Monday, October 14

"स्वतंत्र लेखन ""8अक्टुबर 2019

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ब्लॉग संख्या :-529
Purnima Sah सु
08/09/2019
"इसरो"के वैज्ञानिकों को समर्पित मेरी चंद पंक्ति....

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"चंद्रयान "देश का गर्व है...
समझो न ये तेरी हार है..
अगले कदम की शुरुआत है
निराशा न आये मन में.....
पूरा देश तुम्हारे साथ है...
तुम्हारी प्रतिभा पर विश्वास है
टूट गया संपर्क तो क्या हुआ.
अगला संकल्प तो पास है.।।

स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।

शीर्षक स्वतंत्र लेखन
विधा काव्य

08 सितम्बर 2019,रविवार

जय जवान जय किसान से
सुखद श्वास हम जग में लेते।
तन मन धन अर्पित करते वे
बदले में हम कुछ भी न देते।

भीषण गर्मी जेष्ठ तपन में
खून पसीना सदा बहाता।
पालनहारा कृषक भूमि का
खुद रोकर जगत हँसाता।

सतत चरण बढ़ाता सैनिक
भारत माँ की रक्षा करता।
सुखद नींद सुलाता हमको
हर पल खतरों मध्य पलता।

जय जवान माता का रक्षक
मातृभूमि हित जीवन जीता।
हिमगिरी चढ़ उच्च शिखर पर
नयी रचना लिखता है गीता।

धन्य धन्य है भारत माता
जिसने वीर सपूत दिए हैं।
स्वहित को वे कुछ न जाने
परहित काज सदा किये हैं।

स्व0 रचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

।। मूडियों की यारी ।।😂

ये हैं मिस्टर देशमुख
ेशसेवा में पाए सुख ।।

सेवानिवृत हैं आज कल
गातें हैं ये मस्त ग़ज़ल ।।

एक बार की ये बात थी
पंद्रह अगस्त की रात थी ।।

झूमते हुए आए पास
मेरे भी मूड थे खास ।।

देशभक्ति की हिलोर थी
मन की तिरंगे संग डोर थी ।।

बोले आज मैं नाचूँगा
तुम्हारी कविता बाचूँगा ।।

मेरा भी अच्छा था मूड
पत्नि तरफ से था छूट ।।

बोले भांगड़ा करें हम आज
हम गायें तुम छेड़ो साज ।।

मैंने कहा पेटी* है टूटी
एक कविता मेरी थी छूटी ।।

कैसे उनको चलाते हम
कर देते वो नाक में दम ।।

कविता जब मन में जगती
फिर न मुझे दुनिया दिखती ।।

बस यहीं वो बुरा माने
हम उन्हे वो हमें जाने ।।

अब मिलते हाथ मिलाते
पर उतने नही बतियाते ।।

मूडियों की कम हो यारी
पत्नि भी उन पर हो भारी ।।

क्या करें 'शिवम' मजबूरी
कहीं यारी तो कहीं दूरी ।।

क्या क्या न हो जाय विमुख
जब आए कविता अमुख ।।

पेटी* = हारमोनियम

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 08/09/2019
नमन मंच भावों के मोती
8 //9//2019//
बिषय ,,स्वतंत्र लेखन

तुम रश्मियों के उजाले प्रिये
मुझे थोड़ी सी रोशनी दे दो
मुझे जमाने ने दिए
दिल पर नासूर जाने कितने
तनिक सी मरहम लग जाए
तुम प्रणय रागिनी दे दो
तुम तो नित ही सितारों के
समुंदर में डुबकी लगाते हो
मैं अंधेरे में बैठी जरा सी
चांदनी दे दो
मिली है बस उम्र तुमको
मैं तो पल पल मरती
शेष तुम्हें ही लग जाए
मुझे तुम यामिनी दे दो
बैठी हूँ यही सोच अधूरे
गीत करुं पूरे
तुम चाहो तो अधरों की संजीवनी दे दो
हजारों कोस रहे दूर
सर्वदा गम तुमसे
खुशियां तुम्हें मुबारक हो
वेदना मुझे सौगुनी दे दो
स्वरिचत,, सुषमा ब्यौहार

 पोशाक/परिधान
🍁🍁🍁🍁🍁🍁

कितन
ा आकर्षण लिये शब्द है 'परिधान'
तन को एक कवच करता यह सदा प्रदान
और देता सँस्कारों की एक अलग पहचान
सौन्दर्य अनुभूति में इसका रहता पक्ष प्रधान।

परिधानों में आकर्षण रहता है विशेष
ये कई बातों का देते हैं संदेश
अलग अलग प्रान्त अलग अलग देश
सबके ही अपने अपने होते हैं परिवेश।

