वंदना सोलंकी



दिनांक-2-1-2020
विषय-नम्र/नम्रता

विधा-कविता

ऐसी प्यारी मनभावन
दुनिया सब अपने लिए चुनें
प्यार,सौहार्द ,भाईचारे और
नम्रता से सब बात बनें

एक घाट पर पानी पियें
सिंह अजा बड़े प्यार से
विनम्र भाव से सब रहें
बैर रहे तीर तलवार से

सत्य बात कहने में न चूके
क्या राजा क्या रानी
सबका हक हो एक बराबर
नहीं चले किसी की मनमानी

राष्ट्र के सभी नेतागण
करें स्वच्छ स्वस्थ राजनीति
ईमानदारी हो व्यक्तित्व में
कदापि न पनपे विष बेल रूपी अनीति

षडयंत्र खुराफाती तत्व
सब जाएं कूड़ेदान में
रामराज्य का सपना सच हो
हमारे देश हिंदुस्तान में

नर नारी,बड़े बुजुर्गो का
हो समुचित मान सम्मान यहाँ
पावन वसुंधरा ही तब
बन जाए स्वर्ग समान जहां।

है ये सार्थक शाश्वत कथन
'विद्या ददाति विनयम'
रहे सभी होकर विनम्र।।
नम्रता है शक्तिशाली नियम

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित

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दिनांक-31/12/2019
विषय-रात /रजनी

विधा-छन्दमुक्त

जैसे जैसे रात
गहराती है
वैसे वैसे मेरी कलम
अकुलाती है

तब मैं रजनी से
काली स्याही चुरा लेती हूँ
पन्नों में चित्रकारी करने के लिए

तारों से टपके लफ़्ज़ों को
मैं अंजुरी में भर लेती हूँ

भावों की कलम से
दिल की बातें
कागज़ पर उकेर देती हूँ

फिर नींद से
बोझिल आँखों को
बंद कर निशा की गोद में
सिर रख कर सो जाती हूँ

नई स्फूर्ति ऊर्जा लेकर
पुनः नव निर्माण करने के लिए।।

✍️वंदना सोलंकी©स्वरचित

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30/12/2019
विषय-बीता साल


किशोरावस्था खत्म हुई
आने लगी है अब जवानी
उन्नीस की उम्र पीछे छूटी
अब सुनाऊं बीस की कहानी।

उतार चढ़ाव भरा रहा सफर
कभी सुख का तो कभी दुख का मेला
कभी रोके,कभी हँसके
जीवन का हर संकट हमने मिलकर झेला।

बीता बरस बहुत कुछ दे गया
अब आया है नया साल
अच्छा बुरा फिर दोहरायेगा
आने वाला नया साल।

अब ये हम पर निर्भर है
कैसे इसे निभाएंगे
सकारात्मक दृष्टिकोण से
जीवन बगिया महकायेंगे।

गम और चिंता तो आते ही हैं
कभी न कभी हर जीवन में
धीरज रख के जो जी ले
सार्थक वही है जग उपवन में।

आओ मिलकर करें स्वागत
नव वर्ष का हर्षोल्लास से
विचलित न होंगे कदापि हम
दिल खुश हो गया इसी आभास से।।

*वंदना सोलंकी*©स्वरचित

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28/12/2019
विषय-नश्वर

विधा-दोहे

नश्वर इस संसार में,सब कुछ तो है क्षणिक।
सुकर्म तू कर ले बंदे,,सोच जरा ले तनिक।।१।।

माटी की काया बनी,माटी में मिल जाय।
परिवर्तन तो नियत है,नश्वर सब हो जाय।।२।।

गया समय आता नहीं, कार्य करो तुम आज।
जीव,वस्तु सब नश्वर है,पूर्ण कर सब काज।।३।।

नश्वर जीवन जग मिथ्या,विधाता का विधान।
सब नष्ट हो जाएगा,बात हमारी मान।।४।।

*वंदना सोलंकी*©स्वरचित


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27/12/2019
विषय-नेतृत्व


क्या नेता ही नेतृत्व किया करता है
योग्यता प्रछिप्त होती है हर व्यक्ति में
गुणहीन नहीं होता कोई भी जगत में
जो समाज को सही दिशा दिखाए
कुशल नेतृत्व उसी का होता है

जो ले सूझबूझ से काम,
सफलता वही पाता है
जो लेता समय की नब्ज़ पहचान,
सही निर्णय सही वक्त पर लेताहै

सफल नेता वही कहलाता
जो समाज का नेतृत्व दिया करता है
आगे बढ़ कर संकट झेला करता
देश समाज हित कार्य उपयोगी करता है

सजग ,सतर्क रह वह सबको
सङ्ग ले अगुआई करता है
वतन की आन-वान की खातिर
वह निज जान भी दे सकता है ।

नेतृत्व न करता लच्छेदार
और झूठी बातें या वादे
निज स्वार्थ छोड़कर वह
सुंदर भाव दिलों में भरता है।

*वंदना सोलंकी*©स्वरचित

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25/12/2019
विषय-तुलसी


चौबारे में खड़ा तुलसी का पौधा
बड़े बुजुर्ग सा लगता है
सुख के क्षण में सुखी होता
दुख में सच्चा पथप्रदर्शक बन रहता है

जड़ों में छुपाए रहता है
वह स्नेह की अविरलव धारा
भले प्रचंड वेग के कारण
शाखों से झड़ जाए पत्रक सारा

प्राणवायु देता है सबको
स्वयं करुण पीड़ा सहता है
दृढ़ बुजुर्ग सा बन अड़ा है देखो
फिर से हरा भरा वह बनता है

देता सबको वह नवजीवन
मृत्यु के मुख से ले आता
अपने औषधीय गुणों से
जान की खातिर लड़ जाता

आँगन में लगाया मैंने
एक पौधा तुलसी का,
विनती आराधन करती हूँ
मेल है वृन्दा विष्णु का

उसकी रंगत में है दिखती,
मुझे माँ की बहुत दुआयें,
है सलाह मेरी सब लोगों से
तुलसी पौधा सब घर में लगाएं।।

*वंदना सोलंकी*©स्वरचित

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21/12/2019
विषय-निःस्वार्थ


क्या अनोखी बात करते हो
"नि:स्वार्थ"?किस चिड़िया का नाम है?
बार बार इस नाम का चर्चा क्यों करते हो?

अच्छा !!ये एक भाव का नाम है तो
क्या तुम इस भाव को मन में धरते हो?

जाति वाद के नाम पर होते दंगे फसाद पर तुम धर्म के नाम पर एक दूजे से लड़ते हो।

बड़े बुजुर्गों का कभी सम्मान किया ना
खुद स्वार्थ में लिप्त होकर उन्हें स्वार्थी कहते हो!!

