रचना क्रमांक-०१
- लावणी छंदारित सृजन
मात्रा विधान -१६,१४ की यति से =३० । अंत १ या २या ३गुरू वाचिक
वस्तु चीन की मत अपनाना, अबकी बार दिवाली में।
मिट्टी के सब दीप जलाना, अबकी बार दिवाली में।।
प्रेम भाव बस रखना मन में,नहीं नफरतें दिल में हो।
बैर भाव मन अहम न लाना, अबकी बार दिवाली में।।
तेज पटाखें नहीं फोड़ना, ध्यान धरा का सब रखना।
फुलझड़ियों से काम चलाना, अबकी बार दिवाली में।।
अनजाने जो भूल हुई हो, खत्म करो मन से सारी।
कड़वाहट तुम सभी भुलाना, अबकी बार दिवाली में।।
जाँति-पाँति अरु ऊँच-नीच सब,ऐसे भाव न मन में हो।
सारे इंसानियत दिखाना, अबकी बार दिवाली में।।
दरमियां न अब रहे फासलें, रखो ध्यान इन बातों का।
दूरी मन की सभी मिटाना, अबकी बार दिवाली में।।
चमक-दमक अरु धूम धड़ाका, दूर रखो सब बच्चों को।
कपड़े सूती ही पहनाना, अबकी बार दिवाली में।।
मात-पिता की बातें सुनना,नित्य मान उनका करना।
कसमे वादें सभी निभाना, अबकी बार दिवाली में।।
शिकवे गिले किसी से भी हो, भूलो तुम उन सारो को।
रूठे हैं जो उन्हें मनाना, अबकी बार दिवाली में।।
हिंदू-मुस्लिम सिख- ईसाई, भाव नहीं मन में रखना।
मानवता की अलख जगाना, अबकी बार दिवाली में।।
तेरा मेरा इसका उसका, त्याग करो इन भावों का।
समानता का पाठ पढ़ाना, अबकी बार दिवाली में।।
भाई-भाभी चाचा- चाची, आपस में सब मिलकर के।
गीत सभी खुशियों के गाना, अबकी बार दिवाली में।।
ईर्ष्या द्वेष नहीं हो मन में, झूठ रंज सब को त्यागो।
सच्चाई का पाठ पढ़ाना, अबकी बार दिवाली में।।
कुछ कारणवश खट्टापन हो, दिल के भीतर भरा हुआ।
मीठी मिश्री खूब खिलाना, अबकी बार दिवाली में।।
काज न कोई ऐसा करना, मात-पिता की शान घटे।
मात-पिता का मान बढ़ाना, अबकी बार दिवाली में।।
स्वरचित
रामप्रसाद मीना'लिल्हारे'
चिखला बालाघाट(म.प्र.)
रचना क्रमांक-०२
विधा - मुक्तक(दोहा)
१.
दीप-मालिका सज गयी,
देखिए द्वार-द्वार।
आयी हैं दीपावली,
दीपों का त्योहार।
जग-मग-जग दीपक जलें,
देखो चारोंओर-
माता लक्ष्मी की कृपा,
खुशियाँ मिले अपार।
***************************
२.
दीप-मालिका यूँ सजी,
जुगनू का ज्यों झुण्ड।
सजी हुईं हो चाँदनी,
ज्यों धरती के मुण्ड।
छिल-मिल-छिल चमकें धरा,
जैसे मोती माल-
धरती के हाथों लगा,
कोई हीरा गुण्ड।
*************************
स्वरचित
रामप्रसाद मीना'लिल्हारे'
चिखला बालाघाट मध्य प्रदेश
आओ मिलकर दीप जलाएं।
देख तिमिर की काली छाया।
घेरें बैठी हैं यह काया।
मोह माया में मन भरमाया।
दोष हृदय के जान न पाया।
भटके जन को राह दिखाएं।
आओ मिलकर दीप जलाएं।
छाया जग में घोर अंधेरा।
लालच ने मानव को घेरा।
रिस्ते नाते मीत संबंधी।
से ऊंचा रुपयों के फेरा।
झूटी मन की परत हटाएँ।
आओ मिलकर दीप जलाएं।
रावण सीता हरकर हँसता
तक्षक मां बहनों को डंसता।
धनुष उठाओ तीर चलाओ।
देखों ना राघव का रास्ता।।
घर घर लक्ष्मण राम बनाएं।
आओ मिलकर दीप जलाएं।।
भ्रष्टाचार जगत में फैला।
गंगा का पानी भी मैला।
जिसको अपना बोस बनाया।
लूट चला रुपयों का थैला।
सच्चे नेता चुनकर लाएं।
आओ मिलकर दीप जलाएं।
भाई बहनों अब तो जागें
चीनी डिस्को लाईट त्यागें।
देशी कारीगर का धंधा,
भारत मे हो सबसे आगे।।
मिट्टी के दीपक मंगवाये।
आओ मिलकर दीप जलाएं।
स्वरचित
शिव कुमार लिल्हारे,,अमन,,
बालाघाट
,,,3,,,
विषय,,,,एक दीप शहीदों के नाम
विधा,,,सरसी छंद
किया वतन पर अर्पण अपना
तन मन धन अविराम।
आओं दीपक एक जलाएँ
उन वीरों के नाम।।
सर्दी गर्मी वर्षा सहकर
सरहद पर तैयार।
सीमा पर डटकर रहते वो
सच्चे पहरेदार ।।
नजर गड़ाये रहते हरपल
चौकस चारों याम।
आओं दीपक एक जलाये
उन वीरों का नाम।।
मात पिता पत्नी बच्चे से
हर पल रहते दूर ।
मातृभूमि की सेवा उसका
हैं पहला दस्तूर।।
झेल रहें होते जब गोली
लोग करें आराम।
आओं दीपक एक जलाएँ
वीरों के नाम।।
गोली खाकर भी सीने पर
झुकने दी ना लाज।
सरहद पर हो गयें फिदा पर
झुका न मां का ताज।।
उन वीरों को करें नमन हम
रोज सुबह या शाम।
आओं दीपक एक जलाएँ
उन वीरों का नाम।।
स्वरचित
शिव कुमार लिल्हारे,, अमन,,
बालाघाट
मध्यप्रदेश
श्वासों में प्रीत लो
द्वेष,दंभ बातों की
