Monday, November 12

"स्वतंत्र लेखन "11नवम्बर 2018

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विषय,,,मतदान जागरूकता
विधा,,गीत

सुन लो बहनों,भाई सुन लो
सुन लो सकल जहांन।
चलों करें मतदान साथियों
चलों करें मतदान।।

जगह जगह पर डेरा डालें,रावण बैठें पाँव पसारे।
शबरी की कुटिया को छीना, जन मानस को घूर निहारे।
अत्याचार मिटाना हो तो ले आओ हनुमान।
चलों करें मतदान साथियों, चलों करें मतदान।

सफल नागरिक हो भारत के,करो काम तुम सोच समझ के।
पहले अपना मत डालो तुम,बड़ा काम यह सबसे हट के।
यदि चाहते हो भारत का सुंदर बने विधान।
चलों करे मतदान साथियों चलों करे मतदान।।

नहीं अगर तुम मत देते हो,खुद को ही तुम छल लेते हो।
अत्याचारी बनते शासक,पांच साल उनको सहतें हो।।
लूट के भरते फिर घर अपना,,बनते बड़े महान।
चलों करें मतदान साथियों, चलों करें मतदान।।

अपने मत से किस्मत बनती,टूटी सब तकदीर सँवरती।
सच्चे सेवक के हाथों में,देश कि हर तश्वीर निखरती।
हम भारत के भावी रक्षक,इसका हैं अभिमान।
चलो करें मतदान साथियों,चलो करें मतदान।

शिव कुमार लिल्हारे,,अमन,,
बालाघाट
मध्यप्रदेश

विधा.. लघु कविता 
*******************
🍁
कैसे कहना है मुझको,
ये बात समझ ना आए।
शब्द तो आते है होठो पे,
पर बात निकल ना पाए॥
🍁
शर्म के तटबंधो को तोडूं,
दिल की बात बताऊ ।
प्रणय मिलन की बाते प्रियतम,
मन मे रोक ना पाऊ॥
🍁
ऋतुओ ने ली है आलिग्न,
शरद ने भाव जगाए।
बिन बोले मन भाव समझ लो,
लाज मुझे अब आए॥
🍁
भावों के मोती से भरे मन,
झलकत मोरा जाए।
शेर कहे ये ऋतु है पिय की,
मन मे प्रीत जगाए॥
🍁
स्वरचित... Sher Singh Sarraf



स्कूल में प्रवेश करते बच्चों के एक समूह पर
📝📝📝📝📝📝📝📝📝

मैं अक्सर सोचा करता हूँ,
क्या करुँ मन्दिर जाकर,
इनमें ही है राधा पगली,
इनमें ही है करुणाकर।

यह निश्छलता की बहती धारा,
प्रकृति ने ही जिसे निखारा,
निर्मलता दे इसे सँवारा,
सारा भोलापन इस पर वारा।

जहाँ हैं ये वहीं हैं धाम,
वहीं आत्मा का विश्राम,
चाहे कोई पुकारो नाम,
हँसते मिलेंगे राधे श्याम।

जहाँ कहीं भी भावना बहती,
वहीं कहीं कविता भी रहती,
अन्तरमन के उदगार आते,
अपनी शैली में यह सबको कहती।

कृष्णम् शरणम् गच्छामि

स्वरचित 
सुमित्रा नन्दन पन्त 
जयपुर



कशमकश🌷🌷

मन न माने दिल की, 
दिल न माने दिमाग की, 
एक युद्ध छिड़ा अंतरतम में, 
एक द्वंद्वं मचा है जीवन में। 
जब खुद को ही न सम्हाल सके, 
तो दुनिया कैसे सम्हालेंगे? 
मन उडता है नीलगगन में, 
दिल डूबा है भाव समंदर में, 
दिमाग भिडाता तिकड़म है, 
ऊहापोह का ये जीवन है, 
कैसे इनको हम समझाए! 
जब तक न तीनों साथ चले, 
मंजिल को पाना मुश्किल है। 
जब तक खुद को न जीत सके, 
तो दुनिया कैसे जीतेंगे?? 
आधी उम्र बीती उलझन में,
आधी बीती इन्हें सुलझन में, 
जब तक इनसे हम उबरेंगे, 
उमर की गगरी रीतेगी! 
जिंदगी कशमकश की, 
ऐसे ही ये बीतेगी। 

