Tuesday, November 26

"कुर्सी"26नवम्बर 2019

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ब्लॉग संख्या :-577
विषय : कुर्सी
विधा: पद (ग़ज़ल)


कुर्सी

ये कितनी झूठ बुलाती है ।
सब की आँखें खुलवाती है।।

दुश्मन मजदूर, किसानों की ।
बिन खाए रोज सुलाती है ।।

मतलब की बात करो केवल।
बस बात यही बतलाती है ।।

जब गर्ज गधे को बाप कहो ।
यह खोल इसे समझाती है ।।

केवल सत्ता हथियाने को ।
नित दाव नये सिखलाती है।।

काबू गर कोई ना आए ।
धोखे का पाठ पढ़ाती है ।।

पढ़ने-लिखने का काम नहीं।
अनपढ़ रुजगार दिलाती है।।

बहला-फुसलाकर पल में ये।
वादों की झड़ी लगाती है ।।

न नफे कोई प्यारा इसको ।
रिश्तों को रोज जलाती है ।।

नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक
विषय कुर्सी
विधा काव्य

26 नवम्बर 2019,मंगलवार

दृढ़ संकल्पित हो हिय से
खून पसीना सदा बहाता।
शिक्षा ही लक्ष्य हो जिसका
उच्च कुर्सी जीवन में पाता।

लोकतंत्र में कुर्सी देवी
हर नेता पाने को उत्सुक ।
साम दाम दंड अपनाता
होती कुर्सी सबसे अद्भुत।

लोकतंत्र ही अंक गणित है
सब अंको पर बने बिसात।
पंच सितारा स्वागत होता
चलती रहती शे और मात।

जग इतिहास बड़ा साक्षी
कुर्सी पर कुर्बान हैं सारे।
बस कुर्सी ही एक लक्ष्य है
सब बन जाते हैं बेचारे।

कुर्सी माता कुर्सी बहिना
कुर्सी ताई कुर्सी भाई।
कुर्सी से न कोई बड़ा है
कुर्सी पर न्यौछावर साँई।

स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

कुर्सी

सबको सबसे प्यारी कुर्सी।
सब रत्नों से न्यारी कुर्सी।

नख से शिख तक रमी हुई।
नेता जी की बीमारी कुर्सी।

घड़ियाली आंसू का सावन।
लाज शर्म सब हारी कुर्सी।

चीत्कार जनमानस करता।
ये सुने नहीं बदकारी कुर्सी।

झूठे दर्प आत्मउत्कण्ठाएँ।
है नशा और खुमारी कुर्सी।

हरेक वादा एक झूठा दावा।
है शोषण की तैयारी कुर्सी।

नफरत की खेती करती है।
विष बेल की क्यारी कुर्सी।

हिस्स हिस्स सबका हिस्सा।
कर फुफकार डकारी कुर्सी।

स्वरचित विपिन सोहल

प्रथम प्रस्तुति

कुर्सी जलवे रही बिखेर
बड़े सियासती हो रहे ढेर ।।
कहीं है चाचा कहीं भतीजा
कुर्सी ओर बढ़ रहे पैर ।।

कुर्सी खड़ी खड़ी मुस्काय
अपनी कीर्ति पर इतराय ।।
सियासतदानों का हुजूम
चोर सिपाही खेल दिखाय ।।

वाह री कुर्सी तेरा रंग
करे अच्छे अच्छों को तंग ।।
तेरी खातिर कौन छोड़ देय
कब किसका यहाँ पर संग ।।

कुर्सी 'शिवम' मात्र लक्ष्य है
पाने में इसे कौन दक्ष है ।।
संविधान भी सुबक रहा अब
हम में कोई खोट प्रत्यक्ष है ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 26/11/2019

विषय-कुर्सी

कुर्सी की दौड़ लगी है।
सबको.. आस जगी है।
किसकी होती जीत है-
जनता किसकी सगी है।

दौड़ रहे हैं होकर अंधे।
है जिनके...गोरख धंधे।
पता नहीं है जिनको ये-
हो गए..उनके चर्चे मंदे।

