Monday, October 14

"स्वतंत्र लेखन"" 29 सितम्बर 2019

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ब्लॉग संख्या :-520
भावों के मोती दिनांक 29/9/19
स्वपसंद


लघुकथा विधा
देह दान

रामलाल आईसीयू के बिस्तर पर पड़े कभी थोडी चेतना आने पर यहाँ वहाँ देखने लगते और उनके पास खड़े छोटे भाई देवीलाल से पूछते :
" बिट्टू आ गया ? "
तब वह कहते :
" भाईसाहब बिट्टू को खबर कर दी है , उसने कहा है अगली फ़्लाईट से आ रहा है ।"
इसके बाद रामलाल फिर अतीत के झौंके में चले जाते ।
" बिट्टू के जन्म के समय बड़ी विकट हालत हो गयी थी , डाक्टर का कहना था , माँ और बच्चे में से कोई एक ही बच पायेगा । तब रामलाल ने हालातों को भगवान पर छोड़ दिया था । अब बिट्टू तो बच गया था लेकिन उनकी जीवनसाथी रंजना चली गयी थी ।
कई लोगों ने सलाह दी दूसरी शादी कर लो बिट्टू की देखभाल हो जाएगी । लेकिन रामलाल, रंजना के अलावा किसी के बारे में सोच भी नहीं सकते थे ।
डाक्टर की सलाह पर उन्होंने खुद ही बिट्टू की परवरिश की थी और कहीं कोई कमी नहीं छोडी थी ।
बिट्टू अच्छी पढाई करके विदेश चला गया वहीं उसने अपनी पसंद की लड़की से शादी भी कर ली थी ।
बेटे की खुशी में रामलाल भी खुश थे ।
समय गुजरता जा रहा था । दो तीन साल में बिट्टू कभी अकेला तो कभी बहू बच्चों के साथ आ जाता था थोड़े दिन हँसी खुशी से कट जाते ।
धीरे धीरे अंतराल बढता गया और अब तो बहुत लम्बे से नहीं आया था । इस बीच रामलाल की तबियत बिगड़ गयी और वह आईसीयू में भर्ती हो गये ।
इस बीच रामलाल की तंत्रा भंग हुई और आसपास देखा कोई नहीं था । बाहर से कुछ अस्पष्ट आवाजें आ
रही थी ।
" देवीलाल कह रहे थे :
" डाक्टर कह रहे थे : " भाईसाहब की हालत ठीक नहीं शायद ही रात गुजरे , बिट्टू को यह बता दिया है लेकिन वह कह रहा है :
" चाचा जी सब फ़्लाईट भरी हैं , मैं नही आ पाऊंगा आप पिताजी का संस्कार कर देना मैं पैसे आपको भेज दूंगा। "
जबकि वास्तविकता रामलाल समझ रहे थे ।
देवीलाल की पत्नी कह रही थी :
" बिट्टू की करनी हम भुगते , वह जानबूझकर नहीं आ रहा है ।"
रामलाल अब तक सब समझ चुके थे । जब उनका बेटा साथ नहीं दे रहा तब बाकी लोग भी कट रहे थे । रामलाल की आती जाती याददाश्त कमजोर होती जा रही थी और शरीर मन सब साथ छोड़ रहा था।
रात को डाक्टर आये ।
रामलाल ने धीरे धीरे बुदबुदाते हुए कहा :
" मैं मरने के बाद अपने शरीर को किसी पर बोझ नही डालना चाहता , मैं स्वेच्छा से अपने देहान्त के बाद अपनी देह दान कर रहा हूँ ।"

देह दान का निर्णय रामलाल ने हालातों को देखते हुए लिया था । लेकिन बिट्टू और देवीलाल खुश थे , वह दाह संस्कार की लम्बी प्रक्रिया से मुक्त हो गये थे ।

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
विधा काव्य
29 सितम्बर,2019 रविवार

गौरवशाली अतीत भव्य
जो जग में सबसे न्यारा ।
सारा जग परिवार प्रिय
भारत जग सबका प्यारा ।

यह गौतम् गाँधी की धरती
राम कृष्ण यंही पर खेले।
सराहनीय है संस्कृति पावन
त्यौहारों पर लगते मेले।

सत्य अहिंसा परमोधर्म है
विभिन्नता में बसे एकता।
सर्वे भवन्तु जग सुखी हो
महा विद्वान जन्मे हैं वक्ता।