सर्दी में कपडे़ ऊनी गरम
गर्मी में हल्के नरम नरम
निर्वस्त्रता को नहीं मान्यता
हमारी सँस्कृति में यह है शरम।

शाल ओढा़ना विद्वता का सम्मान है
साफा पहनाना महिमा का गुणगान है
वैवाहिक समारोहों में रंग बिखेरती
विविध परिधानों की अलग ही पहचान है।

परिधानों का बहुत सुन्दर सँसार है
इसमें एक से एक दिग्गजों की भरमार है
ये परिधानों में आकर्षण भरते
अपना समर्पण न्योछावर करते।

बगरु प्रिन्ट,साँगानेरी और साडी़ बंधेज
सुन्दर परिधानों से जयपुर है लबरेज
साफा ,चूनर ,कोटा डोरिया,जोधपुरी पोशाक
राजस्थानी परिधानों की अलग जमाती धाक।

सबकी रुचि अपनी अपनी ,पोशाकें सबकी हैं सुन्दर
पर वही पोशाक अच्छी जो उमंग भरे मन के अन्दर।
08/09/19
गीतिका छन्द
**
सिर उठा कर हम यहाँ रहते बड़े ही शान से ।
नाम ऊँचा सब करें ,माँ भारती के गान से ।।

योजना से आप की सब ठीक ही चलता रहा।
क्यों उदासी में रहें ,मंजिल मिलेगी ज्ञान से ।।

दो कदम थी दूर मंजिल ,अब बिछडती जा रही।
हौसला रख कर्म पथ पर तू बढ़े जा शान से ।।

राह धूमिल हो जलाना, दीप तुम विश्वास का ।
साथ अपनों का मिला पूरा करेंगे जान से ।।

टूटती है आस जब होती निराशा है बड़ी ।
मीडिया खबरें दिखाती क्योँ बड़े अभिमान से ।।

स्वरचित
अनिता सुधीर

आज का कार्य-मनपसंद विषय लेखन
तिथि-08सितम्बर2019
वार-रविवार
विधा-ग़ज़ल

122 122 122 122

जवां धड़कनों की जवां है रवानी,
मुहब्बत की यारों यही बस निशानी।

करे ज़ुल्म मज़लूम पे कोई भी गर,
जो खौले न खूँ तेरा तो है वो पानी।

जो खोलो कभी परतें दिल की बशर तुम,
छुपी होगी तस्वीर कोई पुरानी।

रही सोच तेरी फ़क़त जिस्म तक बस,
मगर प्यार मैंने किया था रुहानी।

हुई जब जुबां भी ये नाकाम तो फिर,
निगाहों को दिल की तू दे तर्जुमानी।

बिना कुछ कहे शाम की ख़ामुशी में,
मुझे घेर लेती हैं यादें सुहानी।

किसी कोने में दिल के झाँको कभी तुम,
तो जिंदा मिलेगी हसीं वो जवानी।

रहे उम्र सारी महकती गुलों से,
जहाँ में सनम तेरी मेरी कहानी।

कटे पर न देखो परिंदे के तुम अब,
है परवाज़ उसकी तो 'रण' आसमानी।

पूर्णतया स्वरचित,स्वप्रमाणित
सर्वाधिकार सुरक्षित

अंशुल पाल 'रण'
जीरकपुर,मोहाली(पंजाब)
विषय -स्वतंत्र लेखन
दिनांक 8-9-2019

हर कदम,फूंक-फूंक कर रखना ।अतीत सदा ही,दोहराया जाएगा।।

तू बढना चाहेगा,जब जब आगे ।अतीत बता,पीछे धकेला जाएगा।

लोगों के मन में, जहर भरा है ।
वह अमृत,कभी ना बन पाएगा।।

अच्छी बातें भूला,पुरानी दोहराएगा।
अच्छाइयों पर,पानी फेर जाएगा।

जमाने में लोगों को, बड़े हुनर आते हैं ।
तुझे हर कदम पर,रोका जाएगा।।

तू हिम्मत ना हार, सदा रह तैयार। शेर दहाड़ को,कौन दबा पाएगा।।

हौंसलों से भर उड़ान,आकाश नाप पाएगा।
लोगों की बातों में रहा, तो कुछ नहीं कर पाएगा।।

आत्मविश्वास रख, विनम्रता धारण कर।
तू बन दरिया,अपना रास्ता खुद बनाएगा।।

इतिहास ,जब दोहराया जाएगा। तेरा नाम, गर्व से लिया जाएगा ।।

वीणा वैष्णव
कांकरोली
स्वरचित
पुतले
""""""

मय्यत से महज़ दो कदम दूर खड़े हैं
वह भी सब पुतले हैं,
ओढ़ कफ़न हलचल रहित ज़मीन पर लेटा है
वह भी शख़्स पुतला है...।

