनकती ,
काश? हमें ये हमारी दुनियाँ मिले।।

स्वरचित मौलिक ।
अनीता सिद्धि।
दिल्ली ।
28/4/2020

दिनांक :28/04/2020
विषय : बेड़ियाँ
विधा : हाइकु(5/7/5)
(1)
मन गुलाम
विचारों की बेड़ियाँ
खतरनाक
(2)
मीठा सा दर्द
रिश्तों की बेड़ियाँ हैं
खूबसूरत
(3)
चाभी है कर्म
समय की बेड़ियाँ
जकड़े हम
(4)
जीवन साधे
संस्कारों की बेड़ियाँ
शर्म को बाँधे
(5)
आज का युग
भौतिकता बेड़ियाँ
जकड़ा सुख

स्वरचित
ऋतुराज दवे

दिनांक २८/४/२०२०
शीर्षक-बंदिश/बेड़ी



खोलो मन की खिड़की
हरषे मन संसार
अपने ही घर में रहना
नही बंदिश समान।

चलो जगाये चेतना
लगाये खुद पर बंदिश
सुरक्षित रह घर में
करें ईश्वर की बंदगी।

चले निरंतर लेखनी
रहे न इस पर बंदिश
हर दिन हो एक नई सुबह
मिटाये सबकी रंजिश।

चलो करें कुछ ऐसी बात
जीवन लगे साकार
चलो निहारे प्रकृति को
और दे कविता को आकार।

ज्ञान पिपासा बनाये रखे
टूटे ना मन विश्वास
वंदिश नही है विचारों पर
हर दिन नई कविता की आस।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

२८-०४-२०
विषय- बंदिश

विधा- अतुकांत कविता

बंदिश
~~~~~~~
बंदिशें इतनी
भी न हों
कि पायल भी
लगने लगें बेड़ियाँ
और तुम कुछ भी
करने लायक न रहो
सिवाय घुट-घुट कर जीने के,
उससे पहले ही
खोल दो
अपने घर की सभी
खिड़कियाँ और दरवाजे,
बाहर से आने वाली
हवा की ताजगी को जियो
समेट लो उसे भीतर की
गहराइयों तक,
तब निडरतापूर्वक
कह दो समाज के
ध्वजवाहकों से
अब तुम अपना मार्ग स्वयं चुनोगी
और उस पर निर्भय होकर चलोगी।
~~~~~~~~~~~~~
डा० भारती वर्मा बौड़ाई
बंदिश....
28/4/20

सोचो उन बंदिशों के बारे में....
हम जो देते हैं शौक की खातिर....
परिंदों को अनजाने में....
अरमानों के पंखो को बाँध देते हैं
असमान में उड़ने वालों को..
पिंजरे में डाल देते हैं....
मूक जानवरों को कर कैद...
किस तरह तालियाँ बजाते हैं...
उनके आंसुओं को कहाँ देख पाते हैं.
वेदना से भीगे चेहरे को कहाँ जान पाते हैं...
उनकी आजादी को सलाखों में डाल...
हम कितना जश्न मानते हैं....
आज अहसास इसका दिल पर रख
हाथ कीजिये....
कैद होने के दर्द को महसूस कीजिए...
हम तो फिर भी कैद में मन के मालिक हैं...
लेकिन उनके मन की वेदना किसने जानी है....
उम्र भर उस कोठरी में बिता देते हैं...
बेचारे जिंदा रहने की कितनी बड़ी सजा पाते हैं....
सिर्फ आवाज से कभी अपना दर्द कहते नज़र आते हैं...
स्वार्थी मानव को उससे क्या वो बस
फायदा अपना देखता है....
दर्द दुःख और करुणा के पाठ बस दूसरों को सीखता है....
पिंजरे किसी को आते नहीं रास...
खोल दो उनको भी लेने दो उन्मुक्त गगन में स्वांस....
सृष्टि ने दिया है सभी को ये उपहार...
पूजा नबीरा काटोल


