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ब्लॉग संख्या :-531
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विषय काँच, शीशा
विधा लघु काव्य
10 अक्टूबर 2019,गुरुवार
कंचन की काया के मौहित
हर पल यह कम होती जाती।
चमकाते दमकाते नित नित
एक दिन काया धरा समाती।
जिन्हें समझें असली कौहिनूर
वे ही काँच के टूकड़े निकले।
कोई किसी का नहीं है जग में
स्वार्थ साधन हेतु सब हँसले।
दर्पण कभी झूंठ नहीं बोले
हर रहस्य उद्घाटित करता।
मन निर्मल नित दर्पण सा
जीवन नित नव रंग भरता।
शीशे जैसे रिश्ते टूट रहे
अब तो स्नेह दिखावा लगता।
नहीं है फुर्सत बात करने की
जग में मानव भगता फिरता।
स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
विधा लघु काव्य
10 अक्टूबर 2019,गुरुवार
कंचन की काया के मौहित
हर पल यह कम होती जाती।
चमकाते दमकाते नित नित
एक दिन काया धरा समाती।
जिन्हें समझें असली कौहिनूर
वे ही काँच के टूकड़े निकले।
कोई किसी का नहीं है जग में
स्वार्थ साधन हेतु सब हँसले।
दर्पण कभी झूंठ नहीं बोले
हर रहस्य उद्घाटित करता।
मन निर्मल नित दर्पण सा
जीवन नित नव रंग भरता।
शीशे जैसे रिश्ते टूट रहे
अब तो स्नेह दिखावा लगता।
नहीं है फुर्सत बात करने की
जग में मानव भगता फिरता।
स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
====
'अ़क्स ' दौनेरिया
'अ़क्स ' दौनेरिया
विधा--🌷ग़ज़ल🌷
मात्रा भार -- 17
पहला प्रयास
तुम जो यह काँच का दिल रखते
क्यों नही अपना खयाल रखते ।।
ये दुनिया है बड़ी ही जालिम
तोड़ कर दिल दूर कहीं हँसते ।।
कौन किसके साथ रोते यहाँ
यहाँ घड़ियाली आँसू ही बहते ।।
सभी मुखौटे पहने हुए हैं
होते हैं कुछ और कुछ दिखते ।।
दिल की हालत बहुत बदतर है
अक्सर दिखे यहाँ बिलखते ।।
दिल की खातिर खुदा के मिजाज़
भी हमको ठीक नही लगते ।।
जग में दिल की कीमत कब हुई
यहाँ दिमाग ही तरक्की करते ।।
एक तुम काँच का दिल लिए हो
जाने क्यों न तुम बात समझते ।।
चोट बड़ी खायी हमने 'शिवम'
एक नही दस तभी छंद लिखते ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 10/10/2019
मात्रा भार -- 17
पहला प्रयास
तुम जो यह काँच का दिल रखते
क्यों नही अपना खयाल रखते ।।
ये दुनिया है बड़ी ही जालिम
तोड़ कर दिल दूर कहीं हँसते ।।
कौन किसके साथ रोते यहाँ
यहाँ घड़ियाली आँसू ही बहते ।।
सभी मुखौटे पहने हुए हैं
होते हैं कुछ और कुछ दिखते ।।
दिल की हालत बहुत बदतर है
अक्सर दिखे यहाँ बिलखते ।।
दिल की खातिर खुदा के मिजाज़
भी हमको ठीक नही लगते ।।
जग में दिल की कीमत कब हुई
यहाँ दिमाग ही तरक्की करते ।।
एक तुम काँच का दिल लिए हो
जाने क्यों न तुम बात समझते ।।
चोट बड़ी खायी हमने 'शिवम'
एक नही दस तभी छंद लिखते ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 10/10/2019
10 /10 /2019
बिषय ,शीशा ,/काँच
दिल तोड़ देते हैं लोग काँच की तरह
आवाज नहीं हुई गिर पड़े डाल से पात की तरह
हम अपना उन्हें जान वक्त गंवाते रहे
वो हमें हँस हँस बेवकूफ बनाते रहे
भरोसे का उठाते हैं लोग नाजायज फायदा
यही रह गया है जमाने का उसूल कायदा
आज उनका नाम दिल से निकल गया
बह.गया मन का गुबार शीशा सा पिघल गया
वक्त आने पर साथ छोड़ देते हैं लोग
