Tuesday, November 27

"उपहार "27 नवम्बर 2018




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प्रभु तुम हो जगत के पालनहार,
है तुमको मेरा बारम्बार प्रणाम,
कितने मिले तुमसे उपहार,
जीवन कर दिया मेरा खुशहाल |

माँ की ममता मुझको मिली,

पिता के साये में पली बड़ी,
भाई-बहन का मिला मुझे प्यार,
कितने सुन्दर दिये तूने उपहार |

सुन्दर काया मुझको दी,

फिर डाल दिये उसमें प्राण,
सरस्वती माँ का मिला आशीर्वाद,
प्रभु तुम्हारा,आत्मीय आभार |

तुम्हारी कृपा से ही प्रभु,

मिला मुझको सुन्दर घर-संसार,
जीवन -साथी का मिला प्यार,
गोदी के लाल दिये तूने उपहार |

सोच रही हूँ मैं अब प्रभु,

क्या दूँ तुमको मैं भी उपहार,
श्रद्धा-सुमन मैं लायी हूँ,
भेंट मेरी प्रभु!कर लो स्वीकार |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*



शारदे माँ दिव्य रूपा,पद्म पाणी पसार दे, 

मन वीणा के तारों में शुद्ध शांत झंकार दे, 
धवल सरोजा पुस्त पाणी शुद्ध बुद्ध विचार दे, 
नित्य वंद्या वीणा वादिनी मति गति उपहार दे। 
🍁रागिनी नरेंद्र शास्त्री 🍁



प्यार से दी गई हर एक शय उपहार है
प्यार बिना भारी लगे हीरों का हार है ।।

कृष्ण चाव से खाये सुदामा के चावल सूखे
कृष्ण तो कृष्ण थे किस चीज के थे भूखे ।।

शबरी के झूठे बेर श्री राम वन में खाये थे
उपहार में तो प्रेम ही श्रेष्ठ सबने बताये थे ।।

प्रिय के जन्म दिन को मैंने कुछ सँजोया है
कुछ गज़लें नज्म कुछ गीतों को पिरोया है ।।

देख के मेरी मनोदशा कल चाँद भी हँसा था
शायद सबसे ऊँचा उपहार स्वयं को समझा था ।।

चाँद तोड़ के मैं न दूँगा चाँद में तो दाग है
मेरे गीतों में कितनी तड़फ कितनी आग है ।।

उपहारों की शान बढ़ाता मेरा ये उपहार है 
हर धड़कन में 'शिवम' प्रिय का बेशुमार प्यार है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"



 ना मोतीयों का हार,
ना सिक्कों की झंकार।
मुझे चाहिए बस पिया,

तेरे प्यार का उपहार।।
पहन जिसे,मैं इठलाऊं,
मुख दर्पण में देख सरमाऊं,
बिन गहने,करूं श्रृंगार।
मुझे चाहिए बस पिया,
तेरे प्यार का उपहार।।
निलम अग्रवाला, खड़गपुर




उपहार मिले जाने कितने

तुझ - सी सौगात नही कोई
दामन मेरा खुशियों से भरा
तुझ - सा उपहार नही कोई

खुशियाँ ही खुशियां जीवन में

मैं चंचल हवा - सी उड़ती हूँ
पुरवैया - सी भाती मुझ को
तुझे देख - देख जी उठती हूँ

तूने अरमान किये पूरे

ईश्वर की सुंदर रचना तू
प्रभु से तुझको मैंने माँगा
मेरी चाहत का ईनाम है तू

तुझ जैसी कितनी दुनिया में

पैदा होते मारी जाती
प्रभु ने भेजी सौगातें जो
कुछ कद्र ना उनकी हो पाती

दुनिया वालों कुछ कद्र करो

तुम बोझ ना समझो बेटी को
खुशियों से दामन तुम भर लो
प्रभु की पाकर सौगातों को

प्रभु ने बक्शा है नजराना

खुद पर भी तुम अभिमान करो
रक्षा का उसकी प्रण ले लो
बेटी पर अपनी मान करो
सरिता गर्ग



सबकुछ दिया है दाता तूने
क्या मांगूँ तुझसे उपहार।
भक्तभाव मुझे मिल जाऐ
मुझको हो अनुपम उपहार।

