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धरती का सितारा हूँ,
दिन-रात फिरता हूँ,
जैसे टूटता तारा हूँ |
रौशनी है बेशुमार मुझमें,
फिर भी रौशनी की तलाश,
में फिरता मारा-मारा हूँ,
मैं धरती का तारा हूँ |
ऐ चाँद! है गुज़ारिश मेरी,
रात का कुछ हिस्सा मेरे,
नाम भी करके देखना जरा,
जगमगा दूँगा मैं भी पूरी धरा |
स्वरचित* संगीता कुकरेती*
देखकर जुगनुओं का दमखम
सारी रात सोये न सोचे हम ।।
चाँद का क्या भरोसा आखिर
कभी अमावस तो कभी पूनम ।।
चलता है लेकर स्वयं का प्रकाश
नही रखता वो किसी की आस ।।
देता नसीहत सबको बनो सम्पूर्ण
रखो सिर्फ स्वयं पर विश्वास ।।
अक्सर अँधेरों में लोग छोड़ते साथ
जुगनू के साथ शायद हुई है घात ।।
उसने छोड़ दिया भरोसा ''शिवम"
आज मिसाल बने उसके जज्बात ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 12/11/2018
खो गई राहें मगर मंज़िल की जुस्तज़ू आज भी है।
कुछ कमी सी पाते हैं अबकी बहार में न जाने क्यों
गो, फूलों में नकहत, चमन में रंग ओ बू आज भी है।
न अश्क़ बहे,न लब हिले,न हाथ उठे,वकत-ए-रुखसत
दूर खलाओं में गुम नज़रों की याद वो गुफ़्तगू आज भी है।
बड़ी हसरत से उठती है निगाहें ज़ानिबे-फ़लक,हो न हो
मेरी दुआओं में शामिल कहीं न कहीं , तू आज भी है ।
ज़िंदगी तुझसे मुतासिर हूँ , तनहा नहीं रहने दिया कभी
तीरगी में जगमगाते यादों के बेशुमार जुगनू आज भी है ।
वो हम नहीं, वो तुम नहीं, अब वो पहले सा दौर भी नहीं
दिल में इक हल्की सी कशिश न जानें क्यूँ आज भी है ।
तेरे हवाले से ग़म-ए-फ़ुरक़त भी सह लिया हमने, वरना
वही नाकाबिल-ए-ऐतबार रिश्ते,हमारे रुबरू आज भी है ।
नज़रों की हद तक फैली है अफ़सरदगी ही अफ़सुरदगी
ख़ुशी की तवकको,इस दिल में,किससे कहूँ आज भी है।
ऐ ख़िजृ ! तेरे सम्हाले से सँभल गई ये ज़िंदगी तो क्या
वही है आलमे-वहशत अभी, वही अँदाज़े-जुनूँ आज भी है ।
(C)Bhargavi Ravindra ...