राह में काँटे पड़े हुए हैं।
लाइन में सब खड़े हुए हैं।
मंजिल दूर बहुत है देखो-
जीत पाने को अड़े हुए हैं।

स्वरचित कुसुम त्रिवेदी दाहोद

विषय -कुर्सी
दिनांक 26- 11- 2019
कुर्सी पर बैठ वो,देखो धरती से नाता तोड़ दिया।
माँ की गोद से उसने, इस तरह मुँह मोड़ लिया ।।

जमीनी हकीकत से,अब अनजान वो हो गया ।
आज मैं खोया ऐसा,कल को उसने भूला दिया।।

इन्ही हरकतों की वजह, वह हवा में झूल गया ।
धोबी कुत्ता न घर घाट,कहावत यर्थात कर गया।

कुर्सी चक्कर में,अब चाटुकार वो बन गया ।
पैसों के चक्कर में,अपनों बीच पराया हो गया।।

कुर्सी जैसे ही छुटी हाथ से,होश में अब आ गया।
परिवार संग जीने का,आनंद वो अब पा गया।।

वीणा वैष्णव
कांकरोली

आज का विषय, कुर्सी
दिन, मंगलवार

दिनांक, 2 6,11,2019,
गजल, काफिया 'आ ' रदीफ 'रहे हैं '

दिवाने हम तो हुए जा रहे हैं,
ईमान भी हँस के लुटा रहे हैं।

छोड़ के हम अपने दोस्त सारे,
दुश्मन को भी गले लगा रहे हैं।

नजदीक आपके आने के लिए ,
पैंतरे कितने आजमा रहे हैं।

दूर और भी होते जा रहे हो,
पास में हम जितना बुला रहे हैं।

बेरुखी इतनी नहीं ठीक कुर्सी,
खुदा हम तो तुम्हें बना रहे हैं।

स्वरचित, मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश

दिनांक26/11/2019
विषय-कुर्सी


कुर्सी के नीचे दबी हुई है एक चिंगारी ।
मौन ओढे सभी है हो रही है एक तैयारी।।

चिंगारी का खेल बहुत बुरा होता है
दूसरों के घर जलाने का सपना
अपने ही घर में यथार्थ होता है

आश्वस्त होकर उतरेगें
कुर्सी के इस द्वंद में
घेर न पाएंगे मुझे विपक्षी
पायो के इस छल-छंद मे।।
कभी टूटेंगे कुर्सी के तटबंध
प्रबंध तंत्र हो जाएगा खंड खंड।।
रुठेंगे सत्ता के मस्त मलंग
उड़ जाएंगे सियासत के रंग।।
कुर्सी के लिये है अनेकों जंग
सत्ता उड़ावे बिन डोर पतंग।।
मांगूंगा ईश्वर से ऐसी कविता
कुर्सी हो जाय विवेकानंद।।

पहले देखूंगा विजय स्तंभ
उस असहाय की जीत के लिए
जिसके लिए दिवास्वप्न बन गई
कुर्सी के विविध अंतरंग।
उसके निश्चल मन का अंतर्द्वंद
कुर्सी के क्रूर थपेड़ों ने दम तोड़ा
कुर्सी है कपट व्यवस्था का
निरुपाय दंभ ............
कब बनेगा ए काले सूरज
कुर्सी के सपनों का सुखद मकरंद....

स्वरचित...

सत्य प्रकाश सिंह केसर विद्यापीठ इंटर कॉलेज प्रयागराज

विषय-कुर्सी
विधा-दोहे

दिनांकः 26/11/2019
मंगलवार
आज के विषय पर मेरी रचना प्रस्तुति:

