Monday, November 5

"स्वतंत्र लेखन "04नवम्बर 2018



ग़ज़ल
२१२२ २१२२ २१२
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यूँ गरीबों को सताना छोड़ दे।
साथ मीरों का निभाना छोड़ दे।
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कब मिली हैं सोचने से मंजिलें 
काम कर, करना बहाना छोड़ दे।
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सीख कुछ तो तू जमाने से जरा
सोच कुछ अनुभव पुराना छोड़ दे।
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जो सुकूं तू चाहता हैं जीस्त में
बेव़फा से दिल लगाना छोड़ दे।
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मान पाना है जहां में तो यहाँ
लूटकर तू धन कमाना छोड़ दें।
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यत्न रूठे को मनाने कर मगर
जो न माने तो मनाना छोड़ दे।
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शेर कहलाना तुझे तो 'राम' सुन
आँख मुफ़लिस को दिखाना छोड़ दे।
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स्वरचित
रामप्रसाद मीना'लिल्हारे'
चिखला बालाघाट(म.प्र.)



मौन व्रत की कितनी महत्ता है आज 
जानिये मौन व्रत की महत्ता का राज ।।

जो भी हम गाते जो भी सुझाते 
जरूरी नही वो सबको ही भाते ।।

जाने अन्जाने वो दुख भी पहुँचाते 
निवारण क्या कभी इसका कर पाते ।।

क्षमा दिवस भी एक होना जरूरी है
हफ्ते में एक दिन चुप होना जरूरी है ।।

सिद्धियाँ भी मौन व्रत में आती ''शिवम"
मौन व्रत की महत्ता न समझना कम ।।

आज बोलने का जो चलन है बढ़ा
कितनी मुसीबत वो समाज पर मढा़ ।।

पत्नि जो न चुप तो पति नाखुश
पुत्र न चुप तो संस्कार से बिमुख ।।

मित्रता में भी यह खलल कराये 
मौनव्रत के मनीषी फायदे बताये ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 04/11/2018

हौले-हौले से तेरा,
जिंदगी में आना याद है मुझको,
तेरा खामोश लब से ,

मुस्कुराना याद है मुझको----

कि दिन बेचैन रहता था,
तड़पती थी मेरी रातें,
हो चाहे जैसी भी महफ़िल,
जुबां पर बस तेरी बातें....
उन्ही बातों पर तेरा,
रूठ जाना याद है मुझको---
हौले-हौले से तेरा,
जिंदगी में आना याद है मुझको,

बड़ी हसरत थी की देखूँ,
हटाकर के चिलमन को,
रखा है बाँध कर जिसको,
सुलगते पूर्ण यौवन को--
मेरी चाहत में तेरा,
बिना पर्दे का आना याद है मुझको----
हौले-हौले से तेरा,
जिंदगी में आना याद है मुझको---

कभी रोई नही मुझसे,
दिल के रंजो-गम कहकर,
कि बस खामोश रहती थी,
दुनिया के सितम सहकर,
दफन कर दर्द सीने में,
तेरा कुछ न बताना याद है मुझको--
हौले-हौले से तेरा,
जिंदगी में आना याद है मुझको---

रईसी थी बड़ी भारी,
जो थी तुम्हारे इश्क़ की दौलत,
फकीरी में भी पा ली थी,
तमामो शान-वो-शोहरत----
तेरी चाहत में सब कुछ,
भूल जाना याद है मुझको---
हौले-हौले से तेरा,
जिंदगी में आना याद है मुझको---

बड़ी माशूम लगती थी,
तड़प तेरी मोहब्बत की,
हजरों दर्द सहकर भी,
तुझे मेरी जरूरत थी,
तेरा-मेरे बुलाने पर--
नंगे पांव आना याद है मुझको---
हौले-हौले से तेरा,
जिंदगी में आना याद है मुझको---

स्वरचित----राकेश पांडेय



क्या बात है ? आंखे भी चुराने लगे हो।

पहले जैसी बात नही करते हो महबूब
क्या बात है ? आंखे भी चुराने लगे हो।
जिस गली से हम गुजरते हैं अक्सर 
उसे छोड़ तुम दूसरी गली से जाने लगे हो?।।

