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ब्लॉग संख्या :-517
दिनांक:26.09.2019
विधा:पद छंदबद्ध कविता
विषय:स्वेद
✌️✌️✌️ पसीना बहा कर देखो ✌️✌️✌️
करो मेहनत पर विश्वास , पसीना बहाकर देखो।
डरो मत आगे जीत है,एक कदम बढ़ा कर देखो।।
मजदूर हथौड़े से , तोड़ता पत्थर भारी - भारी ।
एक - एक करके चोट , वह मारता बारी बारी ।।
ऊफ की आवाज जुबां से बाहर नहीं आती ।
जितनी भी चोटें लगी , कोई बेकार नहीं जाती ।।
हाथों में कितने छाले , कुछ ज्ञान नहीं उसको।
बस तोड़ना पत्थर और कुछ ध्यान नहीं उसको।।
आज से करो कड़ा संकल्प,हथोड़ा उठा कर देखो।
डरो मत आगे जीत है , एक कदम बढ़ाकर देखो।।
लंबी दौड़ का धावक , देखकर दूरी नहीं डरता ।
जब मन में न विश्वास ,दौड़ वह पूरी नहीं करता ।।
वह कभी आगे , कभी पीछे , गुजरे ऐसे दौर से ।
दुगना जोश भर जाता है , तालियों के शोर से।।
वह थककर चकनाचूर , हौसला हारता नहीं ।
आखरी साँस व कदम तक ,हार स्वीकारता नहीं।।
तुम भरकर रगों में जोश , मैदान में आकर देखो ।
डरो मत आगे जीत है,एक कदम बढ़ाकर देखो।।
तुम आलस , आराम , छोड़कर अभ्यास करो ।
मुश्किल कुछ भी नहीं , निरंतर प्रयास करो।।
जब बूंद - बूंद डालने से मटका भर जाता है ।
एक रस्सा भी पत्थर में गड्ढा कर जाता है।।
मेहनत और संघर्ष , लक्ष्य प्राप्ति का रस्ता ।
संकल्प और लगन से जो हो जाता सस्ता ।।
करो खुद को तैयार , आराम छुड़ाकर देखो।
डरो मत आगे जीत है,एक कदम बढ़ा कर देख।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक
विधा:पद छंदबद्ध कविता
विषय:स्वेद
✌️✌️✌️ पसीना बहा कर देखो ✌️✌️✌️
करो मेहनत पर विश्वास , पसीना बहाकर देखो।
डरो मत आगे जीत है,एक कदम बढ़ा कर देखो।।
मजदूर हथौड़े से , तोड़ता पत्थर भारी - भारी ।
एक - एक करके चोट , वह मारता बारी बारी ।।
ऊफ की आवाज जुबां से बाहर नहीं आती ।
जितनी भी चोटें लगी , कोई बेकार नहीं जाती ।।
हाथों में कितने छाले , कुछ ज्ञान नहीं उसको।
बस तोड़ना पत्थर और कुछ ध्यान नहीं उसको।।
आज से करो कड़ा संकल्प,हथोड़ा उठा कर देखो।
डरो मत आगे जीत है , एक कदम बढ़ाकर देखो।।
लंबी दौड़ का धावक , देखकर दूरी नहीं डरता ।
जब मन में न विश्वास ,दौड़ वह पूरी नहीं करता ।।
वह कभी आगे , कभी पीछे , गुजरे ऐसे दौर से ।
दुगना जोश भर जाता है , तालियों के शोर से।।
वह थककर चकनाचूर , हौसला हारता नहीं ।
आखरी साँस व कदम तक ,हार स्वीकारता नहीं।।
तुम भरकर रगों में जोश , मैदान में आकर देखो ।
डरो मत आगे जीत है,एक कदम बढ़ाकर देखो।।
तुम आलस , आराम , छोड़कर अभ्यास करो ।
मुश्किल कुछ भी नहीं , निरंतर प्रयास करो।।
जब बूंद - बूंद डालने से मटका भर जाता है ।
एक रस्सा भी पत्थर में गड्ढा कर जाता है।।
मेहनत और संघर्ष , लक्ष्य प्राप्ति का रस्ता ।
संकल्प और लगन से जो हो जाता सस्ता ।।
करो खुद को तैयार , आराम छुड़ाकर देखो।
डरो मत आगे जीत है,एक कदम बढ़ा कर देख।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक
शीर्षक- स्वेद / पसीना
प्रथम प्रस्तुति
किसान ने पसीना बहाया
बेटी का ब्याह नही रचाया ।।
फसल तो अच्छी लहलहायी
पैदावार वह अच्छी लाया ।।
पर ऋण था उस पर पहले से
बेचारा उऋण नही हो पाया ।।
साहूकार तो .... साहूकार
पाई- पाई हिसाब बताया ।।
जबकि मालूम उसको भी था
बेटी जवान तरस न आया ।।
पसीना बहा कर भी कोई
दो जून की रोटी न जुटाया ।।
कोई बैठे बैठे ही अकल
भिड़ाकर अट्टालिका बनाया ।।
वाह री दुनिया 'शिवम' जब जब
सोचा इस पर आँसू बहाया ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 26/09/2019
प्रथम प्रस्तुति
किसान ने पसीना बहाया
बेटी का ब्याह नही रचाया ।।
फसल तो अच्छी लहलहायी
पैदावार वह अच्छी लाया ।।
पर ऋण था उस पर पहले से
बेचारा उऋण नही हो पाया ।।
साहूकार तो .... साहूकार
पाई- पाई हिसाब बताया ।।
जबकि मालूम उसको भी था
बेटी जवान तरस न आया ।।
पसीना बहा कर भी कोई
दो जून की रोटी न जुटाया ।।
कोई बैठे बैठे ही अकल
भिड़ाकर अट्टालिका बनाया ।।
वाह री दुनिया 'शिवम' जब जब
सोचा इस पर आँसू बहाया ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 26/09/2019
दिनांक26/09/2019
विषय- स्वेद/ पसीना
पसीने के बूंदों की आहट.......
