Monday, November 11

"वास्तविक/यथार्थ"09नवम्बर 2019

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ब्लॉग संख्या :-561
विषय यथार्थ,वास्तविक
विधा काव्य

09 नवम्बर 2019,शनिवार

वास्तविकता से दूर खड़े हम
ढपली अपनी राग भी अपना।
माया मोह मानवीयता भूले
मित्रों जीवन है बस सपना।

जीवन में पंचतत्व यथार्थ हैं
जैसी करनी वैसी ही भरणी।
जग सारा स्वार्थ लिप्त सब
पार उतारे सत्यमय तरणी।

सब सन्ताने एक पिता की
तुझमें मुझमें एक आत्मा।
मृग तृष्णावत भाग रहे सब
सबमें बसे परम् परमात्मा।

ब्रह्म यथार्थ जग अवास्तविक
कठपुतली से नाच रहे हम।
शक्तिमान निर्माता निर्देशक
उसको जाने जग अति कम।

स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।


नमन -भावो के मोती
दिनांक-09/11/2019
विषय- यथार्थ


यथार्थ के भावार्थ.....

यथार्थ मन के मीत बन गए
सहज सरस नवनीत बन गए।
स्पंदन अधरों का पाकर,
पावन परम पुनीत बन गए।।
दिग् -दिगंत में सुरभि बिखरे
हारे मन के जीत बन गए।
झंकृत तार भावनाओं की
सत्यार्थ के रीत बन गए।।
दर्द छिपा है मुस्कानों में
जीवन के संगीत बन गए।
सत्य धरोहर वर्तमान के
भावी पल के सीख बन गए।।

सत्य प्रकाश सिंह
प्रयागराज उत्तर प्रदेश

विधा--मुक्तक
प्रथम प्रस्तुति


कल्पना में रहना ठीक नही
भावना में बहना ठीक नही ।।
यथार्थ से प्रेम करना सीखो
कहीं मिले उलहना ठीक नही ।।

किताबों के किस्से किस्से हैं
किस्मत के दिए क्या हिस्से हैं ।।
समझो स्वीकारो जल्दी उसे
वक्त के पहिये पल में लुढ़के हैं ।।

इतिहास भी बदल दिए जाते
अँधेरे पक्ष दबा दिए जाते ।।
उजेले पक्ष दिखा दिए जाते
सदियों से यही हाल कहाते ।।

अनुभव यथार्थ को पुष्ट करते
अनुभव जीवन में रंग भरते ।।
अनुभव से उत्पन्न ज्ञान दिशा दे
यही इल्म 'शिवम' सन्तुष्ट करते ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 09/11/2019


9.11.2019
शनिवार

विषय -वास्तविक/यथार्थ
विधा -ग़ज़ल

यथार्थ

# यथार्थ के धरातल पर जीता नहीं है कोई
चलना कठिन है दूभर और भावना है सोई।।

सब जानते सभी हैं,सब मानते हैं सब कुछ
वास्तव में वास्तविकता हर बार ही है रोई।।

बिन बात लड़ रहे हैं,फ़रियाद कर रहे हैं
दिल जानता है सबका,बस चेतना है सोई।।

मुद्दे न वाकये हैं,सब बहस में हैं शामिल
जीवन न जीने देते,मुद्दा नहीं है कोई ।।

हर धर्म के ये मसले,नीतिज्ञ जानते हैं
उलझी है राजनीति,मसला नहीं है कोई।।

मन से हैं वैर रखते,मन से ही हारते हैं
जीतेंगे कैसे मन को,जीता कहाँ है कोई।।

बरबाद हो रहे हैं,बरबाद कर रहे हैं
अब’ उदार’ देखना है,
निकलेगा संत कोई ।।

स्वरचित
डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘ उदार ‘

तिथि _9/11/2019/शनिवार
विषय _*यथार्थ /वास्तविकता*

विधा_॒॒॒ काव्य

प्रभु यथार्थ में ही जीता रहूंगा।
सदा मरीचिकाओं रीता रहूंगा।
होंसलों से ही उडान होए पूरी
प्रेम सरिताओं में बहता रहूंगा।

सदैव देशहित के लिऐ जिऊंगा।
मरूंगा स्वदेश के लिऐ मरूंगा।
भौतिकता क्या वास्तविकता में रहूं
सहनशील सदाचारी बन रहूंगा।

औकात यारा अपनी जानता हूं।
सही चादर में पांव पसारता हूं।
प्रेम सरिताओं में डुबकी लगाकर
अपना सबको बनाना चाहता हूं।

धरती बिछौना मानो पालना है।
वास्तविकता से साथी सामना है।
जीत हार यहां तो होती रहेगी
प्रभु प्रेम प्रीत हो यही भावना है।