अभिलाषा चौहान
स्वरचित


नैंनों से दो बोल कह फेका प्रेम का जाल
प्रेम जाल में फंस गया और कहूं क्या हाल।

प्रेम का पथ मेरे लिए बना जी का जंजाल
चलते चलते थक गया मैं हो गया निढाल।

दुखिया जीवन का मेरे पूछ न मेरा हाल
प्रेम छुरी कतरा कतरा करता मेरा हलाल।

कर तो दूं महबूब से अभी बग़ावत यार
पर दुनिया इस बात पर खड़े करेगी बवाल।

अबतक है इस बात का मुझको बड़ा मलाल
प्रेम नहीं आसान है क्यों न किया ख़याल।

दिन हफ्ते बीते मेरे और बीते महीने साल
एक पहेली बन गया मैं खुद बना सवाल।
"पिनाकी"
धनबाद(झारखंड)
#स्वरचित_मौलिक_स्वप्रमाणित




 ग़ज़ल -एक प्रयास

दिल की पहली अँगड़ाई थी

कुछ सूरत भी वो पाई थी ।।

उसकी नजरें इन नजरों से 
अन्जाने में ही टकराई थी ।।

दौर चला था देर तलक वो
कल की सब विसराई थी ।।

चाँद भी आज हँसता होगा 
घड़ी यूँ ही वो गँवाई थी ।।

आँखों आँखों में मिलना 
ये प्यार की इब्तिदाई थी ।।

इब्तिदा ही हुई थी कि 
आ गई बेरहम जुदाई थी ।।

उन लम्हों की आज तलक
''शिवम्" हो न पाई भारपाई थी ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 11/11/2018



बहुत आदत है मुस्कुराने की।
क्या अदा है हमें सताने की। 


जब भी चाहो तो जान ले लेना। 
करो न कोशिश यूं आजमाने की। 

जब से देखा है नींद रूठ गई। 
क्या सजा है ये दिल लगाने की।

शर्म से चांद छुपा है बदली में। 
है कोई हद ही नहीं बहाने की। 

सर के बल चलके हम जरूर आते। 
तुम्हीं ने कोशिश न की बुलाने की। 

चलो आएंगे कभी मिलने को मगर। 
क्या भला उम्र है गुल खिलाने की। 

नेक- नामी है बहुत सरमाये को। 
अगर है बात जो कुछ कमाने की। 

हर मासूम पे इल्जाम है सोहल। 
यह रवायत है इस जमाने की। 

विपिन सोहल




बारहा आपको देखती रह गई

आज तक यूं प्रिये आपकी रह गई।

पास आकर हमें देखने जो लगे
तो नजर बस नजर से मिली रह गई।

ये न सोचो कि पूरी हुई बात सब
कुछ कही कुछ अभी अनकही रह गई।

छोड़कर जाने की जो कही आपने
रूह मेरी सनम काॅंपती रह गई।

दिल धड़कने लगा अश्क बहते रहे
प्यार में मैं तुम्हारे ठगी रह गई।

इक तुम्हीं से हमें थी उम्मीदें बहुत 
ख्वाहिशें अब दबी कि दबी रह गई।

दूर जाने का क्यूं फैसला कर लिया
क्या मुहब्बत में मेरे कमी रह गई।

इति शिवहरे


🌸गजल 🌸
🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸
नेह का डोला रजनी के आगोश सजाया करो, 
नीदिया रानी चुपके चुपके तुम चली आया करो।

चंद्रमा का पलना चाँदनी गाय लोरियां,
रात सितारों के संग झुला झुलाया करो।

होठ खुलने के ही पहले आँखें कह जाती सबब,
इन लबों कि थरथराहट भी समझ जाया करो।

ख्वाब पलकों मे सजाएं ख्वाईशों ने रातभर,
नीदिया रानी तुम भी खयालों को सहलाया करो।

हे दिवाकर लालिमा लेकर चले आया 
रश्मियों को घेरकर बस यूं जगा जाया करो।

भोर कि अरुणिमआभा,चहचहाते ये विहग,
रात की धुंधली हटाने आदि तुम आया करों।
0
सूर्य ने जग जगमगाया भोर गाये भैरवी,
नाद ब्रम्ह गूँज उठे रागिनी गाया करो।

खूबसूरत ये फिजाओं छेड दो मोसम का राग
दीप रोशन हो चुके मल्हार गुनगुनाया करो।

🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸
*रागिनी नरेंद्र शास्त्री*
* दाहोद(गुजरात) *




कहमुकरी
-----------------------
सारी दुनिया, सैर कराता ।
जो चाहूँ सम्मुख आ जाता ।।
अजब गजब की, उसकी भेंट ।
क्या सखि साजन, न सखि नेट ।।

सदा प्यार से, मै सहलाऊँ ।
अँगुली का स्पर्श, कराऊँ ।।
बिन उसके, गायब इस्माइल ।
क्या सखि साजन, न मोबाइल ।।

