Sunday, November 17

"आधुनिक"16नवम्बर 2019

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ब्लॉग संख्या :-567
दिनांक-16/11/2019
विषय-आधुनिक


आधुनिकता मे समय बिता ले....

तृप्त लडियो का ,तृप्त श्वांस

उदास लम्हों का उच्चवास

अंधा युग के उष्ण करो का

मन कर्कश एक विश्वास

आओ इस पर हर्ष मना ले

आधुनिकता में समय बिता ले......

निर्ममता के कर मे यह

अंतिम संघर्ष मना ले

दुःख को जीवन मे

एक नया आदर्श बना ले

आधुनिकता मे समय बिता ले...

कुदरत के दस्तूरों को

दस्तावेज का नया कर्ज बना ले

मंगल दीप जले अंबर में

स्वर्ण रश्मियों से द्वार सजा ले

आधुनिकता मे समय बिता ले........

प्रेम के दीपक ,नेह के बाती

घर अंगना एक दीप जला ले

भोर के दुल्हन का दर्शन कर

नृत्य नयन से मांग सजा ले

आधुनिकता में समाय बिता ले..........

मदिरा छोड़ के मदिरालय में

देवालय मे एक दीप जला ले

आधुनिकता मे समय बिता ले......

स्वरचित
सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज

अाधुनिकता

आधुनिकता के मोह में,

एैसे हम जकड़े की,
आधे से आधे हो गये,
अाज हमारे कपड़े ।
भरे कपड़े की थी,
संस्कृति हमारी ।
भरजरी पैठनी,
नौ वारी साडी ।
घाघरा चोली,
सलवार कमिज ।
धोती,पायजामा,
लुंगी पहने मामा ।
सुट बुट में सेठ,
लगता था अपटुडेट ।
धीरे धीरे सब जा रहा,
अब यह सुट ।
अजब गजब पहनने लगे,
हम कपडे उट-सूट ।
नव वारी बाद हुई,
नहीं है पैठनी भरजरी ।
साहबजी की मैडम पहने,
अब टू पीस कॉपेरी ।
कॉपेरी पहन कर,
लगे मॅडम प्यारी ।
आगे पीछे दुनियां देखे ,
चश्मा लगाकर सारी ।
भाईजी की,
धोती छुटी,लंगोट हुई गायब ।
पायजामा भी अब,
पैरों में जकडे ।
फाड दिया पायजामा,
बरमुडा दिया नाम ।
बरमुडा भी हो गया ,
अब पचास फिसद्दी।
पहनने लगे अब,
जांगे नुमा चड्डी ।
घुमते पहनकर,
रेल,बस,बाजार,
बाप और छोरे ।
देखने से लगे,
पुरे छिछोरे ।
आधुनिकता के मोह में,
एैसे हम जकडे,
अाधे से आधे हो गये,
आज हमारे कपडे ।

प्रदीप सहारे
प्रथम प्रस्तुति

आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में
आज जाने क्या क्या नही हम खो रहे ।।

बुराइयों के अब ऐसे एक नही
हम हजारों हजारों बीज बो रहे ।।

पूर्वजों के पुन्य प्रतापों की जो
नैया है उसे बेझिझक डुबो रहे ।।

संस्कृति सरेआम आँसू डारे
दुजी संस्कृति से तार बिंधो रहे ।।

ये आधुनिकता हमें कहाँ ला देगी
जिनको खबर है वो आज रो रहे ।।

कितनी स्वीकारोक्ति आधुनिक को हो
ज्वलन्त प्रश्न 'शिवम' ये खड़े हो रहे ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 16/11/2019
शीर्षक आधुनिक
विधा काव्य

16 नवम्बर 2019,शनिवार

अंतरीक्ष से बातें कर रहे
अब विश्व खगोलशास्त्री।
ग्रह नक्षत्र खोज रहे मिल
जाग्रत हैं सब पूरी रात्रि।

अब संचार साधन सुलभ
विश्व सम्पूर्ण मुठ्ठी में बन्द।
शिक्षा कला विस्तारित जग
रोजगार साधन अति मन्द।

