Monday, October 14

"स्वतंत्र लेखन ""6अक्टुबर 2019

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6 /10 /2019
बिषय,, स्वतंत्र लेखन

माँ तेरे दर पर दीवाने आ गए
रुठी माल को हम मनाने आ गए
तू ही शारदा तू ही है काली माँ
अम्बे भवानी तू ही शेरों बाली माँ
दुख अपने तुमको सुनाने आ गए
तू ही माँ ममता बरसाने बाली है
तेरे दर पे आए बनकर सवाली है
दर पे झोलियां फैलाने आ गए
बड़ा ही अनुपम है तेरा द्वारा माँ
सबका ही भरती है तू भंडारा माँ
भाग्य अपना आजमाने आ गए
मेरी भी अरजी तुम सुन लेना
दुखियारी हूं कष्ट मेरे हर लेना माँ
सोई किश्मत को जगाने आ गए
द्वारे हम तेरे दीवाने आ गए
स्वरचित ,सुषमा ब्यौहार

धर्म की उपत्यका
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धर्म की उपत्यकाओं के
कगार पर टँगा छद्म आदमी
कभी आदमी नहीं होता,
वो तो बस!
होंठ हिलाता हैं छूने को
चंद मरे हुए शब्दों का स्वाद
बाहर गरदन निकल के
देखता है धर्मभीरूओं में
अंधेरे गलियारों से
गर्मरक्त आल्हाद का सार...।

निःस्तब्ध शोर और धुन्ध की
गहरी तराई से कभी
टँगा छद्म आदमी आहिस्ता से
सुबह को नकारते हुए
धर्मभीरूओं की भीड़ पर
करता हैं अक्षरों की बारिश
और...
समझाता हैं अंतिम कारण का
मतलब मोहनी मुस्कान से,
उसकी महती आँखों का ध्यान
दुनिया की पारम्परिक दीवार पे
चस्पा मृत और परित्यक्त शरीर से
उम्मीदों की रोशनी दिखाकर
पाप के ताप से मुक्ति की
राह दिखाता हैं।

✍🏻 गोविन्द सिंह चौहान,,,भागावड़, भीम, राजसमंद

दिनांकः-6-10-2019
वारः रविवार

हास्य सृजन
मन पसंद विषय लेखन
शीर्षकः-कवि सम्मेलन

एक बार निमंत्रण मुझे, कवि सम्मेलन से आया ।
पाकर उसको मैं, प्रसन्नता से फूला नहीं समाया ।।

निश्चित तिथि को मैं, सम्मेलन स्थल पर जा पहूँचा ।
पूछा एक कवि ने,श्रोताओं के बारे में है क्या सोचा ?

श्रोता यहाँ के पारखी, जानिये उनका आप मिज़ाज ।
आती नहीं पसन्द तो, देते चेहरा कवि का बिगाड़ ।।

सुनकर बातें उनकी, मैं बहुत अधिक ही घबराया ।
भय के मारे जाकर, मध्य में श्रोताओं के पठाया ।।

वक्र दृष्टि आयोजक महोदय की,तभी मुझ पर तनी ।
बुलाने के लिये मुझे,उठायी उन्होंने अपनी तर्जनी ।।

होकर लाचार मैं, हुआ जाकर मंच पर विराजमान ।
होने वाले अंजाम का भी अपने, करने लगा ध्यान ।।

कुछ समय के बाद ही, नम्बर मेरा भी जब आया ।
कविता पाठ करने के लिये, गया मुझको बुलाया ।।

कांपते हुये थर थर पहूँचा गया, श्रोताओं के सामने ।
एक हाथ से दिल, तथा दूजे से लगा माईक थामने ।।

भय श्रोताओं का ही था मुझ पर बहुत बड़ा छाया ।
इसीलिये जाकर मैंने भी, प्रेम से उनको ही पटाया ।।

कविता से पहले, कर बध्द नमन आपको हूँ करता ।
अपने बारे में श्रीमन,कुछ तथ्य़ो को मैं हूँ समझाता ।।

