Thursday, November 14

"बाल दिवस/ बचपन/ बाल मन"14,15नवम्बर 2019

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ब्लॉग संख्या :-566
शीर्षक - बचपन
दिनांक - 14-11-2019

बचपन
बोझ किताबों का बढता जाए
बचपन बोझ तले दबता जाए।
कभी होमवर्क की रहती चिंता
कभी ट्यूशन का दंश सताए।
मोटा चश्मा आंखों पर चढ गया
बचपन देखो कैसे मुरझाता जाए।
अब खेल-कूद का वक्त नहीं है
कम्प्यूटर पर दिन बीतता जाए।
खाना-पीना हुआ फास्ट-फूड का
स्वास्थ्य अब इनका गिरता जाए।
हाईटेक हो गया है जमाना अब
अंगे्रजी का भूत सब पर चढता जाए।
बोझ किताबों का बढता जाए
बचपन बोझ तले दबता जाए।
- विनोद वर्मा ‘दुगेश


सभी नन्हे-मुन्ने को बाल दिवस की शुभकामनाएं स्नेह🌹
14/11/2019
"बालगीत"(1)
################
ओ री ! ओ चिड़िया रानी
बारिश में तू क्यों भीग रही
मेरे पास तू आजा रानी
घोंसलों में भर रहे हैं पानी ।

पत्ते पेड़ के झड़ गए हैं
घोंसले भी भीग गए हैं
जो भीगी चिड़िया रानी
बीमार पड़ेगी तू भी रानी
कहती है यह नानी दादी।

तू बड़ी है भोली -भाली
चीं-चीं करती प्यारी प्यारी
मेरै पास तू आजा रानी...
खाने दूँगी मैं दाना पानी।

पिंजरे में ना बंद करुँगी..
बारिश के बाद उड़ने दूँगी
पल दो पल आ जा रानी..
दोनों मिलकर करें मस्तानी।

स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल।।

4/11/2019
"बचपन"(2)

छंदमुक्त
################
मेरे पास तू आजा मुन्ना मुन्नी
आज ना कहना मुझको मम्मी
संग तेरे बचपन को जीते हैं
चल मिलकर शरारते करते हैं

पास पड़ोस के गोलू भोलू
सभीको हम पास बुलाते हैं
बच्चों की बड़ी टोली बनाते हैं
मिलजुल कर शरारतें करते हैं

गुड्डे गुड़िया का ब्याह रचाएँ
गुड़िया को दुल्हन सजाते हैं
लड्डू पेड़ें खरीद कर लाते हैं
पापा की जेब खाली करते हैं

बाराती संग चले घोड़ा हाथी
साड़ियों से मंडप बनाते हैं
चल दादा दादी को बुलाते हैं
धूमधाम से ब्याह रचाते हैं।

गुड़िया हमारी है भोली भाली
विदाई की घड़ी ना रोना कोई
दस्तूर नया हमसब बनाते हैं
हँसते-गाते साथ हम रहते हैं।

स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।
शीर्षक -- छोटी गुड़िया
प्रथम प्रस्तुति


गुड़िया द्वारे राह निहारे ।
पापा नही आए हमारे ।
अब न आऐं साँझ सकारे ।
कहते काम हैं ढेर सारे ।

संडे का किया था वादा ।
संडे को रूके न ज्यादा ।
पहले तो थे दादी दादा ।
उनका प्यार हमें रूलाता ।

पापा भी अब झूठे हैं ।
शायद हमसे रूठे हैं ।
खिलौने सारे टूटे हैं ।
मेरे ये भाग्य फूटे हैं ।

कोई न सुनता मेरी बात ।
मम्मी भी न देती साथ ।
पापा आते हैं देर रात ।
भूली गुडडों की बारात ।

कल से तो मैं स्कूल जाऊँगी ।
घर में कहाँ खेल पाऊँगी ।
होम वर्क रोज लाऊँगी ।
किसी को न मैं सताऊँगी ।

मम्मी भी बनाए बहाना ।
नही सुनाये लोरी गाना ।
इधर उधर बन्द है जाना ।
कैसा 'शिवम' ये कैदखाना ।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 14/11/2019


शीर्षक-- बचपन
द्वितीय प्रस्तुति


अब नही वो चिड़िया तोता
हाथ एक मोबाइल होता ।।

उसी में बच्चा उसी में पप्पा
उसी में हर युवा खोता ।।

मम्मी भी न नुकर करे है
दादा से अब दूर है पोता ।।

पैदा हुए न हजार स्वप्न
उसको अब परिवार संजोता ।।

बचपन से ही बच्चों में अब
नेक विचार कोई न बोता ।।

आसमान के तारे छूले
मन में उसके ये बात पिरोता ।।

क्या सहजता औ क्या सरलता
इसको अब कौन है ढोता ।।

बचपन को हम स्वयं खाऐं
दुर्भाग्य को दें 'शिवम'' न्यौता ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 24/11/2019



विषय बचपन बाल दिवस
दिनांक 14/11/2019


सच्चे है मन के, सच्चा रहने दो
बच्चे है, उनको बच्चा रहने दो

दौडने दो उनको सरपट हरदम
लंबी रेस, उछल कूद लगानेे दो
छिपनछिपाई रस्साकस्सी बस
रेती मे महल नये सजाने दो
थोडा बोझ कम करो बस्तो का
सपने अपने नये उन्हे बनाने दो
तुम कहते हो गीली मिट्टी है वो
मिट्टी ही सही कच्चा रहने दो
सच्चे है मन के, सच्चा रहने दो
बच्चे है, उनको बच्चा रहने दो

बाते उनको मन की कहने दो
आकारो मे रंग नये भरने दो
रोको ना, टोको ना बार बार
कुछ तो उन्हे मन की करने दो
कल्पनाओं का संसार भरा है
अरमानों को पंख लगने दो
भोले है,नादान है,मासूम हैं
बस उनको अच्छा रहने दो
सच्चे है मन के,सच्चा रहने दो
बच्चे है, उनको बच्चा रहने दो

कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद

विषय बाल दिवस,बाल मन,बचपन
विधा काव्य

14 नवम्बर 2019,गुरुवार

चँचल चपल बाल मन बचपना
अतुलित जीवन प्रिय आनन्द।
बाल क्रीड़ा वह शैशव अवस्था
सुवासित जीवन मलय मकरन्द।

आज का बचपन कल भविष्य
बने कर्णधार युवा जन शक्ति।
परमपिता की कृपा बनी रहे
तब ही मिलती जीवन में भक्ति।

जीवन का प्रथम भाग यह
संस्कारों से पलता बढता ।
यौवन के प्रिय मधुमास सा
जीवन खिलता और महकता।

सिंहो के दांतों को गिनते
ध्रुव प्रह्लाद राम रस पीते।
रंक राज हैं सब किस्मत के
कर्मफल ही जीवन में जीते।

स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।


द्वितीय कृति

भोलाभाला नटखट बचपन

तुतलाती बोली बच्चों की।
मधु मिश्री सी मधुरिम वाणी
सत्यमेव वाणी सन्तो सी।

जो मन में मुख से कहते
छल द्वेष से वे अंजाने।
जो भी प्यार दुलार जताते
उसको ही वे सबकुछ माने।

बच्चे होते मन के सच्चे
गोकुल के कान्हा नटखट।
अतुलित बचपन वे जीते हैं
नित मित्रों में होती खटपट।

सबको अपना भोला बचपन
भूतकाल नित याद दिलाता।
समय गया यादें रह जाती
नित देती यादें सदा दिलासा।

स्वरचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

दिनांक : 14.11.2019
विधा: कविता

बच्चे का नाम: मोहित कुमार मालड़ा
कक्षा: दसवीं
शीर्षक: वो सिर्फ मेरी माँ ही है

वो सिर्फ मेरी माँ ही है

जिसको मैंने
सबसे ज्यादा
दुख, दर्द दिये
और जिसने मेरे लिए
सबसे ज्यादा
दुख , दर्द
हँस-हँसकर सहे
वो सिर्फ मेरी माँ ही है

जो कहती है कि...
मैं तुमसे बहुत नाराज हूँ
नहीं बोलूँगी तुमसे
कह कर अगले ही पल ...
चुपचाप खाना खा ले नहीं तो पिटेगा
कहने वाली
सिर्फ मेरी माँ ही है

तीन तक गिनती गिनूँगी
अगर नहीं आया तो ....
कभी नहीं बुलाऊँगी
और अगले ही पल
एक .. डेढ़... पोने दो ....
से गिनती बढ़ाने वाली
सिर्फ मेरी माँ ही है

मेरी सबसे ज्यादा
परवाह करने वाली
चोट लगने पर
मेरे से भी ज्यादा
दर्द महसूस करने वाली
और "तेरे बगैर मैं कैसे रहती"
कहने वाली
सिर्फ मेरी माँ ही है

मेरी खुशी पर
सबसे अधिक खुश होने वाली
मेरे लिए
पिताजी से भी लड़ने वाली
और जब कोई
मेरा विश्वास नहीं करें
तब मैं हूँ ना तेरे साथ
कहने वाली
सिर्फ मेरे माँ ही है

मोहित कुमार मालड़ा ©
स्वरचित कविता
मौलिक
दिनांक- 14/11/2019
विषय- बालमन/बालदिवस/बचपन
िधा- छंदमुक्त कविता
*********************
बाल-दिवस की सबको बधाई,
थोड़ी शरारत मेरे मन में आई,
बढ़ती उम्र को दूँगी मैं विदाई,
अपनी मर्जी से उठूँगी भाई |

आज बहुत से खेल खेलेंगे,
मस्ती दिन भर हम करेंगें,
चिंता, फिक्र न आज करेंगे,
बचपन अपना हम जियेंगें |

रोक-टोक न आज चलेगी,
आज तो सिर्फ मन की चलेगी,
ये बालमन है बड़ा नादान,
इस पर ज्यादा न लगाओ लगाम |

स्वरचित- *संगीता कुकरेती*

14/11/19
बचपन ..