कुर्सी की है बात अब,मची हुई है जंग ।
छीना झपटी हो रही,अब तो जनता दंग।

अच्छा मौका देख सब,बदल रहे है रंग ।
कहीं उचित अनुचित नहीं,ऐसे इनके ढंग ।।

चाहे जो करना पडे,बन जाये सरकार ।
बदल रहे है दल सभी,पा जायें अधिकार ।।

भाव संहिता छोड़ दी,छोडे मूल विचार ।
राजनीति ऐसी हुई,कैसे हुये विकार ।।

पद पैसा सब कुछ हुआ,बाकी बचा न शेष ।
सभी एक से हो गये ,बचता नहीं विषेश ।।

हम सब तमाश बीन हैं,देख रहे हैं मौन ।
चिंता समाज देश की,अब समझायें कौन ।।

स्वरचित
डॉ एन एल शर्मा जयपुर 'निर्भय

दिनांक - 26/11/2019
दिन - मंगलवार

विषय - कुर्सी

कुर्सी की दौड़ है पैसे की पकड़ है
राजनीति की चाल है फैला अत्याचार है
कहीं है दंगा और कहीं फसाद है
हर जगह बस कुर्सी से प्यार है ।

घरों में मुखिया राज चाहे है छोटा
पद के लिए एक दूसरे का डूबाये हैं लोटा
एक दूसरे को नीचा दिखाते सरे बाजार है
हर जगह बस कुर्सी से प्यार है ।

राजनीति में लोग क्या क्या पैतरे अपनाते हैं
साम दाम दंड भेद से कुर्सी पा जाते हैं
मिल जाये पद तो जनता भी बेकार हैं
हर जगह बस कुर्सी से प्यार है। 

दीपमाला पाण्डेय
रायपुर छग
स्वरचित

शीर्षक- कुर्सी
गली-गली घर-घर जाकर,

हाथ जोड़कर मांगते वोट।
कुर्सी के लिए उड़ाते
दो-दो हजार के करारे नोट।।
आश्वासन के जाम पीला कर
करते सबको अपने बश में।
नेताजी से महान कौन
इस सारे ही जगत में।।
चीकनी-चुपड़ि बातें करके
हृदय सबका है लुभाते।
अमीर-गरीब,पढ़े-अनपढ़
सभी चक्कर में पड़ जाते।।
आम लोगों को लूट लूट कर
नेताजी बन गए हैं सेठ।
बेबश लाचार जनता बेचारी
आश्वासन से ‌ही भरे पेट।।
सर से पांव तक गहनों से
लद गई नेताजी की धर्मपत्नी।
बंगला- गाड़ी,नौकर-चाकर
हो गई खुशनुमा जिंदगी।।
किसकी मजाल है जो खोलें
नेताजी की छुपी हुई पोल।
बिच बाजार में पीटना दे
उसके नाम के मिथ्या ढ़ोल।।
जाति-धर्म, मजहब के नाम पे
लोगों को खूब लड़वाते।
उनकी लाश पर बैठ कर बस
सियासी खिचड़ी पकाते।।
नेताजी कर्णधार इस देश के
हम दुखियों के भगवान।
नेताजी को मक्खन मारो
खुद भी खाओ पकवान।।
नेताजी के नीत करो भजन
खूब लगा कर मन-प्राण।
जो मांगोगे वहीं मिलेगा
पूर्ण होंगे तेरे सब काम।।
स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर


तिथि _26/11/2019/मंगलवार
विषय _*कुर्सी*

विधा॒॒॒ _काव्य
.
अब सत्तासीन हमें होना है,
चाहे सभी जमीर लुट जाऐ।
विशेष आरजू कुर्सी पाना,
हम अभी चाटुकार बन जाऐं।

नहीं किसी का अपना कोई।
न साला न अपना बहनोई।
चाचा भतीजा कुर्सी चाहें
ये बातें समझें साफगोई।

हाय हाय री कुर्सी मैया।
तेरे कारण मचा धमैया।
सेवक जनता के हम सबही,
जपन लगे जय कुर्सी मैया।

जय जय जय हे जीवनदाई।
तू ही है बस एक ही माई।
नींद हमारी उडी हुई है,
इस कुर्सी से हुई सगाई।

नाक कटे तो कटे भले ही।
ढपली अपनी बजे भले ही।
हमें सिर्फ हमसे ही मतलब,
फांसी अब तो लगे भले ही।

स्वरचितःः
इंजी शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना मध्य प्रदेश