गो -यद्यपि , नकहत - ख़ुशबू , वकत ए रुखसत - बिछडते समय
ख़ला - शून्य , गुफ़्तगू -बातें , ज़ानिब ए फ़लक - आसमा की ओर
मुतासिर -प्रभावित , तीरग़ी - अँधेरा , ग़म ए फ़ुरक़त -जुदाई का ग़म
रुबरू -सामने , अफ़सुरदग़ी -उदासी , तवकको - उम्मीद , खिज़ृ -मार्ग दर्शक
अंधेरे के
इस दौर में
बस एक जुगनू की तलाश है।
जुगनू से ही
प्रकाश की आस है।
रास्ता भटक न जाऊं
इस अंधियारे में
मन आकुल व्याकुल है।
संवेदनआएं
आहत है
समय प्रतिकूल है।
आदमी
आदमी को डसता है।
अंधेरे का लाभ उठा
कुरूपता लिए
पाशविक भावों में कसता है।
मन छटपटाता है
कसमसाता है।
दूर दूर तक रोशनी नजर नहीं आती।
रोशनी भी कहीं कैद है।
जीवन में
अनवरत संघर्ष है।
अंधेरे में कहाँ कुछ सूझता है।
इससे लड़ने के लिए
संघर्षरत हूं
ज्योति पुंज की तलाश है
मैं संघर्षों से नहीं घबराता
अनवरत प्रयासरत हूं।
पथिक हूं
आगे बढ़ना चाहता हूं
मेरे हाथ में
अपना हाथ दो
जुगनू खोज रहा हूँ
साथ दो।
आदमियत को
आलोकित करने
एक जुगनू विश्वास का
उसी के सहारे अंधेरे से लड़ लूंगा।
इंसानियत के माथे पर
रश्मिपुंज किरीट जड़ दूंगा।
•••••••••🌼🌼🌼•••••••••••••
स्वरचित:शैलेन्द्र दुबे
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लें निशीथ में रोशनी , नभ तारे आकाश ।।१।।
टिमटिम करती झाड़ियाँ , मनहुँ जगे है ज्योत ।
रूहें बनकर घूमते , ये नन्हे खद्योत ।।२।।
रत्न बिखेरे रात है , जब होती बरसात ।
दीप्त करें जुगनू फिजाँ , क़ुदरत की सौग़ात ।।३।।
तारे निशि की आँख के , नाम दिया खद्योत ।
रत्न जटित तरु दीखते , आभा के हैं स्रोत ।।४।।
जुगनू जल में हैं जलें , जब होती बरसात ।
आग लिए हैं घूमते , गहन अँधेरी रात ।।५।।
बुझा न पाएँ आँधियाँ , और नहीं बरसात ।
पानी में जगती फिरे , जुगनुओं की जमात ।।६।।
विरहिण जुगनू से कहे , क्या ढूँढे वन जाँहि।
ले दीपक क्यों ढूँढता , प्रेम बसे मन माँहि ।।७।।
चले प्रभंजन तिमिर में , हो कितना आतंक ।
कर्म वीर जुगनू बने , हो नभ नहीं मयंक ।।८।।
बच्चे जुगनू पकड के , करते मुट्ठी बंद ।
रहे बेचारा चीख़ता , करे रोशनी मंद ।।९।।
स्वरचित:-
ऊषा सेठी
सिरसा १२५०५५ ( हरियाणा )
रात की तन्हाई ख़ामोशी बन में समा गई
दिल के कोने में कुछ अनदेखे ख्वाब जुगनू बनकर दिल में उतर गई .
मोह माया के जाल में ये दिल मेरा उलझ गया
जुगुनू बनकर बस ऐसे ही दिल की गलियों में खो गया .
कुछ ख़्वाबों को मेरे दिल में आने दो
जुगुनू हूँ मैं कुछ हसीन खूबसूरत रातों का .
अँधेरी रातों का होना भी ज़रूरी हैं
दिन के उजालों में जुगनू की रौशनी नजर नहीं आती .