कसक भरी है इन बूंदों मे
भीतर है सुषुप्त अकुलाहट
छक कर पीता हूं इन दुःखों को
मेरे पुतलियों में मचलती है बेचैनी
भुजाओं में है मेरे चट्टानी ताकत।।
मुख मंडल पर सदियों का संताप
पसीने से काली भीगी बूंदे विलाप
तपता सीना, तपती माथा
पसीना कहता अपनी गाथा
गर्म लू के थपेड़ों से
मस्त हवा के झोंके से
स्वेद दिखता खुशनुमा
आसमा की खुली छत में
दर्द छिपा, लबों पर हंसी
बदन से टपके स्वेद हसीना
यह चौड़े भालों का नगीना।।
मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज
विषय- स्वेद/ पसीना
पसीने के बूंदों की आहट.......
कसक भरी है इन बूंदों मे
भीतर है सुषुप्त अकुलाहट
छक कर पीता हूं इन दुःखों को
मेरे पुतलियों में मचलती है बेचैनी
भुजाओं में है मेरे चट्टानी ताकत।।
मुख मंडल पर सदियों का संताप
पसीने से काली भीगी बूंदे विलाप
तपता सीना, तपती माथा
पसीना कहता अपनी गाथा
गर्म लू के थपेड़ों से
मस्त हवा के झोंके से
स्वेद दिखता खुशनुमा
आसमा की खुली छत में
दर्द छिपा, लबों पर हंसी
बदन से टपके स्वेद हसीना
यह चौड़े भालों का नगीना।।
मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज
आज का विषय, स्वेद, पसीना
गुरुवार
2 6,9,2019
बन जाता है ये पसीना ही तो अभिमान मेरा ,
बनाये रखता है हमेशा यही तो सम्मान मेरा ।
साकार करता हूँ सदा सपनों को मैं इसके बल पर,
बहाऊँगा पसीना तभी तो पहुँचूगा मंजिल पर ।
मेहनत के बिना होता है सबका जीवन सूना,
पशु पक्षी हो या मानव लक्ष्य सभी को है छूना ।
साधन ईश्वर ने दिए मगर श्रम से ही हो उपलब्धता,
मेहनतकश पाता सब कुछ आलसी रोता रहता ।
श्रम बिन्दु छलकते हैं जब बन जाते मोती की माला ,
घूँट घूँट पीते रहते श्रमजीवी निज जीवन में प्याला ।
स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश
गुरुवार
2 6,9,2019
बन जाता है ये पसीना ही तो अभिमान मेरा ,
बनाये रखता है हमेशा यही तो सम्मान मेरा ।
साकार करता हूँ सदा सपनों को मैं इसके बल पर,
बहाऊँगा पसीना तभी तो पहुँचूगा मंजिल पर ।
मेहनत के बिना होता है सबका जीवन सूना,
पशु पक्षी हो या मानव लक्ष्य सभी को है छूना ।
साधन ईश्वर ने दिए मगर श्रम से ही हो उपलब्धता,
मेहनतकश पाता सब कुछ आलसी रोता रहता ।
श्रम बिन्दु छलकते हैं जब बन जाते मोती की माला ,
घूँट घूँट पीते रहते श्रमजीवी निज जीवन में प्याला ।
स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश
दिनांक .. 26/9/2019
विषय .. स्वेद
**********************
हम दोनों का प्यार है ऐसे, जैसे की दो नयना।
एक झुके तो दूजी झुकती, दिन हो या हो रैना॥
**
राग हूँ मै यदि तुम हो रागिनी, सुर हो मेरी लय हो,
शब्दों का माधुर्य तुम्ही से, रात हूँ मै तुम चन्दा॥
**
जीवन के हर विषम डगर पे, साथ है कदम हमारें।
धूप में निकले साथ स्वेद , पर रूके ना कदम हमारें।
**
तुम ही मेरी जीवन सरिता , जिसकी लहर रूकें ना,
भाव तेरे और मेरे एक से, जैसे हो नयन हमारें।
**
शेर हृदय के मन मन्दिर की , तुम हो शंख पखावज।
पैजनिया की रूनक-झुनक हो, पग की लाल महावर।
**
अपना मिलन धरा पे ऐसे , शतरूपा संग मनु हो,
क्षीर नीर सा मिलन हमारा, दमकें पुष्प शतावर॥
**
स्वरचित ... शेर सिंह सर्राफ
विषय .. स्वेद
**********************
हम दोनों का प्यार है ऐसे, जैसे की दो नयना।
एक झुके तो दूजी झुकती, दिन हो या हो रैना॥
**
राग हूँ मै यदि तुम हो रागिनी, सुर हो मेरी लय हो,
शब्दों का माधुर्य तुम्ही से, रात हूँ मै तुम चन्दा॥
**
जीवन के हर विषम डगर पे, साथ है कदम हमारें।
धूप में निकले साथ स्वेद , पर रूके ना कदम हमारें।
**
तुम ही मेरी जीवन सरिता , जिसकी लहर रूकें ना,
भाव तेरे और मेरे एक से, जैसे हो नयन हमारें।
**
शेर हृदय के मन मन्दिर की , तुम हो शंख पखावज।
पैजनिया की रूनक-झुनक हो, पग की लाल महावर।
**
अपना मिलन धरा पे ऐसे , शतरूपा संग मनु हो,
क्षीर नीर सा मिलन हमारा, दमकें पुष्प शतावर॥
**
स्वरचित ... शेर सिंह सर्राफ
26/9/2019
विधा-काव्य
विषय-स्वेद/पसीना
================
वो अमीर है जो
रुपया-पैसा,सुख-साधनों को
खून पसीना बहा कर जोड़ते हैं
पर्यावरण, नदी जंगल
धरा तक को खूब निचोड़ लेते हैं
दौलत के नशे में ये अभिमानी
इतना भी नहीं सोचते
कि ये अपने उत्तराधिकारियों को
कौन सी धरोहर छोड़े जा रहे हैं?
