Saturday, November 24

"पनघट "24 नवम्बर 2018

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आर्द्र है आँखे
पनिहारिन ताके
घूँघट-पट
भंगिमा नटखट
बिखरी लट
हाथ पिपासु घट
कहाँ है बाँके
वो आकर तो झाँके
विलुप्त घटा
परिवर्तित छटा
मन के पीर
सिमट रहा नीर
आतुर खग
छटपटाता जग
अकुलाहट
रुदित नद-तट
सूखता पनघट।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
नियति की रक्तिम 
आलोकित चितवन द्युति 
अरूणिम अँचल

क्षितिज आभासित 
व्युति अवनि अंबर 
खग विहग खर
कूँजित कलरव गान 
उन्मुक्त धरा उपमान
मधु नादसिक्त
पिहु मोर चातक
पदचाप घूँघर 
घंटारव गलमाल
वत्स धेनु पयधार सुरभित
लालिमा चहु ओर अटकी
पग पैजनी कटि कुंभ साधे
सखी राधिके संग 
पनघट चली
हे श्याम सुंदर सावरे
चल झट ले संग मे बाँसुरी
भई बावरी व्रज नागरी
तकी वाट निहारे ओजागरी
पनघट से घट ले चंचला 
सघरी गोपीन अटकी गली,,,,


रीती गागर,प्यासे पनघट,
गोरी भटके लेकर घट।
कैसा आया है दौर सखी,
पानी को तरस रहे पनघट।

अब सपने बन गए हैं पनघट,
वो हंसी-ठिठोली वो जमघट।
वो छल-छल छलकती गगरी,
वो मनमोहनी गांव की गुजरी।

अब रीते गागर गोरी के,
अल्हड़ गांव की छोरी के।
भटकती फिरती है दर-दर,
जबसे सूख गए हैं पनघट।

सूख गया अब भूमि जल,
पनघट बन गए बीता कल।
प्रकृति से ये खिलवाड़ क्यों ?
पनघट को किया अनदेखा क्यों ?

क्यों जल को नहीं सहेजा है?
क्यों कल को किया अनदेखा है?
जैसे रीती गगरी,प्यासे पनघट,
वैसे सूख न जाए ये जीवन-घट!!

अभिलाषा चौहान
स्वरचित



गीत

पनिया भरन चली बृजनार 

तन पर धानी चूनर डारी
दायें बायें सखी हैं चार 
तन पर धानी चूनर डारी...

घूँघट से वो नैन चलावे 
छोरा देख देख रह जावे 
ऐसी मारे नैन कटार
वा की चाल बड़ी मतवारी...

पनघट पर भीड़ है भारी
वहाँ बैठो है गिरधारी
आपस में बतियातीं जायें 
वा को डर लगवे मोहे भारी....

गऊअन को लेय बहानो 
पनघट पर आय सयानो 
देखे टुकुर मुकुर इतराय 
यशोदा से कह कहके हारी....

संग में ग्वाला चार भी आवें 
एकउ चाल न उनकी भावें 
हो न जाय ''शिवम" टकरार
मैं भी बरसाने की नारी...

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 24/11/2018




विधा .. लघु कविता 
*********************
🍁
पनघट पे बैठी रही,
राधा कर श्रँगार।
आज भी ना आये काँन्हा,
प्रीत गयी वो हार॥
🍁
जब से मथुरा को गये,
वृन्दावन को त्याग ।
अश्रु बहे निरखत नैनो से,
बचा ना कोई राग ॥
🍁
किससे मन पीडा कहे,
गोपी ग्वाल जस हाल।
पनघट भी सूना लगे,
अश्रु ना जाए सम्हाल॥
🍁
भावों के मोती भी छलके,
सोच के राधा हाल।
शेर के नयना छलक रहे है,
सम्हाले ना सम्हाल॥
🍁
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf





विषय पनघट
रचयिता पूनम गोयल
विधा गीतलगती हैं बड़ी प्यारियॉं ,
गाँव की पनिहारियॉं ।
हाथों में घड़े लेकर ,
चलती हैं सुकुमारियॉं ।।
१)-इस डगर से ,उस डगर ।
तय करती हैं ,
अपना सफर ।।
चलती हैं , लहराके कमर ,
ये प्यारी पनिहारियॉं ।
लगतीं हैं............
२)-पनघट की रौनक बढ़ती ,
जब ये इतरा के चलती ।
दिल की धड़कन बढ़ जाती ,
जब ये मुस्का के चलती ।।
क्या कहूँ , कैसी लगतीं ! —ये प्यारी सुकुमारियॉं ।
लगतीं हैं............
३)-जी चाहता है इक दिन मैं भी ,
इस टोली के संग चलूं ।
पहन के घघरा-चोली को ,
मैं भी पनिहारिण सी दिखूँ ।।
गाँव के पनघट पे चलूँ ,
हाथ में लेके गागरिया ।
लगतीं हैं...........



