Wednesday, November 21

"शरारत "20नवम्बर 2018


ब्लॉग की रचनाएँ सर्वाधिकार  सुरक्षित हैं एवं बिना लेखक की अनुमति के कहीं भी प्रकाशन एवं साझा नहीं करें |




कुछ शरारत उनकी आँखों में थी, 
कुछ शरारत उनकी बातों में थी, 
मुस्कान यूँ बिखेर देती थी वों, 
कयामत उनकी अदाओं में थी |

अब अंदाज बदलने लगे थे वो, 
आँखों में शरारत फिर भी बाकी थी, 
चेहरा उनका सब बता रहा था,
मोहब्बत अभी हमसे बाकी थी |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*






मन के आकाश का पंछी

स्मृतियों में उड़ उड़ जाए
जब यादें मन को घेरें
मन मन्द - मन्द मुस्काये
होता है बचपन
कितना नादान
भोला और पगला सा
करता है शरारत
पर समझ नही पाता 
शरारत का अंजाम
कभी अध्यापक के लिए
तीन टांग की कुर्सी रखना
उनके गिरने पर
सब बच्चों का हँसना
ये बातें तो आम थीं
मगर एक बार
दोस्त से लड़ाई होने पर
भेजा खत बैरंग
बैरंग यानी 
बिना टिकट का
लिखी गालियाँ
जी भर
और साथ में अपना पता भी
लिखा था खत में
माई का लाल है तो
जवाब जरूर देना
उस घर के लोगों ने
बैरंग खत 
लेने से किया इंकार
तब लौटा था वापस
वही खत हमारे द्वार
डाकिये ने माँगे थे 
पैसे डबल
खोला गया खत
हम काँप रहे थे थर थर
पापा की घूरती आँखे
और एक करारा थप्पड़
चखा था जिसका स्वाद 
पहली बार
हम खड़े थे
आंसुओं की धार लिये
कोने में चुपचाप
अंदर से आ रही थी
ठहाकों की आवाज
शायद सब मना रहे थे
हमारी मासूमियत का जश्न

सरिता गर्ग





नटखट नंदलाला कृष्ण गोपाला

मटकी फोड़े माखन चुराए,
पकड़ा गया,भोला बन जाए।
मात यशोदा से लुका-छिपी खेले,
माटी खाकर मुख नहीं खोले।
माता मैं माटी नहिं खाया,
खोल के मुख जैसे ही दिखाया। 
संपूर्ण ब्रह्मांड था उसमें समाया,
देखकर माता मन चकराया।
गोपियों की नित मटकी फोड़े, 
पकड़े जाने पर भोला बन दौड़
यमुना नहाने गोपियां आईं,
मोहन ने उनकी पोशाकें छिपाईं।
हाथ जोड़ कर करती विनती,
देदो वस्त्र करें न शिकायत उसकी।
कर-कर मासूम शरारतें कान्हा,
सबके मन को भाता कान्हा।
बाल गोपाल की लीला न्यारी,
तीनों लोक उसपर बलिहारी।

अभिलाषा चौहान



शरारत कभी बन गयी है कहानी, कभी बन गयी है आँखों का पानी, 


सदा चलती रही है चलती रहेगी, शरारतों से भरी सभी की जिंदगानी , 

बच्चों की शरारत बचपन की कहानी, लगती है हम सब को सुहानी, 

शरारत जवानी की दिल की रवानी, खुशी बन गयी कहीं गम की निशानी, 

रिश्तों की शरारत हसती जिदंगानी, लगती मन के साजों की मधुर वाणी, 

शरारत की तस्वीर बन गयी छेड खानी, रखें दूर इसको अरज ये सुनानी, 

जो नजदीकियों की बन जाये निशानी, शरारतें वहीं बस हमको चलानी |

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश







लगता कामग्नी से लिपटी , युवती दर्पण विवश निहारे ।
मन मे उठते हुये ज्वार को , देख रही है मन को मारे ।।

-1-
यौवन का पागलपन छाया , लगता पिय से मिलन न पाया ।
कली खिली बन गई पुष्प पर , मधुकर ने रस पी न पाया ।।
खुद का रूप देखकर सोचे , क्यों खाली नैनों के प्याले ।
मनमे उठते हुये ज्वार को , देख रही है मन को मारे ।।

-2-
घुघराले काले बालों को , कुम्हलाये गोरे गालो को ।
मधुरस कोष रिक्त सा झाँके, होठ गुलाबी मधुशालो को ।।
रति, बिन काम लगे कुछ ऐसे ,जैसे फूल बने अंगारे ।
मन मे उठते हुये ज्वार को , देख रही है मन को मारे ।।