शायद किसी ओर ने जगह बना ली है
तुम्हारे दिल में, जो हमें भुलाने लगे हो।
क्या हुआ आज कल हमसे पहले ही
इंतजार किये बिना कॉलेज आने लगे हो।।

पहल तुमने ही की थी मैंने नहीं फिर
क्यूँ खुद ही हाथ से हाथ छुड़ाने लगे हो ।
मुझ से कुछ गलती हुई है तो बताओ तुम
यूँ चुप रहकर क्यों तड़फाने लगे हो ।।

खा जाएगी तेरी ये खामोशी कसम से
ने जाने क्यूँ आप हमें यूँ सताने लगे हो।
कुछ तो बताओ कि क्या कारण है जो 
आप हमसे मिनतें करवाने लगे हो ।।

चलो खुश रहो, आबाद रहो, जहां भी रहो 
आप हमारे दिल से भी धूमिल हो रहे हो।
लेकिन मिटोगे नहीं दिल से कभी, वादा है
बस आपके मान जाने तक दूर जा रहे हो।।

स्वरचित
सुखचैन मेहरा




कहा किसने मुकद्दर से मिलेगा 
सभी कुछ बैठकर घर से मिलेगा 


खजाने की अगर हो चाह तुमको
जमीं को चीर अंदर ....से मिलेगा 

पसीने बिन सभी कुछ चाहते हो 
नया फिर दौर बिस्तर से मिलेगा 

उतर मैदान में जा हौसला कर
बता दे ताज या डर से मिलेगा 

कलम में धार अपनी ...कोष्टी कर
तभी दिन एक जग भर से मिलेगा 

एल एन कोष्टी
स्वरचित एवं मौलिक

मैं नारी हूँ
संतति की जीवन-श्रृंगार
मैं अनघ,तोरण-वंदनवार
सृष्टि की सृजन हार
मैं नारी हूँ।
मैं इड़ा हूँ, मैं श्रद्धा हूँ
मैं गँगा, मैं वसुधा हूँ
स्वहीन मैं स्वधा हूँ
स्नेह सलिल सुकुमारी हूँ
मैं सृजन की सींचित क्यारी हूँ
मंगल-मोद
वात्सल्य गोद
जगत की जननी
नेह-सुता,भार्या औ भगिनि
मैं बाबुल की दुलारी हूँ
फिर क्यों कोख में मारी हूँ?
खोया निजत्व
प्रबल ममत्व
हर पग सह धर्मिनी
हर पथ अग्रणी
मैं पूजन,मैं भक्ति हूँ
मैं दुर्गा,मैं शक्ति हूँ
मैं पौरुष की अभिव्यक्ति हूँ
सक्षम,सबलों को जनती,
फिर भी मैं अबला,बेचारी हूँ।
क्या मैं दमित लाचारी हूँ?
दामन पे दृग
भयभीत मृग
विषाक्त तृण
निष्कपट, निर्विघ्न
कूलाचों की मैं अधिकारी हूँ
कुटिल,छल-छद्म से अनाड़ी हूँ।
आँचल पर आंख जमाये
हर मोड़ खड़ा दुःशासन है।
पांडव घरों में दुबके हैं,
धृतराष्ट्र हुआ सिंहासन है।
करुण नाद, 
अनसुनी फरियाद
पग पग प्रताड़न औ पहरे
सखा सहोदर हुए है बहरे
मैं सदियों से चीत्कारी हूँ।
आज पूछती विकट प्रश्न
लाज रक्षक,कहाँ है कृष्ण?
मैं व्यथित हृदय से पुकारी हूँ।
हे मोहन,तेरी आभारी हूँ।
मान-भंजित क्यूँ द्रौपदी
खम्भ-जकृत मैं चौपदी
है अकथ्य कथ
ये विकट पथ
मै पग पग क्यों प्रताड़ी हूँ?
युग-युग से तिरष्कारी हूँ।
मैं नारी हूँ।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित



*मन के बैरी ******

मन के बैरी पांच भए, 
मन को अपने वश में किए। 
काम क्रोध मद लोभ मोह, 
मन में पनपे उपेक्षा द्रोह। 
अति कामी व्यभिचार में डूबा, 
चरित्रहीन उस सम न दूजा।
क्रोध समान न बैरी कोय, 
क्रोध में सबकुछ गडबड होय। 
बुद्धि विवेक नष्ट हो जाय, 
बडे़ बड़े काम बिगडाय। 
मद में मदमस्त होय जवानी, 
आंखों में न शर्म का पानी।
मद जब सिर चढकर डोले, 
बडे़ बड़े सिंहासन डोले। 
लोभ मनुज का ऐसा बैरी, 
दीन ईमान की चिता जलाए। 
लोभ में डूबा लोभी देखो, 
कैसे कैसे गुल खिलाए। 
मोहपाश में बंधे जो व्यक्ति, 
उसको कभी फिर मिले न मुक्ति। 
मोह के दलदल डूबत जाय, 
भवसागर से फिर तिर न पाए। 
अलग से ये बैरी नहीं दिखाए, 
पर जब ये हावी हो जाए। 
मनुज की सीरत पल में बदले, 
पतन की राह पर वह है फिसले। 
पाप पुण्य हो जाय बेमानी, 
फितरत बदल जाय इंसानी।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित


हँसता हू
रोता हूँ
मै न होकर
भी पास खुद
के होता है
भूल बैठा हूँ
खुद को
उलझा हुआ हूँ
परेशानी में,गम में
समझ नही पाया
कुछ अनसुना सा है
बिखरा सा
आधा सा
क्या हूँ मैं?
हाँ शायद मैं ही हूँ!
नदी के किनारे!
ख्यालों में!
सपनो में!
तेरे होने में
तेरे न होने में!

-आकिब जावेद
स्वरचित/मौलिक
04/11/18

💐इमारत 💐

अंदर की जमीन
जब
अंदर ही अंदर फटती हैं
बाहर दिखाई नहीं देती ,
आभास होता हैं
फटी दीवारों से
इमारत बन जाने के बाद ।
क्योंकि-
कच्ची होती है
इमारत की नींव
या नहीं पड़ता
आदर्शों का
पक्का दासा
उस इमारत में।

( मेरे कविता संग्रह " अनुगूँज " से )



गुमसुम गुमसुम सी
मेरी हर शाम है रहती
खोई खोई सी घर दरवाजे पर
हरपल इंतज़ार मैं करती रहती 

पल पल तेरी याद सताए
रातों को नींद भी न आए
अनहोनी हरपल सताए
हर आहट पर दिल घबराए

न चिट्ठी भेजी न कोई संदेशा
कब आओगे नहीं कोई अंदेशा
भेज दो लिख कर कोई पाती
रब से मांगती तुम्हारी सलामती

तुम बिन सूना हर एक कोना 
माँ को इक पल आए न चैना
बापू सूनी राहों को निहारे
आँंखों में अपनी नमी छुपाए

भेजी है मैंने तुमको पाती
उसमें सबका प्यार बसा कर
घर का पूरा एहसास बसा कर
भेज है मैंने पूरा परिवार
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित कविता


दीपों का आया है त्यौहार
लाया है खुशियाँ अपार
मना लो ले संग में परिवार 
भर लो मन में उमंग अपार

खुशियाँ छाई चारों ओर
भर ले जोश उल्लास मन में
दीप जलाए ज्ञान का
कर लो प्रकाश अंतर्मन में

छोड़ दो अनाचार का रास्ता
कर लो संकल्प सदाचार का
लड़े हम भ्रष्टाचार से
नाश करें हम अत्याचार का

ना लड़े आपस में हम
हो जाये एक हम
रहे आपस में सब मिलकर
बन जाये नेक हम

ऐसी हो हमारी विचारधारा
रहे अमर देश हमारा
हो साकार वसुधैव कुटुंब का नारा
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा

स्वरचित :- मुकेश राठौड़



विधा:-दोहा-ग़ज़ल
___________________________
तीखे - तीखे नैन से, चला रही है तीर। 
प्रेम-ध्वजा फहरा रही, जा हिय के प्राचीर।