आधुनिक सैन्य अस्त्र शस्त्र
आधुनिक है मानव का मन।
आधुनिकता दिखावा ज्यादा
धन दिनभर खोज रहा जन।

शल्य चिकित्सा रोग निवारण
सब आधुनिक नव साधन हैं।
कला कौशल नृत्य और संगीत
साज सज्जा नवीन वादन हैं।

स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

आज का विषय, आधुनिक,
दिन, शनिवार ,

दिनांक,16,11,2019,

कुरीतियों को त्यागकर जो चल रहे हैं प्रगति की राह में,
आधुनिक कहते उन्हें हम जो जियें विकास की चाह में।
भ्रम आधुनिकता का बिखरा हमारे चारों तरफ फिजाओं में ,
जो झलकता है हमेशा ही केशविन्यास भाषा और परिधानों में ।
ये फेर है सब सोच का नहीं रहती सत्यता इन बातों में।
संवेदना लुट जाये जहाँ पे हो अपनापन न अपनों में,
भला मिल सकेगा क्या हमें जी कर ऐसी आधुनिकता में।
हम तो पुराने ही भले थे थी एकता जब हम लोगों में ,
ईर्ष्या और द्वेष जैसी कोई भी बीमारी नहीं थी घरों में ।
हमारा आधुनिक होना जरूरी हम न विश्वास करें भेदभाव में ।
पहचान लें हम उन आँसुओं को जो छुपे अपनों की आहों में ।

स्वरचित, मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश

विषय _*आधुनिक*
विधा _ काव्य

मै भी अब आधुनिक बनना सीख रहा हूं।
आपके पीछे पीछे दौड कर सीख रहा हूं।
अभी तो केवल सनातनी संस्कार छोडे हैं
धीरे धीरे संस्कृति भी ताक में रख रहा हूं।

प्रथम प्रयास में प्रार्थना आराधना भूला हूं।
मात पिता गुरुवर प्रणाम वरिष्ठता भूला हूं।
चरण स्पर्श करने बेचारी कमर झुकती नहीं
आधुनिक सीढियां चढने में शिष्टता भूला हूं।

परिधान केशविन्यास सबकुछ बदल रहा हूं।
मैं बर्तमान परिवेश के हिसाब से चल रहा हूं।
सफाचट करा बडे बडे बाल रख सुंंन्दर सी
लंम्बी चोटियां बांधे लडकियों में मिल रहा हूं।

उसने सबकुछ दिया फिर भी नंगा हो रहा हूं।
गरीब नहीं मगर मैं मानसिक नंगा हो रहा हूं।
अच्छे कपड़े फाडकर पहनना आधुनिक शौक
इसलिए मानवी प्रगति में अधनंगा हो रहा हूं।

मै अकेला नहीं हमारी बहू बेटियां भी कम नहीं
आधुनिकता में और दो कदम आगे चल रही हैं।
दुपट्टे कहीं गधे के सींग की तरह गायब हो गये
साड़ी नहीं आधे ब्लाउज फटे जींस पहन रही हैं।

लाली लिपिस्टिक क्रीम की अकल चल रही है।
माथे पर बिंदिया नहीं लगाने की नकल चल रही है।
मांग में सिंदूर नहीं भरना वरना कुंवारी नहीं दिखेंगी
सधवा विधवा कमला विमला सब एक बन रही हैं।

स्वरचित
इंजी शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना मध्य प्रदेश