***
दादी बाबा संग नहीं
भाई बहन का चलन नहीं
नाना नानी दूर हैं
और बच्चे...
एकाकी बचपन को मजबूर हैं ।
भौतिक सुविधाओं की होड़ लगी
आगे बढ़ने की दौड़ है
अधिकार क्षेत्र बदल रहे
कोई कम क्यों रहे
मम्मी पापा कमाते हैं
क्रेच छोड़ने जाते हैं
शाम को थक कर आते हैं
संग समस्या लाते हैं
बच्चों खातिर समय नहीं
मोबाइल , गेम थमाते है
बच्चों के लिये कमाते हैं
और बच्चे ...
बचपन खोते जाते हैं ।
आबोहवा अब शुद्ध नहीं
सड़कों पर भीड़ बड़ी
मैदान खेल के लुप्त हुए
बस्ते का बोझ बढ़ता गया
कैद हो गये चारदीवारी में
न दोस्तों का संग मिला
बच्चों का ....
बचपन खोता जाता है
बच्चा समय से पहले ही
बड़ा होता जाता है।
याद करें
अपने बचपन के दिन
दादी के वो लाड़ के दिन
भाई बहनों संग मस्ती के दिन
दोस्तों संग वो खेल खिलौने के दिन
क्या ऐसा बचपन अब बच्चे पाते हैं
बच्चे ....
अपना बचपन खोते जाते हैं
आओ हम बच्चों का बचपन लौटाएं
स्वयं उनके संग बच्चे बन जायें
वो बेफिक्री के दिन लौटा दें
बच्चों का बचपन लौटा दें।

अनिता सुधीर
लखनऊ

14/11/2019
नमन मंच भावों के मोती, गुरूजनों,मित्रों।
बालदिवस/बालमन/बचपन


मम्मी मुझे पैसे दे दो।
मैं गुब्बारे खरीदूंगा।
लाल, पीले,नीले, सफेद।
कितने सारे गुब्बारे लाया।
देखो मां, गुब्बारे वाला आया।
खेलना है मुझे गुब्बारे से।
मैं गुब्बारे खरीदूंगा।
मम्मी मुझे पैसे दे दो।
मैं गुब्बारे खरीदूंगा।

मुन्ना,बबलू, डब्लू।
सबने खरीद लिए गुब्बारे।
पर मैंने नहींअभी तक कोई।
गुब्बारे खरीदे हैं।
जल्दी से कुछ पैसे दे दो।
मेरी अच्छी मम्मी दे दो।
वरना रुठ मैं जाऊंगा।
खाना भी नहीं खाऊंगा।
इसीलिए कुछ पैसे दे दो।
कि मैं गुब्बारे खरीदूंगा।
मम्मी मुझे पैसे दे दो।
मैं गुब्बारे खरीदूंगा।

वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
स्वरचित

14/11/2019
गुरुवार

शीर्षक -बालदिवस, बचपन, बालमन

बच्चे
बस दो या ढाई वर्ष के क्या हुए
विद्यालय मे दाखिल हुए
खुद के वजन से ज्यादा
किताबों का बोझ लिए
आँखों को मीड़ते हुए
अधूरी नींद लिए
निकल जाते है पढ़ने
महज किताबी ज्ञान

प्रकृति से वो वंचित हो रहे
अपना बचपना खो रहे
क्यों है अभिभावक
इस बात से अनजान

बच्चे सिर्फ बच्चे है
कोई कदम का पेड़ नहीं
कोई अलादीन का चिराग नहीं
जो हर अभिलाषा करे पूर्ण
पढ़ने मे आये सदा अव्वल
खेल -कूद , तैराकी सब मे बने निपुण

हर बच्चा परिवार से ज्यादा
डोरीमोन,छोटा भीम , मोटू -पतलू
को है जानता, इन्हे ही वो हकीकत मानता
मोबाईल है उसका प्रिय मित्र
फोन ने बनाया बच्चे का जीवन किलिषट

छुपा -छिपी, गीली डंडा, सितौलिया व बरफ-पानी
दादी -नानी की परियों की कहानी
ये सब गुम है बच्चो के जीवन से
बच्चो का बचपना लौटेगा जाने कब
या प्रतिस्पधा मे खो जायेगा सब
क्या यही है बाल दिवस........
स्वरचित
शिल्पी पचौरी

 II बालमन /बचपन II नमन भावों के मोती....सभी बड़े बच्चों को मुबारकबाद 😛... छोटे/नन्हें बच्चों को प्यार...II

II गधेजी..... II

बचपन में हम गए एक मेले में...
बन-ठन ठुम्मक ठुम्मक ठेले में...
हर तरफ थी खूब चहल पहल...
लोग भी थे बड़े रंग बिरंगे से...
कोई लाल कोई पीला...
हम थे नीले में...

हर तरह के स्टाल थे लगे हुए...
कहीं बर्तन...कहीं कपडे सज्जे हुए...
खाने पीने के स्टाल पे थी भीड़ भारी...
कचोरी पूरी और चने की चाहत सब को भारी...

एक तरफ था खूब शोरगुल हो रहा...
ताली पे ताली थी रह रह के बज रही...
हम भी उत्सुक से वहां जा पहुंचे...
देखा बीचो-बीच गधे को मालिक उसका लेके खड़ा...
गधा भी बड़ा अजीब सा गधा था....
जो भी कहो कान में सिर्फ 'हाँ' में सर हिलाता था...
शर्त थी मालिक की जो 'ना' में गधे की गर्दन हिलवा देगा...
जितना लगाएगा १० गुना इनाम उसको वो देगा...
देखते देखते कई लुट गए...
सब हैरान ऐसा ही क्यूँ है...
गधा सर हाँ में ही हिलाता क्यूँ है...

हमने फिर एक तरकीब लगाई...
और फट से शर्त दे लगाई...
दिया मालिक को ५० का नोट...
बोला अब तैयार रखो १०० के पांच खरे नोट...
हमने गधे के पास जा कान में...
यूं मुंह में मिश्री रख के बोला....
हे गधे जी.....
इतना सुनना था...कान गधे के खड़े हो गए...
हमारी तरफ देख यूं मुस्कुराया....
जैसे मेले में बिछड़ा भाई हो पाया....
हमारे दिल में भी कुछ था होने लगा...
संभाल अपने को फिर कान में बोला....
गधेजी...मन हमारा नहीं आपको गधा बोलने का...
इतने ग्यानी हो...मेहनती हो...
आप गधे तो हो नहीं सकते...
खुद देख लो मेहनत तो आप कर रहे हो...
मालिक आराम से खा रहा...
"आप" तो धूप में जल रहे हो...
वो मजे में शरबत उड़ा रहा...
आप सच में गधे हो क्या...
जैसे ही मैंने ये कहा....
गधे ने जो ना में गर्दन दे हिलाई....
मालिक की तो जैसे सब मुंह को आयी...
लोग दे ताली पे ताली बजा रहे थे...
हम मालिक से अपने पैसे मांग रहे थे...
वो पूछा ऐसा बोला क्या तुमने कि गधा...
ना में ही सर हिलाया....
मैंने फिर सब उसको बताया..
लोग हंस हंस के पागल हो रहे थे...
और मालिक खिसियाने से हो...
'गधे जी' को नोच रहे थे....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१४.११.२०१९

"क्या हुआ हूं, और मैं क्या होना चाहता हूं।
फिर से बच्चा बन के मै खिलौना चाहता हूं।

घर के आगंन मे थी बिखरी हंसी की रोशनी।
उन खुशी की लडियों को पिरोना चाहता हूं।

माँ की गोदी से कोई शै, मुझे प्यारी नहीं थी।
खोई उस जन्नत को फिर से पाना चाहता हूं।

जिसने चलना सिखाया, चल के मिलने जाऊँ।
बाबा के कंधे चढ ऊंचा सबसे होना चाहता हूं।

कितनी यादें बह के आई आसुंओ के साथ मे।
भाई-बहन संग एक थाली में खाना चाहता हूं।

रूठ कर बिछडे मेरे अपने, बड़े सब क्यों हुए।
टूट कर बिखरे ये मोती सब संजोना चाहता हूँ।

लिख रहा हूँ जाने कैसे हाले दिल मत पूछिये।
रोके रुके न अश्क, दामन भिगोना चाहता हूं।

फिर से बच्चा बन के मै खिलौना चाहता हूं।
फिर से बच्चा बन के मै खिलौना चाहता हूं।

विपिन सोहल

दिनांक - 14/11/2019
आज का विषय - बचपन/बालमन
विधा - छंदमुक्त कविता

🌹बाल दिवस की हार्दिक बधाई🌹

----नई सदी का बचपन----

ना मिट्टी के खिलौनें,
ना वो पारम्परिक खेल
जहां पकड़म- पकड़ाई, छुपम-छुपाई,
चोर-सिपाही , बच्चों की रेल,
अब ना दादी के हाथ का मक्खन,
ना नानी का वो दही - रोटा,
राजा - रानी की कहानियां
जो सुनाती थी दादी- नानी,
अब बन कर रह गई
एक कहानी,
स्कूल से सीधा पीपल पर जाना,
घंटो खेल खेलना और बतियाना,
मित्र मण्डली संग घूमना,
वो बारिश में नहाना,
वो बच्चों का बचपन
और बचपन की मस्ती
ना जाने कहाँ खो गई,
विज्ञान की इस सदी में
शायद मोबाइल और कंप्यूटर
के भेंट चढ़ गई।

स्वरचित
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा सिरसा(हरियाणा)
शीर्षक-मेरा बचपन
नन्ही बहना,जरा हंसना
तेरी मुस्कान में मैंने
अपने राम को देखा है।
शैतानी करना,मत डरना
तेरी शरारत में मैंने
नटखट श्याम को देखा है।
मन की बात मुझसे कहना
हरगिज़ नहीं तुम डरना।
तेरी तुतली बोली से
दिल में प्यार उमड़ आता है।
न जाने कैसा जादू है
जितना देती उतना बढ़ता जाता है।
तेरी मासूम दुनिया में
चली आती हूं चुपके-चुपके
जब भी जी घबराता है।
तेरा हंसना,तेरा रोना
देखती हूं बड़े गौर से
बचपन मेरा लौट आता है।
तेरे गालों को छूते ही
दर्द सारा सिमट जाता है।
हर ग़म उड़नछू हो जाता है।
नन्ही बहना,तेरी मासूमियत में मैंने
चारो धाम को देखा है।
तभी तो तुझे चाहा, तुझे पूजा है।
अब तू ही बता, इसमें मेरी क्या खता
है।
स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर

भावों के मोती
विषय--बालदिवस/बाल मन/बचपन
___________________
गुड़िया ने देखा स्वप्न अलबेला,
देखे रोज नया झमेला।
बैठी पेड़ पर गौरय्या रानी ,।
तन पे कोट घड़ी हाथ में पहनी।
हाथ में लेकर चाय की प्याली,
कहे पीलो अदरक वाली।
देख नजारा गुड़िया चकराई,
मम्मी को आवाज लगाई।
मम्मा-पापा जरा यह तो देखो,
बदल रही है दुनिया देखो।
अब यह सब भी पहनेंगे टाई,
बिल्ली भी करेगी सिलाई।
क्या हाथी की पोशाक सिलेगी,
दुनिया बड़ी अलग दिखेगी।
गौरेय्या रानी तुम बतलाओ,
जरा संग कमरे में आओ।
आओ बन जाएं सखी-सहेली,
बूझे दुनिया की पहेली।
जब उठी नींद से बाहर भागी,
पेड़ की कट गई थी वह डाली।
जोर-जोर से रोई थी गुड़िया,
अच्छी थी सपनों की दुनिया।
सभी वहाँ हिलमिल के रहते,
हर बार पर नहीं झगड़ते।
कितना अनोखा वह संसार,
सभी करते थे आपस में प्यार।
***अनुराधा चौहान*** स्वरचित


भावों के मोती
विषय--बालदिवस/बाल मन/बचपन
द्वितीय प्रस्तुति
_____________________
बालदिवस आया मनभावन,
धूम मची है घर के आँगन।
बालिकाएं ओढ़ के चुनरी,
नृत्य दिखाएं हैं नन्ही सुंदरी।

लाल गुलाब हाथ में लेकर,
नेहरू जी को नमन झुककर।
प्रण हैं सच्ची राह चलेंगे,
कठिनाई से नहीं डरेंगे।

शपथ ले आज करें यह काम,
जग में गूँजे देश का नाम।
सैनिक बन के हम भारत के,
भगा देंगे शत्रु को वतन से।

करके बाल-सुलभ यह बातें,
सबके हृदय को हैं लुभाते।
मासूम नन्हे राज दुलारे,
चाचा नेहरू इन्हें प्यारे।।
***अनुराधा चौहान***स्वरचित


भावों के मोती
विषय-बालदिवस
शीर्षक-बड़ा इंसान
तृतीय प्रस्तुति
_________________
तू यहीं खड़ी रहेगी या चलकर काम करेगी।कमली ने जोरदार थप्पड़ मारते हुए मुन्नी से बोली।आह..माई दुखता है,क्यों मार रही है सुबह-सवेरे से ?
अरे मुझे आँख दिखाती है छोरी।यह बरतन कौन साफ करेगा बता, मुझे मजदूरी करने भी जाना है।
छः बरस की मुन्नी सुबकते हुए बरतन साफ करने लगी।
माई एक बात पूछूँ..? डरते-डरते मुन्नी ने माई से पूछा।हाँ बोल क्या बात है..रोटियाँ सेंकती हुई कमली बोली।
माई यह स्कूल क्या होता है?वहाँ बहुत मजा आता है क्या।आज सभी बच्चों ने कितने रंग-बिरंगे सुंदर परिधान पहने हुए हैं।
रोटियाँ सेंकते हुए कमली रुक गई। पता नहीं पर वहाँ जो जाता है वो बड़ा इंसान बन जाता है। फिर उसके पास पैसे की कमी नहीं होती है।
माई मैं भी स्कूल जाऊँगी और बड़ा इंसान बन जाऊँगी, फिर तुझे यह पत्थर नहीं तोड़ने पड़ेंगे।
हम्म..गहरी साँस लेकर कमली बोली।चलती हूँ,भाई का ध्यान रखना, भूख लगे तो दाल का पानी पिला देना।तू भी खाना खा लेना समय से।
कमली बाहर निकली और स्कूल के द्वार पर ठिठक कर रुक गई।आँखो में नमी उतर आई, माफ़ करना मेरी बच्ची पढ़ाना तो बहुत चाहती हूँ तुझे पर...
काश तेरे पिता पीने की बजाय पैसे कमा रहे होते।खैर छोड़ो.. अपनी-अपनी किस्मत, गहरी साँस लेकर कमली काम करने चली गई।
मुन्नी अपने भाई को गोद में लेकर बाहर आई। और फिर से स्कूल के द्वार पर बालदिवस की झलकियाँ देखने खड़ी हो गई।
मुन्ना देख मैं बड़ी हो जाऊँगी तो तुझे स्कूल भेजकर बड़ा इंसान बनाऊँगी। तुझे बापू जैसा नहीं बनने दूँगीं। आत्मविश्वास से भरे नैनों से मुस्काती मुन्नी छोटे भाई से बोली।
***अनुराधा चौहान***स्वरचित

शुभ बाल दिवस
दिनांक १४/११/२०१९

शीर्षक-बालगीत।

बंदर मामा बने हैं दुल्हा
दुल्हनिया बंदरिया मामी
सज धजकर चले बराती
भालू संग नाचे हाथी।
पूरी मिठाई छक कर खाये
बंदर मामा सभांल न पाये
लगे घुलटिया लेने ,
सजे धजे जो थे बराती
देख उन्हें ठीठके।
कैसे सभंले बंदर मामा
वो सब थे हैरान
छोड़ कर भागे बराती सब
बंदरिया हुई उदास
होश संभाला बंदर ने जब
मनाने चले बंदरिया ,
तुम तो मेरी दिल की रानी
बनो ना तुम अन्जानी
मानो बात हमारी
मिल बैठ कर हम खायेंगे
जी भर पूरी मिठाई
हम दोनों फिर उधम मचायेंगे
हामी भर दो रानी।


स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

दिनांक - 14/11/2019
विषय - बाल दिवस /बाल मन / बचपन

🤗🤗🤗🤗🤗🤗

बाल मन (करता है)

जीवन के दो पल चुराकर,
लौट चलें फिर बचपन में।
दो पल झूमे नाचें गाएँ,
हों चालीस में या पचपन में।

खेलें चाहे गुल्ली-डंडा,
या गुड्डे गुड़िया का व्याह रचाएँ।
चाहे कबड्डी, खो-खो खेलें,
या बारिश की पानी में नाव चलाएँ।

भागें तितली के पीछे - पीछे,
और कोयल की कूक निकालें।
जादू की ऐसी पुड़िया बाँटें,
उनसे उनकी उम्र छिपालें।

नकली सी एक मुँछ लगाकर,
पगड़ी सिर पर खूब सजाएँ।
जादू कर खुशियाँ बरसाएं,
ताकि गम फिर छू न पाए।

मन करता है फिर से अपनी,
एक अनूठी हाट लगायें।
खुशियाँ बेचें दो - दो पैसे,
और गमों की वाट लगायें।

स्व रचित

डॉ उषा किरण 

भावों के मोती
14/11/19
विषय-बाल दिवस

आज बाल दिवस पर सभी नौनिहालों को आंतरिक स्नेह और अशेष शुभकामनाएं।

खिले रहो ता जिंदगी
हौसले पर उड़ान रखो अपनी
माना जीवन एक युद्ध है
जीत निश्चित होगी ठान लो यदि।

नौनिहाल कहाँ खो रहे हैं
कहाँ गया वो भोला बचपन
कभी किलकारियां गूंजा करती थी
और अब चुपचाप सा बचपन
पहले मासूम हुवा करता था
आज प्रतिस्पर्धा में डूबा बचपन
कहीं बङों की भीड़ में खोता
बड़ी-बड़ी सीख में उलझा बचपन
बिना खेले ही बीत रहा
आज के बच्चों का बचपन।

स्वरचित

कुसुम कोठारी ।

"भावों के मोती"
दिनाँक -14/11/2019
विषय-बालदिवस
बाल मन
, बचपन
बचपन
-------

आओचले - आओ चले
लौटे फिर बचपन में
कभी खेलते गुल्लीडंडा
और कभी हम कंचे
कभी मिटटी के घरोंदे बनाते - बिगाड़ते ।

लौट चले हम फिर बचपन में

हाथ एक दुसरे का थामे
कभी गिरते पड़ते
कभी गिरते औंधे मुँह
तो
हथेलियों से मुंह छिपाकर
फिर मुस्काते ।

लौट चले हम फिर बचपन में

माँ की गोद सुहानी लगे
उसका आँचल सरपरस्ती लागे
पापा की तो बात निराली

पापा की वो डांट- दुलार
का प्यारा सा स्पर्श ।

लौट चले हम फिर बचपन में

न थी कोईचिंता
न फ़िक्र कोई
न चेहरे पर शिकन - सिलवट
न था कोई दर
सपनो के टूटने का ।

लौट चले हम फिर बचपन में

सतीत्व बदला सब बदला
अब तो हर वक़्त
गर्दिश में रहता है मन
चिंता ओर वहम को पाले
कहा छोड़ आये हम वो सब ।

लौट चले हम फिर बचपन मे

संस्कारों से जकड़ा जीवन
अपनी खुद की हँसी
कहा छोड़ आये हम
ढूँढ़ कर फिर ठहाके लगा लें
बिना कारण मुस्कुरा लें ।

आओ लौट चले फिर बचपन में !

स्वरचित

अंजना सक्सेना
इंदौर



दिनांक -15/11/2019
दिन-शुक्रवार

शीर्षक -बचपन
दूतीय प्रस्तुति

बचपन
----------
कैसा बचपन
शहर के सडको
पर
गुजरता बचपन
नगे - मैले कुचले
कपड़ो में
रोटी के निवाले को तरसती
दो आँखे
कचरे के ढूहों के
बीच
खगालती उगलिया
कुछ पाने को आतुर
कैसा बचपन
सडको पर जाते
रंग - बिरंगे
नन्हे बच्चो को
देख सुनी आँखों
में तरसता बचपन
उसमे खोता
कुछ ललचाता बचपन
नगे पांव नाक में भिनभिनाते मखियो के साथ
नगे पाँव दौड़ता बचपन
कुछ आस लिए निहारता बचपन
नहीं मिला
उन्हें कभी माँ की बाँह का तकिया
न ही पिता के सीने से
लिपटने का सुख
हर वक़्त तिरष्कृत ओर
अपमानित बचपन
ये कैसा बचपन ?
स्वरचित
अंजना सक्सेना
इंदौर