आज का प्रदत्त शब्द👉 कुर्सी
तिथि👉 २६/११/२०१९
िवस👉 मंगलबार
विषय 👉कुर्सी
👉👉👉👉👉
मेरी हर आस कुर्सी में,
कुर्सी मुझमें मैं कुर्सी में,
मैं कुर्सी का भगत
कुर्सी मेरा जीवन,
कुर्सी मेरी सर्वत्र,
कुर्सी के लिए मैं पहाड़ से छलाँग लगादूं ,
नदी तालाब में छलाँग लगादूं ,
चाहे आत्म सम्मान की फांसी लगानी पेड़,
साम,दाम,दंड ,भेद जो भी करना पड़े,
मैं सबकुछ करने को तैयार हूँ,
मुझे कुर्सी मिलनी चाहिए,
कुर्सी मिल गई तो तीन लोक चौदह भुवन का राज पाट मिल जायेगा.
जो वरदान ब्रह्मा ने नही दिया है,
वो कुर्सी मिलते ही सबकुछ मिलजायेगा,
कुर्सी मिलते ही कल्पतरू, कामधेनु शर्म से आपना मुह छुपालेंगे,
मुझे सिर्फ कुर्सी मिलनी चाहिए,
कुर्सी से सात पुश्तों के लिए सुख ऐश्वर्य संपदा मिल जायेगी,
मैं कुर्सी के विना जिन्दा नही रहसकता हूँ,
जैसे ईश्वर पवन में छुपे रहते हैं,
वैसेही कुर्सी के अंदर मेरे प्राण छुपे है,
मैं कुर्सी में हूँ तो जिन्दा हूँ,
कुर्सी छूटी तो मैं मुर्दा,
कुर्सी मेरी परम सत्य, परम धरम ,
परम ज्ञान, परम ब्रह्म,
परम जप ,परम तप,
मेरे लिए सबकुछ कुर्सी है,
कुर्सी है तो मैं हूँ
कुर्सी नही तो मैं नही,
कुर्सी के लिए मैं घर परिवार पत्नी,बच्चे,सकें संबंधियों को दांवपर लगा दूं,
जैसे भी हो मुझे कुर्सी चाहिए ।
गौरीशंकर बशिष्ठ निर्भीक नैनीताल उत्तराखण्ड
मोलिक प्रमाणित

शीर्षक --कुर्सी
दिनांक--26.11.19

विधा -मुक्तक

1.
कुर्सी मेंजब चुन गए, जन से अब क्या काम ।
ठाट बाट में लिप्त हो, चाहे मरे अवाम ।।
चाहे मरे अवाम, करेंगे मातम पुर्सी।
देंगे लख दो लाख, बचाने अपने कुर्सी ।।
2.
कुर्सी में है क्या रखा, खेत भरे आनन्द।
भूख मिटाती धरा, कुर्सी में छलछन्द।
मोह बढ़ाती कुर्सियां, छोड़ न पाते संत---
बूढ़े खूशट शिथिल तन, मचा रहे हैं द्वंद।

******स्वरचित*******
प्रबोध मिश्र 'हितैषी '
बड़वानी(म.प्र.)451551

26/11/2019
"कुर्सी"

1
कुर्सी चाहत..
खोया इंसानियत
सत्य आहत
2
नेता के हाथों..
हो रही सौदेबाजी
लालसा कुर्सी
3
सोने की कुर्सी
"रावण" सा साम्राज्य..
अहं का ताज
4
मेज के नीचे
रिश्वत लेन-देन
साक्ष्य है कुर्सी
5
ईमान कुर्सी
बेचारी सी ठिठकी..
खाली ही रही

स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।
26 /11 /2019
बिषय,, कुर्सी,,

कुर्सी की महिमा अपरम्पार
कुर्सी का बहुत बड़ा आकार
कुर्सी में हैं बड़े बड़े गुन
नेताओं में कुर्सी की धुन
कुर्सी ही पद कुर्सी ही पूजा
कुर्सी सा समान न कोई दूजा
कुर्सी करवाती रंक से राजा
कुर्सी बजवाती सबका बाजा
कुर्सी मिलती रातों रात
अपनों से ही करते घात
कुर्सी में हैं बड़े बड़े दम
.न जाने कब फट जाए बम
कुर्सी से करते सब प्यार
रातों रात बनाती स्टार
स्वरचित,, सुषमा ब्यौहार

