Monday, November 4

"स्वतंत्र लेखन ""13अक्टुबर 2019

ब्लॉग की रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं बिना लेखक की स्वीकृति के रचना को कहीं भी साझा नहीं करें 
ब्लॉग संख्या :-535
दिनांक-13/102019
स्वतंत्र सृजन


विषय-नदी

भीनी भीनी खुशबू में बसा
नदी किनारे मोरा गांव।
धूप सखी की हंसी थिरकती
जलधारा की ठंडी ठंडी छाँव।।

धरती की कोखे सूनी होती
इस अमृत जलधारा के बिन
जैसे चातक प्यास बुझाता
नींद उसकी सुख से सोती।।

पनघट पर पनिहारिन आती
दमक लालिमा सुर्ख महावर लेके
हर सुहागिन पानी भरती
कल कल नदियां अलियों को देखें।

झूम रहा है तन मन उसका
सागर का दरियाव लिए।
दूर तटो से नदी बहती
प्रचंड पुरवइया का भाव दिये।।

सबको कहां मिलते ऐसे ठाँव
न्याय की लकीरे बने पंचों के पाँव
भीनी भीनी खुशबू में बसा
नदी किनारे मोरा गांव।।

स्वरचित
मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज

सन्नाटा ख़ौफज़दा हरबार...
"""""""""""""""""""""""""""""""""
🌹जय श्री कृष्ण🌹
सुख चुकी हैं आँखों की नदियां
नहीं झरती अब बेमौसम
आँसुओं की बहार...।

ख़ामोश हैं बादल मन आसमां में
कर विस्मृत गरजना को
निर्वासित सा आकार...।

गुम हो चुकी हैं स्मृतियां क्या मेरी
सोच की बहती धारा से
सांझ मधुर साभार...।

हृदय क्रंदन कर शोर है मचाता
बिना एक भी आह भरे
दिले क्षितिज के पार...।

निहारती रही नज़रे अपलक तुम्हें
तुम देख मुस्कुराते ही रहे
भीगी पलकों का संसार...।

एहसास जगाता रहा एक नाम तेरा
कतराती रही कदमों की आहट
सन्नाटा ख़ौफज़दा हरबार...।

✍🏻 गोविन्द सिंह चौहान,,भागावड़, भीम

शुभ प्रभात : भावो के मोती ! मनपसंद लेखन !
13/10/2019 रविवार
"""""""""""""""""""""""""""

# परमेश्वर की शक्ती #
******* लेख *******
हम चाहे किसी भी धर्म - समाज के है ! लेकिन मानव समाज को यह स्वीकार करना चाहिये की धरती पर कोई तो अदृश्य शक्ती है जो हमारे पुरे ( ब्रम्हाण्ड ) संसार को अपनी शक्तीयो से चला रही है ! पृथ्वी , सुर्य , चन्द्रमा और लाखो गृह - तारे सभी की उत्पत्ती यह कोई छोटा सा चमत्कार नही जो हर कोई खिलोनो की तरह बनाकर बिना किसी सहारे समय की सिमाओं में बांधकर चलाये !

जीवो का जन्म और समय अनुसार दिमाग , शरिर का विकसित होना ! प्राकृतीक जगहो की सुन्दरता , धरती पर प्रकाश - तापमान , हवा - पानी यह सब मानव समाज केवल देख सकता है लेकिन अपने अधिकार में ले नही सकता है !
फिर भी मानव अपने दिमाग में अपनी शक्तीयो के कारण सबकुछ पाना चाहता है !
मानव समाज अपने परिवार की जरूरूरते पुरी करने में भी कमीयां तो रख देता है !
लेकिन पुरे ब्रम्हाण्ड ( संसार ) को चलाने में परमेश्वर की अदृश्य शक्ती की कोई कमीयां मुझे तो नजर नही आती है !
भावो के मोती के साथ मैं परमेश्वर की अदृश्य शक्ती को भी नमन - प्रणाम् करता हूं जिसको कोई समझ नही पाया !
स्वरचीत -- मुकेश शर्मा , रावतभाटा ( राजस्थान )

13.10.2019
रविवार

विषय -स्वपसंद विषय
लेखन

मैं भी मिट्टी के दीपक
🍁🍁🍁
मैं भी मिट्टी के दीपक बनाना चाहती हूँ
दीपावली का पर्व,मन-दीपक जलाना चाहती हूँ।।