14 /11/2019
बिषय, बालदिवस,, बालमन,,बचपन,
सहज सरल सुलभ बालमन
जवानी बुढ़ापा से बेहतर बचपन
न खाने की चिंता न सोने की फिक्र
अपने पराए सभी से बेफिक्र
दादी की कहानी नानी का दुलार
चंचल नटखट अमृत सा प्यार
कभी रुठना तो कभी मान जाना
कभी आँख दिखा कभी ठेंगा दिखाना
मासूम नटखट बचपन अवोध
होता भरपूर आमोद प्रमोद
उछल कूद कर कूदते इधर उधर
भोजन भी.करते तो नाच नाच कर
न कब गहरी नींद के आगोश में सो जाना
स्वप्न में परियों के देश के चक्कर लगाना
आज बालदिवस का त्यौहार
नौनिहालों को समर्पित प्यार की वौछार
ध्यान रहे बचपन अधूरा न रह.जाए
पढ़ाई की बोझ तले दब ही न जाए
बच्चों के हमजोली बन खुद को निखार लें
भविष्य संवर जाएगा बर्तमान संवार लें
स्वरचित,, सुषमा ब्यौहार


15 /11/2019
बिषय बालदिवस बालमन बचपन

नन्हें नन्हें बचपन को देख उम्र ठहर गई
यादों का पिटारा लिए सामने से गुजर गई
न वक्त की परवाह न काम का सऊर
खाने खेलने का चढ़ा रहता था शुरुर
मौज ही मौज थी फाका मस्ती
खुद को समझते दुनिया की सबसे बड़ी हस्ती
धूप न ठंड गर्मी न जाड़ा
चाहे जब बन जाता झगड़े का अखाड़ा
चाँदी की रातें सोने के दिन
नहीं रह पाते इक दूजे बिन
मिलजुलकर छुट्टियां बिताना
झुंड में सोना झुंड में खाना
पल में लड़कर मान जाना
दूसरे की पिटाई पर हँसना चिढ़ाना
लुकाछिपी ,लंगड़ी ,पतंगें उड़ाना
कागज की नाव बरसात में चलाना
न जाने क्या क्या करता था बालपन
किलकारियां से गूंजता रहता आंगन
सोचती हूँ फिर से लौट आए बचपन
आंचल में समेट लूं भर जाए मेरा मन
बालदिवस की सभी को बहुत बहुत शुकामनाऐं
पूर्ण हो आपके दिल की सारी तमन्नाऐं
स्वरचित,, सुषमा ब्यौहार
दिनांक:14/11/2019
विधा:काव्य
विषय :बाल मन /बचपन/बालदिवस

हाँ मेरे मन का बच्चा अभी जिन्दा है....
जब भी कही घूमने जाती
अन्दर बच्चा हावी हो जाता।
देख नदियो का पानी की धारा
खेलूँ मै भी पानी में ।
एक दूसरे पर पानी फेक
जी लू मैं बचपन के दिन ।
सुन कर पानी का गर्जन
याद आ गया बचपन का डर
दुबक के छुप गई थी माँ के आँचल मे।
माँ ले कर मुझे तब गोदी मे
उतर गई थी सागर मे।
भाग गया था सारा डर
खूब खेली थी लहरों से।
अब भी समुद्र की लहरों मे खेलू
भूल के मै अपना वर्तमान ।
हाँ मेरे...
देख के मै ऊचे पर्वतो को
चाहूँ मै चोटी पे चढना ।
देख नाती पोतो को दौडते चढना ....
जागा मुझमे नया उत्साह ....
मैं भी चढ गई ऊँचा पर्वत
पहुँच गई चोटी पर मै भी।
हाँ मेरे .....
बाल दिवस को आज मनाने
बाँटी बच्चों मे टाफी और मिठाई ...
साथ मे उनके बच्चा बनकर
खेला खो खो व छुपन छुपाई
खूब हसी और मस्ती कर के
आज किया बचपन को याद।
हाँ मेरे ..

स्वरचित
नीलम श्रीवास्तव

विषय : बाल दिवस
दिनांक: 14 नवम्बर,2019

🙏🙏🙏बचपन के दिन🙏🙏🙏

वो बचपन के दिन निराले,
खूब धमाचौकड़ी वाले थे।

गुल्ली डंडा लकड़ी वाले,
सतोलिया पत्थर वाले थे।

साँप सीढ़ी का खेल खेलते,
कंचाें की दुनिया में खो जाते थे।

गुड़िया हमारी कपड़ों वाली,
उसको दुल्हन बनाते थे।

दूल्हा हमारा प्यारा गुड्डा राजा,
बाराती हम सब बन जाते थे।

अलग-अलग किरदार निभाते,
खूब हँसते गाते खेल खेलते थे।

कभी लड़ते कभी झगड़ते,
पल भर में दोस्त बन जाते थे।

गली मुहल्ले में शोर मचाते,
छत पर पतंग उड़ाते थे।

पापा के हम राजा बेटा,
मम्मी के प्यारे कहलाते थे।

दादी,दादा मेवों से जेबें भरते,
'रिखब' को कहानी सुनाते थे।

वो बचपन के दिन निराले,
खूब धमाचौकड़ी वाले थे।

स्वरचित एवं सर्वाधिकार सुरक्षित©रिखब चन्द राँका 'कल्पेश'जयपुर राजस्थान


14-11-2019
विषय:-बचपन
विधा :-दोहे

बच्चे मानक प्रगति के , भरते हृदय हिलोर ।
हो विकास सब इन्हीं से , स्पर्श करें हर छोर ।।

अदृश्य बल से सोहता , बचपन का संसार ।
दुख विषाद सबके हरें , सुख दें अपरम्पार ।।

मिट्टी से हों खेलते ,घूमें नंग धड़ंग ।
उत्सव से हैं दीखते , भरते हृदय उमंग ।।

बचपन सुनहरी कल का , करे बीज निर्माण ।
इनके भीतर ही भरे , सारे ज्ञान विज्ञान ।।

उचित भरण पोषण करो , हों न बाल मजदूर ।
सुख सुविधा मिल दीजिए , रहें नहीं मजबूर ।।

बाल दिवस मनता रहे , बच्चे हों अभिभूत ।
राजनीति को छोड़ के , बनने दो संभूत ।।

स्वरचित :-
ऊषा सेठी
सिरसा

बचपन / बाल मन/ बाल दिवस

बचपन ही
ऐसा है
जो भूले नहीं
भूलता है
अम्मा की
चूल्हे पर बनी
सौंधी रोटी
याद आती है

गल्ली डंडे की चोट
पुराने साईकिल के
पहिये को दौडना
याद आता है

अंटी खेला
करते थे गलियों में
मास्साब की
धडपकड
याद आती है

सफेद कमीज
खाकी नेकर
और पाठशाला
की टाटपट्टी
याद आती है

बाल सभा तो
भूल ही गये
भगत सिंह
आजाद के गीत
याद आते हैं

गलत जबाब
देने पर
बेशर्म की डाल
से मार
याद आती है

पुरानी किताबे
ले कर
अगले साल
फिर किताबे
दूसरे को देना
याद आता है

बरसते पानी में
सिर पर बस्ते
रख कर भागना
याद आता है

अम्मा की
पूजा और
प्रसाद के लिए
एक आँख
खोल कर
बार बार
शालीग्राम जी
को देखना
याद आता है

कोमल बाल मन
की धुंधली यादें
और वो बाल दिवस
याद आता है

क्यों हो गये
हम इतने बड़े
बाल सफेद
और झुर्रिया
चेहरे पर
शायद अब
लोट नहीं सकेंगी
मेरा बचपन
बुढ़ापे ने लील
खाया है

स्वलिखित

लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल 


4-11-2019
(एक पुरानी रचना)

बचपन तुम बहुत याद आए

यादों के झरोखों से तुम मुस्काये
कर कोशिश उकेरू स्मृति की रेखाएं
स्कूल न जाने के अनगिन बहाने
अम्मा की धौल पर लगते चिल्लाने
कहाँ गई दादी, आई न बचाने
सुर सप्तम में थे बढ़ते तराने
फिर दादी का आना, ममता लुटाना
मान-मनौव्वल, आँचल में छुपाना
अम्मा को देती दादी जो झिड़की
खुलते थे मन में खुशियों की खिड़की
दादी के खूंट से निकला चार आना
आँसू को पोंछना, मेरा मुस्कुराना
तैयार ही रहती मतंगो की टोली
कुत्ते की भों भों, बन्दर की बोली
गाछी बिरछ से अमिया चुराना
पकड़े गए तो मासूम मिमियाना
मेड़ों पे लोटना, पेड़ों से छलांग
गिल्ली औ डंडा, कभी लंगड़ी-टांग
बांध दुम में कुत्ते की, फोड़े पटाखे
ताली बजाते फिर समवेत ठहाके
कांच के कंचे पड़े जो बस्ते में
डबलू ने छीने जबर रस्ते में
पड़ोसी के घर जलेबी पे टूटना
घर आके भैया से मनभर फिर कूटना
सरेराह चिढ़ाए बजाकर के ताली
शिकायत लिए खड़ी बुलकी वाली
गुस्से में बापू खड़े थे ओसारे
दीदी तब बताती कुछ करके इशारे
पिछले दरवाजे से घर में धमकना
आँगन में भौजी पर बस तमकना
टिकट फटी गंजी में दिखता था ऐब
पहनता न कुरता अगर न हो जेब
कुरते में पॉकिट का चिप्पी चिपकाना
चुपड़ तेल दीदी का हिप्पी बनाना
कुछ कही, कुछ अनकही कथाएं
मुदित भी है पर मन अब शरमाए
बचपन तुम बहुत याद आए।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित


विषय - बाल दिवस/ बचपन/ बाल मन
14/11/19
गुरुवार
कविता

बच्चों का भोला बचपन लौटा दे कोई ,
परियों के जग में उनको पहुँचा दे कोई।

निश्छल मन से पुलकित हो किल्लोल मचाएं,
वे अपने स्वप्नों की दुनिया स्वयं सजाएं।

दादा - दादी की स्नेहमयी छाया पाएँ ,
राजा- रानी के किस्से सुन ज्ञान बढ़ाएंं।

दुनिया का छल- छद्म उन्हें न छूने पाए,
प्रेम और समता का वे आदर्श दिखाएँ।

न बस्ते का बोझ और न कोई गम हो,
उनका जीवन परमहंस के सम उत्तम हो।

जब वे बचपन का सच्चा स्वरूप समझेंगे,
तभी देश- हित निर्माणों की नींव रखेंगे।

बाल-दिवस पर हम सब यह संकल्प उठाएँ,
हर बालक के चेहरे पर मुस्कान खिलाएं।

स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर

तिथि _14/11/2019/गुरुवार
विषय_ "बालदिवस/ बालमन/बचपन "
विधा॒॒॒_* गीत*

हम बच्चे भगवान के।
फिर भी हम शैतान से।
घोड़ा घोडी खूब घुमाऐ
लाकर किसी मैदान से।
हैं सच्चे इंसान से। हम बच्चे भगवान