सरयू पाप प्रक्षालन करती
शस्यश्यामल वसुधा पावन।
सूर्य चाँद गगन पर शौभित
हिमगिरि है प्रिय मन भावन।

सौभाग्य पाया है सबने
भारत माँ के तनय सभी।
ऋण उऋण नहीं हो सकते
ममता भूल न पावैं कभी।

माँ भारती तुम अति धन्य
भरण पौषण सबका करती।
सब जीवों का आश्रय स्थल
सब विपदा को माता हरती।

स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

सादर मंच को समर्पित -

🌹 गीतिका 🌹
🍋 नवरात्रि 🍋
🌺🌻 छंद- गीतिका 🌻🌺
मापनी-2122 , 2122 , 2122 , 212
समान्त-आर, पदांत-माँ
***********************
🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵

आज पूजा अर्चना को कीजिए स्वीकार माँ ।
एक ही मुझको सहारा ,दिजिए नित प्यार माँ ।।

क्या करें अर्पण तुझे हम, तुच्छ आपकी शान में ,
भाव लाये हैं हृदय से अश्रुपूरित धार माँ ।

शक्तिरूपा देवि है तू , खड्गधारी चण्डिका ,
दैत्य आतंकी मिटा ,कर शान्ति का उपकार माँ ।

हो गये हैं आज भी कुछ असुर पैदा देश में ,
पाप , अत्याचार पर बरसाइये तलवार माँ ।

तू महामाया व अम्बे , शारदे कमलासिनी ,
शैलजा है चन्र्दघंटा , वैष्णवी जगतार माँ ।

अन्नपूर्णा नित महालक्ष्मी मही मंशा बनी ,
भारती नव राष्ट्र का भर दो महा भण्डार माँ ।

मात नव झनकार दे , गूँजे स्वरों की रागिनी ,
लेखनी सत पथ बहे , नव गीत हों गुंजार माँ ।

।। भूला खुशी हुआ दुखी ।।😀

मजा दे गया नमक के संग कभी खीरा
स्त रहने का ढूढ़ें हम सदा ज़खीरा ।।

मस्ती क्या काजू बादामों में ही होय
नमक के संग रोटी खा गाय फ़क़ीरा ।।

हर मस्ती मन में समायी जानो भी
बाहर की मस्ती क्षणिक देती पीड़ा ।।

भौतिक मस्ती में समायी दुनिया देखो
कामी क्रोधी लोभी रहा न अब हीरा ।।

बर्गर पीज्जा क्या नही माँगे बबलू अब
नाचा करे नंदू पाय जब गुड़ का *ढींड़ा।।

चटनी संग रोटी कभी खाय खेत में
अब तरकारी न भाय ग़र खाली जीरा ।।

दरी बिछाकर चबूतरे पर सो जाना
नही डराया मच्छर न डराया कीड़ा ।।

क्या खुशी देखी वो कीर्तन की हमने
बैठ सब संग बजाया करे थे मजीरा ।।

आज चिंटू बाहर ग़र हँसा जरा जो
चिंऊटी ले मम्मी कहे फूटे तकदीरा ।।

कैसे खानदान की मैं कहाँ आयी
बाप पर गया वही दिमाग शरीरा ।।

क्या मिला आखिर इस सोच से 'शिवम'
कुण्ठा ने घेरा सबकी आँख में नीरा ।।

गुड़ का ढींड़ा - गुड़ का टुकड़ा

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 29/09/2019


दिनांक-29/09/2019

स्वतंत्र सृजन

मिट्टी ,चांदी का मुकुट...... किसान स्वर्ग का सम्राट

मिट्टी चांँदी का मुकुट पहने
अपने यौवन पर इठलाती है
मरघट की ठंडी बुझी राख
गुबार धुएं में सुलग जाती है
हां मिट्टी की वो अबोध मूरतें
गरूर क्यों इतना इतराती हैं
अंग-अंग में कसक भरी है
मृत होते इंदु की बेदर्दी सूरतें
मंद-मंद क्यों मुस्कुराती हैं
समय के ऐ काले सूरज
तुम मेरा शंखनाद सुनो
गवाह है अंबर के दहकते शोले
चीरते तिमिर का हुंकार सुनो
उपासना में बसी है वासना
कुपोषण का संस्कार सुनो
परछाई के ऐ काले सूरज
मेरा होता पल-पल तिरस्कार सुनो

स्वरचित.....
सत्य प्रकाश सिंह केसर विद्यापीठ इंटर कॉलेज प्रयागराज

29/09/19
"बदलेगी तक़दीर"