26/11/2019::मंगलवार
विषय - कुर्सी

विधा-- मनहरण घनाक्षरी

जनतंत्र, प्रजातंत्र
बन गया जैसे यंत्र
मज़ाक है गणतंत्र
कोई न यहाँ खरा

विधायकी हल्लाबोल
लग रहा फटा ढोल
किसकी खुलेगी पोल
सभी रहे घबरा

होटल बनी है जेल
बन्द सभी ठेल ठेल
शपथ ग्रहण खेल
अभ्यास रहे करा

कुर्सी ही है अरमान
लागू हुआ प्रावधान
लाचार सा संविधान
लगता डरा डरा
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली

II कुर्सी II नमन भावों के मोती....

हे कुर्सी तू बहुत ही प्यारी है...

तेरी लीला बहुत न्यारी है....
तेरे जन्म पे मैं बलिहारी है...
हे कुर्सी तू बहुत ही प्यारी है...

अपना तेरा कोई धर्म नहीं...
फिर भी दंगे हो जाए हैं...
पल में दोस्त दुश्मन बनें...
दुश्मन दोस्त हो जाए है...
तेरी लीला बहुत न्यारी है....
हे कुर्सी तू बहुत ही प्यारी है...

अनपढ़ हो या हो विद्वान्...
तू सबको ही आसन देती है...
तेरे मोह से वो भी न बच पाए...
जो ठेका नैतिकता का लेते हैं...
तेरी लीला बहुत न्यारी है....
हे कुर्सी तू बहुत ही प्यारी है...

समय के साथ है तू भी बदली...
नाटी, लंबी, मोटी कभी पतली...
हो कैसी भी तुम दिखती पर...
लगती फिर भी प्यारी है...
तेरी लीला बहुत न्यारी है....
हे कुर्सी तू बहुत ही प्यारी है...

कभी सजाया शिक्षक ने तो...
कभी चोरों का मान बढ़ा...
कभी नारियल से पूजा तुमको...
कभी संसद में उछाल दिया...
तेरी लीला बहुत न्यारी है....
हे कुर्सी तू बहुत ही प्यारी है...

समय समय के देव विराजे...
मनुष्य, राक्षस गण भी साजे...
लालच तुझ को पाने को...
हर युग गए हथकंडे साधे...
तेरी लीला बहुत न्यारी है....
हे कुर्सी तू बहुत ही प्यारी है...

तुझको सब अपनाना चाहें...
नेता वसीयत में पाना चाहें...
जो था कभी साइकिल सवार..
उसको दिलाती तू 'फरारी' है...
तेरी लीला बहुत न्यारी है....
हे कुर्सी तू बहुत ही प्यारी है...

जिसको तेरा ही मोह रहेगा...
प्रजा से उसका विछोह रहेगा...
बैठे कोई नैतिक धनवान...
फिर होगा सबका कल्याण....
हे कुर्सी तू बहुत ही प्यारी है...
तेरी लीला बहुत न्यारी है....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२६.११.२०१९

कुर्सी
🌺🌺
ुर्सी!
सत्ता!
दोनों एक हीं हैं।
जो इसमें बैठ गया।
वह इसे छोड़ना हीं नहीं चाहता।

कुर्सी एक नशा है।
जो कभी नहीं उतरता
एक बार जो चढ़ गया।
वो वहां से कभी नहीं उतरता।

कुर्सी में इज्जत है।
कुर्सी में पैसा है।
सबकुछ है कुर्सी।
कुर्सी बगैर यहां कुछ नहीं है।

चिपके हुए हैं,
सब कुर्सी में ऐसे।
मधुमक्खी छत्ते से,
चिपकता है जैसे।
कुर्सी नहीं छोड़ेंगे,
चाहे कुछ भी हो जाए।
जान भी चाहे,
भले हीं चली जाए।

वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
स्वरचित

विषय कुर्सी
विधा कविता

दिनाँक मंगलवार
दिन 26.11.2019

कुर्सी
💘💘💘

कुर्सी सदा से ही रही एक आकर्षण बिन्दु
इसके लिये करते रहे लोग पार सिन्धु
कुर्सी ने सदा ही मचायी ख़लबली
धराशायी होते रहे हर युग में सैकडो़ बली।

कुर्सी के मामले में सिद्धान्त हो जाते हवा
कुर्सी चाहने वालों की कुर्सी ही केवल दवा
कुर्सी में बात आती केवल एक ही विशेष
वही पातें हैं इसे जो भी पड़ते हैं सवा।

कुर्सी की बस एक गणित है जोड़ तोड़
जो नहीं माने कान उसके दो मरोड़
कान मरोड़ने की हैं विधा भी भिन्न भिन्न
कल था जो प्रबल विरोधी आज है एकदम अभिन्न।

मंच की हर कील को साधना भी है ज़रुरी
किसी तरह भी बाँधना चाहे हो आपस में दूरी
कुर्सी टिकेगी आराम से हिला नहीं सकता कोई
मज़बूरी की कालीन हो और हो बिछी पूरी कि पूरी।

स्वरचित
सुमित्रा नन्दन पन्त
Damyanti Damyanti

विषय_ कुर्सी |
अरे ये शब्द ढा़ई अक्षर |
जंजालो से परिपूर्ण |

जिसने चख लिया स्वाद इसका
फिर न उससे छोडी न जाय |
ये कुर्सी खेल खिलाती अनेक |
शंतरज की बिसात मे अपने न मारे |
कुर्सी की बिसात मे बेटा बाप को मारे |
शोषण करे जनता जुल्म ढाये अनेक |
जानते सब अंत बुराइसका |
पर कोई न माने |
भर घर तिजोरिया चाहे फिर इज्जत जाये |
वारे कुर्सी तेरे रंग ढ़ग पर बलिहारी|
जय हो माते मत फंसाना चंगुल मे |
स्वरचित_ दमयंती मिश्रा
26/11/2019
शीर्षक - कुर्सी


एक अध्यापक का बेटा
था बेहाल,
परीक्षा में कर सका
न कुछ धमाल,
मेहनत की थी नहीं
जो रंग लाएगी,
लिखा नहीं कुछ खास
कि अव्वल आएगी,
अध्यापक बोले
न हो परेशान,
अपनी प्रतिष्ठा का
है मुझे ध्यान,
तेरी मेरी गरिमा पर
आँच नहीं आएगी,
आखिर मेरी कुर्सी
किस दिन काम आएगी ।

-- नीता अग्रवाल
( स्वरचित )

दिनांक २६/११/२०१९
शीर्षक_"कुर्सी"


मेरे सामने एक खाली कुर्सी है पड़ी
उसे देख मन में जिज्ञासा उठी
जहां है कुर्सी पर इतना हंगामा
इस कुर्सी ने किसी का क्या बिगाड़ा?

तभी दिमाग में एक ख्याल आया
ये हैं आरामकुर्सी,
सत्ता के गलियारों से दूर,
आराम से है आरामकुर्सी।

हर तरह के हथकंडे अपनाने के बाद
जब आती है हाथ सत्ता की कुर्सी
तब तलब होती है आराम कुर्सी की
जहां दो पल शांति से गुजार सकें।

स्व को"स्व" से मिला सके
कुर्सी के खेल में नैतिकता को जो भूल चुके
फिर से उसे अपना सके।

कुर्सी पर बैठ गये तो रखें इसका मान
जन कल्याण की बातें करें तभी ये साकार
जन जन को फायदा हो
तो कुर्सी दे सदा आपका साथ।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

विषय :- "कुर्सी"
दिनांक :- 26/11/2019.