रो रोकर हम खूब बताते।
भाई बहना बहुत लडाते।
मनमर्जी के सब मालिक
रूठें जब तब सभी मनाते।
हम तो हैं नादान से।हम बच्चे भगवान

खेल खिलौने हमें भाते।
घोड़ा गाड़ी हमें लुभाते।
गुड्डे गुडियों के संग खेलें
मित्र मंडलियां हमें बुलाते।
राम रहीम रहमान से।हम बच्चे भगवान के

बालमन बचपन है अपना।
जहाँ सो जाऐं वही बिछौना।
नहीं खिलौने अगर मिले तो
उठा लेंय सिर घर का कोना।
हम सभी बंदर हनुमान से।हम बच्चे भगवान के

बालदिवस हम रोज मनाऐं।
अपने साथी सभी बुलाऐं।
बसे भगवान हमारे मन में
कृष्णा बचपन हमें रिजाऐं।
मानें भीतर हमें वलवान से।हम बच्चे भगवान के

स्वरचित
इंजी शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना मध्य प्रदेश


विषय_*बालमन बचपन*
विधा॒॒॒ _काव्य

बचपन की मासूमियत
हंसी मासूम बालिका।
सुखद चितवन सुहावन
मधुरम बसंत वाटिका।

जीवंत बचपन हमारा।
न संत पचपन हमारा।
मासूम नन्हीं परी ये
खुशी भगवंत हमारा।

भगवन दिखता इसी में।
मधुवन दिखता इसी में।
सत्यता जीवित यहीं है
सुख मन दिखता इसी में।

लडकपन कान्हा मिलेगा।
नहीं दुश्मन इसमें दिखेगा।
ढूंढ लें खुशियां खजाना
प्रसन्नराज इसमें मिलेगा।

न वैमनस्य इसमें मिलाऐं।
प्यार सब इस पर लुटाऐं।
देख लो छलहीन मुस्कान
निर्मल भाव इसे बताऐं।

स्वरचित
इंजी शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना मध्य प्रदेश


विषय _*बचपन *
विधा॒॒॒ _छंदमुक्त

चुलबुला बचपन
इसे क्या नाम दें
उठती उमंगें
कुछ करते अद्भुत शरारतें।
कहीं कीचड में थपकियां मारते
तो कहीं पानी उछालते।
चोरी छिपे
मित्र मंडली के साथ
आम जामफल या
जामुन तोडते।
चलते चलते पैरों में
तंगडी लगाकर
किसी यार को गिराकर
चिडाते तालियां बजाते।
कुछ मनचाहा
खाने ठुनकते जमीन पर लुडकते
याद आतीं नहीं भूले
वो बचपन की शरारतें ।
आज बचपन की पीठ पर
गधे सा बोझा लदा है
लगता जैसे
बेचारा अवसाद में दबा है।
अब कहां बनते रेत मिट्टी के घरोंदे
खो गई कहीं
हमारे बचपन की शरारतें ।
छिपा छिपी खेलना
रात में किसी को भी अचानक डराना
पीछे से पटाखे चलाना
होली पर्व पर लकडी कंडे
खटिया कहीं से भी उठाकर जलाना।
सोत आदमी पर
पानी छिडक कर भागना
शेष रही सिमटकर
यादो में शरारतें।

स्वरचित
इंजी शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म प

तिथि _14/11/2019/गुरुवार
विषय_ "बालदिवस/ बालमन/बचपन "
🌺बच्चों को जीने दो 🌺

कभी ले दो थोड़े गुब्बारे
उन्हें मिलकर उड़ाने दो
कभी पानी मे कर लो छप्-छप् ...... 👭👭👭
कभी थोड़ा शोर मचाने दो
बात न करो तुम कभी पड़ने की
करो बात कभी उन्हे समझने की
क्या चाहते हो उनको कभी कह लेने दो
करने दो कभी थोड़ी शैतानी
कभी उन्हे उनकी दिनचर्या
बताने दो
कटपुतली बन झूम लो ज़रा
कभी उनको नाच नचाने दो
पड़ना लिखना बहुत सिखाया
जो चाहा उनको वो बनाया
आज उनको जीना सिखला दो
अच्छे की परिभाषा हटा दो
बाँटों न तुम उनमें आज ज्ञान
कि हरदम बने अच्छे इंसान
उनका जो जी चाहे वो खाने
दो
जीने का अंदाज यही झूमने दो, उन्हे गाने दो
उन्हें उनकी ताल बजाने दो
बच्चों को बच्चा रहने दो
झूमने दो, उन्हें गाने दो
थोड़ा शोर मचाने दो

14/11/19
विषय बालमन
नमन मंच

शब्द अनोखा कितना प्यारा
फुलवारी है फुलवारी
सुन्दर सुन्दर फूलो जैसी
बच्चों की ये फुलवारी
देख इन्हें खुश होता है मन
आनंदित होता तन मन
फूलो जैसा मन खिल उठता
आओ तुमको मैं दिखलाऊँ
कुछ फुलवारी जो न देखी
फूलो संग जिसमे है कांटे
जो छिपे हुए है फूलो के संग
ऊँच नीच औऱ अमीर गरीब
जिसे देख भारत माँ है रोती
करदेते जो दामन तार तार
कहते जिसे है आतंकवाद
सुनी होती माँ की गोदी
जार जार है वो रोती
कोई बनता बाल मजदूर
कोई बने नशे का दूत
कोई माँग रहा है रोटी
किसी की उम्र हुई है छोटी
यदि सजानी है फुलवारी
मुस्कान इनकी लौटाओ
बिन माँ के इन बच्चों की
एक सुंदर फुलवारी सजाओ

स्वरचित
मीना तिवारी

दिनांक _१४/११/२०१९
विषय -बाल दिवस
विधा -कथा
**********************"

"आज का खुला खत, अपनी अभिव्यक्ति के नाम "

तुम्हें याद है..!! या भूल गये..! गांव की पगडंडियों पर, ऊंगली पकड़कर, बैलगाड़ी के पीछे पीछे , कैसे नंगे पांव धूल उड़ाते हुए हम भागते थे। क्या ये भी भूल गये? तालाबों से पानी भर कर लौटती हुई औरतों के मटकों पर गुलेल मार कर फोड़ते थे। इसके बदले मनमानी गालियाँ सुनने को मिलती थीं। ये तो जरूर याद होगा, खेत, खलिहानों में हम छुप्पम छुपाई खेलते थे।... और तुम पीछे से आकर जोर का धप्पा मारते थे। मुझे अच्छा लगता था।
ये तो भूल ही नहीं सकते तुम गर्मी की वो तपाने वाली दोपहर में, अमियाँ के बाग में, रखवाले से छुपकर, अमियाँ तोड़कर फिर उसे ब्लेड से काटकर नमक के साथ चटखारे लेकर खाना कितना अच्छा लगता था । ... छोटे -छोटे हाथों से रेत के घरौंदे बनाकर उसमें साथ के सपने बुनना तो तुम्हें याद ही होगा। . .. सुरज के ढलते ही हल बैलों के संग रूनझुन करती गाय, बकरियों की घंटियों की आवाज सुनना तुम्हें कितना अच्छा लगता था।
कैसी भी परिस्थितियां हों, सूनी -सूनी रातों में, डिबियों की टिमटिमाती रोशनी में, जुगनुओं का चमकना , और दादी माँ की लोरियां गाकर सुलाना तो कभी भूल ही नहीं सकते हम ...!!
कभी नहीं...!!
तनुजा दत्ता (स्वरचित)


भावों के मोती
विषय- बालदिवस/बालमन/बचपन
विधा- गीत

#बाल_गीत

मैं हूँ इक नन्हा सा बालक, मन में आते कई सवाल।
मम्मी पापा से पूछूँ तो, हो जाते गुस्से में लाल।।
(1)
चंदा मेरे पीछे चलता, समझाऊँ तो रुकता क्यों न ।
आसमान उल्टा है फिर भी,धरती पर है गिरता क्यों न।
हाथी कितना बलशाली है, क्यों चींटी से जाता हार।
पशु पक्षी सूरज औ तारे , कौन चलाता यह संसार।

पर्वत ,पर्वत पर नदियाँ हैं , फैला जंगल का जंजाल।
मम्मी पापा से पूछूँ तो, हो जाते गुस्से में लाल।।
(2)
कमल खिले क्यों कीचड़ में ही, हवा नहीं क्यों आती हाथ।
पानी क्यों इतना पतला है , चलते क्यों दिन रात न साथ।।
पकवानों को जब भी देखें , गिरी पड़े क्यों मुँह से लार।
खारा है सागर का पानी , झरने की मीठी क्यों धार।।

ज्वार और भाटा क्या होता,जल का सागर बीच उछाल
मम्मी पापा से पूछूँ तो, हो जाते गुस्से में लाल।।
(3)
और भी बहुत सी बातें है, नहीं किसी के पास जबाव।
हाथ जोड़कर बहला देते, कभी दिखाते मुझे रुआव।।
दादा दादी से पूछूँ तो ,मिलती मुझे खूब फटकार।
काला अक्षर भैंस बराबर, कहते वो होकर लाचार।

थक कर जब मैं सो जाता हूँ ,सुबह वही फिर होता हाल।।
मम्मी पापा से पूछूँ तो, हो जाते गुस्से में लाल।।
***********************************************
आशा अमित नशीने
राजनांदगाँव


हँसता खिलता प्यारा बचपन
अपनी ही दुनियाँ में मस्ती में खोया बचपन
मस्ती में गलियों में खेलता बचपन
कच्ची धूप में खिलता बचपन .

छोटे से दिल में बड़े अरमानों सा बचपन
खिताबों में भविष्य बनाता बचपन
नटखट मासूम शरारतों में डूबा बचपन
वो कागज की कश्ती में गोते खाता बचपन.