वो बेबस वो गरीब हैं जो
कूप, सरोवर,नहर खोदते हैं
हर जीव को जल देने में
निशिदिन खून-पसीना बहाते हैं
मगर स्वयं सर्वप्रथम
जल के अधिकार से वंचित हैं
वो निम्न जाति के बाशिंदे हैं
पवित्र जल को
अपवित्र कैसे कर सकते हैं?
कठिन परिश्रम करके वो कृषक
तप्त धरा में श्रमजल छलका कर
अन्न,फसल उगाते हैं
स्वार्थी नेताओं और
चाटुकारों की चतुराई के आगे
बेचारे भूखे प्यासे ही रह जाते हैं
ऊँचे महल दुमहलों में साहब
ऐशोआराम की ज़िंदगी बसर करते हैं
भूख,प्यास से क्लांत मजदूर
अनवरत स्वेद बहा कर
भरी दोपहर की घाम में झुलसते हैं
बड़ी बड़ी कंपनियों में वो दिन भर
ए सी में बैठकर कार्य किया करते हैं
साँझ ढले जिम,योग कसरत
सूर्य नमस्कार करके
विपुल श्रमजल बहाकर
निज स्वास्थ्य का भलीभांति ख्याल रखते हैं
अजी !तभी तो हम आधुनिक और अपटू डेट कहलाते हैं ।।
**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®
विधा-काव्य
विषय-स्वेद/पसीना
================
वो अमीर है जो
रुपया-पैसा,सुख-साधनों को
खून पसीना बहा कर जोड़ते हैं
पर्यावरण, नदी जंगल
धरा तक को खूब निचोड़ लेते हैं
दौलत के नशे में ये अभिमानी
इतना भी नहीं सोचते
कि ये अपने उत्तराधिकारियों को
कौन सी धरोहर छोड़े जा रहे हैं?
वो बेबस वो गरीब हैं जो
कूप, सरोवर,नहर खोदते हैं
हर जीव को जल देने में
निशिदिन खून-पसीना बहाते हैं
मगर स्वयं सर्वप्रथम
जल के अधिकार से वंचित हैं
वो निम्न जाति के बाशिंदे हैं
पवित्र जल को
अपवित्र कैसे कर सकते हैं?
कठिन परिश्रम करके वो कृषक
तप्त धरा में श्रमजल छलका कर
अन्न,फसल उगाते हैं
स्वार्थी नेताओं और
चाटुकारों की चतुराई के आगे
बेचारे भूखे प्यासे ही रह जाते हैं
ऊँचे महल दुमहलों में साहब
ऐशोआराम की ज़िंदगी बसर करते हैं
भूख,प्यास से क्लांत मजदूर
अनवरत स्वेद बहा कर
भरी दोपहर की घाम में झुलसते हैं
बड़ी बड़ी कंपनियों में वो दिन भर
ए सी में बैठकर कार्य किया करते हैं
साँझ ढले जिम,योग कसरत
सूर्य नमस्कार करके
विपुल श्रमजल बहाकर
निज स्वास्थ्य का भलीभांति ख्याल रखते हैं
अजी !तभी तो हम आधुनिक और अपटू डेट कहलाते हैं ।।
**वंदना सोलंकी**©स्वरचित®
विषय स्वेद,पसीना
विधा काव्य
26 सितम्बर 2019,गुरुवार
स्वेद कण सर्वव्यापी जग
हर विकास आधारशिला।
ऊँचे महल भव्य देवालय
देख श्रमिक का नूर खिला।
शस्यश्यामल वसुधा ऊपर
कृषक बदन से बहे पसीना।
व्यापक जीवन श्रम करते हैं
वे कहलाते कर्मवीर प्रवीना।
नदियों की जलधारा रोके
बांध बनाकर नहर खोदते ।
चट्टानों को तोड़ फोड़ कर
सड़क सरल कर उसे मोड़ते।
सदा निरंतर बहे पसीना
तरबतर बदन हो जाता।
थककर चकनाचूर हुआ
वह जीवन मधु रस पाता।
बहे पसीना मंजिल पाता
वह हँसता और हँसाता।
प्रेरक बनता वह जीवन में
मधुर गीत जीवन में गाता।
छूते श्रम से नभ के तारे
खून पसीना बदन बहाते।
धरा गिरि क्या न खोदते
श्रम बिंदु से श्रमिक नहाते।
कर्मवीर का खार पसीना
हर लक्ष्य संधारण करता।
परहित जीना उसका जीना
हर संकट साहस से हरता।
स्वरचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
विधा काव्य
26 सितम्बर 2019,गुरुवार
स्वेद कण सर्वव्यापी जग
हर विकास आधारशिला।
ऊँचे महल भव्य देवालय
देख श्रमिक का नूर खिला।
शस्यश्यामल वसुधा ऊपर
कृषक बदन से बहे पसीना।
व्यापक जीवन श्रम करते हैं
वे कहलाते कर्मवीर प्रवीना।
नदियों की जलधारा रोके
बांध बनाकर नहर खोदते ।
चट्टानों को तोड़ फोड़ कर
सड़क सरल कर उसे मोड़ते।
सदा निरंतर बहे पसीना
तरबतर बदन हो जाता।
थककर चकनाचूर हुआ
वह जीवन मधु रस पाता।
बहे पसीना मंजिल पाता
वह हँसता और हँसाता।
प्रेरक बनता वह जीवन में
मधुर गीत जीवन में गाता।
छूते श्रम से नभ के तारे
खून पसीना बदन बहाते।
धरा गिरि क्या न खोदते
श्रम बिंदु से श्रमिक नहाते।
कर्मवीर का खार पसीना
हर लक्ष्य संधारण करता।
परहित जीना उसका जीना
हर संकट साहस से हरता।
स्वरचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
दिनांक २६/९/२०१९
शीर्षक-"पसीना"
देख कर उसके माथे का पसीना
हुआ मन आह्नाद
कल तक जो था बेरोजगार
आज मिला उसे रोजगार।
उल्लास देख उसके चेहरे का
हुआ मन निहाल
कल तक अनभिज्ञ था वह
होता क्या स्वरोजगार?