आये नहीं आपको श्रीमन, कविता मेरी यदि पसन्द ।
मचाईये नहीं श्रीमन,आप बिल्कुल भी कोई हुड़दंग ।।

जूते, चप्पल, टमाटर आदि भी, मारना होगा व्यर्थ ।
बेचकर उन्हें बाजार में, कर लूंगा पैदा पर्याप्त अर्थ ।।

उठा कर पत्थर बड़ा सा आप, सिर पर मेरे मारना ।
मारते समय उसे, हाथ न चाहिये आपका कांपना ।।

लगते ही पत्थर के जनाब, थम जायेंगी मेरी श्वास ।
पहुँच जाउंगा पल भर में ही, अपने प्रभु के पास ।।

मिलेगी प्रिया भी मेरी मुझे, वहीं प्रभु के ही पास ।
मिल जायेगा मुझे भी तब, अपनी प्रिया का साथ ।।

पाकर छुटकारा मुझ से, मिलेगा आपको सन्तोष ।
मिल कर प्रिया से अपनी, हो जाएगा मेरा भी रोष ।।

मिल जायेगा श्रीमान, मेरे व्यथित हृदय को चैन ।
सतायेगा न हीं फिर तो दिन ही मुझको, न ही रैन ।।

सुनाता हूँ कविता मैं, उठा पत्थर हो जाओ तैयार ।
आये नहीं पसन्द आपको, कर देना मुझ पर वार ।।

सुने बिना ही कविता के, उठा लिये उन्होंने पत्थर ।
उठा चप्पल भागा मैं भी, मंच तुरन्त ही छोड़कर ।।

डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
नमनःभावों के मोती
दि.6.910.19.
विषयःस्वतंत्र लेखन

गीतः
*
बही न जानें कौन हवा!
'ड्रग अडिक्ट' हो रहे युवा!!

पीते मदिरा और धुआँ।
असमय गिरते मौत कुआँ।
कैसे बढ़े बुद्धि तन-बल?
समझो इनका कैसा कल?
क्या कर सकती भला,दुआ!

कटते शुभकर संस्कृति से।
सटते दुष्कृति - अनुकृति से।
'जैसी करनी , वैसा फल।'
नहीं कहावत ये निष्फल।
फला वही ,जिसने न छुआ।

फैशन - कारण ऐसी लत!
पड़ती , पा गन्दी सोहबत!
देश - भविष्यत् पर खतरा।
रोको , टोको , अभी जरा।
अरे ! अन्यथा बुरा हुआ!

इनसे मृदु संवाद रखो।
समझाओ,मत जहर चखो।
अपनी आयु घटाओ मत।
दिन को रात बनाओ मत।
भले न छोड़े नकल सुवा!
बही न जानें कौन हवा!
'ड्रग अडिक्ट' हो रहे युवा!!

-डा.'शितिकंठ'

व्यथित मुरादाबादी
स्वरचित

।। साहब को गुस्सा आया ।।😀

मिली न जब साबुनदानी
ाहब को हुई हैरानी ।।

बिन साबुन नहा लिए वो
बिल्कुल न गुस्सा किये वो ।।

पत्नि देख हँस रही थी
खुद ही वो फस रही थी ।।

साहब गुस्सा रोके थे
पत्नि को कुछ धोखे थे ।।

साहब शायद अब बदल गये
बैध की बात पर अमल किये ।।

गुस्सा की उन्हे मनाही थी
गत वर्ष से चली दवाई थी ।।

पड़ चुका था पहला दौरा
पत्नि आज बनी मोहरा ।।

गुस्से सा चेहरा बनाया
दिल का दौरा दुबारा आया ।।

पत्नि अब घबड़ायी थी
मन ही मन पछतायी थी ।।

छोटी बात बनी बड़ी
मुसीबत की आयी घड़ी ।।

साहब स्वर्ग सिधारे थे
दोनो आदत के मारे थे ।।

गुस्सा की न आदत गयी
इतनी बड़ी सामत भयी ।।

पत्नि की थी चुहल बाजी
लगा गयी मौत की बाजी ।।

स्वभाव की 'शिवम' मजबूरी
दो दिलों में बनाये दूरी ।।

पति पत्नि अगर हैं डिफरेंट
हानि संभावना सेन्ट परसेंट ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 06/10/2019