मन की नजर से फिर एक बार याद आया बचपन
खिल गया ये मन का अर्पण
फिर से जी उठा वो भोला बचपन
फिर मस्ती के गगन झूम उठा मन .
स्वरचित := रीता बिष्ट


विषय--बचपन
विधा--मुक्त
दिनांक --14 / 11 / 19

बचपन हर गम से बेखबर होता
बात ये ख्वाब की लगती है

जिनके सर पर छत होती है
पेट में जिनके रोटी होती है
तन ढकने को कपड़े होते हैं
उनके लिए ये बातें होती हैं

खुले आसमां जिनकी छत होती है
फुटपाथ पे जिनकी बसर होती है
पैदा होते ही जिनके हाथ
कटोरे होते
उनके बचपन कहाँ गम से
बेखबर होते हैं

होली के रंग फीके होते
बुझे पटाखे जिनके नसीब होते
ईद मिलन में जिन्हें ना ईदी मिलती
केरल भी ना कभी उनके मुख चढ़ते हैं
ऐसे बचपन कब गम से बेखबर होते हैं

कचरे के ढेर में रोटी मिलती है
प्यार के बदले गाली मिलती है
ढूँढते हैं जो खुशियां नशे की बोतलों में
ऐसे बच्चे कहाँ......

कांधे पर बस्ते का बोझ छोड़
जो ढोहते कचरे का बोझ हैं
बाल के बदले जिनके हाथों में
बड़े -बड़े बासन भांडे होते हैं
(ढाबों पर काम करते बच्चे)
ऐसा बचपन कहाँ...

स्कूल के मैदान जिनके ख्वाब होते हैं
रेल ट्रैक ही जिनके मकाम होते हैं
रात बीतती सड़क किनारे
दिन में मजदूरी के छाले
ऐसे बचपन कहाँ......

डा. नीलम

विषय- बचपन
दिनांक 14- 11- 2019

दो फूल खिले मेरे आँगन,
महकी उससे फुलवारी है।
महका मेरा घर आंगन ,
जब गूंजी किलकारी है।

फूल गुलाब से लगते है वो,
मेरी आँखों के दो तारे हैं ।
देख देख उनको इतराती,
वह मेरे जो राज दुलारे हैं।

बचपन उन संग में जीती,
रही ख्वाहिशें जो अधूरी है।
घोड़ा बन पीठ बिठाती,
कभी पकड़ा पकड़ी है।

गुल्ली डंडा खेल निराला,
मन को बहुत लुभाता है ।
चोर पुलिस जब खेलते,
मजा बहुत ही आता है।

बच्चों संग मैंने भी अब,
खूब बचपन को जिया है।
बाल दिवस के ही बहाने,
हर पल को याद किया है।

खो गई कुछ पल के लिए,
मैं बचपन की यादों में ।
चाहे कुछ भी हो जाए,
बचपन नहीं छीनना है।

लौट ना आएंगे यह पल,
उनको बचपन जीना है।
मेरे सपने जो रहे अधूरे ,
अब उन संग पूरे करने हैं।

वीणा वैष्णव
काकरोली
मौलिक

🌹भावों के मोती 🌹
विषय: बचपन 🌹🌹

तुम तो हो एक चाँद का टुकड़ा।
माँ मुझसे ये कहती थी ।
ले कर बलैया पकड़ के बैया झट्ट
गोदी धर लेती थी ।

सुनरे चंदा देख न ऐसे मेरा एक
खिलोना ये तू छुप जाये बादल में
तो बिटिया मेरी रोती है

तोड़कर तुझको लाने को वो बार -बार तब कहती है। और सितारों की माला बनबाने को कहती है ।

थाली में रख कर तारो को गिनती
की जिद्द करती है । थोड़ी रूठी
थोड़ी मटकी रहती है ।

स्वरचि

नीलम शर्मा #नीलू

दिन - गुरुवार
दिनाँक - 14/11/2019

विषय - बाल दिवस
विधा - बाल कविता/मुक्तक
=================

मम्मी मामा आये हैं I
कई खिलौने लाये हैं l
आम,पपीता,केला भी -
नानी ने भिजवाये हैं l

हमको फल कब भाते हैं I
चाट, समोसा खाते हैं l
पिज्जा, बर्गर, चाउमीन -
मामा से मँगवाते हैं l

भाई तेरा चालू है l
नाम रखाये लालू है l
कपड़े, टोपी काले हैं -
लगता जैसे भालू है l

लाओ मम्मी खाना अब I
पूड़ी - खीर पकाई कब l
भजिया मीठा खायेंगे -
मम्मी, मामा, पापा सब l

##स्वरचित, मौलिक
#सन्तोष कुमार प्रजापति 'माधव'
#कबरई
 जिला - महोबा (उ.प्र.)

दिनाँक-14/11/2019
शीर्षक-बचपन


पल में रूठे पल में राजी
बचपन था बड़ा मनमौजी
वतन की आज़ादी खातिर
बन जाते भारत के फौजी।

प्यार प्रेम से खेला करते
लेकर अपना गुल्ली डंडा
मिट्टी से बनाया करते
सपनों का एक घर घरौंदा।

बचपन में ना मोटर गाड़ी
साइकिल की सवारी थी
लोभ लालच कपट ईर्ष्या
मन में न कोई गद्दारी थी।

बचपन तो वो बचपन था
सच्ची मन से यारी थी
लाड लड़ाती माता अपनी
होती सबको प्यारी थी।

प्यारा सा मेरा बचपन
आज याद बहुत आता है
भागदौड़ की जिंदगी में
सपने बन के रह जाता है।
*******************
स्वरचित

अशोक कुमार ढोरिया


दिनाँक-15/11/2019
शीर्षक-बचपन


बचपन के वे दिन याद आते हैं
20 पैसे लेकर मेले में जाते थे
10 पैसे के खाकर दही बल्ले
सीटी बजाते पैदल घर आते थे।

बचपन के वे दिन याद आते हैं
जब लेकर थैला स्कूल जाते थे
सुंदर लेख तकती पर लिखते थे
जोर लगा गिनती पहाड़े बोलते थे।

बचपन के वे दिन याद आते हैं
लेकर पशु जंगल में चराने जाते थे
लाते पानी पिलाने पशु जोहड़ में
मस्ती से हम भी खूब नहाते थे ।

बचपन के वे दिन याद आते हैं
फागुन मस्ती में खेला करते थे
गलती में हम माफी मांगा करते थे
गुल्ली डंडा ओर आँख मिचौली
यारों संग खूब खेला करते थे ।
**************
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया


विषय ---बालमन
दिनांक--14.11.19
विधा --गीतिका

बच्चों का उल्लास अनोखा।
बच्चों का एहसास अनोखा।

बच्चे पग पग पर मुस्काते,
बच्चों का विश्वास अनोखा।

खेल रहे हों चुन्नू मुन्नू ,
बच्चों का परिहास अनोखा।

पढ़ने लिखने की उम्र में,
मजदूरी उपहास अनोखा ।

मेलजोल यदि खूब बढ़े तो,
खुशबू का आकाश अनोखा ।

*****स्वरचित********
प्रबोध मिश्र ' हितैषी '
बड़वानी(म.प्र.)451551


विषयः-बाल मन

कक्षा में हमारी अध्यापक जी एक दिन नहीं आये ।
अध्यापक जी नहीं आये तो,फिर कौन हमें पढ़ाये ।।

सभी सहपाठियों ने हमारे, धमाल बहुत ही मचाया ।
हुये स्वतंत्र सभी, हंगामा भी हमने कसकर बरपाया ।।

सुनकर हंगामा हमारा, हुये अघ्यापक सभी परेशान ।
भेजा एक अध्यापक उन्होंने, खींचने को हमारे कान ।।

लेकर छड़ी हाथ में, एक अध्यापक जी कक्षा में आये ।
निरख कर वक्र दृष्टि से हमको, मन्द मन्द मुस्काये ।।

पढा रहे थे बराबर की कक्षा में,अध्यापक होकर मगन ।
शोर से तुम्हारे,पड़ा सभी कक्षाओं की पढ़ाई में विघ्न ।।

उप प्रधानाघ्यपक जी ने, सुन शोर तुरन्त मुझे बुलाया

बुलाकर उन्होंने मुझको, कक्षा में तुम्हारी है पठाया ।।

भर कर क्रोध में, उप प्रधानाधयपक जी थे फरमाये ।
जाकर उस कक्षा में, बच्चों के शोर को बन्द करायें ।।

अध्यापक बोले, अक्सर मुझको हही विचार आता है ।
रखा गया है विदृयालय में,मुझको तुम्हारे ही लिये ।।

उठा कर छड़ी को हाथ में, लगे मेज़ पर फटकारने ।
भेजा गया है मुझे यहाँ, सबक तुम्हैं अच्छा सिखाने ।।

कहकर इतना उन्होंने, छड़ी को अपनी ऊपर ताना ।
था मकसद तो उनका अब, केवल हमको ही मारना ।।

तभी प्रघानाध्यापक जी, अचानक प्रकट होकर बोले ।
मुड़ के अध्यापक जी की ओर, मुख को अपना खोले।।

इस छड़ी कोअपनी बच्चों पर, हरगिज ही नहीं तानना ।
इन प्यारे प्यारे बच्चों को तुम, कभी भी नहीं मारना ।।

हैं बच्चे यह सभी, छोटे तथा अक्ल के भी अभी कच्चे ।
हैं परन्तु यह सब ही मन के, बहुत अच्छे तथा सच्चे ।।

हैं बच्चे अति कोमल, मारने से तुम्हारे जायेंगे मुरझा ।
मान जायेंगे बात तुम्हारी, दोगे अगरप्यार से समझा ।।

मुरझा जायगा व्यथित हृदय, इनका तुम्हारे मारने से ।
खिल जायेंगे परन्तु फूलों की भांति, केवल प्यार ही से ।।

डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
"व्थथित हृदय मुरादाबादी"
स्वरचित

बहुत याद आती हैं ,
वो बचपन की गलियाँ

वो सखियाँ सहेलियाँ
वो बचपन की गलियाँ
चोटियों में सजानी ,
महकी सफेद कलियाँ ।
नंगे पाँव घूमना ,
वो बचपन की गलियाँ ।

जब कभी याद आती
छलका जाती आँखें ।
पकड़ हाथ हाथों में ,
खूब घुमाते फ्रॉके ।
दिखती फिर वो ऐसे ,
ज्यों छतरी की कलियाँ ।

वो चाँदी रेतीली ,
तट किनारे विपाशा ।
रेत के घरौंदों में ,
बो लेते थे आशा ।
घरों में सजाते थे ,
सित मिश्री की डलियाँ ।

वहँगी से ले खाते ,
मूँगफली बहु ख़स्ता ।
टके में ही मुरुंडा ,
मिल जाता था सस्ता ।
बहुत याद आती हैं ,
मृदु इमली की फलियाँ ।

पाठशाला सरकारी ,
ना बस्ता था भारी ।
गाची पोती तख्ती ,
की घर से तैयारी ।
मेहँदी रचा कर के ,
दिखाती सभी तलियाँ ।