रीताबिष्ट
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जय जय जय हे दीनदयाला
दूर करें प्रभु कुत्सित माला।
जो भरी मानसिकता में मेरी,
जुगनूं बन कैसे ढूंढूं ये हाला।
मनमानस में मलीनता छाई,
अंतरतम आलोकित कर दें।
दीप जलें भले जुगनूं से पर,
ये मनमंदिर प्रकाशित कर दें।
खोजा नहीं मिला ज्ञानपुंज,
जुगनूं सा कोई तो मिल जाऐ।
अंधकार मिटे अंतस का मेरा,
प्रकाश पुंज कोई मिल जाऐ।
प्रभु ज्ञानचक्षु खुल जाऐं मेरे,
प्रेम पुष्प विकसित कर देना।
जलें दीपमालिकाऐं जुगनूं सी,
मेरा हृदय सुरभित कर देना।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
मैं अज्ञानी नही,ज्ञानी हूँ मैं
अपने हिस्से की रोशनी फैलाऊँ
जग का अंधियारा अपने हिस्से का
मैं मिटाऊँ
भूले पथिक को राह बताऊँ,
अलौकिक नही है मेरी रोशनी
वाद,विवाद में नही समय गवाऊँ
मैं जुगनू प्रकाश फैलाऊँ
अपने हिस्से का अंधियारा मिटाऊँ
गर चाहिए शांति जग मे
क्यों दूसरो को उलाहना दूँ
अपने हिस्से की अशांति खुद मिटाऊँ
जुगनू हूँ मैं शांति का प्रकाश फैलाऊँ
दुनिया भागे जगमग के पीछे
अपने हिस्से का मैं जगमग बचाऊँ
यूं अपना अस्तित्व बचाऊँ
मैं जुगनू, प्रकाश फैलाऊँ
हो गर अमावस्या की रात
याद करे जुगनू की टिमटिमाते प्रकाश
जब न सुझे हाथों को हाथ
तब जुगनू के प्रकाश लगे खास
बन जुगनू किसी के जीवन की
अंधियारा मिटाऊँ
अदान प्रदान कर अपने प्रकाश का
सारे जग का अंधियारा मिटाऊँ
मैं जुगनू प्रकाश फैलाऊँ।
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।
--*--*--*--*--
इरादे थे मजबूत
निकल दिए सफर पर
राह में थे कांटे मगर
मंजिल पाने की आस लिए
आंखों में थी जुगनू सी चमक
छूने चल दिए आकाश
अपनों ने रोका
गैरों ने टोका
रास्तों को हमारे
पत्थरों से रोका
इरादे थे मजबूत
कदम बढ़ते गए
ख्वाबों के जुगनू
जगमगाते रहे
मंज़िल के अपनी
करीब आ गए हम
मिली कामयाबी
ज़माने बदल गए
अपनों के अब देखो
जज़्बात बदल गए
लगाने गले भीड़ बढ़ने लगी
किस्मत पर हमारे
रश्क करने लगी
सितारों से तुलना
लगी करने हमारी
मगर मस्तमौला है
फितरत हमारी
सितारा नहीं जुगनू
बन कर ही खुश हैं
मंज़िल को पाकर
हम बहुत खुश हैं
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित कविता
----------------------------
-1-
जुगनुओं की भाँति, टिम-टिम कर रहे हो ।
घोरतम छाया तिमिर, तुम डर रहे हो ।।
ज्ञान का दीपक जला हिलमिल रहो जी ,
जाँति- धर्मों मे उलझ, क्यों लड रहे हो ।।
-2-
जुगनू बनकर क्या, तिमिर मिट पायेगा ।
व्यर्थ जीवन का सफर, कट जायेगा ।।
गर चमकना है दिवाकर तुम बनो ,
नाम स्वर्णिम पृष्ठ पर, लिख जायेगा ।।
राकेश तिवारी " राही "
दुख की रात घनी कितनी हो,
घिरे संकट के बादल हों,
मन में आस तब चमके ऐसे,
अंधकार में चमके जुगनू जैसे।
मंजिल मुश्किल कठिन डगर हो,
कंटक राह में कितने बिछे हों,
उस क्षण हिम्मत ऐसे काम आए,
तम में जुगनू जैसे चमक दिखाए।
दुख स्थायी इस जीवन में,
कष्ट अमिट हैं इस जीवन में,
सुख आते ऐसे जीवन में,
जैसे जुगनू चमके जंगल में।
जब आती है घोर निराशा,
मन में अंधकार का वासा,
साथ शत्रु न मीत कोई हो,
तब जिजीविषा जाग्रत हो ऐसे
अंधकार में जुगनू चमके जैसे।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
जुगनू की चमक हूं, सूरज का उजाला नहीं हूं मैं
हंसी बिखेरता हूं हर ओर, रुलाने वाला नहीं हूं मैं
अपनी लेखनी की औकात पता है मुझे दोस्तों
मैथिली ,बच्चन,पन्त या निराला नहीं हूं मैं
मैं चाहता था बनना... ...