आँखों की पुतलियों में जो प्रतिबिंबित हैं
वह भी पुतले हैं,
ख़्यालों के बिछड़े अवशेषों में लम्बित हैं
वह भी पुतला है...।

फड़फड़ाती जिन्दगी की लौ में आस के दिये लिए खड़े हैं
वह भी पुतले हैं,
हाथों में विध्वंस की मशाल लिए सन्नाटे का शोरगुल
वह भी पुतला है...।

अन्तहीन मधुर स्वप्न जगाए,मासूमियत की प्यास लिए
वह भी पुतले हैं,
गुनगुने गालों पर धीमें से धड़कने सजाए बैठा
वह भी पुतला है...।

फिसलते हुए पलों में नादानियाँ सजा रहे
वह भी सब पुतले हैं,
गुदगुदी कर कठपुतलियों को ऊपर बैठ नचा रहा
वह भी पुतला है...।

कठपुतलियों की भरमार हैं दुनिया के मंच पर
करतब दिखाते पुतले हैं
डोर-डोर में अटकी है साँसों की लय ताल
टूटा जिसका तार वह पुतला है..।।

✍🏻 गोविन्द सिंह चौहान

दिन :- रविवार
दिनांक :- 08/09?2019
विषय :- स्वतंत्र लेखन

हौसलों से तू कर सफर...
छोड़ना न तू डगर..
पार कर बाधा तू हर...
हरदम तू बढ़ा कदम,
चल सतत् चल सतत् चल सतत्।
संघर्ष तो अविराम है..
असफलता नहीं विश्राम है...
बाधाओं से दो-दो हाथ कर..
हरदम तू बढ़ा कदम,
चल सतत् चल सतत् चल सतत्।
नियति को ढाल बना...
तीर सी तू चाल बना..
बांध ले सर पर कफन...
हरदम तू बढ़ा कदम,
चल सतत् चल सतत् चल सतत्।
संकल्पों को आकार दे...
हौसलों को आकाश दे...
खुद ही को तू कर बुलंद...
हरदम तू बढ़ा कदम,
चल सतत् चल सतत् चल सतत्।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
.
Damyanti Damyanti

विषय,,स्वतंत्र लेखन |,
काया ,
मत कर अभिमान मानव तन का |
ये कंचन सी काया पल मेढल जायेगी|
हो चिता पर सवार ये जल जायेगी|
माटी की बनी माटी मे मिल जायेगी|
ये पंच तत्व मे मिल फानी फानी हो जायेगी |
नही भरोसा एक पल का,
झोका श्वाश का आये न आये |
धन दोलत ,मन की बात न कह पाये |
मान अभिमान यही रहेगा साथ न जाये |

मानव सेवा सदचरित्र सदकर्म होग संग तेरे |
निष्कर्मकरले नाम ईश्वर ले तर जायेा भव सागर से |
कचंन काया ,,,,,,,
स्वरचित,,दमयंती मिश्रा

०८/०९/२०१९, रविवार
स्वतंत्र लेखन( कृपया एक बार अवश्य पढें)

"वीरता है यदि तुममे"

जो खुद को वीर कहते हैं,वही डरपोक होते हैं।
जो सच में वीर होते हैं, कभी न मुंह से कहते हैं।।

वीरता है यदि तुममे ,तो कौशल रण में दिखता है।
कहूँ क्या बात कायर की, वह जीवन भर ही मरता है।।

वीरता पन्ना की देखो, निज सुत को वारा था उसने।
वीर था महाराणा प्रताप, खदेड़ा मुगलों को उसने।।

दिखाओ तुम न झुठी शान , कि तुमसा है नहीं संगदिल।
पिटे हर बार रण में हो, कि तुमसा है नहीं बुजदिल।।

शौर्य आजाद का देखो, फिरंगी को नचाया था।
बोस की शान तो देखो, बिगुल उसने बजाया था।।

भगत की बात करनी हो, तो उससा पूत न कोई।
गया जब वह था दुनिया से, तो रोई आँख हर कोई।।

क्यों लड़ते हो यों अपनों से, ये गहना है न वीरों का।
वीरता है यदि तुममें, लड़ो तुम रण समसीरों का।।

जो लड़ते हों यों श्वानों सा, उन्हें नहीं वीर कहते हैं।
वीरता है यदि तुममें , चलो सीमा पर लड़ते हैं।।

सुनो तुम बात वत्स की, मुझे मेरा हिन्द प्यारा है।
जो गाली दी इसे समझो,मृत्यु ने पुकारा है।।

यदि तुमको है जीना तो, रखो तुम हिन्द से नाता।
बचेगा एक न तुममें,जिसे हमने न हो काटा।।

