Monday, April 6

" मनपसंद विषय लेखन"06अप्रैल2020

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ब्लॉग संख्या :-702
विषय मन पसंद लेखन
विधा काव्य

6 अप्रैल 2020,सोमवार

भारत की है एक विशेषता
विभिन्नता में ही बसे एकता।
हिंदुस्तान विकट संकट क्षण
भूल जाता है सभी भिन्नता।

सभी एक थे सभी एक हैं
राष्ट्र धर्म से बड़ा धर्म नहीं।
भाषा जाति वर्ग अलग हैं
मानवता से बड़ा कोई नहीं।

यह भरत का देश है भारत
वीर धीर गम्भीर सभी हम।
पर सहारा कभी न चाहते
हैं स्वावलम्बी जीते स्वबल।

विश्वगुरु कहने को नहीं हैं
अहिंसा परमोधर्म हमारा।
विश्व आपदा कभी कोई हो
हम कल्याणक बने सहारा।

सत्य न्याय को कभी न भूलें
राम कृष्ण गौतम प्रिय भूमि।
धन धान्य सुगन्धा पावन है
रहती वसुधा नित लूमी झूमि।

स्वरचित, मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान


इतनी आरजू क्यों रहती
ये सवाल सदा रहता है!
जब जब उनको याद करूँ
इक नई गज़ल दिल कहता है!

क्या तस्वीर बन गयी दिल में
हरदम वो अक्स बहता है!
कब से उनसे दूर हुए पर
सपनों का मकां न ढहता है!

सारा गम उनको देखकर
ये दिल चुपके से सहता है!
लगता ज्यों जन्मों से 'शिवम'
ये दिल उनको ही चहता है!

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 06/04/2020

भावों के मोती ,
विषय : मनपसंद

जहां पर अंधेरा घोर घना है ,
दिया जलाना कब मना है l
टूट रही है सांसे छुट रही साथे ,
जीवन ज्योत जलाना कब मना है II
अभी वक्त नहीं है विकल होने का ,
तेरा मेरा कहकर विफल होने का l
अभी वक्त है छद्म रिपु से जंग का ,
अभी वक्त है मिलकर सफल होने का
कल कर लेंगे लाभ हानि की बातें ,
गलबाहें हो जी भर कर मुलाकाते l
जीने के लिए अगर दूरी जरूरी है तो ,
अभी कर लेते हैं जीवन जीने की बातें ll
दीये से सघन अंधेरा ही छटेगा ,
भय का अंध बंध ही तो कटेगा l
आओ सब मिलकर दिया जलाएं ,
दीये से टूटे मन का हौसला बढ़ेगा ll
:- Bp yadav
दिनांक-06/04/2020
विषय- महावीर स्वामी



ज्ञातृक के कुल में जन्म लिए
कुंड ग्राम के तारणहार।
माता त्रिशला के गर्भ को
क्षत्रिय वर्धमान कर गये तार।।



कुंडिन गोत्र यशोदा से कर विवाह
पति धर्म निभाये विदेह कुमार।
गृहस्थ से मन खिन्न हुआ
ऋजुपालिका के कैवल्य कर गये पार।।



जिन, अर्हत, निग्र्रंथ, थे उपनाम
उनके कैवल्य का था काम।
प्रथम शिष्या दधिवाहन पुत्री चंदना
कल्पसूत्र में हो जिसकी बंदना।।



हर क्षण ज्ञान के सात चरण
स्यादवाद ,सप्तभंगिय,अनेकांतवाद
पंच महाव्रतो का किया विधान
संवर, निर्जरा अनंत चतुष्टय है निर्वाण।।

मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह
प्रयागराज

----प्यास---
(शृंगार रस)

खड़े हुए हैं, तेरे द्वार।
फिर भी प्यासे,अधर हमार।।

भर इन लब को, छलके सोम।
लख इन लब को, मचले सोम।
करे नशीला, तू संसार।
मदहोश किया, नैनन- वार।
सुधा,सुधाकर कर न्यौछार।
फिर भी प्यासे,अधर हमार ।।

है दीवानी, दुनिया तोर।
पानी माँगत है, कर जोर।
देती, सारा जग बौराय।
नैनन- अर्णव- मय लहराय।
लेकिन फूटे करम हमार।
फिर भी प्यासे, अधर हमार।

तुम मधुशाला, रंगी शाम।
तुम भर लाई, हाला जाम।
मुझे बता दे, तू यह आन।
सता- सता क्यों,लेती जान?
नैन वारुणी, भर मदिरार।
फिर भी प्यासे अधर हमार।।

बनी सुराही, गर्दन तोर।
पियो सुरा ही, देती जोर।
अधर , अधर पर, धर कर, प्रान!
प्यास बुझा दो, मेरी, आन।
वरना निकलें, प्रान हमार
अब तक प्यासे,अधर हमार।।
अमर नाथ
विषय-मनपसंद लेखन ।
शीर्षक -
" संक्रमण काल रचता व्यक्तित्व "