स्वरचित
इंजी शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना मध्य प्रदेश
जय जय श्रीराम रामजी

1भा*यथार्थ /वास्तविकता*
काव्य
9/11/2019/शनिवार



यथार्थ/ वास्तविकता

जियो यथार्थ में
जीवन
ऊँचे सपने होते नहीं
अपने
एक एक कदम रखो
मजबूती से
मंजिल पास आती
जाएगी
है इस दुनिया में
छल ज्यादा
हुए दूर वास्तविक
जीवन से
राह भटक जाओगे
होते हैं
नाजुक बहुत
संबंध पति पत्नी के
जब रहेगा तालमेल
आपस में
सेंध नहीँ लगा पायेगा
कोई संबंधों में
कहने को बहुत
आसान होती है
जिन्दगी
यथार्थ ही संघर्ष
करा पायेगा
जियो और जीने दो
जिन्दगी
यही है मूल मंत्र
जिन्दगी

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल


भावों के मोती
शीर्षक- यथार्थ
सपना लगता कितना अच्छा है।

यथार्थ मगर लगता कड़वा है।
स्वप्नलोक में रहने वाले
कब यथार्थ में जीते हैं।
चुपके-चुपके सबसे छुपके
घट अमृत का पीते हैं।
अपने में ही खोए रहते वो
खुशी से झूमते रहते हैं।
मतलब नहीं ग़म से कोई
अपनी दुनिया में घुमते हैं।
काश, हकीकत भी इतना ही
प्यारा और दिलकश होता।
तो इस लोक का कोई भी
स्वप्नलोक में एैसे ना खोता।

स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर



विषय-यथार्थ
विधा-कुंडलियाॅ

दिनांकः 9/11/2019
शनिवार
आज के विषय पर मेरी रचना प्रस्तुति:

(1)
यथार्थ छोड़ कर सभी,मिथ्या करते होड़ ।
जहाँ मिले कुछ भी नहीं,वहीं जा रहे दौड़ ।।
वहीं जा रहे दौड़,जहाँ शाॅति नहीं पायें ।
यही मृग तृष्णा है,अधिक अशांत हो जायें ।।
छोड झूठे सुख को,शाॅति में ही सुख पायें ।
सदा सत्य को जान,यथार्थ ही हम पायें।।

(2)
अनुभव से होती परख,वही सदा यथार्थ ।
जो कहते निज लाभ को,वही होता स्वार्थ ।।
वहीं होता स्वार्थ,पाखंड झूठ मचाते।
उसे साबित करने ,बातें मिथ्या बनाते ।।
दया भलाई करे,सदा मानव पहचाने ।
परख कल्पना करे,तब मर्म हम सब जाने ।।

(3)
प्रभु जग में होते सदा ,सभी जगह वह एक।
उसे अलग जग मानता,उसी के रूप अनेक ।।
उसी के रूप अनेक,मिथ्या जहाँ भरमाता।
उसको सभी प्रिय हैं,वह सभी को अपनाता ।।
स्वामी जग का एक,यह बात सारे मानों ।
प्रभु सारे जहाँ का,उसको अलग मत जानों।।

(4)
झूठे आॅसू हैं भरे,नहीं सत्य के बोल ।
जिनके आॅसू बह रहे,क्या आॅसू के मोल।।
क्या आॅसू के मोल,सब दिखावा ही करते ।
जन्म मरण सत्य है,उसको हिय में न लेते ।।
सच्चा मानव प्रेम,सब इसे गलत बताते ।
आॅख में आॅसू भर,वे घडियाल बन जाते।।

(5)
डूबे माया में रहे,सदा नशे में चूर ।
प्रभु भक्ति वे करें नहीं ,रहे यथार्थ दूर ।।
रहे यथार्थ दूर,क्या आत्मा को समझें ।
सब में बसती वही,व्यर्थ बातों में उलझे ।।
भक्ति जानते नहीं,जो है सार जीवन का।
जो माया में रहें,उनको ध्यान मतलब का।।

स्वरचित
डॉ एन एल शर्मा जयपुर 'निर्भय,


नमन भावों के मोती
आज का विषय, यथार्थ, वास्तविक,
दिन, शनिवार

दिनांक, 9,11,2019,

हम सच्चाई से दूर नहीं रह सकते ,
यह सबसे बड़ा जीवन का यथार्थ है।
जो आया है उसे जाना है इक दिन ,
स्वीकार करो सच यही यथार्थ है ।
धन दौलत और सब नाते रिश्ते,
जग में सब झूठे हैं यही यथार्थ है ।
जिन सपनों में मन जीता उम्र भर,
हैं वो इक मृगतृष्णा यही यथार्थ है ।
वास्तविक बात है इक छोटी सी,
मिलीं सांसे ये उधार हैं यही यथार्थ है ।
छल कपट और धोखे की दहशत ,
सब पे सवार है बस यही यथार्थ है ।
क्या पता कौन है अपना और पराया,
लुभाती हर मुस्कान है यही यथार्थ है ।
जब तक जीवन है जी लें हँसकर,
फिर जाना हरि धाम है यही यथार्थ है ।