जो खाएं हिन्द का दाना , और गाएँ शत्रु का गाना।
उड़ा दो उनको तोपों से, करें जो काम मनमाना।।

हटा कर तीन सौ सत्तर , दिलाई मुक्ति है जिसने।
उसी को सच्चे अर्थों में, देश का लाल कहते हैं।। © स्वरचित
अशोक राय वत्स 

स्वतंत्र विषय लेखन
नमन मंच भावों के मोती।
नमन गुरूजनों, मित्रों।
मिशन चंद्रयान
💐💐💐💐💐
हमने चंद्रमा पर भेजा था चंद्रयान।
वो7सितम्बर की रात 1बजे पहुंचता।

पर अफसोस की बात है,
पहुंचने से कुछ देर पहले,
उससे टूट गया संपर्क।

लैंडर से केवल टूटा संपर्क,
और्बिटर है संपर्क में।
प्रतिपल फोटो भेज रहा है,
अंतरिक्ष से खींच रहा है।

साथ बार असफल हुआ अमेरिका,
फिर जाकर कहीं हुआ सफल।

हमारी तो पहली कोशिश थी,
फिर हम क्यों अफसोस करें।

हिम्मत से करते रहे कोशिश,
तो सफलता मिलेगी कभी ना कभी।

फिर हम इन्सान हीं तो हैं,
हिम्मत क्यों हारें अभी।

आसमान में लहरायगा तिरंगा एक दिन।
फिर देखेगी सारी दुनियां ‌एक दिन।

भारतीय वैज्ञानिकों के नाम एक संदेश।
....... वीणा झा......
.... स्वरचित....
.. बोकारो स्टील सिटी.

8-9-19 , रविवार
विषय - स्वतंत्र लेखन
( पढ़ाई )
-----------
(आनंद वर्धक छंद)

स्कूल पढ़ने को चलो, मत देर कर।
गुरु अगरचे दंड दें,उनसे न डर।।
मन लगाकर तुम पढ़ो, गौरव मिले।
जिंदगी की राह सब, फूलों खिले।।