करते रहते हो बुरे कर्म सदा बेखौफ होकर
बुराइयों के तुम्हीं तो पैरोकार लगते हो।।

यदि निस्वार्थी होकर रहो तुम धरती पर निस्वार्थ भाव के काव्य तुम दिलों में रच सकते हो।।

*वंदना सोलंकी*©स्वरचित
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20/12/2019
विषय-जीवनशैली

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सुखी संतुलित जीवन ही
निरोगी काया का आधार है
बिना स्वस्थ जीवन के
आत्मिक,भौतिक प्रगति निराधार है
असंयमित जीवन शैली आज
सभी अपनाए चले जाते हैं
जब चाहे,बिना भूख के
गुणहीन भोजन खाते हैं
रात्रि जागरण,दिवा शयन
मोबाइल टीवी का बहु प्रचलन
सादा जीवन उच्च विचारों से
अनायास दूर हुए जाते हैं
प्रकृति से रहते हैं बहुत दूर
दिखावे की ज़िंदगी जियें भरपूर
असंतुलित दिनचर्या में ढलकर
तन मन से बीमार हुए जाते हैं
ईश्वर प्रदत्त इस जीवन को
बोझ न समझो मंदिर सम तन को
आओ हमसब मिल कर
सहज,सरल जीवन शैली अपनाएं
स्वयं पथप्रदर्शक बन कर
नई पीढ़ी को भी उचित सीख सिखलाएं।।

*वंदना सोलंकी*©स्वरचित
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19/12/2019
विषय-क्षमा/माफी

विधा-छंदमुक्त

आजकल कोई किसी को
क्षमा नहीं करता है
भाई भाई को,पिता पुत्र को
एक धर्म दूसरे धर्म को
एक जाति दूसरी जाति को
एक वर्ग दूसरे वर्ग को
क्योंकि
प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को दूसरे से
श्रेष्ठ जो समझता है

नई पीढ़ी पुरानी को
दकियानूसी बताती है
पुरानी पीढ़ी नए जमाने को
स्तरहीन बताती है

आज का दौर
इतिहास को कोसता है
सब सबसे हिसाब मांगते हैं
खुद कोई देना नहीं चाहता है

क्षमाशीलता का स्थान
प्रतिशोध ने ले लिया है
किसी की कीमती जान को
मानो खिलौना समझ लिया है

अखबार का हर पन्ना आज
रक्तरंजित है
स्याही वितृष्णा से लिख लिख कर
हुई अचंभित है

माफी मांगने में आज
हर किसी की शान घटती है
इसीलिए अराजकता
अमरबेल सी बढ़ रही है
जो काटे से भी न कटती है
आधुनिक समाज की
जड़ें खोखली होकर ढहती है !!

**वंदना सोलंकी**स्वरचित©


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17/12/2019
विषय-घटना


घटना

कितना कुछ
घटित होता है जीवन में
कभी खुशी की बात
कभी भीगे जज़्बात
कुछ न कुछ
अनवरत चलता रहता है मन में

एक घटना की सुन खबर
दिल रोया फूट फूट कर
तभी सुनी कोई
अनचाही घटना
हलचल मची आक्रोशित दिल में

मेरा मन-घट भर आया
तब अंतर्मन से इक सन्देशा आया
प्रयास कर ,,सायास कर
अन्याय का तू सामना कर
पर देख के विभिन्न घटनाएं
तेरा दिल जाए घट ना ।।

*वंदना सोलंकी*स्वरचित©
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14/12/2019
विषय-विरोध

विधा-पिरामिड
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1)
ना
तुम
हो राम
न मैं सीता
नहीं मंजूर
वनवास मुझे
करूं विरोध आज
2)
क्यों
नहीं
विरोध
यशोधरा
कर पाई थी
बने तथागत
उपेक्षित पत्नियां
3)

हाँ
करो
विरोध
अन्याय का
मिलजुल के
बदल दो धारा
पिछड़ी प्रथाओं की ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित
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12/12/2019
विषय-कीमत

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प्रभु की मूर्तियों के मोलभाव होते हैं
मगर ईश चरणों मे चढ़े फूलो की कोई कीमत नहीं..!

दर्पण मोल बिकते हैं बाजारों में
मगर इंसां के अश्रुकण की कोई कीमत नहीं..!

रजत-कंचन के दाम हैं अनमोल
मगर टूटे सपनों की कोई कीमत नहीं..!

ज्ञान भी भरे बाजार बिकता रहा
मगर भावनाओं की कोई कीमत नहीं..!

अमीरों के महल,कीमती सामान
बिक जाते हैं
मगर निर्धन के खून पसीने से उगाए धान्य की कोई कीमत नहीं ..!!

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित
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11/12/2019
विषय-छाँव/छाया

विधा-मुक्तछंद
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जी हाँ,आदमी मैं आम हूँ

आसमान रूपी छत
की छांव में सो जाता हूँ
ज़मी को बिछौना
बना लेता हूँ
निज संतान को पढ़ा कर
बड़ा आदमी बनाना चाहता हूँ
नहीं खेलता मैं कोई दांव हूँ
आदमी मैं आम हूँ...

सबसे पहले बच्चो को
एक अच्छा इंसान
बनाना चाहता हूँ
कभी कड़ी धूप तो
तो कभी ठंडी छांव में
रहना सिखाना चाहता हूँ
यदि एक वक्त का
भोजन मुझे न मिला तो क्या
आत्मसंतोष का पानी पीकर
भी गुजारा करना सिखलाना चाहता हूँ...

बच्चों की परवरिश
करना धर्म है मेरा
उनको शिक्षा दिलाना
कर्तव्य है मेरा
अपने लिए भी सुनहरे सपने
देखता जरूर हूँ
पर हकीकत के धरातल पर
टिके रहता जरूर हूँ
भले ही मैं एक मजदूर हूँ
पर सुकून भरी साँझ हूँ

मिल जुल कर रहता हूँ
माता पिता के आशीष की
छांव में पलता हूँ
अमीरों की तरह
आश्रम में उन्हें नहीं छोड़ता
हमारे घर में कोई
बेसहारा नहीं होता
मैं तो निशि दिन सदियों से
सबके हित काम किये जाता हूँ
सम्पूर्ण देश का मैं गांव हूँ
सच मानो मैं पीपल की छांव हूँ।।

*वंदना सोलंकी*©स्वरचित
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10/12/2019
विषय-संतुलन

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एक दिन मेरी इंद्रदेव से झड़प हो गई
मैंने उनको खूब खरी खोटी सुनाने लगी
मैंने कहा,
"धरती पर सब प्राणी
भीषण गर्मी से त्रस्त, बेहाल परेशान हैं
और वहाँ आप स्वर्ग में आनंद उठा रहे हैं
कभी कहीं भयंकर आग वर्षा रहे हैं
कहीं बाढ़ के प्रकोप से जन धन
को डुबो डुबो कर मार रहे हैं
आखिर आपकी मंशा क्या है
क्यों आप प्रकृति में
संतुलन में नहीं ला पा रहे हैं
यदि आप अपना दायित्व
भली भांति नहीं निभा पा रहे हैं
तो पदच्युत हो जाईये
अपनी जगह किसी
काबिल व्यक्ति को बैठाइए"
इंद्रदेव शांतिपूर्वक सब सुनते रहे
धैर्यपूर्वक मुझे बोलने का अवसर देते रहे
फिर बोले,
"हे मूर्ख नादान प्राणी!
ये जो प्रकृति में असंतुलन व्याप्त है
ये तुम मनुजों के अक्षम्य कृत्य का परिणाम है
अपनी स्वार्थपरता में तुम ने
धरती को जलमग्न कर डाला है
कहीं सूखाग्रस्त बीहड़ कर डाला है
वनों को काट कर
कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए
पहाड़ो का सीना चीर कर
सड़कें ,राजमार्ग बनाए
समंदर में भी घुसकर निरीह जल जंतुओं
पर ज़ुल्म ढाए
अपने कुकृत्यों का देख लो अब
आँखो देखा हाल
अब मत करना मुझसे
बेवजह के सवाल
अपनी बर्बादी का जाल
तुम मनुष्यों ने स्वयं रच डाला है।।

*वंदना सोलंकी*©स्वरचित

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7/12/2019
विषय-आसरा/सहारा


हे बालिके!
न खोजो तुम कोई मसीहा
स्वयं बनो स्वयं का सहारा
प्रचंड अवतार धर बन जाओ
तुम महिषासुर मर्दिनी
'कलम की धार' तुम्हें समर्पित कर
लिखूं आज एक नई रामायणी
न ताको किसी का भी आसरा
है तुमसे जिनका अस्तित्व
तुच्छ मनुज हुआ घोर ब बावरा
उठा लो तीर तलवार आत्मरक्षा में
बहा दो फिर से,जो बहा करती थी
हमारे समाज की जाज्वल्य धारा।।

