Monday, April 20

" मनपसंद विषय लेखन"15अप्रैल2020

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ब्लॉग संख्या :-710
दो लघु कथाएं
🍁🍁🍁🍁🍁
एक--- "स्
वाभाविक"
****************
जो कुछ भी घटित हो रहा है,जो भी हो रहा है।यह सब,तुम्हें नहीं लगता कि वह सब"स्वाभाविक"ढंग से हो रहा है?
हाँ!लगता तो यही है।
तब फिर क्यों,स्वाभाविक को अस्वाभाविक करने,उसे रोकने या बाधक बनने का असफल प्रयास करते हो??मैंने उसे सवालों में लपेटा।
उसने सहज,धीर-गंभीर हो,कहा-क्या यह भी स्वाभाविक प्रक्रिया नहीं है,जो मैं या हम सब कर रहे हैं।उसने प्रतिप्रश्न किया।अब मैं खामोश था।
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
दो---"इच्छा"
**********
गहरा लम्बा निःश्वास छोड़ते हुए उसने कहा-हे, भगवान!तेरी इच्छा ही पूर्ण हो।
मैंने कहा-उसकी भी "इच्छा"होती है क्या...?
हाँ,सब उसी की ही तो इच्छा है।उसने स्पष्ट किया।
तब तो वह भगवान हो ही नहीं सकता।यदि वह भी इच्छामुक्त नहीं हो तो भला,सामान्यजन कैसे इच्छा अथवा कामनामुक्त हो सकता है...?अब की बार वो खामोश थे।
🌳🌻🤡🏆🏵️🍁💐🌷
🌹श्रीराम साहू"अकेला"


विषय मन पसंद लेखन
विधा काव्य

15 अप्रेल 2020,बुधवार

उठता पड़ता चलता जीवन
कभी ग्रीष्म कभी है सावन।
चले संघर्षो का रोज झमेला
जीवन होता आवन जावन।

मेहा बरसे सब अति हरषे
कभी पसीना ग्रीष्म पौंछे।
खेलें कूदे हँसते गाते हम
कभी स्वयं स्व अल्के नोचे।

मन्दिर जाकर भक्ति करते
होते मुदित प्रसाद पाकर।
मनोवांछित फल प्राप्त कर
नत मस्तक देवालय जाकर।

जब प्रभावी नायक मिलता
अनुशासित जीवन चलता।
अति आपदा या विपदा हो
वह संकट जगत के हरता।

दृढ़ फैसले वह खुद करता
हर नर को अति सुविधा देता।
अति उत्पादन रोज बढ़ाकर
वह बन जाता जग विक्रेता।

सूने पतझड़ इस जीवन में
ऋतुराज बनकर वह आता।
कलियां चटके फूल महकते
भँवरा आ आकर्षित करता।

वीणा के तारों को झंकृत कर
सप्त स्वरी संगीत निकलता।
बरसे हिय प्रिय भावमयी मोती
वह सङ्गीत निर्झर सा झरता।

स्वरचित, मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
"""""नैनन के बाण, न चलाओ श्याम!
वारी वारी मैं ,जाऊँगी ।

श्याम वर्ण,धुधराले केश,
मोर मुकुट धारी ।
ले हाथ में बांस बांसुरी ,ओ पीताम्बर धारी!
लजा गई मैं ,शरमा गई मैं ,
हे मनमोहन, त्रिपुरारी ।
काजल की बरौनियों के रसिक बाण।
घायल मैं हो जाऊँगी ।
अधरन कांपत है ,मेरे।
"""" छलियां""" मैं लूट जाऊँगी ।
हाथ न पकडो जोर से।
तनिक बंधन में बंध जाऊँगी ।
हे श्याम , रंग लो मुझको,अपने रंग में
भर लो मुझको ,बहियन में!!!!
जग सारा भया है निगुरा ।।
प्रेम का भरा ,कलियन पर दौडा।

जय श्री कृषणा जी।
सवरचित ।
पूनम कपरवान
उत्तराखंड देहरादून ।
दिनांक 15।4।2020 दिन बुधवार
विषय मन पसंद लेखन


स्वर्ग और नर्क

स्वर्ग है माँ के चरण में,स्वर्ग है प्रभु की शरण में।
स्वर्ग है पितु के चमन में,स्वर्ग है गुरु स्मरण में।।
स्वर्ग मानवता की सेवा,स्वर्ग पर पीड़ा हरण में।
वलिदान होना सत्य हित, स्वर्ग पावन आचरण में।।
स्वर्ग है निर्मल जो काया,शांति सुख परिवार में हो।
स्नेह बंधन में बंधे सब,स्वर्ग शुद्ध विचार में हो।।
स्वर्ग का साधन सुयश है, स्वर्ग है सद्धर्म का पथ।
स्वर्ग है कल्याण का पथ,स्वर्ग है सत्कर्म का पथ।।
पाप-पुण्य और स्वर्ग-नरक,अवधारणा में न तर्क है।
मृत्यु के पश्चात नर हित, स्वर्ग है न कोई नर्क है।।
इस जनम में ही मिल जाते ,सभी अपने ही कर्म से।
सद्पुरुष सदकामना कर,प्राप्त करते मर्म से।।
कामना मंगल के जग की,स्वर्ग का उपहार है।
दूसरों को पीड़ित करना ही, नर्क का प्रमुख द्वार है।।

फूलचंद्र विश्वकर्मा
दिनांक-15-04-2020
स्वतंत्र सृजन




कब दीदार होगा हुस्न ए यार का.......