खेत-खलिहानों की ख़ुशबू खींचती है हर घड़ी
लौट कर फिर आज मैं भी,गाँव जाना चाहती हूँ ।।

धुँध में शहरों के, सब कुछ,ख़ाक में मिल खो गया
उन सुनहरी याद के, अनुभव सुनाना चाहती हूँ ।।

भोर सतरंगी जहाँ,सुनते मधुर मुरली के धुन
पंछियों के वापसी के,स्वर सुनाना चाहती हूँ।।

धूल के कण-कण में भी,
बसती जहाँ जीवंतता
ज़िन्दगी में ज़िन्दगी की लय जगाना चाहती हूँ।।

अपनी परिपाटी से,कितने दूर होते जा रहे
मैं नमन-वंदन के बिसरे,गीत गाना चाहती हूँ।।

जानते सब हैं मगर,अब भी नहीं कुछ मानते
मैं ‘ उदार’निज देश का गौरव बढ़ाना चाहती हूँ ।।

स्वरचित
डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘ उदार ‘

।। मेट्रो सिटी ।।

मेट्रो सिटी में रफ़्तार है ।

मानवता भी तार तार है ।
यहाँ ऐसा एक खुमार है ।
हरेक इंसान बीमार है ।

सर चढ़ बोले अनाचार है ।
किसी को किसी से न प्यार है ।
भागता हुआ संसार है ।
हाँफता हुआ लाचार है ।

झूठ का हरेक व्यापार है ।
सच पर झूठ का 'शिवम' वार है ।
हक का पैसा दावेदार है ।
यहाँ पैसे की सरकार है ।

गंदगी का यहाँ अंबार है ।
कहीं शर्मा कहीं सरदार है ।
किसी का किसी से न सरोकार है ।
श्वान सुखी गाय निराहार है ।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 13/10/2019

13-10-2019
स्वैच्छिक विषय


कर्म लकीरें

लावणी (16,14) दो दो चरण समतुकांत
चरणान्त-गुरु/लघु, स्वैच्छिक

विश्वविजेता एक सिकंदर
इतना तो कमजोर न था
मुठ्ठी में थी बंद लकीरें
तिसपर उसका जोर न था

है विधना ने जो छंद रचे
घटित उसे तो होना है
ऐसे तो फिर छोड़ कर्म को
बैठ भाग्य को रोना है

खींची थी उसने तो अपनी
ऋजु या बंकिम रेखाएँ
कर्म लकीरों ने ही मिलकर
विश्वविजय थे करवाये

निज कर से खीचों तुम अपनी
मुट्ठी-बंद लकीरों को
कर्म कलित क्यारी में देखो
सुरभित भाग्य पटीरों को
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

Veena Vaishnav नमन 🙏
विषय- स्वतंत्र लेखन
दिनांक 13 -10 -2019
तू दोस्त बन, या दुश्मन बन ।
कुछ भी बन, चल जाएगा ।।

भूल से भी, चमचा बना।
जीवन में,दुःख तू पाएगा ।।

चमचे की ,तुम बात न पूछो।
हर बर्तन,खाली कर जाएगा।।

जीवन में अगर,तुम्हारे आया।
जीवन नर्क,वह बना जाएगा।।

दूर ही रहना तुम,इन चमचों से ।
यह किसी का,नहीं हो पाएगा।।

मीठी मीठी, बातें कर तुझसे ।
राह भ्रमित, तुझे कर जाएगा ।।

अपनों से दूर, तुझे वो कर।
करीब गैरों को,वो लेआएगा।।

अच्छे बुरे की,पहचान करना।
कौन तुम्हें,अब सिखलाएगा।।

विचारों को वो, तेरे गंदा कर।
जहर दिमाग, भर जाएगा।।

कहती वीणा,विवेक काम ले ।
सदा चमचों से,तुम्हें बचाएगा।।

वीणा वैष्णव
कांकरोली

शरद पूर्णिमा की मेरी खीर
💘💘💘💘💘💘💘💘

नन्हिय
ाँ बढा़तीं, निश्छलता की भव्य गरिमा
नहला देतीं मुझे, बाल मुद्राओं से भरी ललिमा
शरद पूर्णिमा ,जब छत में उतर आती है
नन्हिंयों के सानिध्य में, मन को तर कर जाती है।

