डा.नीलम. कौर


   "लेखिका परिचय "

डा.नीलम 07--12--1958 उदयपुर Ph .D. --हिंदी मुक्त,हाइकु,पिरामिड,दोहे,नज्म,गीत,तांका आदि. सेवानिवृत n

अर्णव प्रकाशन से प्रकाशित रचनाएँ, साझा संकलन में रचनाएँ,गद्य-पद्य संकलन में रचनाएँ,विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ ,विभिन्न पटल -प्रतियोगिताओं में स्थान आदि
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विषय- छल बल
विधा-मुक्त
दिनांक -16 /12 /19

छलबल से बन गये नेता
अब कहते कर लो जो भी
पाँच वर्ष तो मेरे हुए
अब मैं तुमको कुछ नहीं देता

हम मूरख रोते रह जाते
चार साल मायूसी में काट
फिर फेंके गये टूकड़ो से खुश होकर, वादो के जाल में उलझ जाते

बनकर नेता जो दुत्कारते
चुनाव आते ही फिर विनम्र हो जाते
घर -घर जाकर अपनत्व दिखाते
चौपाये की मृत्यु पर भी बैठने आ जाते

गली, नुक्कड़, दुकान जहाँ भी
दिन और रात कभी भी
गधे को भी बाप बना सबके कदमों में झुक जाते

पाँच साल के लिए फिर
भोली जनता को बरगलाते
छल बल का फिर बुनकर जाल
बन जाते फिर नेता महान।

डा. नीलम


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विषय- दाम / कीमत
विधा-मुक्त

दिनांक -12 /12 /19

देह की कीमत पर
समाज की गंदगी समेटती है
सफेदपोश धनवानों की
अंकशायिनी बनती है

समाज सेविका का कभी
कभी नारी कल्याण का
पदक सीने पर टांकती है
महफिल में सजी संवरी मगर
परिचय की मोहताज है वो

कभी कोख में बीज पनप जाये ,बेचारी डर डर कर रहती है
हिम्मत गर दिखा दे कोई तो
जीते जी दफ़न कर दी जाती है

ना जाने कितनी अबलाएं
यूं ही देह की कीमत चुकाती हैं
अधूरे सपनों को पूरा करने या
परिवार की जरुरत की खातिर कुर्बानी का बकरा बनती हैं।

डा. नीलम

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जिंदगी की खेती में
फुरसत के बीज नहीं
बस कर्म की फसल
बोई जाती है

दिन-रात अपने को
अंकुरित करने को
खुद के श्रमसीकर से
सींचना होता है

कभी खिलखिलाती नदिया
कभी गंगा-जमुनी जलधारा
कभी सूखे सावन सा
बन जाना पड़ता है

जरुरी नहीं तब भी
जीवन की खेती लहलहाए
कभी रुक्ष बनती है ,कभी
सोनामी लहरों में डूब जाती है
फुर्सत का बीज फिर भी
अंकुरित नहीं होता।

डा.नीलम.अजमेर
स्वरचित


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विधा--मुक्त
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चुरा कर ख्वाब आँख से मेरी
छवि अपनी छिपा देते हो
मेरी मुस्कान में नाम 
अपना सजा देते हो

क्या नाम दूं तुम्हे
प्रीत ,प्रियतम् ,चितचोर
या हो तुम कोई 
जादूगर

चाहतें मेरी दिल तुम्हारा
होता है
आँसूं मेरे आँख तुम्हारी
रोती है

कैसे तुमको मेरे मन के
भाव पता होते हैं
मेरे गम के बादल क्यों
तुम हृदयाकाश लेते हो

सच बतला दो तुमको
मैं क्या कहकर पुकारुं
सजना ,सांवरिया या फिर
जादूगर कहूँ

आईने में जब जब
सूरत अपनी देखी है
तब तब लगा वो मेरी नहीं
वो छब तुम्हारी है

कैसे तुम मेरे मन में आये हो
मेरी सुध बुध पर छाये हो
कहना हम कुछ चाहते हैं
पर तेरा नाम लिए जाते हैं