स्वरचित।



अमावस की वो रात कितनी काली थी ??
जैसे उसकी जिंदगी की प्रतिछाया।
उसके जीवन में भी कहां था "उजाला"
ना थी किरण कोई उजाले की।
घना अंधेरा,अमावस की रात सा
था उसके जीवन के आंगन में।।

अंधेरे में लिपटे थे
उसकी जिंदगी के दिन और रातें।
उसकी जिंदगी में भी लग गया था
" ग्रहण"
अमावस की रात जैसा
समाज में कहलाई गई थी
"परित्यक्ता"।।

सह गई थी मौन हो सब,
पर सह नहीं पाई "कलंक"
पति के "चरित्रहीन" कहने का।
समाज के सामने बचाने को स्वयं
लांछन लगा दिया था उसे।
हो गई अकेली नितांत तब
जब,मां जाया भी कर गया किनारा।।

समेट लिया उसने फिर अपने को
एक कछुए की तरह
अपने ही खोल में।
उस अंधेरे में रहते-रहते जैसे हो गया
परिचय उसका खुद का खुद से।
आ गई कोई" उजली किरण"
उसके मन संसार के आंगन में।
फिर से किया ऊर्जा का संचार ।
जीने को फिर वह हुई तैयार।।

अमावस और पूर्णमासी के बीच
समय होता है"संक्रमण काल"
झंझावतों और अपनेआप से ही
जूझकर निकलता है अस्तित्व
औ तपकर बदल जाता है
"अनूठे व्यक्तित्व"में।।

तभी तो उसके जीवन में भी आ गयी
जीवन में बहार बन छा गई,
अमावस की रात के बाद
"पूर्णिमा"की "चांदनी रात"।।

प्रीति शर्मा "पूर्णिमा"
विषय - ख़ुशी
विधा-
अतुकान्त कविता
06-04-2020सोमवार
🌷🎖️🌹🥇🌻🏅
वैसे भी
कोई ख़ुशी
छोटी या बड़ी
होतीच्च नहीं है.
ना अमीर की
ख़ुशी बड़ी होती है
ना गरीब की ख़ुशी
छोटी होती है.
ख़ुशी तो ख़ुशी है भाई
ये ख़ुशी
किसी की
ख़ुशी से कतई
कमतर तो नहीं है.
वैसे भी कुछ लोग(विरले)
आदतन...
दूसरों की ख़ुशी में
बहुत खुश
हो लिया करते है.
यह खुशी
कोई उधार में
लिया हुआ भी नहीं है.
जिन्हें खुश होना होता है
अक्सर वे
बेवजह भी खुश
हो लेते हैं...भाई.
🌹🌷🌹🌷🌹🌷
🍁श्रीराम साहू

मन पसंद विषय लेखन
सादर मंच को समर्पित -


🌹🍀 गीत 🍀🌹
************************
🌺 प्रेम 🌺
💧🍊💧🍊💧🍊💧🍊💧

नेह की बंशी बजा कर
प्राण पुलकित कर गये ।
बोध के अंकुर उगा कर
राग विकसित कर गये ।।

क्यों दिखाई स्वप्न शोभित
प्रीति अन्तस राग की ।
भेद डाली सुप्त लहरें
शान्त नीर तड़ाग की ।।
एक सोंधी सी छुअन ने
पोर कंपित कर दिये ।
बहकती पावन महक ने
रोम सुरभित कर दिये ।।

हलचलें पैदा हुईं उर ,
साँस विचलित कर गये ।
नेह की बंशी बजा कर
प्राण पुलकित कर गये ।।

बढ़ चली थी प्यास निशदिन
दृष्टि ओझल जब हुए ।
राह ताकें नैन हरदम
दूर ज्यों हम तब हुए ।।
क्या यही था प्यार जिससे
थम गयी थी जिन्दगी ।
चैन दिल को था नहीं
बस याद आती वन्दिगी ।।

हो गया था हाल कैसा
व्योम अंकित कर गये ।
नेह की बंशी बजा कर
प्राण पुलकित कर गये ।।

आ गयी ऋतु सावनी
रिमझिम शरीर जला रही ।
जब भिगो जातीं फुहारें
सिरहनें मचला रही ।।
कब सुहाती नभ घटायें
और तड़प बढ़ा रही ।
कड़क बिजली तड़पती तो
जिया को धधका रही ।।

याद उठ आती हिया में
हूक हुलसित कर गये ।
नेह की बंशी बजा कर
प्राण पुलकित कर गये ।।