-3-
बिना चाँद के व्यथित चाँदनी , स्वर के बिन ज्यों नही रागिनी ।
बिन प्रिय के प्रियतमा अधूरी , जीवन की हो व्यथित कहानी ।।
सबके होते कोई न दिखते , दूर दिखे हर एक सहारे ।
मन मे उठते हुये ज्वार को , देख रही है मन को मारे ।।

राकेश तिवारी " राही 








१/स्मित अंधेरों
जीवन का संबंध,

बहुत है पुराना,
नाता पुराना,
कैसी शरारत है,
प्रेम दीप जलाती,।।
२/बरस बीते,
वसुधा छाती जले,
गगन अग्नि वर्षा,
ये शरारत
कैसी मेघ देवता,
आ के चले ग्रे।।२।।
३/आंचल थामा,
नव संसार मिली
बंधन हम बंधे,
दहेज, बात,
ये। कैसी शरारत,
पास पास रहते।।
४/जेठ तपाया,
वैशाख पे यौवन,
चुपके से आकर,
आया आषाढ़,
प्रेम बूंदें बरसे,
है कैसी शरारत,।।४।।
देवेन्द्र नारायण









हंसते हुये चेहरे से शरारत, हंसते हुये गुलाब ने यूं करी
तुम्हारी मुस्कान ही है इतनी मोहक, गुलाबी सी मदभरी।
अधर है जैसे कोमल,मल्हार गाती गुलाबी दो पंखुङिया
कितना समानीकरण है फिर तेरे और गुलाबों के दरमयां।

झील सी नीली आंखों की शोखियों में खिलता नीला गुलाब
ये कुछ पीले गुलाब, बंया करते हैं तेरी मधुरता और शबाब।
सादगी और मासूमियत तुझमें फिर उस सफेद गुलाबों सी
तेरी घनेरी जुल्फें ओस भीगी बिरहन है काले गुलाबों सी।

तुम्हैं रक्खूं सहेज कर किताब में तुम प्रेम कहानी सी रूहानी
मंत्रमुग्ध सी सुगन्ध को बिखेरती भीनी भीनी गंध जिस्मानी।
शरारती प्यार के रंग मे रंग जाओ शाम रूमानी सी गा जाओ
शूल में खिलती सी तुम हंसता हुआ फूल गुलाबी बन जाओ।

---------------डा. निशा माथुर








आज मुझे शरारत करने दो, 
मुझे भी बचपन में जीने दो,

बचपन वाला गिल्ली डंडा, 
फिर से एक बार लहराने दो ll

वो कांच की गोलियाँ , 
बच्चो की वो टोलिया, 
आज फिर शरारत करने को, 
मन चंचल फिर हो लिया ll 
मुझे आज..... 
वो साइकिल की हवा निकालनेदो, 
अब स्कूटी की हवा निकालने दो, 
जब पीछे पड़ते कल्लू काका, 
फिर से एक बार मार खाने दो l
मुझे आज..... 
कुसुम पंत उत्साही 








क्यों हो उदास?
शरारत नहीं करोगे?
जिंदगी में
खुशियों के रंग नहीं भरोगे?
घर के कोनों को भी
तुम्हारी ख़ामोशी
बहुत चुभती है
तुम करते हो शरारत
हर कोना मुस्कुराता है।
खुशियों को यूं न मायूस करो
करती रहो शरारत
धड़कन खुशियों की महसूस करो
तुम चुप न बैठो
सिमट जाती है खुशियां किसी कोने में
कुछ खो जाता है
बिखरती है खामोशियाँ
मन अकुलाता है
शरारतें जिंदगी में इंद्रधनुषी रंग भरती हैं।
न बांधो इन्हें जंजीरों से
जिंदगी भी तो 
उदासियों से डरती है।
••••••••••••••••••••••••••••••••••
स्वरचित:शैलेन्द्र दुबे 


------***-------
जिनकी शरारतों से
गूंजती थी हर गली
आज किताबों के बोझ तले
दब गई उनकी हंसी

शरारतें उनकी करती थी
हमको हंसने पर मजबूर
आज अकेले रहते रहते
खुद गए हंसना भूल

रिश्तों की बगिया में कभी
खिलता था बच्चों मन
आज शरारत कैसे करें
सूना है उनका बचपन

अब बैठना सीखते ही
बालवाड़ी की ओर चले
मां-बाप बिचारे अॉफिस में
वो आया की गोद में पले

घर में बंद,स्कूल में बंद
बंधा-बंधा उनका जीवन
शरारतें करने बैठे तो
कैसे पढ़ाई में आएं अव्वल

बदलते हैं तौर तरीके
बचपन उनका महकाते हैं
साथ उनके बच्चे बन कर 
हम भी शरारत करते हैं
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना




No comments:

Post a Comment

"अंदाज"05मई2020

ब्लॉग की रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं बिना लेखक की स्वीकृति के रचना को कहीं भी साझा नही करें   ब्लॉग संख्या :-727 Hari S...