फिर शब्दों का भी, हौले हौले जमाव होता
कविता में सँवरता,सुन्दर मृदु मृदु भाव होता
नन्हियों की शीतल मुद्रा ,और चन्द्र का शीतल मुख
बदल देते पीडा़ओं का ,एकदम से दर्दीला रुख।

सीधे सीधे सरल बोल,नहीं शब्दों के कोई तीर
एकदम निर्लिप्त भाव की ,मुस्कान भरी यह सुन्दर खीर
इसमें चन्द्र की रजत आभ, जब घुलमिल जाती है
चन्दा मामा चन्दा मामा, बच्चों की बाँछ खिल जाती है

मैं निरखता कभी इनको,कभी चन्द्र का धवल वेष
दोनों ही छटा बिखेरते अपनी,दोनों ही मेरे लिये विशेष
पोतियों की शोख मुद्रायें,चाँदनी सी शीतल हैं
इनकी ही आभा से तो,उजले मेरे हर पल हैं।

13/10/2019
स्वतंत्र लेखन......

तांका
1
शरद चाँद
चमकती चाँदनी
सुधा वर्षण
भीगा जो तन-मन
हर्षित है जीवन ।
2
पूर्णिमा रात
बादलों की ओट से
झाँकता चाँद
प्रेममयी चाँदनी
खेल मनभावनी ।।

स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।

तिथि : 13-10-2019
स्वतंत्र सृजन ....,


*खत -तुम्हारा*
--------------------
आज भी जाता हूँ ,वहाँ
बैठता हूँ ....और
इंतजार करता हूँ
बड़ी बेसब्री से
तुम्हारे खत का
पर ...,वो आज भी
नहीं आया ,
जो ...,
कभी ..,
लिखती थी तुम
बड़े अरमान से
मुझे ...,
जाता हूँ ,आज भी वहाँ
तुम्हारे लिखे हुये पत्र का
इस उम्मीद में की -कि
आज ,इंतजार खत्म होगा
खत का ....,पर
इंतजार आज भी है -उसका ||

शशि कांत श्रीवास्तव
डेराबस्सी मोहाली ,पंजाब
©स्वरचित मौलिक रचना

13/10/19

शरद पूर्णिमा विशेष
1)
दोहा
***
गहन तिमिर अंतस छटे,धवल प्रबल हो गात।
अमृत की बरसात हो ,शरद चाँदनी रात ।।
**
2)
**
क्षणिका

शरद पूर्णिमा की रात में
अमृत बरसता रहा ,
मानसिक प्रवृतियों के द्वंद में
कुविचारों के हाथ
लग गया अमृत ,
वो अमर होती जा रहीं ।
**
3)
छंदमुक्त
***
उतरा है फलक से चाँद जो मेरे अंगना
तारों की बारात लेके आओ सजना ,
पूनों की चाँदनी लायी ये पैगाम है
अपनी मुहब्बतों पे तेरा ही नाम है।

स्वरचित
अनिता सुधीर

आयोजन-स्वतंत्र लेखन
दिनांक- 13.10.2019

क़ाफ़िया-ई स्वर
रदीफ़-की तरह
वज़्न-212 212 212 212
=====================
तुमने देखा मुझे अजनबी की तरह ।
और फेरी नज़र वापसी की तरह ।।

दिल लगाकर बढ़ा रंज उफ़ तक न की,
दर्द सहता रहा खामुशी की तरह ।।

दिल लगाया कि तुम याद में बस गए,
जो उभरते रहे शायरी की तरह ।।

दिल को लेके सनम! तुम मदारी बने,
नाचता में रहा मर्कटी की तरह ।।

जाने मन!जाने दिल! तुम कहाँ छिप गए,
मैं रहा ढूँढ़ता नौकरी की तरह ।।
=========================
स्वरचित- राम सेवक दौनेरिया 'अ़क्स'
बाह -आगरा (उ०प्र०)

13-10-2019
स्वैच्छिक लेखन

शरद पूर्णिमा के पावन अवसर पर ,,
🌾🌹🌾🌹🌾🌹🌾🌹🌾🌹,,
भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत प्रैममयी रासलीला हुई थी,,? जो जड-चेतन सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को नव रसों से आप्लावित कर गई,,,,,,,,,उसी परम भाव को छंद मे