हर कड़ी तोड़ दो।
दीवाली पर्व है
मिलकर मनाएंगे
रूठे हो अपने थे
आज उनको मनाएंगे।
दीपों की माला ले
उमंगे फैलाएंगे
कुत्सित विचारों को
मिलकर जलाएंगे।
हृदय में प्रेम भर
खुशियाँ मनाओ
तेरा मेरा छोड़ कर
प्रेम दीप जलाओ।
अज्ञान का जीवन से
मिलकर अंधकार मिटाएं
एक दीप आस का
आपस में प्रेम विश्वास का
एक दीप मोती सा
हो जीवन में ज्योती का
एक दीप वरदान का
जगती के कल्याण का
एक दीप सीप सा
यश प्रकाशित हो दीप सा
एक दीप सोने सा
वक्त नहीं अब खोने का
एक दीप प्रीत का
जीवन मधुर संगीत सा
एक दीप चाँदी सा
हो सबकी खुशहाली का
एक दीप रोली सा
जीवन में रंग भरे रंगोली सा
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित कविता
जो दूर खड़े हैं सबसे उनको गले लगा लें हम।
युगों से विषण्ण मानवता को आंकना होगा।
हर गली हर घर में जा-जाकर झांकना होगा।
अब मिटाने को दुख करुणा-दीप जला लें हम।
जो दूर खड़े हैं सबसे उनको गले लगा लें हम।
आएं प्रेमदीप जला लें हम,
जो दूर पड़े हैं सबसे उनको गले लगा लें हम ।
सुरेश मंडल
पूर्णिया (बिहार)
प्रेम से हर एक दीप जलायेंगे हम,
प्रकाश न होने देंगे बिल्कुल कम,
अमावस के तम को मिटायेंगे हम |
दीपों की सुन्दर झिलमिलाहट,
धरती पर रोशनी की खूब बरसात,
ऐसा प्रतीत होता है मुझको आज,
ओढ़ ली धरती ने कोई चुनर खास |
सरहद पर जवान हैं जो तैनात,
चलो उनके नाम के हम दीयें जलाये,
माँ लक्ष्मी, सरस्वती, गणपति से लें आशीर्वाद,
रोशनी उनके घर की रखना बरकरार |
पटाखे, फुलझड़ी को जलायेंगे,
बुरी बलाओं को दूर भगायेंगें,
माँ लक्ष्मी का स्वागत करेंगें,
मन से दीप जलायेंगे हम |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
प्रस्तुति (2)
दीपों का है पर्व ,
रोशनी है भारी,
आज हर घर आई है,
माँ लक्ष्मी की सवारी |
दीप से दीप जले,
मन से मन मिले,
खुशी के फूल खिलें,
नीले आसमान के तले |
सुख समृद्धि घर आये,
दु:ख,दर्द दूर हो जाये,
प्रेम की बरसात हो जाये,
मनोकामना पूर्ण हो जाये |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
भली लग रही है ,
दीपमाला की कतार ।
आज दिवाली के शुभ दिन ,
इन दीपों की बहार ।।
जलते दीयों की रोशनी ,
अन्धकार को दूर भगाए ।
हर किसी के हृदय में ,
ज्ञान को बढ़ाए ।।
इन दीयों के प्रकाश से ,
अमावस्या की रात भी ,
पूर्णिमा में बदल जाए ।
एवं सम्पूर्ण जगत को ,
एक अनोखी ख़ुशी दे जाए ।।
बँध जाए प्रत्येक व्यक्ति ,
एकता के सूत्र में ।
तथा दीपमाला की यह कतार ,
लाए ख़ुशियाँ जीवन में ।।
आओ सब मिल के आज
उजले से नवदीप जलाएं l
हर्षित हो मन का आँगन
हर्षित हो ये नीलगगन,
आओ खुशियों का बाग लगाएं
उजले से नवदीप जलाएं l
रात के ये चमकते तारे
चांद के संग आ गए सारे,
हम भी धरती को चमकाएं
उजले से नवदीप जलाएं l
मानवता के दीप जला लें
पृकृति को कुछ और सजा लें,
चलो प्रेम के दो गीत गाएं
उजले से नवदीप जलाएं l
श्रीलाल जोशी "श्री"
तेजरासर, बीकानेर
(मैसूरू)9482888215
नित्य-नित्य दीवाली आएं।
सब के घर में खुशियां छाएं।
जगमग प्रेम दीप उर-उर में
मिटें परस्पर की कटुताएं।।
मुक्तक(२)
रूठे-रूठे से तुम साथी वह उजियार नहीं मिलता है।।
यद्यपि उर में मेरे तुम को प्रेमदीप कबसे जलता है।
टूट रहा निज की विरक्ति से वशीभूत हृदय में पीड़ा,
बाँध रहा हूँ नेह गेह उर बन्दन वार नहीं बँधता है।।
उर के अंदर छिपा था,
तो कहो कैसे दीपक,
अंधेरा मिटाता----
भले लाख उतरें ,
नखत के सितारे,
कभी तम से जीते,
कभी तम से हारे,
सूरज उतरता,
बड़ी ताप लेकर,
पर रहता अंधेरा,
कहीं मन में छिपकर,
सभी चाहते केवल,
तन का उजाला,
पर भीतर ही भीतर,
बहुत मैल पाला---
नही चाहता कोई,
उज्ज्वल धरा हो,
नही कोई मन का,
है दीपक जलाता---
जब घना स्याह तम,
उर के अंदर छिपा था,
तो कहो कैसे दीपक,
अंधेरा मिटाता----
वहीं एक हवेली,
की रोशन दिवाली,
वहीं झोपड़ी में,
घनी रात काली,
कहीं सुदंरी-साज,
कहीं मधुशाला,
कहीं कोई तरसे
मिले एक निवाला,
कही पर किसी ने,
बाजी लाखों की मारी,
कहीं फिर किसी ने,
बाजी जीवन की हारी,
बर्षों-बरस से,
जले लाखों दीपक,
बर्षों-बरस आयी,
कितनी दिवाली,
सजे दीप आंगन,
सजे दीप देहर,
