ब्लॉग की रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिना लेखक की अनुमति के कहीं भी प्रकाशन एवं साझा नहीं करें |
न्याय नहीं अन्याय हो रहा
जीवन से खिलवाड हो रहा
कोई ना कहने सुनने बाला है
जीवन का तिरस्कार हो रहा है
झूठ सत्य का झामा पहने
खूव ही खूव बोल रहा है
कुछ भी कहते कुछ भी करते
न्याय की चादर ओढकर
अन्याय चला आ रहा देखो
न्याय नहीं अन्याय हो रहा
जीवन से खिलवाड हो रहा
स्वदाता तेरी दुनिया में ये न्याय समझ न आता है
यहाँ तो भ्रष्टाचार सुना क्या तूँ भी घूँस खाता है ।।
नीति अनीति को ताक धरे जो दौलत नित कमाता है
उसका ही घर भरता तूँ बाकी को तरसाता है ।।
लूटपाट और छीन झपटकर नित जो कोष बढाता है
उसको क्या फूलों का हार हीरे मंदिर चढ़वाता है ।।
पाप दोष उसके सब माफ तूँ यह उसूल बनाता है
मन गढ़ंत किस्से बतलाकर मानव को बहलाता है ।।
क्यों न आये नास्तिकता तेरा न्याय बहुत रूलाता है
जब कोई भूखा भीख माँगते आँखों को दिख जाता है ।।
नीर टपकते आँखों से जब बच्चा नीर बहाता है
दो रोटी की खातिर बचपना काम में खपाता है ।।
अबला की इज्जत लुट जाती तूँ कुछ न कर पाता है
क्यों तूँ न्याय व्यवस्था पर ऊँगली कोई उठवाता है।।
सही न तेरी न्याय व्यवस्था इतिहास भी बताता है ।।
कितने मुद्दों पर ''शिवम" तूँ बेजुबान बन जाता है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
1
चप्पल घिसे
कचहरी गलियां
"न्याय" भटके
(2)
कैसा घमंड?
समय न्यायाधीश
हाथ में दंड
3
गवाह झूठे
न्याय की चौखट पे
उम्मीदें टूटे
4
व्यूह फँसाय
कानून की गलियां
घूमता न्याय
ऋतुराज दवे
१)-युग बदल रहा है ,
समय की धारा बदल रही है !
आज न्याय व अन्याय की ,
परिभाषा बदल रही है ।।
२)-लगभग हर कोई व्यस्त है ,
अपनी सत्ता जमाने के लिए !
दूसरे को हीन घोषित कर ,
स्वयं को सर्वश्रेष्ठ बताने के लिए !!
३)-फिर चाहे किसी के साथ ,
न्याय हो , अथवा अन्याय ।
हो उसकी कैसी भी दुर्दशा ,
और कैसे भी वह , अपना जीवन बिताए ।।
४)-मानवता के स्तर को ,
क्यों न हम ?
इतना ऊँचा उठाएँ ।
कि एक दिन
वर्षों से चली आ रही ,
जनमानस द्वारा रचित अदालत की,
परम्परा भी बदल जाए ——-
कानून अन्धा है !!!!!!!!!!!!