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश


09/11/2019
"यथार्थ/वास्तविक"

छंदमुक्त
**********************
चाँद ,तारे और भास्कर...
प्रतिदिन प्रमाण ये देते हैं
वास्तव में भगवान होते हैं
संपूर्ण ब्रह्मांड वो चलाते हैं।

क्षिति,जल,आग,गगन,समीरा
पंचतत्वों से निर्मित है काया
यथार्थ यह सबने है माना.....
अद्भुत है इसकी संरचना...।

हर प्राण में बसा है आत्मा
सबका एक है परमात्मा..
जग नश्वर,अमर है आत्मा
शरीर का सिर्फ होता खात्मा

स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।

है मृतु वास्तविक सत्य रूप
अविरल सत्य और मौन रूप
स्वीकार करो स्वीकार करो
जब जीवन से है क्या प्यार
तो मृत्यु पर क्यो मौन रहै
जीवन का अंतिम छोर सही
भरपूर जिया जब जीवन को
मृत्यु से प्रेम करो प्रेम करो
आये हो तो जाना भी होगा
यथार्थ यही ओर सत्य यही
मत भागो इससे दूर नही
ले जाएगी तुम्हे सङ्ग कभी
ये अटल सत्य जीवन का है
सम्मान करो सम्मान करो

स्वरचित
मीना तिवारी

नमन भावों के मोती
दिनांक ९/११/२०१९
शीर्षक-वास्तविक/यथार्थ।

विधा तांका
१)
जिये यथार्थ
सदा रहे निष्पक्ष
स्वार्थ दे त्याग
हो परमार्थ आगे
जग भूलभूलैया।

२)
जीवन जंग
समय बलवान
पागल मन
समझे ना यथार्थ
नश्वर है जिंदगी।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।


भावों के मोती
विषय- वास्तविक/यथार्थ

______________________
वास्तविकता को परे रख
दिखावे की ज़िंदगी जीने वाले
भर लेते हैं जीवन में
काँटे हमेशा चुभने वाले
यथार्थ के पथ पर काँटे सही
पर मार्ग उम्मीदों भरा
मिलने की खुशी भरपूर है
खोनें का नहीं डर ज्यादा
दिखावे की दुनिया खोखली
खोने का हरपल डर भरा
वास्तविकता को पहचान कर
संभल-संभल कर पग बढ़ा
जरा भी डगमगाए तो
हँसने लगेगा यह जमाना
सोच ऊँची,कर्म हो सच्चे
मेहनत भरी हो ज़िंदगी
ज़िंदगी यही है अच्छी
वास्तविकता से है भरी
छाँव हो सीलन भरी तो
और सुख भरी हो ज़िंदगी
हर तरफ हो बंद खिड़कियाँ
वो ज़िंदगी भी भला कोई ज़िंदगी
***अनुराधा चौहान***स्वरचित


आज का विषय 👉
वास्तविक/यथार्थ
दिनांक👉 ९/ ११/२०१९
दिवस 👉शनिवार
👉वास्तविक परिस्थिति से संबंधित जीवन का यथार्थ 👉👉👉👉👉
फैले हुए हाथ
मैले कुचेंले हाथ
देह पर धूलकी परत
खुला आसमान गरीब किसान
गरीबी का आगन भटकता मन
मेरे सन्मुख अबोध जीवन ,
यथार्थ भरा जीवन! !
कच्चा घडा़ सूखी देह सिसक रही
जिसका रखवाला
राष्ट रक्षा का संकल्प ले ड़ाला
रूदन भरा अलाप देता उदर मतवाला

है कुछ शब्दो के धनी
जिनसे सहिंशाई बनी
गढ़ते शब्द दुर्बल के उद्धार की
राष्ट पहरी के चहुंओर विकास की
राजशाही का बंदा
झूठ का पुलिंदा
धन एकत्र करने में मस्त
राष्ट पहरी का जीवन पस्त
नित नए चोले बदलते
अपना दामन दूध धुला कहते ,
यथार्थ भरा जीवन! !