यूँ ही एक गीतिका,,,
"प्रेम के अवतार"
माधव मालती छंद पर,,,,,,
2122 2122 2122 2122
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
*********************************
साँवले घनश्याम ! तुमको प्रेम का अवतार माना /
पूर्णिमा छाई शरद की,श्याम को साकार माना //
***
आस्था विश्वास तुम पर,मन हृदय में दृढ हुईं जब,
छोड़ कर दुनिया,प्रभो जी! भक्ति को ही प्यार माना!
***
दे सका कोई न मुझको,जो प्रणय सच्चा- अमर हो,
प्रेम निश्छल है तुम्हारा,बस उसे अभिसार
माना !
***
स्वार्थ के रिश्ते यहाँ पर जिंदगी को छल रहे हैं,
ये जगत नश्वर समझकर,श्याम तुमको सार माना !
***
इक मिलन की प्यास,जीवन को जगाती श्याम मेरे!,
बिन दरस के ही तुम्हारे प्रेम को उपकार माना!
***
प्रेम की "वीणा" बजी,जब प्रीत साँची सी लगी है,
श्री त्रिलोकी नाथ जग के,कृष्ण को सरकार माना !
***
प्रेम की वंशी बजी जब, ये शरद- पूनो रचाई ,
जब भटकती नाँव मेरी,श्याम को पतवार माना !
*********************************
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
रचनाकार-ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित (गाजियाबाद)
CM Sharma II 

II मनपसंद विषय लेखन II नमन भावों के मोती....

विधा: ग़ज़ल - बिका हूँ रोज़ महब्बत में मैं खुदा की तरह...


बिका हूँ रोज़ महब्बत में मैं खुदा की तरह...
मगर करीब नहीं था कभी दुआ की तरह...

नहीं है आग मगर जल रही है जान मेरी....
जिगर में याद तेरी अनबुझी जफ़ा की तरह...

सवाल करता रहा ज़हन वाईसों जैसे....
रहा ये मौन गुनहगार दिल सदा की तरह...

कभी मिलेगा नहीं जो चला जहां से गया...
लिपट के आएगा यादों में वो हवा की तरह....

समझ का दोष कहूँ या वफ़ा इनाम 'चन्दर'...
जो कल था सांस मेरी आज है क़ज़ा की तरह....

II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II

दिन :- रविवार
दिनांक :- 13/10/2019

विषय :- स्वतंत्र लेखन

है कलम मौन मेरी...
चल रही तकरार भावों से...
शब्द सरिता सूख रही...
पटी रहती थी जो नावों से...
उलझ रहा खुद से खुद ही...
सिमट रहा मैं शून्यता में..
संवेदनाएं रूठ गई मुझसे...
पाता हूँ खुद को नगण्यता में..
घिरा हुआ खुद को पाता हूँ...
अवसाद के चक्रव्यूह में...
शस्त्र ऐसा न बचा कोई..
निकाले जो मुझे इस व्यूह से..

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश

बिषय _ हमारी सरकार
विधा _ मुक्तक(मात्रा भार -28)

जब से लगी हराम दाढ ये गाना हमें सुहाता।
जितनी झोली भरे सरकार उतना
नहीं पुसाता।
हवश लालसा बडती जाऐं,आऐ जाऐ डकार,
सभी आपने आदत डाली न हमें काम सुहाता।

अपना धर्म यही कहता है जब तक जिंदा कूटें।
चाहे जितनी अच्छी सरकार मरते दम तक लूटें।
जिन्न पकड लिया आरक्षण हमने
रहें सुहावनी रातें।
नहीं मरेंगे सारे नेता भले पसीने छूटें।

मदिरा मांस मिले फोकट जनसंख्या बडबाऐंगे।
ज्ञानवंत कुछ साथ हमारे मिलजुल भडकाऐंगे।
जातपात में हमें बांटकर सबको यही भिडाते,
छुटभईया नेता संग राजनीति चमकाऐंगे।

स्वरचित
इंजी शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना मध्य प्रदेश
जय जय श्री राम रामजी
1भा ,हमारी सरकार ,मुक्तक
(मात्रा भार 28)

नमन भावों के मोती
दिनांक १३/१०/२०१९
"स्वतंत्र लेखन"-संस्मरण"