6.9.2019
रविवार

विषय - मनपसंद विषय
लेखन
विधा - भक्ति गीत

जागो भवानी
🌹🌹
जागो भवानी ,जगाओ जगजननी
भक्ति की अलख ,,जगाओ जगजननी ।।

आप भी जागो ,हमें भी जगाओ
भव बंधन से ,मुक्त कराओ
मन आँगन आ जाओजगजननी

कमल नयन में,आकर समाओ
हृदय पटल पर,आसन लगाओ
शिव-शक्ति बन आओ जगजननी ।।

सुख सम्पत्ति का,जगमग मेला
जीवन भर ,रह जाए अकेला
आ कर भाग्य जगाओ जगजननी ।।

मैया मन की ,शक्ति दे दो
तुम अपनी ही ,भक्ति दे दो
सबकी पीर हरो जगजननी ।।

माया मोह के ,काटो बंधन
सुखद सरल बन जाए जीवन
आ कर सुख बरसाओ जगजननी ।।

स्वरचित
डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘उदार ‘
दिनांक:06/10/2019
विषय:स्वतंत्र लेखन

विधा: छंद मुक्त

देवी माँ की अराधना ,करते दो पखवाड़।
एक करे चैत्र मास, दूँजी शारदीय नवरात्रि ।।
नारी शक्ति का प्रतीक,कराती छमता बोध ।
इनके सारे रूपों को ,स्त्री धारण करती रोज़ ।।
देवी माँ ....
खुद का खुद से परिचय, जिस दिन होगा पूर्ण ।
हर स्त्री नापेगी गहराई , हर उँचाई को पहुंचेगी ।।
देवी माँ ...
माँ के रूप मे पाई अन्नपूर्णा, जादू है उनके हाथों मे।
शैलपुत्री काव्या है मेरी, और अहाना ब्रम्हाचारिणी।।
स्कंदमाता रूप भारती दी का , अरुणिमा है सिद्धिदात्री ।
चंद्रघंटा कई सखियाँ मेरी कुछ में कुष्मांणा के गुण।।
कात्यायनी हुई भांजी मेरी,प्रतिभाओ की खान ।
मै काली का रूप लिए, महागौरी महेश्वरी संग।।
देवी माँ ....
आज के इस युग मे हम सब ने माँ दुर्गा का रूप है पाया।
घर बाहर सब साध रहे हम बन एक दूजे का साया।।

स्वरचित
नीलम श्रीवास्तव लखनऊ उत्तर प्रदेश

6/10/19
स्वतंत्र विषय लेखन

विधा -कविता।

मेघों का काम है वर्षा के रूप में जल का वरदान बन बरसाना , प्रकृति निश्चित करती है कब, कितना, कंहा।
फिर ऐसा समय आता है पानी से मुक्त बादल नीले आसमान पर यूं ड़ोलते हैं ,निज कर्त्तव्य भार से उन्मुक्त हो वलक्ष रेशमी रूई जैसे....

व्योम पर बिखरे दल श्वेत सारंग
हो उन्मुक्त निज कर्त्तव्य भार से,
चांदनी संग क्रीड़ा करते दौड़ते
निर्बाध गति पवन संग हिलोर से।

धवल ,निर्मल , निर्दोष मेघमाला
चांद निहारता बैठ निज गवाक्ष से,
अहो मणिकांत माधुरी सी बह रही।
लो सोम-सुधा पुलक उठी स्पर्श से

मंदाकिनी रंग मिल बने वर्ण अमल
घन ओढ़नी पर तारक दल हिर कण से,
आज चंद्रिका दरिद्रा मांगे रेशम वलक्ष
नील नभ झांकता कोरी घूंघट ओट से ।

ऋतु का संदेशा लेकर चला हरकारा
शुक्ल अश्व सवार हो, मरुत वेग से,
मुकुर सा ,"नभ - गंगा" सुधा सलिल
पयोद निहारता निज आनन दर्प से ।