स्वार्थ सिद्ध करने भगवान को भी न छोड़ते हैं लोग
जिनके लिए बनाए हमनें हजारों सपने
वो और कोई नहीं थे वो अपने
स्वरचित,, सुषमा ब्यौहार
बिषय ,शीशा ,/काँच
दिल तोड़ देते हैं लोग काँच की तरह
आवाज नहीं हुई गिर पड़े डाल से पात की तरह
हम अपना उन्हें जान वक्त गंवाते रहे
वो हमें हँस हँस बेवकूफ बनाते रहे
भरोसे का उठाते हैं लोग नाजायज फायदा
यही रह गया है जमाने का उसूल कायदा
आज उनका नाम दिल से निकल गया
बह.गया मन का गुबार शीशा सा पिघल गया
वक्त आने पर साथ छोड़ देते हैं लोग
स्वार्थ सिद्ध करने भगवान को भी न छोड़ते हैं लोग
जिनके लिए बनाए हमनें हजारों सपने
वो और कोई नहीं थे वो अपने
स्वरचित,, सुषमा ब्यौहार
भावों के मोती
बिषय-शीशा
मेरे अपनों ने ही तोड़ दिया
मेरा शीशे का बना ख्वाबों का महल।
गिला क्या करें गैरों का
मेरे अपनों ने मुझे रूलाया पल-पल।।
फूल समझ जिन्हें सजाए थे
अपने जीवन के गुलदस्ते में
चुभन कांटों की मुझे देते रहे
अश्क आंखों में लिए
हर लम्हा फिर भी हम हँसते रहे।
जिनके ख्वाबों को मुकम्मल करने में
मैंने तमाम उम्र मसक्कत की
वै ही निकले मेरे अरमानों के कातिल।
जीने की अब न आरज़ू है
और ना ही मकसद कोई
बस चले जा रहे हैं ये सोचकर
शायद दिख जाए कोई रहगुजर नई।
स्वरचित- निर्माण अग्रवाल, खड़कपुर
बिषय-शीशा
मेरे अपनों ने ही तोड़ दिया
मेरा शीशे का बना ख्वाबों का महल।
गिला क्या करें गैरों का
मेरे अपनों ने मुझे रूलाया पल-पल।।
फूल समझ जिन्हें सजाए थे
अपने जीवन के गुलदस्ते में
चुभन कांटों की मुझे देते रहे
अश्क आंखों में लिए
हर लम्हा फिर भी हम हँसते रहे।
जिनके ख्वाबों को मुकम्मल करने में
मैंने तमाम उम्र मसक्कत की
वै ही निकले मेरे अरमानों के कातिल।
जीने की अब न आरज़ू है
और ना ही मकसद कोई
बस चले जा रहे हैं ये सोचकर
शायद दिख जाए कोई रहगुजर नई।
स्वरचित- निर्माण अग्रवाल, खड़कपुर
दिनांक..............10/10/2019
विषय................. काँच
विधा................... कविता
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
*****काँच *****
काँच हूँ नाजुक हूँ रखना जरा संभाल।
गिरा तो बिखर जाऊँगा ।
चुभा तो लहु पी जाऊँगा।
काँच हूँ नाजुक हूँ रखना जरा खयाल।
पिघला तो चूड़ी बन जाऊँगा।
कलाई की सुहाग बन जाऊँगा।
काँच हूँ नाजुक हूँ करना जरा दीदार।
काटा तो आइना बन जाऊँगा।
सौंदर्य का मूरत बन जाऊँगा।
काँच हूँ नाजुक हूँ करना जरा श्रृंगार।
तराशा तो नगीना बन जाऊँगा।
अँगूली का श्रृंगार बन जाऊँगा।
( स्वलिखित )
कन्हैया लाल श्रीवास
भाटापारा छ.ग.
जि.बलौदाबाजार भाटापारा
विषय................. काँच
विधा................... कविता
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
*****काँच *****
काँच हूँ नाजुक हूँ रखना जरा संभाल।
गिरा तो बिखर जाऊँगा ।
चुभा तो लहु पी जाऊँगा।
काँच हूँ नाजुक हूँ रखना जरा खयाल।
पिघला तो चूड़ी बन जाऊँगा।
कलाई की सुहाग बन जाऊँगा।
काँच हूँ नाजुक हूँ करना जरा दीदार।
काटा तो आइना बन जाऊँगा।
सौंदर्य का मूरत बन जाऊँगा।
काँच हूँ नाजुक हूँ करना जरा श्रृंगार।
तराशा तो नगीना बन जाऊँगा।
अँगूली का श्रृंगार बन जाऊँगा।
( स्वलिखित )
कन्हैया लाल श्रीवास
भाटापारा छ.ग.