नहीं कामनाओं का डेरा हो।
नहीं वासनाओं का घेरा हो।
यही चाहता तुमसे हे भगवन,
घर मात शारदा का डेरा हो।

मनमंन्दिर दूषित नहीं हो मेरा।
इसमें सिर्फ शांति का हो डेरा।
प्रेमपुष्प विकसित हो जाऐं गर
उर निर्मलकर उपकार हो तेरा।

प्रकृति बडी उपहार मिली है।
सर्वोत्तम यहाँ बहार खिली है।
इसका ही हम संरक्षण करलें,
मानें हमें ईश सरकार मिली है।

देना चाहें प्रभु सबको वर देना।
सबके घर खुशियों से भर देना।
स्वप्न सभी के साकार हों भगवन,
भक्ति उपहार सभी के घर देना।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय




जीवन हमको है मिला यह अनुपम उपहार ।

पंकज इसका हम करें नित दिन ही सत्कार ।।
जीवन के उपहार को कभी नहीं तू तोल ।
छोटा होता नहिं बड़ा होता यह अनमोल ।।
प्रभु ने इक उपहार में दिया मधुर संसार ।
सबसे मिल के हम रहें करें सभी से प्यार ।।
पशु पक्षी मानव सभी कुदरत के उपहार ।
धन्यवाद दें हम उसे और कहें आभार ।।
आदेश कुमार पंकज ( c )



उप हार/-

जीव को जीवन का उपहार
प्रभु की करूणा का आधार ।
मिला है हमको मानव जन्म
कर्म करने का है निज धर्म ।
करो न यूंं ही इसको बर्बाद
करो इसे सत्कर्मों से आबाद 
करो न कोई ऐसी कोई भूल
चुभे जो उर में बनकर शूल ।
मिला जो जीवन है इकबार
मिलेगा नही वह बारम्बार
रहेगी चाहत बनकर आस
आस बनकर उपजे विश्वास ।
स्वरचित /-उषासक्सेना



दिया विधाता ने हमें जीवन का उपहार।

शीश नंवाकर मानते हम उनका उपकार।।
श्रेष्ठ बनाया है हमें देकर बुद्धि विवेक।
पर उपकारी हम बनें कार्य करें हम नेक।।
हितकारी बनकर जियें अपनाएं निज धर्म।
कुपथ मार्ग को त्याग कर राह चलें सत्कर्म।।
हर प्राणी के वास्ते मन में हो अनुराग।
जिसको मानव तन मिला वो अति बड़भाग।।
कलुषित बुद्धि विचार को मन से कर दें नष्ट।
जीवन में सुख आएगा कभी न होगा कष्ट।।
मिला जो जीवन भाग्य से कर्म से करें महान।
नहीं बने अभिशाप ये हमसे ये वरदान।।
"पिनाकी"