एक दिन........

चांद जोश में था मैं आगोश में था
मदहोश थी जवानी मैं खामोश था
सुर्ख नम हो रहे थे यह अलग बात थी
शरद चांदनी की अमावस रात थी
प्यार का गुल खिला ,जाम मैं पी गया
हुस्न दीदार हुआ ,नजर मेरी भाँप गई
जख्म सारे हृदय के भर गए
शर्म से झुक गई नजर ,मस्तियां छा गई
आंख से जब पिलाई ,तो खुशियां छा गई

नजाकत बिक गई आदाब से......
जल उठी प्यार की लौ शबाब से.....
मुस्कुराई खड़ी थी चांदनी
जब नजर मिली तो जग गए हम ख्वाब से

सोचता था जरूर मगरूर है
वो अपने बेशर्म जवानी के नूरो पे
अब जान पाया हकीकत में
जन्नते नसीब है साक़िया के हूरो पे

मेरी आबरू बच गई
कब्र तक प्यार की
कब दीदार हुस्न होगा
प्रीति यार की
कब्र पर पुष्प चढ़ा गयी
मीठी मुस्कान रार की
अब मिलन होगा खुदा के घर
जहर नफरत का पिला गई
तेरी गमगीन यादें मेरी रगों में समा गई......

स्वरचित....
सत्य प्रकाश सिंह
इलाहाबाद

छंदमुक्त

समय परिवर्तनशील है
कल तक जहां शोर था
आज स्न्नाटा छाया है।
प्रकृति से जैसे अपना
कोई वादा निभाया है।
मन अधीर बेचैन है
वातावरण शांत मगर
हृदय क्लांत है क्यों,?
क्योंकि मानव की
मानवीयता मर गई है।
संवेदना शून्य हो गये
हम तुम यहां सभी।
प्रकृति से छेड़छाड़ बहुत की हमने अभी भी मन नहीं भरा।
उसने बना लिया
अपना संतुलन जरा।
हमें फिर भी समझ नहीं आ रहा आखिर ये असीम सन्नाटा क्यों?
गली मोहल्ले चौराहे
नगर बस्तियां बौराये
सब कुछ हुआ अनायास
अजब सा प्राकृतिक विन्यास।
शोर शराबा थमा जाम हुए सभी
कल कारखाने गाड़ियों के पहिऐ,
चार छः बीस या दुपहिऐ।
सन्नाटा पसरा अच्छा है
शोरगुल बहुत किया हमने ये
हमारी इच्छाओं का ही
फलीभूत कचरा है।
भविष्य और वर्तमान
पीढ़ियों को प्रेरणा
सुंदर शिक्षा प्रेरक सबक।
पर्यावरण प्रदूषण सुखद।
बहुत खुश हैं पशु पक्षी
और पर्यावरण प्रेमी
वास्तविक धर्मी नहीं
कई धर्मांध पाखंडी अधर्मी।

स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र

*सन्नाटा*काव्य, छंदमुक्त
15/4/2020/बुधवार
दिनांकः-15-4-2020
वारः-बुधवार

विधाः-छन्द मुक्त
शीर्षकः-मिलते हैं कैसे टिकट चुनाव में (पूज्य पिताजी का दीदार उनका प्यार की दूसरी कड़ी)

देते आपके समय में, कर्मठ कार्यकर्ताओं को टिकट ।
मिलता नहीं अब उनको,मांगने पर भी कोई टिकट ।।

मिलता है टिकट उनको केवल, होते हैं जो श्रीमान ।
प्राप्त करने को टिकट, करते है व्यय बहुत ही धन ।।

भरपूर मक्खन लगाने वाले ही, करते है प्राप्त टिकट ।
कर्मठ कार्यकर्ता पहुँच ही नही पाते, नेता के निकट ।।

या मिलता है टिकट उनको, करते है जो धन्दा गन्दा ।
देते रहते हैं वह डटकर,राजनैतिक दलों को बड़ा चन्दा ।।

अथवा मिलता है उनको भी, करते हैं जो भारी खर्च ।
लगा रहे हैं हों जैसे वह, कारोबार में ही अपने अर्थ ।।

होती थी खोज तब, टिकाऊ एवं जिताऊ उम्मीदवार ।
है कुछ नेताओं को,धन देने वाले टिकटार्थी की दरकार ।।

लगाता ही है क्यों किसी दल से भी,तू टिकट की आस ।
डाली नहीं थी मैने तो, कभी भी किसी दल को घास ।।