प्रेम मधुर मन, गीत सुनावै ।
रिमझिम बन, फुहार बरसावै ।।
तनमन प्रीति जगे, मनभावन ।
क्या सखि साजन, न सखि सावन ।।

काम जगे, सुनि आहट पावै ।
दूर रहे पर, पास न आवै ।।
बिरह अग्नि, भडकावै जिया ।
क्या सखि साजन, न सखि पपिहा ।।

जिसकी हूँ मै, प्रेम दिवानी ।
भूल गई , खुद की जिन्दगानी ।।
सुधबुध खोय रहूँ, हर पहर ।
क्या सखि साजन, न सखि गजल ।।

राकेश तिवारी " राही "



गुनगुनाएँ संग-संग वो रागिनी अर्पण तुझे।
देखती हो आसमां से आज भी तुम बस मुझे।

आज भी तन्हा खड़ा हूँ मन रेतीला सा लिए
दर्द के सागर को थामे चुप हूँ होठों को सीए
बिन आवाज है साज मेरा राग भी है खो गया
आंसूओं में दर्द बह खारा समंदर हो गया

वीरानों में दिल तड़प-तड़प आवाज देता है तुझे।
देखती हो आसमां से आज भी तुम बस मुझे।

कैसा फसाना बन गया कि मैं कहाँ हूँ तू कहाँ
अक्स तेरा बन गया है जर्र्रा -जर्र्रा ये जहाँ
कैसे भटके राही दो मंजिल बेगाना हो गया
हम चले राहे वफा दुश्मन जमाना हो गया

प्यासी है दिल की सरजमीं सावन बुलाता है तुझे। 
देखती हो आसमां से आज भी तुम बस मुझे। 

उषा किरण




विषय -अहसास 

जिंदगी बिखर कर भी नहीं बिखरी ,
नहीं बिखरने दिए अहसास अपने ।
होने लगे जब भी यह पत्थर के ,
यादों के फूलों से सज़ा लिए सपने ।

अहसास ही धड़कते हैं दिल में ,
बनाया प्रेम ने ठिकाना दिल को ।
बिखरे काँटे थे राहों में अनेक ,
इसने पता न दिया मुश्किल को ।

भाव उमड़ते रहते हैं हमेशा ,
सृष्टि का कारोबार है चलता ।
हर रिश्ते की बुनियाद में हैं ये,
इस से जग में प्यार है पलता ।

इनकी महक छू लेती है दिल ,
बिना पूछे साथ है चले आते । 
दिल की छोटी सी बस्ती में , 
चुपचाप बहुत शोर हैं मचाते ।

बुनते हैं अहसासों के तिनके ,
घरौंदे दिल की शाखाओं पर ।
सह लेते हैं ज़माने की सज़ा ,
चढ़ सूली की शलाकाओं पर ।

स्वरचित--
ऊषा सेठी 
सिरसा 125055 ( हरियाणा )




दर्पण से दरकते
और
दीवार की खूंटी में जिगर टांगे,
अब के आदमी।

सुनहरे ख्वाब पाले,
अनगिनत ख्वाहिशों के साथ,
हर पल धड़कता..
तुम्हारा मासूम दिल।
इन आदमियों में,
आदमियत खोजती,
तुम्हारी निगाहें।

मैं सोचता हूं
बस
आज है आखरी दिन,
कल से तुम भी नजर आओगे
मेरे ही कातर कतार में।

और तुम..
मेरे खयालात को झुठलाते,
उम्मीद की जुगनू
हर स्याह रात,
पकड़ लेते हो
रोशनी की चाह में।

तुम्हारे
इस जज्बे को
मेरा दिल से!! सलाम!!!




विधा: ग़ज़ल - तुम ठहर जाओ कभी 

जनाब मिर्ज़ा ग़ालिब साहिब की एक ग़ज़ल है "आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक...कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक" इसी ज़मीन में लिखी मेरी यह ग़ज़ल आपकी नज़र......

तुम ठहर जाओ कभी, शब् के सहर होने तक.... 
चैन साँसों को मिले, ख़त्म सफर होने तक.... 

चल चलें और कहीं दूर उड़ें हम तब तक.... 
खवाब आँखों में सजाये, जो नज़र होने तक.... 

तुम चमक हुस्न अदा शोख पे इतराओ क्यूँ.... 
फूल में नूर-न-बू इश्क़ नज़र होने तक... 

इश्क़ विश्वास ज़रूरी है निभाने के लिए.... 
शक मगर जाए न, रिश्तों के ज़हर होने तक.... 