उपहार दिलों का बंधन

उपहार लाते खुशियां
अपने अच्छे व्यवहार से
बांटो सबको खुशियां

उपहार का न कोई मोल

बस प्यार के दो मीठे बोल
ऐसा उपहार का स्वभाव
मत इसको शब्दों से तोल

रिश्ते होते है अनमोल

सोच समझकर बोल
संग चले बनकर साया
शब्दों को पहले तोल

व्यवहार हो सुभाषित

हो तन सुशोभित उसका
उपहार मिला वाणी का
समझो तुम मोल इसका
स्वरचित :- मुकेश राठौड़



ईश्वर का वरदान है ,ये जीवन #उपहार
बस तेरा सुमिरन करूँ, मानूँ मैं उपकार।

मात-पिता जीवन दिया , पाला इस संसार

कर्ज उतारूँ किस तरह,क्या मैं दूँ #उपहार।

दया-धर्म जिस देह में , धारे नहीं विकार

बाटें जग में प्रीत बस ,सर्वोत्तम #उपहार।

न मांगूं मोती-माणिक,नहि कोई #उपहार

मैं तो मांगूं जगत से , बस थोड़ा-सा प्यार।

सीरत अच्छी चाहिये , सूरत पर धिक्कार

कर्म करेगा जिस तरह , पाएगा #उपहार।
~प्रभात



चुटकी भर सिंदूर का

दिया तूने उपहार पिया
झिलमिलाता आँगन मिला
दो वदन एक जान हुआ

बगिया में एक फूल खिला

जीवन मेरा महक उठा
मिलन का प्रतीक उपहार मिला
मन से यह स्वीकार हुआ

रुनझुन बजती पाजेबों से

घर आँगन चहक उठा
ईश्वर का वरदान मिला
मेरा मन भाव विभोर हुआ

नन्हीं परि पुकारती जब माँ मुझे

सुंदर यह संसार लगा
मन मयूर सा नाच उठा
सपना मेरा साकार हुआ

स्वयं को ढूंढती उस चेहरे पर

प्यारा सा एहसास जगा
मुझे मेरा बचपन उपहार मिला
मन मेरा चंचल हुआ

मेहनत उसकी रंग लाई

झूमती हुई खुशियां आई
सफलता जब हासिल हुआ
उपहार स्वरूप ताज मिला

जीवन से नहीं कोई गिला

नारी जीवन परिपूर्ण हुआ
जन्म मेरा सार्थक हुआ
स्वरचित पूर्णिमा साह 




अनुभूति प्यार की रहती है, हमें मिलने वाले उपहारों में, 

उत्साह उमंग जगा जाते हैं, ये जन मानस के जीवन में, 
ये उपहारों का लेना देना,चल रही रीत पुरानी दुनियाँ में, 
उपहार बन गया आजकल, साधन खुश करने का जग में, 
आदान प्रदान उपहारों का,भ्रष्टाचार बन गया अब जग में, 
थाअनमोल कभी उपहार बडा,कीमती हो गया ये जग में, 
अब हैसियत ही दिखाई जाती है ,रही भावना नहीं उपहारों में, 
समानता, एकता, प्रेम भाव, हो सबके लिए अपने मन में, 
उपहार वही होगा सुन्दर उपयोगी , हर इक के जीवन में |
स्वरचित, मीना शर्मा,



हंसती मुस्कुराती चंचल सी

मन को भाती मनमोहिनी सी
यह प्रकृति का अनुपम उपहार
बेटियां हैं घर का श्रृंगार
अपने कोमल निर्मल मन से
करती शोभित दो-दो घर
माँ-बाप के दिल का यह टुकड़ा
सुंदर इनका चाँद सा मुखड़ा
करती शोभित घर पिया का
करती रोशन नाम पिता का
प्रभू की यह अनमोल कृति है
उपहार में जो सबको मिली है
फिर भी इसका कोई मोल न जाने
मिलते सदा ही इसको ताने
टूटती बिखरती उठ खड़ी होती
मुश्किल में भी यह डटी रहती
हर जगह तिरस्कार है पाती
फिर भी सदा रहती मुस्कुराती
कोई न पाए इसको तोड़
बेटियां है पर नहीं कमजोर
माँ काली का है यह वरदान
बेटियां सृष्टि का अनुपम उपहार
विधाता की अनमोल कृति
नारी रिश्तों की है जननी
***अनुराधा चौहान***




उपहार प्रतिरूप भावना का,

मन में निहित कामना का,
प्रसन्नता के अतिरेक का,
साकार सुन्दर स्वरूप है।

निस्वार्थ भाव हो निहित,

प्रेम भाव हो विहित,
औपचारिकता से रहित,
तभी सार्थक उपहार है।

लेन-देन का भाव प्रबल,

भावनाएं हों निर्बल,
मात्र औपचारिकता में,
दिए उपहार व्यर्थ हैं।

दिल को दिल से जोड़ने में,

अमिट स्मृतियां छोड़ने में,
सोए भावों को जगाने में
उपहार ही समर्थ हैं।

प्रेम की प्रगाढ़ता बढ़ाना,

रिश्तों में ताजगी लाना,
मन को मन से मिलाना,
उपहार का उद्देश्य है।
अभिलाषा चौहान



तुम्हारा जीवन में आना एक उपहार था
मन की वीणा का झंकृत होता तार था
तन्हाई में शहनाई का लुभाता प्यार था
एक अनोखी कल्पना का हो जाना 
साकार था। 

तुम कविता थीं अनुपम श्रॅगार की

तुम गहराई थीं अद्भुत अलंकार की
तुम परिभाषा थीं समर्पित प्यार की
तुम सुगन्ध थीं दाम्पत्य के सुन्दर हार की। 