मेरे दिल पर रूपसी, केवल तेरा राज, 
तू मुझमें ऐसे बसी, जैसे श्वास समीर। 

बेकल तेरे ही लिए, रहता हूँ अब मीत, 
देख दशा मेरी स्वयं, नैन बहाए नीर। 

डूबा रहता प्रीति में, तेरी दिन अरु रात, 
मन ही मन बातें करूँ, ले तेरी तस्वीर।

साहिल पर हिय-सिंधु के, पड़ते तेरे पाँव,
छूने को तोड़ा प्रणय, मेरे उर का धीर।

आयी बनकर राधिका, तुम हो मेरे भाग्य,
मैं मोहन का पा गया, जैसे हाथ-लकीर।

पाकर तेरे प्रेम को, पूर्ण हुआ 'मिथिलेश', 
और बनाता स्वप्न में, अपना प्रेम-कुटीर। 
___________________________
✍️ मिथिलेश क़ायनात

बेगूसराय बिहार


दीपावली त्योहार मनाऊँ।
श्रीराम की संगत में आऊँ।
पावन पर्व आज आया है,
यहाँ उमंग में पर्व मनाऊँ।

नारियल खील बतासे लाऐंगे।
बच्चों को फुलझडियां लाऐंगे।
सब परिवार जनों को हमभी
सुंन्दर बस्त्र उपहार लाऐंगे।
हार फूल मै उमंगें लाऊँ।दीपावली त्योहार....

उमंग सभीजनों के मन में।
फैली खुशियां हैं जनजन में।
आज श्री राम अयोध्या आऐ,
जगमग हुई अयोध्या मन में।
अनंत प्रसन्नताऐं मैं पाऊँ।दीपावली त्योहार...

दीपमालिका दीप पर्व ये।
शुभ सभी को महापर्व ये।
दीप दान करें सभीजन,
सुस्वागतम सुखद पर्व ये।
उमंग संग मै इसे मनाऊँ।दीपावली त्योहार...

वैरभाव हम सब छोडें भैया।
मिल जाऐं हमें खूब रूपैया।
जनमन में मकरंद घोलकर,
मनाऐं पर्व हम मिलकर भैया।
मनमंदिर में पर्व मनाऊँ।दीपावली त्योहार.....

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.


"हमारे बुर्जुग(हमारे-धरोहर)

बुजुर्ग हैं हमारे धरोहर
जहां पर है हम आज खड़े
वहां के नींव मे हैं बुजुर्ग हमारे
जीवन आधार है वे हमारे

सतत चले जीवन की पहिया
विराम नही है पल मे कभी
बुजुर्ग अपने अनुभवों से
आने वाले पल समझाते

धरोहर है वे हमारे समाज के
उचित मान सम्मान उन्हें चाहिए
अपने ही घर में उन्हें हम
मान सम्मान देने से क्यों कतराते?

तिनका चुन जो वे नीड़ बनाये
उसमे उनका प्यार समाये
उसे अनदेखा कर के
क्यों हम उनका अपमान करें

जीवन तो है बस एक सीढ़ी
जिस पायदान पर आज वे बैठे
निश्चय ही वह कल हमारी होगी
उन्हें हम देगें उचित सम्मान

निश्चय ही कल हमारी होगी
नही चाहिए उन्हें ज्यादा प्यार
बस थोड़ा सा प्यार, नही तकरार
नही भेजे हम उन्हें बृद्धाश्रम

यदि आज हम उन्हें भेजेंगे
निश्चय ही कल हम वहां होगें
नही है यह केवल एक संदेश
सुधारना होगा हमें परिवेश
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।