बात चले जब जब न्याय की, दिखता हर कोई अपराधी,
न्याय चाहता है हर कोई,पर अन्याय की चलती परिपाटी,
चोरी, हत्या, कब्जा,लूटपाट की, करता अपील फरियादी,
चल रहे रिश्तों में अन्याय की, कहीं नहीं होती है सुनवाई,
माता पिता अपने बेटों की, कैसे कह दें सब से बेवफाई,
कुरीत चलती है जो दहेज की,होगा कौन वादी प्रतिवादी,
अपने ही घर में होते अन्याय की,क्या देगीं बेटियाँ गवाही,
फैली समाज में असमानता की,कौन तोड़ेगा ये परिपाटी,
बात नहीं सुनते हम दिल की, अपने ही बने हैं अपराधी,
अवहेलना करते प्रकृति की,बने हुए हैं हम सब मनमौजी,
स्वभाव आदतें सभी हमारीं, बनी हुई हैं दुश्मन हमारी,
ज्योति जलायें चलो न्यायकी,बात करें हम सब न्याय की,
मानें बातें सभी प्रकृति की, ले आयें जीवन में खुशहाली |
स्वरचित, मीना शर्मा,
न्याय नहीं मानें उसे,अगर न्याय हो मंद
दीन हीन के हित मगर,सभी द्वार हैं बंद।
न्याय नहीं हम कर रहे,खुद अपनों के साथ
हम भी दोषी हैं अगर,नहि दें सच का साथ।
दिया विधाता ने हमे ,भर भर दोनों हाथ
हम कुदरत को लूटते,नहीं न्याय की बात।
हित अनहित चलता सदा,जीवन ही के संग
न्याय अगर मिलता रहे,कोई नहि हो तंग।
न्याय खूंटे से बंधा,सब समरथ के हाथ
दोष नहीं उनका कभी,गोस्वामी की बात।
~प्रभात
न्याय एक पलड़े पर चुपचाप बैठा, अन्याय का पलड़ा भारी है,
चोरी,हत्या,लूटपाट करके बन जाता न्याय का फरियादी है,
न्याय की गाड़ी पंचर है, अन्याई की गाड़ी फरारी है,
अन्याय के युग में न्याय मांगने वाला अपराधी है,
स्वरचित - सोनम पुरवार
संरक्षित शब्द कानून की किताबों में
लज्जित होता रहता ऊँची मेहराबों में
परिभाषित करते सकल सबल-समर्थ
नित नए दायरे,नई परिधि,नवल अर्थ
वंचित,आमजनों की पहुँच से बहु दूर
जैसे काँटों के मध्य फलता है खजूर
अशर्फियों के मोल बिकता दरबारों में
इतनी सामर्थ्य कहाँ?आम खरीदारों में
बेबस मजलून की दीन चीख असहाय
कातर याचना, गुहार का शब्द- न्याय।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
(1)जाता है बिक
न्याय कर्ता भी आज
कैसा हो न्याय
(2)रोया है सत्य
सुनकर अन्याय
हँसा है झूठ
(3)सत्य का कत्ल
रिश्वत की खंजर
जीता अन्याय
(4)न्याय की जीत
देर अंधेर नहीं
ईश्वर दर
(5)कुतर रही
अन्याय की इल्लियां
न्याय का पौधा
(6)न्याय की मूर्ति
आखों से पट्टी खोले
सत्य को बोले
🙏🙏🙏🙏🙏
स्वरचित मुकेश भद्रावले
न्याय नहीं मिलता कहीं ,यह कलियुग की बात
न्यायालय की प्रक्रिया ,थक जाता है गात
परिजन आपस में लड़े , मात पिता समझाय
न्याय सारा हमीं करें, न्यायालय मत जाय
आपस की है दुश्मनी , आपस में निबटाय
न्यायालय की तारिखें, बस ठोकर खिलवाय
खुली सड़क पर घूमते, व्यभिचारी दिन रात
न्याय की परवाह नहीं, तनिक न आये लाज
न्याय व्यवस्था में मिले , हैं समान अधिकार
सब जन एक समान हैं , सबसे सम व्यवहार
सरिता गर्ग
न्याय की वेदी पर
तड़फता गरीब देखा
दौलत के दम पर
बिकता न्याय देखा
अनाचार और भ्रष्टाचार की
भेंट चढ़ता न्याय देखा
न्याय की देवी का सरेराह
होता अपमान देखा
चंद वोटों की खातिर
बिकता धर्म देखा
धर्म को भी न्याय के
दरबार याचक बना देखा
न्याय के रखवालों पर
चलता महाभियोग देखा
आपातकाल का दंश झेलते
लोकंतत्र पर अन्याय देखा
न्याय हुआ मंहगा अब
सस्ता अन्याय देखा
नहीं रहा फर्क अब
न्याय अन्याय में
तूती बोलती अन्याय की
भरे बाजार में
थे जो बांट जोहते न्याय की
तब्दील हो रहे चिता और मजार में
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
केवल तुमसे है प्रभु हमें न्याय की आस।
न्याय नहीं मिलता कहीं ढूंढें हम विश्वास।
बर्षों से हम लड रहे न्याय खिसकता दूर।
न्याय प्रक्रिया मंहगी हुई दिये रूपे भरपूर।
रक्षक ही भक्षक बने किससे मिलें हुजूर।
फल खाना चाहें पर फल लागे अति दूर।
बाप मरे बेटा मरे ये नाती पोते मर जाऐं।
मिटें पीढियां मगर न्याय नहीं कर पाऐं।
अन्यायी सदैव यहां अन्याय ही करते रहें।
न्याय प्रक्रिया मंद है कबतक यूं लडते रहें।
डंडे बाला भैंस उसी की यही बोलते लोग।
निर्धन का निर्बाह नहीं सही बोलते लोग।
मनमंन्दिर बिक रहे न्याय व्यवस्था क्षीण।
नहीं किसी का भय न्याय व्यवस्था हीन।
सत्य अब दिखे नहीं है असत्य का राज।
न्यायअसत्य में दब गया है सत्य का राज।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
जब रक्षक ही भक्षक बन जाये,
फिर न्याय कैसे मिलेगा?