जि.बलौदाबाजार भाटापारा
दिनांक-10/10/2019
विषय- काँच
काँच की चूड़ियों के टूटने से
जख्मी होती है कलाइयां ।
बेदर्द बयां करती
तन मन की रूसवाईयां।।
एक दर्द निष्प्राण करता मुझे
करुण क्रंदन हृदय करता
बेदर्द जख्म तेरा
मेरे प्राणों को हरता।
एक कील न जाने क्यों
मेरे तन मन को चुभता।।
हृदय तार झंकृत हो उठता
सिद्ध चित विकृत हो जाता।।
प्रकृति के कदाचित ऐ काले सूरज........
एक सृष्टि ,दो दृष्टि क्यों रखता
व्यथित काँच का दर्द कहता
देख प्रकृति की अनुकंपा
हमको तो उसने
दर्द दिये .............?
इतना तूने भेद किया
क्यों कहता तु कहता ...........
मेरा तो समभाव किया
उसका तो श्रृंगार किया
हृदयाघात तिरस्कार किया
रो रहा है आंगन
दीवारें चीखती है रात -दिन
खो गए रंगीन सपने
गुम हुई मेरी नादानियां
कील -कील चुभ रही
उड़न परियों की कहानियां
वो हँसी ,वो खिलखिलाहट
न जाने कहां गुम हो गई रवानियां
शो केस में दर्द पैदा करती
नादान चूड़ियों की बेचैनियां
स्वरचित...
सत्य प्रकाश सिंह केसर विद्यापीठ इंटर कॉलेज प्रयागराज
विषय- काँच
काँच की चूड़ियों के टूटने से
जख्मी होती है कलाइयां ।
बेदर्द बयां करती
तन मन की रूसवाईयां।।
एक दर्द निष्प्राण करता मुझे
करुण क्रंदन हृदय करता
बेदर्द जख्म तेरा
मेरे प्राणों को हरता।
एक कील न जाने क्यों
मेरे तन मन को चुभता।।
हृदय तार झंकृत हो उठता
सिद्ध चित विकृत हो जाता।।
प्रकृति के कदाचित ऐ काले सूरज........
एक सृष्टि ,दो दृष्टि क्यों रखता
व्यथित काँच का दर्द कहता
देख प्रकृति की अनुकंपा
हमको तो उसने
दर्द दिये .............?
इतना तूने भेद किया
क्यों कहता तु कहता ...........
मेरा तो समभाव किया
उसका तो श्रृंगार किया
हृदयाघात तिरस्कार किया
रो रहा है आंगन
दीवारें चीखती है रात -दिन
खो गए रंगीन सपने
गुम हुई मेरी नादानियां
कील -कील चुभ रही
उड़न परियों की कहानियां
वो हँसी ,वो खिलखिलाहट
न जाने कहां गुम हो गई रवानियां
शो केस में दर्द पैदा करती
नादान चूड़ियों की बेचैनियां
स्वरचित...