तिथि- 28/4/20
वार- मंगलवार

विषय- बंदिश/बेड़ी
**
हटा बंदिशों की जंजीरें
माँ मुझको भी तू उड़ने दे,
मेरा इच्छाओं की उडान पर,
सर अंबर का भी झूकने दे,
संस्कारों को ना बना बेड़ी,
नुपुर इनको बनने दे,
पनपी इच्छा बनके अंकूर,
बनकर कली उन्हें खिलने दे
परिश्रम के इत्र को,
बनकर सफलता महकने दे
मान हूँ बाबुल मैं तेरा,
अभिमान तेरा बनने दे,
हटा समाज की बंदिश,
सितारे को तेरे चमकने दे,
मन में गुँजते राग मेरेे,
मुझको आज गुनगुनाने दे
खोल दे माँ आज बेडियाँ
खुले गगन में उड़ने दे।
***
स्वरचित-रेखा रविदत्त

28/04/2020
हाइकु - बेड़ी / बंदिश


1-
बंदिशें न्यारी
लज्जा की प्रतिकृति
श्रृंगार नारी ।

2-
प्राचीन कड़ी
अंधविश्वास बेड़ी
दुर्गम बड़ी ।

3-
प्यारे परिंदे
न बांधें बंदिशों में
नभ छूने दें ।

4-
बेटा या बेटी
छूने दें आसमान
बेड़ी समान ।

5-

कर्तव्य बेड़ी
वयक्तित्व हो बयां
निशानी इंसां ।

-- नीता अग्रवाल

बंदिश

बरसों पहले की एक कहानी सुनी,
सफेद और टूटे दाँतों की जुबानी सुनी,
दरवाज़े की चौखट पर तब लहराती थी आड़,
हर क्षण पके बालों को दिलाती थी बोध का पहाड़,
कि कुछ अधखिले फूलों की खुशबू,
रहती है घर में रुबरू,
अबोध बेरपरवाह सी,
बंदिशों में भी लापरवाह सी,
कभी हँसती-रोती,सजती-संवरती,
घर के आँगन में ही अपने सपनों को संजोती,
नहीं जानती थी कि दहलीज के बाहर है निर्दयी संसार,
जो हर क्षण उत्सुक है उनकी पंखुड़ियों को करने को ज़ार ज़ार,
कभी लड़ती चौखट की दहलीज तोड़ने को,
कायदे कानूनों को बदलने और मोड़ने को,
पर उन सफेद लम्बी दाढ़ियों की दीवारें लाघंने की हिम्मत,
और अपने अबोध बंधन से बंधी किस्मत,
से हार कर लौट आती वहीं,
जहाँ दिन का हर पहर खो जाता था कहीं,
वक्त का पहिया जब टीसें भरने लगा,
युग बदला,क्रांति का झंडा तब फहराने लगा,
चौखट की आड़ अब पैरों तले रुंध गई,
घर के पहरेदार की आवाज़ भी कहीं मूंद गई,
फूलों को मिली थी तब खुली हवा की खुशबू,
पंखों ने तब उड़ान की थी शुरु,
कुछ फूल आज़ाद पंखों में दहलीज़ों को समझ पाए,
उन्होंने ही अपनी खुली बाँहों में रोशन परचम लहराए,
पर कुछ फूलों से आज़ादी न संभल पाई,
राह भटकी,कदम भटके,हँस पड़ी उनपर रुसवाई,
बूढ़ी आँखे मौन हो देख रहीं वक्त के पहिये को,
तालमेल की चक्की पर बदलते नज़रिये को,
आजादी मिल,फूल मुसकुराये,
हर दिशा में बेहतर बन चमचमाए,
पर भूल गये उन दहलीजों को,
उन बूढ़े पहरेदारों की दी तमीज़ों को ,
हर बंदिश में भी छिपा होता है गहन सार,
अपनाओं उसमें से सीख का विचार।

-निधि सहगल 'विदिता'

"अंदाज"05मई2020

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