स्वरचित।

कुसुम कोठारी।

नमन मंच भावों के मोती
6/10/2019
विषय- स्वतंत्र लेखन

विधा- दोहा छंद

माता रानी आ गईं, सुंदर इनका रूप।
चरण वंदना कीजिए, जीवन बने अनूप।।

वस्त्र श्वेत धारण करें, मैया पालनहार।
उनकी अनुकंपा मिले, भरे रहें भंडार।।

मात भवानी आ गईं ,पहने रक्तिम वस्त्र।
असुर हुए भयभीत हैं, देख हाथ में अस्त्र।।

मैया पीहर आ गईं, करें सभी सत्कार।
शोक असुर दल में हुआ, रोग- दोष परिहार।।

लालटेन की रोशनी, गाँवों की चौपाल।
जग की पालनहार के, सजे हुए पंडाल।।

शांत महागौरी रहें, जग की पालनहार।
भक्त अभय पाते रहें, तर जातें भवपार।।

पुण्य लाभ देती रहें, जग की पालनहार।
मैया के दर्शन सुखद, लगती जय- जयकार।।

शालिनी अग्रवाल
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित

माँ गौरी
💟💟💟💟

मा
ँ का मिलता प्रेमाँचल
माँ का मिलता करुणाँचल
चाहे हो बचपन अबोध
या हो बेटे का अस्ताँचल।

तुमसे ही मैं कहता माँ
मत करना तुम इस पर ना
तुम्हारी कृपा मैं सदा माँगता
तुम मुझे उठा कर कह दो हाँ।

माँ गौरी! हे शिव प्रिया
कभी न तुमको याद किया
इधर उधर की बातों में ही
सदा ही भटका ये जिया।

अब आया हूँ शरण तुम्हारी
कृपा बरसा दो महतारी
एक आशा का भाव जगा
तुम पर निर्भर दृष्टि सारी।
६-१०-२०१९
रविवार-स्वतंत्र लेखन

विधा -“माँ भवानी “पर कविता
समांत रहित,,,तुकांत सहित भजन गीत
"गीतिका"
भुजंग प्रयात छंद
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122 122 122 122 ( मात्रिक मापनी )
🌻🌿🌻🌿🌻🌿🌻🌿🌻🌿
**************************
सभी पर कृपा मातु बरसे तुम्हारी !
सदा ही दया दृष्टि ,,,सरसे तुम्हारी !!
**
सुमंगल दिवस आज नौरात्र-की है,
करूँ वंदना,,,अर्चना मैं तुम्हारी !!
**
तुम्ही शक्तिरूपा,,,तुम्ही दुर्गमा हो,
सितारों जड़ी,,,लाल चूनर तुम्हारी!!
**
बसी पर्वतों पे ,,,,,भवानी दयानी,
सजी आज दरबार-चौकी तुम्हारी!!
**
शिवे मंगले,,,,साधिके,मातु गौरा,
यही प्रार्थना,,बस कृपा हो तुम्हारी !!
**
बजी आज"वीणा"तुम्हारे लिए है,
दया दृष्टि रखना,शरण मैं तुम्हारी ।।
**
***************************
🌻🌿🌻🌿🌻🌿🌻🌿🌻🌿
ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
स्वरचित संरवाधिकार सुरक्षित ( ग़ाज़ियाबाद
06/10/2019
"स्वतंत्र लेखन"

हास्य रचना
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"या देवी सर्वभूतेषु"
दशभुजा भवानी,सिह वाहिनी
बदल गई अब ये सवारी..
लाल-लाल है अब भी चुनरी
दशभुजा बनी आधुनिका नारी.....
सर पर मुकुट बनी ....
जिम्मेदारी की पगड़ी...
हाथों में कर्तव्यों की फाइल
सोसल मिडिया की अग्रणी
मोबाइल भी है मुस्कुराती..
चोका-चूल्हे की जिम्मेदारी.
बेलन है सब पे भारी...
बच्चों के पठन-पाठन मे..
करती है अगुआई....
अब सारी जिम्मेवारी संभालती....
हाथों में है बस्ता भारी
कभी घर में थी सकुचाई...
अब घर-बाहर काम संभालती..
पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाती
करती बाइक सवारी..।।