सत्य प्रकाश सिंह केसर विद्यापीठ इंटर कॉलेज प्रयागराज
11/10/2019
"शीशा/काँच"
################
शीशे ने घर को सजाया
सभी से आँखें चार किया
होठों पे मुस्कान दे गया
चेहरे के नूर को निखारा
सत्य से रू-ब-रू कराया
एक दिन शीशा वो टूट गया
टुकड़ा-टुकड़ा बिखर गया
और .....कुड़े में फेका गया
हाय रे !! काँच का टुकड़ा
अपनी नियती को रोता रहा।।
स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।
"शीशा/काँच"
################
शीशे ने घर को सजाया
सभी से आँखें चार किया
होठों पे मुस्कान दे गया
चेहरे के नूर को निखारा
सत्य से रू-ब-रू कराया
एक दिन शीशा वो टूट गया
टुकड़ा-टुकड़ा बिखर गया
और .....कुड़े में फेका गया
हाय रे !! काँच का टुकड़ा
अपनी नियती को रोता रहा।।
स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।
तिथि __10/10 /2019 /गुरूवार
बिषय __शीशा /कांच
विधा __गजल (मात्रा भार - 23)
कांच हमारा कहीं एक बार टूट जाऐ ।
यही हाले हृदय टूटा फिर जुड न पाऐ ।
वफादारी हम कोई निभाते रहें तो
विश्वास कभी टूटा तो कहीं जुड न पाऐ ।
शीशा ए दिल नहीं कभी तोडेंगे यारो
टुकड़े बिखरे हजारों कहीं जुड न पाऐं ।
तुम्हारे लिए बने हमय तुम हमारे लिए हो
कटे सभी जिगर से तो कहीं जुड न पाऐं ।
महल कांच के हम चाहे जितने बना लें
यह अच्छे शीशे वैसे कहीं जुड न पाऐं ।
स्वरचित
इंजी शम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म प्रदेश
जय जय श्री राम राम जी
1भा 'कांच /शीशा' गजल (मात्रा भार - 23)
10/10 /2019 /गुरूवार
बिषय __शीशा /कांच
विधा __गजल (मात्रा भार - 23)
कांच हमारा कहीं एक बार टूट जाऐ ।
यही हाले हृदय टूटा फिर जुड न पाऐ ।
वफादारी हम कोई निभाते रहें तो
विश्वास कभी टूटा तो कहीं जुड न पाऐ ।
शीशा ए दिल नहीं कभी तोडेंगे यारो
टुकड़े बिखरे हजारों कहीं जुड न पाऐं ।
तुम्हारे लिए बने हमय तुम हमारे लिए हो
कटे सभी जिगर से तो कहीं जुड न पाऐं ।
महल कांच के हम चाहे जितने बना लें
यह अच्छे शीशे वैसे कहीं जुड न पाऐं ।
स्वरचित
इंजी शम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म प्रदेश
जय जय श्री राम राम जी
1भा 'कांच /शीशा' गजल (मात्रा भार - 23)
10/10 /2019 /गुरूवार
विषय -शीशा/ कांच
दिनांक 10-10- 2019
कांच सा दिल रखोगे, तो कब तक इसे बचाओगे ।
पत्थर लिए फिरते सब, ना जाने कब टूट जाओगे।।
बिखरोगे अगर टुकड़े बन, खुद को ही चुभ जाओगे।
संभल रखना कदम, वरना निशां छोड़ जाओगे ।।
हमें नहीं था यकीन, कांच की तरह तोड़ जाओगे।
खयालों में तुम्हारे रहेंगे, सबसे दूर कर जाओगे।।
लहूधार बहने लगी, कैसे रोक पाओगे ।
दूर रहना मुझे ,वरना बदनाम कर दिए जाओगे।।
बिखरे हुए ख्वाबों को ,मुश्किल से बटोरा है।
अब तुम खामोश रहना, वरना इतिहास बन जाओगे।।
बहुत मुश्किल होगा भूलना, तुम याद बहुत आओगे।
जब जब देखूंगी शीशा, तुम उस में नजर आओगे।।
वीणा वैष्णव
कांकरोली
दिनांक 10-10- 2019
कांच सा दिल रखोगे, तो कब तक इसे बचाओगे ।
पत्थर लिए फिरते सब, ना जाने कब टूट जाओगे।।
बिखरोगे अगर टुकड़े बन, खुद को ही चुभ जाओगे।
संभल रखना कदम, वरना निशां छोड़ जाओगे ।।
हमें नहीं था यकीन, कांच की तरह तोड़ जाओगे।
खयालों में तुम्हारे रहेंगे, सबसे दूर कर जाओगे।।