लगता है हमको जबसे
तुम हमें मिले हो
हम ही श्यामा हम ही श्याम
बने थे

कागज कलम दवात लेकर
कुछ लिखने की कोशिश की है
हर सफे पर बार-बार बस
तुम ही तुम नज़र आते हो

सच बतला दो तुम मेरे
प्रियतम् हो या हो कोई
जादूगर ।

डा.नीलम.अजमेर

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करवट बदल बदल कर
ख्वाब भी सारे सो गये
तुझ बिन सजना पर नींद
ना आई अँखियों के द्वारे

सावन बीता, भादो बीता
कितने बीते मधुमास रे
मेरे जीवन में तो सजना
तुझ बिन रहा पतझर का वास रे

कितने सूरज तेज हुए
कितने सजे आसमां पे चाँद-तारे
मेरा चाँद औ'सूरज तो तू पिया
जो आया न कभी मिलन द्वारे

करवट करवट रात बीत रही
सिलवट सिलवट चादर पर
कितने दिन सूने बीते
कितनी जागती रही रातें

कब तक दीदार ना होंगे
कब मिलन यामिनी के
मधुमास ना होंगे
अब तो दरस मिले सांवरिया
कुछ तो मन को राहत मिले मेरे।

डा.नीलम.अजमेर

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विधा --मुक्त
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सृष्टि के आरंभ से गवाह
कण कण है
रचनाकार की रचना मैं
नारी ही रही

बिना नारी के नर अधूरा
कर ना सकता नव संतति
निर्माण
सृष्टि सरंचना में सृष्टा को
थी मेरी ही कामना

शिव भी शव हैं शिवी बिन
नर निष्काम नारायणी बिन 
ब्रह्मा भी अपूर्ण ब्रह्माणी बिन
देवों का अस्तित्व भी नगण्य
रहा सदैव देवियों बिन

आकाश भी है निराधार
धरती बिन
सागर की रसता में सरिता का समर्पण
सूरज की गरिमा किरण हैं
चाँद की महता चाँदनी बनी

फिर भी नर की नज़रों में
नारी की कीमत कुछ नहीं
पग की धूली मान सदा
दुत्कारी गई

कभी भरी सभा में केश
पकड़ खींची गई
कभी सरे बाजार आबरु लूटी गई

मौन तब भी वृद्ध संस्कार थे
मूक आज की संतती है 
चंद मशाल जलाकर, कुछ
सवाल उछलते हैं

पर वो भी तो बस सवाल 
खड़ा करते हैं
समाधान में गर नर प्रण कर
घर में ही देने लगे मान नारी को
तो स्वर्ग धरा पर उतर आयेगा
नारी को वास्तविक सम्मान
मिल जायेगा ।

डा.नीलम.अजमेर
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मंजिल कहाँ किसे पता
बस रास्ते चलते हैं
आते-जाते लोग भी
इन पर चलते हैं

कहीं सीधे -सरल सरपट 
दौड़ते 
कहीं अनेक पेचदार मोड़
लिए होते हैं

कहीं रास्तों के सीने
जख्मों से भरे पड़े हैं
कहीं रक्तरंजित रुह से
जानलेवा होते हैं

कहीं रास्ते अकेले चलते
कहीं भीड़ लेकर
कोई जन को साथ लिए
कोई तंत्र की राह चले

बस चलते चले जा रहे
रास्ते 
लोह पटरियों ,कोलतार ,रेत से सने 
अनवरत् बिना थके।

डा.नीलम.अजमेर.
स्वरचित

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आओ बच्चों तुम्हें बताएँ
शिक्षा जीवन ज्ञान की
जीवन जीना जिसको कहते

वो जीवन क्या जीना है

सुबह से उठना नित्यकर्म करना/ 


पुस्तक का बोझ उठा चंद घंटों आखर ज्ञान लेना
फिर घूम फिर कर सो जाना

आचार ,व्यवहार ,संस्कारच्युत
शिक्षा पाकर भी अनपढ़ ही
रहना है ,तो वो शिक्षा किस काम की