करा संघर्ष जनता के लिये,मांगा नहीं किसी से टिकट ।
दिलाई थी जनता ने ही तब, जीत मुझे बड़ी विकट ।।

करके सेवा जनता की ही, बन गया था मैं लोकप्रिय ।
खाया नहीं खौफ किसी से,लड़ा था इसी से निर्दलीय ।।

हुआ नहीं मेरा तो उस समय,खर्च भी अधिक जनाब ।
कर के प्रचार साईकिलों से ही, जीता था मैने चुनाव ।।

जीत कर चुनाव, किया था पूरा मैंने भी अपना फर्ज़ ।
किया प्रयास पूरा मैंने, चुकाने को जनता का कर्ज ।।

देकर प्यार अपना, बनाया जनता ने मुझे विधायक ।
लड़ कर मैंने भी जनता के लिये, दिलाया उनका हक ।।


कठिन है किन्तु बहुत अब, लड़ना चुनाव बिना टिकट ।
उससे भी अधिक कठिन है पाना,किसी दल का टिकट ।।

डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
“व्यथित हृदय मुरादाबादी
स्वरचित

विषय : स्वतंत्र लेखन
दिनांक : 15.04.2020

विधा: छंदमुक्त

दिल की आवाज

पहुंच जाती गर आवाज उन तक
तो वो हमें याद तो जरूर करते।
मेरा होने की जिद्द तो ना सही
मुझसे मिलने की फरियाद तो करते।।

शायद 'रीति' की दीवार से टकराकर
वर्णों में बिखर गई होगी मेरी आवाज।
या फिर किसी नई आवाज का जन्म,
आवाज मेरी लगी होगी बीच कतार।।

कोई दूसरी वजह भी ही सकती है
मैं अभी से ये भ्रम क्यों पालूं ?
हा, थोड़ा इंतजार ऒर करता हूँ
खुद को उसका गुनहगार न बनालूं।।

वजह चाहे जो भी हो, विश्वास है
भूलना होता तो वो हमें हां, न करते।
यकीनन बेखबर है दिली आवाज से
वरना वो हमे इश्क बेपनाह न करते।।

पहुंच जाती गर आवाज उन तक
तो वो हमें याद तो जरूर करते।
मेरा होने की जिद्द तो ना सही
मुझसे मिलने की फरियाद तो करते।।

स्वरचित
सुखचैन मेहरा
😀।। कोरोना ।।🤣

ठेके पर लटका है ताला
परेशान है दारूवाला ।।
किस किस का हम दें हवाला
रो रहा है जीजा साला ।।

हैरान बैठी है वो साली
सुवह शाम दे चाय प्याली ।।
अटके बैठे जीजा कब से
राह देखे घर पर घरवाली ।।

रोग बहुत देखें हैं आला
पर कॅरोना बहुत है काला ।।
बड़े बड़े सूरमाओं को
उसने पिंजरे में डाला ।।

आशिक की आशिकी छीन्ही
कल ही बाइक जब्त कीन्ही ।।
ख़ैरियत है लौटे वो दोनों
महबूबा घर पर है रीनी ।।

हर जगह है नाकाबंदी
पकड़े जा रहे बंदे बंदी ।।
छोड़ ही दो तो अच्छा है
जितनी भी आदत है गंदी ।।

रसिक है कोरोना यारा
धार्मिक सिरियल आय दुबारा ।।
धर्म की ओर मुड़ो 'शिवम'
जीवन धन्य करो ये प्यारा ।।

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 15/04/2020
दिनांक 1 5 अप्रैल 2020
विषय स्वतंत्र


कोरोना से जंग मे अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले जाँबाज पुलिस को समर्पित मेरी रचना

ड्यूटी पर थे

रंगो भरी होली
खेल रहे जब तुम
हम ड्यूटी पर थे
दीप जलाए जब
खुशियों के तुमने
हम ड्यूटी पर थे
जब निकाले तुमने
सवारी,रैली, जुलूस,
हम ड्यूटी पर थे
जब भी तुमने
विवाद किया
झगडा फसाद किया
हम ड्यूटी पर थे
चुनाव हो या सम्मेलन
परीक्षा या जश्न
हम ड्यूटी पर थे
गर्मी सर्दी बरसात
दिन हो या रात
हम ड्यूटी पर थे
हम जागते ताकि
तुम चैन से सो सको
और जब फैली महामारी
तो भी डटे रहे हम
हम दूर थे अपनो से
जमीन बिस्तर बनी
आकाश छत सा तना
कागज पत्तो मे भोजन
फिर भी नही शिकन
किसी ने थूंका
किसी ने पत्थर फेंका
किसी ने गालियां भी दी
पर हम डटे रहे
सब कुछ सह कर
हम लडते रहे तुम्हारे लिए
हां पुलिस है हम
हां पुलिस है हम
हमे गर्व है हम पुलिस है

कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद
भावों के मोती
विषय मनपसंद


उसको खामोशी से मोहब्बत
हमें उससे मोहब्बत
दोनो अपना रिश्ता
शिद्दत से निभा रहे है
दिल को कचौटती है खामोशी
उस पर रात की तन्हाई का कहर
कभी कुर्बत कभी फ़ासले
बस जिंदगी गुजर रही है
नजरें कह जाती है सब उसकी
मैं समझ भी जाती हूँ
उल्फत बरसती तो है पर.....ये
खामोशी सुलगा जाती है
क्या करूं बरसों बीते
उसके संग उसे खामोशी से मोहब्बत हमें उससे.....