आशांका था जो उसके मन में
हुआ वो निराधार
किया समीक्षा जब पुरुषार्थ का
अनुपम, अनुभव हुआ आज।
अद्वितीय सुख को पा
बदल गया व्यवहार
भटक गया था रास्ता जो
सुधर गया है आज।
बन गया अनुरागी वह
हुआ समाज में सुधार
सुधार कर कर्म अपना
किया जीवन साकार।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
शीर्षक-"पसीना"
देख कर उसके माथे का पसीना
हुआ मन आह्नाद
कल तक जो था बेरोजगार
आज मिला उसे रोजगार।
उल्लास देख उसके चेहरे का
हुआ मन निहाल
कल तक अनभिज्ञ था वह
होता क्या स्वरोजगार?
आशांका था जो उसके मन में
हुआ वो निराधार
किया समीक्षा जब पुरुषार्थ का
अनुपम, अनुभव हुआ आज।
अद्वितीय सुख को पा
बदल गया व्यवहार
भटक गया था रास्ता जो
सुधर गया है आज।
बन गया अनुरागी वह
हुआ समाज में सुधार
सुधार कर कर्म अपना
किया जीवन साकार।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
शीर्षक- स्वेद
26/9/2019
#माहिया_छंद-
जोगन दर-दर भटकी
बिछिया अटक रहे
लो लचक गई मटकी 1
ये नार नवेली है
नीर नहीं घर में
जग एक पहेली है 2
पौ है फटने वाली
क्यों तालाब पटे
है जनमत को गाली 3
पनघट जाती नारी
नीर नहीं दिखता
है सूखी फुलवारी 4
सूखी धरती फटती
स्वेद दिखे मस्तक
क्यों दुल्हन है खटती 5
लेकर चलती मटकी
नारी सारी में
लट इक-इक है लटकी 6
लट युवती सुलझाती
शूल चुभे चाहें
गगरी भरने जाती 7
शालिनी अग्रवाल
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
26/9/2019
#माहिया_छंद-
जोगन दर-दर भटकी
बिछिया अटक रहे
लो लचक गई मटकी 1
ये नार नवेली है
नीर नहीं घर में
जग एक पहेली है 2
पौ है फटने वाली
क्यों तालाब पटे
है जनमत को गाली 3
पनघट जाती नारी
नीर नहीं दिखता
है सूखी फुलवारी 4
सूखी धरती फटती
स्वेद दिखे मस्तक
क्यों दुल्हन है खटती 5
लेकर चलती मटकी
नारी सारी में
लट इक-इक है लटकी 6
लट युवती सुलझाती
शूल चुभे चाहें
गगरी भरने जाती 7
शालिनी अग्रवाल
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
दिनांक :- 26/09/2019
शीर्षक :- स्वेद/पसीना
स्वेद सिंचित धरा ये...
उपजाती रत्न माणिक से..
स्वेद पल्लवित श्रम यहाँ...
करे सृजन नित नव यहाँ...
स्वेद झरे श्रमिक तन से...
उपजे अन्न धरा स्थल से..
स्वेद श्रम का है गहना...
परिश्रमी ही इसको पहना...
स्वेद कण गिरे जहाँ-जहाँ..
उपजे मोती हीरे वहाँ-वहाँ...
स्वेद रचे सोपान उन्नति का...
ध्वस्त करे मार्ग अवनति का...
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
शीर्षक :- स्वेद/पसीना
स्वेद सिंचित धरा ये...
उपजाती रत्न माणिक से..
स्वेद पल्लवित श्रम यहाँ...
करे सृजन नित नव यहाँ...
स्वेद झरे श्रमिक तन से...
उपजे अन्न धरा स्थल से..
स्वेद श्रम का है गहना...
परिश्रमी ही इसको पहना...
स्वेद कण गिरे जहाँ-जहाँ..
उपजे मोती हीरे वहाँ-वहाँ...
स्वेद रचे सोपान उन्नति का...
ध्वस्त करे मार्ग अवनति का...
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
तिथि===26/9 /2019 /गुरूवार
बिषय ==स्वेद/पसीना
विधा==काव्य
करें परिश्रम स्वेद बहाऐं.।
इससे ही उन्नति कर पाऐं.।
करें राष्ट्रीय सेवा हमसब,
प्रगति पथ पर बढते जाऐं.।
किसान बहाकर रोज पसीना
अनाज खेतों में उपजाते हैं ।
सब जनता का पेट ये भरते,
फिर भी सुखी नहीं रह पाते हैं ।
जवान सदा सीमा पर डटकर
रक्षा हम सब की ही करते हैं ।
नहीं देखते कभी कोई मौसम,
ये सदैव राष्ट्रहित मरते हैं ।
इस देश की रीढ की हड्डी
अपने हलधर और जवान हैं ।
ये खून पसीना रोज बहाते
तभी तो भारत देश महान है ।
स्वेद रक्त कणिकाऐं अपनी
अपने देश के काम में आऐं.।
करें परिश्रम श्रमिक तभी तो
अपना गौरव मान बढाऐं ।
स्वरचित ::
इंजी शम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म प्रदेश
जय जय श्री राम राम जी
1भा #स्वेद /पसीना#काव्य
26/9 /2019 /गुरूवार
बिषय ==स्वेद/पसीना
विधा==काव्य
करें परिश्रम स्वेद बहाऐं.।
इससे ही उन्नति कर पाऐं.।
करें राष्ट्रीय सेवा हमसब,
प्रगति पथ पर बढते जाऐं.।
किसान बहाकर रोज पसीना
अनाज खेतों में उपजाते हैं ।
सब जनता का पेट ये भरते,
फिर भी सुखी नहीं रह पाते हैं ।
जवान सदा सीमा पर डटकर
रक्षा हम सब की ही करते हैं ।
नहीं देखते कभी कोई मौसम,
ये सदैव राष्ट्रहित मरते हैं ।
इस देश की रीढ की हड्डी
अपने हलधर और जवान हैं ।
ये खून पसीना रोज बहाते
तभी तो भारत देश महान है ।
स्वेद रक्त कणिकाऐं अपनी
अपने देश के काम में आऐं.।
करें परिश्रम श्रमिक तभी तो
अपना गौरव मान बढाऐं ।
स्वरचित ::
इंजी शम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म प्रदेश
जय जय श्री राम राम जी
1भा #स्वेद /पसीना#काव्य
26/9 /2019 /गुरूवार
26/09/2019
"स्वेद/पसीना"
छंदमुक्त
################
खेत है घर मेरा...