अनपढ़ कोई न रहे , कहते सुजन।
है जरूरी साथिया, मन में लगन।।
मान मिलता है उसे, जो नित पढ़े।
यत्न जो भी नित करे, मंजिल चढ़े।।

~~~~~~~~~
मुरारि पचलंगिया

8/09/19
विषय-मन पसंद लेखन

जो फूलों सी ज़िंदगी जीते कांटे हजार लिये बैठे हैं,
दिल में फ़रेब और होंठों पर झूठी मुस्कान लिये बैठें हैं।

खुला आसमां ऊपर,ख्वाबों के महल लिये बैठें हैं
कुछ, टूटते अरमानों का ताजमहल लिये बैठें हैं।

सफेद दामन वाले भी दिल दाग़दार लिये बैठे हैं
क्या लें दर्द किसी का कोई अपने हजारों लिये बैठें हैं।

हंसते हुए चहरे वाले दिल लहुलुहान लिये बैठे हैं
एक भी ज़वाब नही, सवाल बेशुमार लिये बैठें हैं।

टुटी कश्ती वाले हौसलों की पतवार लिये बैठे हैं
डूबने से डरने वाले साहिल पर नाव लिये बैठे हैं।

स्वरचित।

कुसुम कोठारी।

दैनिक कार्य स्वपसंद के अंतर्गत मंच के समक्ष प्रस्तुति💐💐

बहुत रोया है दिल दुखाने से पहले
रा बात कर लो रुलाने से पहले

कमी मेरी जो हो मुझे ही बताना
जरा सोच लेना बताने से पहले

मुहब्बत से रहते है सब इस वतन में
मकाँ देख लेना जलाने से पहले

बहा दे लहूँ को वतन के लिए हम
जरा सोच लो तुम सताने से पहले

कभी रूठ कर कोई दिल से न जाए
हँसा लो उसे तुम रुलाने से पहले

रहा दूर घर से कमाने के खातिर
जरा सोच लो तुम लुटाने से पहले

जलाओ चेराग़-ए-मुहब्बत जहाँ में
नई रौशनी लाओ जाने से पहले

✍️आकिब जावेद
8/09/19
स्वरचित/मौलिक

रविवार 8/9/19
विषय- जुगनू
विता
----------------
मैं छोटा सा जुगनू हूँ,
छोटी मेरी बात ।
नहीं हटूंगा,लड़ के मरूँगा,
हो कितनी लम्बी रात ।

चंदा सूरज रौशनी सागर,
मैं छोटा-सा बूँद ।
पर बात अंधेर की होगी तो
ऑखे क्यूँ लूं मूंद।।

टिमटिम करते तारे सारे
निकल गये हैं दूर।
अब तो मेरे संग चलो तुम,
छोड़ो अपना गुरूर ।।

है पता यह बात मुझको
दीपक से भी छोटा हूँ ।
पर हौसले की बात है तो,
मैं भी नहीं कोई खोटा हूँ ।।
मैं छोटा-सा जुगनू हूँ ।।
•••••••○••••••••••••••••••
स्वरचित
क्षीरोद्र कुमार पुरोहित
बसना, महासमुंद (छ०ग०)

08/09/2019
"स्वतंत्र लेखन"
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ईश्क में जो भी उतरता जाए।
चेहरा ऩूर निखरता जाए।।

ख़ाब में तेरी जो सूरत देखी।
अक्स शीशे में उभरता जाए।

न रहा तू पहले सा यारा।
बात वो ही तो अखरता जाए।

देख ली जो मैं तिरी सौदाई।
रूह भी अब तो सिहरता जाए।

बेरुखी अब तो न झेली जाती।
दिल तिरी दर से मुकरता जाए।।

बेवफाई यूँ जो देखी तेरी।
ईश्क भी अब तो मरता जाए।।

स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।

#दिनांक:8"9"2019:
#विषय:स्वतंत्र लेखन:
#विधा:काव्य:

#अनाज"*+*+

यह कल भी था यह कल भी होगा,
यही प्रथम जरूरत हम सब की आज,
तब तक ही खुशहाली है हम सब की,
ज़ब तलक है भोजन और अनाज,

हम हिंसक पशुवत ही हुआ करते थे,
हम सभ्य हुवे तब बना यह सभ्य समाज,
वर्ना हम आखेट तक ही सीमित थे,
एक एक दाने को रहते थे मोहताज़,

उत्थान और पतन का सूत्र भी यही है,
जीवन मरण का भी यही है राज,
बिन इसके कुपोषित मुफ़लिस हैं हम,
इसने ही बनाया हमें जोधा तीरंदाज़,

ये चमक और धमक ये सर का ताज,
ये माल गुजारी ये मुल्क पर राज,
इस सब का दर्ज़ा तुम दोयम ही समझो,
पहली जरूरत भोजन और अनाज,

सरहद तक लांघे हम खोज मैं इसकी,
विलायत अपनाते हम छोड़ स्वराज,
बे मन से जो वतन भी छोड़ना पड़े हमें,
रिश्ते नाते तक करते हम नज़रअंदाज़,

*+*#रचनाकार +*+
दुर्गा सिलगीवाला सोनी भुआ बिछिया,
मंडला मध्यप्रदेश,

दिनांक 8-9- 2019
वार रविवार
विधा कविता (हास्य सृजन )
शीर्षकः- लिखना नर से भारी नारी । पड़ा हम पर अति भारी ।