🌺🍀🌻💧🌹


🌴 **....रवीन्द्र वर्मा आगरा

आयोजन- मनपसंद विषय लेखन दिनांक-06 अप्रैल 2020
दिन- सोमवार
शीर्षक-आशा का दीप जलाएं
विधा- कविता
*************************************
अंतर्मन का तम हरने को
जीवन में नया रंग भरने को
आओ मिलकर कदम बढ़ाएं
आशा का एक दीप जलाएं।
भूले- भटके हैं जो पथ से
उनको हम राह दिखाएं
मिलजुल कर रहें सदा
राग- द्वेष सभी मिटाएं
आशा का एक दीप जलाएं।
विपदा की इस घड़ी में हम
एकजुटता अपनी दिखलाएं
मानवता को बचाने को
मानव धर्म अपना निभाएं
आशा का एक दीप जलाएं।
हम एक थे- एक हैं-एक रहेंगे
सारी दुनिया को बतलाएं
कोरोना संक्रमण मिटाने को
सामाजिक दूरी अपनाएं
आशा का एक दीप जलाएं।
संकट की इस घड़ी में
संयम से काम चलाएं
सूझ-बूझ से अपनी हम
इस विपदा को हराएं
आशा का एक दीप जलाएं।
मानवता की सेवा में रत
देवदूतों का हम
नतमस्तक हो आभार जताएं
आओ हम सब
आशा का एक दीप जलाएं।
************************************
स्वरचित- सुनील कुमार
जिला- बहराइच,उत्तर प्रदेश

6/4 /2020
बिषय स्वतंत्र लेखन

आज मेरे देश को नजर सी लग गई है
आदमी की जिंदगी बिलकुल थम गई है
न जाने कब तक ए कोरोना रुलाएगा
जाने कितनों को तबाह कर के जाएगा
नहीं मिल पा रहे भाई से भाई
पड़ोसी भी दूर से करते हैं भरपाई
कैदी से हो गए अपने ही घर
जिंदगी रह गई लटककर अधर में
बच्चों का छिन सा गया है बचपन
सहम कर रह गया मासूमों का मन
पूछते माँ पिता से मामा के घर कब जाऐंगे
साथियों के साथ धूम कब मचाएंगे
चंद लोगों के कारण सजा सभी भुगत रहे हैं
बेचारे किसान व्यथित हृदय से सुबक रहे हैं
जिनके बच्चे बाहर वो ठीक से सो नहीं पाते
रात दिन बैचनियों में बिताते
हे ईश्वर जल्दी ही सबकी खुशियों से झोली भरना
फिर वही समय आ जाए ऐसा कुछ तो करना
स्वरचित सुषमा ब्यौहार
विषय -मनपसंद लेखन
दिनांक- 06/04/2020


महावीर स्वामी "

प्राची में उषा का हुआ आगमन
सोने सी किरणें बिखर रही थी ।
सूर्य की स्वर्णिम आभा से,चोटियां
हिमालय की मुखर हो रही थी ।

प्रकृति ने छेड़े नए तराने
सरिता की चंचल लहरों से ।
हो उठे झंकृत वीणा के तार
महावीर के जन्मोत्सव से।

चैत्र शुक्ल तिथि त्रयोदशी
वैशाली कुंडलपुर में जन्मे ।
माता त्रिशला पिता सिद्धार्थ
गोदी में महावीर जी पले- बढ़े।

राजमहल का सुख वैभव त्यागा
केशलोच' साथ वन प्रस्थान किए।
बारह वर्ष कर कठोर तपस्या ।
साल्ववृक्ष ,सच्चा ज्ञान प्राप्त किए।

पंचशील के सिद्धांत प्रवर्तक
सत्य,अहिंसा का सन्देश फैलाए।
वर्धमान से महावीर स्वामी बन
चौबीसहवें तीर्थकर कहलाए।

सत्य अहिंसा का पालन
जैन धर्म आधार बनाया ।
खुद जिओ और जीने दो
हर जीवों से प्यार सिखाया ।।

स्वरचित, मौलिक रचना
रंजना सिंह प्रयागराज

 II मनपसंद विषय लेखन II नमन भावों के मोती...

विधा: ग़ज़ल - क्या सच में यही है जगना.....

(जनाब मिर्ज़ा ग़ालिब साहिब की ग़ज़ल "आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे" की ज़मीन पर लिखी ग़ज़ल आपकी नज़र..)

मिलता नहीं जहान में सच्चा कहें जिसे....
झूटों की बस्तिओं में वो अपना कहें जिसे....

चहरे पे झूलती मिले हर दिल की बेकसी...
है कौन वो बताओ मसीहा कहें जिसे.....

मन जोत जब जली दिखा रौशन ये सब जहाँ...
क्या सच में यही है जगना कि जगना कहें जिसे...

मेरे खूँ से ख़त लिखे पे ये उनका जवाब था...
हो तुम कहाँ के राजा कि अपना कहें जिसे...