विधा - दोहा मुक्तक
=============

पनघट को गजगामिनी , गागर सिर पर धार ,
बलखाये लहराय लट , नागिन सी कटि पार ,
द्राक्षा से हैं रसभरे , ओंठ गुलाबी गाल ,
नज़र पड़े जिस वीर पर ,करे अस्त्र सम वार |

गागर सिर पर ही धरी , पनिहारिन चित भंग ,
पथिक कोइ गर देखले , रह जाता है दंग ,
पनघट सूना अब लगे , नहीं छबीले नैन ,
'माधव' छवि उर में बसी , चढ़ा पुराना रंग |

#स्वरचित
#सन्तोष_कुमार_प्रजापति_माधव
#कबरई_महोबा_उत्तर_प्रदेश



विधा - छंद मुक्त

पेड़ की छैयां में
पनघट के पास
बैठे मेरे श्याम
राह तकते मेरी
दूर गांव से चली आती
खाली पगडंडी पर
मैं देती नही दिखाई
उस खाली पगडंडी ने
उलझन उनकी बढ़ाई
सूनी पगडंडी है
समय भी 
कुछ ठीक नहीं
गाँवों के लड़के भी अब
हो गए हैं व्यभिचारी
प्रिय पर कोई आंच 
ना आने पाये
मेरे श्याम का मन
बार बार घबराये
दूर से जब देखा मुझे आते
मौसम बदल गया
सिमट गईं
चिंता की घटायें
मेघाच्छन्न बादलों को फाड़
मुस्कुराता सूरज
आलिंगन करने 
अपनी धरती का 
खड़ा था
बाहें फैलाये 
सूना पनघट
हो गया था
पुनः गुलजार

सरिता गर्ग


************
कहाँ गये वो पनघट,
कहाँ हैं वो गाँव की छोरियाँ,
मटक-मटक के चलती थीं,
सिर पर रख माटी की मटकियां |

पनघट पर बैठता था जो दिवाना,
नहीं अब उसका कोई अता-पता,
पनिया भरन आती थी जब मोरनी,
दिल होता था उस पर फिदा |

कितना सुन्दर समय था वो,
चाहत दिल से होती थी तब,
पनघट पर भीड़ दिखती थी,
कहीं-कहीं दिख जाता था वो |

शहरीकरण का सुमार है,
गाँव से कहाँ किसी को प्यार है,
पनघट बस अब यादों में हैं,
वो प्यारा समां बस बातों में है |

स्वरचित*संगीता कुकरेती*

पनियां भरन को चली पनघट पर।
सिर पर लिये गगरिया।
कभी ठिठके,कभी झटक चले है।
पहनकर चले लाल चुनरिया।
इधर,उधर से झाँके कान्हा।
फोड़े उसकी गगरिया।
सम्भालो गोरी,भीगी तोरी चुनरिया।
कैसे भीगी घर मैं जाऊँ कान्हा।
तूने फोड़ी मोरी गगरिया।
उलहन देने जाऊँ मैं यशोदा को।
कान्हा ने फोड़ी मोरी गगरिया।
वीणा झा
स्वरचित
बोकारो स्टील सिटी



Kusum Pant रोता पनघट 

मै पनघट 
बना निर्जन 
नहीं पनिहारिन 
जो प्यास बुझाये 
राही की.... 
सूख गया... 
राह तकू किसी प्रियसी की 
जो प्रीतम को बुलाये 
प्रीत का गीत गाये 
कृष्ण की राधा बन जाये 
मैं पनघट.... 
सुनो रुदन मेरा 
काली है निशा 
निभाए शत्रुता 
निर्जन हूँ मैं... 
सुनो रुदन मेरा 
एक बार फिर दो 
मुझे नया सवेरा 
एक प्रेमिका, 
एक प्रेमी.... 
फिर हरषाऊँ... 
एक बार.... 
बस एक बार 
सुनो रुदन मेरा 
कुसुम पंत उत्साही 
स्वरचित 
देहरादून