मेरी नई चप्पल"
मैं बेटा राज के जन्मदिन के अवसर पर सपरिवार फैमली टूर पर निकली, शिरडी, त्रम्यबेकश्वर, घृष्णेश्वर, औरंगाबाद होते हुए हमलोग महाबलेश्वर के हसिन वादियों में घुमने निकले,वहाँ के नैनाभिराम वादिया वह मनमोहक जलवायु में खो से गये, वहां घुमते घुमते मेरी नज़र एक बहुत ही सुन्दर मोती जरी चप्पल पर पड़ी, मैं उसका दाम पूछकर आगे निकल गई,जब मेरी बेटी को पता चला कि वह चप्पल मुझे पसंद है,मेरी बेटी ने उसे तुरंत खरीद दिया,जिसे पाकर मैं बहुत खुश हुई, वैसे भी हर नई जगह का चीज इक्कठी करने का मुझे बहुत ही शौक है।
जब मैं वापस जमशेदपुर आई तो अपने इस नई चप्पल पहनने का मौका ढूंढने लगी; जहाँ बहुत से लोग मेरी इस नई चप्पल की प्रशंसा करें, परन्तु कुछ दिन बितने के बाद भी ऐसा कोई सुअवसर नही आया।
अब मैं अपने परिचितों और रिश्तेदारों से मिलने उस नई चप्पल में इस उम्मीद में जाने लगी कि कोई तो मेरे इस नई चप्पल की प्रशंसा करें, लेकिन जैसा कि आजकल का चलन है,अपने जुता चप्पल बहुत दूर उतार कर ही किसी के बैठक में प्रवेश कर सकते हैं, लिहाजा किसी ने मेरी नई चप्पल की तरफ कोई तवज्जो नही दिया,अब मैं निराश हो चली थी, क्योंकि औरों की तरह मुझे भी अपनी नई चीज का तारीफ सुनना पसंद था।
तभी मुझे एक तरकीब सुझी कि क्यों न इसे मैं कही ऐसी जगह पहन कर जाऊँ जहाँ बहुतो का नजर मेरी इस नई चप्पल पर पड़े,वे भले ही मुझे नही जानते हो, मुझसे कुछ न बोले, परन्तु उनके आँखो में मेरे इस नई चप्पल के लिए प्रशंसा के भाव हो,यही सोचकर मैं उसे पहन कर शहर के एक प्रतिष्ठित डाक्टर के पास अपनी रूटिन चेक अप के लिए गई, जहां काफी भीड़ थी,मैंने जानबूझ कर अपने बैठने के लिए ऐसी जगह चुनी, जहाँ से मेरी नई चप्पल आर्कषण का केन्द्र बने,और हुआ भी ऐसा ही, मैंने नोटिस किया कि बहुत सी महिलाओं का ध्यान मेरी चप्पल ने आर्कषित किया,अब जाकर मेरा अहं संतुष्ट हुआ।
अब घर वापस जाने का समय हुआ,समय के पांबदी होने के कारण मुझे तुंरत घर वापस आना पड़ा,और थोड़ी देर चलने पर ही मेरा चप्पल मुझे मुहँ चिढ़ाते हुए बीच से फट गया,अब किसी तरह उसमें अंगुलिया फंसाये चल रही थी, मैं यह भूल गई थी कि "हर चमकने वाली चीज सोना नही होता।"और मुझे इसकी मजबूती का ध्यान रख कर ही बारिश के मौसम में पहनना चाहिए था।इस बार चप्पल के साथ मैं भी सबका ध्यान आकर्षित कर रही थी, परन्तु सबके नजर में प्रशंसा के भाव नहीं अपितु हास्य व कौतूहल के भाव थे।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव

Damyanti Damyanti

विषय __स्वतंत्र सृजन |
नीले अम्बर मे उज्जवल श्वेत चंद्रमा की चद्रिका छिटकी |
लगती मन मोहनी छलक लहा अमृत |

कण कण प्रफूल्लित आनंदित होरहा |
ये ॠतु परिवर्तन नवसृजन नवनिर्माण देरही संदेश |
आज ही रचाया था महारास माधव ने |
यमुना कुलीन के मधुवन के करील कुंजन मे |
आनंदंन मग्न थी सृष्टि देख महारास |
आओ बनाऐ खीर रखे आँगन मे |
अमृत रस छलकेगा खीर मे बने औषधी |
ये महाप्रसाद पा बने निरोग ,भाव हो पवित्र हमारे |
स्वरचित,,,दमयंती मिश्रा