दोहावली
***
आराधन "माँ" का करें, दूर करेंगी पीर।
शुद्ध चित से भक्ति करें ,बदलेगी तकदीर।।

कर्मभूमि संसार ये,रखिये मन में धीर।
सत्य राह जो पग बढ़ें ,बदलेगी तकदीर ।।

संतति धन के लोभ में ,बाँट रही जागीर ।
मातु पिता आशीष से, बदलेगी तक़दीर ।।

अलग रहें जो भीड़ से ,खींचें बड़ी लकीर।
आयेगा दिन एक वो, बदलेगी तक़दीर ।।

उन्नत होगा देश जो , हो उद्योग कुटीर।
खुशहाली घर घर बढ़े,बदलेगी तक़दीर ।।

स्वरचित
अनिता सुधीर

जय माँ भवानी
नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं व बधाइयाँ
स्वतंत्र लेखन

*****
नमन मंच
"सोपान "साहित्यिक संस्था
नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं
सभी मित्रों को,,
28-9-2019
स्वतंत्र लेखन
(रविवासरीय )
************
आनंदवर्धक आधार छंद में *गीतिका*
÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷
2 1 22 ,2122 ,2122 ,212=( मात्रिक)
मात्रा पतन रहित,,
"जय भवानी"
🌺🌿🌺🌿🌺🌿🌺🌿🌺🌿🌺🌿🌺
************************************
जय भवानी माॅ शिवानी, हम शरण में आ गए ।
साधना के पल सुकोमल,मन-कमल महका गए ।।
~~
जब तुम्हारे नेह की जोती जली,,,,,मन प्राण में,
पल लगा माँ ,ज्यों हृदय पे, नेह-जल बरसा गए।।
~~
जब हुआ मन प्राण आकुल,जिंदगी की राह में,
माॅ,! तुम्हारा प्रेम पाकर, ,,,,भक्ति के क्षण भा गए।।
~~
कंटकों में,दुर्गमों में, ,,,,जब फंसे मझधार में ,
मातु की पाई कृपा, ,,,,,,हम मंजिलों को पा गए।।
~~
माँ ! हमारी प्रेम की "वीणा" बजी,,सुरताल मय
भूल कर जीवन व्यथा ,,,,शरणम् तुम्हारी आ गए।।
~~
************************************
🌺🌿🌺🌿🌺🌿🌺🌿🌺🌿🌺🌿🌺
ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
#स्वरचित सर्वाधिकार #सुरक्षित (गाजियाबाद)

दिनांक-20/09/2019

" मैया शेरोवाली"

करती शेरो की सवारी ,
मैया अष्टभुजाओं वाली ।
भरती सबकी झोली खाली,
ओ मैया मेरी शेरोवाली ।

ममतामयी करुणावाली हो ,
दुष्टों के लिए चंडिका काली हो।
अंधकार में तुम ही प्रकाश हो ,
ज्ञानियों के ज्ञान का भंडार हो।

जो भी तेरे दर पर आता ,
भक्ति भावना से भर है जाता।
सच्चे मन से सर को झुकाता,
मनवांछित फल तुझसे पाता।

प्रेम भाव से जो तुझको बुलाए ,
एक पल भी तू रुक नही पाए।
झट बच्चो के पास दौड़ी आए,
सारे कष्टों को दूर भगाए ।

कोई बच्ची ना कोख में मारी जाय,
ना कोई भी जिंदा जलायी जाय ।
लाज किसी की ना लुटने पाये ,
दरिन्दगो की दरिन्दगी से बचाये।

सबको सद्बुद्धि तुम दे देना ,
बस इतनी अर्ज मेरी सुन लेना।
सुख , शांति देने वाली ,
ओ मैया मेरी शेरोवाली ।

शशि कुशवाहा
मौलिक एवं स्वरचित

तिथि - - - - - 29/9 /2019 /रविवार
बिषय - - - # बोझा ढोती छोटी बिटिया #

विधा - - - - गीत ( मात्रा भार 16+11=27)
एक प्रयास मात्र

झर झर झरें अश्रु बिटिया के, करती करूण पुकार ।
थकती रहती बोझा ढोती, मात पिता बीमार ।
============≠============
दिखे सांवली सूरत इसकी, बोलें मोटे नयन ।
कुछ अधकटे केश से लगते, अंगिया हरित बसन ।
टपक रहे क्यूं इसके आंसू, दिखती कुछ लाचार ।
नहीं समझता कुछ समाज ये, बस करता दीदार ।
झर झर----------
===============================
बंधी पोटली. रखी सिर पर, सत्य गरीबी झांके ।
लालन पालन सबका करती, खुद करेगी फांके ।
मानवीयता दिखे न अपनी, कहते हमें धिक्कार ।
शासन कहां कहां तक देखे, सभी करें स्वीकार ।
झर झर------------
===============================