पनियां भरन मैं पनघट पे जाऊं
देखूं तुझे तो सुध बिसराऊं
करके शरारत मटकी फोड़ी
माखन की करते हो चोरी
फिर भी तेरी सब लेते बलाएं
गिरधर तू कैसी लीला रचाए
बाजे जब भी तेरी मधुर मुरलिया
नाचें सारी गोकुल नगरिया
काहे करते कान्हा तुम जोरा जोरी
पतली कलाई मोरी क्यों तूने मोड़ी
मैया यशोदा कैसा तेरा कन्हाई
मार कंकरिया मेरी मटकी गिराई
पनघट पर मेरा रस्ता रोके
पानी न भरने दे मटकी छीने
मुरलिया बजाए यमुना तीरे
तन-मन भिगोए अपने ही रंग में
बड़ा ही चितचोर है श्याम सलोना
गोपियों का चैन है छीना
जादू भरी उसकी मुरली है
छवि अलौकिक मन में बसी है
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना


यमुना के तीर सखियों संग घूमे,
आज राधिका पनघट पे झूला झूले।

सावन की बेला है अति अलबेली,
झूम रही राधिका संग सखी सहेली।

नैनों की देखो क्या मधुर अभिलाषा,
श्याम के दर्शन हो यही है अब आशा।

हर सांस के संग ध्यान में आते है बिहारी,
पनघट पे आस लगाएं बैठी राधिका बिचारी।

ये विरह के पल भी कुछ अविरल है,
धरती से आकाश तक फैलें ये बादल है।

पनघट पे राह देखती बैठी बृषभानु दुलारी,
बिचलित हो नैन ढूढ़ते है कहाँ है मुरारी।

कभी वो अपने कर कमलों द्वारा करे मेरा श्रृंगार,
कभी मैं बन जाऊं उनके गले का हार।

फोर गागरिया सब सखियों संग कान्हा करे अठखेली,
पनघट पे चीर अपना फिर ढूँढे सब सखी सहेली।

अब पनघट पे बैठी राह ताकती बिरज की नार,
ये प्रेम की अटल कहानी में नही उतरे कोई पार।

स्वरचित
मोनिका गुप्ता



,"पनघट"
कभी सबकी प्यास बुझाने वाला 

आज पनघट खुद प्यासा है।
सबके मन को रिझाने वाला 
आज खुद समेटे निराशा है।
काश कोई आए उसके दिल को बहलाए
गए वो दिन जिसकी उसको आशा है।
जहा चहकती थी चिड़िया की चहचहाट, 
कोयल की कूक,और मोर सबके मन भाता है,
आज वहां बावड़ी वही , वहीं मौसम,
बस फर्क इतना के छाया चारो और सन्नाटा है।
दिल में समेटे अनगिनत यादों को,
फिर भी ना जाने क्यू दिल में उसके हताशा है।

विधा=हाइकु 
(1)होते ही भोर
पनघट की और
चली गोपियां 
(2)सत्संग स्थल 
ज्ञान का पनघट
पहुंचे भक्त
(3)आज का वक्त 
सूने है पनघट
सुखी नदियां
(4)रहे हैं झेल
प्रदूषण की मार
ये पनघट 
(5)ये पनघट
बन गए चौपाटी
खुश हैं प्रेमी
(6)रही न गोपी
रहे न पनघट 
ऐसा है वक्त 
(7)देख के वक्त 
नैनों के पनघट
अश्कों के घट

🌹स्वरचित🌹
मुकेश भद्रावले 
24/11/2018

भोर भई पनघट पर देखो
सखियन करती शोर
हाथ गुलेल लेकर आया
देखो वो माखन चोर

बैठ कदम्ब की ओट सें
तके मटकी की ओर
निशाना अचूक उसका
देख मटकी करे शोर

कान्हा मटकी फोड़े मोरी
मैं जाऊँ पनघट चोरी चोरी
बीच राहों में मुझको छेड़े
पकड़े कान्हा कलाई मोरी

पनघट की सखियाँ सारी
लाज शरम की मारी
जाये दौड़ी दोड़ी नंद धाम
करे मैया यशोदा से गुहारी

मैया देती आश्वासन सबको
घर आने दो बस कान्हा को
देख भोली सूरत कान्हा की
बस लाड़ करे वो कान्हा को