नमन वंदन करती हूँ।
स्वतंत्र विषयांतर्गत मेरा भी प्रयास --


**शरद पूर्णिमा का चाँद**
----------------------------------------------------------------
आज फिर शरद पूर्णिमा का चाँद उतर आया।
चांदनी से नहाया सुंदर रूप निखर आया।।
**************************************
निशा में दिनों जुदाई के बाद मिले जब तुम,
तेरे दृग में प्रेम मिश्रित चित्र नज़र आया।
चांदनी से नहाया सुंदर रूप निखर आया।।
**************************************
तन्हाई में कटती रहती थी जो जिंदगी,
शुकून में आज जश्न - ए - बरात सँवर आया।
चांदनी से नहाया सुंदर रूप निखर आया।।
**************************************
शुष्क इश्क की बगिया में बहार का आगाज़,
संग बीते खूबसूरत पल का सहर आया।
चांदनी से नहाया सुंदर रूप निखर आया।।
**************************************
तेरे बिसरते इश्क की गंध हवा में मिले,
फिर से चेहरे पर वही विनोद उभर आया।
चांदनी से नहाया सुंदर रूप निखर आया।।
**************************************
शरद का चाँद तेरे पास खींच लाया मुझे,
तो दिल पर तेरे इश्क का कसाव पसर आया।
चांदनी से नहाया सुंदर रूप निखर आया।।
**************************************
आज फिर शरद पूर्णिमा का चाँद उतर आया।
चांदनी से नहाया सुंदर रूप निखर आया।।
**************************************
--रेणु रंजन
(स्वरचित )
13/10/2019

स्वतंत्र लेखन विधा
लघुकथा


मंहगाई

उम्र पैंसठ-साठ साल को पार करते हुए पापा माँ में चिड़चिड़ा आता जा रहा था , और हो भी क्यों न ? हम दो बहनें समाज की क्रूरता के कारण अभी तक बिनब्याही थी । पापा अकेले ईमानदारी से कमाने वाले और सीमित आय के चलते भी वह विचारों से खुली मानसिकता वाले हैं । हम बहनों की पढाई लिखाई के मामले में उन्होंने कभी समझौता नही किया ।
मैं , मंजूषा और सुविधा याने मेरी बहन थी । खैर पापा की चिन्ता हम समझ रहीं थी , इतना सब होने के बाद भी समाज में लड़केवालों की मानसिकता के आगे हम मजबूर थे । हम लोगों की पढाई , दहेज की देहली पर आ कर विराम लगा देती थी ।
मुझे याद है , माँ शुरू से ही कहती रही :
" लड़कियों को ज्यादा मत पढाओ लिखाओ , दो पैसे जमा करो , शादी ब्याह के काम आऐंगे ।"
तब पापा कहते :
" लड़कियां हैं तो क्या उन पर हम अपनी इच्छाएं लादेंगे, अपनी राह उन्हें खुद बनाने दो । हाँ पढाई लिखाई के मामले में मैं कोई समझौता नहीं करूँगा "

शायद हम लोगों की चिन्ता ने ही पापा और माँ को इन हालतों तक पहुंचा दिया था ।

इतवार का दिन था , पापा और माँ सुबह से ही तनाव में थे और होते भी क्यों न , पिछले महिने मुझे एक लड़का और उसके घर वाले देखने आये थे । तब मामला लेन देन पर जमा नहीं था । उसी लड़के ने अपने माता पिता की इच्छा के खिलाफ शादी कर ली थी वो भी बिना
दहेज के ।
मैंने बच्चों की पढ़ाने से मिलने वाले पैसों में से पाँच सौ रूपये देते हुए पापा माँ से कहा :
" थोड़ा आप घुम फिर आओ , सिनेमा देख आना और हाँ रात का खाना हम बहनें बना कर रखेंगी "

एक घंटे बाद ही पापा और माँ अपने अपने हाथ में दो थैले लटकाऐ हुए आये और बोले :
" अरे मंहगाई इतनी है , ये देखो हम किराने का सामान और सब्जी ले कर आये हैं । फालतू पैसे बरबाद करने का कोई मतलब नहीं है ।"
इसी के साथ पापा की नम आँखों को मैं महसूस कर रही थी ।