16 /11/2019
बिषय,, आधुनिक

पाश्चात्य की दौड़ में
आधुनिक के होड़ में
सर्वस्व अपना लुटा रहे
संस्कृति को भुला रहे
नहीं चाहते सिर झुकाना
टाटा वाय वाय का जमाना
श्रद्धा से हैं कोसों दूर
रहते हैं मद में चूर
उड़ा हुआ चेहरे का नूर
हैं पीछे खट्टे अंगूर
अंग्रेज़ी हावी पूरी तरह
हम पीछे होते जा रहे
रिश्तों का कोई नहीं बंधन
सूने रहने लगे आंगन
स्वतंत्रता की चाह में
रिश्तों को निपटा रहे
माँ बाप नहीं सुहाते हैं
भाई बंधु न मन को भाते हैं
प्रेम स्त्रोत सूख चुके
नाते सभी भुला रहे
भाग दौड़ के जीवन में
रातों चैन न सुकून दिन में
आज नहीं तो कल मिलेंगे
मन.को हम समझा रहे
स्वरचित,, सुषमा ब्यौहार

16.11.2019
शनिवार

विषय - “ आधुनिक “
विधा - गीत ( मुक्तक )

आधुनिक
( गीत मुक्तक )

आधुनिक समय, नया परिवेश
भरूँ जीवन में,नव संदेश
नए स्वर,नई एकता तान
करें सबके मन में प्रवेश।।

मुझे कोई रीत नहीं रखनी
किसी से प्रीत नहीं रखनी
न मैं अब हारना चाहूँ
किसी से मुझे जीत नहीं रखनी।।

न अपना, कोई पराया है
न कोई मोह, माया है
न जानूँ वैर की भाषा
नहीं कोई मुझको भाया है।।

समय ने करवट बदली है
समय की आहट बदली है
समय ने बदल लिया ख़ुद को
समय की जीवट बदली है।।

मगन मैं,मन में करूँ विस्तार
मेरा जग तक पहुँचे आकार
धरा- अम्बर, सागर पर्वत
सुनें, मधुरिम’उदार’ झंकार।

स्वरचित
डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘ उदार ‘

आधुनिक
द्वितीय प्रस्तुति
16/11/2019


हम कहते हैं कि आधुनिक हो गये।
कहां से कहां पहुंच गए।
यह सच्चाई है कि हम आगे बढ़ गये।
लेकिन कुछ पीछे भी छोड़ गये।

हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति।
जिसके बगैर हमारी पहचान खो गई।
धोती में हीं भले थे हम।
सूट-बूट में हमारी पहचान खो गई।

सब मिलकर रहते थे,
साथ में त्योहार मनाते थे।
रोटी साग में भी खुशी मिलती थी।
जो सब मिलकर खाते थे।

अब जो खाते हैं पिज्जा, नुडल्स।
उसमें वो स्वाद कहां है।
रसमलाई भी खाते जो अकेले।
उसमें वो बात कहां है।

पहुंच गए चांद, मंगल पर हम।
खोजें ग्रहों पर रहने को हम।
पर एक झोपड़ी में दस जन रहते थे।
वो खुशी कहां पायेंगे हम।

एक सवाल बनकर मुझे पूछे।
मुझसे सदा मेरा ये मन।
खुशियां थी झोपड़ी में साथ रहकर।
या खुश हैं एकाकीपन में हम।

बहुत आधुनिक हो गये।
हमसे खुद हम बिछड़ गए।
पर पिछली जिंदगी नहीं भूले हम।
भले हम चांद पर पहुंच गए।
भले हम चांद पर पहुंच गए।।

वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
स्वरचित

भावो के मोती
16/11/19

विषय आधुनिकता

आधुनिकता की दौड़ में
चलन हो गया
फाइव स्टार का
गरीबी का ग्राफ घाट रहा
अमीरी का दिखावा बढ़ा
जिंदगी बेच दी
ऑनलाइन को
सम्पूर्ण जानकारियां खोजते
गूगल में
तस्वीरों को सहेजते है
सुर्खिया बटोरने का लिए
अपलोड कर लाइक कमेंट्स
का होता है इंतजार
बिना कुछ बोले
मोबाइल पर होता है
वार्तालाप
कैसा ये चलन आजकल
बिखरते रिश्तों की
आभासी जिंदगी