महिला दिवस, महिलाओं पर कविता लिखी।
जो बहुत से पाठकों ने बड़े चाव से थी पढी ।।
मेरी कविता शायद महिलाओं को भी थी भायी ।
भारी भरकम पहलवान को पर पसंद न आयी।।
पहलवान जी लेकर सोटा हमारी ओर आये।
देख उनकी भाव भंगिमा हम बहुत घबराये।।
तान के सोटा बहुत क्रोध में वह मुझसे बोले।
आया तेरा अंतिम समय, नाम राम का ले ले।।
करबध्द हो मैं बोला, श्रीमान यों नहीं गुर्राईये ।
जानता नहीं मैं आपको, दोष तो मेरा बताईये।।
दे मूछों पे ताव बोले,बताता है नर से भारी नारी।
क्यो वैसाखनन्दन गयी है मति क्या तेरी मारी।।
भारी भरकम नर से भी नारी को भारी कहता।
सारी अक्ल तेरी अपने सोटे से ठीक हूँ करता।।
श्रीमति जी ने तभी जाने कहाँ से छलांग लगाई।
आयीं थीं लेकर साथ में अपने वह लठिया माई।।
साथ अपने तगड़ी तगड़ी नारियां भी थी लाईं ।
फरमा रहीं थी घबराना नहीं हम है साथ आईं।।
बेटी नहीं बेटी के पति को भी अब हम बचायेंगे।
इस धमकाने वाले को भी सबक हम सिखायेंगे।।
मूछों वाले सज्जन पे गईं कस कर लाठियां बजाई।
निकली चीख मुख से उनके, आँख मेरी खुल गयी।
डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
व्यथित हृदय मुरादाबादी
स्वरचित

8.9.2019
रविवार
मन पसंद विषय लेखन
विधा -ग़ज़ल

क़ाफ़िया-ग़म ( अ स्वर )
रदीफ़ -तो नहीं है

कोई ग़म तो नहीं है
🍁🍁

बहुत हँस रहे,कोई ग़म तो नहीं है
ख़ुशी आज कल,थोड़ी कम तो नहीं है ।।

खिलौने की चाहत,ख़तम हो रही है
बड़ा हो गया,बालमन तो नहीं है।।

सहारा जिसे चाहिए,दे दिया है
ख़ुदा बन गया हूँ,ये भ्रम तो नहीं है।।

नहीं मिल रही,मंज़िलें ख़्वाहिशों की
वज़न हौसलों का भी,कम तो नहीं है।।

धुएँ सा ज़हर,बढ़ रहा वादियों में
कहीं दर्द से ,आँख नम तो नहीं है।।

ये आँसू,ये आहें,ये ग़म,ज़िन्दगी के
मुहब्बत में ,हासिल किया कम नहीं है।।

‘ उदार ‘ कुछ कहो,चुप हो बैठे क्यूँ ऐसे
तुम्हारा भी खोया,सनम तो नहीं है ।।

स्वरचित
डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘ उदार ‘

विषय :- "स्वतंत्र लेखन"
दिनांक :- 8/9/19.
विधा :- "गीत"

तज निराशा उड़ दुबारा हौसलों के पंख पाकर।....

तेरी मेहनत को नमन, साधना तेरी लगन में।
रात-दिन कर एक तूने, जोश भर अपने बदन में।
ये करिश्मा देख तेरा, हौसला जागा वतन में।

नींव जो तुमने रखी है, वो रहेगी रंग लाकर।....
तज निराशा उड़ दुबारा हौसलों के पंख पाकर।....

व्योम सारा पार कर के, चाँद के सिर पर चढा है।
अब तलक जो स्वप्न था इतिहास वो तूने गढा है।
देश को आगे बढ़ाने, कदम जो तेरा बढ़ा है।

देश तेरा साथ सारा, झूमे सब तुझ संग पाकर।...
तज निराशा उड़ दुबारा,हौसलोंके पंख पाकर।....

विजयगाथा लिखी तूने,साथले सब संगसाथी।
काम ये आसाँ नहीं था,मापने का चाँद थाती।
सफल होना था तुझे ये, कोशिशें तेरी बताती।

स्वप्न पूरे सभी होंगे, भारती का अंक पाकर।.....
तज निराशाउड़ दुबारा,हौसलोंके पंखपाकर।.....

कौनसी चिंता तुझे जब,अडिग यौद्धा साथ तेरे।
विजय चूमेगी चरण तव,लिखा सीवन माथतेरे।
रात काली ढले तब ही, उदित होते हैं सवेरे।

सामने मंजिलखडी है,कर फतहपथ संगजाकर।
तज निराशा उड़ दुबारा,हौसलों के पंख पाकर।...

भावों के मोती
विषय- स्वतंत्र लेखन
===============
मातृभाषा हम सबकी हिंदी
ममता और दुलार है हिंदी
हिंदोस्ताँ की शान है यह
अब रहती मुरझाई-सी हिंदी
सौतन बनकर इंग्लिश रानी
सबके दिलों में छाई है इंग्लिश
अटपटे अपने बोलों से
सबके बीच समाई है इंग्लिश
बहना शब्द में प्यार बसा
रूखा-रूखा -सा यह सिस्
दिखाए अपनेपन की कमी
चढ़ा इंग्लिश का रंग तो
बाबूजी भी "डैड" हो गए