जब मन्दिर ही बाजार बन जाये,
ईश अर्जी कैसे सुनेगा ?
वकील जब बिकने लग जाये,
फिर वकालत कौन करेगा?
न्यायाधीश जब डरने लग जाये,
फिर न्याय कैसे मिलेगा?
"सत्यमेव जयते" का लेख,
कहाँ जाकर छुप गया?
झूठ ने पैर खूब पसारे,
सच्चाई को किया किनारे |
न्याय की प्रतिक्षा में इंसान,
जवान से बूढ़ा हो गया,
जुर्म करने वाले के हाथों,
अंधा कानून बिक गया |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
न्याय शास्त्र के प्रथम प्रणेता
गौतम् ऋषि को करू नमन
अन्याय में प्रस्फुटित न्याय कर
महक उठा सुवासित चमन
अंधा अब कानून हमारा
सत्यमेव कब जीत हुई
फरियादी की आँखे नम है
प्रतिवादी की ईद भई
सत्य असत्य नीति अनीति
सद अंतर ही न्याय कहलाता
कौन अपना है,कौन पराया
यह फर्क कभी न दोहराता
सतयुग से कलियुग को देखें
जग अन्याय नहीं रुका है
सत्य कसौटी न्याय का पलड़ा
तब अन्याय सदा झुका है
पांचों पांडव नतमस्तक थे
दुशासन पांचाली लूटे
द्रोण भीष्म स्वयं युध्ष्ठिर
जैसे उनके भाग्य फूटे।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
न्याय की आशा,
हर ओर हताशा।
प्रक्रिया है ढीली,
डगर पथरीली।
भटकते हैं दर-दर,
पाने को न्याय।
बांधे आंखों पर पट्टी,
खड़ी न्याय की देवी।
बिकता है न्याय,
खरीदा जाता है न्याय।
बाहुबल,धनबल का,
द्वारपाल है न्याय।
न्याय है स्वप्न ,
इस व्यवस्था में।
अन्याय छुपा
न्याय के मुखौटों में।
न्याय हार जाता है,
अन्याय जीत जाता है।
धूल चाटती फाइलों में,
घर की चारदीवारी में।
सरकारी दफ्तरों में,
बाजारों, बस्तियों में।
कस्बों में, गांवों में,
घुट जाता है दम न्याय का।
फैला है जाल ,
सर्वत्र अन्याय का।
कहां है न्याय,कैसा है?
यह जानने में,
बीत जाती सदियां।
चलती रहती है जिंदगी,
बढ़ती रहती है तारीख।
आदमी गुजर जाता है,
न्याय नहीं मिल पाता है।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
पैसों का खेला
झूठे का बोलबाला
न्याय खोखला
**
न्याय ,अन्याय
यौवन दहलीज
माने ना दिल
**
झूठ की जीत
कठघरे में न्याय
रोता है सत्य
**
सत्य की लूट
न्यायमूर्ति समक्ष
दामन झूठ
**
झूठ के साथ
रखते गीता हाथ
न्याय लाचार
**
रिश्तों से न्याय
करबद्ध प्रणाम
दुश्चिंता जाय
स्वरचित पूर्णिमा साह
न्याय की देवी तुम्हें आज सुनना होगा
तेरी आँखों पर बंधी पट्टी
अर्थ-भेद का बोध कराती
निष्पक्षता को हो दर्शाती
या पक्ष विशेष ही तुम देख पाती ???