स्वरचित
मीना तिवारी

शीर्षक- आधुनिक
बेशक आधुनिक बनों तुम।

मगर अपने संस्कार न तजो तुम।
वरना आधुनिकता की दौड़ में तो
आगे निकल जाओगे तुम।
मगर अपने रुह-ए-सुकूं को
बहुत पीछे छोड़ आओगे तुम।
हद से ज्यादा कोई चीज भी
अच्छी नहीं होती कभी।
संतुलन का ध्यान रखना होगा
पुरातन और आधुनिकता में।
अहितकर पुरानी रूढ़ियों को
हटाना ही श्रेयस्कर है।
नये जन हीतकर बदलाव भी
आज हर जन की जरूरत है।
देश व्यक्ति न पीछड़े इस दौड़ में
वो राह अपनानी होगी।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता की भी
लाज हमें ही बचानी होगी।

स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर
Damyanti Damyanti 
विषय_आधुनिकता |
हे वेदो वर्णित विज्ञान को विकसित कर |
पु हँचे चाँद ग्रह नक्षत्रो को खोज रहे |

हम कम नही किसी ज्ञान विज्ञान के विकास मे |
सोच थी आध्यात्मिक बदली भौतिकता मे |
नये परिवेश मे भूले नाते रिश्ते सभी |
धन लिप्सा ने लील लिया बचपन बच्चों का |
जहां था सोच पहनावा सुदंर सौरभ
अब नग्नता की ओर बढ़रहे |
वृद्धाश्रम नित नये खुल रहे |
प्रतिस्पर्धा इतनी की खोकर रह गई मानवता |
पूजा वही जाता जोफरेबी चालक हो |
आधुनिकता मे भूल गये संस्कार सभी |
धर्म क्या जानते नही ,सांप्रदायिक दंगे नित नये |
सब इसीफरेब मे जीरहे हम ही श्रेष्ठ सबसे |
ओवौ लौटो अपने सुन्दर परिवार परिवेश मे |
हम भारतीय हे न खोयेगे अपनी आन बान शान को आधुनिक परिवेश मे |
स्वरचित_ दमयंती मिश्रा

16/11/19
***

हाल आधुनिक काल का,फैशन बना शराब।
मातु पिता सँग पी रहे,देते तर्क खराब ।।

दिन भर मजदूरी करें ,पीते शाम शराब ।
पत्नी को फिर पीटते,करते जिगर खराब ।।

देते ये चेतावनी, पीना कहें ख़राब ।
ठेके पर बिकवा रही,शासन स्वयं शराब ।।

सबको गिरफ्त में लिया ,हुये नशे में चूर ।
जीवन सस्ता हो गया ,हुये सभी से दूर ।।

लोग नशीले हो रहे ,खाते गुटखा पान ।
नशा मुक्त संसार हो ,ऐसा हो अभियान।।

स्वरचित
अनिता सुधीर

आधुनिकता के इस दौर में कुछ नये चलन हो गये
ये नये दौर में सब क्या से क्या हो गये
भूल गये सब बचपन के खेल पुराने

पकड़म-पकड़ाई लुका-छुपी के खेल सब इंटरनेट मोबाइल में खो गये

दाल चावल पूरी भाजी सब पिज़्ज़ा बर्गर हो गये
स्टील की थाली अब प्लास्टिक की हो गई
खेत खलिहान बाग़ बगीचे डिस्को पार्टी क्लब हो गये
आधुनिकता की दौड़ में जाने सब किधर खो गये

लस्सी दूध दही के गिलास अब दारु गये
अपनी मातृभाषा हिंदी छोड़कर सब अंग्रेज हो गये
शर्बत के पेय अब कॉफी हो गये
पूरब को छोड़कर सब पशिचम के हो गए

आज के युग में सब भ्र्ष्टाचारी हो गए
देशी को छोड़कर सब विदेशी हो गए
माता पिता डैड मोम गए
जाने आज के आधुनिक लोग क्या से क्या हो गए .
स्वरचित :- रीता बिष्ट