लहूधार बहने लगी, कैसे रोक पाओगे ।
दूर रहना मुझे ,वरना बदनाम कर दिए जाओगे।।
बिखरे हुए ख्वाबों को ,मुश्किल से बटोरा है।
अब तुम खामोश रहना, वरना इतिहास बन जाओगे।।
बहुत मुश्किल होगा भूलना, तुम याद बहुत आओगे।
जब जब देखूंगी शीशा, तुम उस में नजर आओगे।।
वीणा वैष्णव
कांकरोली
नमन मंच
काँच
चटका जैसे काँच का सामान है
किरचों से अंतस भी लहूलुहान है
यह टुकड़े काँच के या अक्स के
इसी बात पर मचा घमासान है
घड़ी घड़ी टूटता है दिल उनका
दिल है या काँच का मर्तबान है
सजों कर रखें जो भाव उसमें
फिर से समेटना क्या आसान है
फिर दिल लगी दिल से नवल
दिल्लगी है या दिल की दुकान है
-©नवल किशोर सिंह
10-10-2019
स्वरचित
काँच
चटका जैसे काँच का सामान है
किरचों से अंतस भी लहूलुहान है
यह टुकड़े काँच के या अक्स के
इसी बात पर मचा घमासान है
घड़ी घड़ी टूटता है दिल उनका
दिल है या काँच का मर्तबान है
सजों कर रखें जो भाव उसमें
फिर से समेटना क्या आसान है
फिर दिल लगी दिल से नवल
दिल्लगी है या दिल की दुकान है
-©नवल किशोर सिंह
10-10-2019
स्वरचित
काँच
विधा-- छंद मुक्त
शीशा सिसकता हुआ
बिखरा मिला ।
पूछना ही था
एक टुकड़े में
मेरा चेहरा दिखा ।
जान गया मैं
उसकी खता ।
सच्चाई बताना
ठीक नही है
जिज्ञासा शांत हुई ।
घुमी मेरे
दिमाग की सुई ।
दे गया एक
काँच का
टुकडा़ सीख ।
मैंने याद रखी
वह तारीख ।
सच्चाई बोलने को
दी तिलांजलि ।
तब से मिली
तरक्की की गली ।
हूँ खुश मगर
रूह कहाँ खिली ।
काँच तो जैसे
रूह की ही मानता
झूठ कभी नही
वह ठानता ।
चाहे बेशक 'शिवम'
टूटना पड़े ।
काँच के कारनामे
हमने ऐसे ही पढ़े ।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 10/10/2019
विधा-- छंद मुक्त
शीशा सिसकता हुआ
बिखरा मिला ।
पूछना ही था
एक टुकड़े में
मेरा चेहरा दिखा ।
जान गया मैं
उसकी खता ।
सच्चाई बताना
ठीक नही है
जिज्ञासा शांत हुई ।
घुमी मेरे
दिमाग की सुई ।
दे गया एक
काँच का
टुकडा़ सीख ।
मैंने याद रखी
वह तारीख ।
सच्चाई बोलने को
दी तिलांजलि ।
तब से मिली
तरक्की की गली ।
हूँ खुश मगर
रूह कहाँ खिली ।
काँच तो जैसे
रूह की ही मानता
झूठ कभी नही
वह ठानता ।
चाहे बेशक 'शिवम'
टूटना पड़े ।
काँच के कारनामे
हमने ऐसे ही पढ़े ।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 10/10/2019
दिनांक-10/10/19
विषय-काँच/शीशा
विधा- हाइकु
१
अस्मत काँच
बदनामी की चोट
चटकी लाज
२
शीशा हटाए
झूठ का आवरण
असली रूप
३
बिटिया रानी
काँच की है गुड़िया
रखो सहेज
***
स्वरचित रेखा रविदत्त
विषय-काँच/शीशा
विधा- हाइकु
१
अस्मत काँच
बदनामी की चोट
चटकी लाज
२
शीशा हटाए
झूठ का आवरण
असली रूप
३
बिटिया रानी
काँच की है गुड़िया
रखो सहेज
***
स्वरचित रेखा रविदत्त
10/10/19
विषय- काँच/शीशा
विधा- लेख
इंसान दिखावे के लिए बहुत ही अच्छे काम करता है, पर वह जब भी शीशे के सामने आता है तो वो अपने सभी गुणों को देख लेता है।दुनिया उसके भले कार्यों के लिए उसकी वाही-वाही करती है और वो बहुत खुश होता है, जबकि उसकी अंतरात्मा जानती है कि उसने कौनसा कार्य किस मकसद से और किसका दिल दुखा कर किये हैं। वह खुद के लिए उस शीशे की तरह होता है , जो सच्चाई को कभी भी नही छुपा सकता।उसके सामने आते ही प्राणी अपने सभी कर्मों को पहचान जाता है और उसे अपने सामने सच्चाई का आईना नजर आता है।