आशा पंवार
दिनांक, 15 ,4 , 2020.
दिन, बुधवार

मन पसंद लेखन,
मुक्तक

विनती मेरी आपसे, दीन बंधु भगवान ।
छाया तम अज्ञान का, आप दीजिए ज्ञान।।
पीर पराई मन बसे, चाहत ये आशीष -
एकता सद्भाव से, मन हो प्रकाशवान।।

नहीं लड़ाई है बड़ी, हम जायेंगे जीत,
प्रकाश होगा प्यार का,हम गायेंगे गीत
कदम मिलाएँ हम सभी,बस इतनी ही चाह-
विकास संभव है तभी,अगर रहेंगे मीत।।

स्वरचित, मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश .
मन पसंद विषय लेखन
सादर मंच को समर्पित -


🌺🍀 दोहे 🍀🌺
******************
🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸

सफल वही गतिशील जो, मन में हो विश्ववास ।
बुद्धि विवेक प्रयास से , जीत आपके पास।।

🍀🍀🍀🍀🍀🍀

मन- मंदिर में झाँक के , करते गहन विचार ।
सत-पथ बढ़ते बुद्धि से, जाते मंजिल पार ।।

🌻🌻🌻🌻🌻🌻

भूल-भूलैया जगत है , चक्कर खाते लोग ।
जो घुसकर खेलें यहाँ , होते पार सुयोग ।।

🍎🍏🍏🍏🍏🍎

क्यों भरमायें जगत में, लोभ मोह है जाल ।
माया ठगिनी घेरती , सजग रहें हर हाल ।।

💧💧💧💧💧💧

खोज करें जो सत्य की , हिये तराजू तोल ।
गुण-अवगुण पहचान के , साधें लक्ष्य अमोल ।।

🍎🍀🌺🌻🍏🌹🍋

🍊🌴...रवीन्द्र वर्मा मधुनगर आगरा

15/4/2020
बिषय स्वतंत्र लेखन

घरों की चारदीवारी में हो गए सभी नजरबंद
नाना नानी के गाँव का नहीं मिलेगा वो आनंद
दादा दादी का भी सूना सूना है आंगन
कैसे आऐं बताओ कोई नहीं रहा साधन
बच्चे बाहर नौकरी पर घर में माँ बाप अकेले हैं
कभी दवा कभी राशन न जाने कितने झमेले हैं
दिन कटता तो रात न कटती नींद न आंखों में आती
रह रहकर अपनों की यादें पलकें भीग भीग जाती
जरा सी छीक खांसी आई एक दूजे की तरफ देखने लगते
कहीं ए बीमारी तो नहीं बिवश हो सोचने लगते
जाने कब तक का ए संकट कैसे ए जाएगा
फिर वही बच्चों की किलकारी सारा परिवेश चहक जाएगा
स्वरचित सुषमा ब्यौहार
विषय- मन पसंद
दिनांक 15-4-2020


कभी वक्त ने, कभी आपने,
कभी ज़िन्दगीकी,
किताब नें
मुझे दर्द की
सौगात दी|

मेरी लेखनी मेरे हाथ से
ही छलती मुझकों रोज है
बेबाक लिखवाती नहीं
जो चाहती ये रोज है
काग़ज़ ने स्याही कलम ने
मुझे दर्द की सौगात दी|

ख्वाबों में जोथा न मिलसका,
जिसे चाहा उससे न कह सका
कभी लाज ने संकोच ने
वो बुरा न माने इस सोच ने
मुझे दर्द की सौगात दी|

हर रोज़ घटती जा रही,
ये ज़िंदगी खुद रोग है|
पाबन्द है ये वक्त की,
इस पर न कोई रोक है|
इन लम्हो लम्हों की मौतने|
ख्वाहिश के टूटते दौरने,
मुझे दर्द की सौगात दी|

मैं प्रमाणित करता हूँ कि यह मेरी मौलिक रचना है

विजय श्रीवास्तव
बस्ती
15/04/20
आशा

मुक्तक

आशाओं के दीप जला के,मन में भरें उजास।
सुख दुख तो आना जाना है,हिय क्यों करे उदास।।
पतझड़ बाद बहारें आतीं,ये जीवन का सार,
चार दिनों का जीवन बाकी,करें हास परिहास।।