खेती है जीवन मेरा..
श्रम को मैं बोता हूँ...
स्वेद बूँद सिंचता हूँ...
बंजर भूमि में भी....
फसल उगाता हूँ......
पसीने से तर वदन मेरा..
दूनिया की खातिर...
पेट की जुगाड़ मैं करता हूँ..
खुद आधी पेट ही भर पाता हूँ
खून पसीने बहा कर ही...
ईमान की रोटी मैं खाता हूँ..।
स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।
"स्वेद/पसीना"
छंदमुक्त
################
खेत है घर मेरा...
खेती है जीवन मेरा..
श्रम को मैं बोता हूँ...
स्वेद बूँद सिंचता हूँ...
बंजर भूमि में भी....
फसल उगाता हूँ......
पसीने से तर वदन मेरा..
दूनिया की खातिर...
पेट की जुगाड़ मैं करता हूँ..
खुद आधी पेट ही भर पाता हूँ
खून पसीने बहा कर ही...
ईमान की रोटी मैं खाता हूँ..।
स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।
शीर्षक- स्वेद /पसीना
सादर मंच को समर्पित -
🌴🌻 पसीना/स्वेद 🌻🌴
**************************
🍀☀️ हाइकु ☀️🍀
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
वृक्ष मचान
खेती सुरक्षा ध्यान
चढ़ा किसान
🌹🌻
लू का न ध्यान
बहा पसीना तन
सुरक्षा भान
🌺🌴
आँख फैलाये
आवारा पशु रोके
दौड़े भगाये
🏵🌲
श्रम कठोर
अन्नदाता खटता
खेती उगाता
😱😤
नभ ताकता
दिन-रात पिसता
तर पसीना
🌻🌺
बाढ़ या सूखा
सब का पेट पाले
खुद है भूखा
🏵🍀
बहा पसीना
अथक श्रम जीना
ग़म को पीना
🌲🌻
ऊँचा मचान
भूसा बुर्जी निशान
स्वेद थकान
🌴🌹
कष्ट अपार
सही मूल्य पुकार
पसीना हार
🌻🌴☀️🌲
🍀🌷☀️🌻**....रवीन्द्र वर्मा आगरा
सादर मंच को समर्पित -
🌴🌻 पसीना/स्वेद 🌻🌴
**************************
🍀☀️ हाइकु ☀️🍀
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
वृक्ष मचान
खेती सुरक्षा ध्यान
चढ़ा किसान
🌹🌻
लू का न ध्यान
बहा पसीना तन
सुरक्षा भान
🌺🌴
आँख फैलाये
आवारा पशु रोके
दौड़े भगाये
🏵🌲
श्रम कठोर
अन्नदाता खटता
खेती उगाता
😱😤
नभ ताकता
दिन-रात पिसता
तर पसीना
🌻🌺
बाढ़ या सूखा
सब का पेट पाले
खुद है भूखा
🏵🍀
बहा पसीना
अथक श्रम जीना
ग़म को पीना
🌲🌻
ऊँचा मचान
भूसा बुर्जी निशान
स्वेद थकान
🌴🌹
कष्ट अपार
सही मूल्य पुकार
पसीना हार
🌻🌴☀️🌲
🍀🌷☀️🌻**....रवीन्द्र वर्मा आगरा
दिनाँक 26/9/2019::वीरवार
विषय-- स्वेद, पसीना
विधा- हास्य रस
भरी दुपहरी पत्नी जी जब
बना रही थी खाना
गर्मी से बेहाल कर रहा
उन्हें पसीना आना
हम भी होकर व्याकुल भूखे
बैठे करने भोजन
एक मिनट भी ऐसे लगता
पार करें ज्यूँ योजन
रोटी देती जब जब हमको
माथे पोंछ पसीना
आसमान पे अपना गुस्सा
पहुँचा तभी कमीना
छोड़ छाड़ कर तब हम भोजन
पहुँचे सीधे होटल
बड़ी शान से ऑर्डर कर दी
रोटी,बोटी, बोतल
वेटर ज्यूँ ही लेकर आया
टपकी थीं कुछ बूंदें
इसी कलह से घर से निकले
अखियाँ कैसे मूंदें
खिसक लिए चुपचाप वहाँ से
भूल गये थे पीना
इससे अच्छा था पत्नी का
माथा भरा पसीना
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली
विषय-- स्वेद, पसीना
विधा- हास्य रस
भरी दुपहरी पत्नी जी जब
बना रही थी खाना
गर्मी से बेहाल कर रहा
उन्हें पसीना आना
हम भी होकर व्याकुल भूखे
बैठे करने भोजन
एक मिनट भी ऐसे लगता
पार करें ज्यूँ योजन
रोटी देती जब जब हमको
माथे पोंछ पसीना
आसमान पे अपना गुस्सा
पहुँचा तभी कमीना
छोड़ छाड़ कर तब हम भोजन
पहुँचे सीधे होटल
बड़ी शान से ऑर्डर कर दी
रोटी,बोटी, बोतल
वेटर ज्यूँ ही लेकर आया
टपकी थीं कुछ बूंदें
इसी कलह से घर से निकले
अखियाँ कैसे मूंदें
खिसक लिए चुपचाप वहाँ से
भूल गये थे पीना
इससे अच्छा था पत्नी का
माथा भरा पसीना
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली
26/09/19
स्वेद/पसीना
**
खेतों में
धूप के समंदर में
पसीने का दरिया
बहाता किसान!