बच्चो शिक्षा में थोड़ा सा
व्यवहार का रस घोल कर
आचार संस्कार के तड़के से संवार कर जो ज्ञान पाओगे
वही शिक्षा सच्ची शिक्षा होगी।।

डा.नीलम

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चंद हाइकु.......*मुसाफिर*पर

1)

मुसाफिरखाना
आना जाना लगे है
दृश्य जगत्

2).. 
मैं मुसाफिर
सारा जग सराय
जीवन मेला
3)... 
आत्मा मन की
शरीर सराय में
मुसाफिर है।

4)...
जीवन पथ
मुसाफिर रुह है
नश्वर जिस्म।

. डा.नीलम..अजमेर।
स्वरचित

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बहुत दिनन के बाद 
मेरे घर इक बिटिया आई
बरसो से जो रुठी बैठी थी
वो खुशी हुमहुमा कर लौट आई

थी जमाने भर की बर्बादियां
मेरी झोली में
बंजर कह कह के घोंपे थे
खंजर मेरे अपनों ने मेरे सीने में

दिन बेबसी की रात से बीते
रातें बीतती कारी अंधियारी
जैसे ज़हरीली नागिन -सी
डसती

इक दिन इक सितारा टूट
झोली में गिर गया
फिर फूलों की महक ,हवा से चपलता,

भंवरों से गुंजार ले लिया

चाँद से शीतल चाँदनी लेकर
सूरज की रौशनी ले आया
सबकुछ जब इकसाथ मिल गया ,

स्वरुप बना डाला

वही स्वरुप फिर बनी सुंदर
सृष्टि की छवि,बनी बिटिया 
लाडली मेरी गोद फलीभूत हुई/ 


धरती की सारी खूशियाँ
सिमट मेरे आँगन आ गई।।

डा.नीलम.अजमेर.
स्वरचित

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खुल कर कहीं बादल बरस गया
कहीं गरज कर भी धरा को तरसा गया

अबके सावन मेरे अंगना हुम हुमा के आ गया
फूल बेल बूटे संग दिल की
दरो-दीवार भी भिगो गया

दिल की गलियों में यूं प्रेम का सैलाब उमड़ पड़ा
यादों का लिफाफा सहेज रखा था/ भीग भीग उसका
आखर गया।।

डा.नीलम

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कलम
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समय की रेत पर

काल की कलम चले
कब ,कहाँ,क्या,कैसे
बांच जाये

बह गई रेत पर तो
कदमों के निशां छोड़ आये
रेला इक लहर का आये
सगरे निशान मिटा जाये

लाल स्याही में डूबे तो
रक्त की गाथाएँ लिख जाए
नील वर्ण में डूब कर
हलाहल संस्कृति रचा जाए

स्वेत पत्रक पर पाक पावनता के चित्र आंक दे
गुलाबी रंग हिना की खुश्बू
में रचे तो प्रीत की पाती लिख जाए

प्रलय में कलम यही पतवार
बनती है
विपदा आ जाये तो काल-कराल की तलवार बनती है

कागज की सड़क पर 
वक्त की कलम सरपट
दौड़ी जाये
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सुख की चाहत सबको है
दुख को चाहे न कोई
सुख संग गर ,हर कोई
दुख चाहे तो फिर सब
समान होई

दुनिया में हर चीज समान
पर कोई न चाहे अपना 
अपना दाय

अंधेरों में रहने वालों को
कब रौशन चराग मिलते हैं
उजालों की धरती पर
कब उनके पाँव पड़ते हैं

महल बनाने वाले हाथों में
कब अपनेघर के तालेहोते हैं
अन्न उपजाने वालों के तो
फाको से पाले पड़ते हैं

छत बना कर लोगों को जो
धूप-छाँव से बचाते हैं
वो खुद सर पर दुख की 
छतरी ताने रहते हैं।।

डा.नीलम..अजमेर.
स्वरचित

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*मिलन*
---------
धरती से आकाश का मिलन