लेकिन वो इस सच्चाई को नकारते हुए आगे बढ़ जाता है। फिर अचानक कभी ना कभी उसका भ्रम काँच की भाँति टूट जाता है और उसका अहम् चकनाचूर हो जाता है।उस वक्त वो दूसरों की नजरों के साथ-साथ अपनी नजरों में भी गिर जाता है।इसलिए हमें अपने अंदर की कमियों को अनदेखा नही करना चाहिए। उन्हें देख कर उन्हें दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। इसी से हमारा काँच रूपी विश्वास और मन मजबूत होगा।
***
स्वरचित रेखा रविदत्त
विषय- काँच/शीशा
विधा- लेख
इंसान दिखावे के लिए बहुत ही अच्छे काम करता है, पर वह जब भी शीशे के सामने आता है तो वो अपने सभी गुणों को देख लेता है।दुनिया उसके भले कार्यों के लिए उसकी वाही-वाही करती है और वो बहुत खुश होता है, जबकि उसकी अंतरात्मा जानती है कि उसने कौनसा कार्य किस मकसद से और किसका दिल दुखा कर किये हैं। वह खुद के लिए उस शीशे की तरह होता है , जो सच्चाई को कभी भी नही छुपा सकता।उसके सामने आते ही प्राणी अपने सभी कर्मों को पहचान जाता है और उसे अपने सामने सच्चाई का आईना नजर आता है।लेकिन वो इस सच्चाई को नकारते हुए आगे बढ़ जाता है। फिर अचानक कभी ना कभी उसका भ्रम काँच की भाँति टूट जाता है और उसका अहम् चकनाचूर हो जाता है।उस वक्त वो दूसरों की नजरों के साथ-साथ अपनी नजरों में भी गिर जाता है।इसलिए हमें अपने अंदर की कमियों को अनदेखा नही करना चाहिए। उन्हें देख कर उन्हें दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। इसी से हमारा काँच रूपी विश्वास और मन मजबूत होगा।
***
स्वरचित रेखा रविदत्त
विषय_काँच
दिनांक10/10/2019
आज रिश्ते नाते काँच की मानिद |
टूटने तडकने लगेटूकडो काँच से |
फिर जुडते नही करो लाख प्रयास |
रखो इनको मजबूत सूत्र मे बांधकर |
सकुन देते डोर मे बंधे रिश्ते |
मन काँच कादर्पण सब बया करता |
अच्छाई ,बुराई सबकुछ सहेज रखो |
न मारो कटु बाण से बिखर जायेगा |
स्वरचित__दमयंती मिश्रा
दिनांक10/10/2019
आज रिश्ते नाते काँच की मानिद |
टूटने तडकने लगेटूकडो काँच से |
फिर जुडते नही करो लाख प्रयास |
रखो इनको मजबूत सूत्र मे बांधकर |
सकुन देते डोर मे बंधे रिश्ते |
मन काँच कादर्पण सब बया करता |
अच्छाई ,बुराई सबकुछ सहेज रखो |
न मारो कटु बाण से बिखर जायेगा |
स्वरचित__दमयंती मिश्रा
दिनांक 10/10/2019
विधा :हाइकु
विषय:शीशा/काँच
शीशे का दिल
चले शब्दों के तीर
भावों के घाव
शीशा दर्पण
सच्चाई का स्वागत
आत्म मंथन
काँच अस्तित्व
तपती भट्ठियों में
कीमती हीरा
काँच उद्योग
चूडी कंगना बिंदी
फर्रुखाबाद ।
काँच गिलास
मदिरा छलकत
अय्याशी व्याप्त ।
स्वरचित
नीलम श्रीवास्तव
विधा :हाइकु
विषय:शीशा/काँच
शीशे का दिल
चले शब्दों के तीर
भावों के घाव
शीशा दर्पण
सच्चाई का स्वागत
आत्म मंथन
काँच अस्तित्व
तपती भट्ठियों में
कीमती हीरा
काँच उद्योग
चूडी कंगना बिंदी
फर्रुखाबाद ।
काँच गिलास
मदिरा छलकत
अय्याशी व्याप्त ।
स्वरचित
नीलम श्रीवास्तव
विषय - काँच / शीशा
लघुकथा
दरवाजे पर हुई दस्तक से चिहूंक कर उठी अनिता , कौन होगा, क्यों आया होगा, क्या किसी को मेरी याद वापस इस देहरी तक ले आयी, तमाम उमड़ते घुमड़ते सवालों के संग स्वयं को संभालती, लगभग भागती हुई किवाड खोलने पहुँची ।सामने डाकिया खड़ा था, हाथ में बड़ा लिफाफा लिए ।