सजे दीप छत पर,
सजे ताल-पोखर,
सजी क्यारियों में,
सजे शीश मंदिर,
दलानो-मकानों,
सहानो-दुकानों,
नही कोई बाकी,
जगह हमने छोड़ी,
जलाये दिये कि,
मिटेगा अंधेरा,
पर जले दीप जितने,
बढ़ा उतना अंधेरा---
कालिमा इसकी,
हरदिन घना होता जाता-----
जब घना स्याह तम,
उर के अंदर छिपा था,
तो कहो कैसे दीपक,
अंधेरा मिटाता----
अगर चाहते हो,
मनाना दिवाली,
अगर चाहते हो,
न हो रात काली,
तो सोचो जरा,
कहाँ है दीपक जलाना,
जो है फैला अंधेरा,
है कैसे मिटाना----
तो रखो ध्यान इतना,
जले मन में दीपक,
रखो ध्यान कोई भी,
भूखा न सोये,
कोई नन्हा बालक,
दूध को न रोये,
कहीं न छली जाये,
नारी बेचारी,
बेबस न करदे,
उसकी लाचारी,
तन बेचने को न,
विवश हो बेचारी,
घर में किसी के,
न जले कोई नारी,
न जकड़े कोई,
हवस का पुजारी,
नही कोई तड़पे,
पैसे बिना रूग्ण,
न बेटा तजे अपने,
माता-पिता को,
नही भ्रूण कन्या,
की हत्या गर्भ में हो,
अगर है जलाना,
तो जलावो कपट-झूठ,
रहो प्रेम से सब,
न हो द्वेष-फूट,
अगर हम यही काम,
पहले किये होते,
तो कालिया न इतना,
अपना फन फैलाता----
जब घना स्याह तम,
उर के अंदर छिपा था,
तो कहो कैसे दीपक,
अंधेरा मिटाता----
......राकेश पांडेय,
.......स्वरचित....
हर आँगन रंगोली सजाई
ख़ुशियों की बारात लेकर
फिर दिवाली आई
देखो कैसा है उजियारा
जबकि अमावस काली आई
बोले दीप और पटाखे
दीपों की दिवाली आई
एक दीप जब जले अकेला
तूफ़ा उसे बुझाता
अनेक दीपों से जग रोशन हो
अंधकार हार जाता
डॉक्टर प्रियंका अजित कुमार
स्वरचित
रचना नम्बर - 2
दीपों की क़तार से , हर्ष और उल्लास से
एकता और विश्वास से , फूलो की बाहर से
चाँदनी सी छाई है , देखो दिवाली आई है
राजा राम के राज्य की , दशरथ के लाल की
सीता के बलिदान की , गाथा सुनाई है
ख़ुशियों की बाहर लियें ,देखो दिवाली आई है
राम के वनवास की , भरत के प्रेम और त्याग की
उर्मिला के इंतज़ार की , लक्ष्मण के साथ की
याद दिलाई है , देखो दिवाली आई है
इस प्रकाश पर्व पर , सबके मन का पाप हर
हिंसा रूपी रावण पर , विजय देखो पाई है
उमंगो की टोली लेकर , देखो दिवाली आई है
डॉक्टर प्रियंका अजित कुमार
स्वरचित
उनके घर भी दीवाली हो करो कुछ खास ।।
कितने काम हैं जो मेहनत ज्यादा खाते
मगर परिवार को रोटी भी न जुटा पाते ।।
सरकारें रहेंगीं सोतीं चलो बँटायें हाथ
ऐसा संकल्प लें इस दीवाली के साथ ।।
हर त्यौहार में प्रेम है दीवाली तो दीवाली
हरेक मनाये दीवाली ये सोच सुख देने वाली ।।
नही अन्न खाया जाये जब सम्मुख भूखा हो
नही समाज वो अच्छा जिसमें कोई रूठा हो ।।
कितने हैं जग में लाचार कोई उनकी सोचे
कोई तो मसीहा बने और उनके आँसू पोंछे ।।
नही पटाखा फोड कर खुशियाँ मनाओ
दिल से दिल को जोड़कर खुशियाँ मनाओ ।।
हर त्यौहार के विकृत रूप अब दिखते हैं
अर्थ अनर्थ कब रूके हैं कब रूकते हैं ।।
अपने तक सीमित रहना पशुता कहलाये
ज्ञान प्रकाश से क्यों न तम को दूर भगाये ।।
बाहर खूब सफाई की अन्दर नही देखी
कैसी कैसी राहें आज इंसान ने टेकी ।।
''शिवम्" समझ प्रकाश का यह त्यौहार है
अंतस में कैसा अँधेरा जुड़ा न सही तार है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 07/11/2018
शाम हुई हर घर आँगन में
फूटी किरणें दीपों की
गहन अंध को दूर कर रही
है किरणें इन दीपों की।
भूतल पर उतरी है देखो
दीपों की बारात सुहानी
दुल्हन सी है सजी हर गली
आई है क्या रात सुहानी।
पर उपकार सिखाता है यह
दीपक हमको जल जल कर
करती है यह राह दृष्टिगत
दीपक हमको जल जल कर।
चँद्र किरण भी फीके पड़ गए
आज दीप के आगे
दिव्य किरण से इन दीपों की
सबके किस्मत जागे।
"पिनाकी"
धनबाद(झारखंड)
(२)
दीप जले हर घर आँगन में
स्वर्ग बनी है धरती आज
हर्षित होकर झूम रहे सब
सबके हिय में हर्ष का राज।
इंद्रधनुषी किरणें फैली हैं
आँगन में नभ मंडल के
उमड़ रही हैं नई उमंगें
सब जन के मुख मंडल पे।
दीपों की माला धरती का
कर रही है अद्भुत ऋंगार
दीपों की लौ सब मानस में
करने लगी सुख का संचार।
चकित हो रहे हैं सुरगण भी
देख कर छटा धरातल की
फीकी है सुरलोक की शोभा
सम्मुख अपने धरातल की।
"पिनाकी"
धनबाद (झारखंड)