"चन्दर" सभी हैं नाचते बँधे उसकी डोर से...
कठपुतलियों का मेले में तमाशा कहें जिसे...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०६.०४.२०२०
सोमवार/06अप्रैल/2020
आज मन पसंद विषय पर हमारी प्रस्तुती
क़ाफिया- ई स्वर
रदीफ - है
*************************
हमने शामें गम की कसम खाई है।
तेरी याद दिलाने फिर घटा छाई है।।

तेरी याद में हमने दिल जलाई है ।
फिर क्यूं रूलाने तेरी याद आई है।।

कौंन अपना है जिससे दुःख बाँटू ,
यहाँ तो जिंदगी भी लगती पराई है।।

ये कैसी मुसीबत की घड़ी आई है।
मेरी बात सुन सबने हँसी उड़ाई है ।।

जब मिले तो मिलें ही नहीं" रत्ना ",
इससे अच्छी तो उसकी जुदाई है ।।

स्वरचित मौलिक रचना
सर्वाधिकार-सुरक्षित
रत्नावर्मा
धनबाद- झारखंड

06/04/20
महावीर जयंती
कविता
छंदमुक्त
***
अज्ञानता का अंधकार जब छाया था संसार में
ज्ञान का प्रकाश फैलाया चौबीसवें तीर्थंकर ने ।
जन्म पूर्व माँ त्रिशला को स्वप्न में आभास हुआ
राजा सिद्धार्थ ने स्वपनों को यथा परिभाष किया।
साधना ,तप ,अहिंसा से, सत्य से साक्षात्कार किया
महापुरुष महावीर ने जनजीवन को आधार दिया ।
जैन धर्म को पंचशील का सिद्धांत बतलाया
सत्य,अहिंसा,अपरिग्रह,अस्तेय, ब्रह्मचर्य सिखाया ।
बारह महत्वपूर्ण वचनों से था भिज्ञ करवाया
'जियो और जीने दो' का अर्थ था समझाया ।
शत्रु कहीं बाहर नही ,भीतर ही विराजमान है
क्रोध ,घृणा ,लोभ अहम से लड़ना सिखाया ।
स्वयं को जीतना ही श्रेयस्कर है ,समझाया
क्षमा और प्रेम के महत्व का पाठ पढ़ाया ।
आत्मा सर्वज्ञ और आनंद पूर्ण है ,
शांति और आत्मनियंत्रण ही महत्वपूर्ण है ।
अलग कहीं न पाओगे प्रभु के अस्तित्व को
सही दिशा में प्रयास कर पा जाओ देवत्व को ।
शेर और गाय अब एक ही घाट पानी पियें
आओ मानवता का दीप हम प्रज्वलित करें।
आज के समय की भी यही पुकार है
तीर्थंकर के संदेशों को आत्मसात कर जीवन सफल करें।
उनके वचनों का पालन करने का व्रत लेते है
महावीर जयंती पर शत शत नमन करते हैं ।

अनिता सुधीर

प्यासा प्रेम

बना लो घर मेरे दिल में
मेरे सरकार तुम ही हो
सजा दो दिल को गुलशन सा
मेरे मेहमान तुम ही हो
की दिल लगता नहीं तुम बिन
सितारों से गिला ये है
तुम्हें फुरसत से मैं देखूँ
मेरे भगवान तुम ही हो
की आना जाना करते हो
तुम भी क्या गैरत से रहते हो
मेरे धड़कन मेरे हृदय
मेरे सरताज तुम ही हो
की रहमत का दिया कोई
जला दो मेरे मन भी
मेरे मालिक मेरे श्रष्टि
मेरे संसार तुम ही हो
की माना तुम ही तुम हर तरफ
मेरी ख्यालों में नवाजे हो
मेरी बरकत मेरी दौलत
मेरे प्राण तुम ही हो
बना लो घर मेरे दिल में
मेरे सरकार तुम ही हो
लेखिका
कंचन झारखण्डे
मध्यप्रदेश।
"प्रेम"

प्रेम तुमसे क्या कहूँ!
और कितना कहूँ
न कह पाऊगी पूरा, जितना कहूँ!
प्रेम की गागर कहूँ, या
प्रेम का सागर कहूँ !
रचे बसे हो आत्मा में,
या फिर आत्मा ही कहूँ!
प्रेम तुमसे क्या कहूँ............!!
तुम्हें अपना सखा कहूँ,
या अपना सगा कहूँ!
चित्त में बसी चितवन कहूँ,
या चितचोर मै कहूँ!
प्रेम तुमसे क्या कहूँ............!!
सांसो की पतवार कहूँ,
या पतवार का माछी कहूँ!
आंखों में समाया चांद कहूँ,
या धड़कनों का साज कहूँ!
प्रेम तुमसे क्या कहूँ..........!!
निश्छल सी प्रीत कहूँ,
या प्रीत की कोई रीत कहूँ!
रामचरित की चौपाई कहूँ,
या गीता सा ज्ञान कहूँ!
न कह पाऊगी पूरा,
चाहे जितना कहूँ!
प्रेम तुमसे क्या कहूँ.........!!
मन में प्रज्वलित
चाहत की पवित्र ज़्योत कहूँ,
या मुझमें बसा बेइंतहा
इंतजार मै कहूँ
दूर रहके भी हरपल मिलते हो
सांसों का अंतराल में कहूँ
प्रेम तुमसे क्या कहूँ
न कह पाऊगी पूरा जितना कहूँ!
प्रेम तुमसे............................!!

