Wednesday, November 28

"दर्पण "28नवम्बर 2018




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एक दर्पण,
एक तेरा मन,
कितना निर्मल?
कितना पावन?
दोनो के दोनो प्रिये,
दोनो के दोनो से प्रेम,
जब भी दोनो के,
सम्मुख होता,
पा लेता खुद का,
विवरण,कुशल-क्षेम,
...पर आज जो,
देखादर्पण,
हो उठा विकल,
मेरा मन,
जो रोज दमकता,
था चेहरा,
उसपर देखा,
एक लांछन,
हाय मैं कैसे,
हुआ पतित,
कोई कर्म न,
अब तक किया घृणित,
कैसे अब जाऊंगा,
पास उसके,
सब जान ही लेगा,
उसका मन,
मैं खड़ा रहा,
मैं अड़ा रहा,
फिर पूछा उससे,
कि बोल जरा,
मुह खोल जरा,
मेरे प्रिये दर्पण,
कुछ बोल जरा,
कोई कर्म किया,
न हमने हीन,
फिर क्यों हुआ?
मेरा मुखड़ा,
कांतिहीन,
धीर-वीर-गंभीर बड़ा,
रहा दर्पण कुछ देर अड़ा,
फिर हंसकर,
हमसे बोला,
तू है सीधा,
तू है भोला,
तेरे अपनो के,
दुष्कर्मो की,
तुझपर आयी,
ये छाया है,
उनके ही दुष्कर्मो,
का कुछ फल,
तुमने पाया है,
तू कब समझेगा,
इस जग में,
ऐसे ही चलता है,
करता है कोई और,
पर और ही कोई,
भरता है,,
हाँ और ही कोई,
भरता है,,,,

.......राकेश..स्वरचित

झूठ नहीं बोलता दर्पण, कहता है सच्ची बात, 
झांक ले मन दर्पण में, कर ले खुद से मुलाकात |

आया क्यों तू इस जग में, कभी न सोची ये बात, 
भूल गया आकर संसार में, इस जीवन की सौगात |

हीरा जन्म गँवाये व्यर्थ में, व्यसनों का कर के साथ, 
डूबा काम क्रोध मद लोभ में,नहीं किया प्रभु का साथ |

जीवन बीता सुबह शाम में, आयी है जीवन की शाम, 
सोच रहा है अब ये मन में, किया नहीं पुण्य का काम |

परोपकार नहीं आया मन में, किया नहीं खुशी का दान, 
नहीं रहा निर्बल की सेवा में, समझा नहीं गुरु का ज्ञान |

झांका जब मन दर्पण में, हो पाया है तब ये संज्ञान, 
बीत गया है जो जीवन में, सत्कर्म कर कर लो भुगतान |
स्वरचित, मीना शर्मा


दर्पण के सम मेरा इश्क़ प्रिये।
है पारदर्शिता इस मे बहुमूल्य प्रिये।।

झूठ और छल का नही अस्तित्व प्रिये।
तेरा मेरा प्यार दर्पण सम व्यवहार।।
मन मे मेरे कोई नही मैल प्रिये।
दर्पण के सम मेरा इश्क़ प्रिये।।
तू मेरी परछाई हैं और 
मै तेरी प्रितबिम्ब प्रिये।।
मुश्किल है तुझ से जुदा मेरा वजूद प्रिये।।
दर्पण के सम तेरा मेरा इश्क़ प्रिये।।
मुझमें बसता है तू जैसे 
साजो में बसते हैं सुर प्रिये।।
झनकार तेरे इश्क़ की मेरी जान प्रिये।।
दर्पण के सम तेरा मेरा इश्क़ प्रिये।।
जब जब शक और भ्रम की बदरी
इस पर छायेगी,
तुम विश्वास और प्रीत की चादर से 
साफ वो परत को कर देना।
मैं तेरी हूँ और तू मेरा है,
साबित इस को कर देना।।
शीशे पर चढ़ता नही कोई दूजा रंग प्रिये।
दर्पण सम तेरा मेरा इश्क़ प्रिये।।
📝संध्या चतुर्वेदी
अहमदाबाद, 