*वंदना सोलंकी*©स्वरचित

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नमन मंच भावों के मोती
6/11/2019
विषय-निमंत्रण

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इठलाती बलखाती
लहरें किनारे चली आई हैं
तीर ने दिया है
लहरों को निमंत्रण

भंवरे मधुर स्वर में
गुंजन करते चले आ रहे हैं
गुलाबी गुलाब ने
दिया है उन्हें निमंत्रण

शोख चंचल तितलियां
खिंची चली आ रही हैं
उपवन के रंग बिरंगे
सुमनों का पाकर निमंत्रण

धरा नभ को पुकार रही
सूरज सिंधु में समा रहा
प्रकृति का कण कण
देता समस्त जगत को आमंत्रण

रे चंचल चितचोर मन!
तू किस दिशा को चला
ज़रा ठहर तो सही
अंतर्मन दे रहा तुझे आमंत्रण!

अंदर ज्ञान का दरबार सजा है
ख़ज़ानों का भंडार भरा है
अनंत काल से पुकार रहा दिल
दे रहा तुझे नेह आमंत्रण

कैसे रुकू मैं,व्यथित हूँ मैं
किसकी सुनूं मैं
किसकी करूँ अनसुनी मैं
मेरे मन देवता का
स्वीकार करूँ स्वीकार निमंत्रण...।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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4/11/2019
विषय-चमक/कांति/आभा/ तेज
वि
धा-स्वतंत्र
💥💥💥💥💥

सागर के तट पर
चमकती रेत में खेलते
मासूम बालक
नन्हें फरिश्ते से लगते हैं

उनका दीप्त चेहरा देख
ऐसा प्रतीत होता है
मानो आसमाँ के सितारे
उनकी पलकों में चमकते हैं

दिनकर की ढलती लालिमा
रक्तिम आभा मानो
एक अल्हड़ बाला की
धानी चुनर में उतर आई हो
तब धरती आसमाँ एक दूजे में
समाए से दिखते हैं

प्रिय सङ्ग बैठी अल्हड़ बाला के
गुलाबी पंखुड़ी से होठो पर
एक हल्की सुरमई आभा
यूँ लगती है जैसे
चाँद उतर आया हो ज़मीं पर

ज्यूँ सिमट आई हो चाँदनी
चटक ओढ़नी पर
उस प्रभामयी आभामंडल से
मंत्रमुग्ध हो
सब सुध बुध अपनी खोने लगते हैं

नैसर्गिक रूप के समक्ष
स्वार्थी दम्भ रूपी
कलुषित चेहरे
कांति हीन से लगते है

प्रकृति और प्राणियों के
शोभामय रूप गुण से
कभी सौम्य कभी प्रचंड तेज से
उम्मीद के सूरज दिलो में चमकते हैं ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®
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2/11/2019
विषय-नज़र
िधा-काव्य
🌷🌷🌷🌷
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उन्मीलित दृगों में
करुणा के बादल छाए
अल्प अवधि इस जीवन में
गहन निशा बढ़ती ही जाए
मद्धिम निशा की श्वास अधूरी
घोर अमावस में चाँद नज़र न आए

हम इंसानों ने ही तो
बनायीं हैं सरहद और दिशाएं
भरोसा कर बैठे हम
अपने बनाए भ्रमजाल पर
इससे परे हमें
कुछ भी नज़र न आए..

आँखे अब तक ढूंढ़ रही हैं
अपनी उस शख्शियत को
जो निग़ाहों में बसी थी
इंतज़ार है जिसका इस दिल को
वो यूँ छिप गई है जैसे
साँझ ढले सूरज नज़र न आए...

ये कोई आभास था या
मेरे मन का वहम
ऐसा लगा मानो
किसी ने पोंछ दी हो आंखे नम
धुंधली निग़ाहों से कुछ भी नज़र न आए..

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®
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1/11/2019
विषय-प्रार्थना
िधा-काव्य
🙏🙏🙏🙏

हर जगह,
हर पल हर घड़ी
वो मेरे साथ है
ये मैं जानती हूँ

ईश्वर की प्रार्थना
मेरी भक्ति है
क्योंकि शब्दों में
अपार शक्ति है
ये मैं मानती हूँ

शब्द फलित होते हैं
बुरे हो या भले
वो अपना कार्य करते हैं
जैसे ही मुख से निकले
ये मैं जानती हूँ

जो आप देते हैं
वही आप पाते हैं
प्रकृति के नियमों से
देवता भी न बच पाते हैं
ये मैं जानती हूँ

नौकायें डूब जाती है
जब हिम्मत हार जाती है
तब ईश प्रार्थना से
जीवन नैया पार लग जाती हैं
ये मैं मानती हूँ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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नमन मंच भावों के मोती
26/10/2019
शीर्षक-रूप/सौंदर्य

विधा-हाइकु
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रूप चौदस
अंग अभ्यंग स्नान
स्वस्थ तन

सौंदर्य खिला
साज श्रृंगार कर
मन सँवरा

मनमोहक
मन मोहन कान्हा
बाल स्वरूप

रूप सौंदर्य
नव विवाहिता का
वर रीझता

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®
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25/10/2019
विषय-धन,धन्वंतरि, यम ,कुबेर

विधा-काव्य
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धनतेरस पर धन बरसे
कोई भी न धन को तरसे
कुबेर के भरे हों
घर में भंडार
स्वास्थ्य, सम्पदा मिले अपार
स्वर्ण रजत आभूषण या बर्तन
क्रय करने का है ये शुभ दिन
नरक चतुदर्शी दूजा त्यौहार
यम दीपक जलाएं द्वार
अमावस निशा में दीप जलें
मन -विकार भी संग जले
अन्नकूट का दिन है गोवर्धन
स्वस्थ, मुदित हो जग के सब जन
भाई बहन का पावन त्यौहार
भाईदूज या यम द्वितीया त्यौहार
पंच दिवसीय दीपावली उत्सव
कहलाता ये है प्रकाशोत्सव ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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24/10/2019
विषय-हवा/पवन/समीर
िधा-मुक्त
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आज सुबह मैं ज़रा जल्दी उठ गई
दिल में सैर करने की प्रबल इच्छा हुई
सुबह की गुलाबी ठंडी हवा से
आज दिल की बातें खूब हुईं

प्रातःकालीन ताज़ी हवा से मानो
चेतना की खिड़कियां खुल गईं..!!

मदमाता सौरभ समीर
झर झर झरने का नीर,
श्यामल जमुना का तीर
हृदय में शांति की अनुभूति हुई

प्रातःकालीन ताज़ी हवा से मानो
चेतना की खिड़कियां खुल गईं..!!

ज्यूँ अदना सा बीज
पौधा बनने को चाहे
थोड़ी ऊष्मा,थोड़ा नीर
थोड़ी परवाह, मंद समीर
बस इतने भर से अंकुर को
विराट वटवृक्ष बनने की राह मिल गई

वैसे ही दिल की बगिया चाहे
थोड़ी सी ऊष्मा,पवन का झोंका
थोड़ा स्नेह, अतीव विश्वास
प्रकृति का सानिध्य पाकर
अनायास मेरे दिल की कली खिल गई

प्रातःकालीन ताज़ी हवा से मानो
चेतना की खिड़कियां खुल गईं..!!