जो चाहा जीवन में मिला

नहीं रहा कोई कभी गिला
बैचेनी नहीं सकी कभी हिला
चमका सम्बन्धों का सदा किला।



क्या दें हम तुम्हें उपहार प्रिये,

बतलाओ तो हे प्राण प्रिये।
हम जैसे भी हैं हाजिर हैं,
करलो हमको स्वीकार प्रिये।
माना हम थोड़े नटखट हैं,
पर करते नहीं कोई हरकत हैं।
अब चाहे जैसा व्यवहार करो,
हम तो बस आपके हमदम हैं।
आशा है तुम स्वीकारोगी,
मेरे प्यार को तुम पहचानोगी।
यों ना बिसराओगी मुझको,
मेरे प्यार को तुम अपनाओगी।।
(अशोक राय वत्स



रखें सहेज कर जीवन,यह अनुपम उपहार।

करें सदा ही शुभ कर्म, जीवों का उपकार।। 
सुरेश मंडल



क्या उपहार दूँ.. 
तुम्हें मैं...
क्या उपहार दूँ... 
वस्त्र दूँ गरीब तन को....
या अमीर चाटुकार बन...
तुम्हे रेशम उपहार दूँ...
तुम बोलो क्या चाहिये...
तुमको मैं....
क्या उपहार दूँ....

अट्टहास करते दानव की...
भुजा उखाड़ दूँ...
कोमल काया से या कोई...
मैं खिलवाड़ करूँ...
बोलो न तुमको, मैं...
क्या उपहार दूँ....

कुत्तों से खाएं छीन जो... 
उन्हें भोजन ओ प्यार दूँ...
या तेरे अहम को मैं... 
माला-हार दूँ...
बोलो न तुमको, मैं...
क्या उपहार दूँ....

धूप में जलती भुनती काया...
अपना पेट जो भर न पायी...
उसको खाना दो बार दूँ...
या तेरे पेट को मैं...
और विस्तार दूँ...
क्यूँ चुप्प हो तुम बोलो न...
तुमको, मैं...
क्या उपहार दूँ....

ज़मीर अपना मार कर मैं...
बेशर्मी...बेहया सत्कार करूँ...
नहीं तुम्हें मैं देख देख...
खुद को ही मार लूँ...
क्यूँ मौन धरा तुमने अब...
बोलो ज़रा..तुमको, मैं...
क्या उपहार दूँ.....

जिह्वा मौन..शिथिल अंग हैं... 
धरती पे तेरे नयन गढ़े हैं...
इन्हें पुकार करूँ...
या पत्त्थर हो मैं मौन धरूँ...
बोल न तू...तुमको, मैं...
क्या उपहार दूँ.....

निश्चल ...निर्मल प्रेम..
आरूढ़ नहीं हो तुम...
निर्लज्ज..निरंकुश...आरोही तेरा...
क्या आह्वान करूँ...
फूटो तो ओ शिला मस्तक ...
मैं तुम्हें....अब...
क्या उपहार दूँ....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 





परम पिता परमेश्वर ने दिया सुंदरम
मानव जाति का अमोल उपहार
विनीत भाव से हर दिन महिमा गाती
करती हूँ शुक्रिया तेरा ,मेरे प्रभु बारंबार
जननी माँ ने मुझे जन्म देकर
जीवंतता का दिया उऋण उपहार
पिता मेरे ने किया संरक्षण मेरा
करती वंदन आप हो मेरे पालनहार
धरती माता ने मुझे अपनी गोदमें खिलाया
बाल्यकाल की मस्ती का अनूठा उपहार दिया
क़लम चलाकर किताब पढ़ाकर
गुरुओं से मिला मुझे साक्षरता उपहार
सुख दुःख में सदा हाथ बँटाया
सखियों से साख़्य भाव उपहार पाया
जब जीवन में तरूणाई छाई
परिणय सूत्र में बँधने की बारी आई
पति से मिला अर्धांगिनी नाम उपहार
दाम्पत्य जीवन परवान चढ़ा
मातृत्व का भान हुआ 
पुत्रों से मिला माँ कहलाने का उपहार
शिक्षार्थी से जब सेवार्थी बन गई
विद्या के मंदिर में मिला अध्यापन का उपहार
साहित्य के दर्पण में समाज को जो देखा
चिंतन -मनन ,दर्शन,अनुभूति से जोड़ा
देवी श्वेतांबरी की जब अनुकंपा हुई
आशीष रूप में लेखन का उपहार दिया
अपने उपहारों को सदा सहेजा
करती मान-सम्मान उनका बार बार
जग जीवन सुंदरतम हो जाए
देना चाहूँ ऐसा मैं भी एक उपहार ।

स्वरचित
संतोष कुमारी






जीवन जीना ही उपहार है
प्रभु स्वयम कर कमल दिया
दिया दिया सब कुछ है उसने
बदले में कुछ क्या ले लिया
प्रकृति का उपहार दिया है
श्वासों की डोरी का बंधन
प्राणवायु प्रदूषित करते
जीवन मे हो जाता क्रंदन
षष्ठ ऋतुओं का मोहकचक्र है
परिवर्तन भी शुभ संदेशा
कलियां चटके फूल महकते
मलय पवन आनंद ही देता
अगन गगन जल वायु भूमि
सबके लिये उपहार दिये
कोई महका प्याला पीता
कोई अमृत का घूंट पिये
गङ्गा यमुना ताज हिमालय
सूरज,चँदा,तारे झिलमिल
सीख सिखाते हैं दुनियां को
क्यों नहीं रहते,तुम हिलमिल
अद्भुत सब उपहार बांट दिये
किया भरोसा हम जन पर
जिनको जीना,जग नही आया
वे रोते रहते हैं दिन भर
उपहारों को मोल तो समझो
अमूल्य जीवन को जानो
अनमोलक उपहार बिखरे हैं
उस दाता को मन से मानो।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम्






खोलो द्वार मैं लाई उपहार
है अनूठा, यह अलग उपहार
जागृत करने आई मैं आज
पुलकित मन से लो उपहार

सदा रखना तुम इसका ध्यान
पौधो का यह बीजो का उपहार
इसको तुम कर लेना तैयार
जब यह उपवन मे महकेंगे

तुम्हारा तन मन भी होगा सुवासित
पेड़-पौधें हमारे जीवन के आधार
उपहार के लेन देन मे जब हम इसे ले अपनाय
तभी बचेगा हमारा यह प्रकृति का सुंदर उपहार।
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।







(१)
प्रभु तुम्हारी हर देन उपहार है ।
तुम्हारी दया मुझपर उपकार है ।
इस दुनिया के अथाह सरोवर में-
जीवन नैया की तू पतवार है ।

(२)
तनया तुम अनुपम उपहार हो ।
भगवन का मुझपर उपकार हो ।
पतझड़ी से जीवन उपवन में-
हरपल छाई नई बहार हो ।
#
स्वरचित,
- मेधानारायण.






बहुत से सुंदर उपहार माता प्रकृति ने हम सबको दिये है
ऊँचे हरे पहाड़ कल कल जल भरी नदियाँ और मस्त पवन दिये हैं
पर हम मूर्ख इनका मूल्य न समझ उजाड़ते नष्ट करते ये उपहार
और अपनी बर्बादी और बदहाली के पक्के इंतिज़ाम किये हैं
(स्वरचित)
अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव







मन में भर जाती उमंग,पुलकित होता अंग अंग,
अनायास उमड़ती है तरंग,बन जाये कोई अन्तरंग,
इतनी बड़ी दुनियाँ फिर भी,पसन्द नहीं हरेक संग,
अनुकूल लगता बस एक ही,प्रेम का मीठा प्रसंग।

जीवन का यह ऐसा भाग,निकलती बस एक ही राग,
कली भ्रमर और कुसुम पराग,
दिल हो जाता, बाग बाग,
खुशी के होते ,रौशन चिराग।

आकर्षण सम्मोहन के,बनते चित्र,
होती अभिलाषा ,आये कोई अनुपम मित्र,
कल्पनायें भी होतीं इतनी विचित्र,
मानों छिड़का हो,किसीने इत्र।

मधुर सपनों का आलिंगन, अंग अंग में स्पन्दन,
यह है कैसा आकर्षण,हर्षित हो जाता हर क्षण,
प्रकृति का अनुपम दर्शन,श्रेष्ठ अर्पण और समर्पण,
मीठी सी होती तड़पन,उल्लास भी होता तत्क्षण।

अकेले न रहो बोली वय,कर लो अब तुम यह निर्णय,
कहने लगा मस्त हृदय,इस बेला में होते परिणय,
भ्रमर मिलाता अपनी लय,कलियों में होता तन्मय,
गूँज गूँज कहता देखो,जीवन का है यही परिचय।



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