स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।

विषय -स्वतंत्र सृजन
दिनांक 6-10 -2019
सलाह, तू सदा संभल कर ले ।
चहुँओर स्वार्थ,थोड़ा ध्यान दें ।

समाज में रह,सब को सम्मान दे।
बुजुर्गों से सदा, तू सलाह लें ।

निस्वार्थ रिश्तों को,तू महत्त्व दे।
लोभ लालच से, तू परहेज ले ।

दोस्तों को परख,ठौर दिल में दे।
गलत की संग ,तू कभी ना ले ।

ठोकर लगे तो,तू थोड़ा संभल ले।
अच्छा मशवरा, सभी को सदा दे।

दुनिया कीआदत,सबको सलाह दे।
हाथ दिल पर रख, तू सलाह ले ।

कहती वीणा मान जा,भरोसा कर ले ।
अपनों से ले सलाह,यश तू पा ले।।

वीणा वैष्णव
कांकरोली
स्वरचित

६-१०-२०१९
स्वतंत्र लेखन

द्वितीय प्रस्तुत

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गीतिका "ज़िंदगी "
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आधार छंद सार्द्ध मनोरम
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मापनी =२१२२ २१२२ २१२२ ——२१ मात्रा
समांत-एगा पदांत-०
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
*******************************
प्रेम का दीपक कहीं ,जब जब जलेगा
ज़िंदगी में ,,,,नेह का दिनकर खिलेगा !
~~
झूठ के सब हौसले ,,,तब ध्वस्त होंगे ,
सत्य-सूरज ज़िंदगी में,,,,,,जब उगेगा !
~~
आदमी कोई,,,,उसूलों पर ,,,,चले तो,
हर क़दम ,,,,,,,वो आदमी ज़िंदा रहेगा !
~~
स्वार्थ मे ,,,,,अंधी नहीं जो ज़िंदगी है,
देखना ,,,,,,,,,हरदम वही इंसा बनेगा !
~~~
आज जो है कल नहीं ,बदले समय पल
किंतु ,मन मे जो अडिग,,बढ़ता चलेगा !
~~~
घात पे प्रतिघात तो ,,,,,,,चलते रहेंगे ,
आत्म के विश्वास से ,,,,जीवन सजेगा !
~~~
प्रेम की"वीणा",,,,,,,,यही सुर गा रही है,
ज़िंदगी का सुर ,,,,,,अनोखा तब बजेगा !!
~~~
******************************
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
#स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित

रविवार , स्वतंत्र लेखन

"भुला के गांव की मिट्टी"

भुला के गांव की मिट्टी, तूने शहरों को अपनाया।
भला ऐसा क्या शहरों में,तूने अपनों को बिसराया।।

कहां वो प्यार अपनों का, वो भोली शक्लें अपनों की।
न सौंधी खुशबू मिट्टी की, न ही वो वाणी अपनों की।।

समेटे खेत गमलों में,वो सब खलिहान कमरों में।
न मिलते खिस्से टी. वी.में,न हैं रिस्ते मोबाइल में।।

जब से आए शहरों में,क्यों खोए हो बस अपने में।
दुबक कर इन प्राचीरों में,क्यों सिमटे हो यों कमरों में।।

न कोई जुगनू दिखता है,न है अपनों का ही साया।
भगा था तू ही गांवों से ,बता पैसों से क्या पाया।।

मिला जो लिट्टी चोखा में ,नहीं वो प्यार बर्गर में।
मिला जो स्नेह अमिया में, नहीं वो प्यार पिज्जा में।।
पैसों के ही लालच ने, तुम्हें अपनों से बिसराया।
कम पैसों में भी हमने तो, देखो प्यार बरसाया।।

जो स्वाद था कुल्हड़ लस्सी में, वो स्वाद कहां है लिमका में।
जो स्नेह था अपनी बोली में, वो स्नेह नहीं है हिंगलिस में।।