सुरभित मलयज मंद समीर बहे
नील गगन में पंछी उड़े
पीत पुष्प शोभित उपवन में
पंछियों का कलरव,
कोकिल का मधुर गान सुन
तन मन अंतर्मन में
मदहोशी सी छा गई ।।

प्रातःकालीन ताज़ी हवा से मानो
चेतना की खिड़कियां खुल गईं..!!

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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23/10/2019
विषय-वरदान
=
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मानुष जन्म हम सबको मिला
ईश्वर का अनुपम वरदान मिला
मिट्टी की काया में प्राण मिले
मन मस्तिष्क में ज्ञान का भंडार मिला

गुणों की खान बना प्रभु ने
धरती पर हमको भेजा
पशु से इतर मुस्कराने का
मधुर स्वर में गाने का वरदान मिला

मस्तिष्क में भरा है ज्ञान सागर
गागर में समा ले जो सागर
नक्षत्रों की गवेषणा,आविष्कार की
चतुर बुद्धि का अनुपम विज्ञान मिला

नर होकर भी नारायण बन दिखाएं
यदि मानव स्वयं बनना चाहे
योग साथना संयम के बल से
अपूर्व आत्मोत्थान मिला

प्राणों को सुंदर तन रूपी मकान मिला
हे मानव तुमको कैसा अद्भुत ये वरदान मिला ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®
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22/10/2019
विषय-पंछी/परिंदा
=
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एक परिंदा हूँ मैं
पर मेरे पंख कहाँ???
ज़िंदा हूँ मैं
पर धड़कन कहाँ???

जब मैं पैदा हुई
सबके मुंह बने थे
अरे लड़की हुई!!
एक मातम सा छाया था वहां।।

बगल में लड़का हुआ
मानो रब का सज़दा हुआ
बड़े जोरों से जश्न मनाया गया था वहां।।

"बेटी लक्ष्मी है, दुर्गा है ,देवी है"
सच में??
ये दुनियां कितनी झूठी और फरेबी है..
हकीकत में
भला क्या ये मानता है जहाँ???

महज मंदिरों में पूजित है नारी
जिसकी वजह से ये कायनात है सारी
जग में उसकी अपनी पहचान है कहाँ??

जिसके वज़ूद से ये दुनियां कायम है..
छलनी हुआ आज उसका दामन है..
उसका स्वयं का वज़ूद है कहाँ???
परिंदा हूँ मैं
पर मेरे पंख कहाँ???

एक बार मुक्त करके देखो
छू लूँगी मैं भी आसमाँ
अपने लिए बनाउंगी
सुंदर सशक्त ये जहाँ..!!

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®
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21/10/2019
विषय-श्रद्धा
=
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मात पिता ,ईश्वर और गुरु जन
सच्ची श्रद्धा से हो जाते प्रसन्न
दिखावा आडंबर काम न आए
तन मन उनकी सेवा में लगाएं

जिस घर में होता बड़ों का सम्मान
वह घर होता है स्वर्ग समान
न करें दिखावा या खोखलापन
बस हो श्रद्धा प्रेम और अनुशासन

श्रद्धा भावना से पूरित हो मन
सर्वस्व करें प्रभु पर अर्पण
त्योहारों का यही होता उद्देश्य
श्रद्धा सब्र सहयोग विशेष

सुदृढ़ व्यक्तित्व की हो ऐसी नींव
सबके श्रद्धा ,विश्वास प्रेम अतीव
श्रद्धा से असंभव कार्य होते संभव
आशीर्वाद मिलता सबका विजयी भव ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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18/10/2019
विषय-महानायक
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नायक या महानायक क्या सिर्फ
फिल्मों या जगत में ही होते हैं
जो ऊंची धनराशि कमाकर
पर्दे पर सिर्फ अभिनय या
मैदान फतह कर लेते हैं ??

हमने तो ज़मीनी दुनियां में
न जाने कितने महानायक देखे हैं
आइए उनसे
आपका परिचय करा देते है

बर्फीली रातों में सीमा पर
डटे प्रहरी सबसे बड़े महानायक हैं
जिनकी सजगता,जिनके त्याग से
हम घरों में चैन की नींद सोते हैं

महानायक हमारे देश का
अन्नदाता किसान भी है
जिसमें परिश्रम और ईमानदारी
और खुद्दारी का ईमान भी है

बच्चों के लिये उसका महानायक
उसका पिता होता है
जो संतान के हित में
निज सुख चैन तक खोता है

मगर आजकल तो गढ़ी जा रहीं हैं
उनके साहस,शौर्य की पराक्रम-गाथाएँ
जो सरेआम भोली जनता को
लूटते ही चले जाएं

कितनी सफ़ाई से छिपा रहे हैं वे
मुखौटे के पीछे वो असली चेहरा
उसकी महानता और उदारता का
रचा जाता है पाठ सुनहरा

उनको महानायक का दर्जा
चालाकी से दे दिया जाता है
जो असली हकदार हैं यहाँ
उन्हें उपेक्षित कर दिया जाता है ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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17/10/2019
विषय-नारी श्रृंगार
💐
🌷💐🌷💐🌷💐

जानती हूँ कि आयु ईश्वर द्वारा नियत है
फिर भी तुम्हारी लंबी आयु की कामना हेतु व्रत करना मुझे अच्छा लगता है

चाँद का वैज्ञानिक रूप भी जानती हूँ
फिर भी चाँद में तुम्हारी छवि निहारना
मुझे अच्छा लगता है

तुम शरारत से मुस्कराते हुए छलनी के पीछे से जब मुझे देखते हो,
तुम्हारा यूँ छेड़ना मुझे अच्छा लगता है

जानती हूं मेरा अर्घ्य चाँद तक नहीं पहुँचेगा
तुम्हारे हाथों से दो घूंट जल ग्रहण करना
मुझे अच्छा लगता है

उम्र के इस पड़ाव पर भी नई दुल्हन सा साज श्रृंगार करना मुझे अच्छा लगता है

'साज श्रृंगार बिना भी तुम क्या खूब लगती हो'
तुम्हारे मुंह से मेरे लिए'मेरा चाँद" कहना मुझे अच्छा लगता है।

पति बिन नारी का श्रृंगार अधूरा फीका सा
लगता है
संग तुम्हारे हर त्यौहार मनाना मुझे अच्छा लगता है ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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16/10/2019
विषय-समाधान
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हे बंदे!इस जीवन से क्यों तू परेशान होता है
यदि समस्या है तो उसका समाधान भी होता है

सुख -दुख ,कष्ट ,संताप हर जीवन के पहलू हैं
कभी रात होती है तो कभी सूर्य उदीयमान होता है

किस समस्या का निराकरण कैसे करना है
ये व्यक्ति विशेष को स्वयं निर्धारित करना है
निज सुख दुख का कारण मानव स्वयं ही है
कर्मों के निष्पक्ष न्याय का फ़लसफ़ा हमें समझना है
जो जैसा करता है वैसा ही फल पाता है ये विधि का विधान होता है

जीने का ढ़ंग बदल कर,बुराइयों से दूर रहकर ही इंसान सुख से रह पाता है
जैसी संगत में जो रहता है वैसी ही रंगत पाता है
फूलों की सुगंध जीवन में घुल जाती है
काँटों के संग जीवन लहूलुहान ही होता है..।!