सरल नहीं है मंजिल पाना ,ऐसा रखिये ध्यान।
निष्ठा और समर्पण करते ,मंजिल को आसान।।
ब्रह्म अस्त्र आशा ही मानें ,लिखें नया इतिहास,
डर डर के जीवन क्या जीना,करिये कर्म विधान।।

अनिता सुधीर आख्या
दिनांक -15 /04 /2020
विषय -स्वतंत्र लेखन


मां"

त्याग ,तपस्या ममता की मूरत, मां तुम तो कहलाती हो ।

अपने आंचल की छाया देकर, प्रेम की सरिता बहाती हो।

करुणा, प्रेम, दया का सागर, बन बादल बरसाती हो

अपने पुत्रों के रक्षा हेतु, तुम दुर्गा बन जाती
हो ।

प्रेम रूपी छाया देकर ,समाज में रहना सिखाती
हो ।

उन्नति के पथ पर आगे बढ़ना, आत्मविश्वास जगाती हो।

हमें सहानुभूति प्रदान कर , संस्कारवान बनाती हो।

मां हम पर तेरा ऋण बहुत है, तुम जीवन की बगिया सजाती हो।।

स्वरचित, मौलिक रचना
रंजना सिंह
II मनपसंद विषय लेखन II नमन भावों के मोती...

विधा - ग़ज़ल... कठिन ये दौर सही...


अगर तू चाहे ये दुनिया बदल तो सकती है...
हवा में शमअ महब्बत की जल तो सकती है...

ज़रा ज़रा ही सही पर बदल तो सकती है...
ये ज़िन्दगी मेरे अरमाँ में ढल तो सकती है...

निगाह पाँव पे पहरे लगें हों कितने भी...
तलाश में तेरी मेरी जाँ निकल तो सकती है...

यूं रोज़ शोख निगाहों से तुम न देखो मुझे...
न चाहते हुए नीयत फिसल तो सकती है...

ये याद रखना छुपाया जो दर्द पर्दों में...
कहीं भी आँख तेरा हाल उगल तो सकती है...

धरा को नष्ट न कर रोष तू समझ इसका...
नहीं ये कुचले तुझे पर निगल तो सकती है...

कठिन ये दौर सही खौफ-ए- मौत भी 'चन्दर'...
कि एकजुटता में दुनिया सँभल तो सकती है...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा I
दिनांक-15-4 2020
विषय-मनपसंद


" नियम पालन"

कोरोना में परहेज करें
तो स्वस्थ रहे इन्सान।
मुख पर मास्क लगाइए,
हो दूरी का सम्मान।।

आज देखो खिला खिला सा
लगता है आसमान
प्रदूषण के धुएं का
कहीं नहीं है नामोनिशान

महक रही है रिश्तों की फुलवारी
संबंधों में डाली जान
कोरोना काल में मास्क पहन
घर में ही रहें विराजमान।।

कोरोना के कहर से
कुछ तो सबक ले इंसान
नियम पालन सब करें
करें सफल ये अभियान।।

स्वच्छ रखें परिवेश को
स्वास्थ्य का रखें ध्यान।
करें चिकित्सक मंत्रणा
कोरोना से हार न मान।।

जन जन को चेताइये
करें योग प्राणायाम।
सात्विक भोजन भरपूर हो
सकारात्मक विचार आठों याम।।

*वंदना सोलंकी*©स्वरचित
नई दिल्ली
15-4-2020
विधा : कविता
तिथि : 15. 4. 2020

इकरार
-------

कोरोना तूने मानवता पर
किया है अत्याचार ?
तुझे भगाना हो गया है-
कितना दुश्वार !

पर क्या तूं जानता है
कर दिया तूने एक उपकार,
जाने- अनजाने-
प्रकृति में कर दिया सुधार।

भाया तो किसी को नहीं
तेरा दुष्ट अत्याचार,
पर खरीद गया सबके मन
प्रकृति का उद्धार!

घुट रही थी प्रकृति
करती थी हाहाकार,
खो गई थी हरियाली सारी
प्रदूषण की भारी थी मार।

धुंधला गया था आकाश
दिखता नहीं था आर-पार,
पंछी भी खोजते थे ठिकाना-
कर कर के चीत्कार!

प्रकृति को मनु ने असहाय बनाया
करते हैं हम स्वीकार,
सच बताना प्रकृति ने क्या-
तुझे दी थी सहायता पुकार?

भुला तो नहीं सकते
हम तेरा यह आभार,
पर मानव का शत्रु तूं
करें कैसे तेरा सत्कार?

मानव को शिक्षा दे कर
लौट जा अब उस पार,
फिर अब नहीं आओ गे-
कर जाओ यह इकरार।

-रीता ग्रोवर
- स्वरचित
मन चाहा किसको कब मिलता।
ये तो बस अपना नसीब है।
दिल जो चाहे वो मिल जाये।
विरला कोई खुश नसीब है।

यू तो बेगाने बन जाते।
अपनो से भी अपने ज्यादा।
मन का मिलना है बस काफी।
अपना पन होता है सादा।

मीत बने बन कर निभ जाए।
वरना रह जाता गरीब है।
जब मिलते मुस्कान लुटाते।
सुख दुख के साथी बन जाते।

चली अचानक ऐसी आंधी।
व्योहारो ने सीमा बांधी।
संबंधों में धूल चढ़ गई।
हर सपना लगता सलीब है।

जब अपने ही मां दिखाए।
छोड़ झटक दामन छुड़ाए।
बरबस आँखे लगे चुराने।
गहरी पीड़ा लगे अजाने।

पलको पर ढल जाए आंसू।
दर्द बना अपना नसीब है।
झांक रही आंखों से प्रीती।
ये कैसी संकोची रीती।

बाहर भीतर जगा उजाला।
पर कैसा व्यापार निराला।
बहुत कठिन है यहाँ परखना।
भला कौन किसका रकीब है।

ऐसा कहाँ चंद्र मय अम्बर।
जो सुधियों को मधुर हास दे।
मस्तक रेखा साथ निभा दे।
विषय -स्वतंत्र

मेरी बहना

मैनें तुमको ढूँढ निकाला
मेरा अन्वेषण लगती हो।
मेरी माँ ने तुम्हें न जाया
पर मुझको बहना लगती हो।
हर सुख-दुख में साथ निभाती
सखि-सहेली सी लगती हो।
मेरे जख्मों को सहलाती
तुम मुझको मरहम लगती हो।
मेरी खुशियों में भी बहना
खिलता कमल तुम्हीं लगती हो।
मेरे हर दुख पर बहना
आँखियाँ तुम्हीं भिगोती हो।
मेरी चिंता देख न पाती
तब माँ तुम बन जाती हो।
अपने आँचल से दुलरा कर
उर से तुम्हीं लगाती हो।
तेरा यह उपकार बहन मैं
कभी चुका न पाऊँगी।
अब तुमको मैं कभी गंवाना
सहन नहीं कर पाऊँगी।
मेरे जीवन में तुम आईं
लाखों में तुम एक हो बहना।
खून से भी बढ़ कर रिश्ता है
मुझे पराई कभी न कहना।।

सरिता गर्ग

15/04/2020, मनपसंद लेखन
विधा- हाइकु


राजसमंद
कोरोना मुक्त
लाठी न दवा ।1।

समाजसेवी
घर घर राशन
वाह भारत ।2।

स्वच्छ शहर
लॉक डाउन देश
भ्रमित पशु ।3।

कक्ष बगीचा
सुरक्षित प्रहरी
भागा कोरोना ।4।

तुलसी-आदा(अदरक)
घर में सुरक्षित
काढा सेवन।5।

जांबाज़ कर्मी
डॉक्टर व पुलिस
गर्वित देश ।6।

मौलिक -आशा पालीवाल पुरोहित राजसमंद
बुधवार/15अप्रैल/2020
मन पसंद विषय लेखन

सादर मंच को समर्पित

" गज़ल "
***********************
जब से याद तुमरी मन में बैठी,
मन दरपन ने कोहराम कर डाला।।

सुनकर चीख़ पुकार ज़ुदाई ने ,
सारा दर्द मेरे नाम कर डाला ।।

ख़ामोशी को जुबां देती नजर ,
इस क़दर कत्ले-आम कर डाला।।

वही रौनक़ बना मिरा क़ातिल ,
जिसने चाहत को आम कर डाला।।

सारा दिन रत्ना ढूंढता रहा साया ,
थक मधुशाला को शाम कर डाला ।।

रत्ना वर्मा
स्वरचित मौलिक रचना
सर्वाधिकार सुरक्षित
धनबाद- झारखंड


तुम महक रहे हो
तुम लहक रहे हो
मैं तुम्हारी मीठी-मीठी गंध में

सौंदर्य से पुलकित छंद में
बस रमने को हूँ
बस थमने को हूँ।

तुम महकते रहो
तुम लहकते रहो
क्योंकि,
महकना और लहकना
कुदरते के दो गुण है।

तुम फूल श्वेत यूँहीं नहीं?
तुम में एक जीवन है
उसी जीवन के नद्य से
मैं सींच-सींच कर
पीने आई हूँ मधु-रस

मैं कौन हूँ जानते हो?
मैं तुम्हारी पिपीलिका!

- परमार प्रकाश
तुम महक रहे हो
तुम लहक रहे हो
मैं तुम्हारी मीठी-मीठी गंध में

सौंदर्य से पुलकित छंद में
बस रमने को हूँ
बस थमने को हूँ।

तुम महकते रहो
तुम लहकते रहो
क्योंकि,
महकना और लहकना
कुदरते के दो गुण है।

तुम फूल श्वेत यूँहीं नहीं?
तुम में एक जीवन है
उसी जीवन के नद्य से
मैं सींच-सींच कर
पीने आई हूँ मधु-रस

मैं कौन हूँ जानते हो?
मैं तुम्हारी पिपीलिका!