कुछ और भी सामां थे जिन्दगी के वास्ते।
क्यूँ दिल जला रहे हो रोशनी के वास्ते।


नफरत का जहर दिल में क्यूँ भर लिया।
खुद ही को मिटा रहे हो दुश्मनी के वास्ते। 

माना के खो गई है बचपन की वो हंसी। 
मुस्कुरा लिया करो कभी खुशी के वास्ते।

मरते थे जिनपे तुम वही निकले हैं बेवफा। 
जी भी लिया करो कभी किसी के वास्ते।

मायूस जिन्दगी ने नाकाम मुहब्बत में। 
दुनिया ही छोड़ दी मैकशी के वास्ते। 

ठोकरें भी खाके मुझे कभी अक्ल न आई। 
बेजा़र है दिल बेरहम अजनबी के वास्ते। 

हुस्न का है समन्दर चारों तरफ सोहल। 
मयस्सर नहीं दो बूँद तिश्नगी के वास्ते। 

विपिन सोहल 

स्वरचित



ग़ज़ल

कहाँ खो गयी है विरासत हमारी,

लगे आज बदली रियासत हमारी, 

धुआँ बैर का दिख रहा है हवा में, 
जला आग बैठी सियासत हमारी, 

कभी हम पकड़ हाथ जिनका चले थे,
दिखे आज उनसे बगावत हमारी, 

डरे आज राखी कलाई से देखो,
यकीं तोड़ बैठी शराफत हमारी,

सभी भूल बैठे जुबाँ ख़ुद की यारों,
नहीं थी कभी ऐसी चाहत हमारी,

चले राह सच की हमेशा "मनी" हम,
सज़ा बन गयी ये सदाकत हमारी,

मनिंदर सिंह "मनी"



भर कागज़ के नोट जेब में,हर दुकान देखते हैं
हैं खरीदार बहुत जमाने में,चलो सामान बेचते हैं
बिकने को बाकी रहा न कुछ भी अब दुकानों में
जमीनें बेंच दी सारी, चलो अब आसमान बेचते हैं

कल और लूंगा आज कुछ कम खरीद लाया हूं
मैं सारी खुशियां बेंच के, ग़म खरीद लाया हूं
कैसे मनाएं हम ये त्योहार रोशनी का
मैं दीये बेंच के सारे,तम खरीद लाया हूं

त्योहार सर पर नाच रहे, महंगाई के अपने तेवर हैं
बच्चों की है खुशियां महंगी, गिरवी सारे जेवर हैं

नया कोई न जख्म मिला, क्यूं है नयनों नीर
फिर कैसा ये दर्द है, कैसी है ये पीर



 मौत और जिन्दगी

मौत ने कहा

मैं तुझे बाँध लूंगी,
जिन्दगी ने कहा
संभव नहीं l

तूं हसरतों की बाढ है
मैं सन्नाटे की बारिस हूं
तूं समय की चाल है
मैं बाद की वारिस हूं
समय की तो सीमा है
इसके बाद जान लूंगी l
मौत ने कहा
मैं तुम्हें बांध लूंगी l

तेरे आनें का डर नहीं
मेरे शरीर की उम्र नहीं,
विचरण मेरा चलन है
मेरा चंचल चितवन है,
मेरा कोई आधार नहीं
तुझसे कोई सरोकार नहीं,
मेरे आगे भी जीवन है
मेरे पीछे भी जीवन है,
तेरे आने का जो पल है
वो केवल एक छल है, 
तेरे आनें का ग़म नहीं
जिन्दगी नें कहा
संभव नहीं l

मेरे आनें पर तेरी रात है
ये समय-समय की बात है,
तूं खेली बहुत खेल यहां
अब होगा तुझसे मेल यहां,
मुझे जानना तेरा धर्म
तुझमें समाना मेरा कर्म,
तेरे शरीर को नाम दूंगी
मौत ने कहा
मैं तुझे बांध लूंगी l

तूं छांया है मुझ शाम की
मेरे लिए नहीं काम की,
मैं बदलती पल-पल, छिन-छिन
चलती हूं घड़ी को गिन-गिन,
मुझे शरीर बदलना आता है
मुझे धर्म निभाना भाता है,
ऐसा करना कुछ विषम नहीं
जिन्दगी ने कहा
संभव नहीं l

मौत ने कहा
मैं तुझे बांध लूंगी,
जिन्दगी ने कहा
संभव नहीं l

श्रीलाल जोशी "श्री"
तेजरासर, बीकानेर
(मैसूर)