आईना क्या सच कह गया।
मै अक्स ही अक्स रह गया।
थम जाए क्या है वो दरिया।

नज़र मे था शख्स बह गया।
मै अक्स ही अक्स रह गया।
ख्वाब की ही वो तामीर थी। 
खुली आँख सब ढह गया़। 
मै अक्स ही अक्स रह गया। 
रोकती रही जुबां दिल को। 
न कहता वो सब कह गया। 
मै अक्स ही अक्स रह गया।
जुल्मी को तो बडी हैरत हुई। 
सख्त- जान सब सह गया। 
मै अक्स ही अक्स रह गया़। 
दिल की तहों में छुपाये गम। 
मुस्कुरा कर वो सब गह गया़। 
मै अक्स ही अक्स रह गया।
स्वरचित विपिन सोहल


सत्य प्रतीक होता है दर्पण
भले बुरे का भेद बताए
जो दर्पण की सीख समझ ले
वह् जग जीवन भाग्य बनाए
प्रकृति का कण कण दर्पण है
मन दर्पण है,जग दर्पण है
अनवरत सत पथ पर चलकर
हित जगहित सबकुछ अर्पण है
सच्चाई प्रतिबिम्बित करता
फूहड़ मानव हँसता रहता
दर्पण तो दर्पण होता है
सद्कर्मो की राह सिखाता
धर्मग्रन्थ सब दर्पण होते
मातपिता खुद दर्पण होते
सीख सिखाते,नही सीखते
आजीवन वे,रोते फिरते
सत्य उजागर दर्पण करता
बुरा देख,कभी न रोता
सद्कर्मो की सीख सिखाकर
प्रगति हित नव बीज बोता
सत्य असत्य अंतर करता
जैसा करता वैसा भरता
जीवन कुछ पल का होता
इठला लेता,अंत मे मरता ।।
स्व0 रचित
गोविंद प्रसाद गौतम


हर मिलने वाला कहता
आप दुबले हो गये
पहिले से कुछ अधिक
गाल पिचक गये
चेहरा भी झुलस गया
मैं चुपचाप सुनता रहा।

कहने वालों से त्रस्त
घर आकर आईने में
सांय-सुबह-दोपहर
पहिले से कुछ अधिक
अपना ही मुखड़ा
दिन-रात निहारता रहा।

वही लोग फिर कहने लगे
आप मोटे हो गये
पहिले से कुछ अधिक
अच्छे लगने लगे
चेहरा अब खिल उठा
मैं चुचाप हँसता रहा।

अपनों का तांता बढ़ने लगा
मेरी सूरत के इर्द-गिर्द
सांय-सुबह-दोपहर
पहिले से कुछ अधिक
चेहरे नये बदलते रहे
दिन-रात की तरह ।

घर आकर एकान्त में
मेरा मन हँस देता
सीना फूल उठता
मिलने वाले क्या जानें
मैंने 'दर्पण 'देखना ' छोड़ दिया।

(मेरे कविता संग्रह " अनुगूँज " से)
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी


एक दिन निज को सजा, दर्पण के पास मैं गया
और हॅसी अभिमान भरी भी, मेरे साथ ले गया
देख मेरे रुप को, तब दर्पण ने मुझसे कहा
दिख रहे हो ऐसे मानों, लाश पुरानी कफ़न नया। 

मैंने जब यह सुना तो, शर्म से मैं गड़ गया
मुझको पराजित देख वह, एक और बात कह गया
देखता नहीं क्यों तू, स्वयम को निज आत्मा में 
ज़रुरत नहीं मेरी पगले, विलीन हो परमात्मा में।

दर्पण का सामना तब से, करता हूँ बुझे ह्दय से 
और कहीं कुछ कह न दे, डरता हूँ मैं इसी भय से
दर्पण की बात मुझे, सदा ही झकझोरती
जब कभी मौका मिलता, कभी नहीं छोड़ती।