आज दीपिका बहुत खुश थी क्योंकि पूरे एक साल बाद दीवाली को उसके पापा घर जो आ रहे थे। और दीपिका से नये कपड़े लाने का वादा भी किया था।
यूं तो दीपिका मात्र ६ वर्ष की और बहुत ही समझदार लड़की थी। उसके घर की आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब थी। दीपिका अपनी मां के साथ घर में रहती थी और उसके पिता शहर में फेरी लगाते थे।
शाम हुई दीपिका के दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। दीपिका को पूरा यकीन था कि उसके पापा ही है वह भागते हुए दरवाजा खोलती है और सामने पापा को पाकर तुरंत उनकी गोद चढ़ जाती है। उसकी मां भी तुरंत पानी लेकर आती हैं। इतने में दीपिका उत्साहित मन से कहती है कि पापा दिखाओ मेरे नए कपड़े इतना सुनते ही दीपिका के पापा की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगती है। और दीपिका को यह समझते जरा भी देर न लगी कि इस बार भी पापा की आमदनी नहीं हुई। और उसने समझदारी दिखाते हुए अपने पापा के आंसू पोछते हुए कहा कि कोई बात नहीं पापा इस बार ना सही अगली बार मैं बहुत सुंदर फ्राक लूंगी। उसके मुख से एसा सुनकर तीनों आपस में गले लगकर रोने लगे।
आज दीवाली का दिन भी आ गया। हर तरफ रोशनी फैली थी बस अॅंधियारा केवल दीपिका के घर ही था। आंखों के आंसुओं से अब उसके अरमानों के दीपक भी बुझ रहे थे।
इति शिवहरे
खुशियों के संग मनाते जाओ।
रोशन कर दो सारे जहाँ को
दीप से दीप जलाते जाओ।।
हरमन से तम को मिटाकर
ज्योतिर्मय ज्योत जलाते जाओ।
दीपों का त्यौहार है दीपावली
खुशियों के संग मनाते जाओ।।
दीन दुखियों के हर सुख दुःख को
अपने दुख सुख में मिलाते जाओ।
दीपों का त्यौहार है दीपावली
खुशियों के संग मनाते जाओ।।
वैरी रहे ना कोई अब से तुम्हारा
हाथ से हाथ मिलाते जाओ।।
दीपों का त्यौहार है दीपावली
खुशियों के संग मनाते जाओ।।
हरिप्रिया की प्रतिमा को तुम अब
दीपों की आवली से सजाते जाओ।
दीपों का त्यौहार है दीपावली
खुशियों के संग मनाते जाओ।।
स्वरचित
सुखचैन मेहरा
नन्हें गुलों को महकाने की बातें करो।।१।।
मिलन को धरती से मेघ तरसते हैं,
दिल से दिल को मिला ने की बातें करो।।२।।
खेत करके फसल सारे सूख ग्रे है,
सावन घंटा को बुलाने की बातें करो।।३।।
तम में डूबा है घर। मेरा यारों,
प्रेम के दीप जलाने की बातें करो।।४।।
दाने के लाले पड़े हैं जिन घरों में,
उनके चूल्हे जलाने की बातें करो।।५।।
स्वरचित देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग,।।६२६६२७८७९१।
बस प्रेमदीप ही बनकर रहना
मन के भावों को आज
तुम से है आज कुछ कहना
अपनी दिव्य लौ से जीवन महकाना
सब है अपने ना कोई बेगाना
तुम सब के अवसादों को हर लेना
दींन दुखी को गले लगाना
उनके अभावों को समूल मिटाना ।
धर्म जाति की संकीर्ण मनोवृत्ति मिटाना
एकता अखंडता का मान बढ़ाना
प्रेमदीप तुम यूँ ही जलते जाना
प्रेम ज्योत सबके दिलो में जलाना।
मेरे देश की अक्षुण्य सभ्यता संस्कृति का सदा
परचम विश्व पटल पर लहराना
नभ तक निज दिव्य आलोक फैलाना
शाश्वत जीवन मूल्यों की गाथा
सदा सदा तुम कहते ही रहना ।
प्राकृतिक उपादानों की छटा बिखराना
मानव को उसके संरक्षण का पाठ पढ़ाना
‘अहम्’ भाव को तुम हर लेना
‘हम’ की परिभाषा पहचान बनाना
ख़ुशियों से सबकी झोली भर देना
इस दीप -पर्व को तुम सुखद बनाना
तुम हो मेरे प्रेमदीप बस
बस प्रेमदीप ही बनकर रहना।
स्वरचित
संतोष कुमारी
नई दिल्ली
देखो आज घर बार
ये यही संदेशा देती
स्वयं जलकर भी करना
है रौशन जँहा।
दुश्मन भाग जाये
अंधेरा समान
जैसे दीप से दीप जुट कर
जैसे बन जाये दीप माला आज
जैसे वे जुड़े समभाव से एक लड़ि मे
वैसे ही हम अपने मन के खोट को छोड़
करूणा, क्षमा, दया को ले अपना
तब उमंग भर जाये हर दील मे
हर रात लगे दीवाली -सा
सुनहरे हो जाये आगामी दिन
दीपों की माला दे संदेश
एकता ही हमारा ताकत है
देती हमें यह वे संदेश
एक दीप से रौशन न हो जग सारा
जब हो दीपों की माला
जगमग हो सारा परिवेश
सिर्फ दीपों की माला बनाने से
नही होता हमारा काम तमाम
ईष्या, लोभ,अंह पर हमें लगाना
होगा विराम।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
दिव्यता अंतस पिरो कर