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित

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15/10/2019
विषय-अनंत
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~~~~~~~~~~~~~
दिशा से परे है अनंत आसमाँ
सबके लिए है सारा आसमाँ
न कोई पश्चिम न ही पूरब
होता नीले आसमाँ के ऊपर

हम इंसानों ने बनायीं हैं
दिशाएं और सरहदें
भरोसा कर बैठे हम
अपने बनाए भ्रमजाल पर
इससे परे हमें
आता नहीं कुछ भी नज़र

हिसाब किताब गुना-भाग से
जब हम उठते ऊपर
बस रह जाता है तब शून्य भर
उस समय अनंत होता दृष्टिगोचर

स्वयं को जान लें हम
अपनी उस अंतिम
अनंत यात्रा पर जाने से पहले
यही शाश्वत यही सत्य
कहते धर्म ग्रंथ और ईश्वर ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित

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14/10/2019
विषय-प्रपंच/षड्यंत्र
=
============≠===

छल कपट प्रपंच में
लोग आजकल
कुछ ज्यादा ही
लिप्त रहने लगे हैं

प्रत्येक दिमाग मे
षड्यंत्रों के बीज
उगने लगे हैं

षड्यंत्रों की रीत
बड़ी पुरानी है
आदमी आज प्रायः
भस्मासुर बनने लगे हैं

छल प्रपंच में करके
वो कितना कुछ खोने लगे हैं
कि स्वयं से ही दूर होने लगे हैं

हमें घुटन सी होती है
इन दुराचारों से
क्या हम आतंकी हैं जो
भेष बदल घात करने लगे हैं

मन विरक्त हुआ
जग प्रपंच से ऐसा
इस पंक जगत में
न बुझे हिय पिपासा
अविश्वास रूपी विष
हम अनायास ही पीने लगे हैं

बाहर का
अंतहीन कोलाहल देख
अब हम इस प्रपंच से
दूर ही रहने लगे हैं

तब सांसो की माला
गूंथ कर हम
प्रभु के गले का हार
बनने लगे हैं ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित

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विषय-स्वतंत्र विषय के अंतर्गत रचना
शीर्षक-शरद पूर्णिमा

शरद पूर्णिमा

नीले नभ के शतदल पर बैठ
निकली शरद पूनम की रात
शुभ्र ज्योत्सना छिटकी नभ पर
खिली श्यामल रात

अमृत कलश लिए हाथों में
उतर आई है धवल चाँदनी
सोलह कलाओं से पूरित
चारु चन्द्र की चंचल यामिनी

आज बारिश होगी अमृत की
मधुर सुस्वादु क्षीर रखें छतों पर
झर कर समा जाते सभी गुण
रोगप्रतिरोधक औषधि बनकर ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित

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12/10/2019
विषय-सिलसिला🙅
==================
सदियों से मैं गुलामी की
बेड़ियों में जकड़ी रही
अनवरत चलता रहा ये सिलसिला
व्यथित माँ भारती ने बोला,

"हाँ,कभी स्वतंत्र हुई थी मैं
पर इसका सुख
मुझे अब तक न मिला
मुझे लूटने का का तो
अब भी चला आ रहा है ये सिलसिला

स्वतंत्र देश में भी जो सत्ताधीन हुए
सबने मिलकर विश्वासघात किया
नेताओं,समाज के ठेकेदारों ने
मेरे सीने पर कुठाराघात किया
पीड़ित हूँ, अत्यंत व्यथित हूँ
खत्म होता ही नहीं है ये सिलसिला

इक्कीसवीं सदी में भी
मेरी बेटियां प्रायः उपेक्षित ही हैं
दुराचार,पक्षपात अन्याय से
निज बंधु बान्धवों से प्रताड़ित हैं
युगों से चला ही आ रहा है ये सिलसिला

बस साज श्रृंगार भर से स्त्री को
विभिन्न उपमाओं से अलंकृत करते हैं
उसके ममतामय,त्यागस्वरूप का
बस महिमामंडन भर कर देते हैं
फिर उसी पूज्या को भोगवस्तु समझ
अपमानित करने का शुरू हो जाता है सिलसिला..।।"

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®
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11/10/2019
विषय-सरस
=
==============

शुद्ध विचारों से पूरित शुभ संकल्प
सहज विवेक बुद्धि से युक्त सभी जन
सरस रसभीनी मीठी वाणी वाले प्राणी
पशु से भिन्न विवेकवान मनुज कहलाते हैं

अनुराग सभी को मिलता है
सरस ममतामयी प्रकृति का
कण कण में प्यार छलकता है
सरस धार सा झरना झरता है
रूप,गुण, धर्म कोई भी हो
सरस सरिता में हम सभी बहते जाते हैं

आत्म मंथन करने का यही समय है
सद्गुण सद्भाव ही वास्तविक धन संचय है
नीरस जीवन भी क्या जीवन है
सरस वाणी,सरस जीवन अनामय है
निर्मल मन हो तो सरस साहित्य सहज ही प्रस्फुटित हुआ करते हैं....!!

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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🙏नमन भवों के मोती🙏
9/10/2019
विष
य-आयोजन
***************

बड़े बड़े भव्य आयोजन करके
हम तीज त्यौहार मनाते हैं
औरों की देखा देखी में
अपनी जेब से अधिक धन बहाते हैं

व्यर्थ के आडंबर से दूर रह कर
हितकारी सार्थक कार्य करना है
सदाचार ईमानदारी से
छोटे बड़े आयोजनों को सफल बनाना है

स्वच्छ भारत के आयोजन में
सहयोग सभी को करना है
महज बातों से ही नहीं
कर्म सभी को करना है

सरकार का ही दायित्व नहीं
निज कर्तव्य सभी को निभाना है
कोई भी अभियान या आयोजन हो
सफल हमें भी बनाना है ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®
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710/2019
विषय-शांति
💐💐💐💐💐💐

शांति कोई चीज़ नहीं
जिसे हासिल किया जाय

शांति कोई खिलौना नहीं
जिसके संग खेला जाय

शांति कोई बिछौना नहीं
जो ओढ़ कर सो लिया जाय

शांति कोई चिड़िया नहीं
जो फुर्र से उड़ जाय

शांति एक अनुभव है
गहन सोच विचार कीजिये

जरा शांत स्वरूप में
ध्यान लगा कर बैठिए

जो स्वयं अंतर्निहित है
उसकी खोज में वक़्त
ना बर्बाद कीजिये

शांति प्रत्येक हृदय के भीतर है
बस उसे महसूस कीजिए

बस वो वहीं है
जहाँ उसे होना चाहिए ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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5/10/2019
विषय-हलचल/थिरकन
~
~~~~~~~~~~~~

ये मन बड़ा चंचल है
यहाँ प्रति पल होती हलचल है
इसको काबू में करना होगा....

सागर की लहरों में हलचल है
निज मन के भीतर कोलाहल है
आवेशित हो कंकड़ किसी ने फेंका होगा..

दिल की गहराई में तो शांत जलधि है
अकंपित अलौकिक दिव्य अलख है
गहन ध्यान से ही परम तत्व प्रस्फुटित होगा..!

तन मन अंग अंग में होती थिरकन है
शीतल मंद हवाओं की सी सिरहन है
संग हवा के हमें भी बहना होगा...

माँ के द्वार में गहन शांत सी नीरवता है
चित्त शांत है यहाँ,न जग की हलचल है
मैया का साक्षात्कार हमें यहीं पर होगा...

सच्ची श्रद्धा से नवरात्रि हम मनाएं
सद्भावना सहयोग की राह अपनाएं
सच्चा व्रत त्यौहार तभी फलीभूत होगा. !!

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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4/10/2019
विषय-स्पर्श
~
~~~~~~~~~~~
मेरे तन मन पर अब भी
अंकित है स्पर्श तेरा!