16/11/2019
विषय-आधुनिक

विधा-लेख
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आधुनिक संस्कृति का आज जन जन पर प्रभाव पड़ा है। आज हम बच्चों का जन्मदिन मोमबत्ती बुझाकर मानते हैं।
केक काटकर और मोमबत्ती बुझाकर जन्म दिन मनाया जाता है।
आजकल लोग विवाह-संस्कारों और ‘पूजा-पाठ’ को शीघ्रातिशीघ्र सम्पन्न कराना चाहते हैं। सप्त पदी के वचनों और प्रतिज्ञाओं का मजाक उड़ाते हैं।
पूजा-अर्चना में धूप-दीप के स्थान पर बिजली के बल्ब जलते हैं।
मृतक के तेरह दिन शास्त्रीय विधि विधान से कौन पूरे करता है?
आज हम आयुर्वेदिक चिकित्सक पर विश्वास न करके एल्योपैथिक पद्धति से उपचार कराने में विश्वास रखते हैं।
आज अत्यधुनिकता घर-घर में घुस गई है।
प्रणाम नमस्कार हाय हेलो में परिवर्तित हो गए हैं। पाजामा-धोती नाइट सूट बन गये। माता का चरण स्पर्श माँ के चुम्बन में बदला। पब्लिक स्कूलों में ही हमें ज्ञान के दर्शन होते हैं। केक काटकर और मोमबत्ती बुझाकर बर्थ डे मनाया जाता है।
संयुक्त परिवार एकल परिवार में सिमटते जा रहे हैं।रिश्ते अपना अस्तित्व खोते जा रहे है।
अति किसी भी चीज़ की बुरी होती है अतः अभिवावकों का यह कर्तव्य है कि बच्चों को नई संस्कृति के साथ साथ सनातन सभ्यता व संस्कृति के बारे में भी परिचित कराएं।

**वंदना सोलंकी**

16/11/2019
"आधुनिक"

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आधुनिक हमारा मन हो...
तन में भारतीय परिधान रहे।

कुरीति की ना बेड़ियाँ हो....
शिक्षा को बेटी भी स्वतंत्र रहे।

संस्कार,परंपरा का मान हो..
बड़े-बुजुर्गों का सम्मान रहे।

जिस्म की ना नुमाइश हो....
इज्ज्त,आबरु की गरिमा रहे।

उन्नति के पथ पर अग्रसर हों.
प्राकृतिक सौंदर्य संरक्षित रहे

आधुनिकता ना दिखावा हो..
विचारों से हम आधुनिक बनें।

विश्व में देश का किर्तिमान हो.
भारतीयता की पहचान रहे।।

स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।

दिनांक १६/११/२०१९
शीर्षक_आधुनिक


आधुनिक बनने को हम आतुर
निकल पड़े शहर की ओर
बड़ी हवेली गाँव का छोड़
दो कमरों में सिमट गई डोर।

हरियाली से टूटा नाता
कंक्रीट के जंगल से प्यार जगा
आधुनिक वेश भूषा अपनाकर
गर्व हो आया अपने उपर।

दिखावे के जिंदगी से जब उबा मन
याद आया माँ की बातें
"आधुनिक बनना गुनाह नहीं
पर अपनी संस्कृति न भुलाये कही,
आधुनिक हम बने जरूर
पर अपनो से नही होकर दूर,

ये तो है हमारी जिम्मेदारी
अपनी संस्कृति है आगे बढ़ानी
अपनी संस्कृति अपना पहचान
इससे बढ़ता हमारा मान।

16नवम्बर19शनिवार
विषय-आधुनिक

विधा-कविता
💐💐💐💐💐💐
नपुंसक व्यवस्था के खिलाफ
तुम्हारे जिस्म में
उबलता है,मर्दाना आक्रोश
एक सौ दश डिग्री पर
बावजूद...
घोर आश्चर्य होता है
तुम्हें देखकर
चुप की साजिश का मूक समर्थन करते हुए.
तुम कैसे अभागे हो???
कि तुम्हारी जुबान में
शब्दों के जखीरा तो हैं
जिसे चबाते ही रहते हो
चुइंगम की भाँति.
न निगलते हो न
उगलते हो कभी.
बोलो,बोलो आखिर तुम
क्या चाहते हो...???
आधुनिक शिखण्डी...।।
💐💐💐💐💐💐
श्रीराम साहू अकेला