बना माटी के दीपक हमने दूकान सज़ा ली है।
रीदना हमसे दीपक,हमारे घर भी दिवाली है।।

इस बार लाएंगे बच्चों की ख़ातिर नए कपड़े।
मेरी मुमताज़ ने ये आस दिल में पाली है।।

इस दिवाली हम भी बनाएंगे मीठे पकवान।
ग़र बिक गये सारे दिपक ,कहे घर वाली है।।

लेकर देंगे पापा हमको इस ठंड में जूते और स्वेटर।
बच्चों ने भी ये आस अपने दिल में जगा ली है।।

पिछली दिवाली की तरहां इस बार ना बिके दिपक।
ये बात मेरी माँ ने अपने दिल से लगा ली है।।

सारी पूंजी लगा दी दीपक बनाने में हमने।
लक्ष्मी पूजन की ख़ातिर ज़ेब बिल्कुल ख़ाली है।।

चाइनीज दियों से अटा पड़ा है सारा बाज़ार।
जिसने हमारे घर की सारी खुशियां खा ली है।।

सस्ती लड़ियों और दियों से तुम सजा लोगे घर अपना।
पर हमारे घर वालों की ये दिवाली भी काली है।।

खरीदना इस बार सभी माटी के दीए आप सभी।
कुम्भकार ने अपनी खुशियां, "ऐश"तुम पर डाली है।।
©ऐश...(स्वरचित)
🍁अश्वनी कुमार चावला,अनूपगढ़,श्री गंगानगर🍁
🍁काव्य गोष्ठी मंच,कांकरोली राजसमन्द🍁




मैं माटी का दिया हूं 
अपनी जमीन से जुड़ा
जिसे कुशल कुम्हार ने 
अपने पैरों तले रौद कर
गूंधा और तब चाक पर
चढ़ा कर हाथों से गढ़ा 
धूप में सुखा कर फिर
भट्टीकी आंच मे पकाया
तब कहीं बन कर पूर्ण
माटी का दियाकहलाया हूं ।
कपास की बाती संग
नेह को भर कर फिर
अग्नि से प्रज्वलित हो
अंधकार सेलड़ पायाहूं ।
दीप से दीप जले तब
ज्योति से ज्योति जगे 
दीपावली का दिया
बन कर के आया हूं ः।
स्वरचित :-उषासक्सेना

विषय -स्वतन्त्र लेखन-- प्रथम मिलन
---------------------------------
प्रथम मिलन के पावदान पे, शर्म, हया के घिरते बादल ।
स्पन्दन मीठी सी सिहरन, धडकन दिल करता बन पागल ।।

-1-
बेसब्री पन इन नयनों का, आकर पास पलक मे छिपते ।
अधरों पे छाती खामोशी, शब्द गले मे घुटके फँसते ।।
चंचलता और अल्हड़पन सब, शर्म हया मे बनते कायल ।
स्पन्दन मीठी सी सिहरन, धडकन दिल करता बन पागल ।।

-2-
आभासों के अहसासों से, जब थोडी सी हिम्मत आती ।
प्रेम ज्योति हो करके जागृति, प्यार के पावन दीप जलाती ।।
एक दूजे से आलिंगन हित, बेकाबू तन मन हो घायल ।
स्पन्दन मीठी सी सिहरन , धडकन दिल करता बन पागल ।।

-3-
प्रेम, भरोसा, और समर्पण, रख जीवन के पथ पर चलते ।
जीवन साथी बन जीवन भर, सुख दुख को मिल-जुल कर सहते ।।
प्यार भरे जीवन के सारे, जीते अपने फर्ज निभाकर ।
स्पन्दन मीठी सी सिहरन, धडकन दिल करता बन पागल ।।