- परमार प्रकाश

दिनांक- 15/4/20
विषय- मनपसंद
"संयम"
माना है वक्त कठिन पर सभी से निवेदन,
माना है दुविधायें पर खुद में रखे संयम!

देश है चारों तरफ कोरोना प्रभावित, धैर्य
संयम से ठीक होगा सब दीजिये आश्वासन!

सब प्रभु पर रखना भरोसा और स्मरण,
क्योकिं कीमती बहुत है हम सबका जीवन!

संयम और धैर्य से सचेत, निर्भय रहे,
घरों में रहे सब और नियमों का पालन करे!
🙏🙏
सीमा मिश्रा
सागर मध्यप्रदेश

विषय - स्वतंत्र लेखन
शीर्षक-अपने ही देते ठोकर है।
स्वरचित।

ऐसा होता तो अक्सर है,
अपने ही देते ठोकर हैं।
मन फिर भी उनको अपनाता है
उनके लिए ही दिल घबराता है।
सच में यह दिल तो जोकर है।।
अपने ही देते...

मन माया मोह में फंसा हुआ
भ्रम के बंधन से बंधा हुआ।
क्या पाया इसमें खोकर है।।
अपने ही देते....

रिश्तो में अहसास बना रहे
अपनों में विश्वास जमा रहे ।
दिल यही चाहता रोकर है।।
अपने ही देते...

प्रीति शर्मा "पूर्णिमा"
15/04/ 2020
दिनांक 15-04-2020
स्वतंत्र लेखन


कविता-समर्थन

मत करो समर्थन तुम उनका
जो भी हिंसा को है फैलाते
नफ़रत की भाषा को लेकर
जो हर-पल सबको उकसाते...

वह दुश्मन है गद्दार वतन के
तुम सावधान हो करके रहना
देखो तुम बहकावे में आकर
कभी नहीं उनकी लौ बहना....

वह लोभी, कपटी सत्ता के
जाति-धर्म का जहर है बोते
उनका क्या जाता है समझो
बस हम सब है अपना खोते ...

वैभव मिटता वतन का अपने
खण्ड-खण्ड सब स्वप्न हैं होते
जन में नफ़रत बोने वाले सब
अपने महल में है चैन से सोते...

आओ मिलकर साथ चलें सब
वतन के दुश्मन को हम भगायें
रहें शांति, सौहार्द, विमुख मल
सो रहे जो अब भी उन्हें जगायें ...

डाॅ. राजेन्द्र सिंह राही
विषय-मनपसंद
दिनाँक-15/04/2020

विधा-दोहा

🌺कला के रंग🌺

🌺💐🌺💐🌺💐🌺💐🌺💐🌺💐🌺💐🌺💐🌺💐

कला बिना बेरंग है, यह सारा संसार।
कण- कण में हँसती कला,अद्भुत रचनाकार।

कला भरी खग-वृंद में,बना गजब का नीड़।
अच्छे नेता की कला ,पल में साधे भीड़।

सर्कस पूरा ही चले, हुनरमंद के काज।
आँखों के संकेत पर, नाच रहा वनराज।

मोची के जूते सिले, पहन रहे सब लोग।
कला वैद्य की है भली,भगा रही सब रोग।

दर्जी की सुंदर कला, अगर न होती आज ?
सिले नहीं मिलते वसन, नए नए अंदाज।

दीवाली के दीप में, चमके शुभ्र प्रकाश।
कुम्भकार की ये कला,तम को करे निराश।

🌺💐🌺💐🌺💐🌺💐🌺💐🌺💐🌺💐🌺💐
आशा शुक्ला
शाहजहाँपुर, उत्तरप्रदेश
विषय-मनपसंद

विषय - मनपसंद
बुधवार
15-4-2020
तुम न मानो मगर हक़ीक़त है!
इश्क़ इंसान की ज़रूरत है।

दुआएँ असर करती जरूर
इनसे ही इंसान सलामत है !

दुःख जब ज्यादा लगने लगे
तो कर्मों की मानो शरारत है!

कैद तो कैद ही महसूस हुई
चाह कैसी बनी इमारत है !

स्वरचित
शिल्पी पचौरी
दिनांक- 15 अप्रैल 2020
विषय- मनपसंद लेखन
शीर्षक-सौंधी खुशबू माटी की
विधा- कविता
*************************************
सौंधी खुशबू माटी की
वतन की याद दिलाती है
प्रेम-अपनत्व की खुशबू
जीवन बगिया महकाती है।
सदकर्मों की खुशबू
व्यक्तित्व को महकाती है
संतानों के सुकर्मों की खुशबू
सारा कुल महकाती है।
मन के सुंदर भावों की खुशबू
दुश्मन को भी मीत बनाती है
जन-गण के चरित्र की खुशबू
वसुधा को महकाती है।
वीरों के शौर्य की खुशबू
मां भारती को महकाती है।