कर तिरोहित दम्भ शुचिते
दिव्य किसलय चिर खिले नित
उर समा प्रांजल दिवाली ।।
दंभता प्रिय व्याधि है
अनुरक्ति का दीपक जलाओ
नेह निर्झर निष्कपट शुचि
पीर पटु हिय तर लगाओ
जिर्णता को मात पग कर
चिर क्षितिज निश दिन हो लाली
दिव्य किसलय खिले नित
उर समा प्रांजल दिवाली ।।
ज्ञान ना नेपथ्य तक हो
द्विज तुहिन सम हो परिष्कृत
शीर्षता वनिता विहारे
ना अकिंचन हो तिरस्कृत
रीत क्षिति पर हो अमिट
उत्साह जल देता हो माली
दिव्य किसलय चिर खिले नित
उर समा प्रांजल दिवाली ।।
रे प्रकृति नित भान कर
चिर नेह का दीपक जलाओ
रे शलभ रूपी निराशा
कर दमन प्रिय मुस्कुराओ
सर्जना का हो उदय
अज्ञानता उर मंद वाली
दिव्य किसलय चिर खिले नित
उर समा प्रांजल दिवाली ।।
अशोक सिंह अलक
आज़मगढ़ उत्तरप्रदेश
घर-आँगन के चहुँ,
लगते कितने भले है
दीपों की लंबी कतार
दूर दूर तक जलते झिलमिल
जलते जाते लगातार
झोंकों को छल,जल अविरल तिल तिल
गति ही जीवन का उदगार
जलते है पर चलते है कदम-कदम
चरैवेति का सतत प्रयास
जीवन की डगर हरदम
इन दीपों के हो आसपास
नई उजास हो,तम दूर हो
सतरंगी सपनों में सरगम का सुर हो
धन्य धान्य सम्पन्न जीवन रुचिर सफल
अधरों पे अमिट मुस्कान मधुर हो
दीवाली के ये प्रज्वलित दीये
आए यही शुभ संदेश लिए।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
दीप जलादो दिवाली का,
यह प्रेमदीप प्रभु के मन का
आजाओ लक्ष्मी को पूजें,
यह दीप पर्व है खुशहाली का।
यह पर्व हमें हर्षाता है,
प्रभु राम की याद कराता है।
जग में फैले भाईचारा ,
सतयुग की याद दिलाता है।
प्रभु ने रावण संहार किया,
विभीषण को लंका दान किया।
महलों का वैभव त्याग करके,
पृथ्वी को राक्षस विहीन किया।
मेरी विनती स्विकार करो,
सबको विद्या का दान करो।
इस कदर मनाओ दिवाली,
सबके मन से तम नाश करो।।
(अशोक राय वत्स) जयपुर
स्वरचित 7665994959
दिया जलाऐं रोशनी लाऐं।
अपने अपने मनमंदिर में,
अंतरतम हम दिये जलाऐं।
दीप जलाऐं कलुष हटाने।
जले दीप अंधकार मिटाने।
तत रहता है दीपक के नीचे,
नहीं सक्षम है तमस हटाने।
प्रयाय करें हम इसे मिटाने।
एक दीया हम इधर जलाऐं।
वलि दे दी अपने जीवन की,
उनके नाम हम दीप जलाऐं।
हर दिल में एक दीप जले
जगमग सारा जग हो जाऐ
सुख शांति आऐ घर घर में
प्रेम प्रीति सब दिये जलाऐं।
वैरभाव छोड प्रफुल्लित हों
उज्जवल हों मनमानस में।
खुशी परस्पर बांटे हम जब
जले दीपमाल जनमानस में।
दीपदान कर दीवाली मनाऐं।
दीपमालाऐं हम खूब सजाऐं।
आज अयोध्या श्री राम पधारें,
हरघर आंगन शुभदीप जलाऐं।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जगमग जगमग धरा हो अपनी...
आसमां ख़ुशी से झिलमिलाये...
मन से मन का दीप जला के...
आओ सब दीपावली मनाएं...
मेरा हाथ तेरे काँधे पे हो...
तू ज्योति मेरे राह की हो...
कदम से कदम मिला के...
हम धरा से अम्बर छू आएं...
आओ सब दीपावली मनाएं...
जात पात दीवार ढहा दें...
इंसानियत का धर्म बना लें...
चहूँ दिशा हो प्यार का वैभव..
हम ऐसा हिन्दुस्तान बनाएं...
आओ सब दीपावली मनाएं...
तेरी साँसों में जीवन मेरा हो...
दिल मेरे में धड़कन तेरी हो...
न कुछ तेरा ना कुछ मेरा...
धरा वसुदेव कुटुंबकम बनाएं...
आओ सब दीपावली मनाएं...
परहित में निज स्वार्थ त्यागें...
सुख दुःख हो सब के साँझें
तेरे घर के अंधियारे को...
मेरे घर के दीप भगाएं....
आओ सब दीपावली मनाएं...
खुशिओं की फुलझड़ियाँ छूटें...
ठहाकों के बम घर घर फूटें...
वैर वैमनस्य मिटा दें सारा....
ऐसा हम संसार बनाएं....
आओ सब दीपावली मनाएं...
चन्दर शीतल मन हो अपना...
दिल के थाल में प्यार हो भरा..
वाणी मधुर मिष्ठान बनाके...
हर आँगन में फूल खिलाएं....
आओ सब दीपावली मनाएं...
सब की आँखों के सपनों में...
अपनेपन के रंग भरे हो...
आओ ऐसी रंगोली बना के...
भारत अपना मिल संजायें...
आओ सब दीपावली मनाएं...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१.
धरा दीवाली
अमावस की रात
नभ शर्माए
२.
मन उजास
दिवाली उपहार
मालिन्य त्याग
३.
मन प्रदीप्त
भावों की दीपमाला
रोज़ दीवाली
४.
प्रभु पधारे
प्रेममाला अर्पण
प्रभु हमारे
५.
हे ज्योतिर्मय
सब हों प्रज्वलित
प्रेमदीप से
६.