ऐसा स्पर्श दिया तूने
यूँ लगता है
तेरी बाहों ने मुझे है घेरा

कोमल चेतना जाग गई
दिल से रूह तक समा गई
ऐसा तेरी छुअन का था फेरा

सूर्य की ऊष्मा
चाँद की शीतलता
गहन ध्यान की समाधि में
दिखा मुझे नीरवता का डेरा

देह से परे
चाँद तारों से परे
उस धाम में निर्मल अनुभूति
तेरे स्पर्श का सुखद बसेरा

तुलसी पत्र और
दो बून्द गँगाजल सा
पावन साथ है प्रभु तेरा मेरा ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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3/10/2019
विषय-निःशब्द
=
=============
प्रकृति निःशब्द
निज कार्य सम्पन्न करती है
अनदेखी प्राणवायु
निरंतर जीव में संचरण करती है
निःशब्द अंशुमाली
जग को प्रकाशित करता है
प्रकृति के कण कण में
ईश्वर का बास होता है
शशि सितारों का भी
मौन कार्यक्रम नियत रहता है
वृक्ष,पुष्प,नदिया निःशब्द
बिन बताए,बिन जताए
नित परोपकार में रत रहते हैं
एक मानव ही है जो
शोर मचाकर,ढोंग दिखाकर
अकरणीय कार्य करता है
तब प्रकृति या ईश्वर
प्रचंड रुप धारण करता है
तब वह निःशब्द नहीं
हाहाकार मचाता है
जग को चेतावनी देने आता है
तो क्यों न हम उसे
निःशब्द ही रहने दें !!

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित


@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
2/10/2019
विषय-शत्रु
=
==============
वो हमारे शत्रु नहीं मित्र हैं
तुम नाहक ही घबराते हो
वो जब भी सामने आते हैं
तब बेमन से ही सही
हम उनको अपनाते हैं
शिक्षक हैं वो हमारे जीवन के
अधूरे,अपरिपक्व हैं हम बिन उनके
घूरती घाम सा दुख
व्यथित पीड़ित पीड़ा
अज्ञान का घनघोर अंधेरा
इन सबने है सबको घेरा
आशा की किरण का स्पर्श पा
हम चैन की श्वास हैं ले पाते
यदि ये शत्रु न होते जीवन में
तो सुख का लुत्फ नहीं उठा पाते
स्याह रात्रि के बाद ही तो
पूनम की रात भली लगती है
निंदारूपी वैरिन भी
सखी सी लगने लगती है
जब हम खुले हृदय से
निष्पक्ष भाव से
शत्रुओं को अपनाते हैं ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®


@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ 1/10/2019
विषय-प्रतिभा
==
===========
प्रायः व्यक्ति को
ज्ञात भी नहीं होता
कि कौन सी प्रतिभा
छिपी हुई है उसमें
यह उक्ति तो
सुनी ही है सबने
कि कुछ न कुछ तो
छिपा होता है सबमें
गुण विहीन नहीं होता
कोई भी इस जगत में
ज्यूँ हीरा छिपा होता है
कोयले की खदान में
कस्तूरी समाहित है
कस्तूरी मृग में
बस इसकी पहचान करके
निज प्रतिभा को प्रखर बनाना है
उर अंतर से खोज कर स्वयं को
प्रतिभावान बनाना है
विलक्षण प्रतिभाओं की
कमी नहीं है हमारे देश में
उस परम सत्ता के दिव्य गुण
निहित हैं सृष्टि के कण कण में ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित


@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
30/9/2019
विषय-माँ
🙏🙏🙏
🙏🙏
मेरी खुशियों का आस
मेरे जीवन का सार है
मेरी मुस्कुराहटों की मिठास,
मेरी आशाओं का आधार है
हाँ ...वो मेरी माँ ही तो है ..

तज कर निज सुख
देती बच्चों को सुख
चाहे संतान का हित
किंचित सा मुझे देख व्यथित
स्व नयन सजल कर जाए
हाँ...वो मेरी माँ ही तो है

निश्छल पावन अनुराग लिए है
सबका हित सौभाग्य लिए है
अपनी कभी न परवाह करे
कुटुंब के हित की चाह करे
हाँ... वो मेरी माँ ही तो है

प्रार्थना में स्व से ऊपर
संतान का ही ध्यान धरे
कभी मूक हो कर
कभी मुखरित हो कर
मम हित दुआ माँगा करे
हाँ.. वो मेरी माँ ही तो है...

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®


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28/9/2019
विषय-मंथन
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##########
इस जीवन में आधा अंधेरा है
और आधा ही है उजाला
सुख दुःख का हम सबको
पीना ही पड़ता है प्याला ..

आत्म मंथन जब करेंगे
सद्गुणों के रत्न तब प्रस्फुटित होंगे
कुविचारों के हलाहल निःसृत होंगे
कल्याणकारी शिव तत्व तब जाग्रत होंगे

हम आत्मदीप बन कर
फैला दें जग में उजियारा
जब निकलेगा सुख का सूरज
तब दूर भागेगा दुख का अंधियारा

परोपकार की राह पकड़ लें
छोड़ के सारे गोरख धंधे
संकल्पों की गंगा नहा लें
खोलें कुविचारों के फंदे..

आत्म सूर्योदय जब होगा
तब होगा मन मंदिर में उजाला
दिव्य ज्योति प्रज्ज्वलित होगी
तब कहाँ टिकेगा अंधकार का जाला ..!!

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित

@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@

विषय-विवेक
==
===========

बुद्धि, विवेक से पूरित
मानव जीवन है हमें मिला
फिर भी जीवन भर हम हर किसी से
करते रहते हैं गिला
हीरा सम निजअस्तित्व को परखने हेतु हम जौहरी नहीं बन पाते हैं

बुद्धि विवेक में प्रखरता भरकर
नव जीवन में जीवंतता लाकर
क्यों नहीं हम मिलजुल कर शांति से,इस जग चमन में रह पाते हैं ?

शुद्ध विचार से पूरित शुभ संकल्प हों
सहज विवेक बुद्धि से सभी जन युक्त हों
सरस रसभीनी मीठी वाणी वाले प्राणी
पशु से भिन्न विवेकवान मनुज कहलाते हैं

उदारमना प्रकृति हमें यही सिखाती है
भेदभाव रहित हो प्रचुर सम्पदा लुटाती है
विवेकवान मनुज होकर भी क्यों हम
इस अनुपम शिक्षा से विमुख हुए जाते हैं ?

सत्य-असत्य,उचित-अनुचित का ज्ञान
ये जीवन है जग रूपी संग्राम
नीर क्षीर विवेक की तलवार के द्वारा ही जीवन युद्ध जीते जाते हैं ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®


@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ 26/9/2019
विध
ा-काव्य
विषय-स्वेद/पसीना
================

वो अमीर है जो
रुपया-पैसा,सुख-साधनों को
खून पसीना बहा कर जोड़ते हैं
पर्यावरण, नदी जंगल
धरा तक को खूब निचोड़ लेते हैं

दौलत के नशे में ये अभिमानी
इतना भी नहीं सोचते
कि ये अपने उत्तराधिकारियों को
कौन सी धरोहर छोड़े जा रहे हैं?

वो बेबस वो गरीब हैं जो
कूप, सरोवर,नहर खोदते हैं
हर जीव को जल देने में
निशिदिन खून-पसीना बहाते हैं

मगर स्वयं सर्वप्रथम
जल के अधिकार से वंचित हैं
वो निम्न जाति के बाशिंदे हैं
पवित्र जल को
अपवित्र कैसे कर सकते हैं?