पसीना नहीं ,लहू बहता है
तब किसान आधा पेट खा कर
दूसरों का पेट भरता है ।
सड़कों पर
पसीने के आगोश में
बोझे को गले लगाता मजदूर !
अपने लहू से सींच
दूजे का महल
खुद सड़क किनारे सो जाता है।
सीमा पर
जवान धूप में
खड़ा अपना फर्ज निभाता !
अपनों की चिंता किये बिना
हमारी रक्षा में शहीद हो जाता है ।
घर में
पिता जीवन भर
परिवार के लिये
खून पसीना बहाता !
स्वयं कम में गुजारा कर
अपना जीवन होम कर जाता ।
पसीने की स्याही
से लिखता जो
अपने जीवन के कोरे पन्ने!
वो खून के आँसू नहीं
खुशियों के अश्कों से
जिंदगी भिगोया करते हैं।
स्वरचित
अनिता सुधीर
स्वेद/पसीना
**
खेतों में
धूप के समंदर में
पसीने का दरिया
बहाता किसान!
पसीना नहीं ,लहू बहता है
तब किसान आधा पेट खा कर
दूसरों का पेट भरता है ।
सड़कों पर
पसीने के आगोश में
बोझे को गले लगाता मजदूर !
अपने लहू से सींच
दूजे का महल
खुद सड़क किनारे सो जाता है।
सीमा पर
जवान धूप में
खड़ा अपना फर्ज निभाता !
अपनों की चिंता किये बिना
हमारी रक्षा में शहीद हो जाता है ।
घर में
पिता जीवन भर
परिवार के लिये
खून पसीना बहाता !
स्वयं कम में गुजारा कर
अपना जीवन होम कर जाता ।
पसीने की स्याही
से लिखता जो
अपने जीवन के कोरे पन्ने!
वो खून के आँसू नहीं
खुशियों के अश्कों से
जिंदगी भिगोया करते हैं।
स्वरचित
अनिता सुधीर
26/09/19
विषय-पसीना
तपती दुपहरी में "पसीना" सींच कर अपना
रातों को खाली पेट बस सपने सजाते हैं।
आकर हाथों की हद में सितारे छूट जाते हैं
हमेशा ख़्वाब रातों के सुबह में टूट जाते हैं।
मंजर खूब लुभाते हैं, वादियों के मगर
छूटते पटाखों से भरम बस टूट जाते हैं ।
चाहिए आसमां बस एक मुठ्ठी भर फ़कत
पास आते से नसीब बस रूठ जाते हैं ।
सदा तो देते रहे आमो ख़ास को मगर
सदाक़त के नाम पर कोरा रोना रुलाते हैं।
स्वरचित
कुसुम कोठारी।
विषय-पसीना
तपती दुपहरी में "पसीना" सींच कर अपना
रातों को खाली पेट बस सपने सजाते हैं।
आकर हाथों की हद में सितारे छूट जाते हैं
हमेशा ख़्वाब रातों के सुबह में टूट जाते हैं।
मंजर खूब लुभाते हैं, वादियों के मगर
छूटते पटाखों से भरम बस टूट जाते हैं ।
चाहिए आसमां बस एक मुठ्ठी भर फ़कत
पास आते से नसीब बस रूठ जाते हैं ।
सदा तो देते रहे आमो ख़ास को मगर
सदाक़त के नाम पर कोरा रोना रुलाते हैं।
स्वरचित
कुसुम कोठारी।
26/09/19
विषय स्वेद
विधा पिरामिड
ये
स्वेद
माणिक्य
धन धान्य
जीवन धन
श्रमिक जिन्दगी
मनुष्यता बन्दगी
ये
विश्व
विकास
सत्साहस
स्वेद कहानी
जिन्दगी सुहानी
परिश्रम निशानी
मनीष कुमार श्रीवास्तव
स्वरचित
विषय स्वेद
विधा पिरामिड
ये
स्वेद
माणिक्य
धन धान्य
जीवन धन
श्रमिक जिन्दगी
मनुष्यता बन्दगी
ये
विश्व
विकास
सत्साहस
स्वेद कहानी
जिन्दगी सुहानी
परिश्रम निशानी
मनीष कुमार श्रीवास्तव
स्वरचित
शीर्षक-श्वेद/पसीना
दि-26-9-19/गुरुवार
विधा -कविता
हमने बहाया श्वेद मातृभूमि के लिए।
हम जिए तो जिन्दगी का साज बन जिए।
हमारी सांस धूल से सनी हुई जो है।
देखते हो ये सड़क बनी हुई जो है।
खेत की मिट्टी में हमारा ही बीज है ।
पसीना बहे तो दिवाली व ईद है।
ऊँचे भवन जो बन रहे हैं इस तरफ हुजूर।
' हितैषी 'हमारे श्वेद का ही है ये नूर।
******स्वरचित*******
प्रबोध मिश्र ' हितैषी '
बड़वानी(म.प्र.)451551
दि-26-9-19/गुरुवार
विधा -कविता
हमने बहाया श्वेद मातृभूमि के लिए।
हम जिए तो जिन्दगी का साज बन जिए।
हमारी सांस धूल से सनी हुई जो है।
देखते हो ये सड़क बनी हुई जो है।
खेत की मिट्टी में हमारा ही बीज है ।
पसीना बहे तो दिवाली व ईद है।