स्वरचित- सुनील कुमार
जिला- बहराइच, उत्तर प्रदेश।

विषय- चूड़िया
विधा- स्वतंत्र

दिनांक--15 /04 /2020

वक्त की रेत पर
इतिहास के पन्नों पर
काले धब्बों-सी
बिखरी हैं टूटी चूडियाँ

सजी थीं कलाई में
सुंदरी के श्रृंगार की
वहशी दरिंदो की
कुत्सित हवस ने
मरोड़ कलाई मोड़ी तो,
सिसकियों की खनक
से टूटी चूडियाँ

नन्हीं कलाईयों में
खुशी की किलकती
चूडियों पर भी
निगाह वहशियानी
जो पड़ी तो
सुबकी ले टूटी चूडियाँ

कुछ चूडियों की खनक
शमशीर की खनन में
डूब जाती है तब
कोमल कलाई में
वीरांगना बन जाती हैं
चूडियाँ

साज- ए- मुहब्बत में
प्रेम-प्रीत के गीत
वादियों में गुनगुनाती हैं
चूडियाँ।

डा.नीलम
हाँ मेरा दिल कह रहा है
मैं सर से लेकर पाँव तक तेरे सन्दली बदन पर मुहब्बत लिख दूँ ....
मेरा दिल कह रहा है !!

तेरे लरजते सुर्ख होठों की लाली पे अपने लवों की नमीं शरारत लिख दूँ
हाँ मेरा दिल कह रहा है .......
तेरे पाजेब की झंकार पे
तेरी बाहों के चन्दन हार पे
अपने बेचैनियों की हालत लिख दूँ
हाँ मेरा दिल कह रहा है ......
तेरे उलझे गेसू सँवारू
इन आईने से आखों मे तेरा दुल्हन सा रूप निहारूं
इस महकती जमीं की सेज पे अपने अरमानो की चाहत लिख दूँ !!
मुहब्बत लिख दूँ...!!! मुहब्बत लिख दूँ ............
हाँ मेरा दिल कह रहा है .............
हाँ मेरा दिल कह रहा है
मैं सर से लेकर पाँव तक तेरे सन्दली बदन पर मुहब्बत लिख दूँ ....
मेरा दिल कह रहा है !!

तेरे लरजते सुर्ख होठों की लाली पे अपने लवों की नमीं शरारत लिख दूँ
हाँ मेरा दिल कह रहा है .......
तेरे पाजेब की झंकार पे
तेरी बाहों के चन्दन हार पे
अपने बेचैनियों की हालत लिख दूँ
हाँ मेरा दिल कह रहा है ......
तेरे उलझे गेसू सँवारू
इन आईने से आखों मे तेरा दुल्हन सा रूप निहारूं
इस महकती जमीं की सेज पे अपने अरमानो की चाहत लिख दूँ !!
मुहब्बत लिख दूँ...!!! मुहब्बत लिख दूँ ............
हाँ मेरा दिल कह रहा है .............

15/04/2020::बुधवार

धर्म ओ जाति का बागान हुआ जाता है
मान इंसान से हैवान हुआ जाता है

बीज बोने लगा इंसान आज नफरत के
बेवजह आज वो शैतान हुआ जाता है

वो तो कहता ही रहा देख बदल दूँगा सबको
ख़ुद ही हिन्दू मुसलमान हुआ जाता है

सामने मौत खड़ी दे रही दस्तक यारों
फिर भी इंसान बेईमान हुआ जाता है

सोच बदलेगी गुज़र जाएगा ये वक्त बुरा
क्यूँ परेशान हो सामान हुआ जाता है
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली
15/04/2020::बुधवार

धर्म ओ जाति का बागान हुआ जाता है
मान इंसान से हैवान हुआ जाता है

बीज बोने लगा इंसान आज नफरत के
बेवजह आज वो शैतान हुआ जाता है

वो तो कहता ही रहा देख बदल दूँगा सबको
ख़ुद ही हिन्दू मुसलमान हुआ जाता है

सामने मौत खड़ी दे रही दस्तक यारों
फिर भी इंसान बेईमान हुआ जाता है

सोच बदलेगी गुज़र जाएगा ये वक्त बुरा
क्यूँ परेशान हो सामान हुआ जाता है
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली

मनपसंद विषय पर मेरी रचना
तिथि-15/4/20

वार- बुधवार
"अंधविश्वास"
महत्वकांक्षाओं के वृक्ष पर,
संवेदनाओं की चली आरी
अंधविश्वास की टहनी पर,
कैसे खिले कली प्यारी,
अंधविश्वास की बेड़ी में,
जकड़ी ये दुनियाँ सारी,
लोक सुधारा जाए ना,
करें परलोक सुधारने की तैयारी,
तर्क-वितर्क लगा किनारे,
पंडित मौलवी चूने राह हमारी,
अंधविश्वास की पगडंडी पर,
शिक्षा ने ही है बाजी मारी,
अंधविश्वास की नैया पर,
ना कर मानव तू सवारी,
कर्म का हाथ पकड़ तू चल,
महेकेगी तेरी जीवन बगियारी।
****
स्वरचित-रेखा रविदत्त

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