छुट्टी से पहले सब ,
बोलते मिल पहाड़े ।
शायद ही जंगल में ,
सिंह कोई दहाड़े ।
बहन जी को जगाते ,
जब बजती थी टलियाँ ।
बहुत याद आती हैं ,
वो बचपन की गलियाँ ।

स्वरचित :-
ऊषा सेठी
सिरसा

वर्ण माला

अ आ इ ई उ उ ऊ,
बच्चों देश के बनो सपूत।

ए ऐ ओ औ अँ अः,
देश के तुम हो बादशाह।

क ख ग घ ङ
राम का मंदिर बनेगा।

च छ ज झ ञ,
सभी यहां हैं भाई भाई न हिंदू न मियां।

ट ठ ड़ ढ ण,
चलो जलायें रावना।

त थ द ध न,
अब न बढाओ प्रदूषना।

प फ़ ब भ म,
बढ़ती जनसंख्या है बम।

य र ल व श ष स ह,
करो कुरीतियों का स्वाहा स्वाहा।

क्ष‌ त्र ज्ञ,
दहेज न लोगे करो प्रतिज्ञा।।

भावुक


भावों के मोती
14-11-2019
विषय-बचपन
******
आँसू छंद में प्रस्तुति
****************
( 14+14 मात्रा अंत गुरु)
" बचपन",
÷÷÷÷÷÷÷( गीतिका में)
🐥🐥🐥🐥🐥🐥🐥🐥🐥🐥
*************************
वो मस्त पवन सा मन था !
कितना सुन्दर बचपन था !!
*
चंचल भावों की,,,,,,, गंगा ,
सुरभित सा हृदय- चमन था !
*
भोले -भाले जीवन में ,
घट-जल सा अन्तर्मन था !
*
छल कपट नहीं रिश्तों में,
ना धर्मों का,,,,, बंधन था !
*
स्वच्छंद विहग सा ,,उड़ते,
सपनों का विशद गगन था !
*
वो लुका-छिपी खेलों की,
खेला जाना,, प्रतिक्षण था !
*
जब भी" कट्टी" हो जाती,
पल भर में मधुर मिलन था !
*
बढ़ गया,,, परायापन है ,
तब कितना अपनापन था !
*
अब सर पे चिंता-गठरी,
तब नन्हा सा,, जीवन था !
*
यादों में जब थीं परियाँ,
चहका-चहका मधुबन था,
तत्क्षण, बिटिया आई थी,
ये बचपन का ,,दर्पन था !!
*
*********************
🐹🐹🐹🐹🐹🐹🐹🐹
ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित (गाजियाबाद)


14-11-2019
विषय-बालमन
--------
जी चाहता है
========
छोड के,, अपना चोला
बनूँ ,,,,,,,,मस्त व मौला !
करूँ आज हल्ला गुल्ला
खेलें ,,,;खुल्लम खुल्ला !
*******************
जी चाहे बालक बन जाऊं
तर्क कुतर्क व जीवन भूलूँ
दौड़ लगाऊँ सड़कों पर
छत पर घूमूं ,पतंग उडाऊं ,,,
----------------------------'
नदी तीर व गाँव गली में,
अपने मन की बात करूँ
मस्त पवन सा होकर थोड़ा ,
घर के बाहर पांव धरूँ,,,
------------------------------
कितने वस्त्र लदें हैं मुझ पर
सुगढ़ , शराफत और सभ्यता
सबको आज उतार कर फेंकूँ
मैं नन्हा बच्चा बन जाऊँ,,,,
-----------------------------------
लेकर थोड़ा गुड़ का ढेला
सबको बाटूँ और खिलाऊँ
दे दे ताली सबसे मिलकर
चोर सिपाही खेल दिखाऊं,,,,,,,,
-----------------------------------
भूल किताबों की सब दुनिया ,
हल्की फुल्की बात करूँ
पूरा दिन जी भर कर खेलूँ
अपने मन का राज करूँ ,,,,

रचनाकार --
ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित)गाजियाबाद)

14/11//2019
शीर्षक - बचपन


अल्हड़ सा बचपन
महकता घर आंगन
मस्ती भरी शैतानियां
अपनों का साथ
दुलार और विश्वास
दिन भर खिलखिलाना
पढ़ने से जी चुराना
रूठना-मनाना
रात में निश्चिंत हो
खर्राटे भर सोना
संदली सी खुशबू लिए
आज भी सुवासित
कहीं ज़हन में
देते हैं ऊर्जा
याद कर
वो पल अलवेले
थिरक उठती
होंठों पर मुस्कान
स्मृति में सहेजे
वो पल निराले
यादों के उजाले ।

-- नीता अग्रवाल

#स्वरचित

भावों के मोती
दिनांक 14.11.2019
शीर्षक :बचपन

बच्चे
लगते हैं अच्छे
होते हैं सच्चे
ना चिंता ना गम
बहुत दम खम
नही हैं कम
खेलता बचपन
गाता मन
बारिश आयी
खुशियाँ लायी
किश्ती बनायी
पानी में चलायी
नाचे गायें
दिल बहलायें
दोस्ती निभायें
ना रंग,ना धर्म
करें केवल कर्म
प्यारा मकान
सुंदर जहान

-----हरीश सेठी 'झिलमिल '
(स्वरचित)

14/11/2019::वीरवार
विषय--बचपन

बचपन
"गुल्लक शरारतों की"
नादानी और मनमानियों की
नादानी
चाँद को अपनी मुट्ठी में पाने की
या बिना बात रूठ जाने की
अधिकार पर अधिकार जताने की
मनमानी
बारिश में नहाने की
या क्रिकेट में सिर्फ बैट चलाने की
ज़िद नई कहानी सुनाने की
अपनी बेईमानी को सच बनाने की
भरी होती अनगिनित सिक्कों से
गुल्लक शरारतों की..….

दादा दादी को सताने की
उनकी गोदी में सिर्फ
अपना हक़ पाने की
नानू को घोड़ा,
नानी को हाथी बनाने की
टी वी पर सिर्फ
अपने कार्टून चैनल चलाने की
सभी तकियों पर कब्ज़ा कर
उनपर सो जाने की
प्यार को भी प्यार से
मनवाने की
भरी होती है अनगिनित ख्वाब के नोटों से
गुल्लक शरारतों की
सहेज लें इस गुल्लक को
यादों के तालों में
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली

लावारिस बचपन
-------------
किसी बेलगाम मर्द का पाप,
किसी स्वछंद अबला का जाप।
एक लावारिश शिशु था, सड़क पर पड़ा।
लिपटा था तन पर, सफेद कपड़ा।
थोड़ा सा ढका, थोड़ा उघड़ा।
उसे देखकर, भीड़ जुटने लगी।
कानाफूसी आपस में करने लगी।
उसके बचपन पर बहस होने लगी।
किसी ने कहा, "यह अंधेर है।"
तमतमाया कोई, "कलयुगी फेर है।
लोग करने लगे अब खुलकर हराम।
आ गया है जमाना, हाय! कैसा यह राम!?
बोले पंडित जी, "शायद, हिंदू है यह?
कुमारी किसी का, नाज़ायज है यह?
ख़तना नहीं है, तुम इसको जलाओ।
पर देवी के चरणों में पहले लिटाओ।"
तभी फेरते हाथ, दाढ़ी पर,अपनी,
खुजलाते खोपड़ी- सिलपट्ट, चिकनी।
हुए नमूदार, एक मौलवी वहाँ ।
अभी ख़तने की इसकी उमर थी कहाँ?
मुखड़े पर इसके है, अल्लाह की शान।
कसम खुदा की, है यह मुसलमान।
सम्हाल कर जरा, इसे धीरे से उठाइये।
ले जाकर, कब्र में, इसको दफनाइये।"
तभी बात काटते, बीच में अधूरी,
बोले, निकल भीड़ से, फादर कसूरी-
"देखो तो जरा, यह, कितना मासूम है?
मरियम जैसे इसके नाखून हैं।
यह तो दया का,एन्जिल है भाई!
"आफ काॅर्स" यह डैफनिटली ईसाई।
इस को कौफीन में, लिटा आप दीजिये ।
प्रेयर इसके वास्ते , फिर आप कीजिए ।
इसी बात पर , झगड़े तीनों में बढ़े।
'राम',' 'खुदा', 'ईसा' के बंदे लड़े।
निकल आए भीड़ में से खंजर तभी।
हुआ खौफ़नाक सा, मंज़र तभी।
इधर ये आपस में झगड़ रहे थे।
उधर शिशु पर, कुत्ते झपट रहे थे।
मिनटों में चट्ट कर, किया साफ उसको।
राम,खुदा,ईसा ने दिया इंसाफ उसको।
वह शिशु, मुस्लिम, न, हिन्दू, ईसाई था।
वह राम,खुदा,गाॅड की, रचना अचाही था।
किसी कुत्ते के तुख्म से,ढला था उसका शरीर।
इसीलिए कुत्ते के पेट में, समाया उसका शरीर।।
अमरनाथ
दिनांक-14/11/2019
विषय- बचपन/बालमन/बालदिवस

हम नन्हें मुन्ने बच्चे हैं
माना अक़्ल के थोड़े कच्चे है।
खेलना -कूदना हमें बहुत लुभाता
मस्ती का यह जीवन आनंद देता ।
ना कोई चिंता ना कोई तनाव
हर लम्हा देता सुख की छाँव ।
पर्वों -मेलों में ख़ुशी मनाते
झूम-झूमकर नाचते -गाते ।
सूरज दादा संग चाँद सितारे
लगते हमको बहुत ही प्यारे
बिल्ली मौसी को दूध पिलाते
दौड़ दौड़कर उसके पीछे जाते ।
वन उपवन को देखकर हर्षाते
रंग -बिरंगे पुष्प देख ललचाते
तितली पकड़कर पल में उड़ाते
उसकी सुंदरता से अचंभित होते ।
निश्छलता से हमारा एकमात्र नाता
छल कपट करना तनिक ना आता
हर रिश्ते से हम करते हैं प्यार
उनका अपार स्नेह सहर्ष स्वीकार।
संकीर्णता की ना कोई दीवार
मन की आँखों सदा करते दीदार
धर्म -ज़ाति का ना बंधन माने
हर जन,बालक को मित्र माने
पल में रूठें पल में मन जाते
कटुता दिल में ना तनिक बसाते
काश तुम भी हम से बच्चे बन पाते
यह बचपन हमारा तभी समझ पाते