माँ,बनी मम्मी से"ममी"
हिंदी भाषा से मुँह मोड़कर
सॉरी कहकर चलती इंग्लिश
सीधी-सरल मन में उतरती
भारत माँ के भाल की बिंदी
साहित्य का शृंगार है हिंदी
आओ फिर से इसे संवारे
हम सबकी मातृभाषा हिंदी
हाय-बाय का शौक छोड़कर
नमस्कार रीति अपनाएं फिर
चरणस्पर्श बड़े-बुजुर्गों का
सिर्फ हाय से टरकाए न फिर
सिर्फ सिद्धांतों की बातों से भला
काम न कभी बना न बनने वाला
थोड़ी-थोड़ी कोशिश से ही
हिंदी बने फिर शीश का तारा
माना उन्नति के लिए जरूरी
इंग्लिश भाषा का है प्रयोग
पर बोलचाल की भाषा में
शब्दों के रूप न इससे तोड़ो
हिंदोस्ता की शान है यह
हम सबका सम्मान है हिंदी
अंग्रेजी की मार से सदा
हो रही है घायल हिंदी
उभरेगी फिर से एक दिन
बनकर कलम की तेज धार हिंदी
हो कितनी भी लहुलुहान पर
तलवार बन चमकती रहेगी
हमारी मातृभाषा है हिंदी
हम सबका मान है हिंदी
***अनुराधा चौहान***स्वरचित 
विषय- स्वतंत्र लेखन
दिनाँक- 08/09/2019

मातृ-शक्ति की गौरवगाथा को यदि जग पहचानेगा।

आराध्य देवि की भाँति ही नारी को भी देवी मानेगा।।

सुधा-वृष्टि होगी तबही वसुधा की इस फुलवारी में।

मातृ-शक्तियों को जब जग भगिनी और माता मानेगा।।

हे विक्षिप्त भाव भरे लोगों तुम कैसी नीति सिखाते हो।

कुकर्मों से मानवता पर तुम खूब कहर बरपाते हो।।

पग-पग कहते हो राम-राम श्री राम हमारे दाता हैं।

पीत-वस्त्र लम्बा टीका से तेरा गहरा नाता है।।

यदि राम के मर्यादाओं का भी थोड़ा ज्ञान तुझे होता।

तो आज कोई माँ -बाप यहाँ बेटी को लेकर न रोता।।

जननी भी बेटी है जिसने जन्म तुझे दिया होगा।

तेरे कुकर्मों पर उसने घुट-घुट कर जहर पिया होगा।।

तू खुद को पुरूष बताता है कैसी तेरी पौरूषता है।

तेरे जैसों को देख-देख मानवता का दम घुटता है।।

आए दिन जब दुराचार फैलाते हो इस धरती पर।

तब-तब मरती है मानवता जाती है प्रतिदिन अर्थी पर।।

भारत की संस्कृति को हो तुम कलुषित भावों से तोड़ रहे।

अपने विक्षिप्त भाव से तुम जन-जन में विष क्यों घोल रहे

प्रहलाद,ध्रुव,लव-कुश,की धरती को अपमानित करते हो।

हर एक कदम में मानवता को तुम अवमानित करते हो।।

मातृ-शक्ति की ममता को क्षमता को तुम क्या जनोगे।

खुद की पहचान हुयी न अभी तुम जग को क्या पहचानोगे

आदर ,सद्भाव,सहजता,से नारी के सम्मुख जाओगे।

सीता,अनुसुइया,सावित्री के दर्शन ही तुम पाओगे।।

त्याग,सुकोमल,ममता की तो नारी ही परिभाषा है।

संसार की सुंदरतम कृति में नारी को जाना जाता है।।

सती धर्म सिखलाने वाली अत्रि -मुनि की प्यारी थीं।

त्यागमूर्ति हर दुख को सहतीं माता जनकदुलारी थीं।।

जग को सत् प्रेम सिखाने वाली भी तो श्यामा प्यारी थीं।

पतिव्रता की अनुपम रचना सावित्री भी नारी थीं।।

मानवहित धरती पर उतरीं माता अष्ट भवानी थीं।

सन्-सत्तावन में टूट पड़ीं गोरों पर झाँसी रानी थीं।।

फिर गौरवशाली परम्परा को दोहराया कन्याओं ने।

कल्पना चावला,पी०वी० सिंधु,सानिया जैसी सबलाओं ने

हे मातृशक्ति जागो-जागो अब खुद को तुम्हें बचाना है।

सबला की परिभाषाओं को सार्थक तुम्हें बनाना है।।

भद्रकालि का रूप धरो और दैत्यों का संहार करो।

हे मातृ-शक्ति तुुम जाग उठो और धरती का उद्धार करो।।
-जयशंकर पाण्डेय (बलरामपुर, उ0प्र0)
आज की प्रतियोगिता
हेतु मेरी रचना

दिन- रविवार
दिनांक- 8-9-2019
विधा -मुक्त

विषय-किताबें

जिंदगी !

एक ऐसी किताब-
जो कभी भी,
पूरी पढ़ी नहीं जाती ।

हाशिये पर लिखे
सुख और दुख संग
उमर के हस्ताक्षरित
सारे पन्ने फड़फड़ाते।

आमंत्रित करती
साँसों की रेखाएं
गुजरते वक्त के साथ
अक्षर -अक्षर करने
अध्ययन।

असंभव है!
इस किताब को बाँचना