राकेश तिवारी " राही " स्वरचित

स्वतन्त्र लेखन/04।11।18/रविवार
#चलो_चलें!!!!:एक कविता
~~~~~~~~~~~🌷🌷🌷

दिल के
किसी कोने में
घुप्प अंधेरा है।
उसी कोने में
कुछ कलुषित भावनाओं
का डेरा है।

अक्सर
जीवन पथ पर
चलते चलते 
गाहे बगाहे 
ये भावनाएं उभर कर
सामने आती हैं।
उथल पुथल
मचाकर
अपना विकृत रूप दिखाती हैं।

विवेकहीन कर
अपने चंगुल में जकड़ती हैं।
मन को
आंदोलित कर
फिर से
घुप्प कोने में छुप जाती हैं।

होते हैं कलंकित
जीवन का रस भी तो सूखता है।
ये भावनाएं
नासूर हैं। 
साथ रहकर
बस
दुख ही देती है।

गतिमान जिंदगी लड़खड़ाती हैं।
असहाय हो जाते हैं हम
और कोने में दुबक
वो मुस्कुराती है।

मानव चरित्र की धुरी
नेक नियत पर टिकी है।
कुंठित मन
रुग्ण तन
कलुषित भाव
अधम जीवन।

चलो चलें!!!
उस कोने में भी एक
दीप जलाते हैं
हृद का वह कोना
यदि
प्रकाश से तृप्त हो जाएगा
देखना!!!
भावनाएं भी उजास में
नहाकर 
खिलखिलायेगी
और
अंधेरा भी लुप्त हो जाएगा।

हां!!!!
दीया बुझने मत देना
रोशनी जीवित रखना है।
मन में ठान लें तो क्या नहीं कर सकते।

आदमी हैं
आदमीयत को 
उस अंधेरे के दामन से बचाना है।
दिल के हर कोने को 
अब रोशनी से सजाना है।

~~~~~~❤️🙏❤️~~~~~~

स्वरचित:शैलेन्द्र दुबे

*मेरे बेलगाम सपने **
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
खयालो ही खयालो में यूँ ख्वाबों को सजा आए
सितारों स
े भरी महफिल में अपना गीत गा आए,
रवि कि रोशनी में भी नहाकर जिंदगी यूं निकल आए, 
शशी की चाँदनी में भी हो शामिल चंदा निगल आए। 

बडे ही बेमुरव्वत,बेवफा मुझको रूलाते ये, 
मगर कमसिन से अश्कों को मृदुल मोती बनाते ये, 
जहन्नम के फरिश्ते यूं जन्नत ढूँढें जीवन में 
कभी हंसकर रूलाते भी कभी रोकर हंसाते ये।

जलज जलजात बनकर सिंधु सरिता में भी लहराते,
गगन को चुमने शिखरस्थ चोटी पर भी चढ़ जा
ते,
कभी ये क्लांत कभी है शांत कभी विश्रांत नजर आते, 
स्वयंभू सिद्ध साधन, साध्य, साधक चित्त भरमाते। 

अरे💕 मन! 
क्षुब्ध,उर्मित,सुशांत,विभ्रांत सभी संजोग अपने ही ,
समीर सौरभ सुगंधित दिव्य चेतन शिल्प सपने भी, 
खयालों में खयालों सी खयालों की ही दुनिया थी 
मेरे रूह के सपने,बडे अपने, निरंकुश है करें क्या जी। 
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
स्वरचित:-रागिनी नरेंद्र शास्त्री 
दाहोद(गुजरात)

"दीप जलाएं"
आओ मिल जुल पर्व मनाएं,
मिल जुल कर सब दीप जलाएं।
खुशहाली का है पर्व दिवाली।
मिल जुल कर सब खुशी मनाएं।।

नफरत को हम दूर भगाएं,
प्यार मोहब्बत को फैलाएं।
ऐसा है यह पर्व निराला।
हर घर में हम दीप जलाएं।।

चलो चलें अब सब भेद मिटा दें,
ऊंच नीच का पाप हटा दें।
इस कदर मनाएं हम दीवाली।
हर दिल को खुशियों से भर दें।।
(अशोक राय वत्स)जयपुर
स्वरचित 7665994959💐


हाथों में तुम्हारी तसवीर लेकर 
तुम्हे प्रेम करूँगा चूम- चूम कर।
एक बार नजर तुम आ जाओ तो
मैं गीत गाऊंगा झूम- झूम कर।
ऐ ! सुंदर प्रीत का कोमल फूल 
इस जीवन मे आकर प्रीत भर।
लगे कोटि मेरे हाथों में कांटे
तू निकाल कर,ले अपने पर धर।
यदि है तू मेरा सफर का साथी
तो ये स्वत: पतझड़ जाएगा झर।
किंतु रहा नही यदि साथ तुम्हारा
तो बन जायेगा जीवन मेरा जहर!