श्रीमति सीमा मिश्रा
सागर, मध्यप्रदेश

दिनांक, ६,४,२०२०
दिन, सोमवार
मन पसंद विषय (दीपक)

दीपक एक आशा का आज हमने जलाया है,
संदेश अपनी एकता का सबको पहुँचाया है।

जल उठे अनेक दीप हुआ हर तरफ उजाला है,
प्रकाश से मेरे भारत का हर घर जगमगाया है।

मिलकर विपदा से लड़ने का बीड़ा उठाया है,
मैदान में डटे रहने के जज्बे को दिखलाया है।

दूर दूर रहकर के अपने नियम को निभाया है।
हम भारतीय एक हैं इस मेल को जतलाया है।

हमनें अपनी एकजुटता को बखूबी दर्शाया है,
सम सभी साथ हैं यही संकेत से समझाया है।

हो चाहे कोई भी संकट उसे टिक नहीं पाना है,
औकात क्या कोरोना की भस्म उसे हो जाना है।

स्वरचित , मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश .


 " जगमगाया हिन्दुस्तान "
जगमगाया हिन्दुस्तान, देवलोक है परेशान, ये ये जगमग ज्योति कैसी है, ये जगमग ज्योति कैसी है!!
क्या विश्वगुरु भारत अब जाग गया है,

कोरोना जैसा रोग क्या भाग गया है,
कैसी ये शंख ध्वनि, कैसा नाद है,
सारा विश्व देख रहा कैसी फरियाद है,
जीवन को जगाने का आह्लाद है,
देवराज आओं, ग्रह, नक्षत्र आओं रे,
भारत यूँ सज रहा आखिर क्या बात है,
ईद न दिवाली है, बात ये निराली है,
एकसाथ कर रहे प्रार्थना दिवाली है,
बात सुझती नहीं, मार्ग दिखता नहीं,
महादेव भी कैलाश लखे, भीड़ ये तो
भारी है, शेषशयन कर रहे, दृष्टि नमन
कर रहे, भोला भण्डारी है, ब्रह्मा जी भी देखते, नारद से पूछते कैसी दिवाली है.

स्वरचित कविता प्रकाशनार्थ
डॉ कन्हैया लाल गुप्त 'किशन'
उत्क्रमित उच्च विद्यालय सह इण्टर कालेज ताली, सिवान, बिहार 841239

दिनांक 6 अप्रैल 2020
विषय महावीर


हर लेने को हर जन के हृदय की पीर
अवतरित हुए इस धरती पर महावीर

बढ़ा धरा पे हिंसा, बलि, भेद-भाव बहुत
मुक्त कराने आए प्रभु तीर्थंकर महावीर

वंश इक्ष्वाकु,कुल क्षत्रिय,गाँव कुंडलपुर
सिद्धार्थ-त्रिशला के यहाँ जन्मे महावीर

सत्य,अहिंसा,अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रह्मचर्य
पञ्चशील उपदेश दे चले सर्वत्र महावीर

मन-कर्म-वचन से करना मानव कल्याण
जीवन सफलता की शिक्षा देते महावीर

‘जियो और जीने दो’ का सिद्धांत दिया
हर जीव समान जग मे कहते महावीर

व्यवहार वह रखो जो स्वयं को हो पसंद
मानव मात्र से प्रेम सिखलाते महावीर

आओ हम करे अनुकरण उन उपदेशो का
जो सिखाने धरा पर आए हमको महावीर

कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद
वार: सोमवार
िषय: मन पसंद

(बाल कविता)
#हाथी_मामा
🐘..🐘..🐘..🐘..🐘
हाथी मामा अकड़ू थे,
अपनी मन की करते थे।
नानी जी समझाती पर,
नहीं किसी की सुनते थे।।

घर का खाना छोड़-छाड़,
उल्टा-पुल्टा खाते थे ।
हरी सब्जी, सलाद छोड़,
पिज्जा-बर्गर खाते थे ।।

देर रात तक जगकर वो,
बिस्तर पर हीं पढ़ते थे।
दिन चढ़ने तक वो सोते,
बड़ी देर से उठते थे ।।

समय परीक्षा का आया,
तबियत उनकी बिगड़ गई।
डॉक्टर ने दवा खिलाई,
फिर उनको सुई लग गई।।

एक साल बरबाद हुआ,
पास सभी दोस्त हो गए।
हाथी मामा हाथ मले,
सब दोस्तों से पिछड़ गए।।

कान पकड़ कर फिर बोले,
अब गलती नहीं करूंगा।
माँ-बापू की बात सदा,
जीवन भर अब मानूंगा।।
 *विनय कुमार बुद्ध, न्यू बंगाईगांव, असम, 
6/4/2020
विषय- मनपसंद लेखन

#तंत्री छंद-

उजड़ा कानन,
भ्रमित हुआ मन,
मोहन दो,
सुख शीतल छाया।

जसुदा नंदन,
हाथ सुदर्शन,
वार करो,
तोड़ो जग माया।

नाग नथैया,
वेणु बजैया,
आ जाओ,
संसार बचाने।

श्याम छबीले,
रंँग रंगीले,
जपता हृद
धुन मधुर बजाने ।

शालिनी अग्रवाल
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित


मनपसंद प्रस्तुति

"फिर लौट आया बचपन"