बरखा की बूंदो में छलकता
आकाश की प्यास बुझान को 


धरती सागर रीता करदेती है

मिलन फूल का भंवरे से
कितना गहरा गूढ़ रहा
प्यास प्रीत की खातिर
बंद पंखूड़ी में होता है

मिलन समर्पण का तीव्र 
शलभ चराग का होता है
क्षण मात्र के सुख खातिर
अग्नि स्नान कर जाता है

सागर के प्रेम में डूबी
नदियां तो हर बंधन तोड़ जाती हैं / बाधाएं पर्वत सी
कितनी सबको लांघ आती हैं

प्रीत की बांसूरी मोहन की
जब राग प्रेम का गाती है
ग्वाल बाल, गोपिया सब
राधा संग लोक-लाज त्याग आतीं

मिलनयामिनी में निशा जब
अंधकारमय होता है
तब कोई हीर,शीरी,लैला,साहिबा
पिय से मिलने आती है।

डा.नीलम

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बहत्तर साल पुरानी आजादी हो गई
कुछ कुरीतियों,अनीतियों,भ्रष्टता
की झुर्रियां जिस्म पर छा गई

आजादी के दिवानों की दिवानगी चौराहों पर दिख रही
एक गिलास शराब ,या चुटकी भर हेरोईन में मदमस्त हो रही

इंकलाब के नारों के बदले
आरक्षण के नारे हैं
देश बूढ़ा नहीं हुआ ,पर युवा
पस्त हो गया

नारी का सम्मान सरे बाजार लुट रहा 
बालक बालक हवस में डूब रहा

घर में श्वान -कक्ष सजा कर
उसे गरिष्ठ भोजन परोस रहे
वृद्ध माँ- बाप सर पर बोझ रहे
निकाल घर से बाहर वृद्ध- आश्रम में छोड़ दिया

आजादी का कितना मजाक धनवान उड़ाता है
खुलेआम पेज थ्री का किरदार बनकर सर घमंड से
ऊँचा कर रहा

आजादी का खुला प्रचार नारी का बदन भी कर रहा
कम से कम कपड़ो में जिस्म नुमाया कर रहा

किस तरह आजादी का बखान हम करें
बहत्तर वर्ष के आजाद भारत
में आतंक का साया मंडरा रहा

स्वतंत्रता का असल मकसद मानवता वाद था
सर्वधर्म सहिष्णुता का भाव
धमनियों में रक्त बन बह रहा था

आज मगर धर्म के नाम पर
लड़ने लगे नेता देश के
सरदार पटेल के प्रयास को
तोड़ने लगे

देश से सर्वोपरि उनके खींसे*
हो गये 
बदन नोचते नोचते कफन बेचने लगे ।

डा.नीलम.अजमेर
स्वरचित.


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जिंदगी तुझसे क्या अपेक्षा करुँ
जन्म -मृत्यु के तटबंधों में
बहता है मेरा जीवन

कालिंदि सी लहरों सा 
कभी इठलाता बलखाता
बहता है
कभी उफान पर आजाए तो
तटबंध त़ोड़ सैलाब बन सब तहस-नहस कर जाता

बोल जिंदगी तुझसे क्या अपेक्षा रखूं
धरती -आकाश के मध्य
पंचतत्व से सज्जित जिंद मेरी है

अग्नि सी दहकती है,
हवा सी बहकती है
जल की रवानी है
धैर्य धरा का सा लेकर
शून्य सी मेरी जीवनी है ।।

डा.नीलम.अजमेर
स्वरचित

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पीर घनी जब होती है
हृदय पर्वत से तब 
बर्फ सी पिघलती है
तोड़ चक्षुबंध पलक कोर
से आँसू बन बरसती है

जब आह्लादित मन होता है
गला हर्ष से रुंध जाता तब
भावों के मोती बन जो
बूंद पलक से गिरती है वो 
आँसू होती है

अति उत्तेजना में जब शब्द
नम हो जाते हैं तब आँखों
की भाषा चश्मतर हो जाती है ,वो आँसू कहलाती है