कठिन परिश्रम करके वो कृषक
तप्त धरा में श्रमजल छलका कर
अन्न,फसल उगाते हैं
स्वार्थी नेताओं और
चाटुकारों की चतुराई के आगे
बेचारे भूखे प्यासे ही रह जाते हैं

ऊँचे महल दुमहलों में साहब
ऐशोआराम की ज़िंदगी बसर करते हैं
भूख,प्यास से क्लांत मजदूर
अनवरत स्वेद बहा कर
भरी दोपहर की घाम में झुलसते हैं

बड़ी बड़ी कंपनियों में वो दिन भर
ए सी में बैठकर कार्य किया करते हैं
साँझ ढले जिम,योग कसरत
सूर्य नमस्कार करके
विपुल श्रमजल बहाकर
निज स्वास्थ्य का भलीभांति ख्याल रखते हैं
अजी !तभी तो हम आधुनिक और अपटू डेट कहलाते हैं ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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25/9/2019
विषय-कलाकार
🌷🌻🌷🌻🌷

वो एक अद्भुत अनदेखा कलाकार है
उसकी शक्ति और महिमा अपरंपार है
उसने माटी से एक रूप बनाया
विभिन्न जीवों को साकार बनाया
सबसे अनमोल मानव तन बनाया
मन बुद्धि रिश्तों,नातों का संसार दिलाया
उसका न आदि न अंत कोई
वह तो करता चमत्कार है
वो एक अद्भुत अनदेखा
एक कलाकार है..

षडऋतुओं से उसने जग को सजाया
सूरज चाँद सितारों से नभ चमकाया
जल थल नभ सर्वत्र व्याप्त है वो
रूप रंग आकार से रहित है वो
भाव समर्पण से वो मिलता है
वही मिटाता अज्ञान का अंधकार है
वो सर्वव्यापी ईश्वर है
वो अदभुत अनदेखा कलाकार है ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®


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24/9/2019
विषय-बनारस
🌷🌷🌷🌷🌷
"वरुणा "और"असी"का मेल बाराणसी
दशाश्वमेध,मणिकर्णिका प्रमुख घाट असी

बाबा विश्वनाथ की पावन नगरी
काशी,बनारस या कहो बाराणसी

गली गली में निर्मित मंदिर
देश का ये है पवित्र नगर

ये नगरी है मोक्षदायिनी
कर्मकांड संग शिक्षादायिनी

भोर का दृश्य बड़ा ही मनोहारी
घाटों की बुनावट धनुषाकारी

गंगा जमुनी तहजीब यहां की शान
जग प्रसिद्ध बनारसी साड़ी और पान

इसका है समृद्ध शाली इतिहास पुरातन
वेद,पुराण,महाभारत में भी है वर्णन

मंत्रमुग्ध हूँ इस नगरी के आभामंडल से
पहुँच जाती हूँ जब तब वहां तन मन से ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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23/9/2019
विषय - लोहा/लौह
🌷
🌿🌷🌿🌷
मंजूर था मुझे तेरे प्रेम में
काठ बन जाना
कभी जीवन हुआ करता था
लकड़ी में
जब ये हरा भरा
फल फूल से लदा
एक दरख़्त हुआ करता था
जो बिहँस क्रीड़ा करता था
चहचहाते पक्षियों संग

घर के फर्नीचर के रूप में
किवाड़ों,खिड़कियों के रूप में
मैं जीवित रहना चाहती थी
मैं सालों साल
पीढ़ी दर पीढ़ी संग

मगर तुमने तो
मुझे गलाकर,तपाकर
ठोक पीटकर
लोहे में तब्दील कर दिया
और जड़ दिया
कीलों, कब्ज़ों के रूप में
जिसमें लग जाती है जंग
समय के संग ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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22/9/2019
विष
य-स्वतंत्र लेखन
विधा-छंद मुक्त
👩‍⚕️👼👼👧

*बेटी ही रहने दो

अजब विडम्बना है कि
तारीफ भी मिलती है
तो ये कह कर कि
तुम बेटी नहीं,
"तुम तो मेरा बेटा हो"

पर आज हर आवाज़ ये कहती है कि
बेटी हूँ बेटी ही रहने दो...

एक साथ ही आज़ादी मिली थी हमें
पर देखो वो कहाँ और हम कहाँ???

तब एक कसक सी उठती है मन मे
जैसे कोई कली
मुरझा गयी हो किसी चमन में..
अब तो हर कली को
खुल के खिलने दो...
बेटी हूँ हमें बेटी ही रहने दो।।

नही मंज़ूर हमें अधूरी खुशियाँ
और कितने देने पड़ेंगे हमे इन्तिहाँ?
छू लिया है हमने अब तो
ज़मीं से सारा आसमान
ना काटो पर हमारे
अब तो खुले गगन में उड़ने दो...

बेटी हूँ बेटी ही रहने दो।।

वतन तो कब का आज़ाद हुआ है
हमारे हालात में
बस थोडा सा सुधार हुआ है
पढ़ाया है गर हमें तो
अब ज़िन्दगी का पाठ खुद ही पड़ने दो..
बेटी हूँ बेटी ही रहने दो....!!

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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22/9/219
स्वतंत्र लेखन ने आज की श्रव्य प्रस्तुति

शीर्षक-परिंदा
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एक परिंदा हूँ मैं
पर मेरे पंख कहाँ???
ज़िंदा हूँ मैं
पर धड़कन कहाँ???

जब मैं पैदा हुई
सबके मुंह बने थे
अरे लड़की हुई!!
एक मातम सा छाया था वहां।।
बगल में लड़का हुआ
मानो रब का सज़दा हुआ
बड़े जोरों से जश्न मनाया गया था वहां।।
"बेटी लक्ष्मी है, दुर्गा है ,देवी है"
सच में??
ये दुनियां कितनी झूठी और फरेबी है..
हकीकत में
भला क्या ये मानता है जहाँ???
महज मंदिरों में पूजित है नारी
जिसकी वजह से ये कायनात है सारी
जग में उसकी अपनी पहचान है कहाँ??
जिसके वज़ूद से ये दुनियां कायम है..
छलनी हुआ आज उसका दामन है..
उसका स्वयं का वज़ूद है कहाँ???
परिंदा हूँ मैं
पर मेरे पंख कहाँ???

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित

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21/9/2019
विषय-दुकान/हाट/विपणी

🌷🌷🌷🌷🌷🌷

खबरों का बाजार गर्म है आज
इंसानियत बिक रही मिट्टी के भाव
हाट लगी है सपनों की
नींदों का चल रहा अभाव..
तरह तरह की सजी दुकानें
शब्दों की भी लगी है हाट
मीठे शब्द के वाणों से
चतुर सौदागरों के ठाठ ही ठाठ..
दया ममता का कोई मोल नहीं है
माँ की ममता गिरवी रखी
सीधे सरल हृदय की
इस बाजार में कीमत कम कर दी..
धरती की क्या बात कहें
ये सयाने तो आकाश बेच दें
रिश्तों नातों की बोली लगाएं
द्रोपदी को भरे बाजार बेच दें..
देह नेह को तौल रहे ये
बेईमानी के तराजू में
सच्चाई और ईमानदारी को
इन सौदागरों ने दबाया अपने बाजू में.
इस धंधे में खूब कमाया
इन कुशल चालाक लोगो ने
विपणन के बादशाह हैं ये
फुसला रहे मासूमो को बातों में..
हाड़-मांस की नहीं है कीमत
बिकता यहाँ हृदय-पाषाण
इज्जत ,शौहरत ईनाम सभी बिकते हैं
अनमोल दामों में बिकता है ईमान ..
अखबार मीडिया सब बिकाऊ
सत्ताधारियों के इशारे पर चलते
निर्दोष सच्चे लोग इनके
लालच और लोलुपता में फंसते ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®

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30/9/2019
विषय-संगत/सत्संग
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सत्य सनातन कथन है ये
कि असर संग का होता है

जैसी संगत होती है
वैसा ही मानव बनता है

संग तथागत का पाया
तो …
अंगुलिमाल शरणागत हुआ
बुद्ध के वचनों से प्रेरित हो
शाश्वत सत्य से वो अवगत हुआ

अग्नि का संग पाकर
सोना जब तपता है
तो ..
स्वर्ण निखर कर
आभूषण बन जाता है...!