तेरे न्याय के मंदिर में लोग
गीता ग्रंथ को साथ ले आते
रखकर हाथ उस पर फिर
सत्य वचन की सौगंध उठाते
क़ानून की काली स्याही
कोरे पन्नों पर छितराई जाती
धाराओं के फेर बदलते
होकर अपराधी बेख़ौफ़ घूमते
भ्रष्टाचार का रूप विकराल
निर्दोषों के लिए बिछाता जाल
कितनी निर्दोष मासूम जिंदगियाँ
ताउम्र सलाखों के पीछे
बेदरदी की गाथा को कहती
प्रतिपल तिल तिल मरते
अवाक् रह बस आहें भरते
अपनी निर्दोषता की पुष्टि में
जीवन की अंतिम साँसे खो देते
मुजरिम के हौंसले बुलंद होते
काग़ज़ की गड्डियों में लिपटकर
स्याह से ख़ुद को सफ़ेद बनाते
न्याय की मूर्त तुम अब जागो
अपनी चिरकालिक पट्टी उतारो
खुली आँखों से न्याय अपने का
दोनों हाथों से तराज़ू संभालो
स्वरचित
संतोष कुमारी
फूले फले अन्याय यहाँ ।
मुरझाया है न्याय यहाँ ।।
जिसकी लाठी में दम हो ।
उसकी भैस हो जाय यहां ।।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
अन्याय गाल बजाता है ।
न्याय मुँह की खाता है ।।
जो जाने तिकड़मबाजी ।
सफल वही हो जाता है ।।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
नेता और अमीरों ने ।
भृष्टाचार के पेने तीरों ने ।।
न्याय सीना छलनी कर डाला ।
कायर कुकर की शमशीरों ने
,,,,,,,,,,,,
देवेंद्र डहेरिया देशज
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
कचहरी गलियां
"न्याय" भटके
(2)
कैसा घमंड?
समय न्यायाधीश
हाथ में दंड
3
गवाह झूठे
न्याय की चौखट पे
उम्मीदें टूटे
4
व्यूह फँसाय
कानून की गलियां
घूमता न्याय
ऋतुराज दवे
१)-युग बदल रहा है ,
समय की धारा बदल रही है !
आज न्याय व अन्याय की ,
परिभाषा बदल रही है ।।
२)-लगभग हर कोई व्यस्त है ,
अपनी सत्ता जमाने के लिए !
दूसरे को हीन घोषित कर ,
स्वयं को सर्वश्रेष्ठ बताने के लिए !!
३)-फिर चाहे किसी के साथ ,
न्याय हो , अथवा अन्याय ।
हो उसकी कैसी भी दुर्दशा ,
और कैसे भी वह , अपना जीवन बिताए ।।
४)-मानवता के स्तर को ,
क्यों न हम ?
इतना ऊँचा उठाएँ ।
कि एक दिन
वर्षों से चली आ रही ,
जनमानस द्वारा रचित अदालत की,
परम्परा भी बदल जाए ——-
कानून अन्धा है !!!!!!!!!!!!
बात चले जब जब न्याय की, दिखता हर कोई अपराधी,
न्याय चाहता है हर कोई,पर अन्याय की चलती परिपाटी,
चोरी, हत्या, कब्जा,लूटपाट की, करता अपील फरियादी,
चल रहे रिश्तों में अन्याय की, कहीं नहीं होती है सुनवाई,
माता पिता अपने बेटों की, कैसे कह दें सब से बेवफाई,
कुरीत चलती है जो दहेज की,होगा कौन वादी प्रतिवादी,
अपने ही घर में होते अन्याय की,क्या देगीं बेटियाँ गवाही,
फैली समाज में असमानता की,कौन तोड़ेगा ये परिपाटी,
बात नहीं सुनते हम दिल की, अपने ही बने हैं अपराधी,
अवहेलना करते प्रकृति की,बने हुए हैं हम सब मनमौजी,
स्वभाव आदतें सभी हमारीं, बनी हुई हैं दुश्मन हमारी,
ज्योति जलायें चलो न्यायकी,बात करें हम सब न्याय की,
मानें बातें सभी प्रकृति की, ले आयें जीवन में खुशहाली |
स्वरचित, मीना शर्मा,
न्याय नहीं मानें उसे,अगर न्याय हो मंद
दीन हीन के हित मगर,सभी द्वार हैं बंद।
न्याय नहीं हम कर रहे,खुद अपनों के साथ
हम भी दोषी हैं अगर,नहि दें सच का साथ।
दिया विधाता ने हमे ,भर भर दोनों हाथ
हम कुदरत को लूटते,नहीं न्याय की बात।
हित अनहित चलता सदा,जीवन ही के संग