बेवस है बेचारी बिटिया, अपनी किश्मत रोती.।
कभी राह पर गिरती पडती, विस्मित बोझा ढोती ।
जीवन तो जीना ही होगा, सोचे करे बिचार ।
कटे जिंदगी सारी कैसे, झगड़ालू संसार ।
===============================
झर झर झरें अश्रु बिटिया के, करती करूण पुकार ।
थकती रहती बोझा ढोती, मात- पिता बीमार ।
======

स्वरचित :::
इंजी शम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म प्रदेश
जय जय श्री राम राम जी
94257-62471

#बोझा ढोती छोटी बिटिया #*गीत*
(मात्रा भार 16+11=27)
29/9 /2019 /रविवार


भावों के मोती
विषय- स्वतंत्र लेखन

विधा-लघुकथा
================
अरे माई तुम फिर यहाँ आकर बैठ गई,सुबह-सुबह से कोई काम-धाम नही है क्या ?
तारा कुछ नहीं बोली चुपचाप मंदिर की सीढ़ियों पर एक कोने में सिमटकर बैठ गई, पिछले आठ सालों से रोज का नियम था तारा का सुबह सुर्योदय से लेकर रात की हलचल बंद होने तक यहीं बैठी रहती थी।
कभी किसी से कुछ भी नहीं माँगती,किसी ने कुछ खाने को दे दिया तो खा लिया नहीं तो चुपचाप बैठी रहती थी। मंदिर की सीढ़ियों के पास ही दीना की छोटी-सी दुकान थी।
कितनी बार कहा है थोड़ा आराम किया कर,क्या रोज सुबह से शरीर को कष्ट देती हो, दीना ने बड़बड़ाते हुए दुकान खोली, और एक दोने में मिठाई और एक गिलास पानी तारा को देकर दुकान में काम करने लगा, पूजा की सामग्री और प्रसाद बेचा करता था।
बड़बोला था दीना पर दयालू इंसान था,आठ साल पहले तारा को उसके बेटे ने उसकी दुकान पर बैठाकर कहा था"भैया माँ को देखना में अभी थोड़ी देर में आता हूँ"तब से आठ साल हो गए वो ऐसा गया कि लौटकर ही नहीं आया।
शायद बेटे पर बोझ बन गई थी तारा, इसलिए छोड़ गया,या फिर किसी दुर्घटना का शिकार... तारा बोलने में असमर्थ थी,बता ही नहीं पाई कहाँ से आई है।
रात हो गई थी, दुकानों के बंद होने का समय हो गया था, जब बेटा नहीं आया तो फूट-फूटकर रोने लगी तारा, दीना अपने चार बच्चों और पत्नी के साथ एक छोटे से झोपड़े में रहता था,रात को तो तारा को घर ले गया।
जगह की कमी के कारण दूसरे दिन मंदिर के पुजारी से जुगाड़ लगाकर तारा के रहने के लिए धर्मशाला के एक कोने में रहने की व्यवस्था करवा दी थी।
तबसे तारा रात को मंदिर की धर्मशाला में सो जाती,रोज सुबह इस उम्मीद के साथ मंदिर में आ बैठती,आँखों से बहते आँसू पोछ्ती,शायद आज उसे लेने आएगा उसके कलेजे का टुकड़ा उसका नंदू।
इन आठ सालों में दीना ही कभी झिड़क के तो कभी प्यार से उसकी देखभाल कर रहा, खाने से लेकर दवा का खर्चा सब अपनी जेब से।
कोई इस बारे में कुछ कहता तो हँसकर कहता, पिछले जन्म का कोई कर्जा बाकी है, वही लेने माई मेरे पास आई है,तारा कुछ समझ नहीं पाती बस मुस्कुरा देती।
मन ही मन दीना को ढेरों आशीर्वाद देती, एक वही तो सहारा है परदेश में उसका जिसके सहारे ज़िंदगी काट रही थी तारा,बेटे की आस लिए तारा फिर से एक ठँडी साँस भरकर नजरें सड़क पर टिका लेती। आते-जाते लोगों में बेटे को खोजने लगती।
***अनुराधा चौहान***स्वरचित 

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