परमार प्रकाश

ससुराल से मायके आना और फिर वापिस जाना 
बहुत खुशी होती हैं आने पर,
उतना ही गम भी होता है जाने पर,
पर बेटी की खुशी से कई ज्यादा खुश होती हैं 
माँ और कई ज्यादा गम भी माँ को ही होता हैं 
और तब माँ की दशा कुछ यूँ होती हैं,
सब कुछ रख दूँ अपनी बेटी संग,
न जाने अब कब आयगी वो भरने 
फिर आँगन,
उसकी पसंद की मिठाई रख दूँ,
अचार रख दूँ और कई पकवान 
रख दूँ,
सब कुछ.......
नई-2साडी रख दूँ ,काजल और 
लाली रख दूँ, पायल रख दूँ ,
कंगन रख दूँ और न जाने 
क्या-2 रख दूँ,
उसे बैठाऊँ अपने पास और 
सिखलाऊँ ससुराल मे रहने
का ढंग,
सब कुछ.....
रहना मेरी बिटिया वहाँ हँसी-
खुशी सबके संग,
प्यार और दुलार से और 
आशिर्वाद से तेरा जहान में 
मै भरु रंग...

सबकुछ...
स्वरचित 
शिल्पी पचौरी

दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….

दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….
ऐसे अपना मन बहलाऊँ…
गर बात करे तेरी कोई मुझसे…
उसको दुनिया के ढंग समझाऊँ….
तुमको उन सबसे छुपाऊं….
उल्फत का मैं धर्म निभाऊं….
दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….

शर्मों हया में जकड़ी तू है…
मर्यादा में पंख कटे हैं मेरे…
तेरी मेरी धुन में रमे हैं…
मेरे तेरे शाम सवेरे…
लगे तमाम शाहों के पहरे…
कैसे कटें उनके ये घेरे…
रुक रुक कर खुद को बतलाऊँ…
दिल को सब पहलू समझाऊँ…
दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….
ऐसे अपना मन बहलाऊँ…

बहरे कान हैं दिल बेज़ुबान है…
दुनिया में हर कोई भगवान् है…
ऐसे भगवानों की दुनिया में…
अपनी प्रीत को कैसे निभाऊं…
तेरी लाज को कैसे बचाऊं…
हर पल अपने को समझाऊँ…
दिल को यूं हर बार मनाऊं…
दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….

नाव में मेरी पत्थर हैं भरे…
भाव समंदर उठती लहरें…
हिचकोले खाती चलती है…
डोर बंधी माहि संग गहरे…
उस छोर कब अपने को पाऊं…
तेरी सुनूं अपनी कह सुनाऊँ…..
दिल से दिल की बात कराऊँ…
यूं तुझ संग मैं प्रीत निभाऊं…
दिल को तेरी बातें सुनाऊँ….
ऐसे अपना मन बहलाऊँ…

II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II 

शीर्षक -एक दिया 
दीपो का त्यौहार दीवाली, 
सबके घर में हो खुशहाली, 
मिटटी की सोंधी खुशबू से, 
घर घर मेंआये उजियाली l

एक दिया उस कुम्हार के नाम, 
करता मेहनत सुबह -शाम, 
दिए मिटटी के अबकी बार, 
करदो दीवाली उनके नाम l

एक दिया उस सैनिक के नाम, 
जो आता है देश के काम, 
शहीद होते देश केहित में, 
कर बद्ध करूं उसे प्रणाम l

आओ मिलकर कसम ये खाये,
चीनी लड़िया कभी न लाये, 
स्वदेशी ही सामान ख़रीदे, 
देश की अर्थ व्यवस्था बढ़ाये ll
कुसुम पंत "उत्साही "
स्वरचित 
देहरादून 
उत्तराखंड

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