दर्पण!!!
कहां झूठ बोलता है।
वह 
वही दिखाता है
जो सामने होता है।
झूठ का लबादा नहीं ओढ़ता।
जो देखता है
उससे मुंह नहीं मोड़ता।
झूठा दिलासा देकर छलता नहीं।
सच्चाई के आगोश से
मचलता नहीं।
दर्पण का व्यवहार खरा है
जो देखा वो कह जाता है।
दर्पण
बहुत संवेदनशील है
तुम्हारे कठोर रवैये से चटक जाता है।
लाख कोशिश के बाद 
फिर
सही नहीं बोल पाता है।
संवेदनाओं के साथ
जो खरा हो
हमारी जिंदगी में
वही 
गुणों को उभारता है।
कुरूपताओं को बता
सजग करता है,
धीरे से
रूप को निखारता है।
दर्पण जैसा 
कोई हो जिंदगी में
जिंदगी संवर जाए।
सत्य से अवगत करा
जो झूठ के आवरण से बचाए।
जिंदगी में
दर्पण जैसे लोगों को चटकने मत देना।
टूटकर अपने में ही अटकने मत देना।
वो
सच्चा है
तुम्हे भटकने नहीं देगा।
सत्य के नाम पर झूठ फटकने नहीं देगा।
~~~~~~🙏🙏🙏~~~~~
स्वरचित:शैलेन्द्र दुबे


नैनों के दर्पण में देखा
तेरा ही प्रतिरूप था
फूलों की मुस्कान थी
जीवन की पहचान थी

उम्र के दर्पण में देखा
सवेरा कहीं गुम था
ढलता हुआ रवि था
साँझ की दस्तक थी

कर्मों के दर्पण में देखा
एक पंख कटा परिंदा था
कोरा सा कैनवस था
रंग बिखरे पड़े हुए थे

मन के दर्पण में देखा
एक टिमटिमाता तारा था
चाँद की शीतल चाँदनी थी
गुमशुम सी रात थी

स्वरचित पूर्णिमा साह


दर्पण-
एक टुकड़ा काँच का
मलिन पृष्ठ
स्वच्छ पटल
प्रदर्शक,मुखड़ा साँच का
जाने कब छूट जाए
भंगुर,कब टूट जाए
पर,प्रमाणिकता का बोधक
सौंदर्य का उद्घोषक
बिंब, प्रतिबिंब, आकृति
परिलक्षित कहाँ?
अंतस की विकृति
अरे अंतस में तो झाँक न पाता
मनोभावों को आँक न पाता
फिर किस सत्य का द्योतक है?
क्या ये सौंदर्य बोध
महज एक लक्षणा है
या आत्म-व्यंजना है
सौंदर्य का आत्मघोष
एक सुखद परितोष
पर कैसा,किसका संतोष?
तेरा,मेरा या उसका?
छलना बस निज मन को
विविध विधि
बहु यत्न औ युक्ति
अपितु,छलते हैं दर्पण को।
-©नवल किशोर सिंह




कभी-कभी दर्पण देख देख ,मुस्काना अच्छा लगता है,
खुद से खुद को भी, कभी कभी चुराना अच्छा लगता है,
लोग कहते है की मैं ,धनी हूं मधुर सी स्वर्ण हंसी की,
निस्पृह बच्चे सी निश्चल बन जाना अच्छा लगता है।

वासंती संग मोह जगाना, जूही दलों संग भरमाना,
सतरंगी सुख स्वप्न सजाना, सब अच्छा लगता है
जब जब यादों के बन जाते है ,बनते बिगङते झुरमुठ
असीम आकाश में फिर बाहें फैलाना अच्छा लगता है।
कभी-कभी दर्पण देख देख ,मुस्काना अच्छा लगता है,

मन के आतप से जल के, कुनकुनी धूप में फुर्सत से
भाग्य निधि के मुक्तक को रचना अच्छा लगता है,
नन्हें पंछी का तिनका -तिनका नीङ बनाना देख के,
अभिलाषाओं पे अपने मर मिट जाना अच्छा लगता है।
कभी-कभी दर्पण देख देख ,मुस्काना अच्छा लगता है,

धूप धूप रिश्तो के जंगल, नहीं खत्म होते ये मरुस्थल 
जलते सम्बन्धों पे यूं, बादल लिखना अच्छा लगता है।
पूर्णविराम पे शून्य बनकर, शब्दो से फिर खाली होकर, 
संवेदनाओं पे रोते रोते हंस जाना,फिर अच्छा लगता है।
कभी-कभी दर्पण देख देख ,मुस्काना अच्छा लगता है,

आईना देख देख इतराना, अलकों से झर मोती का झरना
अन्तर्मन के भोज पत्र पे, गीत सजाना अच्छा लगता है।