बचपन के दिन भी क्या दिन थे
अक्सर याद आते है वो दिन
ना किसी बात की चिंता ना फिक्र
बीतते वो मस्ती भरे हमारे दिन।

गर्मी की छुट्टी वो आम के बगीचे
गुड़िया की शादी , बाजे शहनाई
कैरम,लूडो का खेल,वो घर की आँगनाई
वो छीना झपटी, वो मारामारी
पल में रूठना पल में मनना
पल में जैसे जीवन जी जाना।

बारिश की रिमझिम,सहेलियों के संग
अलकों से टपकती बूंदें करते जाते छपछप
कागज की कश्ती के सहारे सैर पर निकल पड़ते
वो झूलों की मस्ती भरी पेंगें, कजरी का सुर राग।

आज नन्हीं बेटी के संग फिर लौट आया बचपन
उसकी बालसुलभ खेल से पुलक उठता है मेरा मन
मेरी लिपस्टिक उसका अपने होठों पर लगाना
मेरी बिन्दिया से अपने गोरे माथे को सजाना।

मेरा दुपट्टा अपने छोटे से कंधों पर सम्भालना
आईने में खुद को देख देख कर खुद पर इतराना
दिव्य वात्सल्य की अनुभूति से भर देता है मेरा मन
खोजती थी जिसे,आज फिर मिल गया मेरा खोया हुआ बचपन!

अनिता निधि
जमशेदपुर


सत्य अहिंसा राह,जीवन सार्थक स्वामी किया।
करुणा प्रेम अथाह सागर,जन ह्रदय भर दिया।

जियो और जीने दो कह,उपकार ही सब किया।
सबका हो कल्याण,यही उपदेश सदा ही दिया।

महावीर उपदेश चला,सत्य साक्षात्कार किया।
नवकार शान कह,महावीर जैसा नायक दिया।

जो खुद जीता मस्त कलंदर, स्वामी जी कहा।
विश्व जिसने जीता,उसको सिकंदर बना दिया।

महावीर स्वामी संदेश,आत्मसात जो भी किया।
साधना तपस्या के बल,जीवन उसने ही जिया।

रखो सब मैत्री भाव ,क्षमा बड़ा न कोई उपहार।
अच्छाई मार्ग चलना,महावीर शुभ वचनों दिया।

झूठ कपट लोभ, दिखावे से जीवन दूर किया।
परोपकार जीवन जीओ,यही संदेश सार दिया।

देश जरूरत आपकी,फिर जन्म क्यों न लिया।
चहुँओर हिंसा तांडव ,उपदेश सब भुला दिया।

आओ प्रभु पुनः एक बार,प्रार्थना स्वीकार करो।
भटक गए हैं सब राह से,सत्य मार्ग भुला दिया।


वीणा वैष्णव
कांकरोली

मनपसंद विषय लेखन
*मजदूर मां*

काव्य

मां तो मां ही होती है।
ये बोझा ही ढोती है।
रखें रोशनी सिर अपने,
साथ लाल भी ढोती है।

मुस्कित मजदूरी करती।
कमर कुंवर पर ये धरती।
भारत गृहस्थी ढोकर मां,
सुख जीवन यापन करती।

ममता समता सब समान।
सबकी मां यही पहचान।
भार नहीं है बेटे‌ में,
मानें मां कितनी महान।

इतना करने पर भी हम,
सदा अनादर मां करते।
जिसने सबकुछ त्याग किया,
कब हम आदर मां करते।

स्वरचित
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र


*मजदूरनी मां*काव्य

विषय : मनपसंद विषय लेखन
विधा : हाईकू

तिथि : 6.4.2020

आशा
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आशा की बाती
रखो लपलपाती
मंज़िल पाती।

बदले सब
सत्य करे सपने
आशा जो जन्मे।

आशा सिंचित
बुझे नहीं किंचित
हृदयालय।

आशा बड़ाई
चुनौती कठिनाई
शक्ति सुपाई।

कोरा सपन
आशा बिन परीक्षा
कर समीक्षा।

-रीता ग्रोवर
-स्वरचित

06/04/2020
विषय -मनपसंद

विधा - दोहा

सस्ते में खोना नहीं जीवन है अनमोल।
रहो सदा ही प्रेम से ,बोलो मीठे बोल।

जीवन है अनमोल पर, संकट है घनघोर ।
बनाकाल है आ रहा ,कोरोना इस ओर।।

क्या कर सकता काल भी ,जब ईश्वर हो साथ।
कृपा हस्त सिर पर रखा, नहीं छोड़ते हाथ।।

चक्रवात संघर्ष के, उठते बड़े प्रचंड।
इस जीवन अनमोल के, कर देते हैं खंड।।

जीवन ये अनमोल है, ईश्वर के कर डोर ।
कठपुतली हम सब बने ,नहीं वहांँ कुछ जोर।।

झेल रहा जीवन अभी, कोरोना का दंश।
जीवनरक्षा के लिए , इसका करें विध्वंस।।

कोरोना से हम लड़ें, जीवन रक्षा हेतु।
बच जाए अनमोल धन, लहरे जय का केतु।

आशा शुक्ला
विषय - मनपसंद
06/04/20

सोमवार
गीत
वतन के गीत हम सब साथ मिलकर आज गाएँगे

वतन के गीत हम सब साथ मिलकर आज गाएँगे,
उसी के वास्ते तन और मन सबकुछ लुटाएंगे।
वतन के गीत .......