'भावों के मोती'
रचनाएं दीपक
साहित्य ज्योत
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
घर के कोने कोने की हुई सफ़ाई
नई नई चीज़ों ने शान बढ़ाई
पाते नई शोभा आँगन और द्वार
देहरी की रंगोली और लुभावना बंदनवार
शुभकामनाओं का संदेश भेजते
भूले बिसरे सब अपने से लगते
लोगों की भीड़ ख़ूब सजते बाज़ार
मेवों की विविधता खील का अंबार
कार्तिक मास की अमावस्या काली
आलोकित जीवन पावन त्योहार दिवाली
पूजा की थाली पुष्पों का हार
अक्षत रोली संग होता शृंगार
देवी लक्ष्मी के संग संग गणेश विराजे
दरिद्रता का भाव मिटाते
सबके काज पूर्ण हो जाते
उमंगित पुलकित मन मुसकाए
जगमग दीप उजियारा फैलाएँ
इस दिवाली पर मिट जाए सारा
सबके जीवन का अंधियारा
धन-धान्य की हो भरमार
लाभित हो सबको दिवाली त्योहार
स्वरचित
संतोष कुमारी
नई दिल्ली
अधर सुधा-सने, विचार मात्र अंधकार के।
समत्व-भाव बंधुता-विहीन शुष्क प्यार के।
अनन्त दीप-मालिका सजें-सजें, सजा करें,
रहें मनुष्य यदि नहीं, मनुष्यता सँवार के।।
*
स्नेह का प्रकाश अन्तराल में जगे न जो।
भेद-द्वेष-संशयी , उलूक-गण भगे न जो।
दीप-मालिका महज़ , प्रदर्शनी लगे सखे!
स्व-पर सभेद यदि रहे,हुए सभी सगे न जो।।
--डा.उमाशंकर शुक्ल'शितिकंठ'
आ गई दीपावली अब, दीप लाखों जल गये।
रोशनी मधुरिम लिए फिर, दीप सुंदर बल गये।
मात लक्ष्मी घर पधारो,हम सदा पूजन करें,
थाल में दीपक जलाकर,भक्त जन वंदन करें ।
है गुजारिश तुम जलाना दीप माटी के सदा,
घर गरीबों के सजाना भाव अर्पण से कदा।
दीप साजे सृष्टि चमकी,मन सभी के मिल गये,
अब हृदय पावन मधुर सी, प्रीत में है खिल गये।
✍चंचल पाहुजा
दिल्ली
दृश्य दीपमाला अवनितल,
आलोक बिखरता कण कण में,
उल्लास पवन संग रचा बसा,
मानव प्रजाति स्वाँसों में दृश्य।
प्रतिभाशाली दीपोत्सव पर,
प्रेमदीप प्रज्वलित हृदय में,
मधुगन्ध प्रेम व्यवहार विनम्रतम,
दृश्यमान चहुँओर विश्व में।
आशाऐं नवल अंकुरित उर में,
आत्मकेंद्रित मोहासक्ति से,
मुक्ति तनिक हो जाए सम्भवतः,
मानव समाज की शुचि भूतल पर।
ज्ञान प्रेम की पतित पावनी,
गंगा श्री की रसधार बहे नित,
भूमण्डल के हर चेतन उरतल में,
नित्यप्रति पल प्रतिपल में।
--स्वरचित--
(अरुण)
प्रेम का दीपक जलाओ।
जग में प्रेम बढ़ाओ।
प्रेम से चलता ये जग सारा।
प्रेम के आगे सब कोई हारा।
एक रौशनी जग में फैलाओ।
जग में प्रेम बढ़ाओ।
हमसे कहे ये दिये की बाती।
जलती रहती है सारी राती।
खुद जलकर भी अपनों को दो रौशनी।
जग में रौशनी बढ़ाओ।
जग में प्रेम बढ़ाओ।
करो पूजा माँ लक्ष्मी की।
धुप,दीप दिखाओ,करो आरती।
प्रसन्न होंगी लक्ष्मी माता।
उनसे तुम वरदान पाओ।
जग में प्रेम बढ़ाओ।।
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
आज शुभ दिन दिवाली का आया।
हाथ जोड़ कर करें प्रार्थना, रखना हम पर कृपा दृष्टि सर्वदा।
सुख, समृद्धि, धन वैभव देना,
अंर्त तम को निष्कासित करना।
रहे मन मेरा निर्मल गंगा सा,
सदा बैर भाव को दूर ही रखना।
संवेदना और सर्मपण भर देना,
अपनापन मेरे दिल में रखना।
माता लक्ष्मी तुम मेरे घर रहना,
शुभाशीशों से मेरा आँचल भरना।
हमनें सुंदर सजाई है दीपमाला,
इक प्रेम दीप और मन में सजाना।
मॉ ज्ञान से जीवन रोशन कर देना,
माता सरस्वती को संग संग रखना।
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश, 7,11,2018
अहेतुकी चिर् चेतनाऐं
दृग पुलिन उर की ऋचाऐं
रागिनी गाती विधाऐं,,,,,,,
ज्योतिर्मय दीप प्रकाश खिला,
तिमिरांतस क्षुब्ध आकाश धुला।
शुचिता हो तन माटी का दीप,
बड़भागी मानव देह मिला।
काली अंधियारी घोर निशा,
किस्मत में केवल मात्र कुशा।
कंकालित काया कोरी कुटी,
जाज्वल्य जीव जैविक आशा।
तल मे अंधियारा है छाया,
दीपक प्रकाश से भर आया ।
जलकर बाती ने तम छिना,
निज को खोकर व्यापक पाया।
यूँ मिट कर भी उजास दिया,
दीये ने अमूल्य प्रभास दिया।
बन दीप दीप यूं प्रगटाओं,
जलकर जगाए प्रकाश दीया।
दीपमालिका नूतन पर्व,
जगमगाओ दीपमाल सर्व।
उज्वल हो माटी का कण कण,
स्वर्गिक सुरेश्वर करे गर्व।
साक्षी दीप शत शत वंदन,
जन जन को मेरा अभिवंदन।
उर तम हर ले जो दीपक,
कोटी कोटीश: अभिनंदन,अभिनंदन,अभिनंदन,,,,,
🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸
स्वरचित:-रागिनी नरेंद्र शास्त्री
दाहोद(गुजरात)
जगमगाती रौशनी इन दीपों की
लगती कितनी प्यारी है।
चारों ओर फैली खुशियाँ
इतना मन लुभाती है।
इतने सारे रंगों से बनी
घरों मे सजी रंगोली है।
मेरे तनहा मन मे फिर
एक नई उमंग जगाती है।
पकवानों की सुंगध से
पूरा घर महक जाता है।
न जाने कितने लोग जगत में
भूखे ही सो जाते है।
जब नये कपड़े पहन के
हजारों के फुलझड़ी पटाखे जलते है।
बहुत से बदकिस्मत बच्चे यह
सब ललचाई आँखों से निहारते है।
चलो क्यों न इस दीपावली पर
हम सब मिलकर पग बढ़ायें।
किसी गरीब की कुटिया में
संग उसके सपने सजाएं।
डॉ स्वाति श्रीवास्तव
आओ हमसब दीप जलाये,
अंधियारे को दूर भगाये,
प्रेम का दीप जलाकर के,
नफरत को दिल से भगाये l
एक दिया हम वहां जलाये,
जहाँ सैनिक जान गवाएं,
उनकी बहादुरी के ही दम से,
हम ये उजियाला पाएं ll
चीनी सामान कभी न लाये,
मिटटी के ही दीपक जलाये,
छोटे छोटे दीप जलाकर,
कुम्हार केनाम ये दीवाली कर जाये l
हजारो खरच करते पठाखो मे,
ढूंढते ख़ुशी इन पठाखो में,
आज इन्हे ना फोड़ो तुम,
दो ख़ुशी उन्हें जो जी रहे है फाको में ll
कुसुम पंत उत्साही
स्वरचित
गजल -एक प्रयास
काफिया - ये
रदीफ़ -दीवाली
प्रस्तुति 2
सुनो देखो आये दीवाली,
खुशियाँ देती आये दीवाली l
बच्चे बूढ़े सभी खुश हैं,
प्रेम दीप जलाये दीवाली l
क्रोध, और नफरत करके दूर,
हर घर में मुस्काये दीवालीl
राम, लखन और सिया संग में,
देख देख हर्षाये दीवाली l
कुछ भूखे, कुछ नंगे देखे,
इनको तो तरसाये दीवाली l
एक निवाला खिला दो इनको,
इनकी भी मन जाये दीवाली l
उत्साही का दिल खुश होगा,
जब हर घर में हो जाये दीवाली
कुसुम पंत उत्साही
स्वरचित
दीपों से जगमग होंगे अब सबके घर - द्वार है।
पाँच दिवस का महापर्व दीवाली जन-मानस हर्ष उल्लास से मनाता है।
भारतवासियों का सबसे बड़ा त्यौहार यही कहलाता है।
अमृत औषधि पात्र ले धन्वन्तरि जी ने किया त्यौहार का शुभारंभ।
रूप -चौदस ,छोटी दीवाली करती दीवाली का आरंभ।
चौदह वर्ष पश्चात सियाराम वन से लौट आयोध्या आये।
स्वागत में उनके जनमानस ने गा मंगलगीत दीप जलाये।
एकम के दिन छप्पन भोग बना अन्नकूट महोत्सव मनाते।
गोवर्धन धारी की कर पूजा लीला उनकी सब सुनाते।
यम द्वितीया या कह लों तुम भाई दूज, को पर्व खिल उठता खूब।
इस दिन जो भाई- बहन नहाते माँ यमुना में पाते वो बैकुंठ।
दीपावली पर श्री गणेश, माँ लक्ष्मी जी, माँ सरस्वती का धरते ध्यान।
जन्म - जन्म की दरिद्रता से पाते मुक्ति और पाते अमूल्य ज्ञान।
मेल- मिलाप और भाई - चारे को यह त्यौहार बढ़ाता है।
सबके घर- घर में सुख- समृद्धि और खुशियाँ भर- भर लाता है।
©सारिका विजयवर्गीय "वीणा"
(1)
प्रेम-दीप सतत प्रज्वलित,
जग-जीवन अति आनंदित।
प्रेम-भाव से हृदय हो पूरित,
जन-मन चारू शुचि शोभित।
प्रेम-दीप से हृदय प्रकाशित,
कोई न हो फिर शोषित-वंचित।
घट-घट हो जब प्रेम से पूरित,
मानवता सद्गुण से विभूषित।
अंधकार दुख तम अवशोषित,
प्रेम - दीप से ज्ञान प्रकाशित।
दीपावली पर्व प्रेम से पूरित,
हर घर हर घट प्रेम ही वासित।
मन में आए अब ऐसी जागृति,
बन जाए ये सुंदर संसृति।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
(2)
दीपावली पर
जलें दीप ऐसे
मिटे तम कलुष
मिटे अज्ञान ऐसे
रवि-किरणें
करें तम का नाश जैसे।
दीप मालाएं
हर ओर जगमगाएं
सबके जीवन में
ऐसे ही खुशियाँ आए
जैसे बगिया में
अनेक पुष्प खिल जाएं।
जीवन में यश सुख
समृद्धि बढ़े ऐसे
कोई पौधा वृक्ष
बनता हो जैसे।
दीप दीवाली के
कर दें हर घर को रोशन
नहीं हो कहीं भी
किसी का अब शोषण।
एक दीप जलाएं
सदा हम ऐसा
हो अंतरतम प्रकाशित
मन से मन का
कराए मिलन हमेशा
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
जब रखती है रोशनी कदम
अंधेरा खुद ही चला जाता हैं,
प्रेम का दीपक जला लो दिल में
नफरतों से हमारा क्या नाता है,
दीप से जब जलता है दीप
तो रोशनी का सैलाब आता हैं,
प्रेम की नसीहत दुनिया को देने
दिपावली का त्यौहार आता है,
स्वरचित -
मनोज नन्दवाना
**********
दीवाली के पावन पर्व पर
दीपमाला भाँति
प्रेम के दीप
हर घर जलते रहे
देहरी पर सब के उजियारा रहे
अंधकार की कालिमा मिटती रहे
न वैर वैमनस्य रहे
दिलों में प्यार की ज्योति जलती रहे
चहुं दिसि प्रकाशित रहे
उन्नति प्रतिष्ठा वैभव बढ़ता रहे
सुख समृद्धि ऐश्वर्य नैतिकता
सदैव बनी रहे
वीरों को खुशियों की सौगात
मिलती रहे
जग रक्षा का दायित्व
दीपों के प्रकाश की तरह निभाते रहे
यूं ही हंसता मुस्कुराता
दीपमाला का पर्व मनाते रहे
प्रतिवर्ष हर्षोल्लास से सभी मिलते रहें
घर घर प्रेम के दीप जलते रहे
बिखरे परिवार पुनः मिलते रहें
आनंद की आभा खिलती रहे
भावों के मोती में
प्रेम - दीप जलता रहे🌋
स्वरचित- आशा पालीवाल पुरोहित
कुछ सोचो घर द्वार सजाने से पहले।
देखो भाई बिन क्या तन्हा जी पाओगे।
अपने आंगन मे दीवार उठाने से पहले।
मन को रोशन कर लेते खुशियों से।
तुम दीपक दो चार जलाने से पहले।
फिक्र जरा होती अपनों की गैरों की।
खुद को लम्बरदार बनाने से पहले।
अदब और कायदा तुम भूल गए हो।
इस बर्बादी को यार बनाने से पहले।
थोड़ा सा किरदार बना लेते अच्छा।
तुम बंगले मोटर कार बनाने से पहले।
हम पर हंसने वालों कोई बात नहीं।
तुमसे हमें है प्यार जमाने से पहले।
अभी बहुत लम्बा रस्ता दूर है मजिंल।
जरा सोच कदम चार उठाने से पहले।
तौल के अपना दिल देख कभी लेना।
सबको झूठा मक्कार बताने से पहले।
आज दहन करले द्वेष मन के सोहल।
ये झूठे पुतले हर बार जलाने से पहले।
विपिन सोहल
इस बार दीवाली हम इस तरह मनायेंगे
अंधेरें घरों में जाकर एक दिया जलायेंगे
खून पसीना बहाकर धरती से अन्न उगाता
खुद भूखा सो जाता और अन्नदाता कहलाता
एक दीप किसानों के हम नाम जलायेंगे
इस बार दीवाली हम इस तरह मनायेंगे
हम को सुरक्षित रखते खुद वो पत्थर सहते हैं
हम घर में त्यौहार मनाते वो दुश्मन से लड़ते हैं
एक दीप जवानों के हम नाम जलायेंगे
इस बार दीवाली हम इस तरह मनायेंगे
जो कचरे को चुनकर परिवार चलाते हैं
फुटपाथों पर सोकर जीवन बिताते हैं
एक दीप गरीबों हम के नाम जलायेंगे
इस बार दीवाली हम इस तरह मनायेंगे
प्रेम के दीप जलाकर नफरत की आग बुझा देंगे
जात पात और ऊँच नींच का दिल से भेद मिटा देंगे
हम दिलों में मोहब्बत के दीप जलायेंगे
इस बार दीवाली हम इस तरह मनायेंगे
सूना न रह जाये किसी पड़ोसी का त्योहार
फर्ज हमारा है उनसे भी बाँटे प्यार
प्रेम के रंगों से हम सब रंग जायेंगे
इस बार दीवाली हम इस तरह मनायेंगे
खील खिलौने और मिठाई से त्योहार मनायेंगे
प्रदूषण वाली चीजों से न हाथ लगायेंगे
हँसी खुशी से हम त्यौहार मनायेंगे
इस बार दीवाली हम इस तरह मनायेंगे
*दिवाली की टीस*
-----🎉🎉🎉🎉🎉🎉----
दीप खुशी के हर आँगन
दिपदिप कर रहे
पास ही चंद झूंपे अंधेरे में अपनी बेबसी की आहें भर रहे
खिलखिलाहटें जगमग आँगन में
पटाखों की थी फूट रहीं
फुस बम -सी नीम अंधेरों में
सिसकियां थी भर रहीं
प्रबुद्ध वर्ग के शब्दों में भी थी
आवाज बम गोलों सी
हर गली, हर कोने में चराग
रौशन करने की
आ के दीपावली जाने लगी है
कई घरों में आज भी अंधियारी
घनी है/ मिट्टी के दीवे बनाते हाथों में फूलझड़ियां भी तो नहीं हैं
हर ओर लड़ियां ही लड़ियां दिखी हैं/ माटी के दियों की हर सूं कमी
दिखी है ।
डा.नीलम.अजमेर
स्वरचित
चहुँ ओर दिखें त्रैताप व्याप्त
गृह लक्ष्मी जब है व्यथित क्लान्त
है बहुत दूर सुख और शांति
जीवन बस आपाधापी है
तब तक दीवाली बाकी है ।
ढाबे का छोटू उदास है
घर का न कोई भी पास है
फुलवा ने बेंचे दिये रुई
जुगनू की बिक्री हुई नहीं
जब तक कुछ ऐसी झांकी है
तब तक दीवाली बाकी है ।
वो अवध जहाँ अवधेश हुए
उनको भी कितने क्लेश हुए
सौगन्ध रोज झूठी खा लो
मर्यादा पुरुषोत्तम को भी
मर्याद न्याय की दिखवा लो
जब तक मंदिर निर्माण नहीं चेहरे हैं मलिन उदासी है
तब तक दीवाली बाकी है ।
अनुराग दीक्षित
सरहदी सिपाही हूँ, आज मैं भी दीवाली मनाऊंगा
दीप जलाकर सरहदी समय को यादगार बनाऊंगा।।
मेरी साथियों की शहीदी की याद भी मैं दिलाऊंगा।
भारत माता का गीत, मैं आज खुलकर सुनाऊंगा।।
प्रिय संग बीते पलों को याद कर, दिल बहलाऊंगा
दुश्मनों को धूल चटाने की कोई नीति नई बनाऊंगा।
देश का रखवाला हूँ मैं दीवाली इस तरह मनाऊंगा।
दुश्मनों को चटाई धूल का जश्न भी मैं मनाऊंगा।।
क्या पता कब हिन्द देश के मैं काम आ जाऊं।
जब तक जान है मैं हर दिन दीवाली सा मनाऊंगा
स्वरचित
सुखचैन मेहरा
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