कभी-कभी यूं मुस्काना और गालों पे हिलकोरे का पङना
मधुमय वाणी में अनबोला रह जाना अच्छा लगता है।
कभी-कभी दर्पण देख देख ,मुस्काना अच्छा लगता है!
--------- डा. निशा माथुर (स्वरचित )


मन दर्पण आशा ज्योती
रंग भरें इसमें भावों के मोती
भावनाओं का सागर अपार
कितना सुंदर यह संसार
सबके मन में प्यार बसा है
शब्दों का संसार बसा है
साहित्य के रंगों में रंगी है
मन के दर्पण में इसकी छवि है
यह रचनाएं दिल की धड़कन
इनमें बसा आज और कल
आत्मा से निकले बोल
इनके शब्द बड़े अनमोल
प्रीत की रीत सदा चली आई
हमने भी यह रीत निभाई
हम साथी भावों के सच्चे
छूटे न यह रंग हैं पक्के
मन का दर्पण झूठ न बोले
ख्व़ाबों के नित बने घरोंदे
दिल में जो बसती सूरत है
दर्पण में वही दिखती मूरत है
मन का दर्पण सदा रहे साफ
सबसे रखो प्रेम सद्भाव
***अनुराधा चौहान***



दिल का दर्पण गर टूट जाऐ तो
फिर ये कभी नहीं जुड पाता है।
टुकडे टुकड़े हो जाता है मानस,
इसे नहीं कोई भी जोड पाता है।

अच्छा है हम संवेदनशील बनें।
नहीं कभी हम संवेदनहीन बनें।
सिर्फ स्वयं तक सीमित रहकर,
इस दुनिया में हम गमगीन बनें।

प्रभु ने दी देह और ये प्यारा मन।
बसाऐं हृदय नगरिया मे जन जन। दर्शन देंगे सांवरिया जी हमको, 
तोडै अगर हम अहम का दर्पण। 

स्वरचितःःः
इंजी शंम्भूसिह रघुवंशी अजेय



उम्र गुजारी सारी मैंने
कभी न की #दर्पण से बात
अहंकार में डूब रहा मन
लिप्त विलासों में दिन-रात
दर्द पराया मैं नही जाना
सत कर्मो की बात न माना
न कोई अपना न बेगाना
इस कथनी का अर्थ न जाना
हर क्षण हर पल,चालें चल-चल
खूब किया उत्पात
मोह जाल माया में फसके 
काट दिये दिन-रात
बात कभी न किसी की मानी
जीवन-भर बस की मनमानी
मैंने हरदम की नादानी
इस जीवन की कद्र न जानी
आँख दिखा कर,आँख मिला कर
मैं करता था बात
होश गवांकर,होश में आया
जीवन में प्रभात
कूद-कूद कर गूद गंवाया
तब जाकर कुछ समझ में आया
मात-पिता ने था बतलाया
#दर्पण है हम सबका साया
इससे नज़रें नही चुराना
आंखों से आंखे टकराना
राह कभी जब भटक जाओगे
खुद नज़रों से गिर जाओगे
सीधी -सी इतनी पहचान
सत्य सदा बोले यह मान
#दर्पण देता तुमको ज्ञान
#दर्पण है मानव की जान।

~प्रभात


मन के दर्पण में
कभी मिले फूर्सत तो
झांकना यारों
धूंधली तस्वीर 
साफ हो जाएगी
एक बार जरूर निहारना यारों।

झूठ नहीं बोलता दर्पण
सच दिखाता है
मगरूर हमारे उथले मन को
सच्चाई बताता है।

भागे हम चाहे जितना
खुद से कहाँ भाग पाते है
सबके आगे मुस्कुराती आँखें
दर्पण के आगे छलक जाते है।

मुखोटा पहने हम
चाहे जीतना
असलियत नहीं ढ़क पाते है
खड़े होते है जब दर्पण के आगे
छुपाएं हुए सभी दाग
नजर आ जाते है।

स्वरचित :- मुन्नी कामत।


है मधुमय वंद्य रजनी
टिमटिमाते दीप दर्पण
चंद्रिका अविभूत बदरी
है प्रिये सर्वस्व अर्पण,,,,

अंतरिक्ष बसाऐ हिय में 
बारिश की बूँदे साथ में 
ऐ प्रिये! ले चल उडा कर 
व्योम के विस्तार में 

संचिता हिय नेह अश्रु
युग्म कर स्नेहल छुअन 
बाँध बाहुपाश प्रियतम
अद्य छू ले ये गगन

मेह का डोला सजाकर
नेह का अभिसार कर ले