ऊँचे भवन जो बन रहे हैं इस तरफ हुजूर।
' हितैषी 'हमारे श्वेद का ही है ये नूर।
******स्वरचित*******
प्रबोध मिश्र ' हितैषी '
बड़वानी(म.प्र.)451551
26 /9 /2019/
बिषय स्वेद,, पसीना
मोतियों के कण सा पसीना
मेहनतकश के लिए नगीना
जिसकी होती खून पसीने की कमाई
मेहनत उसी की रंग लाई
जैसे परिश्रमी होते किसान
कभी खेत में कभी खलिहान
प्राकृतिक आपदाएं झेलता किसान
कठनाइयों से खेलता किसान
लहलहाती फसल से खुश होता किसान
स्वेद बूंदों से मुख धोता किसान
चिलचिलाती धूप को सहता किसान
सादा जीवन सादा परिधान
कभी बर्षा गर्मी धूप और छांव
मन को लुभाने बाला किसानों का गाँव
स्वरचित, सुषमा, ब्यौहार
बिषय स्वेद,, पसीना
मोतियों के कण सा पसीना
मेहनतकश के लिए नगीना
जिसकी होती खून पसीने की कमाई
मेहनत उसी की रंग लाई
जैसे परिश्रमी होते किसान
कभी खेत में कभी खलिहान
प्राकृतिक आपदाएं झेलता किसान
कठनाइयों से खेलता किसान
लहलहाती फसल से खुश होता किसान
स्वेद बूंदों से मुख धोता किसान
चिलचिलाती धूप को सहता किसान
सादा जीवन सादा परिधान
कभी बर्षा गर्मी धूप और छांव
मन को लुभाने बाला किसानों का गाँव
स्वरचित, सुषमा, ब्यौहार
बिषय- स्वेद/ पसीने
ये स्वेद कण वदन के
पानी नहीं है,मोती हैं।
जो चमका देते किस्मत
जिंदगी की कसौटी है।
इन्हीं बूंदों से किसान
खेत में फसल उपजाते हैं।
इन्हीं बूंदों से जवान हमारे
देश की लाज बचाते हैं।
किमत इनकी कोई भी
कभी लगा सकता नहीं।
इन्हीं को देकर श्रमजीवी
पेट की आग बुझाते हैं।
निठल्ले निकम्मे कुछ लोग
इनको खरीदना चाहते हैं।
जब नाकाम हो जाते वो
ताकत अपनी आजमाते हैं।
ये स्वेद कण वदन के
पानी नहीं है,मोती हैं।
जो चमका देते किस्मत
जिंदगी की कसौटी है।
इन्हीं बूंदों से किसान
खेत में फसल उपजाते हैं।
इन्हीं बूंदों से जवान हमारे
देश की लाज बचाते हैं।
किमत इनकी कोई भी
कभी लगा सकता नहीं।
इन्हीं को देकर श्रमजीवी
पेट की आग बुझाते हैं।
निठल्ले निकम्मे कुछ लोग
इनको खरीदना चाहते हैं।
जब नाकाम हो जाते वो
ताकत अपनी आजमाते हैं।
विषय---पसीना
दिनांक--26/9/2019
पसीना(इंफ़िआल)
वो जो चमके पिता के भाल पर
तो उसका कर्तव्य कहलाये
लाये होंठों पर बच्चों के मुस्कान, विशाल हृदय आकाश कहलाये
हाँ मैं वही कर्तव्यों का हके-जलाल हूँ
हाँ मैं पिता का अपरिमित प्यार,मैं उसका इंफ़िआल हूँ....
वो जो बहे ढूध की धार में
असीमित ममता,बलिदान की सौगात में
हाँ मैं वही त्याग,तपस्या की बुत बेमिसाल हूँ
हाँ मैं माँ का अनगिनत प्यार,मैं उसका इंफ़िआल हूँ..
मेहनत से जिसके इमारतें गगन छू जाएं
फसलें जिसकी मेहनत से अन्न बनके पेट भर जाए
हाँ मैं वही मज़दूर, किसान का टपकता लहू अमाल हूँ
हाँ मैं मेहनतकश की मेहनत,मैं उसका इंफ़िआल हूँ....
स्वरचित
अर्पणा अग्रवाल
स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर
दिनांक--26/9/2019
पसीना(इंफ़िआल)
वो जो चमके पिता के भाल पर
तो उसका कर्तव्य कहलाये
लाये होंठों पर बच्चों के मुस्कान, विशाल हृदय आकाश कहलाये
हाँ मैं वही कर्तव्यों का हके-जलाल हूँ
हाँ मैं पिता का अपरिमित प्यार,मैं उसका इंफ़िआल हूँ....
वो जो बहे ढूध की धार में
असीमित ममता,बलिदान की सौगात में
हाँ मैं वही त्याग,तपस्या की बुत बेमिसाल हूँ
हाँ मैं माँ का अनगिनत प्यार,मैं उसका इंफ़िआल हूँ..
मेहनत से जिसके इमारतें गगन छू जाएं
फसलें जिसकी मेहनत से अन्न बनके पेट भर जाए
हाँ मैं वही मज़दूर, किसान का टपकता लहू अमाल हूँ
हाँ मैं मेहनतकश की मेहनत,मैं उसका इंफ़िआल हूँ....