इसी के अन्न-जल को प्राप्त कर पोषित हुए हैं हम,
कसम खाते हैं ,अपने देश का न सिर झुकाएंगे।
वतन के गीत .......

यहाँ गंगा की कल-कल धार बहती है दिशाओं में,
उसे करके प्रदूषण- मुक्त हम पावन बनाएँगे।
वतन के गीत .......

न जाति-धर्म की बातों से आपस में लड़ेंगे हम,
सभी को भाईचारे का सबक मिलकर सिखाएंगे।
वतन के गीत .......

हमारी संस्कृति संसार में है सबसे सुन्दरतम,
उसी पर कर अमल हम देश को सुंदर बनाएँगे।
वतन के गीत .......

यहाँ गणतंत्र की रक्षा करेंगे देश के वासी ,
कभी गणतंत्र को गनतंत्र न हरगिज़ बनाएँगे।
वतन के गीत .......


स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर

दिनांक:06.04.2020
विधा :बाल कविता


महावीर का संदेश

सिद्धार्थ और त्रिशला के प्यारे
लिच्छवि कुल के राज दुलारे

महावीर है इनका नाम
कुंडपुर है जन्मस्थान

24वें तीर्थंकर जैन धर्म के
जग में इनकी विशेष पहचान

पँच व्रत को था अपनाया
सादा जीवन सदा बिताया

जन-जन को दिया सन्देश
महत्व है जिसका विशेष

सब जीवों को जीने का अधिकार
नहीं हो कहीं भी अत्याचार

अहिंसा को परम धर्म बताया
शांति का था पाठ पढ़ाया

त्याग, तपस्या का महत्त्व बतलाया
वसुधैव कुटुम्बकम का भाव जगाया

मन,कर्म, वचन से पहचाने जाते हैं
वर्धमान के नाम से जाने जाते है

-हरीश सेठी 'झिलमिल'
सिरसा
( स्वरचित)


दिनांक ६/४/२०२०
मनपसंद लेखन

मुक्तक

उजाला फैलाये दूसरों के जीवन में
आये है जब हम इतने सुन्दर भुवन में
चलो सहचर मिलकर करे एक नया आगाज।
लंकेश भगाये, रघुनंदन लाये जगत में।

सुनकर तेरा गीत सलोना, छोड़ आई सब काज।
खोलो द्वार साँवरिया आज,लेकर आई मैं साज।
समझो तुम निश्चय प्यार मेरा,करो मत परिहास।
लौट कर न आऊँ कभी,यदि मैं चली गईं सरताज।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।


विषय स्वैच्छिक
विधा कविता
दिनाँक 6.4.2020
दिन सोमवार

वृक्ष का उलाहना
☆☆☆☆☆☆☆

मेरे अलग अलग रूप,
सब ही अनूप,
मेरा हर्दय एक विशाल कक्ष,
तुम अपनी भाषा में,
कहते हो, मुझे वृक्ष,
तुम्हारी तो मारी गयी है मति,
तुम नहीं हो, ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति।

मैं तपता हूँ, जलता हूँ,
तुम्हारे ज़ुल्म में ढलता हूँ, गलता हूँ,
फिर भी तुम्हें, फलता हूँ,
कहीं मैं खटता हूँ, कहीं कटता हूँ,
कहीं मेरा हृदय छिलता है,
पर तुम्हें तो, कुछ न कुछ मिलता है।

मेरे परिवार का, कोई तुम्हें,
छाया देता है,
कोई तुम्हें माया देता है,
और जीवन का साया देता है।
कोई फूल देता है, तो कोई फल,
किन्तु तुम छली, सदा ही करते छल।

मैं लड़ता हूँ तूफ़ानों से,
लू के ऊफानों से,
ओले रूपी पाषाणों से,
बर्फीले बाणों से।

रोज़ करता हूँ, तुम्हारा भरण,
रोकता हूँ, धरती का क्षरण,
तुम भूल गये, मेरे पूर्वज "संजीवन" को,
अब रोना अपने जीवन को।

अरे! मैं तुम्हें आयु देता हूँ,
प्राणदायिनी वायु देता हूँ,
मुझे ही नष्ट , करते हो आत्मघाती,
एक दिन पीटोगे, अपनी छाती।