विधा :- "गज़ल कहने की कोशिश"

अब आसमाँ पर छा गई है कुर्सियाँ।
हुक्मराँ को भी ये भा गई हैं कुर्सियाँ।

झौंपड़े कुछ, थे खड़े उस मोड़ पर,
उन सभी को, खा गई है कुर्सियाँ।

है 'आदमी' अब, 'आदमी' के सामने,
कुछ 'नया', सिखला गई है कुर्सियाँ।

गांव की चौपाल, अब, सूनी पड़ीं हैं,
रागे - नफ़रत गा गईं हैं कुर्सियाँ।

साथ रहने की कसम, फीकी पड़ी,
आबो - उसूल, खा गई हैं कुर्सियाँ।

किस किनारे पर "तरुण" रखे कदम
जब हर किनारा, ढा गई हैं कुर्सियाँ

दिन :- मंगलवार
दिनांक :- 26/11/2019

शीर्षक :- कुर्सी

मौन पड़ी सिसक रही..
आहाते की वो कुर्सी..
देखती रही सब...
झेलती रही..
दंश घर के बंटवारे का..
असहाय खड़ी वृद्धा सी..
तकती रही एक-एक छण वो..
लगाकर एक आस..
कब कोई बोल पड़े..
और रूक जाए बंटवारा वो..
सबकुछ बंट गया...
घर सामान..
व अन्य संपत्ति तक..
खुद सोच रही..
मैं किसकी संपत्ति रही..
जिसे मैने अपनी संपत्ति माना..
वही अब भूल गए बंटवारे में..
कोई कहता मैं नहीं रखूँगा..
तो कोई कहता कबाड़ में बेच दो..
काश!थोड़ा तो एहसास किया होता..
उस शख्सियत का..
जिसने इस कुर्सी पर बैठकर..
घर के सभी अच्छे बुरे निर्णय लिए..
खून पसीना एक किया कभी..
इस घर को मंदिर बनाने में...
दे रहे आज बलि उन सिद्धांतों की..
जो अब तक बांधे रखे एक बंधन में..
खैर जिनसे इनका रक्त बंधन था..
जब वही अपने नहीं लगते..
तो मैं!तो काठ की कुर्सी हूँ..
मेरा क्या जाएगा..
बिक जाऊँगी कहीं..
जल जाऊँगी किसी चूल्हे में..
बस यही नियति है मेरी..
मैं कौन होती हूँ..
कहीं कुछ हस्तक्षेप करूँ..
खैर!जैसा ये लोग उचित समझे..

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश

आज का विषय कुर्सी
बाप बड़ा न भइया सबसे बड़ी है कुर्सी।

करते हैं सलाम इसे झुक झुक के फर्शी।।

मदिरा,कनक से इतना नशा नहीं चढ़ता।
जितना मनुष्य को कुर्सी पाने का होता।।

कुर्सी के भाई -भाई से भी है लड़ जाता।
कुर्सी वास्ते भाई बहन को नहीं बख़्शता।।

कुर्सी के लिये ही दोस्त दोस्त नहीं रहता।
इसके लिये भतीजा चाचा से भिड़ जाता।।

डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
"व्यथित हृदय मुरादाबादी"
स्वरचित

विषय : कुर्सी
दिनांक 26/11/2019


कुर्सी आरती
ओम जय कुर्सी रानी, प्यारी जय कुर्सी रानी।
हर कोई तुमको चाहता,सारी दुनिया दीवानी।।

सिंहासन है नाम तुम्हारा,अति सौभाग्यशाली।
चौपाया गोल चौकोर,कुर्सी स्तम्भ बलशाली।।
लकड़ी,लोहे,प्लास्टिक,सुंदर स्टील देह वाली।
अंक विराजे नर नारी जो,महिमा शक्तिशाली।।

ओम जय कुर्सी रानी, प्यारी जय कुर्सी रानी।
हर कोई तुमको चाहता,सारी दुनिया दीवानी।।

रिखब चन्द राँका ' कल्पेश'
स्वरचित
जयपुर राजस्थान
कुर्सी (व्यंग्य कविता)

हाँ भाईसाब
मैं कुरसी बेचता हूँ
ये चार ही बची हैं
एक , एक पैर की
ये दो , तीन
और ये चार पैर की
भाईसाब
एक पैर वाली
मंहगी है सबसे

मामला किस्सा
कुरसी का है
एक पैर के साथ
तीन उठाने वाले
मजबूत कंधे वाले
एक कमजोर तो
हुए धडाम से