सीख नारद की मिली
तो ..
रत्नाकर बाल्मीकि बना
बुद्धि प्रखर हुई तो
रामायण की हुई रचना...!

जड़ बुद्धि थे कालिदास कवि
पत्नी की नज़रों में नहीं थी
उनकी अच्छी छवि
सुन कटाक्ष,अंतर्निहित
प्रज्ञा जागी
तो..
वह महान कवि बना..!

संग केशव का पाकर
अर्जुन ने महा समर किया
मोह भरम से मुक्त हुए
दुष्ट 'स्वजनों' का संहार किया..!

सत संग पाकर ही
तो ..
मानुष 'नर से नारायण 'बनता है..!!

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित

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विषय-पलकें🌷🌷🌷🌷

अधखुली पलकों से
धीरे से छलका
मोती सा आँसू का कतरा
कपोलों पर फिसला
फिर हवा में यूँ तिरता चला गया

ज्यूँ शाख से गिरा
सूखा पत्ता
हवा की लहरों संग
उड़ता चला गया
बिना अपना अंजाम जाने
समर्पण में बहा
या बेबसी में ढहा
न पलकें जाने
न ही शाख को पता ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित

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18/9/2019
विषय-रस
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बात यह विचारणीय है
यदि रस न होते जीवन में
सब नीरस से फिरते
जीवन के इस चमन में

कर माँ का दुग्ध पान
शिशु अमृत रस पाते हैं
पुष्पों का रसपान कर
तितली मक्षिका मधु बनाते हैं

अमृतरसमय जल भरी सरित दरिया
जीवन दायिनी कहलातीं हैं
नवरस के सृजन से ही
साहित्य की सज्जा हो जाती है

रुच्छ,रसहीन फल फूल
भला किसे सुहाते हैं
भोजन से हम अंगप्रत्यंग में
जीने के आवश्यक रस पाते हैं

नव रसों को हम
निज जीवन में भी धारण करें
उचित समय पर
यथोचित रस व्यवहार करें

खुश्क रसहीन ज़िंदगी जीने का
भला क्या फायदा है
रसमय जीवन सुखमय जीवन
जीवन जीने की कला का कायदा है ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित

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विषय-धुआँ

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कैसी ये जलन है कैसा ये दाह है?
हर दिल से धुआँ निकल रहा है
बुझाने से भी न बुझे
धधकती आग से ये निकल रहा है
बुझ जाने दो इसे
ठंडा हो जाने दो
अरे !संभलना ज़रा!
ये तो बस ऊपर से स्याह हुआ है
अंदर ही अंदर शोला दहक रहा है

ये धुंआ ही तो दुःखों का घर है
हर दिल मे इसका हुआ असर है
अंतहीन हैं अंधियारे गमों के ये साये
तेरा मेरा हम सबका चेहरा भी इसमें ओझल सा हो रहा है

ये नफरत का धुआँ है जनाब
आजकल ये हर दिल से में उठ रहा है ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित


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१५/९/२०१९
विधा-मुक्तक
विषय-हिंदी
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हिंदी एक नशा है प्यार से इसे पी लें
भावों के मोती पिरो कर माला पहन लें
गीत बन ये महक उठेगी फ़िज़ां में
अमृत का प्याला समझ कर इसे पी लें ।।
****
क्षमाप्रार्थी हों भूल पर, कीजिए स्वीकार हिंदी में
यही संस्कार हैं हमारे,भूल मानते हैं हम पल भर में
हमारे दिलोदिमाग में ये रची बसी है
दिल की बात दिल तक पहुंचें हिंदी में ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित
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नमन भावों के मोती
12/9/2019
विषय -शहनाई

🎺🎺🎺🎺
दिल की नीरवता में क्यों
आज बज उठी शहनाई है
अनगिन यादों की बारात ले आई मेरी तन्हाई है

टूट गए हैं तार मेरी मन वीणा के
गीत निःशब्द हुए ये तुमने कौन सी रागिनी सुनाई है

सुनी अँखियाँ रास्ता निहार थक चुकीं हैं
मेरे सूखे नैनों ने आज अविरल अश्रु धार बहाई है

क्या रिझायेंगी ये शहनाइयां मुझे अब
रहने दो अंधेरों में मुझे रोशनी की चकाचौंध अब न सुहाई है

बस में नहीं रहा मेरे अब ये ज़िद्दी दिल
न जाने कैसी बीमारी इस दिल ने लगाई है।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित


11/9/2019
विषय-पहला खत/पत्र
✍️❤️✍️❤️✍️❤️

पहले खत का पहला अहसास
जीवन में होता है बड़ा ही खास

कितनी दूर बसे थे तुम प्रियतम
मगर पहले खत में लगे थे बिल्कुल पास

बेकाबू होने लगयीं थी धड़कनें
वो कांपते हाथों से खत खोलने का प्रयास

खुशी से नम हो गईं थी आँखे
धुंधली नज़र से पढ़ने का वो बेताब प्रयास

फिर यूँ लगा तुमने पोंछ दी मेरी आँखें
ये मेरे मन का वहम था या था तेरा आभास ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित
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नमन भावों के मोती
10/9/2019
विषय-चैन की बंसी
विधा-छंदमुक्त कविता
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सारी उम्र वो सोचते ही रहे
कब दायित्व पूर्ण हो
कब हम चैन की बंसी बनाएं
अभी बच्चे छोटे हैं
चैन मिलेगा जरा ये बड़े हो जाएं
पहले स्कूल,फिर कॉलेज फिर नौकरी
बस होने ही लगी है ज़िम्मेदारी अब पूरी
अब मज़े से चैन की बांसुरी बजाएंगे
अरे अभी कहाँ!!
अभी तो बच्चों की शादी करनी है
ये भी कार्य पूर्ण हुआ
अब हमारा कार्य पूरा हुआ
अब शांति से बैठ चैन की बंसी बजाएंगे
परन्तु अभी कहाँ!
अभी तो इम्तिहान बाकी है
अभी बहुत कुछ देखना बाकी है
अब शुरू हुआ बंटवारे का खेल
भाई भाई में नहीं है मेल
बड़ा कहता माता पिता तेरी जिम्मदारी
छोटा बोला छह महीने तुम रखो साथ में
फिर आएगी हमारी बारी
दो व्यक्तियों का खर्चा एक अकेले से
न उठाया जाएगा
तो एक मेरे संग रहेगा
दूसरा तेरे संग जाएगा
सुन कर ये फरमान
व्यथित हुए श्रीमती श्रीमान
आँखो ही आँखों में कुछ कहने लगे
प्रभु से मौन विनती करने लगे
एक आह उठी सीने में
क्या लाभ अब जीने में
अब तो मरणोपरांत ही
चैन की बंसी बज पाएगी ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित

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नमन भावों के मोती
9/9/2019
विषय-शिकार/शिकारी

विधा-क्षणिका
🐦🐤🏹🏹🏹
वो नन्ही सी चिड़िया
परदे में छुपी रही
घर में
मालिकों की पनाह में
खुद को सुरक्षित समझती रही
बाहर उसकी आबरू
बेपरदा हुई
किसी पिताऔर भाई
रिश्तेदार रूपी
शिकारी के हाथ ,,,
शिकारी छुपे हुए हैं
रिश्तों के भेष में
कब शिकार हो जाएं
वो नन्ही चिड़िया
कैसे समझ पाए !!

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित


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