मैं नहीं रहूँगा, तो आक्सीजन कहाँ से पाओगे,
तुम और तुम्हारे प्रियजन, कहाँ जाओगे,
ऑकड़ों में ही, दिखा देना,
आक्सीजन उपलब्ध टनों टन,
प्रफुल्लित सबके मन,
स्वस्थ हैं सबके, तन।

बाबू! साँस के लिये, ऑकड़े काम नहीं आते,
तुम्हारे बड़े बड़े नाम, काम नहीं आते,
हमारा होना ही, दे देता संदेश,
गाँव शहर फिर बनते हैं देश।

हम ही जंगल देते हैं,
हम ही मंगल देते हैं,
तुम्हें बल देते हैं,
समस्याओं के, हल देते हैं,
तू बता क्या नहीं, देते हैं,
वातावरण भी , शीतल देते हैं।

अरे बुध्दिजीवि! कुछ सोचा,
क्यों लेता है, हमसे लोचा,
अस्पताल की आक्सीजन से,
खाली हो जायेंगे, तेरे "कुबेर",
हम ही दे सकते हैं, केवल,
तुझे मुप्त आक्सीजन ढेर।

आक्सीजन न रही,
तो सुन ले, हे सभ्य मानव,
रोज़ करेगी मौत ताण्डव,
वीरान् होगा, सारा भव,
गिन सकेगा, क्या तू शव?

पगले! हम से ही, तेरा वैभव,
प्रकृति का भी, है कलरव,
सम्पदा प्रकृति की, बचाकर रखना,
तब ही होगा, जीवन सम्भव,
वरना पैदा करेगा, स्वयम् विप्लव,
प्रगति का होगा, फिर कैसे उदभव।

मत समझ अपने को, इतना दक्ष,
मत बिगाड़ प्रकृति के, नाक नक्श,
प्रकृति का सौन्दर्य, बढ़ा तो,
सुद्रड़ ही होगा , तेरा पक्ष।

मैंने तो बात रखी, तेरे समक्ष,
तेरा चिर हितैषी,
मैं हूँ वृक्ष, मैं हूँ वृक्ष, मैं हूँ वृक्ष।

कृष्णम् शरणम् गच्छामि

स्वरचित
सुमित्रा नन्दन पन्त
नमन मंच
6.4.2020

सोमवार
मन पसंद लेखन

आज चलो

आज चलो ,खुल कर जी लें हम
कुछ कह लें ,कुछ सुन भी लें हम ।।

गहरा सागर ,नीला अम्बर
पावन मन ,दोनों में डुबो लें हम।।

जीवन के अहसास की गठरी
ख़ुद खोलें ,कुछ सुख बो लें हम।।

जीने का अहसास अलग है
कुछ जी लें, जी लेने दें हम ।।

आओ मिल कर रंग बटोरें
रंग टोकरे बिखरा दें हम ।।

साँसों की गति धीमी कर लें
धीमे-धीमे सुख पी लें हम ।।

मन ‘उदार‘ है क्षितिज पे अटका
जीवन नारंगी रंग लें हम ।।

स्वरचित
डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘ उदार ‘
6/4/2020
"स्वतंत्र शीर्षक"
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सालों पड़ी जो बंद जुबां है तुम्हारे पास।
खोलो सनम हमारी रजा है तुम्हारे पास।।

पहले दिए ज़ख्म और लगाते रहे दवा।
कैसा भला इलाज बचा है तुम्हारे पास।।

महकी फिज़ा है आज बड़ी देर तक यहाँ।
हाथों में हाथ डाल समां हैं तुम्हारे पास।।

भूखे खड़े गली गली मिलकर करो उपाय।
खोलो खजाना आज भरा है तुम्हारे पास।।

देकर हज़ार गम चले गैर की गली।
कैसे कहूँ कि इश्क वफा है तुम्हारे पास।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ,स्वरचित
दिनांक:-6-4-2020
विषय:-मन पसन्द

विधा:-कविता

कभी तेरे लिए केवल,
उसका ही हाथ था|
हर मोंड़ हर कदम पर,
बस उसका ही साथ था|
उसको भला तूने ही,
क्यों भुला दिया|
क्या उसने किया और
तुमने क्या किया|

रिश्ते नये पाके ,
पुराने को भुला दिया|
एक डाल के पंछी थे,
ये भी भुला दिया|
किस सभ्यता ने,
रिश्तों को भुलाना,
सिखा दिया|

वो प्यार भुला बैठे,
वो कुर्बानी भुला दिया|
बीते दिनों की सारी,
कहानी भुला दिया|
उसकी हर एक निशानी,
को भुला दिया|

ये बेरहम रिवाज़,
दिलों ने बना लिया|
जो जले दिये रोशनी,
उन्ही को बुझा दिया|
ये भूल जाने का चलन,
किसने सिखा दिया|
सब उसका छीन कर उसे,
सबने भुला दिया|

मैं प्रमाणित करता हूँ कि यह मेरी मौलिक रचना है
विजय श्रीवास्तव






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