गठबंधन है भाईसाब
आप तो समझदार हैं
कुरसी मजबूती की
कोई गारंटी नहीँ
किस्मत आपकी
जितनी चले
पर दाम कम नहीँ
एक पैसा भी नहीँ
तीन लोगों का
दाम भी लूंगा
खैर भाईसाब
देख लो
जो फिर
आपकी पसंद
मुझे चारों
बैचना है
जरूरत आपकी
दाम मेरे

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव
सादर नमन
शीर्षक- कुर्सी
नारों की यहाँ भरमार है,

कुछ खोखले कुछ असरदार है,
नजारा यहाँ कुर्सी के प्यार का,
देंखें कौन यहाँ हकदार है,
**
कुर्सी पाना चाहें सब,
इसमें दिखता इनकों रब,
दल बदलते इसकी खातिर,
करते देखो कैसे करतब,
**
कुर्सी पाने की होड़ में,
नेताओं की इस दौड़ में,
वादे पिछे छुटे सारे,
राजनितिक भागदौड़ में
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स्वरचित - रेखा रविदत्त
26/11/19
मंगलवार
विषय - कुर्सी
विधा - " हाइकू '

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1/कुर्सी का मोह ,,,
धृतराष्ट्र की सोच,,,
राष्ट्र पतन,,,।
2/ राजनीति में,,,
महत्व है,,कुर्सी का
नीति का नहीं ,,,।
3/ दुखी समाज ,,,,,
स्वार्थी हो गए नेता ,,
कुर्सी का खेल ,,,,।
4/ नीति विहीन,,,
कुर्सी की राजनीति ,,
बेहाल लोग ,,,,।
5/बेगाने लोग ,,,,,,
अपने बन जाते ।
कुर्सी जो मिली ,,,,।
स्वरचित - " विमल '

26.11.2019
मंगलवार

विषय- “ कुर्सी “
विधा - ग़ज़ल

कुर्सी

कुर्सी का क़िस्सा ,किसलिए
मेरा भी हिस्सा ,किसलिए।।

यह देश प्रेम अब कैसा है
हर किसी को ग़ुस्सा किसलिए।।

धृतराष्ट्र सभी बन बैठे हैं
बेटों का हिस्सा,किसलिए।।

जब तक न मिले ,कुर्सी मुझको
लड़ने में हिस्सा किसलिए।।

सब,साम-दाम और दण्ड -भेद
नीति का हिस्सा,किसलिए

कोई मान, न कोई मर्यादा
कुछ बचा न क़िस्सा,
किसलिए ।।

मुझको ‘ उदार’ तुम दिखलाओ
मेरा भी हिस्सा,किसलिए ।।

स्वरचित
डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘ उदार ‘

दिनांक-26/11/2019
विषय- कुर्सी


मैं कुर्सी हूँ हाँ,कुर्सी
चार पैर हैं मेरे
मुझे पाने को
कभी हथियाने को
हर शख़्स मचलता है ।
कोई बल से
कोई छल से
कोई धन से
कोई योग्यता से
मुझे पाना चाहता है ।
मेरे क़िस्से बड़े अजीब
कोई मेरी शोभा बढ़ाता
कोई मेरा मान घटाता
कोई इतिहास लिख जाता
कोई मुझे बदनाम कर देता ।
मेरे प्रिय स्थल अनगिनत
विद्यालय ,महाविद्यालय,
सत्ता का गलियारा.चौपाल
चाय की छोटी दुकान
ढाबा,होटल,पब बार
जहाँ देखो वहाँ हूँ मैं ।
इनसान और कुर्सी का
बड़ा घनिष्ठ संबंध है
माना उपभोग का सामान हूँ
पर गरिमा का सम्मान हूँ
अपना धर्म मैं ख़ूब निभाती
इनसान का बुद्धि भेद
अपने रंग -ढंग से
नई नई पहचान बनाता
मैं मौन निर्जीव कुर्सी
सदा चुपचाप रहती
इतिहास के पन्नों में
निज अस्तित्व पाती ।

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
स्वरचित


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