सद्य नियति मुक्त श्रुति में 
आ प्रिये संचार कर ले

सृष्टि रचिते प्रेय पुनिते
गीत का श्रृंगार कर ले
गेय गतिमय गितिका में 
प्रिय मृदुल उपहार भर ले,,,,,, 
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
स्वरचित:-रागिनी नरेन्द्र शास्त्री 



मैं बादल तू पवन का झोंका....
कैसे होगा अपना मिलन...
तू धड़कन मैं बिखरी सांसें...
दिल से न होगा इनका मिलन....
किसने लगाई चाँद को ठोकर...
कैसे टूटा ये दर्पण....
मैंने पूछा कब ये हुआ तो...
बोले जब थे तुम पागल...
तू गर है चारागर तो...
कैसे हुआ फिर मैं पागल...
पागल होते तो सह लेती...
दीवानों के कौन हैं हम...
हम दीवाने वो था फिर क्या…
जिसने तोडा मेरा भ्रम...
ले गया चाँद को पंख लगा के...
फिर दर्पण संग टूटे हम....
बादल सा था अपनापन या....
दीवाने सा पागलपन...
फिर से मैं अंजान बना हूँ...
अच्छा है अनजानापन....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 



*बना इक आईना ऐसा* 
हे कारीगर, बना इक आईना ऐसा 
जो दिखलाए असलियत बेईमानों की, 
राक्षसप्रवर्ति के इंसानों की।।
हे कारीगर, बना एक आईना ऐसा 
जो जमीर जगादे रिश्वतखोरों का,
भ्रस्टाचारियों का, चोरों का।।
हे कारीगर, बना इक आईना ऐसा
जो चरित्र दिखलाए लोगों का,
कुछ पाखडींयो का, दारोगों का।।
हे कारीगर, बना एक आईना ऐसा 
जो राह दिखलाए यवनों को,
कुछ भटकों को, रमनों को।।

सुखचैन मेहरा 

1
खंडित शीशा
स्वभाव न छूटता
दिखाता सच ।
2
सत्यम शिव
प्रणय प्रस्तावना
दर्पण साक्षी ।
3
अंबु दर्पण
अवलोक रहा है
गगन मन ।
4
सित असित
मुग्धित नर नारी
दर्पण बिम्ब ।
5
हीरक पट
विधु जल दर्पण
मुग्धा यामिनी
6
छवि तुम्हारी
दर्पण पर दिखी
मन हुलसा
7
बढ़ी निराशा
चटका है दर्पण
अपशकुन ।

सित असित ::::: काला, गोरा ।
अंशु विनोद गुप्ता

एक दिन मैंने दरकते हुए दर्पण से 
लरजते हुए पूछा-
"कहाँ गया वो तेरा अभिमान
किसके हाथो हुआ तेरा ये अपमान?"
सुनकर मेरी ऐसी बात

हँस पड़ा वो शीशा आज
"नही किसी ने किया मेरा अपमान
मैंने सदैव तोड़ा दूसरों का मिथ्या अभिमान"
सच्ची तस्वीर दिखाता हूँ तो 

लोग करते मेरा अपमान
नही उतारते वे अपना मुखौटा
मुझसे करते सौ सवाल
अपना स्वभिमान बचाने को

मैं ने खुद ही किया है अपना 
काम तमाम"
सुनकर शीशे की ऐसी बात
टूट गया मेरा अभिमान
बचा ले गया वह अपना स्वभिमान।
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।


दर्पण करता है
प्रतिबिम्बित अक्स
दिख जाती है 
अच्छाई और बुराई
कोमलता कठोरता
करुणा और घृणा
ममता और बैर
साहित्य दर्पण है 
समाज का
कवि की कलम
दिखा देती है 
आईना समाज का
लिख देती है 
समाज का यथार्थ
सौंदर्य का अहसास 
कराता है दर्पण
श्रृंगार और खूबसूरती
प्रतिबिम्बित होते
आरसी में
प्रकृति और आकाश
चाँद और तारे
परिलक्षित होते
शीशे से सरोवर में
टूट जाता है
दर्पण जब
दिल भी टूट जाता है
दरकना आरसी का
देता है 
अशुभ संकेत
नाजुक है दर्पण
सम्भालो इसे
सजा लो मन आँगन
बने शुभ संकेत
सरिता गर्ग


है आस यही
यही है अभिलाषा।
तेरे नयनों के दर्पण में
पढ़ लूं अपनी परिभाषा।