न्याय अगर मिलता रहे,कोई नहि हो तंग।
न्याय खूंटे से बंधा,सब समरथ के हाथ
दोष नहीं उनका कभी,गोस्वामी की बात।
~प्रभात
चोरी,हत्या,लूटपाट करके बन जाता न्याय का फरियादी है,
न्याय की गाड़ी पंचर है, अन्याई की गाड़ी फरारी है,
अन्याय के युग में न्याय मांगने वाला अपराधी है,
स्वरचित - सोनम पुरवार
लज्जित होता रहता ऊँची मेहराबों में
परिभाषित करते सकल सबल-समर्थ
नित नए दायरे,नई परिधि,नवल अर्थ
वंचित,आमजनों की पहुँच से बहु दूर
जैसे काँटों के मध्य फलता है खजूर
अशर्फियों के मोल बिकता दरबारों में
इतनी सामर्थ्य कहाँ?आम खरीदारों में
बेबस मजलून की दीन चीख असहाय
कातर याचना, गुहार का शब्द- न्याय।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
(1)जाता है बिक
न्याय कर्ता भी आज
कैसा हो न्याय
(2)रोया है सत्य
सुनकर अन्याय
हँसा है झूठ
(3)सत्य का कत्ल
रिश्वत की खंजर
जीता अन्याय
(4)न्याय की जीत
देर अंधेर नहीं
ईश्वर दर
(5)कुतर रही
अन्याय की इल्लियां
न्याय का पौधा
(6)न्याय की मूर्ति
आखों से पट्टी खोले
सत्य को बोले
🙏🙏🙏🙏🙏
स्वरचित मुकेश भद्रावले
न्याय नहीं मिलता कहीं ,यह कलियुग की बात
न्यायालय की प्रक्रिया ,थक जाता है गात
परिजन आपस में लड़े , मात पिता समझाय
न्याय सारा हमीं करें, न्यायालय मत जाय
आपस की है दुश्मनी , आपस में निबटाय
न्यायालय की तारिखें, बस ठोकर खिलवाय
खुली सड़क पर घूमते, व्यभिचारी दिन रात
न्याय की परवाह नहीं, तनिक न आये लाज
न्याय व्यवस्था में मिले , हैं समान अधिकार
सब जन एक समान हैं , सबसे सम व्यवहार
सरिता गर्ग
न्याय की वेदी पर
तड़फता गरीब देखा
दौलत के दम पर
बिकता न्याय देखा
अनाचार और भ्रष्टाचार की
भेंट चढ़ता न्याय देखा
न्याय की देवी का सरेराह
होता अपमान देखा
चंद वोटों की खातिर
बिकता धर्म देखा
धर्म को भी न्याय के
दरबार याचक बना देखा
न्याय के रखवालों पर
चलता महाभियोग देखा
आपातकाल का दंश झेलते
लोकंतत्र पर अन्याय देखा
न्याय हुआ मंहगा अब
सस्ता अन्याय देखा
नहीं रहा फर्क अब
न्याय अन्याय में
तूती बोलती अन्याय की
भरे बाजार में
थे जो बांट जोहते न्याय की
तब्दील हो रहे चिता और मजार में
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
केवल तुमसे है प्रभु हमें न्याय की आस।
न्याय नहीं मिलता कहीं ढूंढें हम विश्वास।
बर्षों से हम लड रहे न्याय खिसकता दूर।
न्याय प्रक्रिया मंहगी हुई दिये रूपे भरपूर।
रक्षक ही भक्षक बने किससे मिलें हुजूर।
फल खाना चाहें पर फल लागे अति दूर।
बाप मरे बेटा मरे ये नाती पोते मर जाऐं।
मिटें पीढियां मगर न्याय नहीं कर पाऐं।
अन्यायी सदैव यहां अन्याय ही करते रहें।
न्याय प्रक्रिया मंद है कबतक यूं लडते रहें।
डंडे बाला भैंस उसी की यही बोलते लोग।
निर्धन का निर्बाह नहीं सही बोलते लोग।
मनमंन्दिर बिक रहे न्याय व्यवस्था क्षीण।
नहीं किसी का भय न्याय व्यवस्था हीन।
सत्य अब दिखे नहीं है असत्य का राज।
न्यायअसत्य में दब गया है सत्य का राज।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
फिर न्याय कैसे मिलेगा?
जब मन्दिर ही बाजार बन जाये,
ईश अर्जी कैसे सुनेगा ?
वकील जब बिकने लग जाये,
फिर वकालत कौन करेगा?
न्यायाधीश जब डरने लग जाये,
फिर न्याय कैसे मिलेगा?
"सत्यमेव जयते" का लेख,
कहाँ जाकर छुप गया?