आदमी कौन बुरा कौन यहां अच्छा है.... 
आस्तीन सांप है, डसने की ख़बर होने तक...

सबको मालूम वफ़ा इश्क़ जुनूँ का अंजाम.... 
कौन परवाह करे, राख जिगर होने तक.... 

आज फिर तुमने रुलाया-ओ-सताया मुझको.... 
याद जाए न तेरी, मौत 'चँदर' होने तक.... 

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
११.११.२०१८

बना कर ऊंची हवेली
दिल का सुकून ढूंढ़ते हैं
खींच कर दिलों में लकीरें
मिलने की वजह ढूंढ़ते हैं
दफ़न हो रही प्रेम की दौलत
इन सजावटी दीवारों में
इस तो अच्छेे हैं वो 
जिनके घर छोटे होते हैं मगर
वो लोग दिल के अमीर होते हैं
बन जाती छोटी-छोटी खुशियां
उनके लिए एक त्यौहार
संकट में एक-दूजे 
साथ खड़े होते
सुख-सुविधा न हो
पर दिल बड़ा रखते
छोटे से घर में भी
मिलजुलकर रहता परिवार
प्रेम बरसता प्रतिफल वहां
होता शांति का आवास
कितने भी हो ऐशो-आराम
पर खुशियां नहीं मिलती
दिल को सुकून मिलता
अपनों के प्रेम से
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित कविता 



बिषय - प्रेम, प्यार, प्रीत

प्रीत के धागे उलझ गए मन है डावाडौल,
धागों को मत खींचिये प्यार बने अनमोल।

अन्तस की यह भावना तन मन सहला गई ,
अधरों पर आये शब्द दिल को सुना गई ।

दिल है मेरा बावरा समझ न पाया प्रीत ,
चहुँओर जिसको ढूंढती वह है मन का मीत ।

मीत बिना जिया न लागे दिवस कटे न रैना,
कहाँ छिपे हो तुम सांवरे ढूंढे तुझको नैना।

साजन जी मैं माँगती एक वचन करजोड़,
साथ कभी मत छोड़ना दिल के तार रख जोड़।

स्वरचित लता कुसुम चाँडक




वक्त -वक्त की बात है 
जीवन नहीं आसान है 
वक्त जब मारता पलटी
जीवन नरक समान है 

जो दाव वक्त ने खेला है 
गुरु भी बन गया चेला है 
कर जाए जो लापरवाही
वक्त ने किया अकेला है

कल तलक जो राजा था
वक्त के आगे बना फकीर
वक्त किसी का नहीं होता
छोड़ना पड़ जाता शरीर

कभी ना करो घमंड बन्दों 
वक्त किसी का सगा नहीं
चाहे कितना भी जोर करो
वक्त को किसी ने ठगा नहीं

समय का भरोसा नहीं है
पल में प्रलय आ जायेगी
लाख दुःख भले हो लेकिन
पल में जिंदगी सँवर जाएगी

वक्त बड़ा बलशाली होता
आज तक कभी हारा नहीं
निरन्तर वो चलता रहता है
थककर के कभी रुका नहीं

वक्त बड़ा अनमोल "जसवंत"
पल- पल को जिया करो 
व्यर्थ में जिंदगी न निकालो
वक्त का सब सदुपयोग करो 

कवि जसवंत लाल खटीक
देवगढ़ , राजस्थान




वक़्त से एक अजीब सी शिकायत है मुझे,
ये वक़्त मुझे वक़्त नहीं देता,
मौका तो देता है,पर अवसर नहीं देता...
साथी तो देता है,पर साथ नहीं देता..
वक़्त तो देता है,पर समय नहीं देता...
ऊँचाई तो देता है,पर आसमान नहीं देता..
हमदम तो देता है,पर हमसफर नहीं देता...
मंजिल तो दिखाता है,पर साहिल नहीं देता...
खुशबू तो देता है,पर गुलिस्तां नहीं देता!

ये वक़्त! सब कुछ तो देता है!
पर सब कुछ नहीं देता!
ये वक़्त मेरा मुझे दिन तो देता है,पर रात में 'दिन' नहीं देता!
सुकून तो देता है,पर आराम नहीं देता,
शोहरत तो देता है,पर खुद की पहचान नहीं देता,
दौलत तो देता है,पर मुझे 'मेरा' ही वक़्त नहीं देता!
दूसरों को तो देता है,पर मुझे खुद "मैं"नहीं देता!
दूसरों को तो देता है,पर मुझे खुद "मैं"नहीं देता!

किरण खत्री
उदयपुर (राज)

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