देशके नौनिहाल त्रस्ते फिरते
हाथ फैला भाग्य को लपकते
जीवन प्रकाश के पल फिसलते रहते
उज्ज्वल भविष्य की आश धरी रह जाती
देश की माटी फिर से छली जाती

गली-गली देश भक्तो की लाइन लगी है
ये देश भक्त कितने राष्ट पर शहादत देते
अपने चारोंओर पहरी बिठा
सहिंशाई का हुक्म झाड़ते
यथार्थ भरा जीवन! !
कही पत्थरौ की खान उपजी है
कोंमी सियासत शैतानी उपजी है
देश लूटकर खाते ये
इनकी नीयत हैवान उपजाती है
एसी कमरौ में बैठकर
राष्ट तोड़नेकी नीयत कब्रिस्तान उपजाती है

वो बली है सीमा पर पहरी है
उन्ही के बल से राष्ट में खुशी है
घर हमारा अपना अपनी जम़ी है
राष्ट द्रोहियों से उनकी जान पर आ बनी है
यथार्थ भरा जीवन! !
उदर की आग हमारी
किसान पर भारी
परीक्षम का बोझ
नित सूंघता माटी की महक
मेघविन उसकी आत्मा दुखियारी
पोर-पोर उसको माटी है प्यारी
राजशाही इसकी हत्यारी

सबका पालन हार
अपनी माटी को सद्रण करने को लाचार
सुविधा हीन कृषक
उसके घर दीप जला न अभी तक
उसका नौनिहाल शिक्षा, स्वास्थ्य,
ज्ञान बिन होरहा बेहाल
राज शाही का कमाल
यथार्थ भरा जीवन! !
करोड़ो की ऐसी कारौ में फिरते
अपनी रक्षा को अंगरक्षक रखते

किसान का हर अधिकार अधिग्रहण कर
अपनी चाँदी कर तिजोंरिया भरते

बन बेठे ज्ञानी अनेक
इनको लगता नही ज्ञान का सेक
नित नया फरमान
जनतंत्र पर टूट पड़ा
दुखोंका आसमान
यथार्थ भरा जीवन! !
वाहरे स्वतंत्र भारत
तेरे कार्य करताओं
की देखी महारत
ज्ञान हीन सिंहासन बैठे
बुद्धि जीवी मुह पर
पट्टी है लपेटे यथार्थ भरा जीवन! !

गौरीशंकर बशिष्ठ निर्भीक
हल्द्वानी नैनीताल उत्तराखंड

दिनांक-9/11/2019
विषय-यथार्थ/वास्तविक

काव्य विधा(छंदमुक्त)

सब जानता है इंसान
फिर भी नहीं मानता
विवेक के तराज़ू से
अक्सर नहीं तोलता
वास्तविकता का मर्म
दिल नहीं कचोटता ।
पर्यावरण का बदमिज़ाज
इंसान फिर भी नहीं मानता
स्वार्थ के फलीभूत होकर
प्रकृति को मात्र लूटता ।
धूम्रपान से होने वाली
सारी बीमारियाँ जानता
कभी चाव से ,कभी भाव से
एक शौक़ जानलेवा पालता।
झूठ बोलना महापाप है
इंसान बख़ूबी यह जानता
ख़ाकीवर्दी ,काले कोट वाला
इसको पुण्य ही मानता
धाराओं की करे हेराफेरी
अधिकार अपना मानता।
सड़क सुरक्षा का नियम
सदा जीवन रक्षा करता
नियमों को ताक़ पर रख
जीवन संकट में डालता ।
जल जीवन का आधार
बात हर कोई यह जानता
जल बर्बादी रोकने की बात
ना जाने क्यों नहीं मानता !
वास्तविकता के ढोल पीटकर
अपना पल्लू मात्र झाड़ता ।
संतोष कुमारी ‘संप्रीति
स्वरचित एवं मौलिक


विषय -वास्तविकता/ यथार्थ दिनांक 9-11-2019
जीवन यथार्थ कर,क्यूं सपनों में भटक रहा है।
सुबह होते जो टूटा,राह भ्रमित क्यूं हो रहा है।।

जीवन अमृत खान था,विष इसमें घोल रहा है।
तूने जो बोया बीज,उन्हें ही तो काट रहा है।।

भाग्य विधाता ने लिखा,नरक इसे बना रहा है ।
अपने ही कृत्यों द्वारा,बीज जहर तू बो रहा है।।

वास्तविकता से अवगत,क्यूं नहीं तू हो रहा है।
अपनी राह कांटे,अब स्वयं तू बिछा रहा है।।

यथार्थ को पहचान अब,अपनों साथ जी रहा है।
जिंदगी का आनंद वह,यथार्थ में अब ले रहा है।।

वीणा वैष्णव
कांकरोली

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