झूठ ने पैर खूब पसारे,
सच्चाई को किया किनारे |
न्याय की प्रतिक्षा में इंसान,
जवान से बूढ़ा हो गया,
जुर्म करने वाले के हाथों,
अंधा कानून बिक गया |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
गौतम् ऋषि को करू नमन
अन्याय में प्रस्फुटित न्याय कर
महक उठा सुवासित चमन
अंधा अब कानून हमारा
सत्यमेव कब जीत हुई
फरियादी की आँखे नम है
प्रतिवादी की ईद भई
सत्य असत्य नीति अनीति
सद अंतर ही न्याय कहलाता
कौन अपना है,कौन पराया
यह फर्क कभी न दोहराता
सतयुग से कलियुग को देखें
जग अन्याय नहीं रुका है
सत्य कसौटी न्याय का पलड़ा
तब अन्याय सदा झुका है
पांचों पांडव नतमस्तक थे
दुशासन पांचाली लूटे
द्रोण भीष्म स्वयं युध्ष्ठिर
जैसे उनके भाग्य फूटे।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
न्याय की आशा,
हर ओर हताशा।
प्रक्रिया है ढीली,
डगर पथरीली।
भटकते हैं दर-दर,
पाने को न्याय।
बांधे आंखों पर पट्टी,
खड़ी न्याय की देवी।
बिकता है न्याय,
खरीदा जाता है न्याय।
बाहुबल,धनबल का,
द्वारपाल है न्याय।
न्याय है स्वप्न ,
इस व्यवस्था में।
अन्याय छुपा
न्याय के मुखौटों में।
न्याय हार जाता है,
अन्याय जीत जाता है।
धूल चाटती फाइलों में,
घर की चारदीवारी में।
सरकारी दफ्तरों में,
बाजारों, बस्तियों में।
कस्बों में, गांवों में,
घुट जाता है दम न्याय का।
फैला है जाल ,
सर्वत्र अन्याय का।
कहां है न्याय,कैसा है?
यह जानने में,
बीत जाती सदियां।
चलती रहती है जिंदगी,
बढ़ती रहती है तारीख।
आदमी गुजर जाता है,
न्याय नहीं मिल पाता है।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
पैसों का खेला
झूठे का बोलबाला
न्याय खोखला
**
न्याय ,अन्याय
यौवन दहलीज
माने ना दिल
**
झूठ की जीत
कठघरे में न्याय
रोता है सत्य
**
सत्य की लूट
न्यायमूर्ति समक्ष
दामन झूठ
**
झूठ के साथ
रखते गीता हाथ
न्याय लाचार
**
रिश्तों से न्याय
करबद्ध प्रणाम
दुश्चिंता जाय
स्वरचित पूर्णिमा साह
न्याय की देवी तुम्हें आज सुनना होगा
तेरी आँखों पर बंधी पट्टी
अर्थ-भेद का बोध कराती
निष्पक्षता को हो दर्शाती
या पक्ष विशेष ही तुम देख पाती ???
तेरे न्याय के मंदिर में लोग
गीता ग्रंथ को साथ ले आते
रखकर हाथ उस पर फिर
सत्य वचन की सौगंध उठाते
क़ानून की काली स्याही
कोरे पन्नों पर छितराई जाती
धाराओं के फेर बदलते
होकर अपराधी बेख़ौफ़ घूमते
भ्रष्टाचार का रूप विकराल
निर्दोषों के लिए बिछाता जाल
कितनी निर्दोष मासूम जिंदगियाँ
ताउम्र सलाखों के पीछे
बेदरदी की गाथा को कहती
प्रतिपल तिल तिल मरते
अवाक् रह बस आहें भरते
अपनी निर्दोषता की पुष्टि में
जीवन की अंतिम साँसे खो देते
मुजरिम के हौंसले बुलंद होते
काग़ज़ की गड्डियों में लिपटकर
स्याह से ख़ुद को सफ़ेद बनाते
न्याय की मूर्त तुम अब जागो
अपनी चिरकालिक पट्टी उतारो
खुली आँखों से न्याय अपने का
दोनों हाथों से तराज़ू संभालो
स्वरचित
संतोष कुमारी
फूले फले अन्याय यहाँ ।
मुरझाया है न्याय यहाँ ।।
जिसकी लाठी में दम हो ।
उसकी भैस हो जाय यहां ।।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
अन्याय गाल बजाता है ।
न्याय मुँह की खाता है ।।
जो जाने तिकड़मबाजी ।
सफल वही हो जाता है ।।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
नेता और अमीरों ने ।
भृष्टाचार के पेने तीरों ने ।।
न्याय सीना छलनी कर डाला ।
कायर कुकर की शमशीरों ने
,,,,,,,,,,,,
देवेंद्र डहेरिया देशज