स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

विषय -आधुनिक
दिनांक 16-11- 2019
दौड़ रहे सपनों के पीछे,और अपनों से दूर जा रहे।
आधुनिकता की होड़ में,देखो अमन-चैन खो रहे।।

नहीं रहा बड़ों का सम्मान,संस्कृति को भूल रहे।
फैशन में पागल हो,कपड़े कम तन दिखा रहे।।

आधुनिकता में कुछ अच्छा,तो कुछ बुरा कर रहे।
माँ बाप रिश्ते जोड़ते,वो मोबाइल से तोड़ रहे।।

दिखावेपन में डूब,रोज पार्लर वह जा रहे।
पेट में अन्न का दाना नहीं,चेहरे को चमका रहे।।

कर्ज ले दिखावा कर, चकाचौंध में डूब रहे।
पुरखों की अमानत गिरवी रख, चैन से सो रहे।।

आधुनिकता की लालसा, मृगतृष्णा पीछे दौड़ रहे।
ऐसे लोग सब हासिल पर, सम्मान नहीं पा रहे।।

कथनी करनी में फर्क रख,ठौर कहीं ना पा रहे।
भटक रहे इधर उधर, शर्म से मुँह छिपा रहे।।

वीणा वैष्णव
कांकरोली

विषय- आधुनिक
विधा-गीत

दिनांकः 16/11/2019
शनिवार
आज के विषय पर मेरी रचना प्रस्तुति:

अब आधुनिकता आई है ।
यह सदाचार भुलाई है ।।

अब सभ्यता सब भूलकर,
अधनंगा परिवेश धरे।
है किसी का नहीं लिहाज,
मनमानी हर कोई करें ।।
सब सभ्यता भुलाई है ।
अब आधुनिकता आई है ।।

अब पश्चिम की होड़ लगी ,
निज संस्कृति भूल रहे।
रहते हिलमिल प्रेम से,
एकाकी पन में फूल रहे ।।
नहीं आपस में प्रेम समाई है ।
अब आधुनिकता आई है ।।

हम अपने पन को छोड़कर,
खुद ही सबसे बिछुड़गये ।
चाहते थे आगे जाना,
वापस पीछे चले गये ।।
ये हमको रास न आई है ।
अब आधुनिकता आई है ।।

अंधाधुंध इस दौड में,
हमने संतुलन खो दिया ।
जो थे सदा हमारे ही,
हमने उनको खो दिया ।।
हुई अब प्रीत पराई है ।
अब आधुनिकता आई है ।।

वक़्त ने करवट बदली,
दाल रोटी तो भूल गये ।
एक साथ मिलकर खाते,
बस पीजा बर्गर याद रहे ।।
एकता हमें दुहाई है ।
अब आधुनिकता आई है ।।

बातें हों मोबाइल से,
कौन किसी को याद रहे ।
मियां फैशन में गुलफाम,
नारियां बिंदि सिंदूर भूल रहे।।
सबने परंपरा भुलाई है ।
अब आधुनिकता आई है ।।

फैशन हैं अब नये नये,
माँ बाप गुरु का मान नहीं ।
सिर झुकाए नमन नहीं,
अब ऐसी सभ्यता आई है ।
अब आधुनिकता आई है ।।

परिधानों में पागल सब,
ईर्ष्या द्वेष पनप रहे ।
रिश्ते बंधु औपचारिक,
प्रेम लगाव दूर रहे ।।
यह सबसे बड़ी बुराई है ।
अब आधुनिकता आई है ।।

स्वरचित
डॉ एन एल शर्मा जयपुर' निर्भय,

दिन :- शनिवार
दिनांक :- 16/11/2019

शीर्षक :- आधुनिक

क्या हमने दहेज लेना बंद किया?
क्या नारी पर अत्याचार बंद किया?
क्या हमने भ्रष्टाचार खत्म किया?
क्या अंधविश्वास को खत्म किया?
क्या हमने बालश्रम खत्म किया?
क्या मजलूमों का शोषण बंद किया?
क्या हमने गरीबी हटाई?
क्या हमने अशिक्षा हटाई?
क्या हमारी मानसिकता विकसित हुई?
फिर कहाँ हम आधुनिक हुए?
आधुनिकता में ये सब कहाँ है?
है किसी और सभ्यता में ये सब?
आज भी अटके है हम वहीं पर...
थे हम जहाँ पर..
उल्टे हम पिछड़ रहें..
आधुनिकता का डिंडोरा पिट रहे..
भटक रहे पाश्चात्य की ओर..
जो पाश्चात्य छोड़ रहा..
उन बुराइयों को हम ग्रहण कर रहे..
सिर्फ आधुनिकता के नाम पर..
यह आधुनिकता नहीं है..
आधुनिकता है विचार बदलने में..
कुछ कर गुजरने में..
जो हो रहा बुरा समाज में..
उससे लड़ने में..
एक दूसरे सँग जीने में..
एक दूसरे का दर्द पीने में..

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश

विषय आधुनिक
विधा कविता

दिनांक 16.11.2019
दिन शनिवार

आधुनिक
💘💘💘💘

आधुनिक होने के अजी़ब से दिखावे हैं
घटते घटते अजी़ब से पहरावे हैं
जीन्स की पैन्ट थोडी़ थोडी़ फाड़ दी
और सबके आगे आधुनिकता झाड़ दी।

केश सौन्दर्य के कभी पर्याय थे
काली घटा समेटे सुन्दर अध्याय थे
कवियों की कलम के उजाले थे
छटा से भरे घने और काले थे।

आधुनिकता ने व्यँञनों को भी घेर लिया
पतले रहने के चक्कर में घी से मुँह फेर लिया
बर्गर पिजा़ में नई पीढी़ की रुचि बढ़ गई
सुन्दर खाध्य व्यवस्था चाऊमीन मैगी के हत्थे चढ़ गई।

समोसों का श्रँगार काजू किसमिस से कर दिया
सस्ती व्यवस्था को और महँगा कर दिया
अब गज़क भी चौकलेटमय हो गई
पास पडी़ चीनी गुड़ की गज़क बेचारी रो गई।

सुन्दर हिन्दी में हिंगलिश का समावेश हो गया
भाषा का सौम्य सुन्दर परिवेश खो गया
निचले स्तर के शब्द हर ओर पसर गये
अलंकृत शब्द तो शायद जैसे बिल्कुल मर गये।

स्वरचित
सुमित्रा नन्दन पन्त

दिनांक - 16/11/19
विषय - " आधुनिक '

,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
1/
फैशन में है,,,
आधुनिक हो जाना,,,
नया जमाना,,,,।
2/
आधुनिकता
शालीनता के बिना ,,
कोरा जीवन,,,,।
3/
बुरा नहीं है ,,,
आधुनिक जीवन,,,
सोच बदलो ,,,,।
4/
आधुनिकता
परिवर्तन ही है,,,
स्वीकार करें,,,।
5/
संस्कृति साथ
आधुनिक विकास
श्रेष्ठ " भारत ',,,,,,।
स्वरचित - " विमल '

आधुनिक

इतने आधुनिक
होते जा रहे है हम
भूल रहे अपने
संस्कार संस्कृति
न कोई तमीज
न ढंग की कमीज
होते जा रहे बच्चे
मनमौजी
न माँ बाप की चिंता
बस पत्नी संग मौजी

होते जा रहे
विद्यार्थी
उद्द॔डता और
अनुशासन हीन
न करते चिंता
भविष्य की
न नौकरी,
न परिवार की
करते है मौज
पिता के पैसों पर

करें स्वागत
आधुनिकता का
सही परिप्रेक्ष्य में
अपनाये
नयी तकनीक
नये विचार
बनें आधुनिक
पर न हो खंडित
हमारे संस्कार और
विचार

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल


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"अंदाज"05मई2020

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