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
स्वरचित

दिनाँक 14/11/2019
शीर्षक-बचपन


बचपन में बचपना था
करते बड़ी अठखेली
दादा दादी साथ हमने
आँख मिचौली खेली।

कभी हम चश्मा छुपाते
कभी बैंत उनकी छुपाते
खिलखिला कर हँसते
जब वे हमें ढूँढने आते।

खाट के नीचे छुप जाते
और दादा को बहकाते
ले लो दादा चश्मा तेरा
कह फिर से छुप जाते।

टॉफी की जब बात करते
पास उनके हम आ जाते
लेकर मीठी टॉफी उनसे
उनके कंधे पर चढ़ जाते।

मीठे- मीठे भजन सुनाते
नैतिकता का पाठ पढ़ाते
दादा जी के उपदेश सुनके
हम चैन नींद की सो जाते।

बचपन की वो याद पुरानी
हमको हैं आज भी जबानी
बचपन लौटकर आता नहीं
बन गई हैं वे विगत कहानी।
*********************
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया

दिनांक:-14/11/2019
दिवस:- बुधवार(बाल दिवस)

विधा:- चौपाई छंद

*!!बचपन!!*

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
बचपन अब इठलाता घूमे।
चलती दुनियाँ में वो झूमे।।
मोबाइल से हेत लगा है।
गूगल उसका आज सगा है।

नहीं सुने अब प्यारी लोरी।
करे न माखन की अब चोरी।।
नहीं खेलता मीत संग में।
नेट बसा अब अंग अंग में।।

बचपन सुने न रात कहानी।
अब तो मोबाइल है नानी।।
बड़ा हुआ अब पीते-खाते।
संस्कार सब भूलते जाते।।

ये तो हुई महल की बातें।
सुनो झोंपडी की अब रातें।।
दीन हीन घर पैदा होकर।
खावे बचपन दर दर ठोकर।।

हृदय प्रेम का सागर भारी।
भरी मोती से चक्षु झारी।।
निश्छलता बसती है मन में।
फिर भी काँटे हैं जीवन में।।

हे! रब कैसी ये मजबूरी।
बचपन सुख से कितनी दूरी।।
उथल-पुथल मय जीवन सारा।
कहाँ भटकता बचपन प्यारा।।

भारत भाग्य कहाँ सोता है।
छिपकर के बचपन रोता है।
भूख पेट की बड़ी सयानी।
कर दे बचपन पानी-पानी।।

सुनो योजना संसद पन्ने।
बचपन हित होवो चौकन्ने।।
आँचल कंधा तुम भी जानो।
उस बचपन के दिल की मानो।।

कहे 'सुमा' दिल से ये बातें।
जाग न पाए बचपन रातें।
मानव हो मानवता धरना।
बचपन हित में कारज करना।।
🖋🖋🖋🖋🖋🖋🖋🖋🖋
रचनाकार
प्रजापति कैलाश 'सुमा'
मेहन्दीपुर बालाजी, दौसा, राजस्थान।
बचपन
एक था प्यारा सा बचपन

सोचते थे.... कब बड़े होंगे... कब ये ख़त्म होगी पढ़ाई... हम भी बस बड़े हो जाये... खूब रोब जमाएंगे..
सब कहते हैं... खूब पढ़ो..
भूल जाते हो जल्दी... कितना भी मार खाकर...
भूलने की आदत थी वो बचपन की..
फिर बस बचपन हुआ ख़त्म... बड़े हो गए जाने कब..
स्कूल बाले सबक पढ़ाई हुई ख़त्म..
लेकिन जिंदगी ने सीखना नहीं छोड़ा..
रोज जाने कहाँ से नये सबक लाती..
हमें इतना सिखाती... की हम हैरान..
वो स्कूल के सबक कितने अच्छे थे...
हम तो बच्चे ही अच्छे थे...
सब पल भर में भूल जाते...
अब बड़े हैं.. हर बात याद रहती है..
दिल दुखाती है.. जख्म भरते नहीं..
लोग कहते हैं.. भूलना सीखो..
कहो.. बचपन में क्यों याद रखना सिखाते थे
अब भूलना सिखाते हो..
दोस्तो बचपन ही अपना अच्छा था..
कितना सुन्दर और सदा था...
जब चाहे हस्ते रोते थे..
अब सोचना पड़ता है...
रोना हसना ये तो... भावनाये
छुपा के रखिये...
आप गंभीर हैं भाई नकली से मुखौटे पहनिए...
नकली हँसी और नकली दुनिया...
बचपन में सब पूछा करते बड़े होकर क्या बनोगे...
अरे कोई अब पूछे तो कह दूँ.. बच्चा बना दो फिर से...
जब वो कागज के हवाई जहाज से सारा आकाश नाप लेते थे
और कागज की कश्ती से नदियों पर राज था..
फिर बच्चा बना दो.. ना बस और कोई हसरत अब नहीं
पूजा नबीरा स्वरचित

चाचा नेहरु को समर्पित शब्द सुमन

"बाल दिवस है आया आज ,

संग लाया है खुशियाँ अपार,
बाल मेले का आनन्द लेते बच्चे आज,
नेहरु जयन्ती मना देते जो ,
श्रद्धांजलि जिन्हे हम,
गुलाब व बच्चो से था जिनको प्यार ,
मासूमियत को देते जो दुलार,
राष्ट्रनिर्माता,भविष्य की नींव का स्वप्न,
संजोया जिस महान् विभूति ने,
ऐसे चाचा नेहरु को समर्पित है,
शब्दसुमन सुनील के,
आओं बच्चो ले यह प्नण आज,
स्वस्थ, प्रसन्न ,सुखी हो जीवन हमारा ,
राष्ट्रभक्ति,राष्ट्रप्नेम,ध्येय हो जीवन का,
तभी सार्थकता होगी बाल दिवस की, और श्रद्धांजलि अर्पित चाचा नेहरु को,
इस प्यारे गुलाब की|,
जय भारत
स्वरचित-सुनील चाष्टा
दिनांक - 15/11/2019
विषय - बचपन/बालमन


हम छोटे-छोटे बच्चे हैं,
दिल के सारे सच्चे हैं,

मात-पिता का मानें कहना,
गुरुजनों को शीश नवाना,
बुजुर्गों की सेवा करें तो अच्छे हैं
हम छोटे-छोटे बच्चे हैं,
दिल के सारे सच्चे हैं,

हिंसा बेमानी से दूर रहना,
सच्चाई के पथ पर चलना,
नशाखोरी से दूर रहे तो अच्छे हैं
हम छोटे-छोटे बच्चे हैं,
दिल के सारे सच्चे हैं,

देश प्रेम का भाव भरे हम,
देश का ऊँचा नाम करें हम,
आदर्श नागरिक बन जिये तो अच्छे हैं
हम छोटे-छोटे बच्चे हैं,
दिल के सारे सच्चे हैं,

स्वरचित
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा सिरसा (हरियाणा)

दिनांक - 15/11/2019
विषय - बचपन/बालमन


बाल दिवस

चौदह नबम्बर को हम बाल दिवस मनाते हैं
छोटे-छोटे बच्चों के चेहरे खिल-खिल जाते हैं।

बच्चे हर्षित हो रहे हैं आज आया बाल दिवस
चाचा जवाहर लाल नेहरू जी का जन्मदिवस।

बच्चे रहे महफूज यहाँ वो सदैव उन्नति पाए
खुशियां मिले अपार, दुख-दर्द कभी न आए।

मन में लिए उल्लास खुश हैं आज सब बच्चे
भगवान के रूप होते प्यारे बच्चे मन के सच्चे।

जो मजा खेलने में आता और किसी में नहीं
पढ़ना-लिखना जीवन में कोई हँसी-खेल नहीं।

बाल दिवस का बच्चे करते रहते हैं इंतजार
मौज-मस्ती करते जैसे आया मौसम बहार।

चाचा नेहरू जी को बच्चों से था गहरा नाता
इसीलिए बच्चों को नेहरू जी का साथ भाता।

- सुमन अग्रवाल "सागरिका"
आगरा
स्वरचित

विधा: पिरामिड

१.
है
शिशु
पवित्र
प्रभु इत्र
सृष्टि सुचित्र
जीवन स्वतंत्र
यत्र तत्र सर्वत्र

२.
है
बाल
क्रीड़ाएं
सम्मोहन
स्व सम्बोधन
आनंद मोदन
निर्लेप संयोजन

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१५.११.२०१९

दिनांक - 15/11/2019
दिन - शुक्रवार

शीर्षक - बचपन

सारे घर में धूम मचाती
गुड़िया और गुड्डों को अपने
सारे घर में बिखराती
काश मैं बचपन में होती ।

दौड़ी आती खेलकर
मम्मी की गोद में सोती
कभी उछलकर प्यार से
पापा से लिपट जाती
काश मैं बचपन में होती।

प्यारी सी रंग बिरंगी
कपड़े में दीदी मुझे सजाती
जब भी जाती मैं बाहर को
मेरी ऊंगली पकड़ती
काश मैं बचपन में होती।

मेरे प्यारे भैया मुझको
अपने हाथों से खिलाते
काट देखी जो उनकी ऊंगली
फिर मेरी चुटिया हिलाते
प्यार से मुझको सभी मनाते
जब कभी मैं रूठ जाती
काश मैं बचपन में होती।

दीपमाला पाण्डेय
रायपुर छग
स्वरचित
बाल दिवस पर विशेष
15/11/2019
( 1 ) "सोचो"

सोचो गर ये वृक्ष न होते
हरियाली ये लाता कौन
शीतल -शीतल पवन के झोंके
तन ठंडक पहुंचाता कौन।

सोचो गर ये वृक्ष न होते
कंद-मूल ये लाता कौन
पेट मे चूहे कूद रहे जो
शांत उन्हें करवाता कौन।।

सोवो गर ये वृक्ष न होते
श्वास हमें दिलवाता कौन
सदा सिलेंडर लिए ऑक्सीजन
उसका बोझ उठाता कौन।।

सोचो गर ये वृक्ष न होते
वन,उपवन कहलाता कौन
पशु-पक्षी के जीवन के रक्षक
ठाँव उन्हें दिलवाता कौन।।

चुन्नू-मुन्नू,शोनी-मोनी
सुलझाओ ये अजब पहेली
सोचो गर ये वृक्ष न होते
हरियाली ये लाता कौन।।

***********************
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित
पंचकूला,हरियाणा।



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