बताऊं मैं तुम्हें कैसे कि ,ये तो थी तुम्हारी भूल।
भुला कर नाते रिस्तों को ,चले थे तुम ही हमसे दूर।।

लगी है अब जो तुमको चोट, तो आई है हमारी याद।
भुलाते तुम न जो हमको, तो क्यों कर होती ऐसी बात।।
जब बोई है तूने नफरत, न कर यों प्यार की आशा।
हमारे दिल तो सच्चे थे, सिखाई तुमने ही ये भाषा।।
(अशोक राय वत्स) © स्वरचित

II मनपसंद लेखन II नमन भावों के मोती.....

विधा: ग़ज़ल - तुम मेरी शाम-ओ-सहर हो...


तुम को हम खुद से छुपाएं तो छुपाएं कैसे...
तुम मेरी शाम-ओ-सहर हो तो भुलाएं कैसे....

दिल कहे याद मुझे वो भी तो करता होगा....
अब न वो बात सहर रात बताएं कैसे....

वो ठहर जाएँ तो रुक जाएंगी सांसें मेरी...
आखिरी पल का सुकूँ बोझ उठाएं कैसे....

हम चिरागों की तरह जलते अगर तम होता...
मन अँधेरे ये जहां भर के बुझाएं कैसे....

याद बरसात ही होती तो इसे सह लेते...
आग बरसात लगाए तो बुझाएं कैसे....

ज़िन्दगी-मौत गले मिलतीं हैं जब भी मेरे...
है तमाशा के हकीकत ये बताएं कैसे.....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा

मोह
छन्द मुक्त


मोह बंधन है साँसों का..
मोह बिना जीवन नीरस..
मोह गुण है ...
मोह अवगुण है ...
प्रेम निस्वार्थ है ...
प्रेम त्याग है....
बारीक सी रेखा दोनों को
विभक्त करती हुई...
मर्म जान जो जाए
जीवन सफल हो जाये ..
प्रेम की आसक्ति मोह
मोह सीमा में ममत्व,
अधिकता में दुर्बलता..
प्रेम की अट्टालिका
की नींव है मोह ..
प्रेम और मोह साथ
निभाते जीवन भर
मोह स्वयं में समाहित ..
दायरा बढ़ता
परिवार ,समाज ,धर्म तक फैलता
राष्ट्र से मोह उत्पन्न
राष्ट्र भक्ति की अलख जगाता
वसुधैव कुटुम्बकम
मानव धर्म का पाठ पढ़ा
निराकार ,निस्वार्थ प्रेम
को जन्म दे जाता है ।
धृतराष्ट्र का पुत्र के
लिए मोह ...
राजा हरिश्चन्द्र का
पुत्र के लिए प्रेम ..
यही अंतर मानव जाने
यही पहचाने .....
प्रेम यदि दिव्य है
तो मोह क्या विष है ..