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

पनघट से ही तो जीवन है
पनघट सबकी प्यास बुझाय
पनघट निर्मल जल आगार की
महत्ता बूंद बूंद समझाए
जल जीवन है जल अमी है
जल लेने जाती पनिहारी
ललना जाती बहिना जाती
स्वयम जाती है महतारी
मधुर स्वच्छ निर्मल नीर हो
वह् बन जाता पाक पनघट
कभी प्यार मनुहार होती
कभी परस्पर होती खटपट
पनघट रीत सनातन से है
राधे कृष्ण मिंले पनघट पर
मटकी फोड़ी छीना झपटी
रास परिहास हुआ पनघट पर
पनघट पर सृंगारित होकर
जाती है अब भी पनिहारी
गजगामिनी ठुमक ठुमक के
लगती सब पर भारी भारी
मनोहारी चञ्चल चितवन ले
चले सुधा गागर को भरके
कलयुग के कान्हा छिप छिप 
अब भी राधा को वे निरखे
पनघट ताल झील कूप है
पनघट पर पनपे सृंगार
पनघट के बिन सूना सूना
पनघट से चलता संसार
स्व0 रचित
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।



शीर्षक: "पनघट"
चोका
छेड़े कन्हैया
पनघट गोपियां
फोड़ी मटकी
पकड़ी कलईयां
टूटी चूड़ियां
राधा संग सखियां
पहूंची मैय्या
करती उलाहना
दैय्या रे दैय्या
बजाती है तालियां
छुपे कन्हैया
हंसती सहेलियां
ढूंढती मैय्या
ममता भरी छैय्यां
लेती है बलईयां

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल

कैसे आऐं पनघट पर अब
पनघट सब ही सूख गये हैं।
नहीं दिखतीं सखी सहेली,
जबसे कृष्ण कन्हैया गये हैं।

भरा प्रेम उर जाली दिखता।
हरघट खाली खाली दिखता।
भूले प्रेम परिभाषाऐं हमसब,
पनघट नहीं मवाली दिखता।

जीवन में अब मकरंद नहीं है।
प्रेम प्रीत की कहीं गंध नहीं है।
कलश मटकिया खाली मिलते,
अब पनघट से कहीं ढंग नहीं है।

यहाँ कुँए बाबडी सूख गये सब।
नदी तालाब भी सूख गये सब।
अगर सूख गई स्नेह की गलियां,
निश्चित बंशीबजैया रूठ गये हैं।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
पनघट हमारी व्यवस्था पुरानी 
भर कर लाते सब घर में पानी
सब आयु के लोग मिल जाते
बच्चे से लेकर दादी और नानी। 

पनघट पर नन्दलाल भी आते थे
अपनी अलग ही धूम मचाते थे
राधा भी आती गोपियों संग में 
आंखों आंखों में में बतियाते थे। 

पनघट भी थे सबके मिलन स्थल
बनी रहती थी हर दम चहल पहल
दुख दर्द भी सबके बॅट जाते थे
आंखें भी कर लेतीं मिलकर छलछल। 

अब पनघट तो इतिहास है
एकल एकल सब प्रवास है
कभी गन्दा कभी दुर्गन्ध युक्त पानी
यही कार्य प्रणाली की बकवास है।

स्वरचित 
सुमित्रा नन्दन पन्त 
जयपुर
भोर भई पनिहारन पानी भरने पनघट ओर चली
ठुमक ठुमक कर नदी किनारे वो गोरी चितचोर चली।
छैल छबीली नार चली है लेकर अपनी गगरिया
चाल चले बल खाए ऐसे लचकी जाए कमरिया।
मंद मंद होठों पे हंसी है आँखें नींद से अलसाई
रूप रंग है खिले कमल सा लेकिन कुछ कुम्हलाई।
हँस हँस कर सखियों के संग करती हैं रात की बतियाँ
कुछ बिरहा की मारी कहती आई न उनकी पतियाँ।
आपस में सब हाल कहे और बात करें सब मन की
अपनी अपनी व्यथा सुनाएं पीड़ कहे जीवन की।
"पिनाकी"
धनबाद (झारखंड)
#स्वरचित


विधा:- सायली छंद

राधा
मचल गई
पनघट के तीरे
नहीं आयो
श्याम...............1

गाँव
नहाते लोग
अभी पनघट पे
नहीं आया
विकास.................2

सरकारी
हेण्डपम्प बना
एक सार्वजनिक पनघट
नहीं आती
विजली.....................3

डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी,गुना(म.प्र.)
लघु कविता

जब से पनघट छूट गए,
रिस्ते भी सब टूट गए।
बातें होती थी जी भर के,
जो अपने थे सब छूट गए।

सब जाते थे पानी लेने,
सब आते थे सुधि लेने।
पनघट राह जोहता है,
पर आता नहीं कोई सुधि लेने।

(स्वरचित)अशोक राय वत्स

विधा छंद मुक्त अतुकांत
.......