सूरज का उजाला
चांद की चांदनी
दिये की रौशनी
मैं चाहता था बनना........
किसी की आंखों का काजल
किसी की आंखों का ख्वाब
किसी की आंखों का तारा
मैं चाहता था बनना.....
किसी के दिल का प्यार
किसी के दिल का करार
किसी के दिल की धड़कन
पर बन के रह गया......
जुगनू की चमक
आंख का आंसू
और.. दिल का गुबार
टूट कर ये सारे के सारे बिखर जायेंगे
ठुकरा दे आसमां तो तारे किधर जायेंगे
तुमने रोशन जो चप्पा-चप्पा कर दिया तो
फिर ये जुगनू बेचारे किधर जायेंगे
मुद्दतों अपनी आंखों में पाले रखा है
जुगनुओ को पलकों पे सम्हाले रखा है
जलते- बुझते इनकी रौशनी से ही
सूने घर में अपने कर उजाले रखा है
१.
तम का नाश
विश्वास की जीत
जुगनू दीप
२.
अरि अँधेरा
जुगुनू जैसा मित्र
राह दिखाए
३.
नभ सितारे
प्रकृति चमकाए
जुगुनू दीप
४.
आस विश्वास
जुगुनू का सन्देश
अंतस दीप
II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II
हाँ मगर हद से जियादा फिर मैं याद आऊँगी ।
न तेरे साथ जीने का कोई वादा था किया,
न तेरे संग चलने का कोई भी इरादा था किया।
झील थी तैरते बतख थे गवाह
जब हमने बाँधी थी डोर,
देखना याद में मेरी चुपके से भींग जाऐंगे तेरे नैनों के कोर।
एक सुबह ने इक शाम का आलिंगन था किया,
शाम ने सुबह के माथे पर तब चुम्बन था लिया।
सर्द गालों पर मेरी छुअन को महसूसना,
नेह में डूबी सी प्यारी सी वो संवेदना ।
बिन मेरे भोर तो होगी कि न जिसमें लाली,
बिन मेरे शाम भी आएगी उदासी वाली।
किसी झड़ने से झड़ेंगी स्मृतियाँ मेरी,
कि पतझड़ भी मेरी यादें बिखेड़ जाएगा।
किसी बादल से कहोगे कि वो दिखलाए तुम्हें मेरी छवि,
वो तेरी पलकों पे बूंद बनके ठहर जाएगा।
मोड़ पर पेड़ भी होगा वही जुगनू वाला,
मुँह चिढ़ाएगा तुम्हें छत वो चाँद सितारों वाला।
पहाड़ियों की हवाओं में तुम्हें आएगी मेरी हीं महक,
मेरा अहसास बढ़ा देगा दिल में और कसक।
जब पुकारोगे मेरा नाम तुम घाटी में कहीं,
तब मचलती सी लौट आएगी अनुगूंज वहीं।
जो किसी झील के किनारे पर होगी तुम्हारी सुबहो-शाम,
दूर मंदिर की घण्टियाँ तब उचारेंगी मेरा हीं नाम।
कि किताब जब भी पलट लोगे तुम मेरे गीतों वाली,
आँखे रह जाऐंगी फिर नींद से खाली-खाली ।
तेरी आवाज सुने बिन मैं भी कैसे रह पाऊँगी,
हूक मन हीं में छुपा के मैं सब के बीच मुस्कुराऊँगी।
तुम महक किसी लोबान की तुम पीर की आराधना,
जीना तो होगा तेरे बिन चाहे लाख हो मन अनमना।
स्वरचित"पथिक रचना"
डमरू एक प्रयास
जुगनू
13/11/2018
जब चाँद खो जाता
अँधेरा डराता
राह दिखाता
चमकता
जुगनू
नन्हा
ये
कीट
दमके
स्वयं जले
संबल बने
राही भटकते
रोशन कर जाये
कुसुम पंत उत्साही
स्वरचित
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