तुम अपलक निहारो मुझको
मैं इकटक देखूं तुमको
तेरे नयनों के दर्पण में
पढ़ लूं अपनी परिभाषा।
तुम मस्त रहो अलमस्त रहो
मैं पढ़ लूं तेरी सारी भाषा।
रमण करूँ तेरे नयनों में
दिल मेंतेरे बसी रहूँ।
तुम खो जाओ मेरे सपनों में
मैं पढ़ लूं तेरे सपनों की भाषा।
तेरे नयनों के दर्पण में
पढ़ लूं अपनी परिभाषा।

स्वरचित
सुषमा गुप्ता


वृद्धापन मे दर्पण देखा , याद आ गई पुन: जवानी ।
अनायास ही याद पटल पे, आ अतीत की गई कहानी ।।

-1-
कंघी करने हित केशों मे, दर्पण सम्मुख आते थे ।
कई तरह का अभिनय करके, मंद-मंद मुस्काते थे ।।
सुन्दरता का हीरोपन दिल, करता था मेरा नादानी ।
अनायास ही याद पटल पे, आ अतीत की गई कहानी ।।

-2-
आता-जाता रहा समय, पर ये दर्पण न बदला ।
समय साथ कब गई जवानी, मालुम अभी चला ।।
दर्पण ताँक-झाँक की दिल मे, अब चाहत लगती वीरानी ।
अनायास ही याद पटल पे, आ अतीत की गई कहानी ।।

-3-
कुछ जिम्मेदारी का बोझा , कुछ सारारिक है पीडा ।
गला घुटा सब अरमानों का, खत्म हो गई सारी लीला ।।
वृद्धावस्था और दर्पण मे, अब दिखती है खीचातानी ।
अनायास ही याद पटल मे , आ अतीत की गई कहानी ।।
राकेश तिवारी " राही " 

सखी चुप खड़ी यूँ ही 
देख रही थी दर्पण आज ।
स्वयं का ही मुख रही थी निहार 
पर यह क्या 
चौंक उठी अचानक मैं ।
कुछ श्वेत श्याम 
कुछ रंग -बिरंगे 
जैसे आठों याम 
कुछ जाने कुछ अनजाने चेहरे 
नाच उठे दर्पण में ।
मैं मौन खड़ी विस्मित 
करने लगा अट्टाहास असीमित दर्पण ।
फिर कहा धीमे से फुसफुसा कर 
क्या देखती हो ? 
ये सारे चेहरे हैं तुम्हारी ही आभा ।
तुम देख रही हो तन 
मैं दिखला रहा हूँ मन प्रिये। 
सच ही तो कहा दर्पण ने 
ऊपरी रूप निहारते हम रोज 
असल रूप की अपने 
कब करेंगे खोज ? 
(स्वरचित )सुलोचना सिंह 


मैंने 
हॄदय मे 
लगा रखा है 
दर्पण प्रिय 

तुम्हारी 
हर व्यथा 
हर दर्द 
का 
प्रतिबिम्ब है
यह दर्पण प्रिय 

मन की बात
चेहरे के भाव
अब तो सब
समझ 
जाती हूँ प्रिय 
क्यो कि दर्पण 
ही एक ऐसा 
है प्रिय 
जो खुद बदनाम 
होता रहा
पर
सच्चाई सब को
दिखाता रहा

टूट कर भी 
दर्पण 
अपना वजूद 
खोता नहीं 
हर टुकड़े में 
हजार चेहरे 
दिखाता प्रिय 

(और आखिर में)

प्रिय 
साथ चले थे
साथ चलते रहे
जहाँ तलक 
दर्पण 
राह रोशन करता चले
जिस दिन 
हम 
थक जाऐंगे 
थम जाऐगे 
दर्पण भी औझल 
हो जाऐगा

स्वरचित 
लेखक संतोष श्रीवास्तव


सच को सच झूठ को झूठ 
कहने की हिम्मत रखता हूँ 
हाँ जी हाँ दर्पण हूँ मैं 
एक असली चेहरा रखता हूँ ॥ 

जग रूठे परवाह नहीं
जो सच है वही बताता हूँ 
तारीफ करें सब , चाह नहीं 
अपना कर्तव्य निभाता हूँ ॥ 

देख सकें खुद को दर्पण में 
इतने पवित्र हो लोग अगर 
मैं शान समझता हूँ अपनी 
उन लोगों की छाया छूकर ॥ 

दर्प नहीं है मुझे कि मैं 
ललनाओं का शृंगार करूँ 
शौक नहीं सौंदर्य सुधा का 
सबसे पहले मैं पान करूँ ॥ 

हाँ होगी प्रसन्नता मुझे अगर 
मैं नवचेतना का आधार बनूँ 
कलुषित समाज का कलुष मिटा 
निज छवि सम निर्मल संसार करूँ ॥ 

स्वरचित - पद्मजा पुण्या



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