स्वरचित
अनिता सुधीर

दिनांक ६/१०/२०१९
स्वतंत्र लेखन

लघुकथा
आभा आज बहुत ही खुश थी, खुश हो भी क्यों नही,इतने सालो की तपस्या जो पूरी हो गई थी,आज भी याद है उसे वह दिन,जब उसकी सास अपने दोनो बेटों को उसके आँचल में डाल, वे चीरनिद्रां में सो गई थी, उसके खुद के बच्चें भी बहुत छोटे थे, परन्तु वह अपने पति के सहयोग से अपने दायित्वों को अच्छी तरह से निभा रही थी
समय गुजरता गया ,अब वह अपने बड़े देवर की शादी की तैयारी में लग गई,दो साल के अथक प्रयास से वह अपने बड़े देवर की शादी एक अच्छी लड़की से कराने में सफल हो गई थी,आज उसकी शादी की बहू भात की पार्टी चल रही थी,
आज वह कुछ ज्यादा ही चहक रही थी,सभी आंगतुक रिश्तेदार उसकी भूरी भूरी प्रशंसा कर रहे थे, पार्टी भी पूरी शवाब पर थी।
दुल्हा दुल्हन स्टेज पर लोगों से उपहार वह बधाईयां लेने में व्यस्त थे,स्टेज के दूसरी तरफ वर बधू पक्ष की सगे संबंधी बिराजमान थे।
तभी उसके मन में विचार आया कि स्टेज पर बैठे लोगों को आइसक्रीम व मीठा देनी चाहिए, क्योंकि वे लोग वर वधू के साथ ही भोजन का आनंद लेना चाहते थे, अतः उसने वेटर को आवाज न लगाकर, खुद जाकर मीठा वह आइसक्रीम स्टेज पर बिराजमान लोगों को देने लगी,तभी उसकी नज़र उसके छोटे देवर के दोस्तों पर पड़ी, परन्तु उसका देवर वहा नहीं था,(सभी उस समय काँलेज के छात्र थे) अतः उसने देवर की अनुपस्थिति में उसके दोस्तों को आवभगत करने की ख्याल से,स्वंय उन्हें आइसक्रीम देने पहुंची,तभी उसका देवर अचानक ही वहां आ धमका और बोला "भाभी माँ ,आप ग्रेभिटी मेंटेंन क्यो नही करती?"आपको स्वंय आइसक्रीम लाकर देने की क्या जरूरत थी?
अब वह सोच में पड़ गई कि ग्रेभिटी मेंटेंन न करके वह भूल की या अपने बेटे समान देवर की परवरिश में कोई भूल हो गई कि इतने सालों का प्यार व समर्पण को ग्रेभिटी मेंटेंन न करने का नाम दे दिया।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

*विषय...............नवरात्रि*
*विधा................कविता*

*++++++++++++++++++++++++++++++*
*~~~~ नवरात्रि~~~~~~*
*नवदिन नवरात माता की दरबार,*
*चमके जगमग कलश दे सौगात।*

*जन दर्शन कर माता का नवरात्रि में,*
*वैभव आशिष ले माता कालरात्रि से,*
*हे जगदंबा भवानी पीड़ हरो सब भक्तन की।*

*नवपल नवपहर करें माता सिंगार,*
*जन सेवा कर ले खुशियाँ अपार।*

*नवरात्रि में ज्योति जले,*
*अज्ञानता के तिमिर हरे।*
*जो रखे व्रत माता की,*
*वो दुख संकट से दूर रहे।*
*हे आदिशक्ति भवानी रोग हरो सब संतन की।*

*नवदुर्गा नवरुप है माता का स्वरुप,*
*हर कण पे विराजे माता भक्ति रुप।*

*दुर्गा दुर्गति दुर करे , शैलपुत्री भरे धन धान्य।*
*ब्रहमचारिणी संयम दे,चंद्रघण्टा दे स्वर माधुर।*

कुष्मांडा रोग हरे, स्कंदमाता पूरण करे काज।
कात्यायनी संताप हरे,कालरात्रि करे शत्रु नाश।
महागौरी पाप हरे, सिद्धि दात्री दे अमर वरदान।

*जगतरणी मंगलकरणी ममतामयी माता।*
*दुखहरनी सुखकरनी करूणामयी माता।*
*हे शारदा भवानी लाज रखो सब सुधि जन की।*

*(स्वलिखित)*
*कन्हैया लाल श्रीवास*
*भाटापारा छ.ग.*

रविवार,
6,10,2019,

बेटी,

थोड़ा प्यार थोड़ा विश्वास,
बस इतनी सी ख्वाहिश है ।
पढ़ लें हम दो चार किताब ,
रहती सदा मन में चाहत है।

धन पराया ये पराये घर की,
उसे अपने घर की तलाश है ।
परहेज नहीं सेवा सत्कार से ,
बस चाहे अपनों में शुमार है।

क्षमता उड़ान रखे ऊँची ऊँची,
वो दहेज दानव से परेशान है।
हेय दृष्टि शंका और वासना,
छुपे भेड़ियों से बड़ी हैरान है ।

बेटा और बेटी है सभी बराबर,
उसे इस भावना की दरकार है।
बदलेगा जब समाज का नजरिया,
सुखी होगा तभी बेटी का संसार है ।