स्वरचित
अर्पणा अग्रवाल
स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर
स्वेद / पसीना
सीखा है
पसीना बहाना
मैंने माँ से
न वो थकती है
न आराम करती है
बस है उसे चिंता
घर की
कई बार मैंने
मन की आँखो से
खींचे है फोटो
उसके माथे पर
उभरे स्वेद बूंदों के
है गजब का
माधुर्य
प्रेम और
ममत्व उसमें
क्यों कि
वह एक नारी है
उसका त्याग,
जिजीविषा
हम सब पर
भारी है
नमन है माँ
तुझे और
तेरे अनमोल
पसीने को
जिससे मुझे
सींचा है
कर्मठता की और
खींचा है
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
सीखा है
पसीना बहाना
मैंने माँ से
न वो थकती है
न आराम करती है
बस है उसे चिंता
घर की
कई बार मैंने
मन की आँखो से
खींचे है फोटो
उसके माथे पर
उभरे स्वेद बूंदों के
है गजब का
माधुर्य
प्रेम और
ममत्व उसमें
क्यों कि
वह एक नारी है
उसका त्याग,
जिजीविषा
हम सब पर
भारी है
नमन है माँ
तुझे और
तेरे अनमोल
पसीने को
जिससे मुझे
सींचा है
कर्मठता की और
खींचा है
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
विषय:-पसीना
विधा:-विजात छंद
1222 1222
1)))
पसीने की, कमाई है ।
नहीं काली, कमाई है ।
चमक लाती,सुखों में जो-
डगर रब की बताई है।
2)))
पसीना यूँ, बहा देता ।
शिकन माथे, नहीं लेता ।
पिता है शब्द ही ऐसा-
सभी संताप हर लेता।
3)))
लगा माथे, तिलक अपने।
सजा घर से, नये सपने ।
पसीना जो , बहा चलता ।
उसी का हर,सपन फलता ।
4)))
सुखी जीवन, वही लाता ।
पसीना जो,बहा पाता ।
नहीं थकता,कभी भी वो।
सदा आगे, बढ़ा जाता ।
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
विधा:-विजात छंद
1222 1222
1)))
पसीने की, कमाई है ।
नहीं काली, कमाई है ।
चमक लाती,सुखों में जो-
डगर रब की बताई है।
2)))
पसीना यूँ, बहा देता ।
शिकन माथे, नहीं लेता ।
पिता है शब्द ही ऐसा-
सभी संताप हर लेता।
3)))
लगा माथे, तिलक अपने।
सजा घर से, नये सपने ।
पसीना जो , बहा चलता ।
उसी का हर,सपन फलता ।
4)))
सुखी जीवन, वही लाता ।
पसीना जो,बहा पाता ।
नहीं थकता,कभी भी वो।
सदा आगे, बढ़ा जाता ।
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
विषय -पसीना
दिनांक 26-9-2019
दिन रात बहा पसीना, खेतों में अन्न उगाता है।
मेरे गाँव का किसान,अभाव में जीवन बिताता है।।
स्वयं अभाव में जी, हर घर खुशियाँ लाता है।
मौसम कैसा भी हो, वह अथक परिश्रम करता है।।
नहीं कद्र मेहनत की,अन्न व्यर्थ फेंका जाता है।
नहीं मिलती पसीने की कीमत, वह अभाव में जीता है।।
नहीं मिला प्रशस्ति पत्र, उसे अपनी मेहनत का।
मौसम भी दगा देता, खून के आँसू पीता है।।
फटे कपड़ों में भी, आत्म संतोष होता है ।
बहा पसीना काम करता,चैन की नींद सोता है।।
देख छोटे छोटे सपने, पूरा उन्हें करता है।
ईमानदारी रख, देश के विकास में हाथ बढ़ाता है ।।
वीणा वैष्णव
कांकरोली
दिनांक 26-9-2019
दिन रात बहा पसीना, खेतों में अन्न उगाता है।
मेरे गाँव का किसान,अभाव में जीवन बिताता है।।
स्वयं अभाव में जी, हर घर खुशियाँ लाता है।
मौसम कैसा भी हो, वह अथक परिश्रम करता है।।
नहीं कद्र मेहनत की,अन्न व्यर्थ फेंका जाता है।
नहीं मिलती पसीने की कीमत, वह अभाव में जीता है।।
नहीं मिला प्रशस्ति पत्र, उसे अपनी मेहनत का।
मौसम भी दगा देता, खून के आँसू पीता है।।
फटे कपड़ों में भी, आत्म संतोष होता है ।
बहा पसीना काम करता,चैन की नींद सोता है।।
देख छोटे छोटे सपने, पूरा उन्हें करता है।
ईमानदारी रख, देश के विकास में हाथ बढ़ाता है ।।
वीणा वैष्णव
कांकरोली
विषय---स्वेद, पसीना
पोंछ पसीना कहे किसान,
बिन बारिश है हाल बेहाल।
नजरें जोह रही उस पल को,
नीर गिरेगा जब बादल से।
चारों ओर है निराशा छाई,
बिन पानी नहीं होत रोपाई।
खेत है परती सूख रहा है,
भाग्य सभी का रूठ रहा है।
कभी निराई कभी गुडाई ,
मेहनत की नहीं मिले कमाई।
खून पसीना एक किया था,
लेकिन उसका न मोल मिला था।
(अशोक राय वत्स)© स्वरचित
पोंछ पसीना कहे किसान,
बिन बारिश है हाल बेहाल।
नजरें जोह रही उस पल को,
नीर गिरेगा जब बादल से।
चारों ओर है निराशा छाई,
बिन पानी नहीं होत रोपाई।
खेत है परती सूख रहा है,
भाग्य सभी का रूठ रहा है।
कभी निराई कभी गुडाई ,
मेहनत की नहीं मिले कमाई।
खून पसीना एक किया था,
लेकिन उसका न मोल मिला था।
(अशोक राय वत्स)© स्वरचित
शीर्षक- स्वेद /पसीना
सादर मंच को समर्पित -
पसीना जो बहाते हैं
उनकी कीमत नहीं कोई!
सदा मेहनत जो करते हैं
उनकी कीमत नहीं कोई!
दिनरात मजदूरी करके
पेट भी जो नहीं भर पा रहे
अपने ही स्वेद से जो दिनरात नहा रहे
जरूरते अपनी फिर भी
नहीं जुटा पा रहे!
क्षोभ होता बहुत ये देख कर,
जिनका हक है सही में, वो ही तरसते जा रहे!
नेता बैठे बिठाये AC में
रंग अपना जमा रहे,
किसे परवाह गरीबो की
जो अपना स्वेद बहा रहे।
स्वरचित ✍️कल्पना
सादर मंच को समर्पित -
पसीना जो बहाते हैं
उनकी कीमत नहीं कोई!
सदा मेहनत जो करते हैं
उनकी कीमत नहीं कोई!
दिनरात मजदूरी करके
पेट भी जो नहीं भर पा रहे
अपने ही स्वेद से जो दिनरात नहा रहे
जरूरते अपनी फिर भी
नहीं जुटा पा रहे!
क्षोभ होता बहुत ये देख कर,
जिनका हक है सही में, वो ही तरसते जा रहे!
नेता बैठे बिठाये AC में
रंग अपना जमा रहे,
किसे परवाह गरीबो की
जो अपना स्वेद बहा रहे।
स्वरचित ✍️कल्पना
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