लिफाफा थामते अनिता के हाथ कांपने लगे, कभी मुस्काती कभी अनहोनी आशंका से भयभीत होती ।
जैसे तैसे लिफाफा खोला , मुँह चिढ़ाती कुछ तस्वीरें और कहकहे लगाता एक पत्र निकला, मेरे जीवन मे तुम्हारे लिए जगह नही बची , जो कभी थी भी नही ,
अनिता सिर्फ खिलौना थी जिसे शो केस में सजा कर रखा गया था अब नये चमचमाते खिलौने ने वो जगह ले ली ।
और एक झटके में छन से टूट कर बिखर गयी काँच की हरी चूड़ियां, काँच से स्वप्न टूटे और उनकी किरचन ह्रदय में धँस गई ।
उन हरे घावों से रिसता है खून अब भी ,मुरझाए सौंदर्य से शीशा सामना नही कर पाता अब भी ।
(स्वरचित)सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
लघुकथा
दरवाजे पर हुई दस्तक से चिहूंक कर उठी अनिता , कौन होगा, क्यों आया होगा, क्या किसी को मेरी याद वापस इस देहरी तक ले आयी, तमाम उमड़ते घुमड़ते सवालों के संग स्वयं को संभालती, लगभग भागती हुई किवाड खोलने पहुँची ।सामने डाकिया खड़ा था, हाथ में बड़ा लिफाफा लिए ।
लिफाफा थामते अनिता के हाथ कांपने लगे, कभी मुस्काती कभी अनहोनी आशंका से भयभीत होती ।
जैसे तैसे लिफाफा खोला , मुँह चिढ़ाती कुछ तस्वीरें और कहकहे लगाता एक पत्र निकला, मेरे जीवन मे तुम्हारे लिए जगह नही बची , जो कभी थी भी नही ,
अनिता सिर्फ खिलौना थी जिसे शो केस में सजा कर रखा गया था अब नये चमचमाते खिलौने ने वो जगह ले ली ।
और एक झटके में छन से टूट कर बिखर गयी काँच की हरी चूड़ियां, काँच से स्वप्न टूटे और उनकी किरचन ह्रदय में धँस गई ।
उन हरे घावों से रिसता है खून अब भी ,मुरझाए सौंदर्य से शीशा सामना नही कर पाता अब भी ।
(स्वरचित)सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
"आईना"
बन-ठन के
इतरता है तू
आईने के सामने
क्या रज़ा पूछी है कभी
आइने से
तेरी औकात क्या है?
उसकी नजर में
पूछा आईने से जब मैंने
आईना बोला-
जवाब क्या दूँ मैं
दिल चूर-चूर हो जाएगा तेरा
डरता हूँ मैं तुझसे
तभी तो झूठ बोलकर
हर रोज खुद को
बचा लेता हूँ मैं
चूर-चूर होने से
राकेशकुमार जैनबन्धु
गाँव-रिसालियाखेड़ा, सिरसा
हरियाणा
बन-ठन के
इतरता है तू
आईने के सामने
क्या रज़ा पूछी है कभी
आइने से
तेरी औकात क्या है?
उसकी नजर में
पूछा आईने से जब मैंने
आईना बोला-
जवाब क्या दूँ मैं
दिल चूर-चूर हो जाएगा तेरा
डरता हूँ मैं तुझसे
तभी तो झूठ बोलकर
हर रोज खुद को
बचा लेता हूँ मैं
चूर-चूर होने से
राकेशकुमार जैनबन्धु
गाँव-रिसालियाखेड़ा, सिरसा
हरियाणा
तिथि __10/10/2019 /गुरूवार
बिषय. कांच/शीशा
विधा __काव्य(अतुकांत )
शीशा टूटा
क्या तुम्हारा
दिल पसीजा नहीं न क्यों कि
हमारी तुम्हारी
संवेदनाऐ मर गई हैं
भावनाएं कुत्सित हो गई हैं
तभी तो हमें
टूटते तड़पते दिल
बिखरते कांच के टुकडों की तरह
दिखाई नहीं देते
हम अपने मनमंदिर में नहीं झांकते
ईश्वर की रचनाओं को नहीं
पत्थर में भगवान ढूंढते हैं
मां बाप मर जाऐं
तब उन्हें पूजते हैं.।
स्वरचित
इंजी शम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म प्रदेश
जय जय श्री राम राम जी
2भा शीशा /कांच(अतुकांत )
10/10/2019 /गुरूवार
बिषय. कांच/शीशा
विधा __काव्य(अतुकांत )
शीशा टूटा
क्या तुम्हारा
