Tuesday, November 13

"बादल "13नवम्बर 2018

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झुक गया है आसमान अब, 
बादलो के भार से ।
अबकी धरती सोना देगी,
लग रहा है आज ये॥
🍁
सारे कर्जो को चुका के,
कुछ नया सा काम हो।
सोच कर ही खुश है गर,
बादल जो उसके साथ हो॥



ओ ! बादल कारे......
****************

अबकी बार ओ ! बादल कारे 
ऐसे बरसना मेरे द्वारे,
न तन प्यासा रहे,न मन
रिमझिम का हो गुँजन
सोंधी मिट्टी से महके घर आँगन!

अबकी बार ओ ! बादल कारे 
ऐसे गुनगुनाना मेरे द्वारे,
जिंदगी गुलज़ार हो जाए
दुल्हन सा सिंगार हो जाए
प्यार की फुहार हो जाए !

अबकी बार ओ! बादल कारे
ऐसे महकना मेरे द्वारे,
फूल महके गली गली
पखेरु चहके डाली डाली 
सिंदूरी शाम सी फैले लाली !

अबकी बार ओ ! बादल कारे
ऐसे थिरकना मेरे द्वारे,
पायल की रुनझुन हो पाँवों में 
मन मयूर गीत गाए पीपल की छाँवों में ।
गूँजे मंगल गान गाँवों-गाँवों में !

अबकी बार ओ ! बादल कारे 
ऐसे संवरना मेरे द्वारे
इंद्रधनुषी हिंडोलन हो 
सपनों के झूलते तोरन हो 
रिमझिम बरसता सावन हो !

अबकी बार ओ ! बादल कारे 
ऐसे बरसना मेरे द्वारे....!!!
(C)सर्वाधिकार सुरक्षित ....भार्गवी रविन्द्र



बादलों को मुसीबत कितना कहाँ बरसायें 
अक्सर ही निन्दा के घेरे में वो कहलायें ।।
कुछ होते जिद्दी बादल कुछ होते शालीन 
आलोचना अन्जाने सबके सर मढ़ जायें ।।

समूह में रहने के ये सिले कहायें 
कोई करे कोई सुने ऐसे दुख आयें ।।
गेहूँ संग घुन पिसता ये सच ही है
शालीनतायें व्यर्थ दोषारोपड़ पायें ।।

बादलों को मत कोसो वो बेचारे हैं
हमने पर्यावरण बिगाडा़ दोष हमारे हैं ।।
शिकवा और शिकायत से पहले सोचो
कौन न जग में ''शिवम्" गम के मारे हैं ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 13/11/2018




यार बादल! आज तो आगया तेरा एक दल,
लेकिन कर गया बड़ी दलदल,
सड़क उबड़ खाबड़ थी गड्डे भी थे,
छोटे भी थे तो बड़े भी थे,
कुल मिलाकर हाथ पाँव टूटने का पूरा सामान था,
ये ज़रूरी नहीं किसको भान था , कौन अनजान था,
कुछ उत्साही नवयुवकों ने चन्दा लेकर मिट्टी डाल दी,
ज़िम्मेदार लोगों ने जब अपनी ज़िम्मेदारी टाल दी,
इधर मिट्टी डाली , उधर तू आया,
बस यहीं मामला गर्माया।

यार बादल! हमारी फ़ितरत अज़ीब है,
आलोचना तो हमारी, हर श्वास के क़रीब है,
इसलिये तू कम बरसे तो गड़बड़,
ज़्यादा बरसे , तो बड़बड़,
प्रेमिका रूठे तो तू रूठा,
बस कहते रहेंगे , तेरे लिये झूठा झूठा, 
एक ने तो तुझे, मेघदूत का दर्जा दे दिया,
संदेशों से लदा कर्जा दे दिया।

तू भी ना थैकलैस विभाग का है,
इसलिये तेरे दामन में, दाग सा है,
सूखा पड़े तो तू एकदम नक्कार
बाढ़ आये तो बिल्कुल बेकार। 

नायक भी तू खलनायक भी तू
विरही वेदना का गायक भी तू
प्रियतम उल्लास का परिचायक भी तू
कवि की नज़रों में बड़ा लायक है तू। 

तेरी कई अच्छाइयाँ गड़बड़ाते हैं,
तू यार! अब इस बात पर गौर करना,
और सम्भल सम्भल कर क़दम इस दौर पे धरना।

स्वरचित 
सुमित्रा नन्दन पन्त 

जयपुर

 हैरान सुन के दास्तां यूं हो गया कोई। 
दर्द मेरे दिल का था और रो गया कोई। 


दिखला के झलक ऐसे खो गया कोई। 
गायब मेरी नजरो से कैसे हो गया कोई। 

करवटे बदल कर कटती नहीं हैं रात।
मुझको जगा के जैसे के सो गया कोई। 

सूखती नहीं नमी पलकों की है मेरी।
आखों में मेरी जैसे अश्क बो गया कोई। 

बिजली थी बादल के काली घटा थी वो। 
रात भर बरसा यूं मन के धो गया कोई। 

विपिन सोहल



उमड़ घूमड़ कर छाये बादल
खुशियाँ बहुत ही लाये बादल

मन मे उमंग जगाये बादल
हरियाली ले आये बादल

काले बादल ,चमकिले बादल
कई रूप ,रंग में छाये बादल

श्याम बादल ,सफेद बादल
रूई जैसे मुलायम बादल

आकृती बन कर छाये बादल
युगल रूप बन जाये बादल

प्रभु रथ मे जुड़ जाये बादल
गरूड़ ,घोडा़ बन जाये बादल

प्रकृति प्रेम सर्जाये बादल
मन में प्यार जगाये बादल

किसान खुश हो जाते बादल
खेतों में जब बरसे बादल

पशु ,पक्षी से लगते बादल
कुत्ता ,बिल्ली बन जाते बादल

लोग झुमने लग जाते बादल
गगन मंडल में जब छाये बादल

स्वरचित कुसुम त्रिवेदी दाहोद




सुण ऐ काळी बादळी
तूं बरस उस गांव पर,
एक ही पनघट जहां है
पीपळी की छांव पर l

वो जगह जहां शोर कम
कोयल कूके गाए मोर है,
घट्टियों की पिसती लय में
होती सुबह भोर है ,
तेरी आशा तेरा सगुन
लग जाता सब दांव पर, 
सुण ऐ काळी बादळी l

उस धरा को सींच दे
जो प्यासी तेरी आस में
च्यारों ओर बिखरी मरू है
खाली घड़े, पनिहारियों के पास में,
हिरणों के झुण्ड कूदते
सूखे मिट्टी ठांव पर,
सुण ऐ काळी बादळी l

तेरी बूंदों को मिलेगा
प्यार का सागर जहां
चूम लेगा तड़फ कर
कण-कण का वो कॉरवां,
मै भी मिलूंगा तुझ से लिपट कर
सपनें लिये मन-भाव पर,
सुण ऐ काळी बादळी l

तेरी खुश्बू ऐसे फैले
उम्र भर जो याद रहे
तेरी हर इक बूंद से
जिन्दगी आबाद रहे,
खिले चमन मन आंगना में
खुशियां हो सर पांव पर ,
एक ही पनघट जहां है
पीपळी की छांव पर,
सुण ऐ काळी बादळी l


मेघ काले, भूरे ,उडात नभ मे फिरे, पवन पुरुवाई की आनन्द को बढाती है ।
रवि की अठखेलियाँ, छिपती बन पहेलियाँ, रिमझिम फुहार भू तपन को मिटाती है ।।

-1-
पावस ऋतु मनभावन, खासकर अषाढ, सावन, पानी ही पानी इस धरा पे दिखाती ।
भौमि निज बुझा प्यास, खाद्य का कर विकास, प्रकृति के जीव का जीवन सजाती ।।
जीव- जन्तु हो मगन, जीवन की रख लगन , वर्षा मे भीग नव जीवन सा पाती है ।
रवि की अठखेलियाँ, छिपती बन पहेलियाँ, रिमझिम फुहार भू तपन को मिटाती है ।।

-2-
दामिनी गरजै घुमडि , चमकै मनमोद भरि, वर्षा सुहानी को पथ दिखलाती ।
मोर मगन नृत्य करि, मेढक टर्र-टर्र करि, पावस ऋतु पे चार चाँद सा लगाती ।।
तलइयाँ और ताल, नाली नाला उमडात, नदियाँ जल भराव से मदमस्त उफनाती है ।
रवि की अठखेलियाँ, छिपती बन पहेलियाँ, रिमझिम बन फुहार भू तपन को मिटाती है ।।

-3-
जल ही जल दिखे धरनि, सागर सी बने अवनि , बादल घुमडि-घुमडि जल को बरसावै ।
बढे जब जल प्रवाह, प्रकृति हरित छवि दिखाय , वन-उपवन के फल-फूल खिल जावै ।।
जल ही जीवन मे दिखे, पर सीमा मे रहे, प्रकृति ये दुलहनिया की भाँति सज जाती है ।
रवि की अठखेलियाँ, छिपती बन पहेलियाँ, रिमझिम फुहार भू तपन को मिटाती है ।।

राकेश तिवारी " राही " स्वरचित




जानां तेरी तारीफ़ में और क्या कहूं।
तुमको हमारी जान कहा और क्या कहूं।

रौशन ये ज़र्रा ज़र्रा है तेरे ही दम से
तुम्हें आसमां का चाँद कहा और क्या कहूं।

होठों को कँवल ज़ुल्फ़ को #बादल है बताया
आँखों को तेरी जाम कहा और क्या कहूं।

बाहों में है सागर की लहर चाल हिरण सी
तन को लचकती डाल कहा और क्या कहूं।

पाकर तुम्हारी जिस्म की खुशबू से महके फूल
गुल गुलशन गुलफाम कहा और क्या कहूं।

सजदे में तेरी दो जहाँ कुर्बान कर दें हम
तुमको खुदा की शान कहा और क्या कहूं।
"पिनाकी"
धनबाद (झारखंड)
#स्वरचित




बारिश का मौसम आया

काले बादल घिर घिर आऐ।
झूम उठे हैं मनमयूर अब,
दादुर झींगुर गुनगुन गाऐं।

इंन्द्र धनुष सतरंगी रंग बिखेरते,
नर्तकप्रिय नृत्य करतें हैं।
हरित हुई वसुंधरा सारी 
बच्चे मस्त नृत्य कर मन भरते हैं।

हरी चूनरिया ओढी धरती ने 
रंगबिरंगे पुष्प कुसुमित होते हैं
बालक बृद्ध जवान नर नारी,
सभीजन प्रफुल्लित दिखते हैं।

तृप्त हुई है ये धरनी अपनी,
लगता ज्यों बरसों से प्यासी है।
गर्मी के मौसम में सूखी वसुधा,
हुई शीतल अब कहाँ उदासी है।

चहुंओर भरे हैं ताल तलैया
सरिता भर यौवन में इठलाई हैं।
कृषक हुऐ प्रसन्नचित्त सबही,
जब मौसम ने ली अंगडाई है।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.



बादल बन और झूम बरस,
प्यासी धरती की प्यास बुझा।
आशाओं का दीप जला,
आंखों में एक ख्वाब सजा।
तर कर तन, भीगे भी मन,
वो ताक रहा , सुन मौन ब्यथा।
संताप मिटा, बढ़ गले लगा,
लिख नेह बन्धन का नव कथा।
गर्जन का संगीत सुना ,
फ़ुहारों में ढल , आगोश समा।
झर-झर झर, हृद पीर हर,
आल्हादित कर, सींच नेह सुधा।
हृद उमंग बढे, मन मतवाला,
तन अन्तस् पर, कुछ ऐसा छा।
पग नृत्य करे,मन भी थिरके,
झूमें पल पल, जग ये देख शमा।
नव अंकुरण, नव सृजन हो,
बन बादल-घट, प्रेमामृत छलका।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

🌼स्वरचित:शैलेन्द्र दुबे🌼




Nawal Kishore Singh 
मैं,आवारा बादल का टुकड़ा हूँ
भटका रहे हैं, मुझको
हवा के उच्छृंखल झोंके
यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ
पथभ्रमित कर,दे देकर धोखे।
क्या पता,कभी बरस भी पाउँगा
बनकर रस की धार,
जीवन संचार, अमिय फुहार,
सौभाग्यशालिनी वसुन्धरा के अंचल में,
सघन,चौरस,समतल में,
दप दप कर विहँसते खेत में।
या,यूँ ही बरस मिट जाऊँगा
किसी उर्वरहीन, ऊसर रेत में।
या बरस भी न पाऊँ
ये बेदर्दी हवा के झोंके
फिर से भटका न दे
जिन्दगी इसी के हाथ है
जब चाहे चलने दे
जब चाहे रोके।
ऊब गया इस भटकाव से
बेमुरौवत हवा के झोंके
तेरे फरेबी बर्ताव से।
एक आरज़ू है-मुझे एक मुकाम दे
कबतक तिरता रहूँ यूँ ही आकाश में
बेशरम कुछ तो अंजाम दे।
भले ही टकरा दे मुझको
ले जाकर किसी पर्वत,पठार से
अस्तित्व की कुछ फिकर नहीं
चूर चूर होकर भी,
बरस जाऊँगा जलधार से।
भले ही पर्वत की तलहटी
में पड़े पत्थरों पर,
या पथरीले भू में उगे झाड़-झंखाड़ में।
एक सुकून तो मिलेगा पागल।
हाय,ये विडंबना
यही नियति है तेरी-
आवारा बादल।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित




बादल
सूरज की रोशनी पकड़े
मन पतंग उड़ चला
बादल से मिलने
बादल के भी रूप निराले
बदले बदले ढ़ंग दिखातें
अतित्व विहीन या
चित्र विचित्र आकार पनपते
कारे बादल काला मन
चाँद का ढकते तन
नीले अंबर में
सफ़ेद बादलों की तरंग
गरजना, बरसना
या एकाएक रुक जाना
बिल्कुल इंसानी फ़ितरत
की तरह
लालच का लॉलीपॉप
दिखाकर पनप रहा बाज़ार
इन्हीं बादलों पे सवार
कटते, गिरते, गोता खाते
मन पतंग उलझ रहे
अपने ही धागों में

स्वरचित
डॉ नीलिमा तिग्गा (नीलांबरी



*कपसीले बादल **

अभिलाषित उर नयनों को 
करते तृप्त बनकर सागर
ललित मनोहर रूप धर आते 
नभ पर छाते घनेरे बादल। 

जानें कहाँ- कहाँ से आते
निरभ्र नील गगन में छाते
नभ पर विहँसते झूमते गाते
नव- रूप धरे नशीले बादल। 

कभी गरजते कभी बरसते
नव- नाद कर बूँदें छलकते 
श्यामल चहुँ- दिशी बिखरते
नभ पर सघन पनीले बादल ।

थम जाता मेघा का नर्तन 
होता स्निग्ध निर्मल गगन 
रुई के पहाड़ों सा लगते
कपस- कपस कपसीले बादल। 

रवि गाता है जब विदाई गान
फैलता नभ पर सुंदर वितान 
काले,पीले ,भूरे रंगों में
नर्तन करते रंगीले बादल।

तुमसे ही होता सृष्टि गान
धरा को देते उर्वर प्राण
बंजर -दग्ध प्यासी भूमि को 
रससिक्त करते रसीले बादल।

स्वरचित 
सुधा शर्मा 
राजिम छत्तीसगढ़ 
13-11-2018



रश्मिरथी को देख शर्माते बादल 
अंशुमाली को आता देख 
कोहरे की बाँह पकड़ 
बड़ी तेजी से भागे बादल ।
गगन में धूल उड़ाते उधम मचाते 
रूई के फाहे बिखराते बादल ।
नन्हे बच्चों संग करते अठखेली
बुजुर्गो को जीभ चिढ़ाते बादल 
शीत की ठिठुरन बढ़ाते बादल ।
कभी पहाड़ों से टकराते बादल 
कभी छोड़ सागर का बिस्तर 
झंझा की पीठ पर हो सवार 
छुप कर गगन की ओट सो जाते बादल ।
कभी खेलते दामिनी संग, 
गरज गरज इठलाते खूब 
बैठ पेड़ो की झुरमुट में 
अश्रु खूब बहाते बादल ।
कभी कृषक को गुदगुदाते 
कभी मन हर्षाते बादल 
कभी चिढ़ा कर खूब रूलाते बादल ।
(स्वरचित )सुलोचना सिंह 
भिलाई (दुर्ग )




आओ वादलो आ के बरसो, तुम भारत देश नगरिया 
फसल प्यार की सूख रहीअब बन जाओ नेह बदरिया |
नफरत की तुम बाड बहा दो, भर दो देशप्रेम की नदिया 
भाई भाई सब एक हों जायें , तुम भेजो यही खबरिया |
लहरायें फसलें स्वाभिमान की लालच को डुबो जाओ
हर घर आँगन महक उठे, फूल एकता के खिला जाओ |
बस इतनी सी अरज है वादल खेतों में सोना भर जाओ 
भूख गरीबी न रह जाए, तुम ऐसा जल बरसाकर जाओ |

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,

बदला है मौसम बादल गरज उठे हैं,
किसानों के चेहरे चमक उठे हैं,,

आओ बरखा आओ तुम्हें नमन है,
एक तेरी कृपा से खिला ये चमन है,,

गर्मी से बेहाल थे कब से,
सकूँ मिला जब बादल बरसे,,

पानी की हर बूँद में है जीवन,
आज खुशी से झूमा सबका मन ,,

मन करता है आसमान तक होकर आंऊँ,
काले नीले बादल घर तक लेकर आंऊँ,,

ऐ जगत के प्यारो पेंड़ खत्म न करना,
एक दिन बूंद बूंद को तरसोगे वरना,,

आज से अब से हर एक को एक पेंड़ लगाना है,
कसम उठाओ वादा करोे परियावरण बचाना है,,
अखिल बदायूंनी, बदायूँ, उत्तर प्रदेश


स्वेत आवारा बादल ......

पावस की सांझ रंगीली........

धन गर्जन से भर दो बन

तर कर दो पपीहे का मन

यह पावस की सांझ रंगीली

काली घटाओं की रात नशीली

आज घेरे हैं मेरे बादल साथी

भीग रहा है भूवि का आंगन

उठो -उठो रे आया सावन

यह है पपीहे की रटन

दम तोड़ रही है 

शबरी की घुटन

सारस की जोड़ी सरोवर में

मधुर मिलन करते तरुवर में

उपवन -उपवन कांति कामिनी

गगन गुंजाये मेघ दामिनी

पवन चलाए बाण बूंद के

सहती धरती आंख मूंद के

बेलो से अठखेली करते

प्रेम पराग ठिठोली करते

मोर मुकुट को पहने वन को जाते

सतरंग चुनर ओढ़े पपीहा गीत गाते

अरे पागल बादल बरसो....

आद्र सुख के कर क्रंदन में

प्यासी धरा के स्यंदन में 

तरुण तरुवो के नंदन में

चंदन बन के गुंजन मे

वर्षा के प्रिय स्वर उर, 

में बुनते सम्मोहन

प्रणय कीट विहग करते,

धवल चांदनी के गगन मे

मेघो के कोमल मन 

,श्यामल तरुवो के मनमोहन

मन में भू अलग लालसा लिए

, खिलखिलाये गोपन

इंद्रधनुष के झूले में खिल जाते

, प्यासे पपीहे का चितवन

स्वरचित...
सत्य प्रकाश सिंह केसर विद्यापीठ इंटर कॉलेज प्रयागराज


विधा:- गीत

नील गगन में छाते बादल, 
सबके मन को भाते बादल।

उमड़ घुमड़ कर शोर मचाते,
बच्चों के हैं मन को भाते।।
पीले , भूरे, काले - काले, 
मद मस्त मतवाले बादल।।
नील गगन में------

चंचल चपला चमक रही है,
मेघ दामिनी दमक रही है।।
बीच - बीच में गर्जन करते,
जैसे हों धमकाते बादल।
नील गगन में-------

मोर पपीहा चहक रहे हैं,
तरु खुशबू से महक रहे हैं।।
खेतों में हरियाली करते,
जब पानी भरकर लाते बादल।।
नील गगन में--------

मन्द सुगन्धित चलती पवन,
पुलकित होता है तन -मन।।
विरहन के मन को तड़पाते,
जब घहर घहर घहराते बादल।।
नील गगन में-----

पूर्णतः स्वरचित स्वप्रमाणित
शिवेन्द्र सिंह चौहान(सरल)
ग्वालियर म.
प्र.

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