क्योंकि।
गवाही देता वक्त
छोड़ देता है साथ।

अधूरी अपठित,
रह जाती है किताब।
कौन पढ़ पाया इसे?
सभी के हाथ होती है
अबूझ पहेली बन
किताब।।

हाँ कुछ गिने चुने
प्रज्ञा प्रवर लोग
करते हैं प्रयास
पढ़ने और पढ़ाने की
पर,

हो जातें हैं,
शब्द धूमिल -
बदल जाते हैं अर्थ!
किताबें
अनेक रूप धर
खो देते हैं
अपना वास्तविक
स्वरूप ।।

सुधा शर्मा
राजिम छत्तीसगढ़

8-9-2019
दिनांक:- 08 /09 /19
वार :- रविवार
िषय - मुक्त - रचना
चलो एक किताब लिखते
***************************

चलो एक किताब लिखते हैं,
जिंदगी के नए हिसाब लिखते हैं,
कुछ नए- पुराने,
कुछ गुजरे जमाने,
किस्से सुहाने लिखते हैं,
चलो एक किताब लिखते हैं,
जिंदगी के हिसाब लिखते हैं
कुछ आधे - अधूरे,
कुछ सपने हुए जो पूरे,
किस्से तमाम लिखते हैं
चलो एक किताब लिखते हैं,
कुछ खट्टी - मीठी,
कुछ लम्हों में सिमटी,
यादें बार बार लिखते हैं
चलो एक किताब लिखते हैं
कुछ गम की बातें,
कुछ खुशियों की रातें,
हर बात खास लिखते हैं,
चलो एक किताब लिखते।
कुछ तन्हाई के पल,
कुछ मन में हुई हलचल,
किस्से वो बार बार लिखते हैं,
चलो एक किताब लिखते हैं...
जिंदगी के हिसाब लिखते हैं
Uma vaishnav
स्वरचित और मौलिक
08/09/19
रविवार
विषय- हादसे
कविता

कितनी कोशिश कर रही सरकार है ,
पर न रुकती हादसों की मार है।

बन रहे कानून यातायात के ,
पर न थमती सड़क पर रफ्तार है।

न स्वयं के स्वास्थ्य की चिंता कोई,
न किसी की जिंदगी से प्यार है।

धैर्य से चलता नहीं वाहन कोई,
सड़क पर अब व्याप्त अनाचार है।

कितने प्राणों की बलि चढ़ती मगर ,
नशे का न रुक रहा व्यापार है।

हादसे तब तक न कम हो पाएंगे,
जब तलक जनता में भ्रष्टाचार है।

स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर

दिनाँक - 08/09/2019
विधा - काव्य
विषय - स्वतंत्र
महिला विशेष ''नन्ही बिटिया के अनेक रूप''

गूंजी किलकारी घर आई..
वो नन्ही परी सवेरा लायी..
गर्भ गर्त से बाहर आकर..
जग मे ली पहली अंगड़ाई..
वो नन्ही परी सवेरा लायी..1

माँ पिता की आँख का तारा..
बन कर खूब धूम मचायी..
लक्ष्य बनाकर जीवन का फिर..
बचपन से खूब करी पढ़ाई..
वो नन्ही परी सवेरा लायी..2

किया सब हासिल जो भी चाहा..
जीवन को दी एक नयी उचाई..
बीते अभी कुछ ही दिन थे कि..
समय हुआ करने का बिदाई...
वो नन्ही परी सवेरा लायी..3

कल तक थी आंगन की रानी ..
अब वो बिटिया हुई परायी...
थी बेटी,बहन, अब पत्नी,बहु बन
रिश्ते की नयी डोर सजायी..
वो नन्ही परी सवेरा लायी..4

उसी डोर मे बंधके सिमटकर..
जीवन की जानी, कटु सच्चाई..
अपने सपने करके समर्पित..
पति सेवा की, मन ना सकुचायी..
वो नन्ही परी सवेरा लायी..5

देकर वंशज कुल दीपक वो..
माँ बनकर नयी दुनिया सजाई..
अंधकारमय अपने जीवन मे..
खुशियों की एक लौ जलायी..
वो नन्ही परी सवेरा लायी..6

है काल चक्र जीवन का ऐसा..
जिसने कभी ना हिम्मत हारी...
जीवन भर करे खुद का समर्पण..
फिर भी कहे उसे अबला नारी..7

स्वरचित - विनय गौतम (विनम्र)
दुबई (UAE)
दिनाँक: 08.09.2019
विषय : स्वतंत्र लेखन

तुम???

तुम एक अहसास हो..
मेरे दिल के बहुत पास।
तुम जिंदगी हो मेरी....
मेरे लिए खासमखास हो।

जन्नत से उतरी हूर...
आया आँखों पर नूर।
रोज मारे जाते है....
यारा लोग बे कसूर।।

बता तुझे क्या उपमा दूँ
सोनी कहूँ या हीर कहूँ।
तु अमृत के बून्द सी...
बस अपनी तकदीर कहूँ।।

सुन्दर तो है कई जहां में..
तुमसा मिलना नहीं कहीं।
सांसे अटका देते हो तुम
वास्तव में तुमसा कोई नहीं।।

-:-स्वरचित-:-
सुखचैन मेहरा।





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