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल

दिनांक 13/10/2019
विषय: शारदीय पूर्णिमा

विधा: स्वतंत्र लेखन (मनहरण घनाक्षरी)

पूर्णिमा की रात आई
त्योहारों को साथ लाई
दिन भर उल्लास था
खीर का प्रसाद था।
चाँद का शीतल रूप
है स्वास्थ्य को गुणकारी
नदियाँ चाँदनी भरे
डुबकी गुणकारी ।।

सागर है उफनाता
चाँद मिलन को जैसे
गर्जन उसकी सुन
पिया का मन भाए।
सूर्य की किरणें संग
चाँद हूआ प्रकाशित
उसकी चाँदनी लाई
हर्सोल्लास धरती ।।
स्वरचित
नीलम श्रीवास्तव

विषय-स्वतंत्र विषय के अंतर्गत रचना
शीर्षक-शरद पूर्णिमा

शरद पूर्णिमा

नीले नभ के शतदल पर बैठ
निकली शरद पूनम की रात
शुभ्र ज्योत्सना छिटकी नभ पर
खिली श्यामल रात

अमृत कलश लिए हाथों में
उतर आई है धवल चाँदनी
सोलह कलाओं से पूरित
चारु चन्द्र की चंचल यामिनी

आज बारिश होगी अमृत की
मधुर सुस्वादु क्षीर रखें छतों पर
झर कर समा जाते सभी गुण
रोगप्रतिरोधक औषधि बनकर ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित

विषय-मन पसंद विषय
दिनांकः 13: 10:2019

रविवार
आज के विषय पर मेरा प्रयास:

अपने जख्म मत गैरो को दिखाना ।
दिल में ही छुपा कर उनको रखना

अब जो दर्द हैं तेरे सीने में ।
उनको अश्को में बहा मत देना ।

ये दुनियाँ तो जालिम है सदा से।
इसको कोई मौका भी मत देना ।

ये बैठी ही रहती नमक लेकर ।
तू उसे छिड़कने ही मत देना ।।

कुरेदे सदा ही जख्मो को ये।
तू उन जख्मो कुरेदे मत देना।

अश्को को बनाये जरिया जालिम।
अपने अश्को को छुपाये रखना ।

करें मीठी मीठी बाते तुझे ।
उसको ऐसे अवसर तुम मत देना ।

गर भनक उनको कहीं लग जाये ।
तू उन्हें भनक नहीं लगने देना ।

जब वे तुमको फुसलाने आ जाये
उन पर गौर थोड़ा तुम कर लेना ।

स्वरचित
डॉ एन एल शर्मा जयपुर
(डॉ नरसिंह शर्मा 'निर्भय ,जयपुर)

दिनांक: 13.10.2019
विषय: स्वतन्त्र लेखन


सालगिरह

ऐ हमसफर याद है वो पल,
जो हमने एक साथ बिताए थे।
क्या याद है तुम्हे वो लम्हे,
जो मिलकर खास बनाए थे।।

हां, आज तारीख वही है लेकिन,
साल का अक्षर एक बढ़ गया है।
आज भी प्यार कम नहीं हुआ,
बल्कि ऒर ज्यादा बढ़ गया है।।

हां, यह तन का रिश्ता नहीं है
दो पाक रूहों का रिश्ता है।
उम्र के इस पड़ाव में भी
मेरे अन्तर्मन की मधुलिका है।।

ये सालगिरह मुबारक हो प्रिया
कुछ उपहार है तुम्हारे लिए।
मुझे कुछ नही चाहिए ओ प्रिया
तेरा प्यार ही काफी है मेरे लिए।।

उम्र नहीं होती प्यार की दोस्तो
प्यार तो बस दिल से होता है।
दुया करो कि दिल सदा जवां रहे
ये रिश्ता बस दिल से ही निभता है।

स्वरचित
सुखचैन मेहरा

No comments:

Post a Comment

"अंदाज"05मई2020

ब्लॉग की रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं बिना लेखक की स्वीकृति के रचना को कहीं भी साझा नही करें   ब्लॉग संख्या :-727 Hari S...