सुबह चाय की चुस्कियों के साथ
fB पर आज का शब्द देखा 'पनघट'
नवीन सन्दर्भ में लिखना चाहती थी ।
कल्पनाओं के पंख लगा
दूर तलक दौड़ी पर . . . .
सूना ही पाया 
साहित्य का आसमाँ ।
कृष्णभक्त कवियों का सम्पूर्ण साहित्य जिस एक शब्द की मस्ती पर 
गुंजायमान है . . .
विश्व साहित्य पटल पर 
वो पनघट ही है।
आज सोचती हूं
सिर्फ कृष्ण साहित्य और
शब्दकोश की शोभा बढ़ाने वाला
ये नटखट का पर्याय शब्द 
क्या नए कवियों का अन्तस
उद्वेलित कर पायेगा ।
इस शब्द के विराट अस्तित्तव को
इन रससिक्त चुहलबाजियो को
क्या नयी पीढ़ी कर पायेगी
हल्के स्पर्श का भी भान....
सच ...कितना आगे निकल आए हैं हम। 
कहीं दूर पीछे छूट गई हैं
वो पनिहारिने....
गगरिया.. मटकियां
और जैसे स्वयं को ही तलाशता
उदास वो प्यासा सा पनघट...
.....।।....
स्वरचित
नीलू लखानी
पनघट पनिहारिन और पेड़ की छैंयाँ
रही नहीं अब पहले वाली वो दुनियाँ। 

अब हर घर में बहती नल की धारा 
चल रहा किसी तरह जीवन बेचारा। 

नहीं नियंत्रण है अब जल पर हमारा 
बड़ा प्रदूषित हमनें जल को कर डाला। 

पहले पनघट का मकसद था मेलजोल 
बटता दर्द मन खिल जाता होता सहयोग। 

बदला समय बदले लोग बढ गयी तनहाई 
वातावरण दूषित हुआ बढ गयी बीमारी |

हम समझ लें अगर संसार को ही पनघट 
संगठित होकर दूर कर डालें सभी संकट। 

बजने लगेगी चैन की बंशी नाचेंगीं खुशियाँ 
प्रेम सागर में होंगीं भावना की डुबिकियाँ |

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
"पनघट"

सूने हैं पनघट,
सूनी है डगरिया, 
सूखे जल साधन, 
प्यासी है नगरिया l

घर चारदीवारी,
सिमटी है दुनिया,
बोतलों में पानी है,
उदास है चिरैया l 

चहकती गोरियाँ 
बजती पैंजनिया 
पनघट पुकारता 
वो गोधूलि ध्वनियाँ 

राधा की अठखेली, 
ग्वालिनों की बतिया, 
ढूँढ़ती है अँखियन, 
वो नटखट कन्हैया l

स्वरचित 
ऋतुराज दवे
कृषि प्रधान कहलाता भारत देश महान
ग्रामीण सभ्यता संस्कृति करती गुणगान
खेत खलिहान और खुले मैदान
स्वच्छंद वातावरण देता प्रत्यक्ष प्रमाण
जोहड तालाब में पशुओं का स्नान
कुएँ का पानी मधुर रसपान
पनघट की पनिहारिन दृश्य महान
हँसना मिलना बतियाना होता सब बखान
पैरों की पाज़ेब बाजे और हाथों के कँगन
सिर पर मटकी या कमर पर गगरी विराजमान
स्त्रियाँ नवयुवतियाँ भर लाती जलपान 
इक दूजे का हाथ बँटाना गुरु भार लघु करवाना
पारस्परिक ऐक्य भाव पुष्टकर परवान चढ़ाना
ग्राम्य जीवन पनघट गौरवपूर्ण पहचान
शहरी जीवन सदा अछूता उसकी संस्कृति वीरान