विरहिन की पीर ,सुहागिन की खुशियाँ जब जब परवान चढ़ती है तब एक पलक में
रुदन फूटता ,दूजे में हंसी मुस्काती है ।

डा.नीलम.अजमेर
स्वरचित
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ कितने कितने प्रश्न चिह्न हैं
तेरे मेरे बंधन पे
हैं चंद बेअसर पहरे भी 
तेरे मेरे बंधन पे

कुछ परिवार के हैं
कुछ हैं अदृश्य समाज के
कुछ नैतिकता के नाम चढ़े
कुछ पे संस्कार अड़े हैं

त्रेता में मैं सीता,तुम मेरे राम रहे
द्वापर में मैं राधा,श्याम सलोने थे तुम मेरे

मैं मीरा दिवानी भटकी बन-बन बंधन निभाने
मैं ही लैला, मैं ही शींरी,
मैं सोहनी,साहिबा भी मैं ही

ढोला की मरवण मैं थी
रतनसेन की पद्मिनी 
गालिब के शेरों में थी
मीर की थी गज़ल मैं ही

आज भी जानी अंजानी
कभी ज़हर खाती हूँ
कभी फांसी पर लटक कर
देह त्याग जाती हूँ

कुछ हिम्मत गर कर लेती हूँ तो आनर कीलिंग का शिकार जन्मदाता के हाथों हो जाती हूँ

फिर भी मैं आती हूँ 
क्यूंकि सृष्टि के आरंभ से किया काल निभाना है मुझको ।

डा.नीलम.अजमेर
स्वरचित

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साँसे पिछली साँसों के
पल पल का हिसाब मांगती 
हैं/अच्छे थे या बुरे बस यादों
में रमना चाहती हैं

कुछ साँसे बचपन की यारों के संग गुजारी थीं 
आते ही याद यारों की बल्लियों सा दिल उछलता है
और साँसे हल्के से मुस्करा जाती हैं

वो मौहल्ले की बंद खिड़कियों की हल्की सी झिरी से झाँकते नयनों से
नजर मिलाने को दिल की धड़कन थाम कर घंटो टकटकी लगाये रखने की
आहट जब सुन जाती है
साँसे फिर गजब कर जाती
मानो अभी निकल कर दिल से हाथों में आ जायेंगी

अब साँसे कुछ कुछ थमने 
सी लगी हैं 
दिल की गलियों में कुछ उम्र की झुर्रियाँ सिमटने लगी हैं
अब साँसों को थामना पढ़ता है
बार बार सहारे तलाशने पढ़ते है

आगे चलती जरुर हैं
पर भागती पीछे हैं

डाःनीलम कौर



इक उड़ान परिंदे की
इक कल्पना की उड़ान
दोनों में फर्क बस इतना सा
इक आसमान तक
इक आसमां से ऊपर

पर पंछी के दिखते हैं
पर कल्पना पंखहीन
एक हकीकत की धुन पर
एक मजाजी मंजिल तर

एक उड़े अपने दम पर
दूजा है बस आस ख्वाब पर।।

डा.नीलम ,अजमेर

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उम्र के पन्नों में कुछ लम्हे
सुनहरी स्याही से लिखे हैं
कहीं कहीं तो मोती माणिक
से सजे है

खुशियों के वो पल जो 
पतंग की डोर,कंचों की चोट
अंधेरी रात की छुपन छुपाई और जात -पांत से बेखबर
लम्हों को क्षण क्षण जीते हैं
सलमें सितारे उन लम्हों में
जड़ते हैं

कुछ पल रोमानियत के घने
झूलों में रमकते हैं
अधपके वादों की पेंग चढ़ा कर आसमान को छूते हैं
ऐसे पलों में चाँद- सितारे
जड़े हुए रहते हैं

उम्र पचपन की में जब
बचपन को खोते हैं तब,
लम्हें ठहर- ठहर आगे बढ़ते हैं/ कहीं कहीं पीछे आकर
फिर नई राह चुनते हैं
तब लगता है सुनहरे अक्षर
में ये जगमगाते हैं

उम्र के पन्नों पर........

डा.नीलम.अजमेर

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