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,

बिषय _भारतीयता
विधा _ मुक्तक (मात्राभार 16)

एक निशान एक संविधान हो ।
जय जवान हां जय किसान हो ।
जो कर सकते सब हम कर लें
सचमुच यह भारत महान हो ।

जात पात पर घात नहीं हो ।
भेद भाव की बात नहीं हो ।
एक प्रधान हो मान देश का,
तब कोई व्यवधान नहीं हो ।

है मानवता अपनी पहचान ।
है भारतीयता पर गुमान ।
धीर वीर सब बालक अपने
करें स्वदेश पर हम अभिमान ।

अब राम राज फिर आऐगा ।
हर जन सब सुख अब पाऐगा ।
नहीं कोई होए परेशान,
कहें सभी हम जय हिंदुस्तान ।

स्वरचित
इंजी शम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म प्रदेश


दिनाँक-06/10/2019
शीर्षक-देवी माँ


प्यारी -प्यारी रे वाटिका तेरी प्यारी।
न्यारी -न्यारी रे शान तेरी न्यारी ।।

संकट हरणी झोली भरणी, दुर्गे तेरा सहारा
दर्शन दे के आज ज्वाला, कर उद्धार हमारा ।
थारी -थारी रे मेहरबानी थारी ।
न्यारी-न्यारी रे शान तेरी न्यारी ।।

56 भोग बना के माता, तेरी ज्योत जलाई
मांग सिंदूर श्वेत साड़ी तेरे तन पे सजाई ।
तैयारी-तैयारी रे करें तेरी तैयारी ।
न्यारी-न्यारी रे शान तेरी न्यारी ।।

कृपा करो हे मात भवानी, अर्जी तेरी लगाई
मन्नत पाने को माता, रात तेरी जगाई ।
प्यारी-प्यारी रे वाटिका तेरी प्यारी ।
न्यारी-न्यारी रे शान तेरी न्यारी ।।

चौबीस घंटे लगी रहे, तेरे दरश की आसा
एक बे मन्नत पूरी कर दे, मैं तेरे चरण का दासा।
प्यारी-प्यारी रे वाटिका तेरी प्यारी ।
न्यारी-न्यारी रे शान तेरी न्यारी ।।

करने को कृपा माता, एक बे घर पे आना
अशोक करे कविताई, वो करे प्रेम से गाना ।
प्यारी-प्यारी रे माता मेरी प्यारी ।
न्यारी-न्यारी रे शान तेरी न्यारी ।।

नेक नीति से भगतन आवै, करै गाना बजाना
म्हारी भी सुन लो मैया, दर्शन दे के जाना ।
ध्या री ध्या री रे , प्रजा तनै ध्या री ।
न्यारी-न्यारी रे शान तेरी न्यारी ।।

नौ दिन तक होते भंडारे, लगता आना जाना
भजन कीर्तन करते नर-नारी, बन माँ के दीवाना ।
छा री छा री रे, धूम तेरी छा री ।
प्यारी -प्यारी रे वाटिका तेरी प्यारी
न्यारी -न्यारी रे शान तेरी न्यारी ।
*************
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा

6/10/19
विषय आज रविवार है

विधा छन्द मुक्त

आज रविवार है
कुछ शरीर को विश्राम है
वर्ना आराम हराम है
प्रतिदिन वही काम है
सुबह सुबह जग जाना है
कार्यों में जुट जाना है
घर में आलस्य लाना मना है
वर्ना गृहमन्त्री का रूठना तय है
जिन्दगी का सुकून जाना तय है
मोबाईल की बन्द रहना मना है
ऑफिस में काम में आलस्य मना है
वर्ना निलंबित होना तय है
रोजी रोटी को भी तरसना तय है
शुक्र है कि आज रविवार है
सारी चिंताओं से मुक्त सिर्फ प्यार है
नेह की आयी बहार है
रोज रोज के झंझटों से मुक्त शरीर को आराम है
आज रविवार है

मनीष श्री
स्वरचित

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