स्वरचित
संतोष कुमारी 
नई दिल्ली
गाँव की गोरी 
चली सखियों संग 
पनघट की ओर 
मोहक छवी 
लगती चितचोर ।
संगमरमरी रूप 
चमके जैसे सुनहरी धूप 
सूखे सारे जलस्रोत 
दूर बहुत पनघट का नगर ।
चलते चलते कुम्हलाया रूप 
थक कर टूटी पायल 
छूट गई हाथ से गागर ।
निकली घर से सबेरे 
लौटत भयी रात ।
कोई तो करो जतन 
बुझाओ धरा की प्यास 
पनघट हो घर के आसपास ।
चांद के हाथ 
भेजी है चिट्ठी 
शायद जवाब में 
शहरी पिया 
करें कोई मीठी बात ।
(स्वरचित )सुलोचना सिंह 
भिलाई (दुर्ग )

मोहे कान्हो मिल गयो पनघट पे
वा ने बाँसुरी बजाई पनघट पे

वा ने तान छेड़ी पनघट पे
वा ने मेरो जियो चुरायो पनघट पे

वा ने मोरी बहीया मरोड़ी पनघट पे
वा ने मोरी सखियां छेड़ी पनघट पे

वा ने करी शरारत पनघट पे 
सुन री सखी 

में लज्जाई पनघट पे
मैं शरमाई पनघट पे

मोरी चुनरी लहरायी पनघट पे
मोरी चूड़ी खनकी पनघट पे

मोरी बिंदिया चमकी पनघट पे
मोरी पायल छनकी पनघट पे 

अरी सखी ,मैं तो बांसुरी की धुन मे
खो गयी पनघट पे

मे तो अब कान्हा की हो गयी पनघट पे
स्वरचित हेमा उत्सुक (जोशी)

बँधी है आस
पनघट दीदार
बुझती प्यास

नई दुल्हन
पहन परिधान
रंग-बिरंगे

सिर गागर
मतवाली है चाल
लजाती वधु

कोयल गाती
संगीत पनघट
रचती प्रीत

मेले झमेले
पनघट के रेले
सूनी चौपाल

स्वरचित-रेखा रविदत्त
24/11/18
शनिवार
करे इंतजार वृजबाला
पनघट पर आओ,नंदलाला
काम काज सब छोड़ कर भागी
कब आओगे कृष्ण कन्हाई

पनघट है सूना, तुम बिन कान्हा
मिलने को आतुर है सखियाँ सारी
याद करो कन्हैया तुम,
पनघट पर जब मिलते थे तुम

लाल चुनरियाँ भींगो डाली थी
राधा रानी शर्म से भागी थी
तुम सब भूल गये क्यों?
हम नही भूलें अब तक कान्हा

मुरली लेकर आ जाओ मोहन
गोपियों संग रास रचाओ मोहन
देखो सूरज डूबने को आये
हम सब का मन घबराये

छोड़ो ठिठोली, समझो बात
मोहन प्यारे, रखो मान
बस अब आ जाओ पनघट पर
सारी सखियाँ करे इंतजार।
स्वरचित आरती-श्रीवास्तव।
सायली छंद(प्रथम प्रयास)

पनघट
राधा मोहन
भींगे प्रेम रंग
बाँसुरी संग
बेसुध

पनघट
कदम्ब छाँव
गोपियाँ पड़े पाँव
वस्त्र दो
मोहन!

पनघट
कालिंदी तट 
बजी बाँसुरी अक्षयवट
खोलती पट
रश्मियाँ

पनघट
बना मरघट
बढ़ रहा प्रदूषण
फैलता जहर
कहर

स्वरचित "पथिक रचना"
---------------
न देखा पनघट,न देखी कुइयां
मुझको मिलोगे,तुम कैसे सइयां

तुम बिन अधूरी,तुम बिन अकेली
करती ठिठोली, ये मेरी सहेली

मुझको है पूछे,ये बतियाँ नियारी
मैं हूँ किसकी राधा,रहूँ किस पे वारी

है कौन साजन,जो परदेस में है
किसकी पड़ी है, मुझपे ये छइयां

मैनें कहा कि उसी की मैं राधा
है दूर मुझसे, वो है चाँद आधा

वो ना समझता, उसे जब कहूँ मैं
फिर भी दीवानी, उसी की तो हूँ मैं

मेरी चाह में मुझसे आओ जो मिलने
कहाँ तुम मिलोगे कहे मेरी गुइयां

न देखा पनघट,न देखी कुइयां
मुझको मिलोगे,तुम कैसे सइयां

स्वरचित-राकेश ललित

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