दिल पसीजा नहीं न क्यों कि
हमारी तुम्हारी
संवेदनाऐ मर गई हैं
भावनाएं कुत्सित हो गई हैं
तभी तो हमें
टूटते तड़पते दिल
बिखरते कांच के टुकडों की तरह
दिखाई नहीं देते
हम अपने मनमंदिर में नहीं झांकते
ईश्वर की रचनाओं को नहीं
पत्थर में भगवान ढूंढते हैं
मां बाप मर जाऐं
तब उन्हें पूजते हैं.।
स्वरचित
इंजी शम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म प्रदेश
जय जय श्री राम राम जी
2भा शीशा /कांच(अतुकांत )
10/10/2019 /गुरूवार
विषय - शीशा / काँच
क्षणिका
1
काँच की किरचें
नोंचतीं हैं नयन
लहू से गीले स्वप्न
दुखों का बगीचा
हुआ हराभरा ।
2
हीरे सी चमकी
प्रीत की अंगूठी
हुआ अंधेरा
रूठ गई परछाई
अंगूठी में जड़े
काँच के टुकड़े
हँस पड़े ।
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
क्षणिका
1
काँच की किरचें
नोंचतीं हैं नयन
लहू से गीले स्वप्न
दुखों का बगीचा
हुआ हराभरा ।
2
हीरे सी चमकी
प्रीत की अंगूठी
हुआ अंधेरा
रूठ गई परछाई
अंगूठी में जड़े
काँच के टुकड़े
हँस पड़े ।
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
10/10/19
विषय-कांच, शीशा ,(दर्पण)
मन दर्पण में झांक ले मनवा
सब कुछ सच दिख जायेगा
अंतर के सब भेद तेरे
इक इक सामने आयेगा
क्या है तूं औऱ क्या दिखता है
सारे भरम भगायेगा
भला किया सो बार दिखाया
बुरा तूं कैसे छिपायेगा
तेरे मन का ठग
आज नही ठग पायेगा
सच की गठरी खुल जायेगी
तो झूठ कहां बच पायेगा
तेरे अंदर देव है
दानव भी तेरे अंदर है
चाहे तो सब शुद्धि करले
तू इंसा बन जायेगा
मन दर्पण ........
स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
विषय-कांच, शीशा ,(दर्पण)
मन दर्पण में झांक ले मनवा
सब कुछ सच दिख जायेगा
अंतर के सब भेद तेरे
इक इक सामने आयेगा
क्या है तूं औऱ क्या दिखता है
सारे भरम भगायेगा
भला किया सो बार दिखाया
बुरा तूं कैसे छिपायेगा
तेरे मन का ठग
आज नही ठग पायेगा
सच की गठरी खुल जायेगी
तो झूठ कहां बच पायेगा
तेरे अंदर देव है
दानव भी तेरे अंदर है
चाहे तो सब शुद्धि करले
तू इंसा बन जायेगा
मन दर्पण ........
स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
काँच/ शीशा
छंदमुक्त कविता
टूट कर भी
काँच
दिखाता है
चेहरे अनेक
भले ही छिपाये
इन्सान
अपने चेहरे
शीशा
दिखा देता है
चेहरा असली
शीशा
चाह रहा था
कहना दास्ताँ
उनकी पर
घूंघट ने
रोक दी
ख्वाहिश उसकी
है काँच
संवेदनशील इतना
सुख दुःख का
बनता है साथी
सब का
कठोर भी
है इतना
काट दे तो
बहा देता है
खून ही खून
और क्या कहे
दास्ताँ
शीशा तेरी
झूठ कभी
बोलता नहीं यह
कह देता है
"संतोष "
सच ही सच
जिसका
जैसा चेहरा
वैसा उसका सेहरा
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
छंदमुक्त कविता
टूट कर भी
काँच
दिखाता है
चेहरे अनेक
भले ही छिपाये
इन्सान
अपने चेहरे
शीशा
दिखा देता है
चेहरा असली
शीशा
चाह रहा था
कहना दास्ताँ
उनकी पर
घूंघट ने
रोक दी
ख्वाहिश उसकी
है काँच
संवेदनशील इतना
सुख दुःख का
बनता है साथी
सब का
कठोर भी
है इतना
काट दे तो
बहा देता है
खून ही खून
और क्या कहे
दास्ताँ
शीशा तेरी
झूठ कभी
बोलता नहीं यह
कह देता है
"संतोष "
सच ही सच
जिसका
जैसा चेहरा
वैसा उसका सेहरा
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल